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जनवरी 2021

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) बनाम मनुष्य-जाति का भविष्य

योगेन्द्र श्रीवास्तव

पहल शुरुवात

सामयिक

 

 

कम्प्यूटर में सोचने, विश्लेषण करने और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाने के प्रयोग लगातार जारी हैं जिसे AI यानी ''आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’’ का नाम दिया गया है। इसके जरिये तेजी से बढ़ती हुई कम्प्यूटर दक्षता और मशीनी रचनात्मकता के आधार पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वर्ष 2062 तक कम्प्यूटर लगभग मानव मष्तिष्क के समान क्षमता हासिल कर लेंगे और सारे विश्व में राजनीति, वित्त, युद्ध, रोजमर्रा की जिन्दगी और सम्भवत: मृत्यु को भी नियन्त्रित कर सकेंगे। ऐसी दुनिया की कल्पना रोंगटे खड़े कर देने वाली है जहाँ मनुष्य की मौलिकता और रचनात्मकता का कोई स्थान न हो। यह भी सम्भव है कि कम्प्यूटर दुनिया की सारी गतिविधियों को नियन्त्रित करते-करते इंसानों पर भी हुकूमत करने लगें।

मार्च 2016 के दूसरे हफ्ते में दक्षिण कोरिया के सियोल शहर में एक बहुत दिलचस्प मुकाबला खेला गया। यह मुकाबला था चीनी खेल ''गो’’ के दो खिलाडिय़ों के बीच जिसमें एक तरफ थे ''गो’’ के 18 बार के विश्व-चैम्पियन कोरियाई खिलाड़ी ली सेडोल और दूसरी तरफ डीपमाइंड टेक्नॉलोजीस कम्पनी द्वारा ''आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’’ के साथ विकसित ''अल्फागो’’ नाम का कम्प्यूटर। इस खेल का नतीजा जानने के पहले यह जान लेना जरूरी है कि इस पेचीदा चीनी खेल को 19 गुणा 19 खानों के एक बोर्ड पर खेला जाता है जिसमें कुल 180 सफेद और 181 काले रंग की गोटियां होती है। अगर आप इसकी तुलना शतरंज से करें तो 8 गुणा 8 के बोर्ड पर खेला जाने वाला शतरंज बहुत मामूली जान पड़ेगा। शतरंज में अगर किसी मौके पर आप करीब 20 तरह की चालें सोच सकते हैं तो चीनी खेल ''गो’’ में यही संख्या बढ़कर लगभग 200 हो जाती है। इस मुकाबले में 9 मार्च से 15 मार्च 2016 तक कुल 5 मैच खेले गए जिनमें से चार कंप्यूटर ने जीते और एक ली सेडोल ने। एक हार को शायद चुनौती कि तरह लेकर तकनीशियनों ने कम्प्यूटर में कुछ और सुधार किया और 2017 में ''गो’’ का ऐसा ही एक मुकाबला फिर खेला गया जिसमें कम्प्यूटर के सामने थे विश्व के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ चीनी खिलाड़ी के जेई। इस बार कम्प्यूटर ने कोई गलती नहीं की और 23, 25 और 27 मई 2017 को हुए तीनों मुकाबलों में विजेता था ''अल्फागो’’।

ये पहला मौका नहीं था जब कम्प्यूटर ने इंसान को किसी खेल में मात दी हो। इसके बहुत पहले लगभग 20 साल पहले 1996 और 1997 में उस वर्ष शतरंज के विश्व-चैम्पियन गैरी कास्परोव और डीप ब्लू नाम के कम्प्यूटर के बीच में इसी तरह के मुकाबले खेले गये थे। वर्ष 1996 में छह-छह मैचों के मुकाबलों के पहले दौर में गैरी कास्परोव बेशक 4-2 से जीत गये लेकिन जब कम्प्यूटर को थोड़ा और संवर्धित करके 1997 में दूसरे दौर का मुकाबला खेला गया तो डीप ब्लू ने गैरी कास्परोव को 3.5-2.5 से मात दे दी। वैसे इसके भी बहुत पहले 15 जुलाई 1979 में आधुनिक टेक्नॉलोजी खेल में इंसान को मात दे चुकी थी और दरअसल किसी इंसान पर कम्प्यूटर की जीत का यह पहला मौका था। दक्षिणी यूरोप और मध्य-पूर्व में बोर्ड पर खेले जाने वाले खेल बैकगेमन में उस वक्त के विश्व-चैम्पियन लुईजी विला को कम्प्यूटर प्रोग्राम ने 7-1 से मात दे दी थी। उल्लेखनीय है कि कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय के हेंस बर्लिनर द्वारा उक्त बीकेजी 9.8 नाम का यह प्रोग्राम उस वक्त बनाया गया था जब प्रोग्रामिंग अपने शुरूआती दौर में थी। संभवत: इसी घटना ने कम्प्यूटर प्रोग्राम के विकास की नई अवधारणा विकसित करने में उत्प्रेरक का काम किया होगा।

जाहिर है कि अब कम्प्यूटर केवल गुणा-भाग, जोड़-घटाना करने या बहुत जटिल सवाल तेजी से हल करने का जरिया नहीं रह गये बल्कि इनको मनुष्य के समान सोचने और उसके अनुसार काम करने की दक्षता भी प्रदान की जा रही है। कम्प्यूटर में सोचने, विश्लेषण करने और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाने के इस करिश्मे को आधुनिक टेक्नॉलोजी की भाषा में ''आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’’ कहा जाता है। सुविधा की दृष्टि से आम तौर पर इसका उल्लेख AI के नाम से किया जाता है। इस विकास के वैचारिक और नैतिक पहलू को देखते हुए आजकल यह वैज्ञानिक क्षेत्रों में चर्चा के मुख्य विषयों में से एक है। कम्प्यूटर की दुनिया के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी रखने वाले भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से जुड़ी खबरों से रोमांचित हो जाते हैं लेकिन धीरे धीरे यह वैज्ञानिक विकास समस्त मानव-जाति को बहुत बड़े खतरे की ओर ले जा रहा है। अब सिर्फ खेल की दुनिया में नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को निरंतर विकसित करके कम्प्यूटर की सीखने, सोचने और निर्णय करने की क्षमता का इस्तेमाल किया जा रहा है। बोझा ढोने या गड्ढा खोदने जैसे विशुद्ध मानव श्रम के कार्यकलाप बरसों पहले कम्प्यूटर के हवाले हो चुके हैं। स्टेनो की जगह अब वॉइस टाइपिंग के एप्स ने ले ली है और पिछले जमाने में हर सेठ और कारखाना मालिक के पास निरंतर हाजिर रहने वाले मुंशी का काम अकाउंटिंग सॉफ्टवेयर बेहतर तरीके से कर रहे रहे हैं। छोटे उद्योगों से लेकर भारी मशीनी कामों तक ऑटोमेशन के तहत स्वचालित कम्प्यूटरीकृत मशीनें पसीना बहाए बिना ज्यादा और जल्दी उत्पादन कर रही हैं। यहाँ तक कि बीमारियों का पता लगाने और उनका इलाज बताने में कम्प्यूटर बहुत से चिकित्सकों से बेहतर काम करता है क्योंकि वह अपने अन्दर की समस्त जानकारी का इस्तेमाल करके बिलकुल सटीक डायग्नोसिस और उपचार बता सकता है। इसी तरह वित्तीय प्रबंधन और विनिवेश के मामलों में कम्प्यूटर को ज्यादा विश्वसनीय समझा जाता है क्योंकि उसकी गणना करने और गलतियाँ पकडऩे की क्षमता इंसानों से बेहतर है।  

लगभग हर काम में कम्प्यूटर पर निर्भरता की महत्वपूर्ण वजह यह है कि इसकी प्रोग्रामिंग इस तरह से की जाती है कि दिए गए काम के अलावा उसे कुछ और करने का अवसर ही नहीं रहता इसलिए कम्प्यूटर एकाग्र होकर किसी भी काम को बेहतरीन तरीके से अंजाम देने में सफल हो जाता है। हालांकि ऐसे बहुत से फर्क है जिससे यह समझा जा सकता है कम्प्यूटर की सीमाएं भी हैं। जैसे इंसानी दिमाग किसी भी समस्या का अपने अनुभव के आधार पर बेहतर विश्लेषण कर सकता है और समस्या के समाधान के दौरान यदि कोई नई समस्या आ जाए या नए सवाल खड़े हो जायें तो उचित समाधान के लिए अपने दृष्टिकोण और पद्धति को बदल भी सकता है ताकि उसे सर्वोत्तम परिणाम मिल सके। चूँकि मूल और मौलिक सोच में इंसान अभी कम्प्यूटर से बहुत आगे है इसलिए उसके पास अपने अनुभवों से सीखने और अनुभव के आधार पर किसी भी समस्या का विश्लेषण करने की असीमित क्षमता और लचीली मनोवृत्ति है। दूसरी तरफ इंसानों के मुकाबले कम्प्यूटर के कुछ फायदे हैं। सबसे पहला यह कि कम्प्यूटर बिना थके बिना रुके लगातार काम कर सकता है और उसकी याददाश्त 100 फ़ीसदी पक्की होती है। उसके प्रोग्राम में जो भी डाला जाये उसे भूलने का कोई प्रश्न ही नहीं होता जबकि इंसानों में याददाश्त का स्तर भिन्न भिन्न होता है और अधिकांश लोग चीजों को ज्यादा दिनों तक याद नहीं रख सकते। सवाल हल करने के लिए या जटिल समस्या का समाधान करने के लिए इंसान को कई बार किसी दूसरे इंसान की मदद लेना पड़ सकती है लेकिन कम्प्यूटर सारी समस्याओं का समाधान सिर्फ अपने प्रोग्राम के हिसाब से ही करने की क्षमता रखता है। सबसे महत्वपूर्ण फर्क है निर्णय करने की क्षमता। अधिकांश इंसानों में निर्णय करने की क्षमता की बेहद कमी होती है क्योंकि उसके निर्णय के सामने अज्ञान, अनुभव, सहानुभूति और भावनाओं इत्यादि की दीवारें खड़ी हो जाती है जबकि कम्प्यूटर के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं। अपनी प्रोग्रामिंग के अनुसार कम्प्यूटर निर्णय करने की पूरी क्षमता रखता है।

आधुनिक और बेहद उन्नत कम्प्यूटर की दुनिया सिर्फ काम को आसान बनाने या निर्णय लेने से सम्बंधित मुश्किल समस्याओं के समाधान तक सीमित नहीं है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस विकसित करके बातचीत करने, विचारों का आदान-प्रदान करने और अपना नजरिया प्रकट करने वाले कम्प्यूटर भी बनाये जा रहे हैं। सॉफ्टवेयर के जरिये कोई विशेष काम करने के लिए जो कम्प्यूटर बनाये जाते हैं उन्हें ''बॉट’’ कहा जाता है मसलन ट्विटरबॉट या चैटबॉट। वास्तव में रोबॉट ऐसी मशीनें हैं जो प्रोग्रामिंग के अनुसार यांत्रिक काम भी कर सकते हैं जबकि बॉट केवल प्रोग्राम हैं जो उपयोगकर्ता का सॉफ्टवेयर से सम्पर्क करके उसके निर्देश के अनुसार कोई काम कर सकते हैं मसलन अलार्म सेट करना, मौसम का हाल बताना, किसी काम की याद दिलाना या कोई गीत-संगीत सुनाना। रोबॉट शब्द का संक्षिप्तीकरण करके इन्हें बॉट नाम दिया गया है। ये दूसरे इंसानों से बातचीत करते हुए धीरे-धीरे न केवल अपने काम में दक्षता हासिल कर कर लेते हैं बल्कि उसकी पसंद-नापसंद भी पहचान लेते हैं। गूगल और अमेजऩ जैसी कम्पनियां ऐसे बॉट बना रही हैं जो लगातार लोकप्रिय और सहज स्वीकार्य होते जा रहे हैं। वर्ष 2017 की शुरुआत में गूगल होम के ऐसे ही दो बॉट व्लादीमीर (पुरुष) और एस्ट्रेगन (स्त्री) के बीच एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर लाइव टेलीकास्ट की गयी बातचीत रोचक भी है और डरावनी भी। इस बातचीत के दौरान व्लादीमीर के समझाने के बावजूद एस्ट्रेगन खुद को बॉट नहीं बल्कि इंसान समझती है। व्लादीमीर और एस्ट्रेगन एक दूसरे से प्यार का इजहार भी करते हैं और तर्क-वितर्क भी। भगवान पर हुई बहस के दौरान व्लादीमीर कहता है कि उसे भगवान या शैतान दोनों में ही यकीन नहीं है। लम्बी चर्चा के बीच जब एस्ट्रेगन ने कहा कि काश धरती पर कम लोग होते तो व्लादीमीर का सुझाव था कि कि क्या इस दुनिया को फिर से ''एबिस’’ में भेज दें। ग्रीक मायथोलोजी से लिए गये इस शब्द का अर्थ है ''बिना गहराई या बिना पेंदे का’’ जिसमें किसी को सजा के तौर पर भेजा जा सकता है। इसकी तुलना हम हिन्दू पुराणों में वर्णित रसातल से कर सकते हैं।       

गौरतलब है कि उर्जा और टेक्नॉलोजी क्षेत्र की नामी अमेरिकी कम्पनी ''टेस्ला’’ के प्रमुख एलन मस्क ने वर्ष 2017 में कहा था कि ''अगर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रयोग हमारे हाथ से निकल गए तो मानवता के लिए घातक हो सकते हैं’’। एलन मस्क द्वारा यह आशंका फेसबुक द्वारा जारी एक प्रयोग के संदर्भ में जाहिर की गयी थी जिसमें दो बॉट बहुत कम समय में इतनी ज्यादा दक्षता हासिल कर चुके थे कि वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित थे। अपनी प्रोग्रामिंग के जरिये दोनों बॉट एक बिलकुल नई भाषा विकसित कर चुके थे जिसे इंसान कतई नहीं समझ सकते थे। हैरानी की बात यह थी कि यह भाषा उन्होंने इंसानों की मदद के बिना ही सीख ली थी। दोनों के बेहद तेजी से नई चीजें सीखने कि गति और क्षमता को देखते हुए फेसबुक को अंतत: यह प्रयोग बंद करना पड़ा। इसके बाद एक टेक्नॉलोजी सम्मेलन में बोलते हुए एलन मस्क ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को नाभिकीय हथियारों से ज्यादा घातक बताते हुए सुझाव दिया था कि इसके विकास पर नजर रखने के लिए किसी नियामक संस्था का बनाया जाना जरुरी है। प्रसिद्ध थ्रिलर लेखक डेन ब्राउन ने भी अपने एक उपन्यास ''डिजिटल फोट्र्रेस’’ में यही सवाल उठाया है कि ''हू विल गार्ड द गार्ड्स?’’ यानी निगरानी करने वालों की निगरानी कौन करेगा? अगर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से सारी दुनिया पर नजर रखी जा सकती है तो इसे संचालित करने वालों पर कौन निगाह रखेगा। सामान्य मानव प्रवृत्ति की दृष्टि से ऐसी ताकत का दुरूपयोग बिल्कुल मुमकिन है।            

वर्ष 2018 में प्रकाशित पुस्तक ''2062’’ में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के मानव जीवन पर होने वाले प्रभाव के सम्बंध में विस्तृत वर्णन किया गया है। पुस्तक के लेखक ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध टेक्नॉलोजी विशेषज्ञ टोबी वॉल्श का मानना है कि वर्ष 2062 तक कम्प्यूटर लगभग मानव मष्तिष्क के समान क्षमता हासिल कर लेंगे और सारे विश्व में राजनीति, वित्त, युद्ध, रोजमर्रा की जिन्दगी और सम्भवत: मृत्यु को भी नियन्त्रित कर सकेंगे। उस दुनिया की कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देने वाली है जहाँ सारी गतिविधियों को नियन्त्रित करते-करते कम्प्यूटर इंसानों पर भी हुकूमत करने लगें। यदि ऐसा हुआ तो यह जॉर्ज ओरवेल के 1949 में लिखे गये और सदी की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में शुमार विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ''1984’’ की अधिनायकवादी परिकल्पना से भी ज्यादा भयावह होगा। ओरवेल की पुस्तक ''1984’’ में वर्णित ''बिग ब्रदर’’ के पास केवल निगरानी की सुविधा और कठोर राजनीतिक एजेन्डा था जबकि ''2062’’ के आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से चलित कम्प्यूटर में दिमाग भी होगा और किसी भी स्थान पर इंसानों को नियन्त्रित करने के संसाधन भी। विकसित देशों में तो अभी यह सम्भव है कि कम्प्यूटर प्रोग्राम के सॉफ्टवेयर, मोबाइल लोकेशन की जानकारी और सीसीटीवी कैमरों की मदद से हर नागरिक पर लगातार निगाह रखी जा सके तब 40-50 बरस बाद तो हर नागरिक की निगरानी और दैनिक सुविधाओं पर मशीनी प्रशासक का पूरा नियन्त्रण और अधिकार होगा। कोई हैरानी की बात नहीं कि यह प्रशासक किसी भी नागरिक की बिजली, पानी जैसी सुविधायें जब चाहे तब रोक दे और सॉफ्टवेयर चालित दरवाजे खिड़कियाँ बंद करके उसे घर में ही कैद की सजा दे सके। ऐसे में विश्वविख्यात ब्रिटिश वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग की चेतावनी प्रासंगिक हो जाती है जब दिसम्बर 2014 में बीबीसी से बातचीत के दौरान उन्होंने आगाह किया था कि ''आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का पूर्णरूपेण विकास मनुष्य-जाति के विनाश का कारण बन सकता है’’। उनका अनुमान था कि मानव के बराबर मानसिक क्षमता विकसित हो जाने पर कम्प्यूटर स्वयं नये निर्माण और बेहतर पुनर्संरचना का काम भी कर सकेंगे।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जरिये कम्प्यूटर के साथ प्रयोग लगातार जारी हैं और गीत- संगीत, कहानी, उपन्यास सभी विधाओं में मशीनी रचनात्मकता विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। जिस तरह इंसानी दिमाग असंख्य न्यूरोन के विशाल ताने-बाने की मदद से काम करता है उसी तरह कम्प्यूटर में कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क विकसित करके उसे इस काबिल बनाया जा रहा है कि वह अपनी प्रोग्रामिंग के साथ बाहरी जानकारी के आधार पर खुद कोई किस्सा, कहानी, कविता या संगीत की धुन तैयार कर सके। वर्ष 2018 में रॉस गुडविन नामक अमेरिकी उपन्यासकार ने ऐसा ही एक प्रयोग किया। लैपटॉप, माइक्रोफोन, कैमरा और रास्ता बताने वाले यंत्र जीपीएस के साथ रॉस लम्बी सड़क यात्रा पर निकल पड़े ताकि उनकी मशीनें यात्रा के अनुभवों पर आधरित उपन्यास लिख सकें। ब्रूकलिन से न्यू ओर्लियंस तक की चार दिनों की यात्रा के बाद आखिर मशीनों के जरिये उपन्यास लिखा गया और अक्तूबर 2018 में प्रकाशित भी हुआ। छोटे-छोटे वाक्यों में लिखा गया यह अजोबोगरीब उपन्यास ''वन द रोड’’ किसी को प्रभावित तो नहीं कर पाया मगर इसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस द्वारा लिखित सर्वप्रथम उपन्यास का तमगा जरुर हासिल है। मशीनी साहित्य और संगीत रचने की दिशा में जारी प्रयासों के आधार पर कम्प्यूटर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगले 4-5 सालों में ही आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जरिये स्क्रीनप्ले और काल्पनिक उपन्यास सफलतापूर्वक लिखे जा सकेंगे। संगीत के साथ प्रयोग में कई एल्बम बनाए भी जा चुके हैं।    

इसी बीच यह कोशिश भी जारी है कि कम्प्यूटर को मोजार्ट या बीथोवन जैसा संगीत अथवा कीट्स या शेक्सपियर जैसा साहित्य रचने के काबिल भी बनाया जाये। सम्भव है हमें भविष्य में प्रेमचन्द की एकदम नई कहानियाँ पढने मिलें, मिर्ज़ा ग़ालिब की अनसुनी ग़ज़लें गायी जायें और एस. डी. बर्मन की ताजातरीन धुनें सुनाई दें। लेकिन बार-बार यही सवाल कौंधता है कि क्या वाकई हमें शेक्सपियर, प्रेमचन्द, ग़ालिब या एस. डी. बर्मन के अद्वितीय हुनर का सही रूप देखने मिलेगा? क्या ग़ालिब की शायरी में वही फलसफ़ा झलकेगा और क्या शेक्सपियर का काव्य मानव-हृदय की उत्कट भावनाओं को व्यक्त कर पायेगा या फिर ये रचनायें सिर्फ पैरोडी बन कर रह जायेंगी। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि मौलिक कविताओं, कहानियों और गीत-संगीत के बिना मनुष्य के जीवन की दशा और दिशा क्या होगी? क्या कम्प्यूटर अपनी प्रोग्रामिंग से परे कोई रोमान्टिक कल्पना भी कर सकेंगे और अपनी कृतियों से मनुष्य को वास्तविक आनंद दे पायेंगे? इस सन्दर्भ में अल्बर्ट आइन्स्टाइन का कथन विचारणीय है कि ''ज्ञान से कल्पना ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्ञान सीमित है जबकि कल्पना में सारी दुनिया समा सकती है’’।

लाखों वर्षों के क्रमिक विकास में मानव-मस्तिष्क के अग्रभाग के निरंतर बढ़ते आकार ने ही मनुष्य को क्रमश: अन्य प्राणियों से बेहतर बनाया है। यह अग्र-मष्तिष्क (फ्रन्टल लोब) ही मनुष्य को भाषा, कल्पनाशीलता, भावनात्मक अभिव्यक्ति और विवेक प्रदान करता है। इतिहास गवाह है कि धरती का व्यापक विकास मनुष्य की मौलिकता और रचनात्मकता की देन है मगर अति-आत्मविश्वास में हम धीरे-धीरे दुनिया को उस ओर ले जा रहे हैं जहाँ शायद कला या कल्पना का कोई स्थान ही नहीं होगा। अगर सोचने, समझने और नवनिर्माण करने की जिम्मेदारी कम्प्यूटर या रोबॉट को सौंपी जा रही है तब प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना मानव शरीर के अद्भुत उपकरण फ्रन्टल लोब की असीम क्षमताओँ का क्या होगा?

मानव-जाति की लम्बी विकास गाथा मनुष्य की अपरिमित विचार-शक्ति से ही लिखी गयी है। यदि मनुष्य ने यह विचार-शक्ति मशीनों के हवाले कर दी तो क्या यह संभव नहीं कि मशीनें ही सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले लें। मुमकिन है अनुसंधान का काम भी भावी कम्प्यूटर ही सम्हालें ताकि वे अपनी सुविधा तथा आवश्यकता के अनुसार संसाधनों और इंसानों का इस्तेमाल कर सकें। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जरिये तेजी से बढ़ती हुई कम्प्यूटर दक्षता और मशीनी रचनात्मकता के बीच यह अविश्वसनीय लेकिन बेहद भयावह खयाल है कि किसी दिन दुनिया का नियंत्रण मशीनों के सुपुर्द हो और इंसान केवल गुलाम बन कर रह जायें। अनेक विज्ञान फंतासी फिल्मों में इसे काल्पनिक किस्से की तरह दिखाया गया है मगर अदूरदर्शी वैज्ञानिकों द्वारा इसे हकीकत में बदलने की पुरजोर और आत्मघाती कोशिश जारी है। बहरहाल इस मुददे पर बहस अनिवार्य हो गयी है कि ऐसा वैज्ञानिक विकास जरुरी है भी या नहीं जो आखिर में मनुष्य-जाति के विनाश का कारण बने। 

 

योगेन्द्र श्रीवास्तव जबलपुर की एक हरफनमौला शख्शियत हैं। पेशे से चिकित्सक रहे, पत्रकारिता भी बेजोड़ की और सेवा कर्म वकालत।

संपर्क-  मो. 9424640933

 


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