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अप्रैल 2021

शमशेर बहादुर सिंह से बातचीत

कौशल किशोर

दस्तावेज़

 

 

 

 

बात 1983 की है। कवि व गद्यकार शमशेर बहादुर सिंह का अकसरहाँ लखनऊ आना होगा था। वे आते और यहाँ महीनों रुकते। अजय सिंह का भीकमपुर कालोनी का निवास उनका घर हुआ करता था। हमारे लिए उनसे मिलने, बतियाने, साहित्य पर चर्चा करने का अच्छा अवसर था। लखनऊ से निकलने वाले अखबार 'अमृत प्रभात’ का दफ्तर हमारे मिलने-जुलने का उन दिनों केन्द्र था। यहीं तय हुआ कि शमशेर जी से बातचीत की जाय और वह अलग अलग, टुकड़ों में या फुटकर बातचीत की जगह व्यक्तिगत तरीके से हो। फिर इसे लेकर प्रोग्राम बना, टेपरिकार्डर खरीदा गया, अपने दफ्तरों से हमने छुट्टियाँ लीं और सवालों की एक लम्बी चौड़ी सूची तैयार की गई। वैसे शमशेर जी को सवालों में बाँधना संभव भी नहीं था। फिर भी हमारी कोशिश थी कि शमशेर जी से जो वार्ता हो, वह व्यवस्थित हो और वे विषय हमारे सामने रहें जिन पर हमें वार्ता करनी है। और यह बातचीत 6 व 7 अप्रैल 1983 को हुई।

हमारी बातचीत के कई विषय थे। पहला, 40 के दशक के प्रगतिशील आन्दोलन, उसका प्रभाव, लेखक और संगठन के रिश्ते आदि। दूसरा, कविता का वर्तमान और वर्तमान की कविता। तीसरा, भाषा विवाद खासतौर से हिन्दी-उर्दू विवाद। उन दिनों उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी और उसने प्रदेश में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाये जाने की घोषणा की थी। सरकार द्वारा यह मात्र घोषणा थी लेकिन इससे प्रदेश में उर्दू विरोधी माहौल बन गया था। इस विवाद को साम्प्रदायिक हवा दी जा रही थी। लॉकडाउन के दौरान की यह उपलब्धि है कि पुरानी फाइल में वार्ता के दो खण्ड लिखित रूप में प्राप्त हुए। उस वक्त शमशेर जी ने जो विचार रखे, वह आज तकरीबन तीन दशक से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी मौजू हैं। मंगलेश डबराल, मोहन थपलियाल, अनिल सिन्हा, अजय सिंह और कौशल किशोर इस वार्ता में शामिल रहे। वार्ता के संयोजक थे - कौशल किशोर। गौरतलब है कि इस वार्ता में शामिल मोहन थपलियाल, अनिल सिन्हा और मंगलेश डबराल अब इस दुनिया में नहीं हैं। वार्ता को जीवन्त बनाने में इनकी भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। मंगलेश डबराल तो अपने सवालों को लिखित रूप में ले आये थे। यहाँ प्रस्तुत है शमशेर जी से की गयी वार्ता।

 

लेखक, संगठन और प्रगतिशील आन्दोलन

 

प्रगतिशील आंदोलन की हिंदी में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शायद ही किसी आंदोलन ने हिंदी को इतना प्रभावित किया हो।

शमशेर: भारत की कई भाषाओं पर इसका प्रभाव रहा है, सिर्फ हिंदी पर ही नहीं।

उसका मल्टीकल्चरल प्रभाव दिखता है। आप अपने लेखन के आरंभिक दिनों में इस आंदोलन से जुड़े। वे क्या परिस्थितियां थीं जिसकी वजह से आप मार्क्सवाद, कम्युनिस्ट पार्टी और जो प्रगतिशील आंदोलन था, उसकी ओर आकृष्ट हुए? आपकी कविता, चिंतन, दृष्टिकोण पर इसका क्या प्रभाव हुआ? आप तो बम्बई कम्यून में भी रहे शायद।

शमशेर: शायद नहीं, मैं बम्बई कम्यून में पूरी तरह रहा। कम्युनिस्ट पार्टी का, मेरे ख्याल में, वह सुनहरा दौर था। हिंदी व उर्दू के ही नहीं अन्य भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी आदि के नए और उदीयमान लेखक, कवि आदि उन दिनों बम्बई में इकट्ठा थे। उनमें अधिकांश प्रगतिशील आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। नई पत्र-पत्रिकाएं वजूद में आ रही थीं। हिंदी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बंगाली में भी इसका अच्छा असर था। इस सब का केंद्र कम्युनिस्ट पार्टी या कह लीजिए उसके तत्वावधान में या प्रभाव में, पूरी तरह से नहीं कह सकते कि उसी के द्वारा संचालित बल्कि उससे बहुत गहरा असर लेते हुए यह प्रगतिशील आंदोलन था। इस आंदोलन में ऐसे बहुत से लेखक शामिल रहे, जो समझते थे कि यह कम्युनिस्ट पार्टी की ही विरासत नहीं है। यह आंदोलन सभी प्रगतिचेता लेखकों, कवियों का आंदोलन था जिसके पीछे प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे लेखक थे। जब-जब यह किसी खास पार्टी की जेब में गई, इसका तेजी से ह्रास हुआ। इसकी साख गिरी। इसमें फिराक, जोश मलीहाबादी, मजाज शामिल रहे। मुझे नहीं मालूम कि मजाज कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे या नहीं लेकिन इन्हें पार्टी का बहुत बड़ा हमदर्द कहेंगे। उस समय सन 42 में पार्टी पर से प्रतिबंध हटा था। दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ। रूस उसमें शामिल हुआ और यह युद्ध एलाइज की जंग बन गया। कम्युनिस्ट पार्टी ने इस लड़ाई का समर्थन करने का आह्वान किया था क्योंकि उस समय फासिज्म और गैर फासिज्म के बीच की लड़ाई को मुख्य माना गया। इस युद्ध में फासिज्म की हार के साथ जनवादी मोर्चे की जीत और बहुत से संघर्षशील देश, जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे, उनका भविष्य जुड़ा था। रूस की जीत से यह चीज जुड़ी हुई थी और उसकी हार से उनका भविष्य दूसरा हो जाता। कम्युनिस्ट पार्टी का अध्ययन था और तथ्यों से यह साबित हुआ कि फासिज्म की योजना यह थी कि जर्मनी से हिटलर और जापान के तोजो, एक पश्चिम से दूसरा पूरब से अपनी सेनाएं बढ़ाते हुए दिल्ली में हाथ मिलाएंगे। स्टालिनग्राड के बाद इन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। सारी दुनिया जानती है कि स्टालिनग्राड शहर के घर, गली और प्रत्येक मकान से रूसी सैनिकों ने लड़ा और उनके मंसूबों को शिकस्त दी।

इन तमाम परिस्थितियों का आपकी कविता तथा चिंतन पर क्या असर पड़ा?

शमशेर: कम्युनिस्ट पार्टी का यह जो स्टैण्ड था, वह मेरे मन पर गहरा प्रभाव अंकित कर रहा था। पार्टी से गहरा जुड़ाव हो चुका था। पार्टी-सदस्यता के उम्मीदवारी काल (प्रोबेशन पीरियड) को पूरा करने के बाद 45-46 के आसपास मुझे पार्टी कार्ड मिला। उस समय बम्बई में जो कम्युनिस्ट पार्टी थी, वह संगठनात्मक अर्थ में राष्ट्रीय कांग्रेस का ही अंग थी। कांग्रेस की वर्किंग समिति में पीसी जोशी आदि सदस्य थे। ये लोग सन 42 के आंदोलन तथा सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ थे क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी उनके खिलाफ थी। उन दिनों सोशलिस्टों कम्युनिस्ट पार्टी की जानी दुश्मन बनी हुई थी और सही अर्थ में सन 42 का आंदोलन सोशलिस्टों के कंधों पर ही चल रहा था। तमाम श्रेय वे ही लिए जा रहे थे। कांग्रेस पार्टी के अधिकांश नेता जेल में थे और पॉलिसी के दौर पर वे भी तोडफ़ोड़ और 42 के आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। बाद में जब वे जेल से रिहा होकर आए और उन्होंने देखा कि 42 के आंदोलन को सारा देश पूज रहा है और ये नेता ही अग्रणी हैं, ऐसे में पंडित नेहरू ने इस आंदोलन के दायित्व को अपने कंधों पर लेने की घोषणा की। इसके बाद उन्होंने कम्युनिस्ट नेताओं को कांग्रेस से निकाला। इस संबंध में गांधी और जोशी पत्र व्यवहार चला। जोशी आदि कम्युनिस्ट नेताओं का कहना था कि आप लोग गलत कर रहे हैं। हमें आप मत निकालिए। हम इस लड़ाई के अंग हैं। इस लड़ाई के बारे में हमारी अपनी रीडिंग है। राष्ट्रीय आंदोलन में हमारी भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

लेकिन सवाल वही है कि इन सब का आपकी कविता पर क्या असर पड़ा?

शमशेर: इसका डायरेक्ट असर आप देखते हैं - नाविक विद्रोह। कम्युनिस्ट पार्टी के पत्रों के माध्यम से, और बम्बई में पार्टी की सभाओं और रैलियों में जाकर मैं उन दिनों की हलचल को देख चुका था। हालांकि वर्किंग क्लास या ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता की तरह काम करने का मुझे मौका नहीं मिला। फिर भी अन्य लेखकों के साथ उन स्थलों, पार्टी कार्यक्रमों तथा कार्यकर्ताओं के उत्साह व स्प्रिट को देखने का मौका मिला था। बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी की सभा में साठ हजार लोग डांगे को सुन रहे हैं। यह ऐसा माहौल था कि मराठी पवाड़े, उर्दू नज्म आदि का मुझ पर असर हो रहा था तथा शैलेन्द्र, कैफी आजमी, सरदार जाफिरी, साहिर आदि आग-आग थे। इन्हीं दिनों जोश ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'वक्त की आवाज’ लिखी थी। यह माहौल मुझे प्रभावित कर रहा था। यही दौर था जब मैंने 'वाम वाम वाम दिशा समय साम्यवादी’ और 'बात बोलेगी, हम नहीं’ जैसी कविताएं लिखी। पार्टी के विचार तथा विश्लेषण जो पत्रों के सम्पादकीय के माध्यम से आ रहा था, मेरी समझ को ढाल रहा था।

नाविक विद्रोह और वरली के किसानों पर भी तो आपने लिखा है।

शमशेर: हां, इन सब पर। साथ ही 'माई’ (श्रीमती कल्याणीबाई सैयद, प्रसिद्ध कांग्रेस कार्यकर्ता जो अन्दर में समर्पित कम्युनिस्ट, दिसम्बर 1945 में दिवंगत) पर। इनक साथ 'ग्वालियर के मजूर’ पर भी लिखा।

शमशेर जी, मुंबई में उन दिनों जो राजनीतिक आंदोलन था, वह कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में था, जनवादी चेतना द्वारा संचालित हो रहा था। उस राजनीतिक आंदोलन का साहित्यिक-सांस्कृतिक स्वरूप क्या था? उन दिनों के राजनीतिक आंदोलन और साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन के बीच क्या अंतरसंबंध था?

शमशेर: इस संबंध को व्यक्त करने वाली इन दिनों एक संस्था थी 'इप्टा’। यह एक सांस्कृतिक मंच था। पीसी जोशी स्वयं इसकी गतिविधियों में हिस्सा लेते थे, सुझाव देते थे तथा नाटकों के रिहर्सल आदि में भाग लेते थे। इनमें जो पात्र थे, वे अधिकांश मजदूर होते थे। इनको मंच पर लाकर सांस्कृतिककर्मी बनाया गया था। इसके साथ इसमें नेमीचंद जैन, उनकी पत्नी रेखा जैन तथा कुछ लोग गुजरात तथा बंगाल के भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे। बलराज साहनी 'इप्टा’ में तो हिस्सा नहीं लेते थे लेकिन पार्टी के बहुत बड़े हमदर्द थे। शायद सदस्य भी रहे हों। इलाहाबाद में जब इप्टा का 'जादू की कुर्सी’ ड्रामा खेला गया, उन्होंने लीडिंग रोल किया था और वह भी 102 डिग्री के बुखार में।

हां, इप्टा का तो यहां तक प्रभाव था कि देवानन्द भी इससे जुड़े रहे, यह बताया जाता है।

शमशेर: इसकी ज्यादा जानकारी नहीं। हां, सन् 44 में पहली बार मैं अपने श्वसुर के इलाज के लिए बम्बई गया था। वहां नरेन्द्र शर्मा, रमेश सिन्हा आदि ने इप्टा का शो देखने के लिए मुझे आमंत्रित किया था। वह इप्टा का पहला प्रदर्शन था। उन्होंने रामायण के एक दृश्य 'ताड़का वध’ और 'काल ऑफ द ड्रम’ दिखाया था। इस प्रदर्शन को देखने के लिए बम्बई के लीडिंग कलाकारों को बुलाया गया था। क्रांति क्यों नहीं हो पाई, इसे तो राजनीति के जो पंडित हैं, वही सुलझा सकते हैं या बता सकते हैं क्योंकि उस पक्ष में राजनीतिक विश्लेषण की बात है। अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग विश्लेषण हैं। हमारी तरफ से, प्रगतिशील आंदोलन की तरफ से विश्लेषण करने वालों में रामविलास शर्मा, प्रकाश चंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुरोधा थे। इनकी आपस में ही काफी 'तू तू मैं मैं’ चलती थी। इसलिए मैंने कान पर हाथ रख लिया कि जब इनके आपस में ही एकमत नहीं हो रहा है तो इतर जन हैं, जो कविता रचते हैं या कहानी लिखते हैं तो वे अपनी क्या टांग अड़ा सकते हैं।

लेकिन साहित्य की वह धारा क्यों बिखरने लगी?

शमशेर: देखिए, कार्यकर्ता चाहे सांस्कृतिक हो या राजनीतिक, अगर उसे आत्मसम्मान नहीं देते तो वह कभी निष्ठा से अपना काम नहीं करेगा। सन् 48 के बाद जितने साहित्यकार, कलाकार आदि थे इनकी अवमानना या इनका मूल्य कहिए, एकदम गिर गया। वे व्यंग्य के शिकार बनाये जाते। राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता इन्हें देखकर दूर से ही कहने लगे थे 'कलाकार लोग आ गए’। इस तरह से लेखकों में हीनभावना या हम क्या हैं, हमारा क्या वैल्यू है आदि भाव उभरने लगा। इसमें जो चतुर लोग थे, जो पार्टी लाइन आई, उसी को छन्दबद्ध किया या उसी के आधार पर कहानी लिख दी। इस तरह के कई लोग थे। पहाड़ी भी थे। पहाड़ी से मैंने कहा कि हर लाइन पहले सेल में आती थी, डिस्कस होती थी। सेल की रिपोर्ट सेन्टर में जाती थी और अंतिम विश्लेषण-बहस के बाद ही कोई लाइन तय की जाती थी। लेकिन इस मर्तबा ऊपर से आई है। पहाड़ी ने कहा यह तो ऊपर से आदेश है, मानना तो पड़ेगा ही। लेकिन इस तरह के आदेशों से मैं सहमत नहीं था। कहा भी कि ऐसी लाइन मैं स्वीकार करूंगा जिसे मेरी बुद्धि स्वीकारें तथा जिसके डिस्कशन का एक अंग मैं होऊँ। तभी मैं मानूंगा। यहां से मैं अलग होता हूँ। मेरा लेखन 24-25 से शुरू हो जाता है। पार्टी में तो बाद में आया। उसी समय से मैं काशंस था कि मुझे कवि बनना है। बहुत-बहुत कांशस था। मैं बहुत से लेखकों-कवियों को शिल्प और लेखन की दृष्टि से पढ़ता था। मेरे शुरू के संस्कार पहले गांधीवादी, फिर नेहरूवादी, उसके बाद जोशीवादी थे। इन तमाम स्थितियों से गुजरने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंच गया था कि ये पार्टियां लेखक की समस्या को नहीं समझ सकती। इसका पहला उद्देश्य होगा कि अपनी पार्टी लाइन, जो हमेशा बदलती रहती है, पर लेखकों से काम लें। कला और संस्कृति की समस्याएं क्या है? उनकी जरूरतें क्या हैं? कैसे वे रची जाती हैं? कैसे उनका उद्भव होता है? क्या उनमें तत्व है, जो उन्हें प्रेरित करते हैं? क्या है जो उन में विघटन लाते हैं? इत्यादि चीजों के बारे में पार्टी की कोई समझ नहीं है। मैं दृढ़ता से इस नतीजे पर पहुंच गया था।

तो इसकी वजह क्या कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक नीति में रही है?

शमशेर: पार्टी में कोई नहीं था सिवाय पीसी जोशी के। वे चित्रकार को भी कहानीकार को भी, कवि को भी, हिंदी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी सभी भाषाओं के लेखकों को प्रभावित कर रहे थे। सबसे काम लिया। मुझ तक से जिससे दूसरा कोई काम ले नहीं सकता था। उनके साथ मैं मुश्किल काम को भी करने के लिए तत्पर हो जाता था जबकि अन्य किसी के आदेश से मैं तत्पर हो ही नहीं सकता था। रणदिवे की लाइन के बाद पीसी जोशी तक को भूमिगत रहना पड़ा। यह लाइन ही ऐसी थी कि लोग जोशी के जान के ग्राहक बन गये। इस हालत में पूरी पार्टी बिखर गई। जितने रंगकर्मी थे, उनमें कुछ ग्वालियर चले गए। कुछ कोलकाता और नागपुर चले गए। यह 48 से 52 तक की बात है और इन दिनों मैं पार्टी से तटस्थ-सा हो गया था। फिर भी मेरा मार्क्सवाद के प्रति लगाव रहा। पार्टी के लिए भी मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। मुझे पूरी उम्मीद थी कि ये मार्क्सवादी पार्टियां ही आगे कुछ कर दिखाएंगी।

'नया साहित्य’ क्या कोई आंदोलन था?

शमशेर: नहीं, यह पत्रिका थीं। उन दिनों तक इसका पहला अंक प्रकाशित हो चुका था। उसमें स्थानीय रूप से नरेन्द्र शर्मा, अमृतलाल नागर तथा रमेश सिन्हा थे तथा बाहर से अर्थात इलाहाबाद से प्रकाशचंद्र गुप्त, आगरा से रामविलास शर्मा, दिल्ली से शिवदान सिंह चौहान थे। मैं वहां कार्यालय संपादक हो गया। कविता का संपादन नरेंद्र शर्मा के जिम्मे था। कहानी अमृतलाल नागर तथा राजनीतिक मामलों को रमेश सिन्हा देखते थे। लेख आदि का संपादन और बाकी सहयोग अन्य संपादकगण करते थे। इसमें पहाड़ी (रामप्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी) भी थे। इसी के समानांतर उर्दू में 'नया अदब’ निकला था तथा गुजराती में भी इसी तरह की पत्रिका। सोचा यह गया कि इसका रजिस्ट्रेशन करा लिया जाये। उन दिनों मोरारजी देसाई बम्बई के होम मिनिस्टर थे। रजिस्ट्रेशन के सिलसिले में उनसे मिलने वालों में नरेंद्र शर्मा और अमृतलाल नागर के साथ मैं भी गया था।

शमशेर जी, आजादी के बाद यह प्रगतिशील आंदोलन मंद पड़ गया। शार्प नहीं रहा और फिर धीरे-धीरे बिखर गया...

शमशेर: धीरे-धीरे नहीं बल्कि तेजी से यहां आंदोलन बिखरा...

इसकी आप क्या वजह मानते हैं? कम्युनिस्ट आंदोलन की जो सांस्कृतिक धारा थी, उसके आप एक प्रमुख हिस्से रहे हैं तो क्या वजह रही हैं तथा कहां क्या गड़बड़ी हो गई जिससे ना तो वह धारा ही आगे बढ़ पाई और न देश में क्रांति की हुई?

शमशेर: क्रांति क्यों नहीं हो पाई, इसे तो राजनीति के जो पंडित हैं, वही सुलझा सकते हैं या बता सकते हैं क्योंकि उस पक्ष में राजनीतिक विश्लेषण की बात है। अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग विश्लेषण हैं। हमारी तरफ से, प्रगतिशील आंदोलन की तरफ से विश्लेषण करने वालों में रामविलास शर्मा, प्रकाशचंद्र गुप्ता, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुरोधा थे। इनकी आपस में ही काफी 'तू तू मैं मैं’ चलती थी। इसलिए मैंने कान पर हाथ रख लिया कि जब उनके आपस में ही एक मत नहीं हो रहा है तो जो इतर जान हैं, जो कविता रचते हैं या कहानी लिखते हैं तो वे अपनी क्या टांग अड़ा सकते हैं।

शमशेर जी, तो इसका अर्थ यह कि आजादी के बाद प्रगतिशील आंदोलन के बिखराव के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की नीति की मुख्य तौर पर जिम्मेदार रही है?

शमशेर: मैं इसको इन शब्दों में नहीं रखूंगा कि कम्युनिस्ट पार्टी की नीति बिखराव के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। कुल मिलाकर इस तरह की बात आती है जरूर।

हमारे कहने का मतलब है कि पहले जैसे पीसी जोशी ने तमाम लेखकों-कलाकारों को एकजुट करके रखा था, जैसा कि आपने पहले बताया, लेकिन बाद में रणदिवे की लाइन के आने के बहाद वाद-विवाद काफी तेज हो गया। लोक एक दूसरे के विरुद्ध खड़े दिखाई दिए। इस तरह हमारा साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन जो था, वह बिखरने लगा। तो क्या इसके लिए कम्युनिस्ट पार्टी की नीति ही मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं रही है? क्या आप नहीं मानते कि सबसे खतरनाक रोल पीसी जोशी ने अदा किया?

शमशेर: पार्टी के बहुत से थिंकर्स हैं, वे यही एंगल रखते हैं। जैसा आप लोग कह रहे हैं कि सबसे खतरनाक लाइन पीसी जोशी के बारे में कहते हैं कि उनकी लाइन सुधारवादी, संशोधनवादी, समझौतावादी आदि रही है। मार्क्सवाद के कुछ अपने क्लासिक्स हैं, उसके टेक्स्ट हैं। सभी उनका अध्ययन करते हैं तथा उदाहरण देते हैं। हमारे यहां ही नहीं, यह 'तू तू मैं मैं’ रुस और चीन के बीच भी है। यूरोप की पार्टियों के बीच होती है। वहां भी पार्टियां समझौतापरस्त हैं। कभी सोशलिस्ट पार्टी से समझौता करते हैं। फ्रांस में देखिए। हमारे यहां भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। बुर्जुआ पार्टी विशेष तौर से कांग्रेस से कभी मिल कर चलते हैं, कभी हट कर चलते हैं। लेकिन जो आम कार्यकर्ता हैं जिनके पास पैसा नहीं कि वह क्लासिक खरीदे। उसके पास समय भी नहीं कि वह अध्ययन करे। वह ऐसी स्थितियों में कंफ्यूज होता है और आज जितना यह गहरा हो गया है या होता चला जा रहा है, मैं नहीं समझता कि पहले कभी था।

47-58 तक प्रगतिशील आंदोलन हिंदी साहित्य की मुख्यधारा रही है। उसके बाद हम देखते हैं कि यह धारा मद्धिम पड़ जाती है। लेकिन 67 के बाद न सिर्फ देश के भीतर जनता के संघर्ष में तेजी आई बल्कि साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी जनवादी साहित्य, जन संस्कृति, नवजनवादी साहित्य-संस्कृति के नाम से नई प्रगतिशील धारा दिखाई देती है। हम जानना चाहेंगे कि प्रगतिशीलता की यह नई धारा किन अर्थों में पुरानी धारा से भिन्न है तथा इसकी संभावना क्या है?

शमशेर: यह तो हम आपसे जानना चाहेंगे। आजकल के साहित्य को आंखों की वजह से कम पढऩे लगा हूं।

आज के साहित्य को आप पढ़ते तो रहे ही हैं। आपकी रुचि भी रही है और आप ने लगातार संवाद की कोशिश भी की है। इस साहित्य में विशेष तौर से इधर लिखी जा रही कविताओं में आपको क्या खामियां नजर आती हैं अर्थात इनके क्या सकारात्मक पहलू हैं तथा इनकी कमजोरियां क्या हैं?

शमशेर: आप लोगों के संस्कारों से मेरे संस्कार बिल्कुल भिन्न हैं। अपने संस्कारों की वजह से मैं ज्यादा सहानुभूति नहीं उभार पाता या कहिए मेरी दृष्टि इन कविताओं के प्रति कुछ कठोर ज्यादा है। विषय-वस्तु के हिसाब से तो ठीक है। आप मानेंगे कि अधिकांश लेखक मध्यवर्ग-निम्न मध्य वर्ग के हैं। सर्वहारा वर्ग के लेखक तो सीधे तौर पर हैं नहीं। शायद इक्का-दुक्का हों। इधर के कुछ कवियों की रचनाएं बेहतर तो हुई है। उनमें एक स्पष्ट स्तर आया है, हम कह सकते हैं। लेकिन हम पिछले 20 साल का देखें या अकविता के बाद से देखें तो मुख्य तौर से कविता में धूमिल और गजल में दुष्यंत कुमार आते हैं और कोई चमकता हुआ बड़ा नाम नहीं आता है। एक साथ कई नाम आते हैं। गोरख पांडे की रचनाएं अलग कोटि में आती हैं। विशेष तौर से लोकगीतों के अंदाज में लिखे उनके 5-7 भोजपुरी गीतों को हम ले सकते हैं। इसी तरह के कुछ गीत रमेश रंजक के हैं। रमेश रंजक के गीतों के साथ यह है कि गीतों को वही सुनाएं सुनने से जो प्रभाव होता है, वह पुस्तक में पढऩे से नहीं होता।

आज की कविताओं की कमजोरियां क्या हैं? इस पर भी कुछ अपनी बात रखें।

शमशेर: एक चीज है कविता का प्रभाव, उसकी प्रभावकारिता, उसका उसका जोर और दम। जैसा कि धूमिल की कविताओं में है। मुक्तिबोध की कविताओं में है, जटिल होते हुए भी। जो बात कविता कहना चाहती है, उसका जोर आप महसूस करते हैं। कविता में अगर प्रभाव और जोर महसूस नहीं करते, तो उसमें और कहानी में कोई अंतर नहीं है। हमारे जीवन का संघर्ष कहानियों में भी कम प्रभावकारी ढंग से नहीं आता है। ऐसा ही प्रभाव आप मुक्त छंद कीकविता में रख देते हैं - एक या डेढ़ पेज की कविता में। अपनी प्रभावकारिता में इसे होड़ लेनी पड़ती है कहानी या उसके टुकड़ों से। बहुत सी ऐसी कहानी आई है जो कवित्वमयता या काव्य की जो प्रभावकारिता है, उसका लाभ लेकर चलती है। मेरी राय में कविता मात्र वही नहीं है कि आपने कहीं का प्रभाव लिया है और उसे व्यक्त कर दिया है। मेरे ख्याल में आप कविता न लिखकर हो सकता है कहानी लिखते। कहानी लिखने के लिए समय या अवकाश अधिक चाहिए। कहानी में दूसरे तरह से जुटना पड़ेगा जबकि कविता में थोड़े में अपनी बात रख देते हैं। कविता मैं उसे मानूंगा जो पढऩे के बाद आप की स्मृति में, मन में उसके शब्द या दृश्य उमड़े-घुमड़े, गूंजे। ऐसी कोशिश करना कि यह बात कविता में पैदा हो जाए, पिछले 20-25 वर्षों में करीब बंद सा हो गया है। पहले  कवि ऐसी कोशिश करते थे कि उनकी रचना सुनी जाए तो श्रोताओं के दिलों में वह घुमड़े। उसकी अनुगूंज लेकर वह जाए। एक उदाहरण मैं दूं। एक बार मालवीय जी चंदा लेने लखनऊ गए थे। सन 20 की बात होगी। वहां लखनऊ के कवि चकबस्त ने उनका स्वागत किया। चंदा की विषय-वस्तु को लेकर चकबस्त ने एक नज्म पढ़ी जिसमें यह कहा गया था 'फकीर कौम के आये हैं, झोलियां भर दो’। यह मिसरा इक्का-टांगे वालों तक में फैल गया. कविता में जिस विषय वस्तु को लेकर चलते हैं, हम चाहते हैं कि वह जनता में फैले, हृदयंगम हो।

वह क्या चीज होती है, जो रचना को रचना बनाती है?

शमशेर: इसका उत्तर अलग-अलग कवि अलग-अलग ढंग से देंगे। मेरा जो अनुभव या अनुभूति है, उसी हिसाब से मैं इसका जवाब दे सकता हूं। मैं कहूंगा निराला और मुक्तिबोध के बाद वह चीज छूट गई। मुक्तिबोध उस चीज को लाए, बड़े कष्ट से, संघर्ष से, उद्यम से... एक हद तक ले आये। लेकिन वे कम उम्र में चले गए जबकि वे ठीक अपनी रौ में लाए थे। उन्होंने काफी संघर्ष किया और उसी संघर्ष में उनकी शक्तियाँ क्षीण हो गई। आगे जी पाना उनके लिए संभव नहीं था। मुक्तिबोध ने काम के लिए अपनी शक्तियों को संयोजित करने, उसे जुटाने की कोशिश नहीं की। बीड़ी और चाय चल रही है तो हफ्तों यही चलती रही। अंदर के शरीर को जर्जर करने के लिए यह काफी था। गरीब से गरीब आदमी भी बीड़ी व चाय ना पीकर चीनी सैनिकों की तरह से सिर्फ सूखे चने और पानी ही खाए पिए तो शरीर अंदर से इतना जर्जर नहीं होगा। मेरे कहने का मतलब यह है कि एक सजग कवि जो अपनी सब शक्तियों से काम लेना चाहता है, वह शक्तियों को तैयार करता है वह उसके काम में योग दें।

 

वरिष्ठ कवि और 'रेवान्त’ के संपादक। लखनऊ में रहते हैं। यह बातचीत सैंतीस वर्ष पूर्व हुई थी। इसका एक खंड और है जो हम नहीं छाप सके। कौशल किशोर ने इतने लंबे समय तक सारे टेप और नोट्स सुरक्षित रखे।

संपर्क- मो. 8400208031

 


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