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जनवरी 2021

झडऩा एक बुरुंश के फूल का

शैलेन्द्र शैल

संस्मरण /गंगाप्रसाद विमल

 

 

 

 

वर्ष 1961 की जुलाई के पहले रविवार मैं जलन्धर से बस द्वारा चंडीगढ़ पहुँचा। मैंने बीए (आनर्स) के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में एमए करने का निर्णय लिया था। दाखिला हो गया था। अगले दिन कक्षाएँ आरंभ होने वाली थीं।

हॉस्टल नम्बर वन के दफ्तर से चाबी लेकर मैं ब्लाक नम्बर वन की सीढिय़ाँ चढ़ गया। मेरे हाथ में स्टील का एक छोटा ट्रंक था। मेरा बिस्तर आगे आगे चपरासी लेकर चल रहा था। उसने उसे एक कमरे के आगे रख दिया और दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनकर गलियारे के एक छोर पर बने कमरे से एक छोटे कद का गोरा सा पर मुझ से बड़ा लड़का निकला और मेरे पास आया।

'एम.ए. करने आए हो?’ उसने पूछा।

'हाँ’ - मैंने कहा

'किस विषय में?’

'हिन्दी में’ मैंने बताया।

'वैल्कम टु चंडीगढ़। मेरा नाम विमल है, गंगाप्रसाद विमल। मैंने रिसर्च शुरू की है। इसी साल एम.ए. किया है।’

'मैं शैलेन्द्र, डी.ए.बी. कॉलेज जलन्धर से आनर्स किया है।’ कहकर मैंने हाथ मिलाया। उसका हाथ छोटा और नरम था। कुछ गुदगुदा सा।

'किसी चीज़ की ज़ररूत हो तो बताना। अगर कोई सीनियर रैगिंग वगैरह की कोशिश करे तो भी।’ उसने कहा

'शुक्रिया, मैनी मैनी थैंक्स’। मैंने आभार प्रकट किया। वह अपने कमरे में लौट गया। मैं चपरासी को विदा कर अपना सामान व्यवस्थित करने लगा। कमरा छोटा पर हवादार था। एक छोटी सी बाल्कनी बाहर सड़क की ओर खुलती थी।

बाद में पता चला कि विमल वास्तव में उत्तरकाशी के उनियाल ब्राह्मण हैं और एम.ए. में विश्वविद्यालय में प्रथम आए हैं। उन्हें रिसर्च के लिए यूजीसी से स्कालरशिप मिला है। एक छोटा सा स्कॉलरशिप मुझे भी मिल रहा था, बीए से ही। उसी फ्लोर पर दोआबा कॉलेज से प्रवीण शर्मा भी मुझसे पहले आ गया था। उसका कमरा तीन कमरे पहले था। कुछ दिनों बाद पता चला कि जलन्धर के कॉफी हाउस में अक्सर दिख जाने वाला कवि कुमार विकल भी यूनिवर्सिटी के पब्लिकेशन ब्यूरो में नौकरी कर रहा है।

कक्षाएं नियमित रुप से आरम्भ हुईं तो मैं और प्रवीण सत्रह सेक्टर के इंडियन कॉफी हाउस जाने लगे। वहाँ का वातावरण जलन्धर के कॉफी हाउस जैसा ही था। शाम को छात्रों का जमावड़ा होता। वहीं अक्सर विमलभाई और कुमार विकल भी मिल जाते। जलन्धर का जितेन्द्र मोहन भी मनोविज्ञान के दूसरे वर्ष में था। सभी को कविता पढऩे लिखने का शौक था। महीने में एकाध बार हम डिनर के बाद विमल के कमरे में इकट्ठा होते। कुर्सियाँ अपने अपने कमरों से खींच लाते। इन बैठकों में कई बार कुमार विमल भी शामिल होता. इनमें कविता का अखण्ड पाठ शनिवार देर रात तक चलता। कभी कभार कुमार के आग्रह पर चंदा इकट्ठा कर पीने पिलाने का दौर भी चलता। कुमार इसका पुराना खिलाड़ी था। हम लोग नए नए विरहमन थे। विमल अच्छी कविता लिखते थे। जैसा उन दिनों चलन था - सभी मुक्त छन्द में लिखते।

विमल ने मुझे तीनों सप्तक, धर्मयुग, सारिका, कृति, ज्ञानोदय, कल्पना लहर आदि कई पत्रिकाएं दी। उन्होंने अपनी छपी एकाध कविता भी दिखाई। हम अज्ञेय, कुंवर नारायण, मुक्तिबोध, श्रीकान्त वर्मा, रघवीर सहाय आदि कवियों से बहुत प्र्रभावित थे।

एक दिन  मैंने देखा कि विमल अपनी साइकिल पर एक लड़की को बिठा कर लाइब्रेरी की ओर से आ रहे थे। मैंने ध्यान से देका लड़की हमारी सीनियर कमलेश वर्मा थी। पतली-दुबली, दिखने में विमल से थोड़ा लम्बी। विमल महज़ पांच फुट पांच इंच के थे। कमलेश ठेठ पंजाबी कुड़ी, और विमल पहाड़ी बुरुंश का फूल। कमलेश के पिता किसी सरकारी महकमे में काम करते थे और शायद उन्नीस सेक्टर में रहते थे। यह सिलसिला कमलेश के एम.ए. करने तक चला। हम विमल से ईष्र्या करते। खुलकर कुछ कहने की हिम्मत न थी पर इशारों इशारों में उन्हें जता देते कि हमें उनके अफेयर के बारे में पता है।

विमल और कमलेश कविता के कारण एक दूसरे के निकट आए। दोनों कविता लिखते थे। हमें लगा कि कमलेश कविता लिख कर विमल को दिखाती होगी। उर्दू में जिसे इसलाह कहते हैं। शायद विमल के कहने पर वह अपनी कविताएं अनामिका नाम से छोटी पत्रिकाओं को भेजने लगी। उनमें से कई छप भी गईं। अफवाह थी कि इनमें से कुछ विमल की अपनी कविताएं थीं जो पहले पत्रिकाओं द्वारा सधन्यवाद लौटा दी गई थीं। उन्हें यह तरकीब सूझी कि कमलेश के घर का पता लिख वे अनामिका नाम से कविताएँ भेजने लगे। कविताएँ छपने लगीं। नतीजा यह हुआ कि अनामिका के नाम कमलेश के पते पर पाठकों के पत्र आने लगे। उसके माता-पिता ही नहीं, कमलेश स्वयं हैरान होगी कि उसकी और विमल की कविताओं के इतने सारे प्रशंसक एकदम कहाँ से आ गए। एक-दो ने तो चंडीगढ़ आकर कवयित्री को मिलने की इच्छा भी ज़ाहिर की। कमलेश ने जब विमल को बताया तो अनामिका नाम से अपनी कविताएं भेजना बन्द कर दिया। धीरे-धीरे उनके अपने नाम से छपने लगीं।

विमल आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, डा. इन्द्रनाथ मदान तथा डा. रमेश कुन्तल मेघ के चहेते थे। शोध वे डा. मेघ के निर्देशन में कर रहे थे। विषय शायद 'आधुनिक कहानी का रचना विधान’ या ऐसा ही कुछ था।

वर्ष 1964 में एम.ए. के बाद मैं भारतीय वायुसेना की प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया। विमल 1964 में पी.एच.डी. कर दिल्ली के राजधानी (बाद में ज़ाकिर हुसैन) कॉलेज में लेक्चरर लग गए। दिल्ली में उन दिनों डी.ए.बी. कॉलेज जलन्धर में मेरे अग्रज रवीन्द्र कालिया केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में नौकरी कर रहे थे। कवि - समीक्षक प्रयाग शुक्ल फ्रीलांसिंग। वे अक्सर कनॉट प्लेस थे टी-हाउस में मिलते। फिर तीनों ने मिल कर करोलबाग मेें एक घर किराए पर ले लिया। उनके साथ जलन्धर का पेंटर हमदम भी आकर रहने लगा।  वह कालिया का दोस्त था और पत्रिकाओं, विशेष कर 'शमा’ में रेखांकन करता था।

वायुसेना में आने के बाद सबसे पहले मेरी पोस्टिंग एयरफोर्स स्टेशन आदमपुर में हुई। तीन महीने बाद मार्च 1965 में मुझे नए बन रहे एयरफोर्स स्टेशन हिंडन भेज दिया गया। यह दिल्ली और गाजियाबाद के बीच स्थित है। मैं हर शनिवार की शाम को लोनी बार्डर से बस पकड़कर दिल्ली आने लगा। टी-हाउस या रीगल के पास मैं इन लोगों से अक्सर मिलता। रात को जनपथ पर बनी वायुसेना की सेन्ट्रल मेस, जहां आजकल इंदिरा गांधी भारतीय कला केन्द्र है, में अपने फोर्समेट विजय सेठ के कमरे में ही सो जाता। वह दिल्ली के पास बने एक राडार यूनिट में पोस्टेड था।

इन्हीं दिनों एक रविवार मैं करोलबाग में इन सभी के साझा घर पर जिसे ये कम्यून कहते, पहुंच गया। उनके रहने का अन्दाज़ काफी बोहीमियन का था। चाय नीचे के खोखे से मंगवाई गई। एक कमरे में इधर उधर बियर की खाली बोतलें बिखरी पड़़ी थी।

शायद उसी वर्ष मोहन राकेश की सिफारिश पर रवीन्द्र कालिया को धर्मयुग में नौकरी मिल गई। वे बंबई चले गए। विमल ने कमलेश से विवाह कर लिया और कालिया ने ममता अग्रवाल से।

मुझे अगस्त में भारत पाक युद्ध के ठीक पहले आदमपुर वापिस बुला लिया गया। युद्ध समाप्त होने और रूसी भाषा का एक कोर्स करने के बाद वर्ष 1966 में मेरी पोस्टिंग चंडीगढ़ कर दी गई। वहाँ वर्ष 1968 में मैंने अपनी एम.ए. की सहपाठी उषा से विवाह कर लिया। कभी कभार दिल्ली आना होता तो विमल भाई से भेंट होती। अन्यथा हमारा सम्पर्क  लगभग टूट सा गया। अब वे अच्छे खासे कवि और कथाकार हो गए थे। उनकी कविताएँ और कहानियाँ धर्मयुग, ज्ञानोदय, सारिका आदि में लगातार छपने लगीं। दिल्ली में ही उन दिनों जगदीश चतुर्वेदी केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में कार्यरत थे। श्याम परमार शायद रेडियो या सौंग और ड्रामा डिवीज़न में काम करते थे। पता नहीं उनकी आपस में भेट कैसे हुई। जगदीश चतुर्वेदी अपनी कविता को नई कविता से भिन्न अकविता की संज्ञा देने लगे। वर्ष 1965 में उन्होंने 'अकविता’ शीर्षक से एक पत्रिका निकाली। तीनों ने एक साझा संकलन तैयार किया जिसका नाम रखा 'विजप’। यह तीनों को नामों से एक एक अक्षर लेकर बना था। विमल से 'वि’ जगदीश का 'ज’ और परमार का 'प’ - 'विजप’ 'अकविता’ पत्रिका 20-24 पन्नों की बिना ताम झाम के छपती। इसके सम्पादक थे जगदीश चतुर्वेदी, श्याम परमार और रवीन्द्रनाथ त्यागी। त्यागी जी व्यंग्यकार थे। मुझे याद नहीं मैंने कभी उनकी कोई अकविता पढ़ी हो। इसमें गंगाप्रसाद विमल, सौमित्र मोहन, कुमार विकल, मुद्राराक्षस चन्द्रकान्त देवंताले, रमेश गौड़ आदि की कविताएं छपने लगीं। मोना गुलाटी नाम की एक युवा कवयित्री की कविताएं लगभग हर अंक में छपतीं। जगदीश चतुर्वेदी के बारे में प्रसिद्ध था कि वे कमर के नीचे की कविता लिखते हैं। उ्हें पेट और भूख आदि से कोई सरोकार नहीं था। यदि नई कविता में मोहभंग उभर कर आया तो अकविता में विसंगति, अस्वीकृति, यौन कुण्ठा और यौन विकृति। जगदीश की लम्बी कविता 'इतिहास हन्ता’ आई तो सौमित्र मोहन  की 'लुकमान अली’, जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद मैंने युवा कवि समर्थ वाशिष्ठ के साथ मिलकर कई वर्ष बाद किया। 'अकविता’ पत्रिका जैसे 65 में उभरी थी उसी तरह 67 में बन्द हो गई।

विमल उसी समय ऐसी कहानियाँ लिखने लगे जिन्हें 'अकहानी’ की संज्ञा दी गई। ऐसा उन्होंने स्वयं किया या आलोचकों ने, ठीक से पता नहीं। जैसे अकविता का नामकरण एंटी पोएट्री की तर्ज़ पर हुआ शायद उसी तरह 'अकहानी’ का नामकरण भी एंटी स्टोरी की देखादेखी हुआ होगा।

उनकी कहानी या अकहानी 'प्रश्नचिन्ह’ भी उन्हीं दिनों छपी जिन दिनों ज्ञानरंजन की 'फेन्स के इधर उधर’ और 'पिता’, रवीन्द्र कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी’ और दूधनाथ सिंह की 'रीछ’ छपी। इन कहानियों में प्लॉट नाम की चीज़ मिसिंग थी। ये विभिन्न मन:स्थितियों, आंतरिक द्वंद्व, व्यक्तिगत अनुभवों, भावनाओं और ऊब से निर्मित थीं। इन्हें मोहन राकेश, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा और राजेन्द्र यादव की कहानियों के आगे की कहानियाँ कहा जाने लगा। एक ही समय में कई कहानीकार अतिशय आधुनिकता से लबालब कहानियाँ लिख रहे थे।

विमल का पहला उपन्यास 'अपने से अलग’ वर्ष 1969 में राजकमल से प्रकाशित हुआ। इसी के आसपास ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह और काशीनाथ सिंह के संग्रह आए। विमल का कविता संग्रह 'बोधिवृक्ष’ और कहानी संग्रह 'कोई शुरुआत’ आया। उनका उपन्यास नायक के आंतरिक द्वंद्व, उलझाव और अपने आप से प्रश्नों का चित्रण करता चलता है। इसमें एक बिखरते टूटते परिवार की कहानी है जिसका मुखिया - नायक का पिता, दूसरे शहर में, एक दूसरी महिला और दूसरे परिवार के साथ रह रहा है। नायक  के कई भाई-बहन हैं। छोटा भाई विध्वंसक प्रवृत्ति का है। उसकी छोटी बहन नींद की गोलियाँ खाती है - नशे के लिए। यह हमारे साझा मित्र कपिल मल्होत्रा के जीवन और परिवार पर आधारित है। कपिल को इन गोलियों की लत पड़ गई थी और शायद इस कारण वह बहुत छोटी उम्र में चल बसा। इस उपन्यास की भाषा और शैली पर पश्चिमी उपन्यासों और लेखकों का प्रभाव देखा जा सकता है। यह विमल का कच्चा-पक्का पहला उपन्यास था। पर उस समय इसकी पर्याप्त चर्चा हुई।

'विकीपीडिया’ और 'हिन्दी समय’ आदि में विमल को अकहानी का प्रणेता या जन्मदाता कहा गया है। मुझे नहीं पता यह कहाँ तक सही है। उसके समवर्ती कथाकारों को इस पर इतराज़ हो सकता है। बहरहाल अकहानी अपनी परिणति तक पहुँची और समान्तर कहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी आदि कई कहानी आंदोलनों की शुरुआत हुई।

वर्ष 69में जब मेरी पोस्टिंग इलाहाबाद के निकट मध्यवायु कमान बमरौली में हुई तो वहाँ ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया और दूधनाथ सिंह, ममता कालिया से अक्सर भेंट होती रहती। वर्ष 69-72 की अवधि में इन सभी की रचनाएँ प्रकाशित हुईं। विमल भाई की रचनाओं पर भी चर्चा होती। नीलाम भी वहीं था और हम सबसे छोटा था। वह कविताएं लिख रहा था। मैं कभी दिल्ली आते तो विमल से भेंट होती पर ऐसा बहुत कम होता।

वे अध्यापन और लेखन की दुनिया से जुड़े रहे और वर्ष 89 में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक नियुक्त हो गए। मैंने भारत के विभिन्न वायु-सेना संस्थानों में कार्य करते हुए कई छोटे बड़े शहर देखे और एक बंजारा जीवन जिया। हम दो भिन्न ग्रहों के वासी थे। हालांकि मैं छोटी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य से निरन्तर जुड़ा रहा। उनकी रचनाएँ मैं अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता। कभी कभार मेरी कोई कविता या विदेशी कविता का अनुवाद इनमें छप जाता। वर्ष 84 में मेरा कविता संग्रह 'आम आदमी के आस पास’ परिमल प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। मैंने उन्हें एक प्रति भेंट की पर उस पर उनकी कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई।

इस तरह हमारे मिलने का अन्तराल बढ़ता गया। भाई ज्ञानरंजन ने नियमित पत्र व्यवहार होता रहा पर विमल से नहीं।

वर्ष 1993 में मेरी नियुक्ति वायुसेना मुख्यालय में एक निदेशालय के निदेशक पद पर हो गई। अधिकांश निदेशालय रफी मार्ग पर स्थित वायुभवन में थे पर कुछ रामाकृष्णपुरम के पश्चिमी खण्ड-6 में स्थित थे। मेरा निदेशालय भी यहीं था। कुछ दिन बाद पता चला कि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय कुछ ही दूरी पर खण्ड-7 में है। विमल वहीं निदेशक थे। पता नहीं क्यों हमारा मिलना बहुत कम हुआ। शायद हम अपनी अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में व्यस्त थे।

वहाँ से रिटायर होकर वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अनुवाद विभाग चले गए और बाद में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष भी रहे। मैंने एक सिविल एविएयशन कम्पनी में नौकरी कर ली। फिर 'स्पिकमैके’ और 'संजीवनी’ नामक स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़ा।

दिल्ली में इंडिया इन्टरनेशनल सेंटर कई वर्षों से साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केन्द्र रहा है। वहाँ एक अच्छी लाइब्रेरी और बढिय़ा टी-लाउंज है। शाम को कोई कार्यक्रम देखने जाता तो विमल से भेंट होती। विमल कई वर्षों से इसके सदस्य थे। इसकी सदस्यता चार-पाँच वर्षों में एक बार खुलती। मैंने विमल से बात की। उनकी सलाह पर मैंने आवेदन पत्र में वायुसेना का उतना ही ज़िक्र किया जितना ज़रूरी था। अपनी साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों पर अधिक बल दिया। मैं तब तक 'इंडियन सोसाइटी ऑफ ऑथर्स’ तथा 'द पोएट्री सोसाइटी (इंडिया)’ का आजीवन सदस्य बन गया था। सदस्यता की चुनाव समिति में अन्य आजीवन न्यासियों के साथ-साथ डॉ. कर्णसिंह और डॉ. कपिला वात्स्यायन भी थे। सदस्यता मिलने पर मैं बहुत प्रसन्न था। अब मैं वहाँ की लाइब्रेरी और टी-लाउंज का उपयोग करने लगा। विमल अक्सर वहीं मिलते। कई बार कमलेश भी टी-लाउंज में आ जातीं। धीरे धीरे अस्वस्थ रहने लगीं। उनका आना बिल्कुल बन्द हो गया।

सेन्टर का एक और आकर्षण वहाँ की बार है। इसमें निर्मल वर्मा से लेकर रामचन्द्र गांधी, प्रयाग शुक्ल, अशोक वाजपेयी और कई साहित्यकार, पत्रकार, नेता, सांसद और रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट आते। विमल भी लाइब्रेरी में पढ़ते लिखते सात बजेने की प्रतीक्षा करते। यह बार खुलने का समय है।

विमल ने चाय में चीनी डालना एक अर्सा पहले छोड़ दिया था। शायद मधुमेह के  कारण। वे बिना दूध-चीनी के नींबू वाली चाय पीते। फिर उन्हें ऊँचा सुनाई देने लगा। टी-लाउंज के शोर में उनसे बात करना कठिन हो गया। दोस्तों की सलाह पर उन्होंने कान की मशीन लगा ली। अब वे थोड़ा ठीकठाक सुनने लगे। पहले वे हमारे होठोंं को पढ़कर या केवल अन्दाज़े से बातचीत करते। अब थोड़ी आसानी हो गई।

इसी बीच हम एक दूसरे के और निकट आ गए थे। हम कई साहित्यिक कार्यक्रमों में एक साथ जाने लगे। वर्ष 2012 में प्रसिद्ध सन्तूरवादक पं. शिवकुमार शर्मा की आत्मकथा 'जर्नी विद ए हंड्रेड स्टिंग्स’ का मेरा हिन्दी अनुवाद 'संतूर: मेरा जीवन संगीत’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ। इसका लोकार्पण आई.आई.सी. और 'स्पिक मैक’ के तत्वावधान में हुआ। इसकी अध्यक्षता डॉ. कर्णसिंह ने की। पं. शिवकुमार शर्मा भी मुंबई से आए। अपने व्याख्यान में विमलजी ने मेरे अनुवाद की सराहना की।

इससे पहले वर्ष 2011 में उनका कविता संग्रह 'खबरें और अन्य कविताएँ’ छपा। 2013 में अंतिम उपन्यास 'मानुषखोर’ प्रकाशित हुआ। दोनों पुस्तकें उन्होंने मुझे भेंट कीं। संग्रह की कविताएं थोड़ी लम्बी पर प्रभावशाली थीं। मैंने उन्हें बधाई दी। मैंने कहा कि मैं उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर तब तक की यात्रा का साक्षी हूँ। वे मुस्करा दिए।

उपन्यास में उत्तराखंड के इतिहास, मिथकों और किंवदन्तियों की भरमार थी। नेपाल और पहाड़ी-गढ़वाली रियायतों के आपसी सम्बन्धों, गुरखा सैनिकों के पराक्रमों का बखान करते विवरण, गाँव के मुखिया के कारनामे पाठकों को बाँध कर नहीं रख पाए। उन्होंने बहुत शोध और परिश्रम के बाद यह उपन्यास लिखा था। पर उसकी उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी उन्हें अपेक्षा थी। मैंने केवल कुणालसिंह की समीक्षा पढ़ी। शायद कुछ अन्य भी छपी होंगी। पर इससे वे सन्तुष्ट नहीं थे और इसी कारण थोड़ा निराश भी थे।

वर्ष 2016 में उनका कहानी संग्रह 'मैं भी जाऊँगा’ और मेरा कविता संग्रह 'कविता में सब कुछ सम्भव’ अंतिका प्रकाशन से छपा। मैंने उन्हें संग्रह भेंट किया। उन्होंने मुझे बधाई देते हुए कहा कि कई कविताएं उन्हें पसन्द आई हैं और विशेष रूप से 'माँ’ और 'पिता’ पर मेरी कविताओं का ज़िक्र किया। मुझे लगा कि उनकी प्रशंसा जैनुइन है, मेेरा मन रखने भर के लिए नहीं है। फिर 2018 में मेरे संस्मरणों का संग्रह 'स्मृतियों का बाइस्कोप’ भारतीय ज्ञानपीठ में छपा। द पोएट्री सोसाइटी (इंडिया) ने 'आप से मुखातिब हूँ’ शीर्षक से मेरा कविता और संस्मरण पाठ करवाया। विमल जी ने इसमें अपने अध्यक्षीय भाषण में मेरी कविताओं और संस्मरणों की प्रशंसा की। मैंने अपना आभार प्रकट किया। वे मुस्कराने लगे।

एक दिन अचानक उन्होंने घोषणा की कि उन्होंने शराब छोड़ दी है। ज़ाहिर है उन्होंने ऐसा डॉक्टर की सलाह पर किया, अन्यथा वे इतनी आसानी से शराब छोडऩे वाले नहीं थे। ठीक कथाकार और मेरे अग्रज मित्र रवीन्द्र कालिया की तरह। अब उनका अधिक समय लाइब्रेरी में बीतता। बार में जाने के लिए पूछते तो मना कर देते।

''भई, मुझे नींबू पानी लेकर वहाँ बैठना अच्छा नहीं लगता जबकि आप लोग सुरापान का लुफ्त उठा रहे होते हो।’’ वे कहते।

फिर एक दिन टी-लाउंज में एक सांझा मित्र ने खबर दी कि विमल जी को हृदय रोग के कारण एक स्टेंट लग गया है। उन्हें अचानक छाती में दर्द हुआ। बेटी कनुप्रिय को फोन किया गया। वह भागी भागी आई और उन्हें अस्पताल ले गई। उनकी एक आर्टरी ब्लाक पाई गई।

अगले ही दिन मैं कालका जी में स्थित उनके फ्लैट पर पहुंच गया। उसी दिन दो-तीन साझा मित्र भी उनका हाल-चाल पूछने पहुँच गए। उन्होंने धीरे-धीरे स्टेंट लगने का सारा किस्सा सुनाया। मैंने देखा वे काफी कमज़ोर हो गए हैं। चेहरे पर हल्की ज़र्दी की झलक साफ दिख रही थी।

फिर भी उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर आना बन्द नहीं किया। योग़ तबीयत सुधरी तो आने लगे उसी ज़िन्दादिली से मिलते रहे जो जीवन भर उनकी ट्रेडमार्क रहीं -

''कहो शैल, कैसे हो कुछ नया लिखा क्या, चलो चाय पीते हैं।’’

मेरे सदस्य बनने के बाद भी उन्होंने मुझे कभी बिल साइन नहीं करने दिया। वेटरों के लिए भी इसमें सहूलियत थी। सभी को उनका सदस्यता नंबर ज़बानी याद था, मेरा नंबर किसी को नहीं।

और अचानक यह दु:खद समाचार मिला कि 23 दिसम्बर 19 को श्रीलंका में एक सड़क दुर्घटना में उनका, उनकी बेटी कनुप्रिया और नाती श्रेयत का निधन हो गया। परिजनों, मित्रों, प्रशंसकों और पाठकों के लिए यह एक स्तब्ध और दुखित कर देेने वाला समाचार था। सभी ने सोचा-ईश्वर इतना निर्दयी कैसे हो सकता है।

4 जनवरी 2020 की स्मृतिसभा में सभागार पूरा भरा था। कुछ लोग खड़े भी थे। मैं शायद उस सभागार में उनका सबसे पुराना मित्र था। लोग मंच पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे। मैं मंच पर जाने का साहस नहीं जुटा पाया। केवल मुस्कुराते हुए विमल के चित्र पर गुलाब की कुछ पंखुडिय़ाँ अर्पित कर बैठ गया। एक बुंरुश के फूल की याद मैं, मैं और कर भी क्या सकता था?

 

 

शैलेन्द्र शैल की भारतीय वायुसेना की नौकरी और साहित्य संगत लम्बे समय तक चलती रही। शुरुवाती दौर में शैल की बैठकें समय के शानदार हस्ताक्षरों के साथ होती रहीं। उनका लेखन बताता है कि सोहबत कितनी कीमती थी। सेवानिवृत होकर धीमे-धीमे प्रचुर लेखन किया और स्पिक मैके के सहयोगी भी बने। अब दिल्ली में रहते हैं और अपनी गरिमापूर्ण सक्रियताओं के बावजूद स्मृति के गलियारों को छोड़ा नहीं।

सम्पर्क- मो. 9811078880, नई दिल्ली

 


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