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जनवरी 2021

लातिन अमेरिका डायरी : कोलंबिया—'गैबो’ और 'जिस मिट्टी से बने हैं हम’ की धरती पर!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

 

        

 

    मेक्सिको और मध्य अमेरिका से आगे कोलंबिया की जिस धरती पर हम खड़े हैं वहाँ से  पूर्व में वेनेज़ुएला और दक्षिण में इक्वाडोर, पेरू और बोलीविया का पिछली सदियों का इतिहास जहां सोने, चांदी, जवाहरात और संसाधनों की अंधी लूट के गिर्द रचा बसा है, वहीं इसके वर्तमान में कॉफ़ी, कोको, केले और और कोकेन की वैध-अवैध खेती की मोनोपोलियों और इनमें जुते अनपढ़ मजदूरों के मरणान्तक शोषण की सच्ची कहानियां हैं। इन्हीं कहानियों ने पिछली शताब्दियों में सिमोन बोलिवार और चे ग्वेवारा जैसे नेताओं और इन्हीं के समानांतर नेरुदा, माकर्वेज़, एलिंदे, बोर्खेज़, लोसा और गैलियानो जैसे अप्रतिम साहित्यकारों को भी जन्म दिया है। लातिन अमेरिका की वादियों का हमारा सफ़र इस धरती के साथ-साथ इन लेखकों को एक नये परिप्रेक्ष्य में देखने और महसूस करने का अनोखा अवसर भी है। 

 

अपनी पुस्तक 'ओपन वेंस ऑफ़ लातिन अमेरिका’ में गैलियानो कहते हैं—

 

''हमारे लिखने की वजह क्या है?... हम क्यों लिखते हैं?

...हम अपने जीवन के तकलीफदेह लम्हों को भुलाने और आह्लादकारी क्षणों को दूसरों से बांटने के लिए कलम उठाते हैं...हम लिखते हैं अपने और उन तमाम लोगों के अकेलेपन के खिलाफ ...इस यकीन के साथ कि हमारा लिखा हुआ उनके स्वभाव और उनकी भाषा को बदलेगा ...हम दरअसल लिखते हैं उन सारे लोगों के लिए, जिनका भाग्य और दुर्भाग्य हमारे साथ सांझा है— वे तमाम भूखे, कई रातों से जागे, बेचैन, धरती के बदकिस्मत लोग, जिनमें से अधिकाँश आज भी अनपढ़ हैं...

....एक साहित्यकार इन सारे बेजुबानों को कैसे वाणी दे सकता है?  कैसे इस गूंगी और बहरी सभ्यता के बीच वह अपनी आवाज़ उन तक पहुंचा सकता है? लेखकों को मिली स्वतंत्रता  क्या अक्सर उसके विफलता का ही दूसरा नाम नहीं होती? अपने लेखन से रचनाकार किस हद तक उन सारे लोगों तक पहुँच सकता है?...लातिन अमेरिकी लेखकों का रचना संसार आज अपने समाज को बदलने की इन्हीं चुनौतियों से चालित है...’’

कोलंबिया की धरती यूं तो कई महत्वपूर्ण लातिन अमेरिका रचनाकारों की कर्मस्थली रही है, लेकिन मेरे लिए इनमें गेब्रियल मार्सिया मार्क्वेज़  और इसाबेल एलिंदे के नाम सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता माक्र्वेज़़ का जहां 2014 में देहांत हो गया, वहीं एलिंदे अब अमेरिका में बस गयी हैं। मार्क्वेज़  का जन्म से लेकर अधिकाँश जीवन कोलंबिया में गुजरा  और एलिंदे राजनीतिक कारणों से अपने जन्मस्थल चिली से निकाले जाने के बाद पत्रकार की हैसियत से कोलंबिया और निकटवर्ती वेनेज़ुएला में सक्रिय रही। प्रदेश की कई छोटी बड़ी घटनाओं-दुर्घटनाओं को उनकी कहानियों ने अमरत्व प्रदान किया है। कोलंबिया के लाडले मार्क्वेज़  (जिन्हें स्थानीय कोलोम्बियन और साहित्य जगत अपने संक्षिप्त प्यार भरे नाम 'गैबो’ से जानता है) ने तो पहले पत्रकार और बाद में लेखक के रूप में अपने जीवन का बड़ा हिस्सा यहाँ के शहरों-कस्बों की गलियों में व्यतीत हुआ है। वे यहीं पैदा और बड़े हुए और यहाँ के राजनीतिक घटनाक्रम के बीच उनकी रचनात्मकता ने अपनी जड़ें पकड़ी। अपनी जवानी के दिनों में राजनीतिक नेता गैतेन के गोली मारे जाने का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं—

''अप्रैल 1948 में मैं बोगोटा में था जब गैतेन को गोली मारी गयी और पूरा शहर बाहर सडकों पर उतर आया। मैं हॉस्टल में खाना खा रहा था जब मुझे यह खबर मिली। मैं उस जगह की ओर भागा लेकिन तब तक गैतेन  को टैक्सी में डालकर अस्पताल ले जाया चुका था। हॉस्टल से लौटते हुए मैंने लोगों को देखा, वे नारे लगा रहे थे, दुकानें लूटकर, बिल्डिंगों को जला रहे थे। मैं उनमें शामिल हो गया। मुझे पहली बार पता चल रहा था कि मैं किस तरह के देश में रह रहा हूँ और मेरी अब तक लिखी हुई कहानियां इस हकीकत से कितनी दूर हैं...बरसों बाद जब मैं कैरेबियन तट पर स्थित बारान्क्विला लौटा, जहां मेरा बचपन बीता था, तो मेरे सामने स्पष्ट हो चुका था कि यही वह जीवन है, जिसके बारे में लिखते हुए मुझे लेखक की हैसियत से अपनी सारी ज़िन्दगी गुजारनी है ...’’

यदि एक ऐतिहासिक राजधानी बोगोटा को छोड़ दिया जाए तो कोलंबिया के तमाम बड़े शहर एक जैसे दिखेंगे, जहां भूकंप और ज्वालामुखियों की आशंका से बने छोटे छोटे मकानों के बीच कुछ दशकों से यहाँ-वहां, उन पुराने घरों को लज्जित करती, अमरीकी शैली की भूकंप विरोधक आधुनिक इमारतें दिखाई देने लगी हैं। हम अपने सफ़र में काली के बाद ब्यूनावेंचुरा, परेरा और अब वहां से मार्क्वेज़  के शहर बारान्क्विला आ पहुंचे हैं! इन सारे शहरों के मुख्य शहर या 'डाउन टाउन’ की बाहरी समृद्धता पर अमरीकी कॉर्पोरेट जगत की छाया है और बारान्क्विला भी इसका अपवाद नहीं है। अमेरिका की जिस कुख्यात अमेरिकन यूनाइटेड फ्रूट कंपनी द्वारा मध्य अमेरिका और ग्वातेमाला के शोषण की कथा हम पहले पढ़ चुके हैं, उसी ने अपने पैर इक्वाडोर, वेस्ट इंडीज़ और कोलंबिया आदि देशों तक भी फैला रखे हैं और यहाँ भी एकाधिकार और मजदूरों के शोषण की वही परम्परा आज भी बरकरार है, जिसे मार्क्वेज़  ने बहुत नज़दीक से देखा और महसूस किया। इस कंपनी का सबसे सख्त शिकंजा केलों की खेती और इसके निर्यात पर था  और कोलंबिया में इसका रक्तिम इतिहास मध्य अमेरिका से कम भयानक और निर्मम नहीं था। 1984 में यूनाइटेड फ्रूट कंपनी पहले यूनाइटेड ब्रैंड कंपनी में तब्दील हुई और अब इसका नाम फिर से बदलकर चिकिटा ब्रैंड इंटरनेशनल हो गया है, जो इस समय दुनिया की सबसे बड़ी केले बेचने वाली मल्टीनेशनल कंपनी है। लन्दन से लेकर योरोप और सऊदी अरेबिया से लेकर दुबई व जापान तक यदि आप डिपार्टमेंट स्टोर से केले खरीदना चाहते हैं तो कोकाकोला की तरह आपको 'चिकिटा’ ब्रैंड के केले खरीदने के सिवा कोई विकल्प नहीं मिलेगा।

इस कंपनी की मजदूर-विरोधी दमनकारी नीतियों के विरुद्ध 1928 में सांता मार्ता के नज़दीक सियेनागा क्षेत्र में कई यूनियन प्रमुखों की अगुवाई में  मीलों तक फैले कदली वनों के साम्राज्य में मज़दूरों ने वेतन और काम की सम्मानजनक स्थितियों के लिए व्यापक हड़ताल की थी। लेकिन फ्रूट कंपनी के अधिकारियों ने मजदूरों से बातचीत करने तक से साफ़ इन्कार कर दिया था। तब  कंपनी ने अपनी हितैषी कोलंबिया सरकार से इस हड़ताल को बलपूर्वक समाप्त करने की गुजारिश की थी। जब हड़ताल तोडऩे के सारे प्रयास विफल रहे थे तो सरकार के सिपाहियों ने अचानक बर्बर आतंक फैलाते हुए सारे प्रमुख यूनियन नेताओं, मजदूरों और उनके परिवारों सहित कोई दो हज़ार लोगों को मशीन गनों से भून डाला था। इस भयानक नरसंहार में कोलंबिया की सरकार के साथ-साथ अमरीकी प्रशासन  की मिली-भगत थी, जिन्होंने कंपनी की तरफदारी करते हुए इस हड़ताल को कम्युनिस्टों का 'षड्यंत्र’ करार दिया था। इतिहास में 'बनाना क़त्ल-ए-आम’ कहे जाने वाले इस नरसंहार को मार्क्वेज़  ने अपने उपन्यास 'वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ में नाम बदलकर  वर्णित किया है, जहां मरने वालों की संख्या तीन हज़ार बतायी गयी है।

दरअसल मार्क्वेज़  का जादू ही हमें बारान्क्विला ले आया है, इस असंभव उम्मीद में कि उनके 'जादुई यथार्थ’ तले मुमकिन है, गली के नुक्कड़ वाले कैफे की किसी लकड़ी की गोल टेबल पर स्वयं 'गैबो’ हमें अपने साहित्यिक दोस्तों के साथ उसी तरह किसी धारावाहिक साहित्यिक बहस में डूबे नज़र आ जाएं।  जिस बारान्क्विला में मार्क्वेज़  ने अपने जीवनकाल का सबसे अधिक समय गुज़ारा, वह हकीकत में एक बदरंग औद्योगिक शहर है जहां बरसात के पानी का 'ड्रेनेज’ हमारे शहरों की तरह इतना खराब है कि बारिश के दौरान सड़कें पानी से भर जाती हैं और उसका बहाव कभी कभी इतना तेज़ होता है कि उसमें सड़क पर खड़ी कारें तक बह जाती हैं।

एक ओर कैरीबियन सागर और दूसरी तरफ माग्दालेना नदी के मुहाने के बीच 1813 में बसा बारान्क्विला अपेक्षाकृत नया शहर है जिसका बंदरगाह स्थापना के बाद तेज़ी से बढ़ा और पहले तथा दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जहां योरोप के अलावा मध्य एशिया से हज़ारों विस्थापित आकर रहने लगे, जिसके कारण इसे 'कोलंबिया के सुनहरी दरवाज़े’ की संज्ञा दी गयी। चालीस के दशक में बारान्क्विला कोलंबिया का प्रमुख बंदरगाह होने के साथ साथ देश का दूसरे नंबर का आधुनिक शहर था, लेकिन  बाद के दशकों में सरकारी महकमों में भारी भ्रष्टाचार और नए निवेशों के थम जाने से शहर ने भारी पतन देखा है, जिसे मार्क्वेज़  की कहानियों और उपन्यासों में बखूबी पहचाना जा सकता है। मार्क्वेज़  के नाम तक से अपरिचित शहर की नयी गैर साहित्यिक पीढ़ी के लिए शहर की 24 लाख की जनसंख्या में शायद सबसे प्रसिद्ध नाम विश्व विख्यात गायिका शकीरा और कोलंबिया-अमेरिका अभिनेत्री सोफ़िया वरगारा का होगा। बारान्क्विला में जन्मी अभिनेत्री, टी वी सीरियल निर्माता और मॉडल सोफ़िया वरगारा लगातार सात वर्षों तक अमरीकी टेलीविज़न की सबसे महँगी स्टार रह चुकी हैं। शकीरा (अरबी में 'शुक्रगुज़ार’) के दादा-दादी लेबनान से न्यूयॉर्क आये थे, जहां उसके पिता का जन्म हुआ जो, पांच वर्ष की आयु में वहाँ से बारान्क्विला आ गए। वहीं जन्मी, पली और बढ़ी शकीरा (जो कवियत्री भी हैं और अपने  गीत स्वयं लिखती है ) को आज अमेरिकन और हॉलीवुड की पॉप खूराक पर पला बढ़ा दुनिया का हर बच्चा-बड़ा 'हिप्स डोंट लाई’,  'ला टोरचुरा’ और 'वाका वाका’ (2010 फुटबॉल वल्र्ड कप का शीर्ष गीत) जैसे गीतों से बखूबी पहचानता है। लातिन अमेरिका की जिस उत्तराधिकारी  'मेस्तिज़ो’ मिली जुली नस्ल का ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं, शकीरा (पूरा नाम शकीरा इसाबेल मुबारक रिपोले) उसी की एक कामयाब प्रतिनिधि हैं।

पर्यटकों के बीच बारान्क्विला बहुत लोकप्रिय नहीं रहा है। सिर्फ साल में एक बार, जब फरवरी-मार्च में यहाँ कोलंबिया का सबसे बड़ा कार्निवल लगता है तो पर्यटकों की भीड़ के मारे किसी भी होटल में कमरा मिलना तक मुश्किल हो जाता है। 2003 में यूनेस्को ने 'बारान्क्विला कार्निवल’ को विश्व की सांस्कृतिक धरोहरों में शामिल किया था और तब से हर साल इसमें लगने वाले रंग बिरंगे जुलूस, पारंपरिक वेशभूषाएँ, खेल-तमाशे और झांकियां देश विदेश से यात्रियों को आकर्षित करती हैं। मार्क्वेज़ के नाम से बखूबी परिचित एक दुकानदार हमें बताता है कि कार्निवल में निकाली जाने वाली झांकियों में हमेशा मार्क्वेज़  के जीवन या उनकी रचनाओं से सम्बंधित कोई चित्र या दृश्य अवश्य होता है।

शहर में मार्क्वेज़  की तलाश हमें बारान्क्विला के उन गलियारों और संग्रहालयों तक ले जाती है, जहां 'गैबो’ की अनेकानेक स्मृतियाँ आज भी सुरक्षित हैं। वर्ना एक बेमुरव्वत शहर मरने के बाद अपने लेखक के लिए कितनी जगह छोड़ता है?  पटेल के लिए दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने वाले हमारे समाज ने प्रेमचंद से लेकर परसाई, भीष्म साहनी या निर्मल वर्मा जैसे महत्वपूर्ण लेखकों का कोई छोटा-मोटा स्मृतिचिन्ह बनाना क्या ज़रूरी समझा है?

मार्क्वेज़  की संस्मरणात्मक किताब 'लिविंग टु टेल दि टेल’ एक लेखक के बनने की प्रक्रिया के साथ साथ सिर्फ बारान्क्विला ही नहीं, बल्कि समूचे कोलंबिया के जन जीवन को जीने वाली महत्वपूर्ण कृति है जिसके बारे में 'न्यू स्टेट्समैन’ ने लिखा है कि इसमें  कोलंबिया की वे अछूती तस्वीरें मिलती हैं जिन्हें इससे पहले किसी ने नहीं देखा। मार्क्वेज़  बरसों तक कोलंबिया के सबसे पुराने समाचारपत्र 'एल एस्पेक्टेडोर’ में विदेशी संवाददाता रहे और इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य ने उन्हें अपने देश को भी बेहतर समझने में मदद दी।

पुर्तगाली लेखक सारामागो की तरह मार्क्वेज़ का पचपन भी माता-पिता से दूर,अपने नाना-नानी   के साथ बारान्क्विला से 130 किलोमीटर दूर अपने जन्मस्थल अराकाटाका में गुजऱा था, जबकि उनके दवाफरोश माता- पिता बारान्क्विला में ही कार्यरत थे। अराकाटाका में घुसते ही आपको एक बड़े विज्ञापन नुमा पट्ट पर मार्क्वेज़ की लिखी पंक्तियाँ मिलेंगी -

''आप यहाँ के जिस भी देश से मुझे जोड़ें, मैं अपनी आत्मा से लातिन अमेरिकन हूँ। पर मैं जहां भी गया, मेरे जन्मस्थल अराकाटाका की मधुर स्मृतियाँ मेरे साथ रही। बरसों बाद जब मैं सचमुच अराकाटाका लौटा तो उन स्मृतियों और वास्तविकता के बीच के अंतर को ही मैंने अपने लेखन का विषय बनाने का फैसला लिया...’’

गाँव से लौट अपने पहले उपन्यास 'लीफ स्टॉर्म’ को लिखते हुए मार्क्वेज़  को पहली बार समझ में आया  कि अराकाटाका के बचपन की वे तमाम नामालूम घटनाएं उनके लेखन के लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं। ''मैंने तब जाना कि मैं एक लेखक, बल्कि दुनिया का सबसे अच्छा लेखक बनना चाहता हूँ। यह 1953 की बात है, हालांकि लेखन से अपनी पहली रॉयल्टी मुझे 1967 में जाकर ही मिली, जब तक मेरी पांच किताबें छाप चुकी थी...’’  

मार्क्वेज़  के माता-पिता ने काफी जद्दोजहद से गुज़रने के बाद प्रेम विवाह किया था। उनके कर्नल नाना को किसी भी दृष्टि से यह रिश्ता पसंद नहीं था। अपनी पत्नी और उनके फौजी पिता का दिल जीतने के लिए मार्क्वेज़  के पिता ने वायलिन पर सेरेनेड गाने से लेकर धारावाहिक प्रेम पत्रों तक कई तरह के पापड़ बेले, तब कहीं जाकर उनकी यह शादी बमुश्किल संपन्न हो सकी। मार्क्वेज़  का उपन्यास 'लव इन दि टाइम ऑफ़ कॉलरा’ उनके माता-पिता की इसी तनावपूर्ण प्रेम कथा पर आधारित है।

मार्क्वेज़  ने स्वीकार किया है  कि उनके प्रारम्भिक वर्षों में उनके माता-पिता उनके लिए लगभग अजनबी थे और उनके व्यक्तित्व को बनाने में उनके नाना-नानी का सबसे बड़ा हाथ रहा। उनके फौजी 'कर्नल’ नाना उन्हें अजीबोगरीब बातें सुनाया करते थे जिनमें से अधिकाँश किसी न किसी रूप में उनकी कहानियों और उपन्यासों में प्रकट होती हैं। बारान्क्विला में अपनी स्कूली शिक्षा  पूरी करने के बाद मार्क्वेज़ सरकारी वजीफे पर कॉलेज की पढ़ाई के लिए बोगोटा आ गए। कॉलेज के दिनों में ही उनमें राजनीतिक दृष्टि और सामजिक चेतना का उदय हुआ, जो आगे चलकर उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता का प्रमुख आधार बना।     

मार्क्वेज़  साहित्य में फंतासी और 'जादुई यथार्थ के प्रणेता रहे हैं, लेकिन एक इंटरव्यू में वे अपने भोगे हुए यथार्थ के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं—

''पाब्लो नेरुदा की एक कविता की पंक्ति है -गॉड हेल्प मी फ्रॉम इन्वेंटिंग व्हेन आई सिंग—यानी 

हे ईश्वर, जब मैं गा रहा हूँ तो मुझे कल्पना से दूर रखो! -मैं हैरान हूँ कि मुझे सबसे अधिक प्रशंसा अपनी कल्पनाशक्ति  के लिए मिली है, जब कि सच यह है कि मेरे लेखन की हर एक  पंक्ति किसी न किसी वास्तविक अनुभव पर आधारित है! दिक्कत यह है कि हमारा यह कैरेबियन यथार्थ विचित्रतम कल्पनाओं से भरा हुआ है! ‘‘

बारान्क्विला में स्वतंत्रता सैलानी सिमोन बोलिवार की प्रतिमा से उन्हीं के नाम पर बने 'एल पासियो दे बोलेवार’ से होते हुए हम माग्दालेना नदी के किनारे छोटे छोटे रेस्तराओं की कतार की ओर निकल आते हैं। केरल के नारियल भात (कोकोनट राइस) से मिलते-जुलते चावलों के साथ तला हुआ केला और  समंदर की साबुत 'मोजारा’ मछली यहाँ के भोजन की विशेषता है। मछली के खुले मुंह में मसाला भरा जाता है, या फिर एक लाल 'चेरी’। कैलीदस के एक रेस्तरां में पिछले दिन हम लगभग यही व्यंजन समुद्री मोजारा की जगह पहाड़ी नदी में पकड़ी ट्राउट मछली के साथ कर चुके हैं। हमारे एक साथी ने जब तले हुए केले की जगह आलू के चिप्स की फरमाइश की थी तो शेफ ने काफी वितृष्णा के साथ उसे घूरकर देखा था। हर व्यंजन के साथ यहाँ तले हुए पके केले परोसने का चलन है। इस बार रेस्तरां का शेफ हमें बताता है कि यदि नदी की मछली खानी हो तो वह टमाटर के सालन में बनी माग्दालेना की ताज़ा 'बोकाचिको’ बना सकता है! 'अगली बार, अगली बार!’ हम उसे आश्वासन देते हुए बाहर आ जाते हैं।

शहर का 'म्यूजियो रोमानटिको’ (रूमानी म्यूजियम) एक पुरानी इमारत में स्थित है। यहाँ कई पुरानी चीज़ों के साथ मार्क्वेज़  का पुराना टाइपराइटर भी है जिस पर उन्होंने अपना पहला उपन्यास 'लीफ स्टॉर्म’ लिखा था। स्पेनिश में उनके अनेकानेक पत्र और चित्र भी हैं। नज़दीक के ही दूसरे म्यूजियम 'म्यूजियो देल कैरिबे’ (कैरेबियन म्यूजियम) का तो सबसे ऊपर की मंजिल का पूरा हिस्सा मार्क्वेज़  को समर्पित है जहां बगल में बहुत सी किताबें थामे, संभवत: पुस्तकालय से लौटते हुए मार्क्वेज़  की सजीव मूर्ति  देखकर आप एक बारगी ठिठक जाएंगे। क्यूबा के मूर्तिकार जोसे सोबरन द्वारा गढ़ी इस मूर्ति में मार्क्वेज़  ने दाहिने हाथ की उँगलियों में एक पीले रंग का फूल थाम रखा है।  संग्रहालय का बूढ़ा गाइड हमें बताता है कि 'गाबो’ की इससे भी सजीव मूर्ती क्यूबा के बायोमा में स्थित मोम संग्रहालय में है जहां वे वेनेज़ुएला के भूतपूर्व राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ के बगल में अपनी सुपरिचित सफ़ेद रंग की पूरे आस्तीन की कमीज़ में आरामकुर्सी पर बैठे नजऱ आएँगे। इस मूर्ति के लिए ये वास्तविक कपड़े संग्रहालय ने मार्क्वेज़  के परिवार के सौजन्य से प्राप्त किए थे। 

बारान्क्विला में मार्क्वेज़  की बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र था वहां का प्रसिद्ध 'बारान्क्विला ग्रुप’ जिसमें शहर के पत्रकार, कवि और उपन्यासकार एक कॉफ़ी हाउस जैसी जगह पर नियमित मिला करते थे। मार्क्वेज़  चालीस के दशक से ही इसके सदस्य थे, जहां उनके चार लेखकों के गिरोह में उनके अलावा अल्वारो सेमुदियो, जर्मन वर्गास और अल्फेंज़ो फुएनमेयर जैसे विशेष पत्रकार-लेखक थे, जिनका ज़िक्र मार्क्वेज़  ने अपने उपन्यास 'वन हंड्रेड...’ में माकोंडो के चार दोस्तों के नाम से किया है। यह एक अनौपचारिक मंच था जिसमें एक दूसरे की टांग खींचने की भी पूरी छूट होती थी। पचास के दशक के बाद से ये बैठकें 'ला कुएवा’ नाम के बार में होने लगी। यह बार आज भी मार्क्वेज़  के नाम और अपनी विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए जाना  जाता है जहां आप बाकी व्यंजनों के साथ कोलंबिया की सबसे लोकप्रिय और लातिन अमेरिका के बाहर के अन्य देशों में लगभग अपरिचित स्कॉच व्हिस्की 'ओल्ड पार’ का आनंद ले सकते हैं, जिसे सोडा मिलाकर पीना यहाँ बियर में पानी मिलाने से भी बड़ा अपराध है। सीधे या बर्फ डालकर पी जाने वाले इस पेय के बारे में मशहूर है कि मौसम जितना गर्म होगा, उतनी ही इसकी तासीर ठंडी होगी क्योंकि इसे पीने के बाद पसीना नहीं आता! इस तर्क को समझ पाना मुश्किल है लेकिन कोई यह नहीं बता सकता कि कोलंबिया और विशेष रूप से तटीय इलाकों में रम से भी कहीं अधिक पी जाने वाली इस अकेली विदेशी शराब की अभूतपूर्व  लोकप्रियता का असली राज़ क्या है!

बारान्क्विला और मार्क्वेज़  के जन्मस्थल अराकाटाका को जानना किसी स्थान के भूगोल को जानने  से भी अधिक मार्क्वेज़  के लिखे उस इतिहास और वास्तविक जगत को छूना-समझना है, जिसे वे अपनी पुस्तकों में माकोंडो के काल्पनिक नाम से पुकारते हैं। उन्हीं के शब्दों में ''माकोंडो  किसी  वास्तविक जगह से कहीं अधिक एक मानसिक अवस्था है जिसमें आप किसी वरदान की तरह  जिस भी चीज़ को चाहें, जिस भी रूप में देख सकते हैं!’’ लेकिन फिर भी कैरेबियन समुद्रतट और एंडीज़ पर्वतमाला के पिछवाड़े में स्थित जिस काल्पनिक गाँव को मार्क्वेज़ ने माकोंडो नाम से अमर कर दिया है, उस तक पहुँचने का हर खुफिया रास्ता शायद बारान्क्विला और अराकाटाका जैसे गाँवों से ही होकर गुज़रता है...

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कोलंबस से पहले के समय में लातिन अमेरिका की तीनों महान सभ्यताओं अज्टेक, माया और इंका सभ्यताओं में वर्णमाला नहीं थी, जिसके कारण इनका अधिकाँश लिखित इतिहास भित्ति चित्रों और प्रतीकचिन्हों में मिलता है। लेकिन इसके समानांतर यहाँ किंवदंतियों और कथाओं की एक जीवंत मौखिक परंपरा थी। वाचक के ज़रिये पीढ़ी दर पीढ़ी सुनी जाने वाली इन विलक्षण कहानियों का प्रभाव हमें लातिन अमेरिका के अधिकाँश लेखकों में दिखाई देता है। यहाँ प्रकृति और उसके सारे जीवों का  मनुष्य से अनोखा तारतम्य है और अपने लिखित रूप में भी वे वाचक की समूची प्रतिभा को सफलता से व्यक्त करती हैं । मार्क्वेज़  ने लिखा है कि--

''जिस प्रदेश में कोलंबिया जैसे पिछड़े एवं नव-औपनिवेशवाद के शिकंजों में जकड़े देश हों, जहां की गतिमान जन-संस्कृति का पूरा स्वरुप ही लिखित साहित्य से बहुत दूर मौखिक एवं श्रव्य शब्द के गिर्द घूमता हो, उस जगह आप यथार्थवादी गद्य की स्थिरता एवं सुनियोजित ऐतिहासिक एवं सामाजिक ढांचे में पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास एवं संबंधों के अंतर जैसी अभिव्यंजनाओं की उम्मीद कैसे रख सकते हैं?’’

मौखिक और वाचक की श्रव्य परम्पराओं से समृद्ध हुआ, धूप और पसीने के रंगों से रचा यह साहित्य दुनिया भर में 'जादुई यथार्थ’ के नाम से पहचाना गया। इस विधा में माहिर मार्क्वेज़  और इसाबेल एलिंदे, दोनों ही ने स्वीकार किया है कि इसे लिखने की प्रेरणा उन्हें अपनी नानी और दादी की उस शैली से मिली, जिसमें वे पूरी विश्वसनीयता के साथ अपनी अनोखी  कहानियां सुनाया करती थी। इसी का एक विरल रंग वह चर्चित 'जादुई यथार्थ’ है जिसमें 'जो है’ और 'जो होना चाहिए’ का सत्य, लेखक के बचपन की स्मृतियों के साथ गुंथा हुआ नज़र आता है। मार्क्वेज़  के नाना उन्हें अक्सर सर्कस ले जाया करते थे और उनके पिटारे में युद्ध की कई कहानियां थी। ''तुम सोच भी नहीं सकते कि एक मुर्दा जिस्म का वज़न कितना अधिक होता है...’’ वे 'गैबो’ को बताते... 

मार्क्वेज़  की कहानी 'दुनिया का सबसे खूबसूरत डूबा हुआ आदमी’ में यही अनुभव एक विचित्र मनोभाव के साथ आता है—''...उन्होंने गौर किया कि वह पहले के किसी भी मरे हुए व्यक्ति से अधिक भारी था। बल्कि उसका वज़न किसी घोड़े से कम नहीं रहा होगा...’’ और इससे आगे वे एक असाधारण रूप से भारी लाश के गिर्द एक विलक्षण मानवतावादी रचना का ताना-बाना रचते हैं...

इसी के मुक़ाबिल इसाबेल एलिंदे की कहानी 'दो शब्द’ के इस खूबसूरत अंश को देखें—

''जीविका चलाने के लिए वह शब्द बेचती थी—पहाड़ों की सर्द ऊंचाइयों से लेकर सुलगते समुद्र तटों तक पूरे मुल्क भर में घूमती वह मेलों-बाज़ारों में डेरा जमाती, जहां धूप और बारिश से बचाव के लिए चार खपच्चियों पर खड़े तिरपाल के नीचे उसे अपने ग्राहकों को मशविरा देते देखा जा सकता था। अपना माल बेचने के लिए उसे फेरी नहीं लगानी पड़ती थी क्योंकि वतन का कोना-कोना छान चुकने के बाद अब सभी उसे पहचानने लगे थे। उनमें से कई तो एक साल से दूसरे साल तक उसके लौटने का इंतज़ार करते और जब आखिरकार अपनी गठरी बगल में दबाये वह गाँव में प्रकट होती तो वे उसके तिरपाल के आगे चुपचाप कतार लगाकर खड़े हो जाते। उसकी कीमतें वाजिब होती थीं। पांच सेंटावो में वह अपनी याददाश्त से पंक्तियाँ निकाल कर बांटती, सात में सपनों का स्तर सुधारती, नौ में प्रेमपत्र लिखकर देती और बारह सेंटावो में आप उससे अपने जानी दुश्मनों के लिए चुनिन्दा गालियाँ खरीद सकते थे। इसके अलावा वह कहानियां भी बेचती थी; गढ़ी हुई नहीं बल्कि एकदम सच्ची लम्बी कहानियां, जिन्हें एक भी शब्द भूले बगैर वह एक बार में पूरा सुना डालती थी और इस तरह उसके माध्यम से एक शहर की खबर दूसरे गाँव तक पहुँचती। लोग उसे पैसे देकर अपनी तरफ से एकाध पंक्ति जुड़वा देते—हमें बेटा हुआ, फलां-फलां का देहांत हो गया, बेटी की शादी तय है या इस बार पूरी फसल खराब हो गयी। जहां भी वह जाती, उसे सुनने के लिए एक छोटी-मोटी भीड़ उसके गिर्द इक_ी हो जाती। और इस तरह लोगों को पता चलता कि दूसरे क्या कर रहे हैं, दूर-दराज़ के रिश्तेदार कैसे हैं और गृहयुद्ध में कहाँ, क्या हो रहा है...’’

('सोचो साथ क्या जाएगा’ प्रथम खंड से)

  एलिंदे की इस शब्द संरचना से गुजऱते हुए हमें शब्द बेचने का काल्पनिक व्यापार भी बेहद  वास्तविक और प्रामाणिक लगने लगता है! यही जादुई यथार्थ का कमाल है! एक अन्य कहानी में मार्क्वेज़  एक विकराल डैनों वाले व्यक्ति का जि़क्र करते हुए लिखते हैं कि '...उसे सबसे अधिक अचम्भा उसके पंखों का मुआयना करते हुए हुआ। उसके उस पूरी तरह इंसानी जिस्म पर पंखों की मौजूदगी इतनी स्वाभाविक थी कि डॉक्टर को लगा, दूसरे सभी लोगों के शरीर पर भी इसी तरह के पंख होने चाहिए थे...’   

इस शैली की बुनावट को समझाते हुए मार्क्वेज़  एक इंटरव्यू में कहते हैं—

''अपने प्रारम्भिक उपन्यास  'इन ईविल आवर’ के बाद मैंने पांच वर्षों तक कुछ नहीं लिखा। मुझे लगता कि मेरे लेखन में कुछ छूटा जा रहा है। अंतत: 'हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ में मुझे वह लहजा मिल गया जिसकी मुझे बरसों से तलाश थी। यह वही लहजा था जिसमें मेरी नानी कहानियां सुनाया करती थी। उनकी बताई गयी कई चीज़ें अक्सर पारलौकिक और अद्भुत होती थी, लेकिन वे उन्हें बिलकुल स्वाभाविक और सहज ढंग से कहती थी। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण होते थे उनके चेहरे के भाव...सभी को आश्चर्य होता कि कहानी सुनाते समय नानी के  चेहरे के भावों में ज़रा सा भी बदलाव नहीं आता था। अपने प्रारम्भिक प्रयासों में मैंने अपनी कहानी पर विश्वास किए बगैर उसे सुनाने की कोशिश की। लेकिन मुझे बाद में पता चला कि मेरे लिए न सिर्फ  अपनी कहानी पर स्वयं विश्वास करना ज़रूरी था, बल्कि उसे उसी ठन्डे लहजे में सुनाना भी आवश्यक था, जिसमें मेरी नानी कहानियाँ सुनाया करती थी। ...इसमें थोड़ा सा योगदान साहित्यिक या कि पत्रकारी चालाकी का भी था। जैसे उदाहरण के लिए यदि आप कहें कि हाथी हवा में उड़ रहे थे, तो कोई आपकी बात पर विश्वास नहीं करेगा। लेकिन यदि आप कहें कि चार सौ चौबीस हाथी हवा में उड़ रहे थे, तो आपकी विश्वसनीयता में इजाफा हो जाएगा। 'हंड्रेड ईयर्स...’ में मैंने कई जगह इसी शैली का इस्तेमाल किया है। और मेरी नानी भी बिलकुल यही किया करती थी। मुझे उनकी कही एक कहानी याद है जिसमें एक पात्र पीली तितलियों से घिरा रहता है। मैं जब बहुत छोटा था, तब हमारे घर में एक बिजली वाला आता था। मैं काफी दिलचस्पी से देखता कि उसके पास एक बेल्ट थी, जिससे वह अपने आपको बिजली के खम्भे से लटका लिया करता था। मेरी नानी कहती थी कि यह आदमी जब भी आता है,घर में ढेर सारी तितलियाँ छोड़ जाता है। अब यदि मैं इसे अपने कहानी में लिखता तो लोग इस पर तब तक विश्वास नहीं करते जब तक मैं उन तितलियों को पीली तितलियाँ न बताता...’’

पीली तितलियों और फूलों के प्रति मार्क्वेज़  के इस प्यार को देखते हुए ही शायद मूर्तिकार ने बारान्क्विला में उनकी प्रतिमा के हाथ में एक पीला फूल थमाना ज़रूरी समझा...

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बारान्क्विला कोलंबिया का सबसे पुराना हवाई अड्डा है जहां से दक्षिण लौटते हुए हम फिर से बोगोटा, और फिर वहां से पश्चिम में राजमार्ग द्वारा काल्दास और तोलिमा के पहाड़ी इलाके में आ पहुंचे हैं। यहाँ से हमें नेवादो रुइज़ की पहाडिय़ों में जाना है जहां सर्द हवाओं के साथ काफी ठण्ड होने वाली है। हमारे दाहिने ओर काफी नीचे लगुना नेगरा या काली झील फैली है जिसमें इतनी ठण्ड में भी कुछ बत्तखें तैर रही हैं। एक छोटे से लकड़ी के ढाबे नुमा कमरे में कॉफ़ी और गर्मागर्म अण्डों का नाश्ता इस सर्दी से लडऩे का कारगर उपाय है। ढाबे के बाहर एक बूढ़ा, जो मार्क्वेज़  की किसी कहानी से अवतरित पात्र जैसा लगता है, अपने खच्चर को गाड़ी में जोतने से पहले उसे कुछ भीगे हुए मक्का के दाने खिला रहा है। हम उससे संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं लेकिन उसे स्पेनिश के अलावा कोई ज़बान नहीं आती। वह दो तीन बार 'सेनोर, सेनोर!’ के साथ अदब से झुकने के बाद बताता है कि उसकी घोड़ी का नाम सेलीना है और वह नीचे बाज़ार से सब्जियां खरीदकर यहाँ ऊपर स्थित दुकानों और ढाबों में बेचने के लिए लाता है। हम उससे उसके घर के बारे में पूछते हैं तो वह पहाड़ी के ढलान पर, जंगली झाडिय़ों के बीच खड़ी एक झोंपड़ी की ओर इशारा करता है। उसका पूरा सरल जीवन, लगता है इसी खच्चर गाड़ी में सामान नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे ढोने को समर्पित है।

कुछ और ऊपर चढऩे के बाद हमारा गाइड घाटी में उड़ते एक विशालकाय पक्षी की ओर देखते हुए उत्तेजना भरी खुशी में चिल्लाता है, ''कोंडोर! कोंडोर!!’’ हम सब अपनी दूरबीनों से ऊपर देखने लगते हैं! वह सचमुच कोंडोर ही है—लातिन अमेरिका का वह खूबसूरत सुनहरी उकाब, जिसे लेखकों, यात्रियों और इंका साम्राज्य की कथाओं ने अमर कर दिया है और जो अब प्रदेश के सबसे संकटग्रस्त पक्षियों में से है! अपने शक्तिशाली डैनों से एंडीज़ की दुर्बोध्य ऊंचाइयों को पार कर सकने वाला शानदार पक्षी, जिसकी उड़ान ने न जाने कितनी कविताओं, गीतों और धुनों को जन्म दिया है। मिट्टी की बांसुरियों (क्ले पाइप्स) पर बजाया जाने वाला 'एल कोंडोर पासा’ (कोंडोर दर्रा) जिसकी सुरीली गहराइयों से अभी हमें पेरू के अंचलों में मिलना है...

लौटने से पहले हम एक नज़र उठाकर क्षितिज पर दिखते  नेवाडो रुइज़ ज्वालामुखी की बादलों और धुंए से ढंकी ऊंचाइयों को देखते हैं। इस इलाके में कई ज्वालामुखी चोटियां हैं जिनमें सबसे मारक और विध्वंसकारी है नेवाडो देल रुइज़!               

और कुछ ही अंतराल पर हम नेवाडो रुइज़ की उस दुर्भाग्यपूर्ण मीलों तक फैली घाटी तक आ पहुंचे हैं जिसे इसाबेल एलिंदे अपनी कहानी 'जिस मिट्टी से बने हैं हम!’ में अमरत्व प्रदान कर चुकी हैं। हमारे लिए यह जानना रोमांचक है कि यह कहानी जिस वास्तविक त्रासदी पर आधारित है, उसे यहाँ का बच्चा बच्चा जानता है। लेकिन इस वास्तविकता को जानने से एलिंदे की कहानी का महत्त्व कम नहीं होता, बल्कि उनके कथा-शिल्प के प्रति हमारा प्रशंसात्मक भाव कुछ और बढ़ जाता है।

साढ़े सत्रह हज़ार फीट ऊंचा नेवाडो देल रुइज़ पिछले बीस लाख वर्षों से अपने भीतर से लावा और धुंए का तूफ़ान उगलता रहा है। ज्वालामुखी का मुंह ठन्डे ग्लेशियरों से ढंका है, जिसके परिणामस्वरूप जब गर्म लावा भीतर से उगलकर बाहर आता है तो बर्फ के पिघलने से बहुत सारा पानी भी लावा से मिलकर एक गाढ़ा जानलेवा कीचड़ मीलों तक फैला देता है।  लिखित इतिहास के अनुसार ज्वालामुखी वर्ष 1595 में और उसके कोई ढाई सौ वर्ष बाद 1845 सदी में फटा था और उसके बाद लोग काफी हद तक इसके खतरे से बेखबर हो गए थे हालांकि तब भी इस ज्वालामुखी को 'सोए हुए शेर’ की संज्ञा दी जाती रही थी। 1985 में भूकंप विभाग ने ज्वालामुखी के फटने के पहले संकेतों को पढ़ते हुए लोगों को गाँवों को खाली करने की सलाह दी थी। लेकिन अधिकाँश ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था और कई को तो इस खतरे की सूचना ही नहीं मिली। यूं भी सरकार और सेना उस समय बोगोटा के आसपास चल रही गुरिल्ला  गतिविधियों को निपटाने में व्यस्त थी। लिहाजा गर्म लावे की छह-छह फीट ऊंची लहरें जब पहाड़ से नीचे फैली तो उसकी चपेट में तोलिमा और काल्दास जिलों के कई गाँव आ गए और अर्मेरो नगर तो पूरी तरह नष्ट हो गया। अनुमान है कि इस हादसे में लगभग पच्चीस हज़ार लोगों की जान गयी, जो जीवित इतिहास में किसी ज्वालामुखी से मरने वालों की सर्वाधिक संख्या है। इन मरने वालों में सबसे दर्दनाक चेहरा तेरह वर्षीय मुलेतो लड़की ओमायरा सांचेज़ का था जो तीन दिनों तक लावे के समुद्र में एक लकड़ी का सहारा थामे, दलदल से बाहर निकाले जाने का संघर्ष करती रही लेकिन बचाव टोलियाँ बहुत कोशिश के बाद भी उसे बाहर नहीं निकाल पायी क्योंकि उसके शरीर का निचला हिस्सा कीचड़ के भीतर किसी वज़नी पत्थर के नीचे फंसा हुआ था। अंतत: उसी कीचड़ ने उसकी जान ले ली। उसकी मृत्यु से कुछ ही पहले पत्रकार फ्रैंक फुर्नियर द्वारा ली गयी उसकी फोटो तमाम पत्रों में छपी और 1986 में उसे वर्ल्ड प्रेस का सर्वश्रेष्ठ फोटो पुरस्कार भी मिला लेकिन यह सब भी उस लड़की की जान नहीं बचा सका। कोलंबिया में हर व्यक्ति ओमायरा को पहचानता है और उसपर कई कविताएँ, लेख और कहानियां लिखी गयी हैं लेकिन इन सबमें शायद सबसे जीवंत और दर्दनाक है इसाबेल एलिंदे की कहानी 'जिस मिट्टी से बने हैं हम’ जो सिर्फ इस शाश्वत सत्य के गिर्द घूमती है कि एक अदद जान की कीमत दुनिया के किसी भी रचनात्मक कर्म से कहीं अधिक बड़ी होती है!

इस हादसे के दौरान एलिंदे कोलंबिया और वेनेज़ुएला में पत्रकार की हैसियात से वहां थी और इस विभीषिका को उन्होंने बहुत नज़दीक से देखा और राहत कार्य में भरपूर योगदान भी दिया था। उनकी कहानी में उस लड़की का नाम 'एजुसेना’ है और उसकी जान बचाने के लिए हर संभव प्रयास करने और मृत्यु पर्यंत उसके साथ बना रहने वाला पत्रकार उनका प्रेमी 'रॉल्फ कार्ले’। मेरी अपनी नज़र में यह एलिंदे की ही नहीं दुनिया की अब तक लिखी श्रेष्ठतम कहानियों में से है जो भयानक अवसाद के बीच भी उस राजनीतिक तंत्र को निशाना बनाने से नहीं चूकती जो हमारे अपने देश या ट्रम्प के अमेरिका या किसी भी अन्य देश में आज भी उतनी ही बेशर्मी के साथ सक्रिय है...

''रोओ मत! मुझे अब तकलीफ नहीं होती। मैं अब ठीक हूँ!’’ भोर की पहली रौशनी के साथ एजुसेना ने कहा था।

''मैं तुम्हारे लिए कहाँ रो रहा हूँ!’’ रॉल्फ मुस्कराया था, मेरी रुलाई तो खुद अपने-आप के लिए है। मेरे भीतर का सभी कुछ बेतरह दुखने लगा है!’’

''...देश के राष्ट्रपति स्वयं उस इलाके के दौरे के लिए ख़ास तौर पर सिलवाई गयी सफारी जैकेट पहनकर आये और उन्होंने पुष्टि की कि यह शताब्दी का सबसे भयानक हादसा था।...वे सेना के शिविरों में भी गए जहां उन्होंने बचा लिए गए लोगों की भीड़ को अस्पष्ट से आश्वासन बांटे! मुश्किल स्थितियों में पिछले कई घंटों से बिना रुके काम कर रहे डॉक्टरों और उनकी नर्सों का मनोबल बढ़ाने के लिए वे अस्पताल गए।...फिर उन्होंने उस छोटी सी बहादुर लड़की अजुसेना से मिलने की इच्छा व्यक्त की, जिसे अब तक सारी दुनिया देख चुकी थी। उसे अपने सामने पाकर उन्होंने अपना ढीला पड़ता हुआ राजनयिक हाथ हिलाया और माइक्रो$फोनों ने उनके रुंधते गले और भीगी हुई आवाज़ को दर्ज़ किया, जिसमें उन्होंने अजुसेना से कहा कि उसकी हिम्मत पूरे देश के लिए एक मिसाल बन चुकी है। उनके आख्यान को बीच में टोकते हुए रॉल्फ कार्ल ने वहाँ से दलदल हटाने के लिए एक पंप की मांग की तो राष्ट्रपति ने आश्वासन दिया कि वे व्यक्तिगत रूप से इस मामले को निपटायेंगे। ...मैंने देखा कि रॉल्फ इल्तजा में दलदल के उस गड्ढे के करीब अपने घुटनों पर झुक गया था...घंटों गुज़र जाने के बाद भी वह उसी मुद्रा में था लेकिन पंप फिर भी नहीं मिल पाया...

...मैंने उस क्षण को भी पहचाना जब रॉल्फ ने उम्मीद छोड़कर उस लड़की को तिल-तिलकर मरते हुए देखने की यातना से गुज़रने का फैसला ले लिया। तीन दिनों और दो रातों तक वह हर पल उसके साथ था।...उस वक़्त भी, जब अजुसेना ने उससे कहा कि तेरह वर्ष के कुंआरे जीवन में उसे किसी लड़के का प्यार नहीं मिला है और प्यार को जाने बिना इस दुनिया को छोड़ देने से बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है! रॉल्फ ने उसे आश्वस्त किया कि वह उससे जितना प्यार करता है, उतना वह शायद ही कभी किसी और से कर पाया होगा...और फिर मैंने देखा कि उसने आगे झुककर एक अनाम, उदास सी संवेदना में डूबकर लड़की का माथा चूम लिया...मैंने महसूस किया कि उस एक क्षण में वे दोनों अपनी हताशा से मुक्त होकर उस गाढ़े दलदल से ऊपर उठ गए थे, उन गिद्धों, हेलीकॉप्टरों और दूर तक फैले उस भ्रष्ट कीचड़ से कहीं ऊपर, जहां मृत्यु को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होती...’’                      

('जिस मिटटी से बने हैं हम’ से)

 

इस कहानी को लेकर इसाबेल एलिंदे ने एक इंटरव्यू में मरिलिन स्नेल से कहा कि कोई भी कहानी जीवन से बड़ी नहीं होती और उन्हें जीवन भर यह दु:ख रहेगा कि वे सब मिलकर भी  समय रहते ऐसा कुछ नहीं कर पाए जिससे अल्वारो एनरीक और मारिया अलीडा की काली काली आँखों वाली तेरह वर्षीय संतान ओमायरा सांचेज़ की जान बच जाती।

लेकिन इतिहास गवाह है कि हम हादसों से कभी कुछ नहीं सीखते। हम सबके सामने फैली नेवाडो रुइज़ की वह घाटी उस वक़्त झाडिय़ों, फूलों और उनमें चहकती चिडिय़ों से लबरेज़ थी। वहां खड़े होकर तस्वीरें खिंचाते हुए भी हमें एक अपराध का सा भाव महसूस हुआ। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ज्वालामुखी आज भी इस घाटी में रहने वाले पांच लाख बाशिंदों की जान पर एक लटकती तलवार की तरह खड़ा है, भले ही भूकंप विभाग इसकी गतिविधियों की निरंतर खोज-खबर ले रहे हों!

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इसाबेल एलिंदे, पाब्लो नेरुदा और मार्क्वेज़  की तरह लातिन अमेरिका के लेखक जहां भी गए, उनके जन्मस्थल देश की स्मृतियाँ उनके साथ रही। चिली की वादियाँ आज भी पाब्लो नेरुदा की कविताओं में धड़कती हैं और एलिंदे ने तो एक पूरी किताब उस देश पर लिखी है जिसकी राजनीतिक सत्ता ने उन्हें देशनिकाला दे दिया था। मार्क्वेज़ ने भले ही अपने जीवन का लम्बा समय स्पेन के बार्सिलोना और वेनेज़ुएला, क्यूबा और मेक्सिको में गुज़ारा हो, लेकिन उनकी आत्मा को  कोलंबिया,  बारान्क्विला और अराकाटाका से जुदा कर पाना असंभव होगा।

17 अप्रैल 2014 को जब 87 वर्ष की आयु में 'गैबो’ की मृत्यु हुई तो मेक्सिको शहर में भव्य राजकीय सम्मान के साथ उन्हें दफनाया गया। लेकिन इस अवसर जितनी ही महत्वपूर्ण थी इसके समानांतर उनके गाँव अराकाटाका में निकाली गयी वह छोटी सी प्रतीकात्मक शवयात्रा जिसमें शामिल होने के लिए वे सारे लोग उमड़ पड़े थे जिनके उपेक्षित जीवन को मार्क्वेज़  ने जीवन भर अपनी रचनाओं में एक सम्मानजनक जगह दी थी। 

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(अगले अंक में जारी )

 

संपर्क-9324223043

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