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जनवरी 2021

एक झलक - ''बज़्म-ए-दाग़’’

राजकुमार केसवानी

उर्दू रजिस्टर

 

 

उर्दू शाइरी के राज कुंवर नवाब मिर्ज़ा ख़ान ''दाग़’’ देहलवी (1831-1905) अपनी ग़ज़लों की ही तरह से शोख़ रंग, दिलचस्प और क़ाबिल-ए-तहसीन इंसान थे। दाग़ की ज़िंदगी ज़ाहिरा तौर पर तो एश-ओ-इशरत की ज़िंदगी थी लेकिन इन उजालों की हकीक़त फ़ैज़ के ''यह दाग़-दाग़ उजाला’’ की याद दिला जाती है।

1831 में पैदा हुए तो एक नवाबी ख़ानदान में। पिता शम्सुद्दीन ख़ान नवाब लोहारू के भाई होते थे। बकौल दाग़ - ''...मेरे वालिद नवाब शम्सउद्दीन ख़ान रियासत फ़िरोज़पुर झिरक के नवाब थे। मेरी उम्र अभी पांच साल की भी पूरी नहीं हुई थी कि वालिद को फांसी हो गई। फांसी की वजह यह थी कि फ्ऱेज़र - एजेंट गवर्नर जनरल और नवाब साहब के ताल्लुक़ात ठीक नहीं थे।’’

दाग़ की मां ने हालात को समझते हुए कुछ अरसे बाद ही बहादुर शाह ज़फ़र के बेटे मिर्ज़ा फ़ख़रू से शादी कर ली। इस तरह 1837 में दाग़ चांदनी चौक की गलियों से सीधे लाल क़िले पहुंच गए। यहां परवरिश हुई तो शहज़ादों की ही तरह हुई और शहज़ादों के साथ ही हुई। शाइरी का शौक़ लगा तो मिर्ज़ा फ़ख़रू ने उस्ताद ''ज़ौक़’’ से गुज़ारिश कर उनकी शागिर्दी दिलवा दी। मिर्ज़ा फ़ख़रू ख़ुद और उनके वालिद शहंशाह बहादुर शाह ''ज़फ़र’’ भी उस्ताद ''ज़ौक़’’ के शागिर्द थे।

यहां तक तो सब ठीक ही था लेकिन 1856 में मिर्ज़ा फ़खरू का भी इंतक़ाल हो गया। इस सदमे से अभी उभरे भी न थे कि 1857 का ग़द्दर आ गया। बहादुर शाह ज़फ़र गिरफ़्तार हो गए। अब दाग़ के पास क़िला छोड़कर बाहर निकलने के अलावा कोई चारा न था। रामपुर के नवाब कल्ब अली ख़ान ने बड़े अदब और एहतराम से दाग़ की पज़ीराई की। सारी सुख-सुविधाओं के साथ नौकरी देकर अपने साथ रख लिया। 1887 में जब नवाब साहब चल बसे तो नए ठिकाने की तलाश में जा पहुंचे हैदराबाद दक्कन। यहां उन्हें निज़ाम दक्कन की उस्तादी का मौका मिला।

यहां प्रस्तुत डायरी मिर्ज़ा दाग़ के उसी दौर की बड़ी तफ़्सीली मालूमात से लबरेज़ दस्तावेज़ है। मीर की आत्मकथा और ग़ालिब के ख़ुतूत के ज़रिए इन दो महात्माओं के रोज़-ओ-शब के हालात तो मालूम हो जाते हैं लेकिन दाग़ की वैसी तफ़्सीली मालूमात एक अरसे तक कहीं न मिलती थी। लेकिन भला हो दाग़ के शागिर्दों मौलाना एहसन मारहरवी और मौलवी इफ्तिख़ार आलम का जिन्होने बड़ी बाक़ायदगी से मिर्ज़ा दाग़ के यहां हाज़िरी देते रहे और साथ ही साथ हर छोटी-बड़ी बात को तारीख़वार डायरी में दर्ज करते रहे। 1956 में इस डायरी को किताबी शक्ल दी मौलाना एहसन मारहरवी के बेटे सैयद रफीक़ मारहरवी ने।

एक अरसे से गुमशुदा यह किताब एक बार फिर कराची पाकिस्तान के एक नौजवान अदीब राशिद अशरफ़ की कोशिशों से ''बज़्म-ए-दाग़’’ के नाम से 2016 में फिर से नमूदार हुई है। यहां आपकी ख़िदमत में उसी किताब के चंद सफ़्हात को यहां पेश कर रहा हूं।

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बज़्म-ए-दाग़

- मौलाना एहसन मारहरवी

15 अगस्त 1898

जब मैं (1) अपने हम-ज़ुल्फ़ सैयद काज़िम अली शौकत बिलग्रामी के साथ, जो दारुल-शिफ़ा हैदराबाद में रहते थे, नवाब मिर्ज़ा खां साहिब दाग़ देहलवी की ख़िदमत में शर्फ़-क़दम-बोसी हासिल करने के लिए पहली बार हाज़िर हुआ तो मेरे दिल का अजब हाल था। मिर्ज़ा साहिब से फ़ैज़ तलम्मुज़ (शागिर्दी) को दो-तीन साल गुजऱ चुके थे और ज़रिया-ए-ख़त-ओ-किताबत तरफ़ैन (दोनो तरफ़ से) में ख़ासा ताल्लुक़ और वाक़फ़ीयत थी, लेकिन सूरी मुलाक़ात (आमने-सामने) का ये पहला इत्तिफ़ाक़ था। दिल धड़क रहा था और इश्तियाक़-ए-क़दम बोसी में बे-इख़्तियार हुआ जाता था। उस्ताद का क़ियाम अफ़ज़लगंज में था। हम लोग सुबह आठ बजे पहुंचे। इत्तिला कराई। फौरन तलब हुए। उस व$क्त मिर्ज़ा साहिब के पास दो शख्स बैठे हुए थे। एक मीर हसन अली खां साहिब (2) और दूसरे बारिक़ साहिब (3) बड़ी मुहब्बत से उस्ताद ने हमें लिया। मुझे देखकर ब-यक (पहली) नज़र पहचान लिया। सलाम ओ’ जवाब के बाद पहला जुमला जो ज़बान-ए-उस्ताद से अदा हुआ, वह ये था : ''अब तो आप मुस्लमानों की सूरत नज़र आते हैं।’’

इस अजमाल (जुमले) की तफ़्सील यह है कि एक दफ़ा आगरे में ब्रादरम शौकत बिलग्रामी के हमराह उन्हीं के लिबास में यानी सूट-बूट में, मैंने तस्वीर खिंचवाई थी और इस फोटो की एक कापी उस्ताद की ख़िदमत में भी भेजी थी जो एक हफ़्ते के बाद ही मुझे इस तहरीर के साथ वापिस मिली कि; 'एक सैयद और हाफ़िज़ ओ’ हाजी को मैं इस शक्ल में देखना नहीं चाहता।

गो मेरी तस्वीर एक नज़र देखकर वापिस कर दी गई थी लेकिन जब मुलाक़ात हुई तो मिर्ज़ा साहिब ने पहली नज़र में मुझे पहचान लिया। शौकत बिल्ग्रामी से मिर्ज़ा साहिब पहले से वाक़िफ़ थे। बोले, ''आप लोगों से आज मिलकर मुझे बहुत मसर्रत हुई। एहसन साहब ने अपनी आमद से मुत्तला (सूचना) तो ज़रूर फ़रमाया था और मुझे यकीन था कि वो मेरे पास ही ठहरेंगे लेकिन मुझे शौकत साहब से बहुत शिकायत है कि उन्होंने मेरे मेहमान को मुझसे छीन लिया। ''देर तक बातें करते रहे और हालात पूछते रहे। जब मैंने रुख़स्त होना चाहा तो हुक्म हुआ कि खाने का व$क्त हो गया है खाना खाकर तशरीफ़ ले जाईयेगा। अल-ग़रज़ मैं उस रोज़ खाना खाकर क़यामगाह वापस हुआ।

फुट नोट

(1)  मौलाना एहसन मारहरवी

(2) नवाब मीर हसन अली खां हैदराबाद के रऊसा-व-शुर्फा में से थे। दाग़ के शागिर्द और एक बे-तकल्लुफ़-ओ-राज़दार दोस्त थे। सैयद मुहम्मद साहिब नामी एक बुज़ुर्ग औरंगज़ेब के ज़माने में हैदराबाद पहुंचे। साहिब-ए-मन्सब और जागीरदार हुए। इसी जागीर का कुछ हिस्सा औलाद सलबी (दत्तक) होने की बिना पर हसन अली ख़ान साहब को भी मिला। 1930 में वफ़ात पाई।

(3) पूरा नाम मुज़फ़्फ़र हुसैन और बारिक़ तख़ल्लुस था। क़िला गोलकुंडा के मदरसे में मुदर्रिस थे। दाग़ के अव्वलीन शागिर्दों में से थे। दाग़ की ज़िंदगी तक हर जुमेरात की रात को मामूलन तशरीफ़ लाते, जुम्मे का दिन गुज़ार कर वापस जाते। अलावा जुम्मा, जुमेरात के भी जब मौक़ा मिलता उस्ताद की ख़िदमत में हाज़िर रहते। उस्ताद की वफ़ात तक इस मामूल में फ़$र्क न आया। दाग़ की वफ़ात के कुछ अरसे बाद  इंतक़ाल किया। 18 अगस्त 1898।

तक़रीबन रोज़ मिर्ज़ा साहिब के शागिर्दों और अहबाब से मुलाक़ातें हो रही हैं। आज (1) मुस्तजाब ख़ान 'क़ल्क़’, (2) जनाब तज्ली, (3) अब्दुल मजीद साहिब आज़ाद से मुलाक़ात हुई। यह सब लोग उस्ताद भाई हैं। बड़े बा-अख्लाक़ हैं, उस्ताद के यहां बराबर हाज़िरी देते हैं। नवाब हसन अली ख़ान अमीर और मुज़फ्फ़र हुसैन बारक़ से पहले ही रोज़ मुलाक़ात हो चुकी है। सुबह-ओ-शाम उस्ताद के यहां हम सब शागिर्दों की नशिस्त रहती है और हम लोग फ़ैज़ पाते हैं। दर-ह$कीक़त हम लोग बड़े ख़ुशकिस्मत हैं कि दाग़ जैसे मशहूर शायर की सुहब्बत की हमें इज़्ज़त हासिल है।

फुट नोट

1.        मुस्तजाब खां नाम, 'क़ल्क़’ तख़ल्लुस था। हैदराबाद के बाशिंदे थे, दाग़ के शागिर्द थे। ख़ुश-हाल व व फ़ारिग-उल-बाल (बे-औलाद) थे। शायर तो बराए नाम ही थे लेकिन बड़े सुख़न-फ़हम व सुख़न शनास थे।  दाग़ की सुहब्बत में रहते थे और दाग़ के शागिर्दों और अहबाब से दोस्ताना-ओ-बिरादराना मरासिम थे। 1936 के लगभग इंतिक़ाल किया।

2.        जनाब तज्ली अली मिर्ज़ा दाग़ के मख़सूस तलाम्ज़ाह (शागिर्दों) में से थे। ख़ानदानी शायर थे और हैदराबाद के शुरफ़ा में शुमार था। उनके वालिद सियादत अली ख़ान, हाफ़िज़ी तख़ल्लुस करते थे। दादा का तख्ल्लुस शैदा था। तज्ली ने आग़ा शस्तरी और तुर्की अली तुर्की से भी इसिलाह ली। दाग़ के हैदराबाद पहुंचने पर दाग़ के शागिर्द हो गए। हैदराबाद में सदर ख़ज़ानेदार यानी ट्रेज़री ऑफीसर थे। 1927 में इंतिक़ाल किया।

 

3.        अब्दुल हमीद नाम आज़ाद तख्ल्लुस था। बाज़ रिवायात से ये भी मालूम हुआ कि आपका नाम अब्बू अल-हमीद था। दाग़ के मुहिब-ए-ख़ास (दोस्त) थे। वकालत करते थे। आख़िर उम्र में वकालत छोड़कर महकमा रजिस्ट्रेशन में रजिस्ट्रार हो गए थे। बहुत कम-गो शायर थे मगर ज़िंदा-दिल, बज़ला संज (मज़ाहिया) और यार बाश बुज़ुर्ग थे।

 

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20 अगस्त 1898

रसाई व पज़ीरी के बाद मिर्ज़ा दाग़ ने सबसे पहली ख़िदमत जो मुझे तफ़वीज़ (सौंपी) की है वह हर जुमेरात को बुज़ुर्गान-ए-दीन और अहबाब मुतवसल्लीन (परिवार ले लोग) की फ़ातेहा देना है। मिर्ज़ा साहिब के मामूलात में है कि वो हर जुमेरात को मज़कूरा बाला बुज़ुर्गों की फ़ातेहा दिलवाया करते हैं। पहली जुमेरात को जब मैं तामील-ए-इरशाद के लिए उठा तो फ़रमाया कि वह फ़हरिस्त तो ले लीजिए जिसमें उन लोगों के नाम लिखे हुए हैं जिनकी फ़ातेहा दी जाएगी। अपने क़लमदान से एक फ़र्द (सूची) निकलवा कर दी। देखा तो बिला-शुबा इस्मा-ए-हुस्नी (आदर सूचल शब्द) से भी ज़्यादा इस्म (नाम) नवीसी की गई थी। सलासिल सूफ़िया का कोई मशहूर बुज़ुर्ग, तबका-ए-शुअरा (शायरों) का कोई नामवर सुख़नवर गिरोह, आइज़ा-ओ-अहबा (दोस्त-रिशेदारों) का कोई मख़सूस ज़न-ओ-मर्द ऐसा नहीं था जिसका नाम इस फ़हरिस्त में ना हो। शीरीनी और ताम को देखा तो वो भी 20-25 ख़ुराकों के लिए काफ़ी थी। मिर्ज़ा साहिब का यह मामूल हमेशा से चला आता है। फ़रमाते हैं कि रामपूर के क़ियाम में भी यही अमल दर-आमद रहा और अब हैदराबाद आने के बाद भी यह दस्तूर जारी है.

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मिर्ज़ा साहिब अपने मामूलात के बहुत पाबंद हैं। वह सुबह नमाज़ पढऩे के बाद आफ़ताब निकलते-निकलते मकान (1) की ऊपरी मंज़िल में जहां आम नशिस्त रहती है तशरीफ़ ले आते हैं। एक आराम-कुर्सी पर ख़ुद तशरीफ़ रखते हैं। आस-पास दूसरे लोगों के बैठने के लिए कुर्सियाँ पड़ी होती हैं। एक मेज़ पर क़लम-ओ-दवात और ख़ुतूत रखे होते हैं। ये वक्त आम तौर से ख़ुतूत के जवाब देने का होता है और इसी मौके पर शागिर्दों की ग़ज़लों पर इस्लाह भी होती है। 11 बजे के क़रीब यह महफ़िल बर्खास्त होती है। मकान के निचले हिस्से में दस्तरख्वान पर आम तौर से दो-चार हाज़िर बाश शागिर्द ज़रूर होते हैं। खाने के बाद मिर्ज़ा साहिब पलंग पर पहुंच जाते हैं। पेचवान सामने लगा दिया जाता है। नवाब अली हसन खां अगर होते हैं तो उनके लिए गुडग़ुड़ी हुक्क़ा आता है और इसी तरह दो ढाई घंटे मिर्ज़ा साहिब आराम करते हैं। ज़ुहर (दोपहर) के वक्त उठते हैं नमाज़ अदा करते हैं और इसके बाद शतरंज खेलते हैं। इसी मौके पर मुक़ामी शागिर्दों की ग़ज़लों पर इस्लाह होती है। शागिर्द ख़ुद शेर पढ़ता जाता है और इस्लाह लेता जाता है। नमाज़-ए-अस्र के बाद महफ़िल बर्खास्त हो जाती है और मिर्ज़ा साहिब जोड़ी पर सवार होकर सैर के लिए निकलते हैं। हवाखोरी के लिए ज़्यादातर सिकंदराबाद, हुसैन सागर या बाग़-ए-आम की तरफ़ तशरीफ़ ले जाते हैं। सवारी में ख़ुद हमेशा सदर में दाएं जानिब बैठते हैं। बाएं जानिब आम तौर पर नवाब हसन अली खां को जगह मिलती है। आगे की नशिस्तों पर हाज़िर बाश शागिर्दों में जो मौजूद होता है बैठता है। अल-ग़रज़ मिर्ज़ा साहिब की सवारी बड़ी शान से निकलती है। मग़रिब से क़ब्ल (पहले) वापसी होती है। नमाज़-ए- मग़रिब पढ़ कर फिर नशिस्त होती है लेकिन ऐसे मौके पर आम तौर से मिर्ज़ा साहब गाना सुनते हैं। गाना ज़्यादातर साइब जान तवाइफ़ (2) का सुनते हैं जो आजकल मिर्ज़ा साहब की मुलाज़िम है। या रहमत-उल्ला क़व्वाल(3) का गाना होता है। इशा की अज़ान के साथ यह महफ़िल ख़त्म होती है। बाद नमाज़-ए-इशा खाना तनावुल फ़रमाते हैं और आराम फ़रमाते हैं। लेकिन सोने से क़ब्ल अगर कोई ग़ज़ल कहना होती है तो उसकी फ़िक्र करते हैं और जब तक पूरी ग़ज़ल नहीं कह लेते सोते नहीं हैं। रात को मुश्किल से 3-4 घंटे आराम करते हैं। जिस वक्त आंख खुलती है उसी वक्त मुलाज़िम को आवाज़ दी जाती है। वो हुक्क़ा भर कर पेश करता है। हुक्क़ा पी कर ज़रूरियात से फ़ारिग़ होते हैं अव्वल वक्त नमाज़-ए-फ़ज्र अदा करते हैं।

फुट नोट

1.        (मकान) यह मकान महबूबगंज में वाके था। मिर्ज़ा साहिब एक अर्से तक इसमें रहे फिर आप बाज़ार आबिद शाप के मुतसिल एक कोठी में उठ गए और आख़िर वक्त तक वहीं रहे।

2.        साइब जान तवाइफ़ आगरे की रहने वाली थी। सूरत-शक्ल में तो ज़्यादा अच्छी नहीं थी लेकिन गाने में माहिर थी और उसे चोटी का कलाम याद था। हाज़िर जवाब बला की थी। उस की फ़रासत-ओ-तबाई (बोलने-समझने) की तारीफ़ अक्सर मिर्ज़ा साहिब भी किया करते थे।

3.        रहमतउल्ला दर-हकीक़त क़व्वाल था। पक्के गाने का भी माहिर था। मिर्ज़ा साहिब के पास मुस्तक़िल मुलाज़िम था। वैसे तो मिर्ज़ा साहिब के पास और भी मुतअद्दिद (अनेक) गवैये मुलाज़िम रहे लेकिन जो शख्स मुस्तक़िल तरीके से मिर्ज़ा साहिब की उम्र के आख़िरी लम्हात तक मुलाज़िम रहा वह रहमतउल्ला क़व्वाल ही था। मिर्ज़ा दाग, रहमतउल्ला की बड़ी क़द्र करते थे और रहमतउल्ला भी दाग़ के सच्चे जां-निसारों और नमक हलालों में था।

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23 अगस्त 1898

कलकते के एक साहिब (1) आज मिर्ज़ा साहिब से मिलने के लिए तशरीफ़ लाए। तआरुफ़ हुआ तो मालूम हुआ कि कलकत्ता में तिजारत करते हैं। शायरी का ज़ौक़ रखते हैं. बड़ी देर तक मिर्ज़ा साहब कलकत्ता का हाल पूछते रहे। नौकर थोड़ी देर के बाद पान लेकर हाज़िर हुआ। मिर्ज़ा साहिब ने इशारा किया और पान पहले कलकत्ते वाले साहिब के सामने पेश हुए। कलकत्ते वाले साहिब ने दूसरी तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया कि पहले वहां से तक़सीम करो। शाद अकबर के पास पान लाए गए तो उन्होंने फ़रमाया कि नहीं पहले कलकत्ते वाले साहिब को पेश करो। मगर कलकत्ते वाले साहिब ने फिर तक़ल्लुफ़ से काम लेते हुए पान न लिया और इसरार किया कि पहले उधर से। आपस में देर तक रद्दो-बदल होता रहा। कोई पान खाने में सब्क़त (पहल) नहीं करता था और पान पेश करने वाला आदमी एक कश्मकश में मुब्तला था। आख़िरकार मिर्ज़ा साहिब ने ख़ासदान मुलाज़िम के हाथ से लेकर इस में से दो पान निकाले और दोनो पान नौकर के दोनो हाथ में दे दिए। और हुक्म दिया कि दोनों साहिबान के दर्मियान में खड़े हो जाओ और एक व$क्त में दोनो को पान दे दो। झगड़ा इस पुर-लुत्फ़ फ़ैसले पर ख़त्म हुआ।

फुट नोट

1.        ग़ालिबन शेख़ अब्दुल रज़्ज़ाक़ शाद से मुराद, कलकता के बहुत मशहूर ताजिर से है। मिर्ज़ा दाग़ के मख्सूस अहबाब में इनका शुमार था। इनके वालिद का नाम शेख़ अल्लादिया था जो नवासे थे शेख़ जीवन बख्श के जो कलकता के मशहूर ताजिर थे। शेख़ अब्दुल रज़्ज़ाक़ की शादी लाहौर के मशहूर ताजिर रहीम बख्श दुख्तर से हुई थी। 1906 में इंतक़ाल किया।

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25 अगस्त 1898

आज मिर्ज़ा साहिब बोले कि बचपन में मेरे कई बार चेचक निकल चुकी है मगर ख़ुदा की $कुदरत मुलाहिज़ा हो कि चेचक का दाग़ मेरे जिस्म पर कहीं नहीं है। इस कमी को मेरा त$ख्ल्लुस 'दाग़’ रखकर पूरा कर दिया गया है। चेचक निकलने से जिस्म दगीला तो नहीं हुआ लेकिन रंग काला हो गया।

मिर्ज़ा साहिब गो ख़ूबसूरत इन्सानों में नहीं हैं लेकिन मजमूई हैसियत से उन्होंने कुछ ऐसे जाज़िब-नज़र (आकर्षक) ख़द-ओ-ख़ाल (चेहरा) पाए हैं कि आदमी उनकी वजाहत से मुतास्सिर-ओ-मरऊब हुए ब$गैर नहीं रहता। दराज़ (लम्बा) क़द, बदन माइल-ब-फ़र्बही (हट्टा-कट्टा और मुटापे की तरफ़ जाता हुआ), दाढ़ी छोटी और चढ़ी हुई। ख़िज़ाब हर दूसरे और तीसरे रोज़ लगता है। ढाके के कपड़े ख़सूसा मलमल बहुत पहनते हैं। मिर्ज़ा साहिब का उल्टा पैर सीधे की बनिस्बत कुछ बड़ा है। हमेशा तंग मोरी का पाजामा पहनते हैं

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28 अगस्त 1898

आज हस्ब-ए-मामूल मुहम्मद इब्राहीम ख़ानसामा (1) तशरीफ़ लाए। मिर्ज़ा साहिब बैठे हुए उन जानवरों का तमाशा देख रहे थे जो उनके घर में पले हुए हैं। मुहम्मद इब्राहीम खां और मिर्ज़ा साहिब की उम्र क़रीब-क़रीब एक है। अक्सर आपस में महज़ इस हम-उम्री की वजह से मज़ाक़ भी होता है। मिर्ज़ा साहिब को इस रंग में देखकर ख़ानसामा साहिब ने फ़रमाया कि आपका ये चिडिय़ाख़ाना मुकम्मल नहीं है। मिर्ज़ा साहिब बोले भाई यह बच्चों का शौक़ है। लाडली ने यह सब पाल रखे हैं वरना दाग़ को चूहों, बिल्लियों, कबूतरों, तोतों, बटेरों, उल्लुओं, तीतरों और मु$र्गीयों से क्या काम?

मैं अक्सर लाडली से कहा करता हूं कि बेटा सूअर पालना और रह गया है कहो तो एक सूअर और मंगवा दूं। और ग़ालिबन इसी की कमी को महसूस करके आप इस चिडिय़ाख़ाने को ना-मुक्कमल बताते हैं। ख़ानसामा साहब मिर्ज़ा साहब के इस फ़िक़रे पर देर तक हंसते रहे।

बातों-बातों में आज दिल्ली का ज़िक्र निकल आया। मिर्ज़ा साहब ने फ़रमाया कि दिल्ली जो कभी जन्नत थी अब जहन्नुम है। जिन आंखों ने दिल्ली की बादशाहत देखी हो, दिल्ली में हुन (सोना) बरसते देखा हो, जिन कानों में नौबतख़ाने की आवाज़ें गूंज रही हों वो मौजूदा दिल्ली और उसकी हालत पर नज़र कर उसे जहन्नुम न कहे तो क्या कहे। और यही वजह है कि अब में अपने को दक्कनी कहने लगा हूं। दक्कन ही अब मेरा दूसरा वतन है और दक्कन की सर-ज़मीन में ही मेरी क़ब्र की बिना (बुनियाद) है। ये फ़रमा कर बड़ी देरी तक दर्दनाक आवाज़ में अशआर पढ़ते रहे।

यूं मिटा जैसे कि दहली से गुमान-ए-दहली

था मेरा मेरा नाम-ओ-निशां, नाम-ओ-निशां दहली

ले गए लूट के सब शौकत-ओ-शान-ए-दहली

पूरबी पहले उड़ाते थे ज़बान-ए-दहली

दिल्ली वालों के लिए ताज़ा बनेगी जन्नत

ले गए सर पे मुल्क तोहफ़ा मकान-ए-दहली

रश्क-ए-शमशाद था हर ख़ुश-क़द व हर ख़ुश-रफ़्तार

सरो आज़ाद था हर इक जवान-ए-दहली

आरिज़-ए-साफ़ था हर एक मुस्फ़ा बाज़ार

चश्म पर जलवा थी एक-एक दुकान-ए-दहली

गर्म हंगामा हुए लाला रुख़ान-ए-पंजाब

गुल खिलाए हैं नए तूने ख़िज़ान्-ए-दिल्ली

इस से बढ़कर कोई महशर में न हो तूल-ए-हिसाब

बस यही होगा कि हम और बयान-ए-दहली

दे दिया $फौज को इनाम में हुक्काम ने सब

गंज-ए-क़ारूँ से फुज़ूँ गंज निहाँ-ए-दहली

या ख़ुदा मस्जिद-ए-जामा का रहे नाम बुलंद

काबे वाले कहें वो आई अज़ान-ए-दहली

आसमान पर से भी नौहे की सदा आई है

क्या फ़रिश्ते भी हुए मर्सिया ख्वान-ए-दहली

मीर-ओ-ग़ालिब-ओ-आज़ुर्दा से फिर लोग कहां

दाग़ अब ये हैं ग़नीमत हमादान-ए-दहली

 

फुट नोट

1.        मुहम्मद इब्राहीम साहब ख़ानसामां मीर महबूब अली $खां निज़ाम दक्कन के ख़ानसामा थे। बीदर के रहने वाले और पढ़े लिखे आदमी थे। शेर-ओ-सुख़न का भी ज़ौक़ था। निज़ाम दक्कन के बहुत मोतमिद-अलय (भरोसेमंद) थे। दाग़ को हैदराबाद आने की दावत उन्होंने ही दी थी। दाग़ के बड़े क़द्रदान थे. हसन अली खां अमीर और गुलाम क़ादिर गिरामी के ख़ास अहबाब में से थे। मिर्ज़ा दाग़ की कामयाबी और उरूज की वजह यही ख़ानसामा थे। दाग़ की वफ़ात के बाद अरसे तक ज़िंदा रहे।

2.        लाडली बेग़म मिर्ज़ा दाग़ के ख़ानदान की ही एक लड़की थीं। चूंकि मिर्ज़ा साहिब साहब के औलाद  नहीं थी इसलिए उनकी अहलिया ने लाडली बेगम को गोद ले लिया था।

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3 सितम्बर 1898

आज की सुहब्बत में बहुत देर तक मिर्ज़ा साहब 'इश्क़ सादिक़’ (सच्चा इश्क़) पर रोशनी डालते रहे और बताते रहे कि 'इश्क़ सादिक़’ में इन्सान तन-बदन का होश खो देता है। दिमाग़ माऊफ़ (शून्य) हो जाता है। कुव्वत-ए-इम्तियाज़ बाकी नहीं रहती और इन्सान अपनी शिख्सयत को मह्व (खो) कर बैठता है. मिजऱ्ा साहब ने अजीब-अजीब अंदाज़ से इश्क़-ए-हकीकी, मजाज़ी के फ़र्क-ओ-इम्तियाज़ में दलाइल पेश फ़रमाए और इसी सिलसिले में एक अफ़सोसनाक वाक्या भी सुनाया।

उन्होंने फ़रमाया कि मैं कलकत्ता में एक रोज़ बैठा हुआ था। मकान (1) की खिड़की से बाज़ार की सैर कर रहा था. रात के 8 या 9 बजे यका-य़क मेरे कानों में गाने की आवाज़ आई। गौर किया तो एक शख्स मेरा ही एक शेर निहायत दर्दनाक आवाज़ से गाता हुआ चला आ रहा था। शेर यह था -

दुनिया में कोई लुत्फ़ करे या जफ़ा करे

जब मैं नहीं बला से मेरी कुछ हुआ करे

गाने वाले की दर्दनाक आवाज़ और फिर मेरा ही शेर। मैं इस दर्जा मुतास्सिर हुआ कि बे-इख़्ितयार गाने वाले को आवाज़ दी और इशारा किया। पहले तो हैरान हो कर उसने मुझे देखा लेकिन मेरे दूसरे इशारे पर वह मेरे पास चला आया। 20 या 22 बरस का निहायत ख़ूबरू लड़का था। नाम पूछा तो अहमद बताया। मैंने पूछा किस का शेर पढ़ते जा रहे हो। उसने कहा 'दाग़’ का। मैंने पूछा - 'दाग़ को तुमने देखा भी है?’  कहा 'नहीं’। मैंने कहा,  'तुम दाग़ को देखना चाहते हो।’ उसने कहा आज से पहले तो ज़रूर दाग़ को देखने की तमन्ना की थी लेकिन अब तो सिर्फ एक ही तमन्ना है।

मैने पूछा, 'वह क्या है?’ लड़का मेरे इस सवाल पर कुछ घबरा सा गया। जब बहुत इसरार किया तो कहा कि अगर आप मुझे 'सफ़िया’ को दिखा दें तो तमाम उम्र आपका अहसान न भूलूंगा। यह सुनकर मुझे ताज्जुब हुआ। पूछा, 'यह सफिया कौन है?’ उसने बताया कि ये सफ़िया वो है जिस पर मैं 4 साल से फ़रेफ्ता (आशिक़) था और उम्मीद थी कि किसी न किसी रोज़ उसे अपना लूंगा। लेकिन आज वो ख्याल भी ख़ाम हो गया और अब उसके मिलने की कोई सूरत बाकी न रही। कल उसकी शादी हो गई। मेरा अब ज़िंदा रहना बेकार है। यह कह कर वो उठा और जाने लगा। मैने उसे रोककर कुछ और हाल दर्याफ़्त करना चाहा, लेकिन वो मुझसे हाथ छुड़ा कर ये कहता हुआ कि,  'छोडिय़े मुझे सफिया के पास पहुंचने में देर होती है’ चल दिया। और फिर निहायत दर्दनाक आवाज़ गाने की मेरे कानों में आने लगी। इश्क़-ए-हकीकी की इस सच्ची मिसाल ने मेरे दिल पर बड़ा असर किया। ये वा$क्या बयान कर के मिर्ज़ा साहब ख़ामोश हो गए। उनके चेहरे पर अफ़्सुर्दगी व ग़म के आसार नज़र आने लगे। मैंने मिर्ज़ा साहिब के दिल-ओ-दिमाग़ से यह असर ख़त्म करने के लिए कहा कि इस वा$क्ये से आपके कलाम की मक़बूलियत का भी अंदाज़ा होता है। मिर्ज़ा साहब बोले कि ऐसी मक़बूलियत किस काम की कि मेरे एक शेर ने एक नौ-उम्र नौजवान की ज़िंदगी का फ़ैसला कर दिया और नहीं मालूम उस बेचारे ने कुएं में गिर कर जान दी या दरिया में डूब कर ज़िंदगी का फ़ैसला किया। मुझे जिस वक्त उस की जवानी याद आती है, बड़ी अज़ीयत होती है।

सुबह की नशिस्त में मिर्ज़ा साहिब बोले कि आज मेरी बाईं आंख फड़क रही है। हाज़िरीन में से बारिक़ साहिब ने पूछा कि जब ऐसा होता है तो क्या ज़हूर में आता है। बोले अगर मेरी बाईं आंख फड़कती है तो ख़ुशी और अगर दाईं तो रंज होता है। मैंने अर्ज़ किया कि हज़रत आसार अच्छे हैं। आपकी बाईं आंख फड़क रही है तो कुछ बेहतर ही होगा। ये वाक्या सुबह का था। शाम को जब मैं हस्ब-ए-मामूल पहुंचा तो मिर्ज़ा साहिब बोले कि; देख सैयद हम न कहते थे कि हमारी बाईं आंख फड़क रही है कोई ख़ुशी होगी। आज की डाक में मुन्नी बाई (2) का ख़त आया है। पूरे एक माह के बाद याद आया हूँ। लो तुम भी पढ़ लो। जवाब कल सुबह लिखा जाएगा। मैंने ख़त पढ़ा। मज़मून यह था।

हाजी साहब! तस्लीम आप कहते होंगे मुन्नी मर गई या पेमान (वादा) भूल गई। यह सब कुछ नहीं। न मरी हूं न आपको भूल सकती हूं। एक अशरे से कुछ ज़ाइद हुआ बहन (3) यका-य़क बीमार हो गई। मामूली बुख़ार था, उसने सरसामी सूरत इख़्तियार कर ली। सारा घर परेशान था। मैं उसकी तीमारदारी में लगी थी। आज शेख़ जी (4) ने आपका इश्तियाक़ भरा ख़त दिया। इसी व$क्त ये चंद जुम्ले लिख कर रवाना करती हूं। आप मुतल्क़ (बिल्कुल) वहम दिल में न लाएं। ज़रा परेशान होने की ज़रूरत नहीं। बीमार का हाल अब बेहतर है। हकीम साहब (5) की ख़ास तवज्जा है। आपका ख़त आते-आते वो यकीना चंगी हो जाएगी।

राक़िम - मुन्नी अज़ कलकता - 23 अगस्त 1898

ख़त पढ़ कर मैंने कहा हज़रत इस ख़त में तो कोई ख़ुशी की बात नहीं है बल्कि आपकी बाईं आंख का फड़कना तो ख़बर-बद के मिलने की पेशिन-गोई है। मेरे इस कहने पर मिर्ज़ा साहब हंसे और बोले कि मियां ये सब बद-एतिक़ादयां (अंध-विश्वास) हैं। न आंख फड़कने से ख़ुशी होती है और न रंज। यह सब इंसान की तोहमात (वहम) हैं।

फुट नोट

1.        कलकत्ता में मिर्ज़ा दाग़ का क़याम ना-ख़ुुदा की मस्जिद के सामने एक बाला ख़ाने पर था जो म$ख्सूस उनके लिए किराए पर लिया गया था और मुन्नी बाई हिजाब के मकान से क़रीब वा$के था।

2.        मुन्नी बाई कलकत्ते की एक डेरादार तवाइफ़ थी। पढ़ी-लिखी और साहिब-ए-जमाल थीं। शायरी से भी लगाव था और हिजाब तख्ल्लुस करती थीं। रामपुर के मेला-ए-बेनज़ीर में पहली बार हज़रत दाग़ से मुलाक़ात हुई। ताल्लुक़ात बढ़े और मिर्ज़ा साहब कलकत्ता की इस परी-जमाल को दिल दे बैठे।  मुन्नी बाई दूसरी बार भी रामपुर पहुंचीं और दाग़ की मेहमान रहीं। ताल्लुक़ात इतने बड़े कि मिर्ज़ा साहिब बी हिजाब से मुलाक़ात के लिए ख़ुद कलकत्ता पहुंचे और कुछ अरसे वहां रह कर दाद एश दी। कलकत्ता से वापस हुए तो मुन्नी बाई 'हिजाब’ की मुहब्बत पूरी तरह मिर्ज़ा दाग़ पर मुसल्लत हो चुकी थी, जिसकी यादगार उनकी मशहूर मसनवी ''फ़रियाद-ए-दाग’’ जो यक्सर (पूरी तरह) हिजाब के इश्क़ और सोज़-ए-मोहब्बत की रंगीन-ओ-दिलचस्प दास्तान है। हिजाब हैदराबाद पहुंचीं और कई साल तक मिर्ज़ा साहिब के पास रहीं। मुन्नी बाई हिजाब का जुस्ता-जुस्ता ज़िक्र ख़ुद इस रोज़नामचे में किया गया है जिससे उनके बहुत से हालात वाज़े हो जाते हैं।

3.        बहिन से मुराद है - हमीदन बाई, जो हिजाब की छोटी बहिन थी। यह भी शाइरी करती थी। 'नक़ाब’ तख्ल्लुस था और बड़ी बहिन हिजाब ही से मश्वरा करती थी। नमूना-ए-कलाम में दो-चार शेर सुनिए।

मेरे बजाय उसने अद्दू (दुश्मन) को बिठा लिया

ये दाग़-ए-रश्क मुझसे उठाया ना जाएगा

वे और वस्ल-ए-ग़ैर अम्र मुहाल (मुश्किल काम) है

तस्$कीन दे रहा है मुझे यार का हिजाब

4.        शेख़ मुहम्मद वज़ीर - अज़ीमाबाद के रहने वाले थे। पढ़े-लिखे आदमी थे। एक पर्चा मौसूम 'गुलदस्ता-ए-सुख़न’ निकालते थे। दो उर्दू अख़बार यानी 'गौहर-ए-आसिफ़ी’ और 'जनरल’ भी उन्ही की इदारत में निकलते थे। बड़े अच्छे-ख़ासे शायर थे। हिजाब के हाशिया-नशीन और मिर्ज़ा दाग़ के मुख़ल्सतीन में से थे।

5.        इनका नाम दादार बख्श था। तिबाबत पेशा करते थे। हिजाब के हाशिया-नशीनों में उनका ख़ास रुत्बा था। मिर्ज़ा दाग़ से क़याम-ए-कलकत्ता के दौरान ताल्लुक़ात बढ़े।

***

8 सितम्बर 1898

मिर्ज़ा साहब कहते हैं कि एक दफ़ा मेरठ की एक प्राईवेट नशिस्त में एक तवाइफ़ ने मुझे एक मिसरा दिया और फ़र्माइश की कि इस पर अगर आप फ़िलबदीया  ग़ज़ल फ़रमा दें तो चार मुजरे आपको मुफ़्त सुनाऊँ। मिर्ज़ा साहिब ने इसी जलसे में बैठे-बैठे चंद मिनट में ग़ज़ल कह दी जिसका मक्ता यह है।

मय-ओ-माशूक़ से तौबा करेगा दाग़ तो तौबा

तेरी नीयत तो ए मर्द-ए-ख़ुदा कुछ और कहती है

मिर्ज़ा साहिब के यहां एक मामा नौकर है जिसका नाम 'लाला बी’ है। हैदराबाद की रहने वाली है। आज बोली कि मैं आपके यहां नहीं रह सकती। वजह दरयाफ़्त हुई तो उसने बताया कि आपके यहां मेरी ज़बान ख़राब होती है। मुझे हैदराबाद के मुक़ाबले में दिल्ली की ज़बान अच्छी नहीं मालूम होती। यह सुनकर हम सबको बड़ी हैरत हुई। मिर्ज़ा साहब हंसकर बोले - देखो लोगों को अपनी ज़बान कितनी प्यारी होती है। दिल्ली की ज़बान का तमाम हिन्दोस्तान में चर्चा है और सनद मानी जाती है लेकिन इस औरत को अपनी ज़बान पर नाज़ है। मैं इसी मुग़ालते में था कि हैदराबाद रह कर मेरी ज़बान ख़राब हो रही है। आज मालूम हुआ कि यहां ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो दिल्ली वालों की ज़बान को पसंद नहीं करते। इस मामा को लाख समझाया लेकिन वह नौकरी छोड़कर चली गई।

***

आज मैं मिर्ज़ा साहब से अपनी एक ग़ज़ल पर इस्लाह ले रहा था। दो-तीन अश्ख़ास (लोग) बैठे थे। मिन-जुमला (इन लोगों में) उनके साइब जान भी मौजूद थीं जो मिर्ज़ा साहब की मुलाज़िम हैं। मैने जब यह शेर पढ़ा कि :

किसी दिन जा पड़े थे बेख़ुदी में उनके सीने पर

बस इतनी सी ख़ता पर हाथ कुचले मेरे पत्थर से

शेर सुनकर मिर्ज़ा साहब ने सुकूत (ख़ामोशी) फ़रमाया। साइब जान बड़ी हाज़िर जवाब और सुह्ब्बत याफ़्ता तवाइफ़ थी। मेरा शेर सुनकर बोली कि, ''अहसन साहब बेख़ुदी में भी दोनो हाथों से काम लेते हैं।’’ मिर्ज़ा साहब मुस्कराए और बोले मियां अहसन तुम्हारे शेर पर साइब जान ने इस्लाह दे दी और बरजुस्ता मेरे इस शेर को यूं दुरुस्त फ़रमाया:

किसी दिन जा पड़ा था बेख़ुदी में उनके सीने पर

बस इतनी सी ख़ता पर हाथ कुचला मेरा पत्थर से

इस्लाह के बाद मैं समझा कि साइब जान के इस फ़िक़रे का क्या मतलब था। आज मिर्ज़ा साहब ने बरसर तज़किरा फ़रमाया कि मैने मिर्ज़ा ग़ालिब (1) की मशहूर ग़ज़ल:

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी

अब किसी बात पर नहीं आती

पर ग़ज़ल कहकर जब उन्हें सुनाई बड़ी तारीफ़ की। बाज़-बाज़ अशआर पर तो मुझे गले से लगा लिया। मैने अपनी ग़ज़ल का जब ये शेर पढ़ा :

दिलबरों पर तबीयत आती है

इस तरह इस क़दर नहीं आती

तो यह शेर हज़रत ग़ालिब ने कई दफ़ा पढ़वाया और बेहद पसंद किया। इसके बाद जब मैं इस शेर पर पहुंचा :

दिल के लेने की घात है कुछ और

ये तुझे मुफ़्त बर नहीं आती

तो ग़ालिब बेचैन हो गए। ज़ानो पर हाथ मारकर बोले ख़ुदा नज़र-ए-बद से बचाए साहिबज़ादे तुमने तो कमाल कर दिया। मेरी ग़ज़ल के इस शेर पर :

हाल मालूम है क़यामत का

बात कहने में पर नहीं आती

मिर्ज़ा ग़ालिब खड़े हो गए। मुझे सीने से लगा लिया। देर तक खड़े-खड़े झूमते रहे और मेरे शेर को दुहराते रहे।

***

मिर्ज़ा साहब ने फ़रमाया कि मैं हर दूसरे-तीसरे रोज़ हज़रत ग़ालिब की ख़िदमत में हाज़िर होता था। मुख्तलिफ़ बातें हुआ करती थीं। शतरंज भी होती थी। मैं जब हार जाता था तो मिर्ज़ा साहब फ़रमाते कि इस जुर्माने में अपनी ग़ज़ल सुनाओ। एक दफ़ा मैं शतरंज की बाज़ी हारा। हस्ब-ए-मामूल मिर्ज़ा साहब बोले कि ग़ज़ल सुनाओ। मैं ग़ज़ल पढऩा ही चाहता था कि फ़रमाया कि मेरी कही हुई ज़मीन, ''ना-उम्मीदी उसकी देखा चाहे’’ में जो ग़ज़ल तुमने कही है वह सुनाओ। मैने तामील-ए-हुक्म की। मेरे इस शेर पर;

ऐ फ़लक सामान-ए-महशर ही से

अपनी आंखों को तमाशा चाहिए

मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, ''मेरे ख्याल की कितनी प्यारी तर्जुमानी की है। और फिर अपना शेर पढ़ा।

एक हंगामा पे मौकूफ़ है है घर की रौनक़

नोहा-ए-ग़म ही सही, नग़मा-ए-शादी न सही

इसके बाद मैने यह शेर पढ़ा;

तेरे जलवे का तो क्या कहना मगर

देखने वाले को देखा चाहिए

शेर सुनकर मिर्ज़ा उफ़्फ़ करके रह गए। मैने फौरा यह दूसरा शेर पढ़ा;

गो तिरी नज़रों से कल गिर ही पड़ें

आज तो कोई ठिकाना चाहिए

मेरे इस शेर पर ग़ालिब तड़प गए। बोले ठहरो। ज़मीन पर हाथ टेक कर उठे। मेरे गिर्द चार-पांच बार घूमे। घूमने की हालत में निहायत दर्दनाक आवाज़ में मेरा शेर पढ़ते जाते थे।

फुट नोट

1.        मिर्ज़ा ग़ालिब की बीवी हज़रत दाग़ के वालिद नवाब शम्सउद्दीन ख़ान की हकीकी चचाज़ाद बहिन थीं जिनके वालिद का नाम नवाब ख्वाजा इलाही बख्श ख़ान था। 'मारूफ़’ तख्ल्लुस करते थे। नवाब अहमद बख्श ख़ान वाली लोहारू के छोटे भाई थे। इस रिश्ते से ग़ालिब मिर्ज़ा दाग़ के फूफा हुए।

 

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संपर्क- मो. 9827055559, भोपाल

 


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