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अप्रैल 2021

आप सचमुच कविता के घर में रहते थे (मंगलेश डबराल स्मरण)

पंकज चतुर्वेदी

स्मरण-एक

 

(एक)

 

उपनिषद् में एक कथन है : 'जो नहीं जानता, वह जानता है और जो जानता है, उसको तो पता ही नहीं है।’

एक अंदाज़ था, जो बरबस मिर्ज़ा की याद दिलाता था :

 

''हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे

बेसबब हुआ 'ग़ालिब’  दुश्मन आसमाँ अपना!’

 

अपने साथी कवियों के संदर्भ में आप बार-बार कहते थे: ''हममें-से कोई बड़ा कवि नहीं बन पाया!’’ यह सोचते समय निराला से रघुवीर सहाय  तक अनेक पूर्वज कवि आपके ज़ेहन में आते होंगे, मगर आपकी कविता और आलोचनात्मक गद्य के साक्ष्य से कहें, तो इनमें प्रमुख थे मुक्तिबोध ।

मुक्तिबोध ने अपने समूचे वजूद को दाँव पर लगाकर कविता ही नहीं, बल्कि विभिन्न विधाओं में जो रैडिकल, उदात्त और युगांतरकारी अवदान संभव किया, वह आपके लिए एक आदर्श था। स्वभावत: आप हरेक स्तर पर शक्ति-संरचनाओं का प्रतिकार करते थे, हमेशा बेचैन रहते थे और अपने काम को गहरे आत्म-संशय से देखते थे। उनकी विरासत का आपके लिए यही मानी था:

 

''वही था हमारे समय का सच्चा एक विरोधी स्वर

व्यापक रूप से असहमत और अन्तत: असन्तुष्ट’’

 

कोई कवि बड़ा है या नहीं, इसे उसका बयान नहीं, बल्कि समय के विस्तृत कैनवस पर कविता के प्रति संवेदनशील लोग तय करते हैं। लेकिन पूर्वज कवियों के समक्ष संकोच और विनयशीलता के अभाव में बड़ा तो क्या, आत्मवान भी नहीं हुआ जा सकता:

 

''ग़ालिब अपना ये अक़ीदा है बक़ौल-ए-नासिख़

आप बेबहरा है जो मो’तक़िद-ए-मीर नहीं’’

 

आत्म-विकास में अहंकार को आप एक बड़ी बाधा मानते थे। किसी-किसी के बारे में उदास होकर कहते थे: ''हाँ, वह प्रतिभावान है, मगर उसमें अभिमान आ गया है।’’

आपकी कविता 'पंचम’  में किराना घराने के सबसे अज़ीम गायक अब्दुल करीम $खाँ जब अपने उत्कर्ष पर हैं, उनका एक प्रशंसक कहता है: ''उस्ताद आपने तो सातों सुर साध लिये हैं अब कुछ बचा नहीं!’’ इस पर वह जवाब देते हैं: ''कहाँ बेटा सिर्फ़ पंचम को मैं थोड़ा समझ पाया हूँ /और अब इस उम्र में क्या कर पाऊँगा!’’ इस वाक़िये की बाबत आप लिखते हैं: ''उसे याद करते हुए सहसा हाथ रुक जाता है /जब भी लिखने बैठता हूँ कोई कविता।’’

न जानने का एहसास और जानने की उत्कंठा ही रचनाकार को रिक्त नहीं रहने देती और निरन्तर उसके नवोन्मेष को संभव बनाती है। सफ़र जब ख़त्म हो रहा हो, तभी नये सफ़र का वक़्त होता है। मीर याद आते हैं:

 

''यही जाना कि कुछ न जाना हाय

सो भी इक उम्र में हुआ मालूम!’’

 

आप इस सत्य को जानते थे। लिहाज़ा यह लिखने का साहस कर सके: ''मैं थोड़ा-सा कवि हूँ और आलोचक तो बिल्कुल नहीं हूँ।’’

 

(दो)

 

कविता न जाने कितना सफ़र तय करके आती है: देर से मिले न्याय या फिर प्रेम की तरह !

चूँकि आँख में आँसू छलक आने और दिमाग़ में किसी विचार के कौंध जाने का क्षण नहीं मालूम रहता, इसलिए रचना का समय भी पहले से बताया नहीं जा सकता। यानी संवेदना कब इतनी गहन और उत्कट होगी कि वह अभिव्यक्ति के योग्य हो !

तीर निशाने पर लगे,  इसके लिए धनुर्धर की-सी एकाग्रता चाहिए। बिखरा हुआ मन बिखराव बाँट सकता है, रचना नहीं दे सकता। लिहाज़ा लिखने में विलम्ब होता है। कभी-कभी अप्रत्याशित विलम्ब। कारोबारी लोग इसे नहीं समझते; न ही वे, जो निर्मम हैं। रघुवीर सहाय  के शब्दों में: ''काम जो हम चाहते हैं करें पर स्थगित करते रहते हैं /बर्बर लोगों की तरह कर नहीं डालते।’’

कई बार सिर्फ़ एक छटपटाहट होती है, रचना के सौन्दर्य को पाने की बेचैनी और वह अपने आप में एक हासिल है; जैसा कि आपकी इस कविता का मंतव्य है:

 

''कहीं मुझे जाना था नहीं गया

कुछ मुझे करना था नहीं किया

जिसका इंतज़ार था मुझको वह यहाँ नहीं आया

ख़ुशी का एक गीत मुझे गाना था गाया नहीं गया

यह सब नहीं हुआ तो लम्बी तान मुझे सोना था सोया नहीं गया

यह सोच-सोचकर कितना सुख मिलता है

न वह जगह कहीं है न वह काम है

न इंतज़ार है न वह गीत है और नींद भी कहीं नहीं है।’’

 

आपकी एक ख्याति यह भी थी कि आप वादा करके भी साहित्यिक आयोजनों में नहीं आते, समय से कविता और लेख नहीं भेजते, चीज़ों को टालते रहते हैं। चाहने वाले शिकायतें करते थे। पहले मैं आपके बारे में ज़्यादा जानता नहीं था। इसलिए मैंने आपके कवि-मित्र वीरेन डंगवाल  से पूछा: ''मंगलेश जी ऐसा क्यों करते हैं?’’

उन्होंने जवाब दिया: ''कोई ख़ास वजह नहीं है। सिवा इसके कि वह अपनी ही बिरादरी का है।’’

 

(तीन)

 

दूसरों की आलोचना का नैतिक हक़ सिर्फ़ उसे है, जो अपने प्रति भी सख़्त हो।

बेशक आपको ज़रा मयनोशी का शौक़ था, मगर काम की क़ीमत पर नहीं। ज़िन्दगी में ऐसे दिन बहुत कम रहे होंगे, जबकि आपने कुछ लिखा या पढ़ा न हो। कविता, आलोचना, सृजनात्मक गद्य, यात्रा-वृत्तांत, अनुवाद, संपादकीय, डायरी, वक्तव्य, साक्षात्कार: कितने ही मोर्चे थे, जिन पर आप सक्रिय रहे। आख़िरी साँस तक।

प्रेमचंद  का नाम आप अक्सर लेते थे और आपने उनका यह बयान पढ़ा ज़रूर होगा, फिर भी मैं आपको बता सकता, तो आप बेहद ख़ुश होते: ''मैं एक मज़दूर हूँ। जिस दिन कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक़ नहीं।’’

कविता में ये पंक्तियाँ शायद आप ही लिख सकते थे: ''सबसे अच्छी तारीख़ है वह /जो ख़ाली रहती है /जिसे हम काम से भरते हैं /वह तारीख़ जो बाहर रहती है कैलेंडर से।’’

आपके एक परिचित शराब बहुत पीने लगे थे। इतने कि कर्तव्य-पथ से विचलित थे। आपने एतिराज़ किया। उन्होंने कहा: ''मुझको मेरी दुर्बलताओं के संग स्वीकार कीजिए!’’

आपने जवाब दिया: ''यह कोई तर्क नहीं है। मैं तुम्हें तुम्हारी दुर्बलताओं के संग स्वीकार नहीं करूँगा।’’

आपकी कविता मिसाल है कि औरों को रास्ता वही दिखा सकता है, जो 'अपने अंधकार’ से इस क़दर सावधान हो कि हैरत हो:

 

''जब रोशनी हुई

परछाईं दिखी

अपने से बड़ा दिखा

अपना अंधकार।’’

 

(चार)

 

आप उत्सवधर्मिता के विरुद्ध थे,  क्योंकि भारत में अवाम की तकलीफ़देह जीवन-स्थितियों के मद्देनज़र एक कवि को इससे संकोच करना और बच सकना चाहिए। यहाँ भी मुक्तिबोध आपके लिए आदर्श थे, जिनके स्वभाव को याद करते हुए आपने लिखा: ''बहुत ज़्यादा ख़ुशी को वह संदेह से देखता था/ इसलिए किसी क़िस्म के उल्लास की आवश्यकता नहीं है।’’

हिन्दी साहित्य में मुक्तिबोध की स्थिति कुछ वैसी है, जैसी देश में महात्मा गांधी  की। नाम-जाप काफ़ी है, मगर उनके रास्ते पर चलने की इच्छा बहुत कम। इसलिए जो उन्होंने शायद गांधी  की ओर संकेत करते हुए लिखा था, ख़ुद उनके संदर्भ में भी कम प्रासंगिक नहीं:

 

''लोक-हित-पिता को घर से निकाल दिया

जन-मन-करुणा-सी माँ को हँकाल दिया

स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया

भावना के कर्तव्य - त्याग दिये,

हृदय के मंतव्य - मार डाले!’’

 

अचरज नहीं कि विष्णु खरे  इस विडम्बना को समझ रहे थे और पूर्वज कवियों के प्रति आत्यन्तिक सम्मान प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा कि वह उनके समक्ष कुछ भी नहीं हैं और उनके मूल्यों का दाय वहन करने को ही अपना कर्तव्य मानते हैं: ''कबीर निराला मुक्तिबोध के नाम का जाप आजकल शातिरों और जाहिलों में जारी है /उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ़ उनकी जूठन पर पला /छोटे मुँह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा माँगता हुआ/मैं हूँ उनके जूतों की निगरानी करने को अपने ख़ून में /अपना धर्म समझता हुआ भूँकता हुआ।’’

इस पृष्ठभूमि में लाज़िम था कि 22 दिसम्बर, 2014 को विष्णु खरे  ने ईमेल के ज़रिए पैंसठ साहित्यिक मित्रों को संबोधित एक खुले ख़त में अनुरोध किया: ''हाल ही में मुझे मालूम हुआ है कि कुछ नज़दीकी, निस्स्वार्थ, सदाशय मित्र मेरा 75वाँ जन्मदिन मनाने की कोई योजना बना रहे हैं, जो दुर्भाग्यवश अभी अगले ही वर्ष 2015 में पडऩेवाला है। मेरा उनसे, और ऐसा हल्का-सा भी इरादा रखनेवाले हितैषियों से, नम्र निवेदन है कि इस तरह का कोई भी मंसूबा मंसूख़ कर दें। कम-से-कम मुझसे किसी भी तरह के पत्राचार, सहयोग या शिरकत की उम्मीद न करें।’’

पत्र में आगे यह ज़िक्र था कि दूसरों या प्रियजनों द्वारा विभिन्न जन्मदिन मनाये जाने के वह विरोधी नहीं हैं और अगर ये ''प्रायोजित, निर्देशित या आर्थिक सहायता प्राप्त न हों’’,  तो उन्हें अच्छे लगते हैं। लेकिन अपने लिए वह यही चाहेंगे कि उन पर केन्द्रित कोई कार्यक्रम न किया जाए।

इसी तरह 2009 के आसपास हम कुछ मित्रों की राय हुई कि एक नयी पत्रिका 'जलसा’  का प्रवेशांक 'मंगलेश डबराल विशेषांक’  के रूप में प्रकाशित किया जाए। मगर आपने सहमति के बजाय कहा कि बेशक आपको यह अंक भेंट किया जा सकता है, पर वह विशेषांक न होकर समकालीन कविता और उससे वाबस्ता आलोचना एवं सृजनात्मक गद्य का एक श्रेष्ठ संचयन हो।

यह बात मानते हुए हम लोगों ने योजना बनायी कि 2010 में 62वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में नयी दिल्ली के एक सभागार में आपके रचनात्मक अवदान पर एकाग्र संगोष्ठी में यह पत्रिका आपको उपहारस्वरूप दी जायेगी। यही इसका लोकार्पण होगा। वक्ताओं के नाम तय हो गये थे और उनकी स्वीकृति भी मिल गयी थी। मुझे यह हिदायत थी कि 'मंगलेश जी को पता न लगने पाये, अन्यथा वह ऐसा समारोह होने नहीं देंगे!’

मगर किसी-न-किसी बिन्दु पर तो आपको मालूम होना ही था और फिर वही हुआ, जिसका भय था। आपने स$ख्ती से इसे नामंज़ूर कर दिया: ''नहीं, नहीं। बिलकुल नहीं। आप लोग ऐसा कुछ नहीं करेंगे! अपने जन्मदिन के अनुष्ठान में शरीक होना मेरे लिए शर्मिंदगी की बात है।’’

लिहाज़ा केवल पत्रिका का प्रवेशांक जारी करके रह जाना पड़ा। 'प्रकाशकीय’  में कवि-संपादक असद ज़ैदी  ने लिखा: ''यह पहला संकलन हिन्दी के साहिबे-ज़बान कवि और गद्यकार मंगलेश डबराल को तोहफे के तौर पर पेश किया जाता है।’’

विष्णु खरे  ने 2015  में ख़ुद पर केन्द्रित आयोजन नहीं होने दिया और आपने 2010 में। दोनों आत्ममुग्धता के किसी प्रपंच के बगैर--चुपचाप, सादगी और गरिमा के साथ-रुख्सत हुए: 2018 और 2020 में। कबीर के शब्दों में कहें,  तो: ''दास कबीर जतन से ओढिऩ, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’

ये सब बातें सिर्फ़ इसलिए,  ताकि सनद रहे कि हिन्दी में एक समय ऐसे भी कवि थे।

आपको यह अजीब और अन्यायपूर्ण लगता था कि हमारे समय में जैसे-जैसे रौशनी घट रही है, आयोजन बढ़ रहे हैं। शायद मुक्तिबोध  की विरासत से यही काव्य-न्याय था कि ऐसे किसी जलसे में शामिल होने के बजाय उनकी कविता 'अँधेरे में’   के काव्य-नायक की तरह जन-यूथ में खो जाएँ:

 

''संकट के इस दौर में बढ़ते जाते हैं खानपान के आयोजन

धीमी रोशनी में छतों और दीवारों पर परछाइयाँ लम्बी होती जाती हैं

इससे पहले कि यह शानदार दावत

एक सस्ती-सी चिल्लाती हुई जगह में बदल जाए

इससे पहले कि ख़ुशी सिगरेट की तरह ख़त्म हो

हमें चल देना चाहिए वापस इसी भीड़ में’’

 

(पाँच)

 

कहते हैं कि आप सरापा कवि थे। यानी अपनी कविता से एकात्म, उसमें इस क़दर निमज्जित कि बाहर देखने की मोहलत न थी। इसलिए जो आप  शमशेर  के बारे में लिखते हैं, वह दरअसल आपका भी सच था :

 

''प्रेम के सबसे सघन कवि को प्रेम नहीं मिला

उसके सामने दूध रोटी दवा का हिसाब था

जिसे वह कभी समझ नहीं पाया’’

 

मुक्तिबोध की अंतर्वस्तु कुछ अलग थी, लेकिन नतीजा कमोबेश वही था: ''यातना के सबसे बीहड़ कवि को यातना ही मिली /कड़ी मारें और एक से एक दु:स्वप्न।’’

चाहे प्रेम की गली से जायें या आततायी की मुख़ालफ़त के रास्ते पर: अंजाम वही है: एक जानलेवा दुख, जिससे बचने की सूरत नहीं, क्योंकि आपके पास दिल है। बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब:

 

''ग़म अगरचे जाँगुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है

ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता’’

 

कोई कितना ही शोध कर ले, वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि इन दोनों कवियों के बहाने आप अपनी आपबीती बयान कर रहे थे। दोनों से आपको आत्यन्तिक लगाव था और दोनों अपरिहार्य थे। इसलिए इनमें-से किसी एक को आप दूसरे का विकल्प नहीं बनने देते;  बल्कि हम कह सकते हैं कि इन दोनों की एकता के स्वप्न को आपने कविता में संभव किया।

कवि चले जाते हैं, पर उनकी कविताएँ हमेशा के लिए रह जाती हैं। इसलिए न रहने के बाद भी दो कवियों का मिलना संसार में जारी रहता है। यह कविता में आपका प्रिय रूपक था, एक स्वप्न, जो कि अब एक सचाई है:

 

''दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं

सपने में जाते दिखते थे दोनों ऐसे

जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से।’’

 

(छह)

 

आप सचमुच कविता के घर में रहते थे। लिहाज़ा घर के सदस्य अक्सर उसके बाहर छूट जाते थे।

बीते वर्षों में जब भी मैं आपके घर आया; आप किताबों, पत्रिकाओं और काग़ज़ों से घिरे हुए मिले। जैसे एक रौशनी के घेरे में,  मगर फिर भी परेशान। पूछते हुए: ''बताओ,  इनका क्या करें?’’

आपकी कविता मानव सभ्यता की इस विडम्बना को उजागर करती है कि काग़ज़--जिनमें प्रियजनों ने हमें चिट्ठियाँ लिखी थीं और कुछ प्रमुख कवियों ने कविताएँ- धीरे-धीरे व्यर्थ होते जाते हैं; क्योंकि उनमें जो सपने देखे गये थे, उन्हें हम साकार नहीं कर सके: ''अब हम लगभग नि:शब्द हैं। हम नहीं जानते कि क्या करें। हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा काग़ज़ो को फाड़ते रहने के सिवा।’’

आलम कुछ वैसा था, जिसे आपके प्रिय शाइर मीर  ने एक शे’र में ज़हिर किया है: हम हादसों की राह में हरी घास की तरह बिछे हुए हैं,  कुचले जाने से ज़रा-सी भी छूट नहीं मिलती:

''हम इस राह-ए-हवादिस में, बसान-ए-सब्ज़: वाक़े’अ हैं

कि फ़ुर्सत सर उठाने की नहीं टुक, पायमाली से’’

 

प्रसंगवश, मुहम्मद हुसैन आज़ाद  ने अपनी किताब 'आब-ए-हयात’ में यह वाक़िया बयान किया है: दिल्ली से उजड़कर मीर  को जब लखनऊ में रहना पड़ा, तो वहाँ उन्हें बहुत तकलीफ़ में देखकर एक नवाब ने रहने के लिए एक अच्छा-सा मकान दिया, जिसमें खिड़कियाँ बाग़ की तरफ़ खुलती थीं। इसलिए कि बाग़ से उनकी तबीयत में ताज़गी और ख़ुशी रहे। मगर जब वह वहाँ रहने आये, तो खिड़कियाँ बंद पड़ी थीं। बरसों गुज़र गये,  मीर  ने खिड़कियाँ खोलकर बाग़ की तरफ़ देखा तक नहीं।

एक दिन कोई दोस्त मिलने आये, उन्होंने यह कमी महसूस की, तो उनसे कहा: उधर इतना अच्छा बाग़ है, आप खिड़कियाँ क्यों नहीं खोलते? नवाब साहब ने यह घर तो इसीलिए दिया था कि ''आपका जी बहलता रहे और दिल शिगुफ़्ता हो।’’

''क्या उधर बाग़ है?’’, मीर साहब ने ज़रा अचरज से पूछा। उनकी ग़ज़लों के बहुत-से फटे-पुराने मस्विदे, यानी प्रारूप वहाँ बिखरे पड़े थे। उनकी तरफ़ इशारा करके बोले: ''मैं तो इस बाग़ की फ़िक्र में ऐसा लगा हूँ कि उस बाग़ की ख़बर भी नहीं!’’

क्या ऐसी ही जि़न्दगी आपकी भी नहीं थी,  जिसकी गवाह है यह कविता :

''आख़िरकार मैंने देखा पत्नी कितनी यातना सहती है। बच्चे बावले-से घूमते हैं। सगे-सम्बन्धी मुझसे बात करना बेकार समझते हैं। पिता ने सोचा अब मैं शायद कभी उन्हें चि_ी नहीं लिखूँगा।’’

 

''मुझे क्या था इस सबका पता

मैं लिखे चला जाता था कविता।’’

 

(सात)

 

ज़रूरी नहीं है कि जो सदिच्छा से भरा हो, वह न्याय भी कर पा रहा हो। बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब:

 

''ये फ़ित्ना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम है

हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमाँ क्यूँ हो!’’

 

कुछ वर्ष पहले नयी दिल्ली में मुक्तिबोध  पर एकाग्र एक विचार-गोष्ठी हुई, जिसे आप भी सुनने आये थे।

एक वक्ता ने उनकी कहानियों, ख़ासकर 'ब्रह्मराक्षस’ को केन्द्र में रखकर यह स्थापना की कि वह मोक्ष की तलाश के रचनाकार हैं।

दूसरे ने सार्त्र, अल्बेयर काम्यू वग़ैरह का संदर्भ निर्मित कर इसरार किया कि उन्हें मार्क्सवाद नहीं, बल्कि अस्तित्ववाद के नज़रिये से देखा जाना ज़्यादा सही और सार्थक होगा।

तीसरे ने अपनी यह दुविधा ज़ाहिर की: चूँकि 'एक साहित्यिक की डायरी’  भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की चिन्तन-परम्परा से विच्छिन्न कृति है, इसलिए इसे कैसे उसकी निरन्तरता या आलोक में समझा और सराहा जाए?

चौथे ने बयान दिया कि उन्होंने अपनी कविता में दुख और ग़रीबी का रोमानीकरण ('रोमैंटिसाइज़’) किया है और इनके अतिरंजित आख्यान से सहानुभूति-लाभ पाते रहे हैं।

उन सभी का दावा था कि वे मुक्तिबोध का सम्मान करते और उन्हें बड़ा रचनाकार मानते हैं।

कार्यक्रम के अन्त में आपने निजी बातचीत में मुझसे पूछा था: ''ये लोग मुक्तिबोध के मित्र हैं या शत्रु?’’

 

(आठ)

 

आप हमेशा एक गुरु खोजते रहे और कैसा काव्य-न्याय है कि अन्तत: वह कविता में ही मिला।

जीवन के अन्तिम वर्षों में आप कभी-कभी यह अफ़सोस ज़ाहिर करते थे कि 'मेरा कोई गुरु नहीं है।’  24 मई, 2016  को आपने लिखा: ''मैं शास्त्रीय संगीत सीखकर ही इस दुनिया से जाना चाहता हूँ।... क्या कोई ऐसा गुरु होगा, जो मुझे सुरों की राह पर ले चले?’’

संगीत के क्षेत्र में आप बेशक गुरु की कामना कर रहे थे, मगर साहित्य और संस्कृति की दुनिया में आपका कहना था कि 'मुझे चेले बनाना पसंद नहीं है और न मैंने बनाये।’  ठीक इसी वजह से आप किसी को गुरु बना भी नहीं सकते थे। मुझे लगता है कि इसके पीछे एक आधुनिक, स्वाधीन और विद्रोही मन था।

इसीलिए गुरु के न होने की पीड़ा से अधिक यह आत्मवत्ता का इसरार था। किसी तरह की गुरुडम के अस्वीकार का आपका अपना अंदाज़, जिसमें दूसरों की आलोचना है, पर आत्म-निर्ममता भी कम नहीं। तभी 9 जुलाई, 2017  को पूरी परिस्थिति पर आप एक गरिमामय व्यंग्य करते हैं। ''ज़िन्दगी-भर मुझे एक गुरु की तलाश रही। मैं ही शायद अयोग्य शिष्य रहा हूँगा। उन सब अदृश्य, अनुपस्थित, अनस्तित्व गुरुओं को एक अशिष्य का सलाम!’’

इस बीच सोशल मीडिया का ज़माना आया; जिसमें राजनीति में प्रमुख रूप से और साहित्यिक हल्क़े में भी किसी हद तक 'ट्रोल्स’ का अभ्युदय हुआ। उनकी अपनी कोई राय नहीं होती, वे किसी के नक़्शेक़दम पर चलते हैं और उसकी ही मौन या मुखर इच्छा के अनुरूप दूसरों पर हमले करते हैं। ऐसा कोई नज़र आता, तो आप पूछते थे: ''वह दूसरे के दिमाग़ से क्यों संचालित होता है? उसका अपना दिमाग़ नहीं है क्या?’’

संपूर्ण सहमति ख़तरनाक है,  न सिर्फ़ लोकतंत्र, बल्कि व्यक्ति के अपने विकास के लिए भी। प्रासंगिक है हजारीप्रसाद द्विवेदी  का कथन: ''सत्य के लिए किसी से भी न डरना,  गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’’

आख़िरकार 5 जुलाई, 2020  को आपने कबीर  की एक साखी को स्मरण करते हुए लिखा: ''दुख ही मेरा गुरु है।’’ यह दरअसल उसी परम्परा का अगला चरण है, जिसमें बुद्ध  ने कहा था: 'दुख सत्य है।’  फ़र्क यह पैदा हुआ कि कबीर  ने इस सत्य से बचने नहीं, सीखने की सलाह दी: हम सुख के लिए जा रहे थे, तभी सामने दुख आ गया। हमने सुख से कहा: तुम अपने घर जाओ, अब हम जानेंगे और हमारा दुख:

''कबीर सुख कौं जाइ था, आगैं आया दुख।

जाहि सुख घरि आपणैं, हम जाणैं अरु दुख।।’’

 

(नौ)

 

आपकी कविता गोया चुपचाप एक प्रस्ताव है कि कथ्य, रूप, भाषा और शैली के सारे अलंकरण- यहाँ तक कि कवि होने की सज-धज भी- उतारकर रख दो; तभी कविता के भवन में प्रवेश पा सकते हो !

 

एक बार थोड़ी-सी पंक्तियों की शायद एक विदेशी कविता से अभिभूत होकर आपने मुझसे कहा था : 'बड़ी कविता को बहुत ज़्यादा शब्द नहीं चाहिए।’ ... और आप कई बार कम शब्दों में, सहज, पारदर्शी, नदी की तरह बहती हुई, नर्म और संजीदा ज़बान में अपनी बात यों कहते हैं कि ऋतुराज  की यह काव्य-पंक्ति याद आती है: ''कुछ टूटे शब्द महाकाव्यों से भी ज़्यादा होते हैं असरदार....।’’

जिन लोगों का यह मानना है कि आप साधारण जीवन के रचनाकार थे,  वे सही होते हुए भी अद्र्धसत्य का प्रचार करते हैं,  क्योंकि आपने इसे असाधारणता में परिणत किया था। इससे भी बढ़कर आपका यह इसरार मूल्यवान् है कि ये परस्पर-विरोधी चीज़ें नहीं, बल्कि सादगी की बुनियाद पर ही कोई बड़ी रचना संभव है। इसलिए आपने अपने गद्य में आगाह किया: ''सरल होना साधारण होना नहीं है’’ और कविता में लिखा: ''एक साधारण जीवन में एक असाधारण आग जलती रहती है।’’

साधारण से यह प्रतिश्रुति आसान नहीं होती,  इसके लिए अनूठा और अविचलित आत्मविश्वास दरकार है। शब्दों की गहनता में आस्था, उनके मामूलीपन में छिपी ग़ैर-मामूली हस्ती को पहचानने की नज़र। इसी की बदौलत एक छोटी-सी कविता 'शहर’  में आप महज़ छब्बीस बरस की उम्र में एक पूरी जीवन-कथा या कहें कि विस्थापन की त्रासदी बयान कर सके थे:

 

''मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया

 

वहाँ कोई कैसे रह सकता है

यह जानने मैं गया

और वापस न आया।’’

यह संवेदना अपने मिज़ाज में स्थानिक होते हुए भी सार्वभौमिक है। लिहाज़ा दुनिया के किसी भी कोने का इनसान इसमें अपनी पीड़ा का अक्स देख सकता है। यही आपकी कविता की वैश्विक अपील है। अचरज नहीं कि यह कविता जर्मनी के आइस्लिंगेन शहर के नये नगरपालिका भवन के मुख्य प्रवेश-द्वार पर उत्कीर्ण है।

विनोद कुमार शुक्ल ने अपने उपन्यास 'नौकर की कमीज़’  में लिखा है: ''कितना सुख था कि हर बार लौटकर आने के लिए मैं बार बार घर से बाहर निकलूँगा।’’ लेकिन आपका समस्त रचना-कर्म इस आश्वस्ति के दूसरे सिरे पर मुमकिन हुआ था। वहाँ,  जहाँ आप जानते थे कि अब लौटना नहीं होगा:

 

''जो बच्चा एक दिन घर से निकल गया था

वह अपने घर को हमेशा के लिए खो चुका है’’

 

(दस)

 

बक़ौल शमशेर: ''कविता आदमी के साथ एक आशीर्वाद की तरह रहती है।’’ शायद इसी तरह 'प्रसाद’ की कविता 'आँसू’ आपके ज़ेहन में रही।

कविता और संगीत से प्रेम आपको विरासत में मिला था। आपने लिखा है: 'मेरे पिता अपने पिता की तरह ज्योतिष-संस्कृत-आयुर्वेद-कविता के गहरे जानकार थे।’  इसके अलावा: ''मेरे पिता सीमित रागों का सुमधुर गायन करते थे। उनका हारमोनियम भी बहुत सुरीला, जर्मन रीड वाला, कलकत्ते का बना हुआ था।’’

मुझे याद है, वर्षों पहले नयी दिल्ली में जब एक समारोह में वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी  को 'रघुवीर सहाय सम्मान’  दिया गया, तो उस अवसर पर आपने अपने वक्तव्य में बताया: 'मैं किशोरावस्था में ही जयशंकर 'प्रसाद’ के काव्य से प्रभावित होकर 'आँसू’-नुमा कविताएँ लिखने लगा था। मुझे गीतों की उस दुनिया से बाहर निकालने और समकालीन कविता से रूबरू करने का काम जगूड़ी जी ने किया।’

यह तब की बात है, जब आप अपने गाँव से देहरादून के एक कॉलेज में पढऩे आये और आपका नाम था: मंगलेश चन्द्र डबराल 'मयंक’!

यह सच है कि इस नयी दुनिया में आपने अपने कवि का नया जन्म संभव किया, लेकिन 'मन में पानी के संस्मरण’  की तरह 'आँसू’  साथ रहा आया। आपको भले लगता रहा हो कि उस अतीत से मुक्त हो गये,  मगर दरअसल आप उसके सार को आत्मसात् कर आगे बढ़े थे। लिहाज़ा आँसुओं की एक केन्द्रीय भूमिका आपकी रचनाशीलता में अन्त तक बनी रही और उसने आपकी कविता को सजल रखकर बहुत गहरा और सशक्त बनाया।

इस संदर्भ में मुझे सुखद और भावभीना अचरज हुआ, जब आपको स्मरण करते हुए एक सभा में 'समकालीन जनमत’  के संपादक और आलोचक रामजी राय  ने कहा: ''वह बहुत ही मामूली लोगों की घनीभूत पीड़ा का कवि था, जो दुर्दिन में आये, तो आँसू ही की तरह बरसती है, दूसरी तरह से नहीं।’’

ये आँसू कमज़ोरी की निशानी नहीं, बल्कि मनुष्यता के सुबूत हैं और मिर्ज़ा का शे’र याद करें, तो क्रान्ति का जज़्बा जगाने में समर्थ:

'' 'ग़ालिब’ हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से

बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए’’

 

आपने लिखा है कि यह करुणा ही है, जो कविता के अंत:करण को उदार बनाती है: ''आँसुओं से भीगे हुए लोगों को कविता ले जाती है अपने भीतर।’’  इसलिए आप कहते हैं कि चालाक लोगों की तरह निष्करुण मत बनो, बल्कि एक महान दुख से निश्छल रहकर मिलो! वही तुम्हारे होने की सार्थकता होगी :

 

''शोक की घड़ी में चालाक लोगों की तरह

अपनी आँखों को काले चश्मों के पीछे मत छिपाओ

तुम्हारे और दुनिया के बीच जो भी पर्दे हैं उन्हें हटा दो

आँखों को रहने दो भीगी हुई उदास और खुली हुई

और उनमें किसी और भी बड़े दुख को प्रवेश करने दो’’

 

इस सिलसिले में आप आगाह करते हैं: तुम कामयाब भी हो सकते हो, मगर प्यार और संवेदना के मूल्य पर : जिस दिन तुम्हारे पास आँसू नहीं रह जायेंगे,  यह आततायी सभ्यता तुम्हें पुरस्कृत करेगी :

 

''कोई हमें लगातार युद्ध के मैदान की तरफ़ ले जा रहा है

और कह रहा है धीरे-धीरे जब तुम बहुत कम मनुष्य रह जाओगे

तो खेल के अन्त में तुम्हें मिलेगा एक बड़ा-सा पुरस्कार।’’

 

(ग्यारह)

 

निराशा जहाँ है, आशा भी वहीं है। आप इतनी सादगी से जीवन का सच बयान करते थे कि मैं सोचता था, यह कैसे संभव है: ''मैं चाहता हूँ निराशा बची रहे /जो फिर से एक उम्मीद/पैदा करती है अपने लिए।’’

'डायलेक्टिक्स’  या द्वंद्वात्मक पद्धति को हमारे समय में इतनी सहजता से शायद ही कोई कवि कह पाया हो और वह भी बार-बार : ''किसी उम्मीद में बतलाता था निराशाएँ / विश्वास व्यक्त करता था बग़ैर आत्मविश्वास।’’

इतनी करुणा में यह उम्मीद कैसे लिपटी हुई हो सकती है, मैं सोचता था! इसके कुछ समय बाद वह कविता भी आयी, जिसमें यह पंक्ति थी : ''मनोरोग तुम फैलते जाते हो सेहत के नाम पर।’’

ये कविताएँ आपने बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में लिखी थीं और ज़िन्दगी के हालात ऐसे रहे कि 2007 से चार वर्षों तक मैं ख़ुद अवसाद का शिकार रहा। अचरज तो तब हुआ, जब उसी दौरान मैंने फोन पर आपका हालचाल पूछा, तो आपने जवाब दिया: ''इन दिनों मैं अवसाद में हूँ, पर एक विदेशी कवि ने कहा है कि अगर तुम अवसाद में हो, तो इसका मतलब है कि तुम सही हो!’’

मुझे आपसे आत्मीयता महसूस हुई: इसलिए कि जिस विडम्बना के प्रसार को व्यापक सामाजिक जीवन में आपने पहचाना था, आप स्वयं उससे अछूते न थे। दूसरे, इसमें मुझ जैसों के लिए एक रौशनी थी : अगर तुम सही हो, तो दुख अपरिहार्य है। लिहाज़ा यह शर्म की नहीं, किंचित् गौरव की बात थी।

कोई चाहे, तो अपनी ज़िन्दगी में बारहा आपकी कविता का सत्यापन देख सकता है। उसे लगेगा कि ये महज़ शब्द नहीं,  हमारे समाज की हक़ीक़त है : दुख उसके हिस्से में आया है, जो रचनाशील है और जो ताक़तें विनाश में लगी हैं,  वे ही प्रसन्न और सम्मानित हैं: ''जो है खूँख़ार हँसी है उसके पास / जो नष्ट कर सकता है उसी का है सम्मान।’’

बाद में मैंने जाना कि वह कवि राइनेर मारिया रिल्के  हैं,  जिन्होंने सैन्य अकादमी में दीक्षारत युवा कवि फ्ऱांज़ ज़ेवियर काप्पुस को एक पत्र में लिखा था : ''.....डरो मत, यदि तुम्हारे भीतर तुम्हारे अब तक के जाने हुए अवसाद से बड़ा अवसाद पैदा होता है,  या कि हलके-फुलके बादलों की परछाइयों की तरह, चिंताएँ तुम्हारे आसपास की हर जगह को घेर लेती हैं। तुम्हें समझ जाना चाहिए कि जीवन ने तुम्हें बिसारा नहीं है, बल्कि तुम्हारा हाथ थामे, गिरने से बचाने में लगा है।’’

कठिन-से-कठिन परिस्थिति का भी कोई ऐसा पहलू आप सुझाते थे, जिससे उस मुश्किल से बाहर निकलने की राह मिल जाती थी। यही एक बड़े कवि का तरीक़ा है कि चारों ओर से उमड़ते अँधेरे में भी उसके पास एक कंदील होती है और निराला  की तरह वह दिखा पाता है : ''अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है’’ या फिर आपकी तरह : ''दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर।’’

2008 की सर्दियों में एक दुर्घटना में मेरा पैर टूटा और ऑपरेशन हुआ, तो होश आने पर अस्पताल से मैंने आपको फ़ोन किया और दुख और निराशा से भरा एक वाक्य कहा: ''मैं संकट में पड़ गया हूँ।’’ आप हँसकर बोले : ''संकट में तुम नहीं, तुम्हारा पैर पड़ गया है!’’... और मैं भी इस ख़याल से ख़ुश हो गया कि बात तो आप ठीक ही कह रहे हैं।

कविता में आपने कितनी ख़ूबसूरत परिभाषा की है कि निराश वे नहीं होते, जो कुछ करते नहीं; बल्कि वे होते हैं, जिनकी कोशिशें सही अंजाम तक नहीं पहुँचतीं : ''बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये तो उसे निराशा कहा जाता है।’’  इसलिए एक निराश, यानी सच्चा, संजीदा और कर्मशील इनसान ही उस यथास्थिति को बदल सकता है, जिसका नाम निराशा है : ''निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो। हमें दो चार क़दम चलने की सामर्थ्य।’’

 

(बारह)

 

कवि को सच कह सकना चाहिए: न सिर्फ़ सत्ता से, बल्कि जनता से भी।

शोहरत तो मूल्य-विमुख होकर भी पायी जा सकती है, मगर सार्थकता नहीं। इसलिए कई बार मुख्यधारा के विरुद्ध रहना और अकेले पड़ जाने का जोखिम उठाना अन्तत: उस वृहत्तर समाज के लिए श्रेयस्कर है, जिसके कि हम नागरिक हैं। शायद इसी मानी में देवी प्रसाद मिश्र  ने लिखा है : ''एक भुला दिया गया कवि /बहुत याद किये जाते शासक से बेहतर होता है।’’

एक कवि को बेशक अपनी रचना और उसमें विन्यस्त नज़रिये की लोकप्रियता के लिए लिखना चाहिए, लेकिन इस प्रलोभन में पडऩा उससे अपेक्षित नहीं; क्योंकि फिर वह सुर्खरू होने के लिए प्रचलित अभिरुचियों को तुष्ट करनेवाले एक 'परफॉर्मर’  में 'रिड्यूस’  होकर रह जाता है। रचनात्मक उदात्तता को क़ायम रखते हुए लोकप्रिय होना काम्य है,  पर अनुदात्त होकर पायी गयी प्रसिद्धि एक दु:स्वप्न है।

सोशल मीडिया के मौजूदा समय में आपको यह अजीब लगता था कि संपादक या आलोचक नाम की संस्था का प्राय: लोप हो गया है और फेसबुक जैसे डिजिटल माध्यमों पर सक्रिय बहुत-से लोग सुबह कविता पोस्ट करते हैं और शाम होते-होते दो-ढाई सौ 'लाइक्स’  मिल जाने पर मान लेते हैं कि उनका लेखन श्रेष्ठ है और उन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

मगर यह प्रशस्ति काफ़ी नहीं है और एक वक्तव्य में आपने इसमें निहित ख़तरे से सावधान किया : ''मुझे लगता है कि अगंभीर सोशल मीडिया भविष्य की ओर नहीं जाता--लेकिन हमारी अच्छी कविता भविष्य की ओर जाती ही जाती है- वह 'सरोज-स्मृति’  हो,  'अँधेरे में’  हो,  'टूटी हुई बिखरी हुई’  या 'रामदास’  हो।’’

आपकी चिंता थी कि यह आभासी संसार, वास्तविक संसार से विमुख कर रहा है और एक स्व-निर्मित 'मायावी, स्पर्शविहीन’  दुनिया पर हमें निर्भर बना रहा है,  जैसे कि न हमारा कोई अतीत है, न भविष्य। इसी विडम्बना को उजागर करते हुए एक दिन आपने यह व्यंग्य-चित्र सामने रखा :

 

''आप कहाँ से आ रहे हैं?- फ़ेसबुक से।

आप कहाँ रहते हैं?- फ़ेसबुक पर।

आपका जन्म कहाँ हुआ?- फ़ेसबुक पर।

आप कहाँ जायेंगे?- फ़ेसबुक पर।

आप कहाँ के नागरिक हैं?- फ़ेसबुक के।’’

 

इस संदर्भ में ग़ौरतलब है कि 'इंडियन एक्सप्रेस’  को 4 दिसम्बर, 2016  को दिये गये इंटरव्यू में आपने उपभोक्तावाद और टेक्नॉलॉजी का विरोध किया और भाषा और साहित्य के बुनियादी कर्तव्य का स्मरण कराया : ''कल्पना के लिए स्मृति अपरिहार्य है और टेक्नॉलॉजी और उपभोक्तावाद स्मृति को नष्ट करते हैं। कितने लोगों को याद रहता है कि दो साल पहले वे कौन-सा मोबाइल इस्तेमाल करते थे या पिछले वर्ष कौन-से कपड़े उन्होंने ख़रीदे थे?  टेक्नॉलॉजी के द्वारा स्मृति ही नहीं, इतिहास भी मिटाया जा रहा है और शायद भाषा और साहित्य ही इसका प्रतिरोध कर सकते हैं।’’

इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम कितने लोगों को ख़ुश कर सकते हैं ; बल्कि यह है कि कितने लोगों को हम एक बेहतर दुनिया के लिए बेचैन, रचनात्मक और स्वप्नशील बना सकते हैं। लिखने के बावजूद आप इस दुख से सचेत थे कि हमारे शब्दों की रौशनी अधिकांश समाज तक नहीं पहुँचती और वह निरन्तर एक यातना सहने को मजबूर है:

 

''कविताएँ लिख-लिखकर

हम एक विशाल अँधेरे में फेंकते जाते थे

हमारे शब्दों से कितनी दूर

ज़िन्दा रहते थे लोग

हमारी चीख़ से कितनी दूर मार दिये जाते थे वे

किसी मोड़ पर।’’

 

इस पृष्ठभूमि में स्वभावत: फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों पर 'लाइक्स’  की संख्या को आप अचरज, संदेह, प्रसन्नता और विरक्ति के मिले-जुले भाव से देखते थे और आख़िरकार इस संसार पर भरोसा तो आपको नहीं ही था। जब कभी मैं आपको बताता कि आपकी कविता या सृजनात्मक गद्य के उद्धरणों पर सैकड़ों या हज़ारों 'लाइक्स’ आ रहे हैं,  आप हँसते हुए कहते : ''अच्छा! बड़े आश्चर्य की बात है। 'लाइक’ करो,  भाई,  'लाइक’ करो!’’

 

(तेरह)

 

आपने इसरार किया कि सेक्युलर विचार जिस एक बुनियाद पर टिका रह सकता है,  वह प्यार है :

''....मैंने तुम्हारी कल्पना की

ताकि दुख से उबरने के लिए

प्रार्थनाएँ न करनी पड़ें’’

 

सृजनात्मक गद्य की अपनी एक किताब कवि-मित्र वीरेन डंगवाल  को समर्पित करते हुए आपने ग़ालिब  का यह शे’र याद किया: ''है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद’’’। यानी अब इस बस्ती में प्रेम की पीड़ा का अकाल पड़ा हुआ है।

कोई ध्यान से देखे, तो आप अपने रचना-कर्म के ज़रिए बार-बार इसी पीड़ा को शब्द देते हैं कि प्रेम का अभाव इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। यह मानना मुश्किल है कि उन लोगों के हृदय में प्रेम रहा होगा; जिन्होंने ज़मीन, धन और अन्य संसाधनों पर क़ब्ज़े किये और अपने जैसे दूसरे इनसानों को इनसे महरूम रखा। इससे घोर आर्थिक विषमता पैदा हुई, जो अधिकांश मनुष्यता के दुख की वजह है।

बीते वर्ष आप हमारी संस्था में एकल व्याख्यान और कविता-पाठ के लिए आये,  तो मैंने आपके सेक्युलर ख़यालात के मद्देनज़र झिझकते हुए कहा : ''एक मुश्किल है : कार्यक्रम के ठीक पहले यहाँ प्रार्थना अनिवार्य है।’’

आपने जवाब दिया : ''इसमें दिक्क़त क्या है? वह तो ज़्यादातर स्कूल-कॉलेजों में होती है।’’

अगरचे इस सौजन्य और कविता में ज़ाहिर आपके मंतव्य में कोई अंतर्विरोध नहीं। हमें प्रार्थना का मोर्चा दुश्मन को सौंप नहीं देना चाहिए, बल्कि इस ज़मीन पर भी उसकी मुख़ालफ़त ज़रूरी है। तानाशाही निज़ाम में इनसान के अकेलेपन की विडम्बना उजागर करते हुए कि जब राज्य और समाज से उसे कोई उम्मीद नहीं रह जाती, तो उसके पास प्रार्थना का विकल्प नहीं होता :

 

''जब ताक़तवर आदमी ने एक रात संदेश प्रसारित किया

कि वह अभी कई साल ताक़तवर बने रहना चाहता है

तो मैंने सुबह उठकर किसी अज्ञात से प्रार्थना की

बस आज के दिन बचा रहे मेरा यह धुँधला सा जीवन।’’

 

ठीक इसी वजह से प्यार और अधिनायकवाद का प्रतिकार दरअसल एक ही काम है और तानाशाह का पतन प्यार के मुआफ़िक़ हालात के लिए ज़रूरी शर्त। तभी एर्नेस्तो कार्देनाल  की यह कविता आपको बहुत पसंद थी और आपने इसका हिन्दी अनुवाद किया:

 

''हो सकता है, मेरे प्यार,

इस साल हम कहीं यात्रा पर निकल जाएँ

हो सकता है

इस साल हम विवाह कर लें

 

हो सकता है,  मेरे प्यार,

इस साल सोमोज़ा * का पतन हो जाए।’’

 

(*सोमोज़ा : निकारागुआ के तानाशाह का नाम)

 

(चौदह)

 

भाषा की चरम सादगी में पूर्वज कविता की स्मृति है। मसलन 1995 में जब आपका कविता-संग्रह आया, तो उसके नाम से मुझे लगा था कि इसमें तो कोई ख़ास बात नहीं है : 'हम जो देखते हैं।’

मगर तब कबीर  नहीं याद आये : ''मैं कहता हूँ आँखिन देखी’’  और न मिर्ज़ा  ही: ''बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब’ /तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।’’

यह भी ध्यान नहीं गया कि ज़िन्दगी के अनुभव का अधिकांश तो देखने में ही समाहित है। लोग कहते हैं कि हमने ज़माना देखा है। किस-किस तरह से देखा जाता है,  उसकी एक बानगी हम फ़ैज़ अहमद फ़ैज़  की ग़ज़ल में देख सकते हैं;  जहाँ छुपा के, जला के, बना के, बचा के और आज़मा के देखा गया है, यहाँ तक कि : ''और क्या देखने को बाक़ी है /आपसे दिल लगाके देख लिया!’’ तो देखना असाधारण रूप से गहन, संश्लिष्ट और बहुअर्थगामी एक क्रियापद है।

मशहूर कवि नरेश सक्सेना  एक व्याख्यान में कहते हैं कि देखना सिर्फ़ आँखों से नहीं होता; छूकर, सुनकर, सूँघकर, खाकर देखना होता है : ''देखना फिर भी पूरा नहीं होता। अन्त में हम सभी कहते हैं, अब ज़रा इस बात को सोचकर देखो, तो हम उसे सोचकर देखते हैं और बिना सोचे कुछ देख नहीं सकते। समझ लीजिए,  अगर सोच के नहीं देखा, तो कुछ नहीं देखा। सोचकर देखना जो है; यह भाषा से, साहित्य से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। यह विज्ञान से भी जुड़ा है, सारी कलाओं से जुड़ा है।’’

महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं कि आपने भी एक कविता में लिखा है कि तुम अगर कल्पनाशील नहीं हो, तो दूसरों के दुख को न समझ सकते हो, न उसके प्रति संवेदनशील हो सकते हो: ''जो लोग दुख को ईजाद नहीं कर पाते वे उसे देख भी नहीं पाते /क्योंकि सोचना ही देखने की पहली अनिवार्य शर्त है।’’

मगर नयी विश्व व्यवस्था की आमद के साथ आप जान रहे थे कि मानवीय सरोकार उपेक्षित किये जा रहे हैं और 'महज़ व्यापार महज़ लेनदेन ख़रीद-फ़रोख़्त की आवाज़ें’  केन्द्र में आ रही हैं। लिहाज़ा आपने 1990 में जो देखा था, वह जैसे अब तक जारी है। वह सिर्फ़ आपका देखना नहीं रहा, हम सबका एहसास बन गया है:

 

''बाज़ारों में घूमता हूँ नि:शब्द

डिब्बों में बंद हो रहा है पूरा देश

पूरा जीवन बिक्री के लिए

एक नयी रंगीन किताब है जो मेरी कविता के

विरोध में आयी है

जिसमें छपे सुंदर चेहरों को कोई कष्ट नहीं’’

 

(पन्द्रह)

 

किसानों और मज़दूरों के साथ जिस तरह का सुलूक हो रहा है, उससे लगता है कि मानो वे इस देश के नागरिक ही नहीं हैं। वीरेन डंगवाल  के शब्द याद आते हैं:

 

'' 'मेहनत’ - हाँ ज़रूरी है गुज़ारा कहाँ इसके बग़ैर।

मगर 'मेहनतकश’ - बिल्कुल नहीं

कहीं नहीं शहर में  निषिद्ध है यह शब्द।’’

 

भूमंडलीकरण की अर्थव्यवस्था के नतीजे में बीते तीन दशकों में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और आज भी हर आधे घंटे पर एक किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। जैसे इतना काफ़ी न था, इसलिए अब उनकी खेती कॉर्पोरेट घरानों को औने-पौने दामों पर सौंपे जाने के लिए देश की संसद ने तीन नये क़ानून पारित किये हैं।

इनके ख़िलाफ़ लगभग तीन महीनों से वे दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे हैं, मगर उनकी कोई सुनवाई नहीं है। हाड़ कँपा देनेवाली सर्दी में अब तक दो सौ से ज़्यादा किसान अपनी जान गँवा चुके हैं और सरकार के रवैये से हताश होकर तीन किसानों ने ख़ुदकुशी की है। शायद ऐसे ही हालात के मद्देनज़र आपके कवि-मित्र आलोकधन्वा  ने कभी आगाह किया था :

 

''हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गयी हैं

इस आधे अँधेरे समय में।

फ़र्क कर लेना साथी!’’

 

आपके जाने के चार दिन बाद 13 दिसम्बर, 2020  की रात कवयित्री शुभा  ने आपकी स्मृति में लिखा : ''इस रात को अब हमारा प्रिय कवि नहीं देख सकता। यह रात उसकी अनुपस्थिति बता रही है। ठंडी हवा चल रही है, पाले की किर्चें मैंने चेहरे पर महसूस कीं। इस ठंड में किसान बिना छत हैं। पन्द्रह किसानों की मौत हो चुकी है। दुश्मन ही किसी के साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है। जिनकी वजह से अन्न होता है, चूल्हे जलते हैं,  उन्हें इस तरह मौत की ओर धकेलना!’’

आप उन कवियों में थे,  जिन्होंने रघुवीर सहाय  की परम्परा में,  उनके दाय को वहन किया और कविता में व्यक्त उनके आशयों को नये संदर्भों में नयी धार दी। उनकी ही तरह आप महसूस करते थे कि राजनीति ने भाषा को विकृत और अविश्वसनीय बना दिया है:  ''भाषा कोरे वादों से /वायदों से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी’’;  इसलिए रचना में शब्दों का प्रयोग करते हुए ठिठक जाते थे:

 

''जब भी कोई शब्द लिखता हूँ

लगता है उसमें वह अर्थ नहीं है

जिसके लिए उसे लिखा गया था’’

 

2019 में लिखी आपकी एक कविता में तो सत्ता-प्रतिष्ठान की निर्ममता के साथ-साथ भारतीय किसान-जीवन की विडम्बना भी झलक जाती है :

 

''आततायी छीन लेते हैं हमारी पूरी वर्णमाला

वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं

एक समाज की हिंसा

ह को हत्या के लिए सुरक्षित कर दिया गया है

हम कितना ही हल और हिरन लिखते रहें

वे ह से हत्या लिखते रहते हैं हर समय।’’

 

 

 

सम्पर्क: 203, उत्सव अपार्टमेंट; 379, लखनपुर;  कानपुर (उ.प्र.)- 208024

मोबाइल : 9354656050 ;  9425614005.

 


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