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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

उदयभानु पांडेय से अर्पण कुमार की बातचीत

उदयभानु पांडेय

साक्षात्कार

 

 

उदयभानु पांडेय एक ऐसे लेखक हैं, जिनकी अधिकांश कृतियों का पढऩा हुआ है और उन पर लिखना भी। बीच-बीच में उनसे संवाद में अंतराल भी आए, मगर जिन कुछ लेखकों के साथ लंबे समय से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से संवादरत हूँ, उनमें उदयभानु पांडेय भी एक हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं पर किसी-न-किसी पत्रिका के लिए इस बीच कई बार लिखना हुआ है। कहानी, उपन्यास, संस्मरण, आत्मकथा जैसी विधाओं में उनका वैविध्यपूर्ण लेखन मुझे प्रभावित करता है। उनमें स्वयं को पृष्ठभूमि में रखकर और सामनेवाले की प्रशंसा में बातचीत करने की कला या विनम्रता भी खूब है। ऐसा उनका स्वभाव या 'मेक’ भी हो सकता है। वे हर पीढ़ी के लेखकों से अपना सहज संबंध विकसित कर लेते हैं। विभिन्न लेखकों/संपादकों/प्रोफेसरों/आलोचकों/प्रसंशकों आदि से उनका दैनंदिन संवाद, उनकी ऊर्जा की और इंगित करता है, वहीं, सत्तर पार की अवस्था में (जनवरी 2020 में से पचहत्तर से हो जाएँगे) अनवरत लेखन-पठन से जुड़े कार्यों में दत्त रहना उनके साहित्यिक समर्पण का परिचायक है। उनके यहाँ विभिन्न विषयों पर केंद्रित तमाम क़िस्से और आख्यान हैं तो वहीं उनकी बातों में अंग्रेज़ी सहित विश्व साहित्य के कई ज़रूरी संदर्भ भी आते-जाते रहते हैं। उनकी भाषा में एक तरफ़ अवधी और ऊर्दू का भाईचारा लिया हुआ ठाट है तो दूसरी तरफ उनके यहाँ संस्कृत अंग्रेजी की क्लासिकी भी दिखाई पड़ती है। असमियां कहानियों और कार्बी पुराकथाओं को वे अनुवाद के माध्यम से पहले ही हिंदी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सके हैं। हिंदी कविताओं का उन्होंने अँग्रेज़ी में अनुवाद भी किया है। तकनीकी स्तर पर भी उनकी उत्सुकता उल्लेखनीय है। कुछेक साल हुए, जब उन्होंने कंप्यूटर पर हिंदी यूनीकोड में लिखना शुरू किया। प्रारंभ में उन्हें दिक्कतें आई, मगर लोगों से पूछ-पूछकर (मोबाइल/फोन पर भी) उन्होंने इस पर भी अपनी महारत हासिल की। अब वे अमूमन कंप्यूटर पर ही लिखते हैं, और कई युवा लेखकों की तुलना में बहुत ज्यादा भी।

इसी वर्ष (2019 में) प्रकाशित हुई उनकी आत्मकथा लोगों को काफ़ी पसंद आ रही है, अत: उसे लेकर उनसे पूछे गए सवालों को यहाँ रखना मुझे कुछ प्रसंगानुकूल लगा। मूलत: बलरामपुर, उत्तरप्रदेश से संबंध रखनेवाले उदयभानु पांडेय की कर्मभूमि असम का शहर 'डिफू’ (कार्बी आँगलाँग ज़ले का ज़ला-मुख्यालय) है। अत: वहाँ की पृष्ठभूमि को लेकर भी उनसे किए गए कुछेक सवाल यहाँ शामिल हैं।

 

आप अरसे से असम में मुख्यत: कार्बी में रहते आए हैं। इस प्रांत के आदिवासियों की तब (अब आपने यहाँ रहना शुरु किया था) और आज की स्थिति में क्या अंतर पाते हैं? बाहरी लोगों के संपर्क में उनकी सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक, आर्थिक चेतना में किस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं? वर्तमान में उनकी जीवनशैली कैसी है?

- मैं जून 1965 में असम आया। उस समय गुवाहाटी पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार था और शिलॉग असम की राजधानी थी। तब असम में सामासिक असमिया संस्कृति थी जो इसे अधिक प्राणवान बना रही थी। ट्रायबल (आदिवासी) समाज का एक छोटा-सा वर्ग शोषण की शिकायत करता था लेकिन वृहत्तर ट्रायबल समाज अपने को असमिया मानता और कहता था। यह हिंदुस्तानियत और भारत की सामासिक संस्कृति की विजय थी। मैदानी इलाके के लोगों की भी कमियाँ थी जिसे डॉ. लोहिया उत्तर भारत के सवर्णों का 'वशिष्ठी मन’ कहते थे, वह यहाँ भी था। हिंदी समाज वशिष्ठी मन को सबसे ज्यादा प्रश्रय देता था। चीनी आक्रमण और नेहरू की असमर्थता से लोग बुरी तरह आहत थे। चीनी हमले के समय कुछ संपन्न हिंदी भाषी सपरिवार असम छोड़कर अपने गृहप्रदेश चले गए थे। यह जान कर आश्चर्य होगा कि डिफू से विभिन्न भाषाओं में 23 अखबार प्रकाशित होते हैं लेकिन हिंदी का एक भी नहीं। यह जानकर बड़ी ख़ुशी होती है कि मेरे शिष्य-शिष्याओं का एक वर्ग मुझसे कहीं बेहतर अंग्रेज़ी लिखता और बोलता है। 1952 में स्थापित इस ज़ले में कम-से-कम 60 से लेकर 70 लेखक और लेखिकाएं हैं। शाम चार बजे के बाद सारे अंग्रेज़ी, असमिया, हिंदी, बांग्ला और कार्बी के दैनिक, साप्ताहिक पेपर बिक जाते हैं। कार्बी कवि और कहानीकार 'समकालीन भारतीय साहित्य’ और 'दस्तावेज़’ में छपकर चर्चित हो चुके हैं। हाँ, गाँवों को बदलने में ज़रा देर लगेगी। यहाँ का समाज उदार और सहिष्णु है। शादियों में काफी स्वतंत्रता है। कार्बी और अन्य जनजातीय समाजों में खुलकर वैवाहिक रिश्ते होते हैं। बस, ट्रायबल समाज की नई पीढ़ी को महत्वाकांक्षी बनना पड़ेगा ताकि वे परिश्रमी बन सकें।

असम आपका कार्यक्षेत्र बना। मगर कालेज से सेवानिवृत्त के बाद भी आपने असम के एक आदिवासी अंचल को ही अपने रहने का ठिकाना बनाया। वह आपका स्थायी पता बना। हमें कृपया यह बताएँ कि असम से या फिर कार्बी ऑगलाँग से आपके प्रेम के पीछे क्या कारण हंै।

- नए परिवेश से जुडऩे और उसके साथ अभियोजन करने में सब को परेशानी का सामना करना पड़ता है। मैं भी इस नियम का अपवाद नहीं हूँ। किंतु मेरा स्वभाव नकारात्मक नहीं। जब मैं घर से इतनी दूर रोज-रोटी की तलाश के लिए चलने लगा मेरे पिता ने कहा, ''जो बात मैंने हमेशा बताई, वही बताने जा रहा हूँ। जिन लोगों के साथ हो उनके लिए हमेशा वफादार रहना। व्यक्तिगत ही नहीं सरकारी रुपए-पैसों के बारे में भी ईमानदार रहना और किसी की बहन बेटी को बुरी नज़र से मत देखना। इतना कर लिया तो हर जगह कामयाब होंगे और इ•ज़त पाओगे।’’ यही बात अँग्रेज़ी के प्रो. डॉ. प्रताप सिंह सर ने भी मुझे बताई। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समय पूर्वोत्तर भारत में कालेज़ प्रोफेसरों की बहुत कमी थी। लेकिन लोग दिल से भी बहुत अच्छे थे। बुज़ुर्ग लोग तो इतने अच्छे थे कि कहा करते, ''अगर तुम वापस यूपी जाने के लिए तैयार हुए तो यहीं किसी पेड़ में बाँध देंगे।’’ जिस इलाके में  Son of the soil (माटी पुत्र) का सियासी नारा हो वहाँ के लोग इतने स्नेहालु हों, यह कुछ अचरज की ही बात लगती है।

डिफू के शुरुआती दिनों में आपको कई ऐसी जगहों पर रहना पड़ा जहाँ 'सैनिटेशन’ की समुचित व्यवस्था नहीं थी। आपने अपनी आत्मकथा में ऐसे कुछ प्रसंगों का विस्तार से जिक्र भी किया है। (पृष्ठ 193-202)। आज की तारीख में डिफू शहर के विकास की और यहां के लोगों की जीवन शैली में आए बदलाव की कैसी स्थिति है?

- जब पढ़े-लिखे असमिया लोग मिलते तो प्रश्न/बातें प्राय: करते, ' “Why have

you come to Assam?”’ ('आप असम क्यों आए?’) और your Nehru has ruined the

country’ ('आपके नेहरू ने देश को तबाह कर दिया।’) ट्रायबल लोगों में यह क्रोध थोड़ा कम था। यह बात समझ में नहीं आती थी कि जिस प्रबुद्ध असमिया समाज में चीनियों और नेहरू के प्रति इतना गुस्सा था उनके अंदर वे वामपंथी और साम्यवादी दल भी थे जो कहते थे कि चीनी सम्राटों के मानचित्र में पूरा नेफा (अरुणाचल प्रदेश) चीन का अंग है और लोग उन्हें बुरा नहीं कहते थे। यहीं मुझे बड़ा क्लेश होता था। लेकिन तब तक असम का हिंदू समाज भारत का श्रेष्ठतम हिंदू समाज था। बाँस और छप्पर के बने साफ-सुधरे घर आतिथ्य और विनम्रता से भरे थे। गुवाहाटी पुरानी शैली के बसाए गए ज़मींदार के गाँव जैसा दिखता था। चायघर खूब उम्दा चाय देते थे और व्यापारी भी दरियादिल थे। यहाँ मेरा मतलब असमिया व्यापारियों से है।

बाहरी लोगों से सम्पर्क में आने के बाद असम के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के जीवन में बदलाव आया। हिंदीभाषी समाज से अधिक गत्यात्मकता (Dynamism) यहाँ के समाज में है। अधिक संवेदनशीलता भी। लोग Urbanized (शहरीकृत) हुए हैं। यहाँ का अनपढ़ समाज भी बहुत साफ-सुथरा है और लोग प्रजातांत्रिक दर्शन का आदर करते हैं। जब आया था तो लोग, यानि कुछ लोग बहिरागत (बाहरी आदमी) समझते थे लेकिन आज अपनों से ज़्यादा अपना मानते हैं। इके पीछे उन लोगों का बड़प्पन ही है। बस यहाँ Decadence (अपचय) नहीं है। संत्रासवाद भी लगभग खत्म हो चुका है। और मेरा गृह नगर डिफू तो बहुत बदल चुका है। 1965 में गाँव था लेकिन अब स्मार्ट स्टिी हो रहा है।

'ट्रायबल’ लोगों में जब कांग्रेस और असम गण परिषद की सरकारें बदलीं और ए.एस.डी.सी की सरकार पहाड़ों में सत्तासीन हुई बहुत उथल-पुथल मची। हिंसा और रक्तपात हुआ लेकिन कुछ अच्छे परिवर्तन भी हुए। स्थानीय कार्बी समाज में ध्रुवीकरण तो हुआ लेकिन आदिवासी अस्मिता की चेतना आई। मध्यवर्ग तो पहले ही आ गया था लेकिन कार्बी अस्मिता अब चेतना में जाग उठी। ध्रुवीकरण धीरे-धीरे परिपक्व हुआ। कार्बी समाज में ज्ञान का विस्फोट हुआ। अब इस समाज में कला और साहित्य का स्वस्थ विकास हुआ है। इसमें भी कोई शक नहीं कि तरुण लोगों का एक वर्ग इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रभाव में पश्चिम से ज़्यादा प्रभावित हो रहा है। किंतु सब मिला कर लोग आगे बढ़े हैं। जैसा कि मैंने आपको ऊपर बताया, मैं यहाँ (डिफू में) 1965 में आया। 1952 में ही यह क़स्बा, ज़ला सदर बना था। 75 प्रतिशत टाउन में बिजली नहीं थी। नगरीय सुविधाएं न के बराबर थीं। जब मैं रेनकोट पहनता तो ट्रायबल बच्चे हिंदी गाने गाकर मुझे छेड़ते थे। आज वे इटैलियन शैली में बने घरों में रहते हैं। जब मैं डिफू आया था, लोग इसी बात पर चकित थे कि मैं इस गाँव में कैसे रहूँगा। 1965 से 1970 तक लोग यही समझते थे कि यह लड़का कहीं भाग जाएगा। तब लोगों का स्नेह मेरा संबल था। आज डिफू इतना बदल गया है कि यह 'स्मार्ट सिटी’ बनने की ओर अग्रसर है। जब मेरी बड़ी बेटी की शादी में घर के ज़्यादा सदस्य आए तो उन्हें ख़ुशी हुई। आज अपना शहर तेज़ी से मॉडर्नाइज्ड (Modernized) हो रहा है। कभी-कभी अपने वरिष्ठ मित्र प्रोफेसर रंग बंग तेरांग से कहता हूँ कि अब जब आनंद लेने का असर मिला तो ऊपर जाने का समय नज़दीक आ गया। इस शहर में प्रदूषण शून्य के बराबर है। लगभग हर रिहायशी मकान के आगे और पीछे छोटे उद्यान हैं। मेरा घर ट्रायबल मोहल्ले में है लेकिन रात में मेरे घर से भले ही कोई आवाज़ सुनाई पड़ जाए, बाकी घर शांत ही मिलते हैं। जिन्हें अंगूर की बेटी से इश्क है, उनकी हँसी कभी-कभी सुनाई पड़ जाती है, लेकिन उन हँसी में भी एक सलीका होता है। आप कह सकते हैं कि मैं भारत के एक अत्यंत सभ्य और साफ शहर में रह रहा हूँ।

असम के अपने प्रिय लेखकों बारे में बताएँ।

- मैं इस प्रश्न का ईमानदार उत्तर शायद न दे पाऊँ। 'डिफू गवर्नमेंट कॉलेज़’ का अंग्रेज़ी विभाग हम लोग इतने परिश्रम से चलाते रहे कि और कामों के लिए दम मारने की फुर्सत नहीं होती थी। न तो पीएचडी कर सका और न ही असमिया और कार्बी ठीक से सीख पाया। असमिया का गद्य हिंदी से अधिक प्राचीन है। किंतु इसमें गल्प साहित्य का विस्फोट छठे दशक से हुआ। अनुवाद के ज़रिए पढ़ी चीज़ ज़्यादा Authentic नहीं होती। असमिया के अधिकारी पुरुष कहते हैं कि बिरंची कुमार बरूआ का उपन्यास 'जीबनर बाटत’ असमिया ही नहीं पूरे भारत की भाषाओं में लिखे सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है। किंतु उसे अंग्रज़ी में मैं केवल इक्कीसवीं सदी में पढ़ सका। सबसे ज्यादा मैं डॉ. मामोनी रायसम गोस्वामी (इंदिरा गोस्वामी) को ही पढ़ सका हूँ। उन्होंने मुझे बड़ी बहिन का सा स्नेह और प्रोत्साहन दिया। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। उनकी साहित्यिक और सामाजिक सफलता और सम्मान से जल कर कई कुरुचिपूर्ण जिह्वाएँ विष वमन करती रहीं। किंतु उन्होंने वीभत्स हुए बिना जितनी निडरता से लिखा वह बेजोड़ है। वे एक सम्मानित और रईस परिवार से थीं। अपने से अधिक दूसरों के लिए जीती रहीं। उन्हें अपनी रायल्टी और वेतन और पुरस्कार से जो कुछ मिला उससे अपने पैतृक गाँव में उन्होंने अस्पताल बनवाया। प्रारंभिक युवा अवस्था में विधवा हो जाने के बावजूद उन्होंने विवाह नहीं किया। उनका गद्य अज्ञेय और निर्मल वर्मा के स्तर का है और क़िस्सागोई में वे सोबती के समकक्ष हैं। उनका उपन्यास 'दंतैल हाथी का दीमक खाया हौदा’ सामंती अपचय पर लिखा गया एक लाज़वाब उपन्यास है। यह शानी के 'कालाजल’ से भी आगे है। उनके पात्र सजीव, जीवंत और स्वतंत्र रूप से अपना विकास करते हैं। वे आदर्श प्रस्तुत यानी Idealized कतई नहीं हैं। वे निर्भीक होने के बावजूद अपनी कृतियों को हाट केक नहीं बनातीं। अपनी भाषा किसी Perfectionist की भाषा है और उनका व्यक्तित्व उदारता और करुणा से ओतप्रोत था। वे जितनी ही खानदानी थीं उतनी ही सरल। उन्होंने 2 जनवरी 1989 को मेरी पहली हिंदी किताब 'सतवंती’ का दिल्ली में विमोचन किया था। जब उन्हें पद्मश्री का सम्मान दिया जाने लगा उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। मुझसे अब उन्होंने पूछा तो मैंने उनका समर्थन किया कि 'पद्मविभूषण’ से नीचे स्तर का कोई पुरस्कार अपनी गरिमा के विरुद्ध होगा।

आधुनिक असमिया साहित्य में कई दिग्गज कवि, गल्पकार और नाटककार हैं। स्त्री लेखिकाओं में डा. अरूपा पतंगिया कलिता, मणिकुंतला भट्टाचार्या और डॉ. मौसुमी कंदली हैं। उनकी कहानियाँ अपनी भाषा और शिल्प में अद्भुत हैं। बंती सेंतुआ की कहानियाँ पढ़ते हुए आप पाएँगे कि आप सोबती और कुर्रतुल-ऐन-हैदर को एक साथ पढ़ रहे हैं। इनके अतिरिक्त 'राधागोविंद बरुआ कालेज़’ में हिंदी की प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष डॉ. शांति थापा हैं जो (मातृभाषा) नेपाली, हिंदी और असमिया समान रूप से लिख सकती हैं। असमिया साहित्य का अच्छी संख्या में उन्होंने नेपाली और हिंदी में अनुवाद किया है। उन्हें साहित्य अकादेमी का अनुवाद पुरस्कार भी मिल चुका है। मैंने कहीं लिख दिया है कि भविष्य में गल्प साहित्य में बंती सेंचुआ और मौसुमी कंदली अन्य लेखक-लेखिकाओं पर भारी पड़ेंगी।

किसी लेखक को आत्मकथा लिखने की ज़रूरत कब और कैसे महसूस होती है? वह किन बातों को लिख पाता है और चाह कर भी किन बातों को नहीं लिख पाता है? आत्मकथा लेखन के दौरान आपका अनुभव कैसा रहा?

- मेरा मानना है कि आत्मकथा, आत्म्श्लाघा की अभिव्यक्ति है। यह भी कह सकते हैं कि संसार की सारी कलाएँ आत्मभिव्यक्ति हैं. इसके लिए आदमी अपने अहंकार की तुष्टि करता है। हमारे वैष्णव संत कवि और सूफी दरवेश इसके अपवाद थे। कोई आत्मकथा कब लिखना चाहता है, यह प्रश्न बहुत गंभीर और जटिल है। जब बच्चा दूध के लिए रोता है और ज़्यादा भूख लगने पर दूध पीने से इंकार कर देता है तो समझिए वहीं आत्मकथा की शुरुवात हो गई। जब कोई किशोर अपने पुष, अपने किसी मित्र या सहेली को पत्र लिखता है तो आत्मकथा लेखन का वह दूसरा कदम होता है। जब कोई पहली बार प्रेम पत्र लिखता है तो वह भी एक तरह की आत्मकथा है। अगर आप मुझसे पूछें तो मैं यह कहना चाहूंगा कि मैं अपने चेतन और अचेतन मन पर जीवन भर बड़ा भार लेकर चलता रहा हूँ। पहली बार इसका अहसास तब हुआ जब मैंने गोरखपुर में सभ्यता को असभ्यता के हाथों परास्त होते देखा। फिर अवध छोडऩे के बाद तो कुछ ऐसे अनुभवों से गुज़रना हुआ कि अपने व्यक्तित्व को लडख़ड़ाने से बमुश्किल बचा पाया। मैं बार-बार बलरामपुर के अपने उस समय का अभाव महसूस करता रहा जिसे मैं पीछे छोड़ आया था। अपनी और बच्चों की बीमारियों ने भी कम परेशान नहीं किया। और सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि जिन लोगों ने मेरी शांति को चकनाचूर किया वे लोग मेरे नज़दीकी ही थे। ये तनाव, घुटन, कुंठा, क्रोध और आक्रोश सब कुछ अनावश्यक थे। ऐसे में, मेरे साहित्य-सृजन ने मुझे बहुत सहारा दिया किंतु कुछ दंश इतने तीखे थे कि उनका मेरे System से बाहर होना अनिवार्य हो गया था। ग़र मुझे बिंदास और फूहड़ होने की इजाज़त आप दें तो मैं यह अर्ज़ करना चाहूंगा कि यदि इतने सारे विषय को अपने System से बाहर न निकालना तो शांतिपूर्ण यह शरीर त्याग नहीं सकता था। इसीलिए यह आत्मकथा लिखी। इसके खतरे हैं, इस आत्मकथा को मेरे दुश्मन ज़रूर twist करेंगे। उदारण के लिए मैंने लिखा है कि शादी के बाद A terribel hunger for body broke out and she (my wife) was completely imprervious to my biologincal hunger.””.’’ (Saga of a Braggart p.131).). अब इस कटु सत्य को हमारे दुश्मन मेरे विरुद्ध अस्त्र की तरह इस्तेमाल करेंगे। लेकिन मेरी निष्ठा सत्य के प्रति है, व्यक्तियों के प्रति नहीं। शायद इसीलिए मैं अपने पूर्वजों को Romantic idiolts कह सका। 2004 से यानि 'बनानी’ के प्रकाशन के बाद मेरे साहित्यिक दोस्तों का दायरा बढ़ा। एक आईएस अफसर मेरे घनिष्ठ मित्र बन गए। उन्होंने पूछा कि मैंने नायक संजय सिंह के घर और उद्यान को हू-ब-हू अपने उपन्यास में कैसे उतार दिया। मैं कभी भी उनके शहर नहीं गया था। क़िस्सा-कोताह यह कि वे मेरे जिग़री दोस्त हो गए और मेरे लिए 2008 में किसी संस्थान में 40000/- रुपये प्रति मास की नौकरी भी ठीक कर दी। इस बीच मैंने अपना अंग्रेज़ी उपन्यास ' Confessions Of A Fake Orphan” पूरा कर लिया था। उनके कहने से मैंने पांडुलिपि की एक प्रति उनके पास भेज दी। उनमें जीवन के अंधकारमय पक्ष की भरपूर चर्चा है और पात्र भोजपुरी गालियों को प्रसाद की तरह बाँटते हैं। एक पुराने वैष्णव परिवार से आते हैं और राजपूत होने के कारण मुझे अतिरिक्त स्नेह ही नहीं श्रद्धा भी देते हैं। उन्होंने कहा कि जिसने 'बनानी’ लिखी उसका इस तरह का उपन्यास लिखना गरिमापूर्ण नहीं है। उनकी इच्छा के विरुद्ध मैंने उपन्यास छपवा दिया लेकिन एक ऐसे दोस्त को खोना पड़ा जो मुझे किसी सहोदर भाई की तरह प्यार और सम्मान देता था। 'भारत’ जैसे कथित पाखंडी देश में आत्मकथा लिखना बहुत साहस का काम है। एक परम्परावादी परिवार से आने के कारण मैं कुछ बातें खुलकर नहीं लिख सकता था। मेरे तीनों बच्चे स्पर्शकातर स्वभाव के हैं। पेशे से मैं एक शिक्षाविद हूँ और मेरे शिष्य ऊँचे पदों पर हैं। यदि वे मुझे सम्मान देते हैं तो मुझे उनका भी ध्यान रखना पड़ता है। राजनीतिक घटनाएँ अगर चर्चित होतीं तो आत्मकथा और ज़ायकेदार हो जाती लेकिन मैंने इसमें कई महत्वपूर्ण बातों की चर्चा नहीं की। मुझे इसके लेखन के लिए एकांत चाहिए था जो गाज़याबाद और दिल्ली में पूरा मिला। हिंदू धर्म के मध्यम मार्ग का मैंने सहारा लिया। पीड़ादायी था इसका लिखना लेकिन भावों का विरेचन (Purgation) तो होना ही था। हर लेखन का उद्देश्य होता है कि बुरे लोगों को शर्मसार किया जाय। इसीलिए विभाजन पर पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी में इतना कुछ लिखा गया। लेखक को अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही पड़ेंगे।

आपके निजी जीवन में कई रोचक या कहें अप्रत्याशित मोड़ आए हैं, जिनसे आप के जीवन की दिशा बदली है। इनके बारे में भी कुछ रहस्योद्घाटन करें। खास उन पहलुओं पर बात करें जो आप की आत्मकथा 'सागा ऑफ अ ब्रैगर्ट’ ('Saga Of A Braggart”) में नहीं आ सके हैं।

- मैंने अपनी आत्मकथा में वह सब कुछ कह दिया है जिसके लिए साहस, सत्साहस, दु:साहस या 'मर साहस’ (असमिया में जिसका मतलब मरने का साहस) होता है। इसके आगे कुछ कहने के लिए बाकी नहीं बचा है। मुझे दो बातों के लिए जीवन भर पश्चाताप की आग में जलना पड़ेगा। एक बात तो यह कि मैं अपने तीन नम्बर के बड़े भाई पंडित हरिओम के बारे में कुछ न लिख सका। तब (आत्मकथा लिखते समय) वे स्वस्थ थे और उनके प्रति शायद अगाध प्रेम के नाते मैं सोचता था कि वे कम से कम 90-95 वर्षों तक जीवित रह सकेंगे। दूसरा पश्चाताप यह कि मैं अपने पिता को अपने साथ डिफू न ला पाया। उनकी थोड़ी चर्चा मैंने आत्मकथा में की है। यदि थोड़ा साहस कर पाता और उनके लिए अपने हाथ से स्वादिष्ट खाना बना सकता तो मुझे संतोष होता। अब मैं सोचता हूँ कि मेरे दो बच्चे जो इस तरह बीमार रहते हैं, संभवत: उनका कारण मेरा यह पाप ही हो। वे अपने दुश्मनों तक के लिए भी क्षमाशील थे। मुझे उन्होंने कोई बददुआ नहीं दी होगी किंतु ईश्वर ने मुझे दंड दिया है। यह अपराध बोध मुझे शूल की तरह चुभता है। वे सभी ब्राह्मणों का बनाया खाना भी नहीं खाते थे। कई मोड़ भी आए मेरी ज़ंदगी में लेकिन उनकी चर्चा नहीं कर पाऊँगा। मैं न तो खुशवंत सिंह की तरह बिंदास और मोटी चमड़ी का हूँ और न ही विश्वनाथ त्रिपाठी की तरह स्थितप्रज्ञ। आप मुझे कायर समझना चाहें तो आपको इसकी पूरी स्वतंत्रता है।

आपकी आत्मकथा में सामंतवाद की दरकती या कहें विरूपित होती स्थितियों पर काफी चर्चा है, शुरुआती दिनों में $खासकर, जिनकी अनुगूंज अंत तक कायम है। संयोग से आपने काफी क़रीब से इसे महसूस भी किया है। आपकी आत्मकथा का पहला अध्याय भी यही है जहाँ आप बहुत कुछ सुनने और बहुत ही कम पाने या महसूसने का ज़क्र कई बार करते हैं। अपघटित सामंतवाद के कई प्रसंग आपने अपनी आत्मकथा में प्रस्तुत किए हैं। ज़ाहिर है, तब आपको कुछ अभावों या कोई अप्रीतिकर स्थितियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इन सबका आपके व्यक्तित्व पर कैसा असर पड़ा? इसके दूसरे पक्ष में भी सोच कर देखते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन अंतर्विरोधों को देखते हुए आपका लेखक भी उनसे कुछ समृद्ध हो सका? आप ऐसी कई कहानियों को रच सके जिनमें यह विषय प्रमुखता से ध्वनित हो सका।

- यह स्वाभाविक है कि आप React करें। मैं रिश्तेदारों के घर बहुत कम जाता था। सबसे नज़दीकी रिश्ता तो ननिहाल से होता है। मेरी माँ अपनी पीढ़ी में सबसे छोटी थीं। बचपन में ही नानाजी का स्वर्गवास हो गया। मेरे दोनों मामाओं ने मेरी मौसी और माँ को पाला-पोसा और उनकी शादी करवाई। मेरे पिता बहुत शाहखर्च थे और खाने-खिलाने में भी बड़े शौकीन। बहुत उदार भी। कभी-कभी अपने हल-बैल और हलवाहों को मामा के यहाँ उनकी खेती में सहयोग के लिए भेज देते थे, चाहे अपने खेत बिन बोए ही क्यों न रह जाएँ। एक बार लगान देने के लिए उन्होंने मामाजी की छह हज़ार चाँदी के रुपए भिजवाए। यह वाकया मेरे जन्म 1945 के पहले का है। मामाजी ने वे रुपए नहीं लौटाए। इसको लेकर वे न कटु हुए और न ही इसकी कभी चर्चा की। किंतु जब हमारे परिवार में नकद पैदों की कमी हुई, बड़े मामाजी का व्यवहार बदल गया। जब मैं University गया मेरे पास कोट नहीं था। मेरी माँ से वे बोले, ''तुम्हारा मेघराज (वे बचपन में मुझे प्यार से इसी नाम से संबोधित करते थे) बड़ा अकडू है। एक बार मुझसे कहे तो मैं उसे दो-दो सूट बनवा दूँगा।’’ लेकिन वे हमेशा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से मुजे मेरी तंगी की याद दिलाया करते। मैंने धीरे-धीरे वहाँ जाना लगभग बंद कर दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर वि.वि. में मेरे Hostelmate कई घर से हर महीने दो सौ रुपए तक पा लेते थे। वे बहुत शेखी बघारते, खासकर सवर्णों के बेटे। असम आने के बाद पता चला कि जो हिंदी भाषी यहाँ व्यापार करते थे उन्हें कितनी हिकारत की नज़र से देखा जाता था। ऐसे लोगों से निभना मुश्किल था। लेकिन बहुत स्नेहालु दोस्त भी थे। लड़कियाँ जान छिड़कती थीं। यह बात दीगर है कि मेरे प्रोफेसर साहेबान मुझ पर पैनी निगाह रखते। इन विसंगतियों ने अनुकूलन में बाधा डाली होगी। इसीलिए इश्क़-मुहब्बत के पचड़े से दूर रहा। करिअर तो बरबाद हुआ ही। एक बात यहाँ बता देना ज़रूरी है कि जितने दिन मैं बलरामपुर में पढ़ा, मेरे खानदानी गुरुभाइयों ने भी मुझे बहुत सम्मान दिया। वहाँ कोई कुंठा नहीं थी।

आपकी दूसरी बात भी सही है। सामंती अपचय, विसंगति, कटु अनुभवों ने मेरे कथाकार को काफी कच्चा माल दिया। अपने जीवन की इस सांध्यवेला में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमारा पूरा जीवन दुख और निराशा से इसीलिए भरा है कि सब लोग आँखें मूँद कर अर्थ और सुख के पीछे भागे जा रहे हैं। जिन्हें आप मेरी रोमैंटिक कहानी कहते हैं, वहाँ रिश्ते में भले ही रोमांस हो, वे मूलत: आर्थिक स्तर पर सफलता या असफलता से जुड़ी है। 'बिरहा तू सुलतान’ में स्निग्धा की माँ संजय के साथ इसीलिए न्याय नहीं कर पाई कि वह शिक्षाविद है। 'बनामी’ में स्निग्धा का पति केवल लालच के लिए इतनी अच्छी पत्नी को छोड़ देता है। हर रिश्ते को अर्थ प्रभावित करता है। ऐसे पात्र भी हैं जैसे 'रखी री लाज बैरनभई’ की इड़ा जो लालची नहीं हैं किंतु वहाँ दूसरे कारण हैं खटास के। 'बनानी’ में सौम्या के चरित्र को बाई सुनील सिंह (कथाकार) ने 24 कैरट का बताया है। सौम्या का चरित्र बहुत Complex है। संजय के व्यक्तित्व और चरित्र पर फिदा होने के बावजूद पर सोचती है कि अपने परिवार से कटा हुआ संजय उनकी हर कमीनगी का सैदाई होगा और उसको इस डामिनेट कर सकेगी वह राजपूतानी हो कर भी अपनी सोच में किसी निकृष्ट व्यापारी से भी बदतर है। संजय ग़रीब होने के बावजूद अपने व्यक्तित्व में सामंती है। उसकी विसंगति यह है कि 'स्निग्धा’ की माँ को वह वह इतना ही सम्मान देता है जितना कदाचित राम कैकेयी को देते थे। संजय घुट-घुट कर इसीलिए मरता है कि वह उस युग का पुरुष है जहां सामंतवाद और शराफत दोनों मर रहे हैं। मैं नियतिवादी नहीं हूँ और संजय भी नहीं किंतु डॉ. हरदयाल (संजय की नियति, 'भाषा’ 2004 नवंबर-दिसम्बर पृष्ठ 302 में) और 'बनानी’ की भूमिका में प्रोफेसर प्रताप सिंह ने इसमें नियति की उपस्थिति मानी। मैंने अपने स्वयं के घर में और अवध में इस सामंती अपचय को देखा था। ऐसे अनुभव व्यक्तित्व और लेखन को प्रभावित करते हैं। किंतु मेरे लेखन में इसके कारण कोई ख़ब्त, सनक (Eccentricity) आई है या नहीं, यह देखना पाठकों और समालोचकों का काम है। वैसे तो हमारे गृह नगर डिफू के कई नकली साम्यवादियों ने मुझे पक्का बुर्जुआ की उपाधि से नवाज़ा है। मेरे ग़रीबखाने की अजायबघर तो कहा ही था। 'क़िस्सा एक अजायबघर का’ कहानी में आपने इस बात की अनुगूँज सूनी ही होगी। मेरा यह मानता है कि हर दु:ख हमें सत्य के निकट लाता है। जब तक दुख संघर्ष के रूप में है, उसका स्वागत है। लेकिन, आज सुखी समृद्ध घरों में भी वह कमीनगी के रूप में निर्लज्ज होकर दहाड़ रहा है और उसके गगनचुंबी अट्ठाहास से दुनिया दहल गई है। ऐसे में उसका सामना करना पड़ेगा नहीं तो हमारी संतानें बहुत भोगेंगी।

एक लेखक होने के क्या फायदे हैं और क्या नुकसान?

- अपने देश मे ंलेखक होने के नुकसान ही नुकसान हैं। सबसे पहले तो आपका पूरा परिवार ही आपको लिखट्टू, आत्मलीन और अव्यावहारिक समझने लगता है। इसका कारण यह है कि एक सोची-समझी साजिश के तहत लेखक और कम-से-कम हिंदी लेखक को रायल्टी नहीं दी जाती या उसके नाम पर मुष्ठिभिक्षा दी जाती है। तब आपका परिवार आप से नाराज़ होगा और घर में अशांति होगी। अगर आप मुडिय़ा पर ट्यूशन में लग जाएँ तो आपके पौ बारह हैं। अब देश में लोग, यहाँ तक कि कई सरकारी कर्मचारी भी साइड बिज़नेस कर रहे हैं और आप लेखक बनने के चक्कर में दिन-रात लिखने-पढऩे में डूबे हैं। तो आप के ही लोग, इस अर्थप्रधान युग में आप से नफरत करेंगे। फ्रांस में कोई महिला अपने दामाद के बारे में गर्व से कहेगी कि मेरे दामाद का पहला उपन्यास आने वाला है। (देखिए ' The Summing Up” by W. Somerset Maugham)) केरल, बंगाल और असम में भले ही परिवार के लोग लेखक का सम्मान करें लेकिन हिंदी प्रदेशों में उनके मार्ग में काँटे ही काँटे हैं। जहाँ तक मेरे कुछ फायदे की बात है तो उसकी बात भी बताता हूँ - इस लेखन-कार्य में मेरे अहंकार की तुष्टि होती है। मेरे शिष्यों और दोस्तों के बीच ज़रूर मेरा सम्मान है। और हाँ, अपने बलरामपुर में किसी सैलून का नाई या सब्ज़ी बेचने वाला कवडिय़ा भी एक लेखक, खासकर कवि को बहुत सम्मान देता है। मेरा बृहत्तर परिवार खासकर मेरे नाती, नातिन और मेरी बेटी की ससुराल के लोग इस बात के लिए मुझपर फख्र करते हैं। मेरे दो गुरु-भाई प्रोफेसर विश्वनाथ त्रिपाठी और प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और 'पहल’ के संपादक प्रोफेसर ज्ञानरंजन साहब मुझ पर मेहरबान हैं। भारती, रघुवीर सहाय, शिवानी, कुबेरनाथ राय, मामोनी रायसम (इंदिरा) गोस्वामी, हरे कृष्ण डेका, नीलमणि फूकन और प्रोफेसर हीरेन गोहाईं  जैसे विद्वान मुझे प्रोत्साहन देते हैं। इसे मैं एक बड़ा लाभ समझता हूँ।

 

 

 

उदयभानु पांडेय उत्तरप्रदेश से निकले तो आजीवन असम के एक कस्बे डिफू में रहे और घर बना लिया। कभी दिल्ली, लखनऊ नहीं लौटे। असम की लोकभाषा की कहानियों को हिन्दी में लाए। उनकी पहली क़िताब अंग्रेजी में थी - ''मिस पंतागिया इज़ ब्यूटीफुल’ जो राइटर्स वर्कशॉप से छपी। 2010 में उनकी आत्मकथा अंग्रेजी में आई। उदयभानु का लेखन बेलौस है। आपकी कृतियां ज्ञानपीठ, वाणी प्रकाशन और साहित्य अकादमी ने छापी है। पहल में उनकी कई यादगार कहानियां प्रकाशित हैं।

संपर्क- मो. 9435722902, डिफू (असम)

तीन काव्य संग्रह 'नदी के पार नदी’ (2002), 'मैं सड़क हूँ’ (2011), 'पोले झुनझुने’ 2018 एवं एक उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज़’ (2017) प्रकाशित एवं चर्चित। कविताएं एवं कहानियाँ, आकाशवाणी के दिल्ली, जयपुर, एवं बिलासपुर केंद्र से प्रसारित। दूरदर्शन के 'जयपुर’ एवं 'जगदलपुर’ केंद्रों से कविताओं का प्रसारण एवं कुछ परिचर्चाओं में भागीदारी। कई कहानियाँ एवं आलोचनापरक आलेख महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

संपर्क - फ्लैट नं. 102, गणेश हेरिटेज, स्वर्ण जयंती नगर, आर.बी. हॉस्पीटल के समीप, पत्रकार-कॉलोनी, गौरव पथ, बिलासपुर- 495001 छत्तीसगढ़, मो. 9413396755

 

 


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