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जनवरी 2021

पनाह गुज़ीनों की बातें - बेर्तोल्त ब्रेख्त

रूपांतरण- रेयाज़ुल हक़

 देशांतर/गुफ्तगू

 

 

 

 

 जून 1940 से मई 1941 का एक साल। ब्रेख्त अपने परिवार और अपनी सहकर्मी मार्गारेटा स्टेफिन के साथ फिनलैंड में हेलसिंकी के करीब एक जगह रहते हुए अमेरिकी वीजा मिलने का इंतजार कर रहे थे। 28 फरवरी 1933 को नाजी गिरफ्त में आने से किसी तरह बचते हुए जर्मनी छोडऩे के बाद अब तक वे कई मुल्क बदल चुके थे। पहले डेनमार्क और फिर स्वीडन के बाद नाजी जंगी कार्रवाइयों से बचते हुए वे फिनलैंड पहुंचे थे। यहां बिताए करीब एक साल में उन्होंने काफी सारी रचनाएं कीं, जिनमें उनके कई मशहूर नाटक और कविताएं शामिल हैं। और यहीं उन्होंने एक किताब का ज्यादातर हिस्सा लिखा, जिसे आगे चल कर रिफ्यूज़ी कन्वर्सेशंस के नाम से जाना गया। यह किताब पहली बार अंग्रेजी में साल 2019 में प्रकाशित हुई है। यह जर्मनी से भागे दो अजनबी शरणार्थियों सिफ्फेल और काल्ले के बीच लगातार होने वाली गुफ्तगू है, जिनमें वे एक दूसरे से असहमत होते हुए भी कभी दोस्ताना रवैया नहीं छोड़ते। सिफ्फेल एक जर्मन उपनाम है, और काल्ले कार्ल का बिगड़ा हुआ रूप। जल्दी यह किताब हिंदी में उपलब्ध होगी। पेश है इसका पहला अध्याय। व्यंग्य की धार को बनाए रखने के लिए इसके शब्दश: अनुवाद से बचा गया है।

- रेयाज़ुल हक़

 

उसे बस इतना मालूम था कि वो अभी भी जि़ंदा है।

इससे ज़्यादा वो कह नहीं सकता था।

(वोड हाउस)

 

पासपोर्ट के बारे में/बियर और सिगारों की बराबरी के बारे में/अनुशासन के बारे में बात तब की है जब जंग की दीवानगी ने आधे यूरोप को एक उजाड़ में तब्दील कर दिया था। लेकिन यह दीवानगी अभी जवान और दिलकश थी, और इस फिराक में थी कि किस तरह जऱा अमेरिका की सैर हो जाए। ऐसा आलम था जब हेल्सिंग फोर्स में एक रेलवे कैफे में दो आदमियों ने पाया कि वे एक दूसरे के सामने बैठे हुए थे। पहले तो उन्होंने एक दूसरे को बचती हुई निगाहों से देखना शुरू किया, फिर बचते-बचाते उन्होंने एक दूसरे से गुफ्तगू शुरू कर ही दी...सियासत पर गुफ्तगू। उनमें से एक आदमी बड़े कद का और मोटा-सा था और उसके हाथ साफ-सुथरे थे; दूसरा थोड़ा गठीले बदन का था और उसके हाथ मिस्तरियों जैसे थे। मोटे आदमी ने अपने सामने बियर की ग्लास रख रखी थी और उसे देखे जा रहा था.

 

मोटा आदमी

यह बीयर असली बीयर नहीं है, लेकिन यह कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि ये सिगार भी असली सिगार नहीं हैं। लेकिन आपका पासपोर्ट, उसको तो एक असली पासपोर्ट  होना होगा। वरना घुसने की इजाजत भी नहीं होगी।

 

गठीला आदमी

पासपोर्ट किसी इंसानी जीव का सबसे खानदानी हिस्सा है। दुनिया में पासपोर्ट का बनना इंसानों के बनने से कहीं मुश्किल है। एक इंसान की पैदाइश कितनी सीधी है, कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई मुनासिब वजह भी नहीं। बस आ ही गए। लेकिन पासपोर्ट कभी ऐसे नहीं आता। इसलिए आप देख लीजिए, पासपोर्ट का जो रुतबा है वह हमेशा कायम रहता है। बशर्ते पासपोर्ट अच्छा हो। जबकि एक इंसान का जितना मन करे वह अच्छा हो जाए, उसकी कोई कद्र नहीं है.

 

मोटा आदमी

तो यह कहा जा सकता है: इंसानी जीव पासपोर्ट रखने की फाइल भर है। वह अपने सीने की जेब में पासपोर्ट ऐसे संजोकर रखता है, जैसे तिजोरी में शेयर सर्टिफिकेट। तिजोरी का अपने आप में कोई मोल नहीं है, वह बस बेशकीमती चीजें रखने की चीज़ है।

 

गठीला आदमी

लेकिन इस पर यह ऐतराज किया जा सकता है कि एक मायने में, पासपोर्ट के लिए एक इंसान का होना ज़रूरी होता है। गुस्ताखी माफ हो, बेशक असली चीज तो पासपोर्ट ही है, लेकिन एक खिदमतगार के बिना इसका रुतबा नहीं बनता, या कम से कम यह मुकम्मल नहीं होता। जैसे कि सर्जन होते हैं -मरीज न हों तो वे ऑपरेशन किसका करेंगे? फिर बिना मरीज़ों के सर्जन का कोई मोल नहीं है, चाहे वह कितना ही काबिल सर्जन हो। किसी राष्ट्र के मामले में यही बात लागू होती है: असली चीज है एक महान नेता, एक फ्यूहरर, एकदुचे, या उसका नाम चाहे जो हो, लेकिन उन्हें भी राज़ करने के लिए लोग चाहिए। वे महान हो सकते हैं, लेकिन उनकी महानता का खामिया जा उठाने के लिए किसी को होना होगा, वरना सारी बात ही बेकार होकर रह जाएगी।

 

मोटा आदमी

अभी आपने जो दो नाम लिए हैं, उनकी वजह से मुझे इस बीयर और सिगार की याद आ गई। मेरा खयाल है कि ये बेहतरीन किस्म के हैं, यहां इनसे बेहतर नहीं मिलता, और मुझे लगता है कि यह खुश किस्मती ही है कि बीयर असली बीयर नहीं है और सिगार एक असली सिगार नही है, क्योंकि अगर वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे न होते तो यह कैफे लगभग चौपट हो गया होता। देख लीजिए, यहां कॉफी भी शायद असली कॉफी न हो।

 

गठीला आदमी

इसका खुश किस्मती से क्या लेना-देना है?

 

मोटा आदमी

मेरा मतलब है कि इससे संतुलन बना रहता है। एक जैसे होने के चलते उन्हें इस बात का कोई डर नहीं है कि आपस में उन दोनों के बीच कोई तुलना कर बैठेगा। एक साथ मिलकर वे पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में जकड़ सकते हैं: दोनों में किसी के पास भी एक दूसरे से अच्छा संगी नहीं होगा। इसीलिए जब वे मिलते हैं, इतनी खुशी से मिलते हैं। फर्क तब आएगा, मान लीजिए, जब कॉफी तो असली कॉफी हो और बीयर असली बीयर न हो। तब लोग शिकायत करने लगेंगे कि कॉफी अच्छी थी लेकिन बीयर तो खराब थी। तब फिर क्या होगा? लेकिन मैं आपको बात से भटका रहा हूं।आप पासपोर्ट की बातकर रहे थे।

 

गठीला आदमी

यह ऐसी कोई खुशनुमा बात भी नहीं है कि आप मुझे भटका दें तो मैं बुरा मान जाऊं। मुझे बस यह बात ही अजीब लगती है कि वे लोगों को गिनने और उनके नाम रजिस्टर में दर्ज करने को लेकर इतने बेताब क्यों हैं, खासकर एक ऐसे समय में। शायद उनको डर है कि रजिस्टर में गलत लोगों के नाम न चढ़ जाएं। इतनी परवाह वे अमूमन करते नहीं हैं। लेकिन वे इस बात को पक्के तौर पर यकीनी बनाना चाहते हैं कि आप ठीक वही इंसान हैं, कोई और नहीं हैं। मानो इससे कोई फर्क पडऩे वाला है कि भूख से मरने की इजाजत किसको मिलती है।

लंबा, मोटा आदमी उठा और सिर झुकाकर बोला: मेरा नाम है सिफ्फेल है, मैं एक फिजिसिस्ट हूं। अब गठीले आदमी को असमंजस हुआ कि क्या उसे भी खड़ा होना चाहिए, लेकिन तब उसने हौसला जुटाया और अपनी जगह से हिला भी नहीं। वह बुदबुदाया: आप मुझे काल्ले कह सकते हैं, चलेगा.

मोटा आदमी अपनी जगह वापस बैठ गया और उसने बहुत आहिस्ते से अपने सिगार से एक कश लिया। वही सिगार जिसकी शिकायत वह कई दफे कर चुका था. फिर उसने मुंह खोला।

 

सिफ्फेल

हाल के बरसों में इंसानी जीवों के बारे में भारी दिलचस्पी बढ़ी है, खासकर नए राष्ट्रों में। अब पहले वाली बात नहीं रही, अब राष्ट्र खयाल रखते हैं। यूरोप पर जिन लोगों का कब्जा हो गया है, उनकी गहरी दिलचस्पी लोगों में है। लोगों से उन काम नही नहीं भरता। उन्हें काफी सारे लोग चाहिए। पहले तो हम यह समझ ही नहीं पाए कि फ्यूहरर जर्मनी के चारों कोनों से इतने सारे लोगों को जमा क्यों कर रहे हैं, और उन्हें राजधानी में क्यों हांककर ला रहे हैं। लेकिन जबसे जंग शुरू हुई है, सब कुछ साफ हो गया है। वे इतनी जल्दी खप जाते हैं कि फ्यूहरर को हमेशा उनकी सप्लाई चाहिए। लेकिन लोगों के पास पासपोर्ट होना जरूरी है। वजह बहुत साफ है। ऐसे वक्तों में अनुशासन बहुत जरूरी होता है। मान लो कि आप और मैं ऐसे ही छुट्टा छोड़ दिए गए: किसी को पता ही नहीं कि हम असल में कौन लोग हैं। तो जब हमको पकड़कर बंद करने की बात आएगी तो वे हमें खोजेंगे कैसे? फिर तो अनुशासन रह ही नहीं पाएगा। आप सर्जन की बात कर रहे थे न सर्जरी इसीलिए तो संभव है क्योंकि सर्जन को पता है कि देह में अपेंडिक्स कहां है। अगर अपेंडिक्स अपनी मर्जी से टहलने निकल जाए और दिमाग में दाखिल हो जाए, और सर्जन को इसका पता ही नहीं हो, तब तो हो गया सर्जन का काम। अनुशासन में आस्था रखने वाले सब लोग यही कहेंगे।

 

काल्ले

अब तक मैं जितने अनुशासन वाले लोगों से मिला हूं, उनमें सबसे कायदे वाला आदमी मुझे दाचाऊ कन्सेंन्ट्रेशन कैंप में मिला था। शिफिंगर नाम का वह आदमी एसएस में था। कहते थे कि उसकी बीवी को हफ्ते में सिर्फ एक दिन हंसने की इजाज़त थी, सिर्फ शनिवार को, और वह भी सिर्फ शाम को चाय पीते हुए। अनजाने में भी वह कभी किसी और समय हंस नहीं सकती थी. कभी होटल में खाने जाते तो अगर लेमोनेड की बोतल का पेंदा गीला हो तो उसे टेबल पर रखने की इजाजत नहीं थी। जब वह आदमी अपने चमड़े के कोड़े से हमें पीटता था, तो वह यह काम इतने सलीके से करता कि हमारी चमड़ी पर पड़े निशानों से एक नक्शा-सा खिंच जाता। और फिर चाहें तो आप पैमाने से उसको माप सकते थे। अनुशासन की उसे इस कदर सनक थी कि अगर बेढंगे तरीके से पीटना होता तो वह हमें पीटता ही नहीं।

सिफ्फेल

यह बहुत जरूरी बात है। जेलों और फौज में अनुशासन की जितनी कद्र है, उतनी कहीं नहीं है। दुनियाभर में हमेशा से उनका नाम ही इसी के लिए है। ऐसा है कि जब फ्रांसीसी-प्रशा के बीच जंग शुरू हो रही थी तो फ्रांसीसी जनरल ने सम्राट नेपोलियन से कहा था कि फौज का एक-एक बटन तक चाक-चौबंद है: अब अगर यह बात सच होती तो कितनी अच्छी होती। तो अंत में असली बात आखिरी बटन की ही होती है। आपको सभी बटन चाहिए। आखिरी बटन से ही आप जंग जीतते हैं। खून की आखिरी बूंद भी अहम होती है, लेकिन आखिरी बटन जितनी अहम नहीं होती। जंग जीतने का काम तो अनुशासन ही करता है। और आप खून पर वैसा अनुशासन नहीं लगा सकते, जैसा एक बटन पर लगा सकते हैं. आला अफसरों को बटनों की जानकारी तो बखूबी होती है, लेकिन बहे हुए खून की आखिरी बूंद की जानकारी उतनी नहीं होती।

 

काल्ले

'आखिरी’ तो उनका पसंदीदा लफ्ज है। कैंप में, एसएस अफसर हमेशा हमसे कहते कि आखिरी दमतक हमें काम करना है। मैं हमेशा सोचता रहता था कि हमें पहले दम का इस्तेमाल करने की इजाजत क्यों नहीं होती। लेकिन इसे आखिरी ही होनी चाहिए, वरना इसमें उन्हें कोई मजा नहीं आएगा। और वे इस जंग को आखिरी दमतक जीतना चाहते हैं। यह उनकी धुन है।

सिफ्फेल

वे दिखाना चाहते हैं कि यह एक संगीन मामला है।

काल्ले

जानलेवा रूप से संगीन। अगर जानलेवा नहीं है, तो फिर इसकी कोई गिनती नही ंहै।

सिफ्फेल

इससे हम बटनों वाली बात पर वापस पहुंचते हैं। तो अनुशासन की जो कदंर फौज में है, वह कहीं नहीं है। कारोबार में भी नहीं है - जबकि कारोबार में अगर आप चीजों को कायदे से रखें तो आपको मुनाफा ही होगा, जबकि जंग में तो सिर्फ नुकसान ही होता है। ऐसा लगता है कि कारोबार में कौडिय़ों पर नजर रखना, जंग में बटनों पर नजर रखने से कहीं ज्यादा बड़ी बात है।

काल्ले

असल में उस तरह देखें तो बात बटनों की नहीं है: जंग में जितनी बर्बादी होती और कहीं नहीं  होती। हर कोई जानता है। जब जंग लडऩे की बात हो तो साज सामान में कोताही नहीं करते। कभीआपने सुना है कि फौज किफायत से काम ले रही हो?अनुशासन और किफायत में कोई मेल ही नहीं है.

सिफ्फेल

बेशक नहीं है। बात यह है कि चीजों को बर्बाद होना है तो कायदे से बर्बाद हों। हर चीज जिसको फेंका जाना है, या खराब होनी है, या बर्बाद की जानी है, तो जरूरी है कि उसका नाम रजिस्टर में दर्ज किया जाए और फिर उस पर एक नंबर चढ़ा दिया जाए: यही अनुशासन है। लेकिन अनुशासन के पीछे मंशा लोगों को सिखाना है। कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें अगर लोग अनुशासन से न करें तो कर ही नहीं सकते। और ऐसे सारे काम बेकार के काम होते हैं। जैसे आपने एक कैदी को कहा कि वह गड्ढा खोदे और फिर उसे भर दे और फिर से खोदे। आपने अगर उसे उसकी मनमर्जी से, सुस्ती से यह काम करने दिया तो फिर वह पागल हो जाएगा या फिर बगावत कर बैठेगा - जो एक ही बात है। लेकिन अगर उसे इसकी हिदायत हो कि उसे फावड़ा यहां और यहां से पकडऩा है और सेंटीमीटर भर भी इधर से उधर नहीं होना है, और अगर जमीन पर एक लकीर खींच दी जाए दिखाने के लिए कि गड्ढा यहां खोदना है ताकि वह एकदम सीधी खुदे, और अगर उसे बताया जाए कि जब वह खंदक भरे तो वह इतना सपाट होना चाहिए कि लगे ही नहीं कि वहां कोई गड्ढा था, तब जाकर काम होगा और हर चीज अपने ढंग से चलती रहेगी। और फिर, लोगों में इंसानियत जहां भी पाई जाएगी वहां भ्रष्टाचार जरूर होगा। और भ्रष्टाचार से अनुशासन खत्म होता है। आप पाएंगे कि हर उस जगह पर इंसानियत है जहां अफसर रिश्वत लेता है। जरा सी रिश्वत से आप इंसाफ तक पा सकते हैं। ऑस्ट्रिया में पासपोर्ट ऑफिस में मैंने एक अफसर को लाइन तोड़कर आगे बढऩे के लिए घूस दी. मैंने उसके चेहरे में ही देख लिया कि उसमें रहमदिली है, मतलब वह घूस लेने के लिए तैयार है। फासीवादी हुकूमतें रिश्वत पर इसीलिए लगाम लगा देती हैं क्योंकि इन हुकूमतों में इंसानियत नहीं होती.

 

काल्ले

किसी ने कभी कहा था कि गंदगी कुछ नहीं होती, बस गलत जगह रखा हुआ सही सामान होती है। अब फूलों के गमले में जो मिट्टी होती है, उसे तो हम गंदगी नहीं कहते। उसूली तौर पर मैं मानता हूं कि अनुशासन एक अच्छी बात है। एक बार मैंने चार्ली चैप्लिन की एक फिल्म में देखा था कि वह एक सूटकेस में सामान लगा रहा था - या सही कहें तो सूटकेस में अपना सामान ठूंस रहा था। और जब उसने उसका ढक्कन बंद किया तो उसे लगा कि मामला गड़बड़ है क्योंकि कपड़ों के हिस्से बाहर लटक रहे थे. तो उसने कैंची ली और आस्तीनें और पांयचे और हर चीज काट दी जो बाहर लटक रही थी। इससे मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैं देख रहा हूं कि आपको अनुशासन से उतनी मुहब्बत है नहीं।

 

सिफ्फेल

बात बस यह है कि मैं जानता हूं कि लापरवाही कितने काम की चीज है। लापरवाही ने हजारों जानें बचाई हैं। जंग में ऐसा होता है कि किसी इंसान को जो हुक्म मिला है, उससे बाल बराबर लापरवाही दिखा देतो उसकी जान बच जाती है।

 

काल्ले

बात सही है। मेरे चाचा आर्गोन्ने जंगल में थे। वे एक खंदक में बैठे थे और टेलीफोन पर हुक्म हुआ कि वे फौरन वापस लौट जाएं। लेकिन उन्होंने हुक्म पर पूरी तरह से अमल नहीं किया-वे तले हुआ आलू खा रहे थे और वे उसे पहले खत्म करना चाहते थे। नतीजा हुआ कि वे कैद कर लिए गए और उनकी जान बच गई.

सिफ्फेल

या फिर एक पायलट की बात लें। मान लीजिए वह थका हुआ है, और वह जहाज उड़ाने के नियमों को पढऩे में लापरवाही करता है। तो जो बम किसी बस्ती पर गिराना है, उसे वह जरा दूर गिरा देता है। पचास जानें बच गईं इससे। तो मेरा कहने का मतलब यह है कि लोग अनुशासन जैसी किसी खूबी के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी सोच अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। उनकी समझदारी बेवकूफों जैसी है, और सिर्फ एक लापरवाह और बेढंगा काम ही उन्हें भारी नुकसान से बचा सकता है।

मेरा एक लैब असिस्टेंट था, जनाब सायसिग, जिसे चीजों को व्यवस्थित रखने की खब्त थी। उसे बड़ी जहमत उठानी पड़ती। वह हमेशा चीजों को संवारता रहता। आप किसी प्रयोग के लिए सारा साज सामान निकालकर लगाते और इस बीच आपको एक फोन आ जाता, और जब तक आप बात करके वापस आते, वह सारी चीजों को वापस सजाकर बंद कर चुका होता। और हर सुबह टेबल बेदाग होगा - मतलब आपने जो नोट्स बनाकर रखे होते वे सब रद्दी के हवाले। लेकिन वह बहुत मेहनत करता, तो आप उसको डांट भी नहीं सकते थे. बेशक आप कुछ न कुछ तो कहते ही लेकिन ऐसा करके भी आप गलती करते। हर बार जब कुछ गायब होता, यानी कि हर बार जब चीजें सलीके से लगा दी जातीं, तो वह अपनी बीमार आंखों से ऐसे देखता कि जिनमें समझदारी की जराभर रंगत भी नहीं होती, और आपको उस पर अफसोस ही होता। मैं कभी सोच नहीं सकता था कि जनाब सायसिग का कोई निजी जीवन भी होगा, लेकिन था। जब हिटलर हुकूमत में आया तो पता चलाकि जनाब सायसिग पूरे समय पार्टी में ही थे, वेइसके पहले मेंबरों में से थे. जिस सुबह हिटलर चांसलर बना, जनाब सायसिग ने कहा (मेरा कोट सलीके से टांगते हुए): अब डॉक्टर, जर्मनी में कुछ अनुशासन आने वाला है। और वह अपनी जबान का पक्का निकला।

मैं एक ऐसे मुल्क में नहीं रहना चाहूंगा जहां अनुशासन को इतना सिर पर चढ़ा लिया जाए। जहां भी अनुशासन होगा, किफायत भी होगी। बेशक आप यह भी कह सकते हैं कि फिजूल खर्ची में भी अनुशासन होता है - जैसा कि मैंने आपसे कहा, हमारे मुल्क में जंग के समय यह खूब होती है। लेकिन हम अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचे हैं।

 

काल्ले

आप कह सकते हैं: अव्यवस्था वहां है जहां कुछ भी सही जगह पर नहीं है। जबकि अनुशासन वहां है जहां सही जगह पर कुछ है ही नहीं।

 

सिफ्फेल

इन दिनों तो अनुशासन वहीं मिलेगा जहां कुछ भी न हो। यह मुफलिसी की निशानी है।

गठीले आदमी ने सिर हिलाया, लेकिन इन आखिरी कुछ बातों में जो संजीदगी थी, या शायद उसने सोचा कि उसे संजीदगी महसूस हुई थी, इससे उसका मिजाज उखड़ गया था। क्योंकि इन चीजों पर वह बहुत संवेदनशील था। और उसने धीरे-धीरे अपनी कॉफी निगलकर खत्म की।

फौरन ही, उन दोनों ने एक दूसरे को अलविदा कहा और अपने-अपने रास्ते पर चल पड़े।

 

रेयाज़ुल हक़ प्रसिद्ध जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद इन दिनों जर्मनी में उच्चतर अध्ययन और अनुवाद का काम कर रहे हैं।

 


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