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जनवरी 2021

कौन किस सतह से बोलता है, यह सवाल है

शिवप्रसाद जोशी

निबंध

 

जॉर्ज ऑरवेल ने ''मैं क्यों लिखता हूँ’’ निबंध लिखा था 1946 में, मुक्तिबोध का ''प्रश्न यह है कि आख़िर रचना क्यों’’ नामक 'अपूर्ण’ निबंध का संभावित रचनाकाल 1959-64 बताया गया है (आख़िर रचना क्यों, राधाकृष्णन प्रकाशन, दिल्ली,1982), मुक्तिबोध के जवाब के बारे में पाठक नीचे पढ़ेंगे यहां पर ऑरवेल के जवाब का ज़िक्र करते चलें। उन्होंने अपने प्रश्नवाचक निबंध के जवाब में जिन चार बिंदुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है, वे है:- एक अदद अहम, सौंदर्यबोधीय उत्सुकता, ऐतिहासिक उत्तेजना और राजनीतिक मक़सद। प्रस्तुत लेख में कतिपय रचनाकारों के कार्यों, अनुभवों और उद्धरणों को उठाते हुए रचना और पाठ के साथ पाठक या प्रेक्षक या दर्शक के अंतर्सम्बन्धों की छानबीन का प्रयास किया गया है। रचना की प्रक्रिया, रचना की प्रक्रिया का मूल्यांकन करने वाली प्रक्रिया और इस दोनों प्रक्रियाओं को समझने का आत्मसात करने वाला पाठ, प्रेक्षण या ऑब्जर्वेशन की प्रक्रिया पर्वत श्रृंखलाओं का पार करने और नदियों पर तैर जाने और जंगलों बीहड़ों से गुज़र जाने और रेतीली तपिश भरे स्थलों पर जाने और लौटने की एक कभी न ख़त्म होने वाली कार्रवाई की तरह है। ये जीवन संघर्ष की प्रक्रिया है।

हेमिंग्वे की कहानी, काफ़्का का संगीत और कुंदेरा का वास

अर्नस्ट हेमिंग्वे की एक बहुत छोटी सी कहानी है, ''वन रीडर राइट्स’’ (एक पाठक लिखता है)। कहानी तीन हिस्सों में बंटी हुई है। चिट्ठी लिखती एक महिला का वर्णन करता एक संक्षिप्त पैराग्राफ, जो चिट्ठी जिसमें महिला अपने पति के यौन रोग के बारे मे ंबता रही है और तीसरा वो आंतरिक एकालाप जो उक्त विवरण के बहाद आता है। मिलान कुंदेरा ने ''टेस्टामेन्ट्स बीट्रेड’’ नामक अपनी रोचक किताब के एक अध्याय में इस कहानी का हवाला देते हुए आख़िरी पैरा उद्धृत किया है। इसमें डॉक्टर की चिट्ठी लिखने के बाद महिला भीषण ऊहापोह में है कि डॉक्टर से सलाह लेकर उसने ठीक किया या नहीं। पाठकों की सुविधा के लिए इस छोटी सी पूरी कहानी का हिंदी रूपांतर यहां पेश है, कुछ इस तरह:

वो बेडरूम में अपने बिस्तर पर बैठी थी, सामने अखबार फोल्ड किया रखा था और गिरती हुई बर्फ़ को देखने के लिए खिड़की के झांकने के दरम्यान ही वो लिखते हुए रुकी थी, बर्फ़ छत पर गिरती और पिघल जाती थी। उसने ये चिट्ठी लिखी थी। स्थिरता से लिखी थी, कोई काटपीट नहीं की और न ही दोबारा कुछ लिखा था।

रोआनोके, वर्जीनिया, फरवरी 6, 1933

प्रिय डॉक्टर - क्या मैं आपसे एक बहुत अहम सवाल ले सकती हूं - मुझे एक फ़ैसला करना है और नहीं जानती कि किस पर सबसे अधिक यकीन करूं, मातापिता से तो मैं हरगिज़ नहीं पूछूंगी - इसलिए मैं आपसे मुख़ातिब हूं - और सिर्फ़ इसलिए कि मुझे आपसे मिलने की ज़रूरत नहीं है, क्या फिर भी मैं आप पर भरोसा कर सकती हूं। मेरे सामने एक विचित्र संकट आ खड़ा हुआ है - मैंने अमेरिकी सेना में भर्ती एक आदमी से 1929 में शादी की थी और उसी सालउसे चीन के शंघाई भेज दिया गया था - वो वहां तीन साल रहा - और फिर लौट आया- उसकी सेवा कुछ महीने पहले समाप्त कर दी गयी - वो अपनी मां के घर हेलेना, अराकांस चला गया। उसने मुझे लिखा कि मैं घर आ जाऊं - मैं गयी थी, और मैंने देखा कि उसे कुछ इंजेक्शन लग रहे हैं और मैंने स्वाभाविक रूप से पूछा, और पाया कि उसका उस चीज़ के लिए इलाज किया जा रहा है मैं नहीं जानती उस शब्द को बोलते कैसे हैं, लेकिन उसकी ध्वनि ऐसी थी - 'सििफलिस’- आप समझ रहे हैं न मेरे कहने का मतलब क्या है - मुझे बताइये कि क्या दोबारा उसके साथ रहना मेरे लिए सुरक्षित होगा। जबसे वो चीन से लौटा है मैंने उसके साथ किसी भी वक्त कोई नजदीकी संपर्क नहीं बनाया है - उसने मुझे आश्वास्त किया है कि इस डॉक्टर से इलाज पूरा हो जाने के बाद वो सही हो जाएगा - क्या आप इसे सही समझते हैं - मैंने अक्सर अपने पिता से सुना है कि इस बीमारी की चपेट में आने के बाद कोई ख़ुद को मरा हुआ समझ ले तो वही ठीक है - मैं अपने पिता पर यकीन करती हूं लेकिन सबसे ज़्यादा अपने पति पर भरोसा करना चाहती हूं - प्लीज़ प्लीज़ मुझे बताइये मैं क्या करूं - मेरी एक बेटी है जो तब पैदा हुई थी जब उसका बाप चीन में था - आपका शुक्रिया, आपकी सलाह पर पूरी तरह से विश्वास करती हुई, मैं - और आखिर में उसने अपना नाम लिखा।

शायद वो मुझे बता सकते हैं कि क्या करना सही होगा, उसने खुद से कहा। शायद वो मुझे बता सकते हैं। अख़बार में तस्वीर में तो वो ऐसे ही दिखते हैं मानों उन्हें ये सब पता ही होगा। वो स्मार्ट दिखते हैं, एकदम दुरुस्त। हर रोज़ वो किसी को बताते हैं कि क्या करना चाहिए। बेशक वे जानते ही होंगे। मैं वो वो सब करना चाहती हूं जो सही है। हालांकि इतना लंबा समय हो चुका है। लंबा समय। और, लंबा समय हो चुका है। हे भगवान, लंबा समय हो चुका है। जहां कहीं उसे भेजा गया था। वहां उसे जाना ही था। मैं जानती हूं लेकिन मैं ये नहीं जानती कि उसे वो कैसे हो गयी थी। ओह, मैं भगवान से ये दुआ करती हूं कि उसे वो न होती। मुझे इससे मतलब नहीं कि उसने क्या किया था जो उसे वो बीमारी लग गयी। लेकिन मैं भगवान से दुआ करती हूं कि उसे वो कभी न लगती। ऐसा लगता है कि वो उसे नहीं लगनी थी। मैं नहीं जानती कि क्या करूं। मैं भगवान से दुआ करती हूं कि उसे किसी भी किस्म की बीमारी न लगी हो। मैं नहीं जानती कि उसे आख़िर कोई बीमारी लगी ही क्यों थी।

कहानी के भीतर भी एक रीडर है और बाहर भी एक रीडर यानी कि हम, इस तरह दो पाठक अपनी अपनी कहानी को देख रहे हैं। और अपने-अपने ढंग से उस पर रिएक्ट कर रहे हैं। कहानी के भीतर का पाठक कथा में कन्वच्र्ड है तो बाहरी पाठक भी कथा और कथा पाठक और पूरे टेक्स्ट के साथ आबद्ध है। इस तरह एक सांगीतिक नोट जैसा आकार उत्पन्न होता है। इस पाठ की सांगीतिक वैल्यू और लयबद्धता ऐसी ही बनती है और उसी में कुंथी हुई विकल पुकारें और विडंबनाएँ हैं। किताब में मिलान कुंदेरा ने इसी तरह फ्रांत्स काफ्का के गद्य को उसकी भाषायी विकटता और उसमें अंतर्गुम्फित उदासियों और बेचैनियों की परतदार संरचनाओं को रेखांकित किया है। ''द कासल’’ का गहन विश्लेषण करते हुए कुंदेरा बताते हैं कि काफ़्का एक औपन्यासिक कविता के रचनाकार हैं। एक बहुत लंबा वाक्य एक बहुत बड़ा मेटाफ़र बन जाता है और उसमें आए दुहराव, शब्दों की आवृत्तियां, एक के बाद एक, वो आपस में गुंथा हुआ सा जैसे कोई आंतरिक वेदना का राग सा हो जाता है जिसे काफ़्का की एक बहुत ख़ास 'एन्थेटिक इन्टेनशन’ कहा गया है। कुंदेरा ने तीसरे अध्याय का एक पैरा उठाया और उसके विभिन्न प्रकाशित अनुवाद पेश किए। और फिर अपना अनुवाद भी दिया। उस अंग्रेजी अनुवाद का हिंदी रूपांतर कुछ इस तरह है : तीन घंटे गुज़र गए, आपसी सांसों और आपसी धड़कनों से भरे हुए तीन घंटे, वे तीन घंटे जिनमें के लगातार महसूस कर रहा था कि वो भटक जाएगा, या उसे लगता था कि वो किसी विचित्र दुनिया के इतना अंतर तक आ चुका है जितना उससे पहले कोई न गया होगा, उस विचित्र दुनिया में जहां की हवा में उसकी अपनी देसज हवा का ज़रा भी तत्व न था, जहां किसी का भी दम अजनबियत से घुट जाना था, और जहां, बेहूदे प्रलोभनों के बीचोंबीच, कोई सिर्फ़ चलते ही रह सकता था, चलता हुआ भटकता ही रह सकता था।

काफ़्का के गद्य की छानबीन करने वालों में कुंदेरा संभवत: अकेले व्यक्ति होंगे जिन्होंने उस गद्य को संगीत का रुख़ करते हुए पाया था। कुंदेरा के मुताबिक वो गद्य, एक गीत की शक्ल अख़्तियार कर लेता है जिसे हूबहू अन्य भाषा में उतार पाना एक बड़ी चुनौती है और इस बारे में कुंदेरा के पास अनुवादकों के लिए कुछ सुझाव भी हैं। गद्य के सांगीतिक मूल्य के बारे में कमोबेश मिलती जुलती एक बात, अपने जलसा पत्रिका ब्लॉग में असद •ौदी ने क़रीब एक दशक पहले लिखी थी। अपने निराले अंदाज़ में क्या लाइनें हैं वे अंत में सारी रचनात्मक विधाएँ संगीत की तरफ़ रुख़ करती हैं। अपनी ज़िंदगी की किसी न किसी मंज़िल पर उन्हें इस अहाते और उस मकान का तवाफ़ करने की तीव्र इच्छा होती है जहाँ का स्थायी मकीन सिर्फ़ संगीत है। सभी तरह के रचनाकार अपनी अपनी तरह से उस कैफ़ियत को हासिल करने के लिए लालायित होते हैं। इसके बिना उनका कलाकर्म अधूरा रहता है। रचनात्मक साहित्य का मामला ही लें: क्या छंद, तरन्नुम और तग़ज्जुल से या प्रभाववादी वाक्य लिखकर यह कैफ़ियत पाई जा सकती है? ऐसी कोशिश हमें उस मूल बिंदु से और दूर ले जाती है जहाँ संगीत दूसरी कलाओं से रू ब रू होता है। कोई वजह है कि ज्ञानरंजन अपनी विद्रोही और बेपरवाह सामाजिकता के साथ इस मक़ाम पर धड़धड़ाते हुए पहुँच जाते हैं और निर्मल वर्मा अपनी एकान्तिक सुर साधना और निजता के साथ कोशिश करते रह जाते हैं।

कुंदेरा के लिए कोई न देश है न सरहद न स्थान। जगह एक मिथक है उनके लिए। 90 साल के कुंदेरा को 1950 में तत्कालीन कम्युनिस्ट हुकूमत के विरोध के जुर्म में पहले पार्टी से निकाल दिया गया था। कुंदेरा सत्ता को सहन नहीं हुए तो मजबूरन फ्रांस भागना पड़ा। उनकी नागरिकता भी छीन ली गयी थी। अब 40 साल बाद उन्हें चेक गणराज्य की नागरिकता ससम्मान लौटा दी गई है। फ्रांस उनका घर ही था। अगर खुद कुंदेरा उसे अपना घर माने। उनका असली घर तो उसके शब्द और उनके वाक्य थे। मिलान कुंदेरा ने काफ़्का की पंक्तियों को टटोलते टटोलते ही वहीं कहीं अपना घर बसा लिया था। ये वही कुंदेरा है जो अपने विख्यात उपन्यास ''द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीन्ग’’ में अपने मुख्य किरदार टोमास की उधेड़बुन के हवाले से कहता है, ''अ पर्सन व्यू लॉग्स टु लीव द प्लेस व्हेयर हि लिव्स इज़ ऐन अनहैपी पर्सन।’’ (जिस जगह रहता है, उस जगह को छोडऩे के लिए बेताब आदमी एक नाख़ुश आदमी होता है।) एक अनोखा, दुर्लभ, अवसाद भरा आकर्षण है कुंदेरा की श$िख्सयत में। वो जर्मन लोकोक्ति के मुरीद है: ''आइनमाल इस्ट काइनमाल।’’ आइनमाल मतलब एक बार और काइनमाल तलब कभी नहीं। वाक्य का आशय है एकबारगी जैसी चीज़ कभी नहीं होती। कुंदेरा के उपन्यास में टामास ये सोचता है : एक ही बार जो घटित हो रहा होता है, हो सकता है वो हुआ ही न हो। यानी एक बार कोई बार ही नहीं है। एक इकलौती घटना अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं होती। लेकिन क्या वाकई ऐसा होता है। अपने किरदार के ज़रिए क्या कहा चाहते हैं मिलान कुंदेरा। कुंदेरा ने जैसी छानबीन काफ़्का की है, कमोवेश वैसी ही छानबीन कुंदेरा के उपन्यास ''द बुक ऑफ़ लाफ्तर ऐंड फॉरगेटिंग’’ की टैरी इगलटन ने की है। ये उपन्यास जैसे आज के लिए ही लिखा गया था। नागरिकों की सतत निगरानी की सनक में धंसी सत्ताओं के कान विरोध की हल्की सी भनक पर भी खड़े हो जाते हैं। कुंदेरा का चेकोस्लोवाकिया भी वैसा ही था। ऐसी सत्ताएं पीडऩोन्मादी, बहुत शक्की और बहुत सनकी होती हैं। अनिष्ट की एक पूरी प्रक्रिया होती है और उसका असाधारण महत्व होता है। कुंदेरा के उपन्यास में एक किरदार बीमार है और दूसरा किरदार कुंदेरा का किरदार हो जानता है क्या कुंदेरा का पाठक वो जान सकता है।

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रचना को कैसे पढ़ें

वुल्फ़गांग आइज़र (1996-2007) ने साहित्यिक रचना पर गौर फ़रमाने के तरीके सुझाते हुए कहा कि न सिर्फ़ वास्तविक टेक्स्ट पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि उस टेक्स्ट के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाले ऐक्शन को भी देखना चाहिए। बुल्फ़गांग अआइज़र के मूल सिद्धांत नामक लेखक में नसरुल्लाह बाम्ब्रोल लिखते हैं कि आइज़र के मुताबिक साहित्यिक रचना के दो छोर है: एक कलात्मक जो लेखक के रचित पाठ से बनता है, और दूसरा एस्थेटिक जिसका आकार पाठक बनाता है। पाठ और पाठ के वास्तविकीकरण से साहित्यिक रचना को नहीं पहचाना जा सकता बल्कि उन दोनों के बीच किसी स्थिति में ही उसे आंका जा सकता है। यानी ऐसी स्थिति जब पाठ और पाठक का विलय हो जाए, यानी रीडिंग अपने आप में एक सक्रिय और रचनात्मक प्रक्रिया है।

पाब्लो नेरुदा की कविताओं में ऐसी अर्थ ध्वनियां आपको पढऩे सुनने को मिलती हैं। शिम्बोस्र्का ये जादू जगा देती हैं। एडुआर्डो गालियानो का जीवन और गद्य तो इसकी सर्वोत्कृष्ट मिसाल बन गया। खोसे सारामायो और बोर्हेस की अन्तर्यात्राएँ देखिए। जॉन बर्जर की भाषा में हम छवियों और आशयों के एक अनंत आकास में विचरण करते हैं। इतालो काल्विनो का गद्य हमें बेताब करता है। सलमान रुश्दी का नया उपन्यास किशॉट (सेरवेन्तिस के कालजयी डॉन किहोते के आख्यान पर आधारित) ऐसा ही एक विरल उपन्यास है जो लेखक के परिचित भाषा विन्यास को तोड़ता हुआ मानो लेखक को ही चुनौती देने लगता है। लेखक में उल्लिखित रचनाकारों के अलावा भी ऐसे लेखकों की एक लंबी सूची है जो अनपे फ़न के उस्ताद हैं। जहां बस कुछ उदाहरणों के हवाले से बात कहने की कोशिश की जा रही है। ओहान पामुक ने लेखकीय कारखाने की पड़ताल करते हुए किसी रचना के पाट को लेकरएक महत्वपूर्ण किताब लिखी है, ''द नाइव ऐंड द सेंटीमेंटल नॉवल्स्टि’’। पामुक बताते हैं कि एक उपन्यास को पढ़ते हुए एक पाठक के भीतर क्या कुछ घटता है, उपन्यास का प्रभाव क्या पड़ता है जो उसे किसी पेंटिंग या फिल्म या कविता से अलग करता है।

फ्रीडरिश शिलर ने अपने एक निबंध में दो प्रकार के लेखक बताए हैं - स्व:स्फूर्त लेखक और दुविधाग्रस्त लेखक। यही वो लेख था जिसे जर्मन उपन्यासकार थॉमस मान ने विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर बताते हुए जर्मन भाषा का सर्वोत्कृष्ट निबंध बताया था। शिलर के मुताबिक स्वत:स्फूर्त वे लेखक हैं जो सरलता से लिख लेते हैं। कविता, कहानी या उपन्यास लिख लेना जिनके लिए बाएं हाथ का खेल है। वो उनकी कुदरती विशेषता होती है। वे चुटकियों में कुछ भी लिख लेते हैं, उनके लिए कोई बाधा या मुश्किल नहीं होती। वे बस लिखते ही चले जाते हैं। और दुविधाग्रस्त वे लेखक हैं जिनके लिए लिखना आसान नहीं, कई सवाल कई दुश्चिताएं उन्हें घेरे रहती हैं, वे न जाने क्या खोजते रहते हैं, संशय में रहते हैं और कोई भी चीज़ उनके पास बगैर यातना के नहीं आती, उनके लिए लिखना कोई सरल सहज काम नहीं है, वे अपने में डूबे हुए घुले हुए रहता हैं और लगातार कुछ न कुछ सोचते रहते हैं। पामुक की किताब का पहले अध्याय ''हमारा दिमाग क्या करता है जब हम उपन्यास पढ़ते हैं’’ की शुरुआत इस वाक्य से होती है : उपन्यास दूसरा जीवन हैं। उनके इस वाक्य को पढ़ते हमें सहसा ही समकालीन हिंदी रचना समय में विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ''दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ की याद हो आती है। या बिल्कुल हाल के अरुंधति राय के उपन्यास ''अपार ख़ुशी का घराना’’ की। पामुक के वाक्य में हम उपन्यास की जगह कविता या कहानी या सिनेमा भी रख सकते हैं।

काल्पनिक दुनिया जिससे हम गुज़रते हैं और जिसका आनंद उठाते हैं, वो वाज़दफ़ा वास्तविक दुनिया से ज़्यादा वास्तविक महसूस होने लगती है। या हम वास्तविकता को लेकर दुविधाग्रस्त से हो जाते हैं। लेकिन हम इस भ्रम की इस अटपटेपन का एक सिलसिलेवार सुसंगत भाव जगाती रहे। इसका अर्थ ये नहीं है कि उपन्यास किसी रूमानियत के हवाले कर देने वाली कोई औषधि या मंत्र या विधा या नुस्खा है। पामुक का इशारा ये है कि वो अपनी काल्पनिकता में इतना वास्तविक होना चाहिए कि पाठक उस दुनिया में वैसा ही उपस्थित महसूस करे जैसा कि वो अपनी कथित रिएल दुनिया में करता है। नॉवल उसके रोज़मर्रा के जीवन में एक रोज़मर्रा के जीवन की ही तरह प्रवेश करता है। दीवार में एक खिड़की रहती है को देखने के लिए आखिर पाठक को क्या चाहिए। पहले पेज से ही आप एक लैंडस्केप में दाखिल हो जाते हैं। पिर किसी कमरे या दीवार या खिड़की तक पहुंचते हैं और फिर उसके पार एक वैकल्पिक संसाकर तक, कथा के भीतर ही ये एक काल्पनिक यथार्थ है जो एक वास्तविक यथार्थ भी है। विनोद कुमार शुक्ल नॉवल के बीतर दो दुनियाएं बनाते हैं और पाठक उन दो दुनियाओं की वास्तविकताओं से न सिर्फ रूबरू है बल्कि वहां इन्वॉल्व है।

टैरी इगलटन ने ''हाऊ टू रीड लिटरेचर’’ में बताया कि रचना का विश्लेषण, रचना के पाठ और पर्यवेक्षण का एक अनिवार्य हिस्सा है, वो कोई अरुचिकर और अप्रिय क्रिया नहीं है और न ही उसका अभिप्राय रचना विरोधी होता है, इस किताब के ज़रिए उनका इरादा उस 'मिथक को ध्वस्त करने का था जो कहता है कि विश्लेषण आनंद का दुश्मन है।’ नीत्शे के हवाले से इगलटन कहते हैं कि स्लो रीडिंग की समूची परंपरा डूबने की कगार पर है। अंग्रेजी साहित्य में जो काम इगलटन ने किया, हिंदी में उसी गहरी अंतर्दृष्टि के साथ वा काम मुक्तिबोध का है, क्या ये कहा जा सकता है।

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रचने का संघर्ष

गजानन माधव मुक्तिबोध ने जयशंकर प्रसाद कृत ''कामायनी’’ का एक महाविश्लेषण करते हुए किताब लिख डाली थी। जो अभूतपूर्व है, किसी काव्यकृति पर ऐसा विहंगम, गहरा, मर्मभेदी आकलन हिंदी भाषा में अभी तक संभव नहीं हो पाया है। यानी यहां समीक्षा, आलोचना, टिप्पणी आदि की बात नहीं की जा रही है: किसी रचना को कैसे पढ़ें कैसे उसे समझें के बारे में बात की जा रही है। मुक्तिबोध की लिखी, ''कामायनी एक पुनर्विचार’’ पुस्तक इस लिहाज से विश्व साहित्य की सर्वोत्तम कृतियों में से एक कही जा, सकती है और इसे चोटी के अंतर्राष्ट्रीय दार्शनिक गद्यकारों और साहिब ज़बानों के रचना-विश्लेषणों के समकक्ष रखा जा सकता है। हिंदी संसार इस पुस्तक से परिचित है, और पहल के पुराने पाठक भी। यहां प्रस्तुत ज़िक्र नवांगुतकों और मुक्तिबोध की तलाश कर रहे हाशिए के मुसाफ़िरों के लिए हैं। कामायनी पर ये किताब भारतीय पूंजीवाद के इतिहास, आगमन और भविष्य को समझने का भी एक रास्ता मुहैया कराती है। श्रद्धा, इड़ा और मनु की कथा प्रेम और अन्य संतापों और पराजयों और कमजोरियों का ही वृत्तांत नहीं है, मुक्तिबोध के हवाले से जब इसे पढ़ते हैं तो हम जान पाते हैं कि जयशंकर प्रसाद की पॉलिटिक्स का ऐसा बेधड़क फ़ाश हुआ है कि कामायनी फिर खंडकाव्य या लंबी काव्यकृति नहीं, पूंजीवादी अहमन्यताओं का एक अतिपूजित दस्तावेज है। वो सैमुअल हटिंगटन लिखित सभ्यताओं का संघर्ष की पूर्वज कृति है। कामायनी का पाठ पुनर्विचार की मांग करता था। इस दिशा में सबसे पहला और सबसे स्थायी क़दम तो मुक्तिबोध उठा चुके थे। कामायनी एक पुनर्विचार आलोचना पुस्तक नहीं है। ये पाठक का एक किताब का देखने का तरीक़ा है और उस तरीके का बयान है जो बहुत विश्वसनीय, प्रामाणिक, तथ्यपूर्ण है और पारदर्शी नैतिकता से सम्पृक्त है।

पाठक से पहले एक संघर्ष लेखक का भी है जो किसी कृति का रचनाकार है। मुक्तिबोध ने लिखा कि आज के कवि को एक साथ तीन क्षेत्रों में संघर्ष करना है। पहला तत्व के लिए संघर्ष, दूसरा अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने का संघर्ष और तीसरा दृष्टि विकास का संघर्ष, कला के तीन क्षण का सिद्धांत उन्होंने ही प्रतिपादित किया था, ''आज के युग में साहित्य का यह कायदा है कि वह जनता की बुद्धि तथा हृदय की इस भूख-प्यास का चित्रण करे। और उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसी कला का विकास करे जिससे जनता प्रेरणा प्राप्त कर सके और जो स्वयं जनता से प्रेरणा ले सके।’’ नया ख़ून में प्रकाशित ''जनता का साहित्य किसे कहते है’’ नामक लेख में मुक्तिबोध बताते हैं कि ''जनता का साहित्य का अर्थ जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं, जनता का साहित्य का अर्थ जनता के लिए साहित्य से है। ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को जनता के जीवनादर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगातार अज्ञान से मुक्ति तक है।’’ मुक्तिबोध के इस कथन को शायद समकालीन हिंदी में सबसे सही और सबसे तीक्ष्ण दृष्टि से ग्रहण करने वाले बहुत थोड़े से रचनाकारों में रघुबीर सहाय सबसे प्रमुख होंगे। क्या हिंदी में इस पर विचार किया गया या किया जाएगा कि असद •ौदी की दशकों पुरानी कविताओं में जिस नागरिक क्षति का अत्यन्त गहरा और तक़लीफ़देह अफ़सोस, मनुष्य पर हुए आघातों से विरुद्ध विचलित कर देने वाली घुटन और फटकार महसूस की गयी है, वो क्या आप प्रत्यक्ष नहीं है? वही सब होता नहीं दिख रहा है? नागरिकता, संविदान और सेक्युलरिज्म की धज्जियां? भाषा के प्रकांड, बुद्धिजीवियों का कोहराम? कोई दिन नहीं जाता जब इन कवियों की पंक्तियाँ सोते जागते चमक नहीं उठतीं, हूक उठती है और निराशा में ही बचे रहने का साहस बनता है। रचना का संघर्ष आवरणविहीन नहीं तो क्या है। पाठ की जद्दोजहद भी सिर्फ़ समझने की जद्दोजहद नहीं है। वो अनुभूति की लड़ाई है।

मुक्तिबोध ने ही बहुत पहले आगाह किया था कि सच्चा आलोचक लेखक द्वारा कलात्मक रूप से प्रस्तुत जीवन को लेखक से भी अधिक पहचाने। तभी वह लेकक की मूलभूत अक्षमताओं और अविवेकों का पर्दाफ़ाश करसकता है। यानी जब तक हम समीक्ष साहित्य के मनोवैज्ञानिक-सौन्दर्यात्मक विवेचना का समाजशास्त्रीय विश्लेषण नहीं करते, तब तक हम उनके अन्त:स्वरूप का, उसकी क्षमताओं तथा सीमाओं का, पूरा विवेचन तथा मूल्य-मापन भी नहं कर सकते। क्या हम समकालीन हिंदी के विस्तृत भूभाग को लेकर ऐसी बात कह सकते हैं। क्या वास्तव में एक कवि की दूसरे कवि की समीक्षा वैसी ही है जैसी मुक्तिबोध के शब्दों में अपेक्षित होनी चाहिए। क्या हमारी पसंद और नापसंद चुनी हुई हैं, हमारे अपने खेमे अपने प्रिय हैं और हमारा ही एक भूमंडल है जिसमें सबके वारे-न्यारे हैं। कोई तो वजह होगी कि जितना हम मुक्तिबोध को देखते हैं उतना ही वो हमें दिखते हैं। जिन्होंने उन्हें कभी नहीं देखा, उनके लिए वे न देखे जा सके पूर्वज की तरह हैं। हमारे कबीर, मुक्तिबोध जीते जी जिन अनदेखियों और अपमानों का शिकार बनाए गए, जो प्रताडऩाएं उन्हें मिलीं, इतना तीक्ष्ण धिक्कारता हुआ, अंत:करण का आयतन दिखाता हुआ और आत्मा को खंगालता हुआ विचार रख पाए।

असल में मुक्तिबोध (नवंबर 1917-सितंबर 1964) अपने ब्रिटिश समकालीन और उम्र में सीनियर समरसेट मॉम (जनवरी 1874-दिसंबर 1965) के असमंजस का जवाब भी दे रहे थे। पेरिस स्थित ब्रिटिश दूतावास में जन्मे उपन्यासकार और नाट्यकार विलियम समरसेट मॉम 18 साल के थे जब उन्होंने सिलसिलेवार नोटबुक लिखना शुरू किया था, 1949 में वे नोट्स किताब के रूप में प्रकाशित हुए। मॉग्हम के गद्य की विलक्षणता का ये किताब एक नायाब नमूना है। इसमें उनके अऑब्सरवेशन हैं, टिप्पणियां, आलोचनाएं और अपने समय पर कुछ विचार, 1937 के नोट में लिखते है: ''साहित्यिक फैसलों में नेकनीयती हासिल करना कठिन होता है। ये लगभग असंभव है कि कोई व्यक्ति किसी रचना के बारे में किसी आलोचनात्मक या सामान्य मत के न्यूनतम प्रभाव में आए बगैर अपना कोई गत बना ले। इस कठिनाई को बढ़ाने वाली एक एबात ये भी है कि महान स्वीकृत हो चुकी रचनाओं के संबंध में आम राय या साधारण मत से भी उनकी महानता का कुछ हिस्सा बनता है। कविता पढऩे वाले पहले पाठक की नज़र से कविता पढऩे की कोशिश करना एक लैंडस्केप को उस वातावरण के बिना देखने की कोशिश करना है जो उसका आवरण है।’’ (अ राइटर्स नोटबुक) टैरी इगलटन पाठक की विवेचना या व्याख्या के बारे में अपने कुटीले अंदाज में कहते हैं कि एक अकेली सही, दुरुस्त विवेचना को बा बा ब्लेक शीप की भी नहीं हो सकती है या देका जाए तो किसी भी साहित्यिक रचना की नहीं हो सकती।

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जॉन बर्जर को देखते हुए

''मैं आपको नहीं बता सकता हूं कि कला क्या करती है और कैसे करती है, लेकिन मैं जानता हूं कि कला ने अक्सर जजों का भी फ़ैसला सुनाया है, बेगुनाहों की वक़ालत की है और भविष्य को ये दिखाया है कि अतीत पर क्या गुज़री थी, इस तरह कि वो कभी नहीं भुलाया जा सकता है। मैं ये भी जानता हूं कि शक्तिखाली लोग कला से डरते हैं, चाहे वो अपने किसी भी रूप में हो। जब ये ऐसा करती है तो फिर लोगों के बीच ऐसी कला कभी कभी एक अफ़वाह की तरह और कभी एक किंवदन्ती की तरह उतर आती है क्योंकि उसे उस चीज़ का बोध रहता है जो जीवन की क्रूरताएं नहीं महसूस कर सकती हैं, वो बोध जो हमें एकजुट करता है, क्योंकि आख़िरकार ये है तो इंसाफ़ ही, उसमें निहित, कला जब इस तरह कार्य करती है, तो वो अदृश्य अपरिवर्तनीय और स्थायी सहास और सम्मान को मिलन -स्थली बन जाती है।’’ (बर्जर, 1991)

2006 की अपनी किताब ''कन्फैब्युलेशन’’ में विजुअल भाषा से आगे शब्द की दृश्यात्मकता की अहमियत बताते हैं। जॉन बर्जर मानते हैं कि भाषा एक देह है, एक जीवित प्राणी... और इस प्राणी का निवास अव्यक्त भी है और व्यक्त भी। बर्जर के मुताबिक विश्वसनीयता में एक अजीब तरह का द्वंद्व रहता है। किसी अनुभव की संदेहार्थता और अनिश्चितता के प्रति, यहां तक कि वो निश्चितता का अनुभव ही क्यों न हो, उसके प्रति लेखक का खुलापन ही है जो लेखन को स्पष्टता और इसलिए एक क़िस्म का यकीन मुहैया कराता है। फॉर्म और कंटेट एक दूसरे से गुंथे हुए हैं, इस तरह कि उनसे एक साथ खून रिसता है। लेखन में प्रामाणिकता, अनुभव की संदेहार्थकता के प्रति वफ़ादारी से ही आती है। उनका एक मशहूर कथन है, ''व्यक्ति की मृत्यु उसके बारे में तमाम चीज़ों को निश्चित बना देती है।’’ बर्जर अपने लेखन में नये दिक्काल का निर्माण करते हैं। उनकी तलाश उस दिक्काल की है जो नज़रों से ओझल है या नज़रअंदाज़ है। ''वेज़ ऑफ़ सीइंग’’ से लेकर ''अंडरस्टैडिंग द फोटोग्राफ़’’ तक आप पाएंगे कि बर्जर एक विलक्षम दार्शिनिक निगाह से पेंटिंग, मनुष्य, उपकरपण, वस्तु, चित्र, वातावरण और क्रिया सबको एक साथ रखकर छानबीन करते हैं। उनके मुताबिक देखने का मुकम्मल तरीक़ा, मुकम्मल सौंदर्य ही नहीं देखने की एक मुकम्मल राजनीति भी संभव है. इसके लिए टूल्स भी उन्हें बताए हैं। सबसे बड़ा टूल तो आपकी अपनी मानवीय चेतना ही है। अंत:करण पर बर्जर का ख़ासा ज़ोर है। अंतत: ये देखना अंत:करण की आवाज़ सुनकर देखना ही है। बर्जर के इस मंत्र से दुविधाओं की बंद लकीरें खुलती हैं और नयी दुविधाओं नये द्वंद्वों से हमारा सामना हो पाता है। बर्जर का मंत्र मुक्ति का मंत्र नहीं है, वो देखने की गूढ़ता को हल कर लेने के बाद मोक्षप्राप्ति का मंत्र नहीं है, वो हमें नये चक्कर में फंसा लेने वाला मार्क्सवादी सौंदर्यबोध है। आपको निजात नहीं मिल सकती। देखने का दिक्-काल फैलता जाता है और सहसा नई विधाएं प्रकट होने लगती हैं।

जॉन बर्जर के कला फ़लसफे में स्त्री चित्रण पर ख़ास ज़ोर है। कला में प्रशंसा से ज़्यादा आशय खोजने पर उनका ज़ोर रहा है। इसी शिनाख्त में वो ये भी पता लगाते हैं कि ऑयल पेंटिंग परंपरा किस तरह निजी संपत्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। वेज़ ऑफ़ सीइंग में उन्होंने चित्र दर चित्र पश्चिमी कला जगत में स्त्री की उपस्थिति के निहितार्थ समझाए हैं। न्यूड श्रेणी के चित्रों की पड़ताल करते हुए बर्जर बताते हैं कि अनावृत स्त्री देह, और कुछ नहीं कलाकार और कला दर्शक के लिए एक यौन कामना है। स्त्रियों की नग्नता उनकी अपनी अभिलाषा और उनकी अपनी चाहत से चित्र में प्रकट नहीं होती, वो एक पुरुष के लिए उकेरी गई यौनेच्छा की एक प्रतिकृति बन जाती है। वह विज़न का एक ऑब्जेक्ट बन जाती है। नग्न स्त्री की देह को आंका जाता है, बार बार देखा जाता है जैसे उसका सर्वे किया जा रहा हो और सर्वे करने वाला पुरुष होता है। स्त्री के लिए यहां कुछ नहीं है। ये एक पुरुषवादी दृष्टि के लिए उकेरी गई नग्नता है। बर्जर के मुताबिक इसमें कला नहीं है। और अगर ये कला है तो ये देह को टटोलने की एक कला होगी। अपनी भूख को टटोलने की और उसका विस्तार करने की कला:

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ऋत्विक घटक का सिनेमा

क्या घटक सिनेमा के मुक्तिबोध थे। संत्रास और विडंबना को अभिव्यक्त करता हुआ उनका सिनेमा, जीवन की असहजता को संबोधित है। कला और जीवन के अंधेरो को उजागर करता हुआ, हॉन्ट करता हुआ। मुक्तिबोध जिन दुर्निवार अभिव्यक्ति, जिस पॉलिटिक्स में भागीदारी का सवाल, दुनिया की सफ़ाई के लिए मेहतर होने की मांग और कामना करते हैं, घटक भी अपनी छटपटाहट में कमोबेश वैसे ही सवाल करते हैं, बोलते हैं। कुछ करते रहना होगा, उनका किरदार नीलकंठ बोलता है। (घटक की आख़िरी फ़िल्म: जुक्ती तक्को आर गॉप्पो)

केरल के फारूक कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख और फ़िल्म सिद्धांत की विशेषज्ञ लक्ष्मी प्रदीप ने इकोनॉमक ऐंड पॉलिटिक्ल वीकली (ईपीडब्लू) में घटक के सिनेमा और शख़्िसयत पर एक संक्षिप्त लेकिन सघन पोट्र्रेट लिखा है। लेख में उद्धृत फिल्म समीक्षक आद्रियान मार्टिन कहते हैं, ''आघात का भूकम्पलेखी रूपांतरण कर देने वाले ऋत्विक घटक विश्व सिनेमा पर मंडराती आत्मा है।’’ वो समांतर सिनेमा में दाखिल हो जाने के बाद उसके भी समानंतर रचनाकार हैं। उस सिनेमा के भी शरणार्थी। इसीलिए वो अपने समकालीनों और अग्रजों से बहुत अलग हैं। उनके देखे हुए जीवन को पर्दे पर देखना इसीलिए एक विलक्षण, कष्टप्रद और बहुत विशिष्ट अनुभव बन जाता है। घटक के यहां तक़ली$फों से निजात नहीं हैं, न उनके पास रंग हैं न चमत्कार। वो भूरे काले आसमान के सर्जक है।

अपने अपने वक्तों की छानबीन करता हुआ सिनेमा रचने वाले और भी दिग्गज फ़िल्मकार हैं दुनिया में अपनी अपनी भाषाओं में अपनी रचनाएं बनाते हुए अपनी अपनी सिने भाषाओं में भी। सिनेमा को देखने की तरतीब और प्रविधियों के बारे में सिने उस्तादों ने टिप्स भी दिए हैं और सैद्धांतिक और फ़लसफ़ाई बारीकियों में भी गये हैं। वो ज़िक्र आगे कभी, यहां घटक का उल्लेख एक कला प्रतिनिधि के रूप में है, इस निबंध के मूल तत्व से लिंक्ड।

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और अंत में ... संगीत की सतह

संगीत को देखने का श्रोता का अनुभव भी है। अमीर ख़ान को या गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी को या शरद साठे या नुसरत फतेह अली ख़ान को गाते हुए सुनना। अपने अनुभव को जैसे एक व्यापक अर्थ देने की तरह है। इसी कड़ी में टीएम कृष्णा का नाम भी लिखा जा सकता है। उनकी प्रस्तुतियां जैसे रागों की जटिलताओं को खोलकर उनकी अलग-अलग लकीरें उकेर देने की तरह हैं। आप उन घुमावदार लकीरों के साथ झूमते रह सकते हैं। टीएम कृष्णा की बेजोड़ गायकी के यूं तो बहुत से नमूने हैं, लेकिन एक भजन विशेष, रूप से ध्यान खींचता है। राग झिंझोटी में निबद्ध करीब साढ़े नौ मिनट के इस तुलसीदास कृत भजन ''कहां के पथिक कहां, कीन्ह है गवनबा’’ में राम के वनगमन की झांकी है। मूल कम्पोजिशन डीवी पलुस्कर की बतायी जाती है। जो उन्होंने गाया, उसे बहुत से गायकों ने पेश किया। जिनमें वीणा सहस्त्रबुद्धे जैसी विदुषी गायिका भी हैं। कृष्णा उसे एक नयी सतह पर ले जाते हैं। इसे सुनना एक नयी कलात्मक ऊंचाई को स्पर्श कर लेने की सफलता की तरह है। और उन्हें गाते हुए वीडियो देखते हुए समझा जा सकता है कि संगीत की रचना किसे कहते हैं। उनके साथ मृदंगम पर संगतकार हैं और वॉयलिन पर संगतकार हैं लेकिन कृष्णा अपने गायन की संगत उन साज़ों के साथ करते हैं। ये विनम्रता बहुत दुर्लभ है और शायद ये सांगीतिक विशिष्टता है। जहां दिखता है कि गायक तालों के साथ संगत कर रहा है या वॉयलिन के साथ, भजन को राग में गाते हुए इधर बहुत से गायक कलाकार हैं, एक से एक चोटी के भी हैं। लेकिन कृष्णा की प्रस्तुति में जो आंतरिक सच्चाई और आत्मा की मिठास हम पाते हैं, उसका कोई मुकाबला नहीं। ब्राह्मणवाद के प्रखर विरोधी और संगीत में हेजेमनी के ख़िलाफ़ मुखर रहने वाले कृष्णा भजन को आस्था, श्रद्धा या किसी आध्यात्मिक सम्मोहन से छुड़ाते हुए एक अवर्णनीय ऊंचाई पर स्थापित कर देते हैं। उस ऊंचाई पर भौतिकी भी ठिठकी हुई है और भौतिक संसार की क्या कहें। लेकिन बात यहीं पूरी नहीं होती। समकालीन समय में इस बंदिश को, अयोध्या पर कोर्ट के फ़ैसले के किनारों पर कैफ़ी आज़मी की न•म दूसरा वनवास और सुदीप बैनर्जी की कविता समतल नहीं होगा क़यामत तक पूरे मूल्क की छाती पर फैला मलबा... की तरह भी, देखा जा सकता है। कृष्णा का राजनीतिक विवेक और कला चेतना अपने सुनने वालों को उस ऊंचाई तक आने का न सिर्फ़ न्यौता देते हैं बल्कि उसे छूने का अवसर भी मिल जाता है। ये छूना, किसी ईश्वर या किसी अध्यात्म को छू लेने की पराभौतिकी नहीं है ये बस संगीत को छूना है और इंसाफ़ के लिए भटकना है।

कृष्णा ही क्यों। इस सवाल का एक जवाब मुक्तिबोध ने ''आख़िर रचना क्यों’’ के ज़रिए देने की कोशिश की थी। उन्होंने पूछा: ''क्यों एक कलाकार दूसरे कलाकार से ऊंचा कहा जाता है।’’ जवाब दिया : ''कौन किस तरह से बोलता है, यह सवाल है। रवीन्द्रनाथ जिस सतह से बोलते हैं, जिस व्यापक जीवन के सर्वोच्च बिन्दु पर खड़े होकर देश देशान्तर के जन-समुदाय के मामले में अपने को प्रकट करते हैं, उस स्थान से अन्य अनुगामी कलाकार नहीं बोल पाते। उतना ही उनमें बौनापन है, जितनी की रवीन्द्र में ऊंचाई है।’’

जवाब की शक्ल में ये मुक्तिबोधीय विवेचना थी, इसे उनका नज़रिया भी कहा जा सकता है। मुक्तिबोध जैसा कहने का साहस अब कितना सिकुड़ चुका है और सूखी नालियां भी बची रह गयी हैं। न जाने क्यों आख़िरी गड्ढा दूर और दूर होता जाता है। न जान क्यों ये साहस सतह पर आकर किसी गेंद की तरह टप्पे खाता रहता है।

 

 

लेखक की अनेक रचनाएं और विश्व की बड़ी आधुनिक मीमांसाओं के अनुवाद पहल में प्रकाशित। जर्मनी में रहे, पत्रकार हैं, देहरादून के निवासी, इन दिनों जयपुर में रहते हैं।

संपर्क- मो. 9756121961

 


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