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जनवरी 2021

रोटी के चार हर्फ़

आलोक रंजन

कहानी

 

 

 

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए

सवाल ये है क़िताबों ने क्या दिया मुझको

                                                                                   -नज़ीर बाकरी

 

 

 

       एक आँख कोई रोचक दृश्य देखे तो दूसरी को भी खींच लेती है। बाहर दिन बहुत तेज़ी से चढ़ रहा था हरे पेड़ों और सुंदर घरों पर। बस में उसकी कोशिश रहती है खिड़की वाली सीट लेने की ताकि वह एक आँख से बाहर और दूसरी आँख से भीतर देख सके। यहाँ के घर कितने प्यारे होते हैं! इन्हीं घरों को देखते हुए वह रोज इसी रास्ते पर चलता है लेकिन घर का आकर्षण हर रोज़ यूँ ही बना रहता है। हर बार बाहर देखने वाली आँख ही जीतती है। पर आज भीतर देखने वाली आँख ने कुछ गज़ब देखा! बस में दायीं ओर की सीट के नीचे पड़ी रोटी के कुछ टुकड़े! बाहर उन प्यारे घरों को देखने वाली आँख भी भीतर आ गयी। यह तो गंदगी है! केरल की बस में ऐसा नहीं दिखता न कभी? उसने अपने आप से पूछा। यह रोटी किसी बाहरी की ही होगी! ऐसा मानने की वजह थी उसके पास। रोटी केरल में मिलने वाली रोटियों जैसी नहीं थी। यहाँ तो फैक्ट्रियों में तैयार अधपकी चपातियाँ मिलती है जिसे तवे पर गरम करके खाया जाता है लेकिन वह रोटी तो नहीं होती। उसने मन में कई बार दोहरा लिया - यह रोटी बाहर से आयी होगी, केरल के बाहर से।

क्या खूब विडम्बना है। उधर रोटियाँ तो बनती हैं लेकिन काम नहीं मिलता। काम की तलाश में बाहर निकलना ही पड़ता है। ऐसे निकलने वालों के साथ घर से बनी हुई रोटियाँ ही आती हैं भले ही गंतव्य तक पहुँचते पहुँचते वे कड़ी होकर ऐंठ क्यों न जाएँ। यहाँ तक सोचते सोचते वह उदास होने लगा। वह जब भी उदास होता है उसे नानी का गाँव याद आता है फिर नानी! सोचने से यही होता है यादों पर चढ़कर उदासी करीब आ जाती है। वह जानता है कि काम पर जाते हुए यूं उदास होना ठीक नहीं, सारा दिन उन यादों में कटेगा लेकिन... उसने अपनी दोनों आँखें बाहर करनी चाही लेकिन वे रोटी ही देखती रही। उसने अपनी आँखें मूँद ली। आँखें बंद कर लेने से भी दिखना कहाँ बंद होता है! उसे अपनी आँखों के इस खेल पर आश्चर्य नहीं हुआ। वह रोटी के साथ बहुत कुछ देख रहा था।

...फूस की छप्पर वाला भीत का घर था नानी का जिसे अब तक गलकर मिट्टी में मिल जाना चाहिए। लेकिन ऐसा तब हुआ होगा जब वह किसी बड़े अहाते में मिला न लिया गया हो। नानी उसी की सामने मिट्टी के चूल्हे पर मोटी-मोटी रोटियाँ सेंक लेती थी कभी कभी भात भी खदक जाता था। उन रोटियों की सुगंध उसके आगे साकार हो गयी। ताज़े पिसे आटे की ताज़ा रोटियाँ। इतनी मीठी कि उसकी भाप तक मीठी हो जाती। उन मोटी रोटियों के खुरदुनेपन का सुख दुनिया की किसी चीज़ में नहीं।

रोटी हो या भात नून और मिर्च की बुकनी के सहारे ही उतरना होता था। कड़वा तेल छू लेने पर भी वह चिल्लाने लगती थी। बुढिय़ा का सारा दिन आटा जोडऩे और चूल्हे की लकड़ी खोजने में निकल जाता था। उसकी उम्र की कई औरतें टेढ़ी कमर लेकर थेघ-धेघ कर चलती थी लेकिन नानी सीधी कमर वाली। आज सोचने पर लगता है कि, भले ही उसकी कमर बुढ़ापे में भी सीधी रही पर जिंदगी ने उसे कभी सीधे नहीं होने दिया। नाना थोड़ी सी जमीन छोड़कर मरे साथ में छोड़ दी जरूरतें और पहाड़ सी ज़िंदगी। बाहर-भीतर हर ओर बस ठूँठ रह गए थे। उसके पास जो थोड़ी जमीन थी उससे दो-दो बेटियों की शादी में हाथ धोना पड़ा। एक मजबूर घर के पास कोई न कोई बड़ा अहाता जरूर होता है और उस आहाते में विस्तार की प्रबल लालसा। खरीदने वाले ने दरियादिली इतनी जरूर दिखायी कि मरने तक उसे वहीं रहने दिया।

आज देखो तो वह सारा दृश्य किसी ऐतिहासिक कालखंड की बात लगती है। कच्ची सड़क जिस पर धूल उड़ा करती थी और बारिश के दिनों में कीचड़-कादो से इतनी गीली की धान के पौधे भी लग जाएँ। मोड़ पर सड़क काटकर पानी गाँव से बाहर करने का नायाब तरीका निकाल लिया था लोगों ने। बारिश बीत जाने पर भी वहाँ घुटने भर कीचड़ पड़ा रहता था। बाँस से लदी बैलगाडिय़ाँ लेकर जब बैल उसमें उतरने से कतराते तो उनकी पीठ पर सपासप दुआली पडऩे लगती। उनकी नाथ खींची जाती, पूँछ मरोड़ दी जाती और फिर दुआली की चोट। बैल नाक से सौ-सौ की आवाज़ निकालने लगते और मुँह से लार! यदि कोई बैलगाड़ी अँधेरे में उधर से गुजरने तो बैलों की शामत आनी तय थी। उसने कई बैलों का थकान बोझ और मार से थककर बैठ जाते देखा। लेकिन नानी के पास थककर बैठ जाने की छुट्टी नहीं थी। उसे किसी ने छुट्टी दी ही नहीं! दिन भर कुछ न कुछ जोडऩे में लगी रहती थी। वह अंधेरा होने से पहले ही रोटी बना लेती थी। कोटे पर चीनी और मटिया तेल मिलता था। दोनों सस्ती दरों पर लेकिन नानी एक लीटर मिट्टी का तेल ही खरीद पाती थी। उसी में एक डिबिया जलनी थी महीने भर इसलिए अँधेरे से पहले सब काम हो जाना था। उन्हीं दिनों उसे लगने लगा था कि वह नानी पर बोझ है लेकिन माँ के मरने और बाप की दूसरी शादी के बाद वह अपने घर में रहने लायक नहीं बचा था। उसे याद नहीं पड़ता कि नानी में कभी कोई किस्सा सुनाया हो। नानी की स्मृतियाँ कभी उस सुख को नहीं पा सकी जो भावों के मन में घूमने पर शब्दों में घुलकर बाहर निकलते हैं... वे शब्द जिनसे खेले जा सकें! भाव तो तब ही असल अर्थ लेते हैं जब वे कहे जाएँ। नानी सुनाती भी तो कैसे उसके शब्द भी हाथों की तरह रूखे हो चले थे।

झीनी बारिश से भरी शाम में जब सारे पक्षी बूंदों से बचते बचते भी भीग रहे थे और घुटनों तक पानी से भरे खेत में मेंढक 'कर्र - कॉय, कर्र - कॉय’ कर रहे थे तब वह नानी के गाँव पहुँचा था। वह अकेले नहीं आया था माँ-बाप भी साथ थे। पिताजी अगली सुबह ही चले गए। माँ बीमार थी। कुछ ही दिनों में उसकी हालत ऐसी हो गयी कि उसका चलना फिरना भी कठिन हो गया। लेेटे-लेटे ही खून की कै कर देती। उन उल्टियों को अपने हाथों से साफ करने वाली बूढ़ी आँखों में बस आँसू ही रहते। वह उदास हताश होकर देखता रहता। फिर एक सुबह ऐसी भी आयी जब बीमारी माँ को साथ लेकर चली गयी। वह सुबह जल्दी हो गयी थी। आसमान का रंग बिखर रहा था जैसे उसके साँवलेपन में माँ की खूनी उल्टियाँ मिल रही हो। आज भी सूरज उगने से पहले की सुबह उसे ऐसी ही लगती है। नानी जारो - कतार रो रही थी। रो वह भी रहा था लेकिन उसके रोने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। पिताजी माँ को जलाने भी नहीं आए। माँ एक जीवित इंसान से जलती चिता में बदल गयी और वह चिता बाद में मिट्टी की एक ढेर में पर उससे ब्याह रचाने वाले व्यक्ति ने मुड़कर भी नहीं देखा।

नानी का दिन में बाहर जाकर लड़कियाँ चुनना उन्हीं दिनों शुरू हुआ। वह भी झोपड़ी के अँधेरे से डरने लगा था। नानी के निकलते ही वह भी बाहर चला जाता! काम तो कोई था नहीं सो हमेशा उस बड़े आँगन उसकी दालान पर रहता - लोगों के गप्प पीता हुआ। उस गाँव ने कितनी सहजता से अपना लिया था! एक दो बार किसी ने परिचय पूछा होगा उसके बाद दालान या आँगन का एक खास कोना उसका हो गया। कभी कभी वह उस आँगन के लड़कों को पढ़ते भी देखता लेकिन पढऩे जैसी किसी भी चीज ने उसे कभी आकर्षित नहीं किया। वह बड़ों की बातों का रसिक बनता जा रहा था।

तभी एक दिन उसकी दुनिया में कुछ अजीब घटा! इन्दु मामा ने व्यंग्य करते हुए कहा-

''बाप के ब्याह में बाराती नहीं जाओगे?’’

वह भागकर नानी के पास चला गया, बुढिय़ा रोती हुई इन्दु मामा के पास।

''इस अबोध को वह बात बताने की जरूरत नहीं थी इन्दु’’। लेकिन इससे बड़े अहाते वाले मामा पर कोई प्रभाव नही पड़ा वे उसी तरह हँसते रहे।

''इसे कब तक यहीं रखोगी काकी? इसका घर तो आखिर वही है... अब तो नई माँ भी आनेवाली है’’।

आसपास के दो चार और लोग इन्दु की बात ही बोल रहे थे।

कहते हैं असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है। उस दिन नानी कहीं नहीं गयी। उसे न लकड़ी चुनने की चिंता थी न भात खदकाने की। सारा रोष निकला मरी हुई बेटी पर!

'गेय बीमरयाही... क्या सोचकर चली गयी... आकर देखो क्या हो रहा है...’।

यह सब उसकी कल्पना थी या सच पता नहीं लेकिन उसे लगा कि वह मकुन बाबू के कुएँ में धँसता जा रहा है और नानी के हाथ लंबे हो रहे हैं। हथेली के खुरदरेपन में उसकी उँगलियाँ समा गयी हैं। एक बार को उसे झिझक हुई लेकिन नानी का हाथ अपने ही विस्तार में बढ़ता जा रहा था। वह हथेली पर बैठकर बाहर आ गया। कैसी विचित्र बातें सोच ली थी उसने! बचपन ऐसा होता है क्या! नानी की हथेली तो बड़ी है पर नानी निरीह। थोड़े दिन दोनों से किसी ने उस बड़े आँगन में प्रवेश नहीं किया लेकिन मन के पास अपनी स्थिति को स्वीकारने के अलावा क्या बचता है! अब उसकी पहचान में उसके पिता की नयी पत्नी भी जुड़ गयी। लोग उसकी ओर देखकर कभी हौले से तो कभी सुनाकर भी उस शख्स की चर्चा कर देते। वह इंसान इनकी जिंदगी से मीलों दूर था लेकिन नानी और उसके लिए घृणा के बीजों की पोटली थी जिसके बीज समय के साथ बिखरे और जंगल भी बन गए। वह उस जंगल को पार नहीं करना चाहता था।

अब नानी अक्सर खाँसती रहती। जब उसे खांसी का दौरा चढ़ता तो वह पास के घर के चापाकल की तरह हो जाती। उसी तरह की सों-सों की आवाज़! रात में उसने कई बार महसूस किया कि पड़ोस के घर का चापाकल और नानी की खांसी की आवाज़ बराबर है। उन क्षणों में वह बाहर निकलकर कहीं दूर चला जाना चाहता था जहां दो में से कोई भी आवाज़ न हो लेकिन न हो लेकिन वह निकल नहीं पाता था। नानी उसका एकमात्र आश्रय थी।

जिन दिनों गाँव नए रूप लेने लगा था उन्हीं दिनों कई बार उसने महसूस किया कि उसकी जिंदगी वहीं बीतने वाली है। इस द्वार से उस द्वार बैठते-उठते दिन भर का गप-सरक्का उसका काम होना है और नानी भी उसी तरह रहनी है उसके लिए रोटी बनाते हुए! लेकिन, उसकी नानी मरना नहीं भूली थी। वह तब तक नहीं रोया जब तक कि बुढिय़ा की लाश को बाहर न कर दिया गया। तुलसी चौरे के पास दक्षिण दिशा में पड़ा उसका सिर! कितनी ही बार नानी ने कहा होगा दक्षिण की ओर सिरहाना मत करो, उधर मुर्दे का सर होता है...! मुर्दा शरीर जिसकी आँखें खुली, कान खुले लेकिन मन बंद हो चुका था। वह चिल्ला चिल्लाकर रोने लगा... नानी की मुर्दा हथेलियाँ उसे बुलाने लगी लेकिन लोगों ने उसे रोके रखा!

थोड़े दिनों तक आसपास के परिवारों ने उसे खिलाया लेकिन नानी के जाने के बाद उसे वह जगह छोडऩी ही थी। आस पास ट्रेक्टर से ईंटें गिरने लगी, अहाते का दायरा बड़ा होना था। वह उसी अहाते पर पड़ा रहता और आसपास के लोग बेस्वाद रोटी रख जाते। फिर एक दिन ऐसा भी आया जब आस पड़ोस से किसी ने खाने के लिए नहीं पूछा। उसी शाम वह नानी के 'सारा’ पर गया जहां राख के टीले पर चिकनी मिट्टी लीप दी गयी थ। उसने उस टीले को गौर से देखा वह उस बुढिय़ा के घुटे हुए सिर की तरह ही दिख रहा था लेकिन उसके ऊपर की साड़ी फटी नहीं थी जैसे मरने वाले दिन भी उसने पहन रखी थी। उसे तसल्ली हुई कि अब वह फटी हुई साड़ी पहनने से बच जाएगी। एक बार उसका मन हुआ वह सोचे कि बुढिय़ा ऊपर भी तो लकड़ी नहीं बीन रही होगी लेकिन इस सोच को बाहर करने के लिए उसके पास लोगों की कही गयी बातों में से एक बात थी 'वह अपने पुरुखों के पास जा चुकी है जहाँ इस धरती की तुलना में बहुत ज्यादा सुख है’। उस काल्पनिक सुख की कल्पना करते हुए उसने टीले को छूकर हाथ छाती से लगाकर उस गाँव से निकल गया।

अपने गाँव में घुसते ही इंसान से लेकर पास की घास तक उसे जानने को उत्सुक हो गयी। सबकी आँखों में सवाल थे और यूं लगता था कि सब उसके जहन की खिड़की खोलकर धड़धड़ाते हुए घुस जाएंगे और भीतर से आड़े-तिरछ रास्ते बनाकर ही निकलेंगे! प्रश्न पूछने वाले पहले ही श$ख्स को उसने उत्तर दे दिया - ''मैं बीसो मंडल का बेटा’’। गाँव के मचान पर अड्डेबाजी कर रहे पुरुषों ने यह बात सुनी फिर धूल में खेल रहे बच्चों तक भी शोर गया। अगले ही पल उसके साथ जाने वाली एक सेना तैयार थी। यदि वह अपना घर भूल जाता तब भी सेना उसे पहुँचाकर ही दम लेती। बरसों बाद उसने अपने बाप को देखा लेकिन पिता ने कुछ बोलना भी जरूरी नहीं समझा। उसे लगा वह व्यर्थ ही आया है, संबंधों के सिरे तलाशने! जबकि सब बीत चुका है और यदि कुछ है तो वह जला हुआ सिरा जिसे पकड़ते ही राख हो जाता है। माँ के बाद नानी भी चली गयी, लेकिन उसके बाप ने उसकी खबर लेनी नहीं चाही। वहाँ आने का क्या अर्थ!

अपने परिवार की तरह ही गाँव ने भी उसे स्वीकार नहीं किया। उसे अब लगने लगा था कि वह घर में घुस आया चूहा है जिससे कभी छुटकारा चाहते हैं। वह अक्सर खेतों की ओर चला जाता और वहीं किसी मेंड़ पर बैठा रहता। दोपहर को घर जाता तो नई माँ रोटी के टुकड़े उसकी ओर फेंक देती। वह अपने को उन बकरियों से भी निरर्थक पाता जो खेत की मेंड़ से आसपास लगी फसल चरने की कोशिश में खेत वाले से मार खाती है। इंसान खेत में लगे गेहूं का क्या ही कर लेगा! एक शाम लौटा तो बाप उस पर बरस पड़ा।

''तुम यहाँ क्यों आए... उधर ही कहीं मर खप क्यों नहीं गए...?’’

''अब देखो कैसा भोला चेहरा बनाए हुए है... मारी माछ नै उपछी पैन... जैसे कुछ हुआ ही न हो’’। ये उस औरत के शब्द थे जो उसके आने के बाद से लगातार नाक भौं चमकाती रहती थी लेकिन आज पहली बार सीधे हमले पर उतरी थी! घृणा के जिस जंगल के इस पार वह खड़ा था उससे लकड़बग्घा निकल चुका था।

''तुम अपनी माँ समान औरत को नंगा नहाते हुए देखते हो... भागो मेरे घर से’’! अपने बाप के यही शब्द उसके लिए अंतिम थे। गाँव सोता रहा और वह निकल आया जैसे कभी उस गाँव में गया ही न हो!

आज यह सोचना रोमांचित करता है उसे कि उसने अपने गाँव से केरल तक की यात्रा बिना टिकट तय की थी! वह केरल नहीं आता तो कहीं और जाता शायद जो पहली ट्रेन आती उससे जहां मन होता निकल जाता। काम वह भीख मांगने का करता क्योंकि उसे बस वही आता था। लेकिन रेलवे स्टेशन पर मिले उस शख़्स ने उसे न सिर्फ रोटी दी बल्कि केरल साथ चलने का न्यौता भी दिया। तीन दिनों के सफर के बाद वह पहुंचा था यहाँ तब तक साथ वाले की रोटियाँ सूखकर चिम्मड़ हो चुकी थी। उस यात्रा में कई बार उसका मन नानी की रोटी और उन क्रमश: सूखती रोटियों की तुलना करने बैठा और उतनी ही बार वह भीतर भीतर रोया था। नानी तो गयी ही रोटी का स्वाद भी ले गयी। स्टेशन पर मिले आदमी ने वादे के मुताबिक काम दिला दिया और जैसा उसने कहा था ठीक ही उधर के मुकाबले यहाँ दिन भर की मजदूरी सीधे दोगुनी मिलती थी। यह जगह उसे यूँ भी अलग लगती है लेकिन उसकी साफ सड़कों ने, गाढ़ी हरियाली ने और इन सबसे ऊपर काम करने से मिलने वाले पैसों ने नशे-सा असर किया था। उसका कोई नहीं बस अपनी मेहनत थी।

वह जिस बस से चल रहा था वह मानों उसकी यादों के ईंधन पर ही चल रही हो। बाहर की दुनिया में लोग थे, दुकानें थी लेकिन एक अपरिचय था परंतु यादों के आँगन में अब सब उसका जाना पहचाना हुआ। यहाँ आने के शुरुआती दिन उसके लिए बहुत संघर्ष के थे सबसे बड़ा संघर्ष था अपनी तरह के खाने का संघर्ष। मजदूरी के काम में रोज़ ब रोज़ पैसा तो हाथ में आता जाता था लेकिन रोटी नहीं आती थी। दुकानों में जो कुछ मिलता था वह उसे खाना कभी नहीं समझ पाया। दुकान वाले बड़े उत्साह के साथ उसकी थाली में 'चपाती’ परोसते लेकिन फैक्ट्री में बनी वे चपातियाँ बेस्वाद लगती। सारे व्यंजन एक समान लगते थे। ठीक उसी तरह सारे लोग भी एक जैसे। उनमें अंतर करने में उसे खासा वक़्त लगा। लेकिन उससे ज्यादा समय उसे अपने लिए रोटी का इंतजाम करने में लगा। जगहों से थोड़ी जान पहचान के बाद उसे एक चक्की के बारे में पता चला चहां गेहूँ का आटा भी मिलता था। वहाँ से आटा लेकर उसने केरल में रोटी बनायी। रोटी पर नूनतेल लगाकर पिपही बनाने से पहले उसने उसे सूंघा था। आटे, पानी जैसी मामूली चीजों से बनी होने के बावजूद उसकी महक में मन को कई सैकड़ों किलोमीटर दूर ले जाने की शक्ति थी। वह आँखें बंद किए किए उस दुनियाँ में पहुँच गया था जो उससे छूट चुकी थी।

काम और काम तक आने-जाने के वक़्त को हटा दिया जाये तो केरल में वह एक तन्हा इंसान था जिसके लिए वहाँ की गलियाँ जीवन में शामिल होने का माध्यम थी। उसने कई बार इस बात पर सोचा कि उस दिन केवल उसकी नानी ही नहीं मरी बल्कि उसके साथ साथ दुनिया से उसकी पहचान बताने वाला तत्व भी विलीन हो गया। यहाँ उसकी पहचान एक मजदूर की थी। हालाँकि नानीगांव की पहचान भी कोई खास नहीं थी। वहाँ वह नानी के पास रहने वाला बिना माँ-बाप का बच्चा था जो धीरे-धीरे ही सही बड़ा हो रहा था। लेकिन उस मुफ़लिसी में भी उसकी एक पहचान थी। वह अपनी उम्र के लड़कों के साथ खेल सकता था जो दोस्तों और लड़ाई में भेदभाव नहीं रखते। आसपास वाले कभी उसका सूखा मुँह देखते तो कुछ खाने को दे देते। वह एक बदतर जिंदगी तो थी लेकिन आसपास के लोगों की गर्माहट थी। यहाँ वह बहुत से 'बाई मार’ में से एक 'बाई’ था। बाई, भाई का बिगड़ा रूप और मार उसका बहुवचन।

शुरू-शुरू की बात है एक शाम वह किसी सब्जी की दुकान पर खड़ा था। उसने एक सब्जी की ओर इशारा करते हुए कहा -

''भाई... वह पच्चीकारी...’’

उसका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि सामने से एक प्रश्न आ गया -

''बाई?’’

बोलते हुए सब्जी वाले की आँखों में समूचे शरीर का रोष उतर आया था। आज समझ में आता है वह रोष। स्थानीय लोगों को पता है कि ये और दूसरे प्रवासी लोग मजदूर हैं और उनसे कैसा व्यवहार करना चाहिए।

वे लोग पेरुंबावूर, के बाहर इलाकों में प्रवासियों की बस्तियाँ बसने से परेसान होने लगे थे। हों भी क्यों न प्रवासी बहुत तेज़ी से उनकी भाषा सीख रहे थे, वे अखबारों में अपने खिलाफ लिखी खबरें तो समझने ही लगे थे साथ ही साथ रोज़ होने वाले छोटे मोटे अपमान भी देख रहे थे। वे यह भी जान गए थे कि यहाँ के लोग हिकारत से इन्हें 'बेंगाली’ कहते हैं। वह शब्द एक अपमानजनक पहचान थी। वह जानता था कि सारे मजदूर एक ही राज्य बंगाल से नहीं आए हैं। कुछ असम से तो कुछ बिहार-यूपी से, कुछ मध्यभारत के लोग भी हैं। और तो और नेपाली और बंगलादेशी भी उनमें शामिल हैं। अलग-अलग तरह के पहनावे, खान पान और जीने के तौर तरीके का सुविधाजनक नाम है - बेंगाली जिसका इस्तेमाल 'तैंडी’ यानि भीख मांगन वाले की तरह किया जाता है। भारत की एक बड़ी जनसंख्या देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आजीविका की तलाश में जाती ही है और लोगों से उनका टकराव किसी न किसी मुद्दे पर जरूर होता है लेकिन यहाँ की बात अलग थी। यहाँ टकराव के बदले घृणा थी- अपने को श्रेष्ठ और बाहर से आने वालों को हीन मानने की घृणा। अपने को श्रेष्ठ मानने का चलन ही तो पैसे दिलाती है यहाँ। कितना भी बड़ा खेत हो ये लोग अपने शरीर में मिट्टी लगाना पसंद नहीं करते! ऊपर से इन लोगों की घृणा बड़ी नहीं होती कि बाहरी लोग रोजगार छोड़कर अपने घर वापस लौट जाएँ। उस गरीबी से यह घृणा बड़ी नहीं है। कम से कम यह तो नहीं हो रहा है न कि रास्ते में पकड़ के किसी को मार दिया जाता हो, पैसे छीन लिए जाते हों। उसकी नानी एक बात हमेशा कहा करती थी कि 'बोली - ठोली से शरीर में छेद नहीं होता... लोगों को बोलने दो जो भी बोलते हैं’। आज वह समझ सकता है कि नानी अक्सर यह क्यों कहती थी। उसने वहीं से मौखिक अपमान को अनदेखा करना सीख लिया था ऊपर से यहाँ तो पैसे भी मिलते हैं।

अब वह अपनी जिंदगी के बारे में सोच रहा था। परिवार जैसी कोई चीज अब थी नहीं। लंबे समय से वहाँ भी नहीं गया जहाँ उसने रिश्तों की अंतिम कड़ी को टूटते देखा था। तो फिर उसकी पहचान क्या बनी अब? कहाँ का हुआ वह? उस गाँव का जहाँ उसका केवल बाप रहता है? जबकि उस बाप ने कभी उसके बारे में जानने तक की कोशिश नहीं की। क्या वह केरल का है? हाँ आज जो उसका शरीर खड़ा है उसके भीतर की मशीन केरल के खाने से ही तो चलती है। उसने स्थानीय भाषा सीख ली है, कभी कभी यहाँ वाली धोती पहनकर मंदिर में भी चला जाता है। पर इतने से कोई मलयाली कहाँ हो जाता है! उसकी पहचान तो बेंगाली की ही है भले ही वह बंगाल कभी गया भी न हो। याद है मंदिर की वह शाम जब वहाँ मौजूद सभी पुरुषों की तरह वह भी कमीज़ खोले हुए खड़ा था तिल के तेल से जल रहे दिए की रोशनी में स्निग्ध लालिमा थी। पुजारी शंख फूंकने के बाद कई सारे दीपों वाली थाली लेकर  बाहर निकलता है और किसी के हाथ में देकर वापस लौट जाता है, सबसे पास वह थाली ले जाना अब नए आदमी की जिम्मेदारी! उस शाम, उसने हाथ बढ़ाकर वह थाली लेनी चाही... पुजारी उसे घूरते हुए आगे बढ़ गया! उसने नज़रें झुका ली! शर्म और अपमान का ताप बरसने लगा था!

बस चलती जा रही थी, वह यादों में डूबता उतरता जा रहा है जैसे आज का सूरज याद के नाम ही निकला हो। यह सब बस की सीट के नीचे पड़े रोटी के टुकड़ों की वजह से हो रहा है। बस में भीड़ इतनी तो बढ़ ही गयी थी कि उसकी आंखों से रोटी को ओझल कर दे लेकन रोटी थी कि अपने साये से उसे बाहर जाने की नहीं दे रही। आँख बंद कर लेने भर से दिखना क्या बंद हो जाता है! लेकिन गनीमत यह है कि बस अब उस जगह पहुंच चुकी थी जहाँ उसे उतरना था। वह अपने काम करने की जगह की और बढ़ गया। उसके सामने एक बड़ा दिन था लेकिन दिमाग में रोटी अपना आकार और असर बढ़ाते ही जा रही थी। रोटी नानी के किस्से की जादुई चटाई बन गई थी जिसकी सवारी करके बहुत सी बातें उसके मन में घूमने लगी। वह इस तरह की स्थिति से घबराता है क्योंकि इसके काम में खलल पड़ती है। तब ठेकेदार बहुत गंदे तरीके से डाँटता है। ऐसा होता कि उसकी डांट का असर न होता तो बात दूसरी थी। वह डांट सुनकर उदास हो जाने वाले इन्सानों के रूप में ही बड़ा हो पाया है। कोई उसके पास इस तरह से रहा ही नहीं जो उसे धूल झाड़कर फिर से उठना सिखा दे। वह अपने को इससे निकालना चाहता है लेकिन रोटी के वे टुकड़े! ऐसा लगता है आज रोटी काम करने नहीं देगी। वह बैठ गया। रोटी के टुकड़े उसे वहाँ पहुँचाकर ही छोड़ेंगे आज।

* * *

वह सुबह की बस पकडऩा चाहता था। इतनी सुबह वाली कि आठ घंटे की यात्रा के बाद वह त्रिवेन्द्रम पहुंचे तो दिन का उजाला बचा रहे और वह समुद्र के आसपास देख पाये। पीछे किसी ने बताया था कि समुद्र के किनारे सुबह और शाम को बहुत से लोग आते हैं। वहां किसी भी चीज की फेरी लगाओ दिन के पंद्रह सौ रुपये आने ही आने हैं। मतलब महीने के पैंतालीस हजार रुपये! उसका मुँह खुला ही रह गया था। लेकिन एक ही दिक्कत समुद्र के किनारे रेत पर चल-चलकर सामान बेचना बहुत थका देने वाला काम होता है। सब नहीं कर पाते! इस बात ने उसे रोक दिया था। लेकिन फिर एक ऐसी घटना घटी कि उसे उस कठिन काम की तलाश करने जाना ही पड़ा।

पेरुंबावुर में उसका काम छूट गया था लगभग हफ्ते भर के पैसे भी ठेकेदार के पास ही पड़े थे। हालात ऐसे थे कि क्या मजदूरी और क्या ठेकेदार खुद घर बनवा रहा मालिक भी बैंक की लाइन में लगा हुआ था। किसी को पाँच-सौ और हजार के नोट बदलवाने थे तो किसी को दो-जून की रोटी के लिए पैसे चाहिए थे। बैंक के नियम यूं बदल रहे थे कि उससे सबका विश्वास उठता जा रहा था। जबकि बैंक पर विश्वास करके ही उसने अपनी सारी रकम वहाँ रख छोड़ी थी। उसने क्या सबने यूं ही किया होगा। ठेकेदार ने साफ कह दिया कि जब तक ऐसे हालात हैं काम बंद रहेगा। उसे भी मालिक ने इसी लहजे में कहा हो शायद!

उसने दो-तीन दिन इंतज़ार किया कि हालात बदलें लेकिन रोज नयी अफवाहें आती थी। उसने बैंक के आसपास कतारों को कम होते भी नहीं देखा। उसे खबर मिली थी कि बाहर कहीं झगड़े और मौतें भी हुई थीं लेकिन उन सबको अफवाह बताने वाले लोग भी थे। बैंक के पास उसके इतने पैसे थे कि एक दो महीने काम न मिले तो भी वह बड़े आराम से जी सकता था लेकिन उसे खाना पकाने के लिए लकड़ी बीनती नानी याद आ गयी। नानी की याद आते ही उसे पूरे शरीर में गर्मी सी महसूस होने लगी। काम का न होना उसे बेचैन कर रहा था। उसने केरल की राजधानी के समुद्र तटों की ओर जाने का निश्चय कर लिया।

उसे सुबह जाना था और शाम ही से उसने अपनी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी थी। सबसे पहले उसने अपने दोनों गुल्लक फोड़ दिए। उम्मीद के अनुरूप उसमें से इतने पैसे निकल आए कि दो पीठ का किराया और खाने-पीने के अलावा भी थोड़े पैसे बच जाते। उसने कहीं से उस आदमी का संपर्क भी निकाल लिया जिसने समुद्र तट पर फेरी लगाने की बात कही थी। एक बार फोन करके उसे अपने आने की सूचना भी दे दी। और हाँ सबसे जरूरी बात रास्ते में खाने के लिए रोटियाँ बनाकर रख ली। यात्रा मे ंअपना खाना होने से पैसे बचते हैं। और रोटी-भुजिया से बेहतर तो रास्ते पर खाना क्या ही होगा।

उस सुबह में अंधेरे का हिस्सा बड़ी तेज़ी से कम होता जा रहा था। अब दुकानों के नाम और उस पर बने चित्र देखे जा सकते थे और आती हुई बस के रंग को भी आराम से पहचाना जा सकता था। बस में घुसते ही उसे खिड़की की सीट मिल गयी जहाँ से एक आँख बाहर तो दूसरी आँख से भीतर देखा जा सकता। भीतर लोग सो रहे थे। ऊपर के पहाड़ी कस्बे से आने वाली बस की खिड़कियाँ बंद थी। ऊपर थोड़ी ठंड जरूरी रही होगी। उसने खिड़की खोली तो एक दो यात्री अपनी अपनी बोली में कुनमुनाने लगे फिर भी उसने खिड़की बंद नहीं की। तभी कंडक्टर टिकट देने आ गया। उसने कहा - त्रिवेन्द्रम और कंडक्टर के हाथ में पड़ी मशीन चल पड़ी। मशीन से छपकर आया कागज़ कंडक्टर ने उसे पकड़ा दिया। उस पर लिखे थे दो सौ दस रुपये। अपने झोले से सिक्के निकालकर गिनने लगा। खाली सड़क पर बस बहुत तेज़ी से आगे बढ़ती जा रही थी। तभी लोगों ने शोर सुना होगा।

''मैं ये सिक्के नहीं लूंगा’’ कंडक्टर ने अपनी भाषा में कहा।

''क्यों नहीं लोगे?’’ यह उसकी आवाज़ थी। उसने भी अपनी ही भाषा में कहा।

''नघी नघी’’ कंडक्टर के इतना बोलते ही वह समझ गया था कि वह 'नहीं नहीं’ कहना चाहता है।

''क्या ये पाकिस्तान के सिक्के हैं? यह भारत का ही रुपया है जिसे बंद नहीं किया गया है’’ ये वाक्य उसने कंडक्टर की भाषा में कहे थे।

''तुम उतर जाओ बस से’’।

''मैं नहीं उतरुँगा’’

''फिर पैसे दो टिकट के’’

''दे तो रहा हूँ... तुम ही नहीं ले रहे हो’’

उसकी इस बात पर कंडक्टर को बहुत गुस्सा आया! वह मलयालम में बोलने लगा जिनमें उसके लिए बहुत सारी गालियाँ थी। गुस्से में उसने यह भी कहा था कि बाहर से आकर उसके जैसे लोग इसी तरह का काम करते हैं - तेंडी... इन सबको तो पैरों के नीचे कुचल देना चाहिए। वह कंडक्टर की सारी बातें समझ रहा था।

''देखो तुम बहुत बुरी बातें बोल रहे हो... मैं तुम्हें टिकट के पैसे दे रहा हूँ तुम नहीं ले रहो हो फिर इतनी गंदी बातें कैसे कर सकते हो? तुम अपनी जमीन पर हो इसलिए तुम कुछ भी नहीं बोल सकते... तुम सरकार के कर्मचारी हो और यह सरकारी बस है। तुम पैसे ले लो और झगड़ा खत्म करो’’।

''मैं ये सिक्के नहीं लूँगा... मुझे नोट चाहिए’’

''नोट तो मेरे पास नहीं है’’

शोर सुनकर एक दो यात्री जाग गए उनमें से एक ने कंडक्टर को समझाना चाहा

''नोट चाहिए तो तुम बैंक में जाओ बे... उसके पास जो है उसी काम चलाओ और हमें सोने दो’’।

कंडक्टर गुस्से में बड़बड़ाता हुआ उस यात्री की ओर चला गया। उसने भी टिकट को कमीज की जेब में रखकर खाने झोले में खाना निकाल लिया। सिक्के इस तरह रखे थे कि कंडक्टर आए तो वह झट से दे सके। वह रोटी पर आलू के टुकड़े रखकर खाने लगा। यह देखकर कंडक्टर का गुस्सा बहुत बढ़ गया वह उसकी ओर लपका।

''तुम टिकट दे दो मुझे और बस से उतरो अभी के अभी’’

''बस से तो मैं नहीं उतरूँगा तुम टिकट के पैसे ले लो और बात खत्म करो’’

कहते हुए उसने दो सौ पांच रुपये के सिक्के कंडक्टर की ओर बढ़ा दिए। गुस्से में भरे कंडक्टर ने उसके हाथ पर ज़ोर से मार दिया। कंडक्टर का हाथ लगते ही सिक्के बिखर गए और बहुत से सिक्के खिड़की के बाहर। जो सिक्के बाहर गए थे उसके साथ उसकी बाहर वाली आँख चली गयी। उस आँख ने बाहर गिरे सिक्कों को तेज़ी से पीछे छूटते देखा। उसके पास उदास होने का भी वक़्त नहीं था। बचे हुए सिक्के तेज़ आवाज़ के साथ बस में फैल गए थे। उन्हें संभालने के चक्कर में उसकी रोटियाँ और आलू के टुकड़े भी बस की फर्श पर गिर गए। यह सब इतनी तेज़ी से हुआ कि पहले तो किसी को समझ में नहीं आया कि क्या हुआ और जब समझ में आया तो बस में सन्नाटा था। ऊँघते हुए लोगों की भी नींद जा चुकी थी सब उसकी ओर देखने लगे। ड्राइवर ने बस रोक दी, ऐसा लगा जैसे सबकी आत्मा को धक्का लगा हो।

उसे अपने बचे-खुचे सिक्के उठाने के लिए बस में इधर उधर जाना था लेकिन वह रोटी को ही देख रहा था एकटक। दूर गिरी रोटी और आलू के टुकड़ों पर बस की सतह पर पसरी धूल की परत दिख रही थी। लोगों ने कंडक्टर को भला-बुरा कहना शुरु कर दिया।

''लोगों को परेशान करते हो। क्या मिल जाता? अब उसे बेचारे के पैसे भी गए और खाना भी।’’

कंडक्टर चुपचाप उसके पैसे चुन रहा था। वह शायद भीड़ के गुस्से से डर गया था या हो सकता है उसे ग्लानि हुई हो। उसके भाव देखकर कुछ कहा नहीं जा सकता।

और वह अपनी रोटी की ओर बढ़ गया। धूल में लिपटी रोटी को वह एकटक देखता रहा। उठाने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन उठा नहीं सका। गाँव से लेकर यहाँ तक, सारी बातें उसकी आँखों के आ गयीं। नानी के होते वह कभी भूखा नहीं रहा था। वह वहीं बैठकर सिसकने लगा। बस के सारे लोग सकते में थे। कोई अपनी जगह से नहीं हिला। लंबे-चौड़े आदमी को यूँ भोकर कर सबके सामने होते हुए शायद उन्होंने पहले न देखा हो।

कंडक्टर भी यह दृश्य देख, जड़ रह गया था। उस से बड़ी बारी भूल हो गयी। इस नौकरी में वह ज़रा चिड़चिड़ा हो गया है। लोगों को कुछ भी कह देता है। लोग भी उससे उलझ पड़ते हैं। तू-तू, मैं-मैं भी होती है लेकिन फिर सब शांत। अब तो इस ज़िंदगी की ऐसी आदत पड़ चुकी है कि सब आम लगता है। पर ऐसे रोते तो उसने किसी को नहीं देखा। बेचारा बड़ी मुसीबत में लगता है। अयप्पा उसे माफ़ नहीं करेंगे। वह धीरे से उसके पास गया।

''भाई, तुम मेरा खाना ले लो... अम्मा के हाथ का बनाया खाना है।’’

उसने कंधे पर रखे कंडक्टर के हाथ को देखा और उस पर अपना हाथ रख दिया।

 

*  शीर्षक नज़ीर बाक़री के शेर से -

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को

 

-प्रारंभिक शिक्षा बिहार में और उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में। 1984 का जन्म। कहानियां कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित। 2017 का ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार प्राप्त। वर्तमान में केरल के एर्णाकुलम में अध्यापन।

संपर्क- मो. 9539525504

 


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