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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

लातिन अमेरिका डायरी सोने का अभिशाप-कोलंबिया से क्विम्बाया और अज्टेक घाटी तक!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

 

 

 

        क्रिस्टोफर कोलंबस हमारा पीछा छोडऩे के लिए तैयार नहीं! स्पेन द्वारा कुचली गयी मध्य अमेरिका की तमाम औपनिवेशिक रियासतों से आगे हम उस देश में हैं जिसे सत्रहवीं शताब्दी के उस गौरवान्वित गोरे लुटेरे का नाम मिला है—कोलंबिया! हम कई महीने पहले, एक बार फिर यैंकीलैंड में मियामी,फ्लोरिडा से मेक्सिको और वहां से मध्य अमेरिका को पार करते हुए यहाँ पहुंचे हैं। इस दौरान ईरान, इटली और स्पेन की तरह अमेरिका में भी कोरोना विकराल रूप धर चुका है। संक्रमण के केंद्र न्यूयॉर्क से हज़ारों मील दूर कैलिफ़ोर्निया के पैसा देना से मेरी बेटी महामारी की नियमित ख़बरों के बीच अलस्सुबह व्हाट्सऐप पर पहली बार मुझे मिनियापोलिस में पुलिस द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद पूरे देश में भड़के दंगों के बारे में बताती है। दो दिनों में ही यह खबर हमारे समाचारपत्रों तक भी पहुँचती है और थोड़े से अंतराल में  'मैं सांस नहीं ले पा रहा’ - फ्लॉयड के मृत्यु से पहले के उस आखिरी वाक्य की अनुगूंज हमें अमेरिका से लेकर योरोप और न्यूजीलैंड तक सुनाई देने लगती है। रंगभेद नीति के खिलाफ पूरे देश के साथ समूचे विश्व का उठ खड़ा होना प्रेरणादायी है। पुलिस के विरुद्ध चल रहे असंख्य प्रदर्शनों के बीच मिनीसोटा में प्रदर्शनकारियों की भीड़ वहाँ के चौक में लगी कोलंबस की मूर्ति को धराशायी कर देती है। रंगभेद नीति से कोलंबस का क्या सम्बन्ध है? शायद कुछ नहीं, शायद बहुत कुछ! वह कोलंबस ही था जिसने इस धरती पर पहुँच आदि-निवासियों के मुकाबले गोरी नस्ल और उनके धर्म की श्रेष्ठता का पहला रंगभेदी ऐलान किया था। स्थानीय मूलनिवासियों और उनके वंशजों का मानना है कि पंद्रहवीं और छठवीं शताब्दी में कोलंबस और उनके उत्तराधिकारियों के ही अभियान थे, जिनके बाद अमेरिका में स्थानीय जनजातियों के आमूल सफाए और वहां गोरों के बसाए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। शताब्दियाँ बीत चुकने के बाद भी रंगभेद का वह पुराना अहसास, हमारे देश के  जाति-विभेद की तरह आज भी उसी तरह ज़ंदा है। ऐसे में अफ्रीकी मूल के फ्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद रंगभेद विरोधी प्रदर्शनकारियों का गुस्सा अगर कोलंबस की प्रतिमा पर निकलता है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए! 

अमरीका के 'कोलोनाइज़ेशन’ के समय देश में हुए रेड इंडियन निवासियों के कॉत्ल-ए-आम को स्मरण करते हुए विचारक नोम चोम्स्की ने लिखा है—

''हकीकत यह है कि वह मानव इतिहास का सबसे बड़ा क़त्ल-ए-आम था जिसमें हज़ारों-लाखों लोगों को बर्बरता से मारकर कुचला और नेस्तनाबूत कर दिया गया।...यह भी एक क्रूर मज़ाक है कि उसी 'कोलोनाइज़ेशन’ की स्मृति में अमेरिका हर अक्टूबर में 'कोलंबस डे’ की शक्ल में उसी कोलंबस का सम्मान करता है, जो स्वयं लाखों की जान लेने वाला निर्मम हत्यारा था...’’

जिस इतिहास में कोलंबस एक भविष्य-सृष्टा की तरह मूर्तियाँ में स्थापित है, वह गोरों द्वारा अपनी जाति के लिए गढ़ा गया झूठा इतिहास है, जिसमें गोरी सेना द्वारा मारे गए लाखों मृतकों के लिए संवेदना के आंसू ढूंढना बेमानी होगा!

इतिहास बदला नहीं जा सकता, मगर उसके पुनर्लेखन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। हमारे देश में महाराजाओं के भाट और चारण अपने आकाओं की स्तुति में बड़े-बड़े महाकाव्यों की रचना करते थे। अमेरिका के स्थापन का इतिहास भी इसी तरह की अतिरंजनाओं से बना  है। कमोबेश यही उद्देश्य पाठ्य पुस्तकों में इतिहास को मनचाहे ढंग से तोड़-मरोड़कर भी पूरा किया जाता है।

अपनी पुस्तक 'दि बुक ऑफ़ लाफ्टर एंड फोर्गेटिंग’ में मिलान कुंडेरा कहते हैं—

''देशों को नष्ट करने के लिए सबसे पहले उनकी स्मृति को लूट लिया जाता है। उनकी किताबों के साथ उनके ज्ञान, उनके इतिहास को नष्ट कर दिया जाता है। और फिर कोई और नई किताबें लिखता है, नए ज्ञान की सीख देता है और एक भिन्न इतिहास का आविष्कार करता है...’’

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हमें राजधानी बोगोटा से काली के लिए प्लेन बदलना है। अपनी 22 लाख की जनसंख्या के हिसाब से काली (पूरा नाम 'सेंटिआगो डी काली’) कोलंबिया का तीसरे नंबर का  शहर है - बोगोटा और मेडालिन के बाद, हालांकि इसका क्षेत्रफल मेडालिन से कहीं अधिक है। काली से उत्तरी प्रशांत सागर बहुत दूर नहीं, लेकिन कोस्टारिका के अबंगरितोस तट के मुकाबले यह बीहड़ इलाका है। कैथोलिक संत जेम्स और पुरातन 'कालिमा’ सभ्यता के जोड़ से बना नाम - सेंटिआगो डी काली, जो आज महज़ बाईस लाख की आबादी वाला एक बदरंग शहर है जहां बस्ती के करीब बहती एक अदद नदी, दो-चार आधुनिक गगनचुम्बी इमारतों, खेलों के चंद आधुनिक स्टेडियमों और दिसम्बर में आयोजित होने वाले सालसा उत्सव के अलावा कुछ भी खास नहीं। हम अपनी दोपहर और शाम शहर से दूर समुद्रतट के पास बयूनावेंचुरा बंदरगाह से आगे एक विस्तृत झील लगुना दे सोन्सो के तट पर गुजारते हैं। यहाँ पानी पर झुके पेड़ों पर नीले सिर वाले छोटे-छोटे तोते हैं जिन्हें हमने पहले नहीं देखा है। लाल चोंच वाला एक सलेटी बाज़ शिकार की तलाश में बार-बार पानी पर मंडरा रहा है। हमारे लिए यहाँ का हर पक्षी एक अजूबा है। पेड़ों में कुछ और, बहुत ही छोटे तोते हैं जिन्हें आँखों के गिर्द के काले घेरों के कारण चश्मेदार(स्पेक्टेकेल्ड) छोटा तोता( पैरेटलेट) नाम मिला है।

हम झाडिय़ों में दिखते सुनहरी रंग के मेंढकों को नज़दीक से देखने के लिए आगे झुकते हैं तो स्थानीय गाइड और हमारा ड्राइवर घबराकर हमें पीछे खींच लेता है। ये सिर्फ कोलंबिया के तटों पर पाए जाने वाले अत्यंत ज़हरीले सुनहरी मेंढक हैं जिनकी त्वचा में छिपा विष दस मनुष्यों, दो हाथियों और दस हज़ार चूहों को मारने के लिए काफी है। एक अत्यंत विषैले टोक्सिन से बना यह ज़हर कोलंबिया के दो अन्य मेंढकों में भी मिलता है। लेकिन ये मेंढक सांप की तरह विष का प्रयोग अपने शिकार को डसने के लिए नहीं करते, बल्कि यह ज़हर उनके लिए आत्मरक्षा का एक ज़रिया है। जनजातियों के जीवन में इन ज़हरीले मेंढकों का महत्वपूर्ण स्थान है। चोको भाषा बोलने और जंगलों में रहने वाली एम्बेरा और कई अन्य जनजातियाँ आज भी इन मेंढकों के विष में डूबे तीरों का इस्तेमाल शिकार और शत्रुओं को मारने के लिए करती हैं। कहा जाता है कि एम्बेरा शिकारी मेंढक को सावधानी से आग के करीब ले जाता है तो उसकी त्वचा अपने भीतर के ज़हर को छोड़ देती है। हमारा गाइड बताता है कि टोक्सिन में डूबे तीर का ज़हर एक वर्ष या इससे भी अधिक समय तक प्रभावी रहता है। तीरों (डार्ट्स) में प्रयुक्त होने के कारण ही इन मेंढकों को अंग्रेज़ी में अक्सर 'डार्ट फ्रौग्स’ भी कहा जाता है।       

तीन बड़े शहरों के अलावा कोलंबिया  में छोटी छोटी आबादी वाले अनगिनत कस्बे हैं जहां लातिन अमेरिका के चौथे सबसे बड़े देश की 5 करोड़ आबादी बसती है। प्रदेश के हर शहर का इतिहास यहाँ स्पेनिश सेनाओं और कैथोलिक आधिपत्य की अनगिनत कहानियां लिए हुए है। सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात की अंधी तलाश में सदियों पुरानी विलक्षण सभ्यताओं के तहस-नहस होने की रक्तिम कथाएँ, जिन्हें बाग़ी स्पेनिश इतिहासकारों की कतिपय वृत्तांतों से बाहर बहुत कम पढ़ा गया है। और इन गोरे दस्तावेज़ों में भी उस शांतिपूर्ण और विकसित समाज का बहुत कम उल्लेख है जो कोलंबस के आने से पहले यहाँ कृषि, कला और जीवन-यापन की समृद्ध संस्कृति की शक्ल में दूर-दूर तक फैला था। जहां एक तरफ स्पेनिश सेनाओं ने कैथोलिक धर्म का विरोध करने वाली जनजातियों को बेरहमी से कुचल दिया गया, वहीं दूसरी ओर सोने और चांदी की खदानों और गन्ने के खेतों में काम करने के लिए लाखों की संख्या में अश्वेत बंधुआ मज़दूर अफ्रीका से लाये गए। योरोप के विभिन्न प्रदेशों से गोरे नागरिक यहाँ बसते चले गए, जिससे कालान्तर में प्रदेश का जनपद तेज़ी से बदलता चला गया और आख़िरकार अब मिली जुली जातियों के मुलातो और मेस्तिजो बाशिंदे ही प्रदेश की प्रमुख पहचान बन गए हैं।

बस्ती से आगे एक रास्ता कोउको घाटी में उतर जाता है। विश्व-विख्यात कोलोम्बियन कॉफ़ी की तलाश में सुन्दर फूलों के बगीचे से घिरा एक रेस्तरां हमें रुकने पर मजबूर करता है। उस बगीचे का सबसे बड़ा आकर्षण हैं उसके पेड़ की डालों से लटके पक्षियों के 'फीडर’ जिनमें से हरएक पर अलग-अलग जाति की 'हमिंगबर्ड्स’ का जमावड़ा है। ये बिजली की सी गति से अपने पंख फडफ़ड़ाते हुए, लम्बी सुई सी नुकीली चोंच फीडर के निचले सूराखों में डाल उसमें भरे मीठे जल को खींचती हैं और फिर कुछ क्षणों में ही उड़कर पास के फूलों की ओर चली जाती हैं, फिर रह रहकर लौट आती हैं। एक एक फीडर के कई-कई सूराखों पर कई पक्षी एक साथ लगातार मीठे जल को पीते दिखाई देते हैं। और जब एक पक्षी सूराख से हटता है तो कोई दूसरा झट आ उसकी जगह ले लेता है। इन पक्षियों की शक्कर मिले पानी को पीने की प्यास अनंत है और इनके पंखों के हरे, नीले, सफ़ेद और कई बार लाल, पीले चमकदार रंगों की आभा बेमिसाल!

 हमिंगबर्ड्स—या हिंदी में गुंजन पक्षी—जो मध्य संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से दक्षिण में समूचे लातिन अमेरिका में पक्षियों की खास पहचान हैं। लातिन अमेरिका के घरों में जहां भी बालकनी में फूलों के गुलदस्ते होंगे, वहाँ नज़दीक ही एक न एक हमिंगबर्ड फीडर ज़रूर दिख जाएगा।  हमिंगबर्ड्स की बहुत छोटे से लेकर अपेक्षाकृत  बड़े आकार की कोई साढ़े तीन सौ प्रजातियाँ हैं जो सिर्फ लातिन अमेरिका में ही मिलती हैं! यह पक्षी देखने में हमारे देश के शक्करखोरा या सनबर्ड से मिलता जुलता होते हुए भी बिल्कुल अलग प्रजाति का है। सबसे छोटी हमिंगबर्ड का वज़न 2 ग्राम से भी कम होता है और यह एक सेकंड में अस्सी बार अपने पंख फडफ़ड़ा सकती है। इस फडफ़ड़ाहट में पंखों से जो 'गुन-गुन’ आवाज़ निकलती है, उसी से इसने अपना नाम पाया है। एक ही जगह पर स्थिर फडफ़ड़ाती हमिंगबर्ड का चित्र लेने के जूनून में हमें याद ही नहीं रहता कि उस जगह हम दरअसल कॉफ़ी पीने के लिए रुके थे!         

सेंटिआगो डी काली और वहां से आगे उत्तर पूर्व के अंचलों की ओर बढ़ते हुए हम हज़ारों मीलों तक फैले इंका साम्राज्य की उत्तरी सरहदों तक आ पहुंचे हैं। अभेद्य हिमालय की तरह एंडीज़ पर्वतमाला और कोर्डूलेरा जिस महाद्वीप को पूर्व और पश्चिम के दो भागों में विभक्त करती है, उसमें इंकाओं ने पहली बार इन पर्वतों के बीच से रास्ते निकालकर पूर्वी प्रदेश तक पहुँचने में कामयाबी पायी थी। हिमालय के बीच से 'सिल्क रूट’ की तरह इंकाओं ने अपने साम्राज्य में रास्तों का एक विस्तृत जाल फैलाया हुआ था जिनमें से बहुत से आज भी उसी तरह बचे हुए हैं। 'इंका ट्रेल्स’ नाम से जाने वाले ये रास्ते कोलंबिया से पेरू, चिली और अर्जेंटीना तक फैले हैं और इन प्राचीन पगडंडियों से गुज़रना एक तरह से गोरों द्वारा नष्ट कर दिए गए उस विस्मृत जगत की आहट पा लेने जैसा है।

हमें कोलंबिया के अनेकानेक कस्बों से होते हुए ओतुन क्विम्बाया के जंगलों में जाना है। ओतुन एक छोटी सी नदी है और क्विम्बाया एक महान पुरातन संस्कृति, जिसका शायद ही कोई अवशेष आज ढूँढने को मिले। कोलंबिया की प्रमुख नदी काउका के तट पर बसे सेंटिआगो डी काली शहर से हम नदी के पूर्वी तट पर आ गए हैं। काउका नदी की घाटी में चौथी और सातवीं शताब्दियों के बीच कभी क्विम्बाया संस्कृति अपने शीर्ष पर थी। फिर धीरे-धीरे अज्ञात कारणों से इसका पतन हुआ और स्पेनियों के आने के बाद यह आमूल नष्ट हो गयी। इनके मृतकों के मकबरों को खोदकर उनमें दबा सोना लूटा गया और जीवितों को सिपाहियों की गोलियों का निशाना बना दिया गया। 

क्विम्बाया के शांतिप्रिय किसान काउका नदी की घाटी में मक्का, किनुवा, अमरूद और अवोकेडो उगाते थे। वे दक्ष बुनकर थे और उनके बनाए सूती कम्बलों का व्यापार प्रदेश में दूर दूर तक होता था। उन्हें आग और ज्वालामुखियों के गर्म लावा से नदियों का पानी उबालकर उनसे नमक निकालते की जानकारी थी। वे कुशल शिकारी भी थे, लेकिन उनकी कला की पराकाष्ठा थी उनकी धरती से सोना निकालने और उनसे अप्रतिम सुन्दर मूर्तियाँ बनाने की दक्षता! उनकी गढ़ी प्रतिमाओं में गज़ब की बारीकी और संतुलन दिखाई देता है। वे सोने में तीस प्रतिशत तांबा मिलाकर एक अलौकिक आभा वाली मिश्र धातु बनाते जिसे स्पनियों ने 'तुम्बागा’ नाम दिया। क्विम्बाया की अधिकाँश प्रतिमाएं इसी धातु की बनी होती थी। वे मृत्यु को एक उत्सव मानते थे और शवयात्रा के बाद मृत शरीर के साथ ताबूत में बहुत सी तुम्बागा प्रतिमाएं, भोजन और शस्त्र भी ताबूत के साथ दफना देते थे ताकि मृतक के अगले जन्म में वे उसके काम आ सकें। बहुत बाद में क्विम्बाया मकबरों और इंकाओं से यह खज़ाना स्पेनियों के हाथ लगा तो उन्होंने बेशकीमती प्रतिमाओं को पिघलाकर सिल्लियों  में तब्दील किया ताकि उन्हें आसानी से जहाज़ों द्वारा योरोप भेजा जा सके। 1992 में बहामा द्वीप के नज़दीक किसी डूबे जहाज़ के मलबे से तुम्बागा की ऐसी 200 सिल्लियाँ बरामद हुई थी। इस अंधी नोच-खसोट में बहुत कम प्राचीन प्रतिमाएं ही बच पायी होंगी। बहुमूल्य सांस्कृतिक धरोहरों के तिजारत में ढाले जाने का स्पेनी सिपाहियों का यह भयावह तांडव दशकों और शताब्दियों तक कोलंबिया, पेरू, मेक्सिको, बोलीविया और ब्राज़ील में  चलता रहा। आज अंतर्राष्ट्रीय तिजोरियों के अधिकाँश सोने और चांदी पर उन्हीं आदिजातियों की प्रेत-छाया मंडराती दिखाई देगी। यह अभिशापित ऐश्वर्य है, जिसमें इस धरती के विनाश की सुनिश्चित भविष्यवाणी भी शामिल है। लेकिन सोने और चांदी से ई-कॉमर्स और पेट्रोडॉलर्स में डूबा हमारा समाज इसे सुनने और समझने की शक्ति बहुत पहले खो चुका है।  

हम कोलंबिया की राजधानी बोगोटा में शहर के मुख्य आकर्षण- स्वर्ण संग्रहालय (गोल्ड म्यूजियम) को पीछे छोड़ आए हैं। इस संग्रहालय के गलियारों से गुज़रना एक तरह से अज्टेक, क्विम्बाया और इंका साम्राज्य के अवसाद को दुबारा जीना भी है, कि एक खनिज को पाने का जूनून इंसान को कैसी कैसी बदकारियों और क्रूरताओं तक पहुंचा सकता है। हमारे अपने इतिहास में दिल्ली की सल्तनत पर लुटेरे नादिरशाह के खूनी हमले और इससे आगे रॉबर्ट क्लाइव द्वारा बंगाल में मुर्शिदाबाद खजाने की लूट, सब उसी आदिम परंपरा का हिस्सा हैं। 

कैरेबियन समुद्र से मध्य अमेरिका और वहां से उत्तर में मेक्सिको और दक्षिण में कोलंबिया पहुँचने वाली स्पेनिश सेनाओं की सोने और चांदी की भूख का कोई अंत नहीं था। कोरोना जैसी महामारी की ही तरह तब योरोप से आयी गोरों की सेनाएं तलवारों के साथ-साथ चेचक, टिटेनस और कोढ़ जैसी भयानक बीमारियों से लैस होकर अमेरिका के तटों पर उतरी थी। स्थानीय निवासियों में इन नए रोगों से प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं थी। ब्राज़ील के मानवशास्त्री डार्सी रिबेरो का मानना है की सिर्फ अमेरिका ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया और ओशेनिया में भी वहाँ के मूल निवासियों की आधी आबादी गोरों से संपर्क के बाद वहां फैली बीमारियों से ग्रस्त होकर मर गयी।

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कैरेबियान क्षेत्र के दक्षिण में इन्का और मुइस्का साम्राज्यों तक पहुँचने से पहले स्पेनिश सेनाएं यहाँ से उत्तर में मेक्सिको के पुरातन अज्टेक साम्राज्य को कुचल वहाँ के सोने और जवाहरात के अथाह भण्डार बटोर चुकी थी।  मेक्सिको/अज्टेक साम्राज्य के विनाश की इस कहानी को छुए बगैर दुनिया में सोने-चांदी-जवाहरात की सबसे बड़ी औपनिवेशिक लूट की यह गाथा अधूरी रह जाएगी।

यूं तो स्पेनिश इतिहासकार और कोर्तेज़ की सेना का सदस्य रह चुके बरनेल दियाज़ देल कास्तिलो ने 1576 में स्पेनियों के नज़रिए से मेक्सिको और अज्टेक विजय का इतिहास लिखा है, लेकिन इससे कहीं महत्वपूर्ण है अज्टेक साम्राज्य के नहुआ निवासियों की मूल भाषा नहुआत्ल में लिखी और बाद में स्पेनिश तथा अंग्रेज़ी में अनूदित एक कालजयी रचना, जिसमें नहुआ निवासियों की संस्कृति और अज्टेक साम्राज्य के विनाश का समूचा इतिहास सुरक्षित है। 'फ्लोरेंटाइन कोडेक्स’ या 'जनरल हिस्ट्री ऑफ़ दि न्यू स्पेन’ का लेखक/सम्पादक बेर्नार्दिनो दे सहागुन एक पादरी था जो 1529 में कैथोलिक धर्म प्रचार के लिए योरोप से न्यू स्पेन (मेक्सिको) आया था। इससे कुछ ही समय पहले, 1521 में स्पेनियों ने अज्टेक साम्राज्य पर विजय पायी थी। सहागुन ने वहाँ पहुँचने के बाद जब स्पेनिश शासन तले विच्छिन्न होती अज्टेक संस्कृति को नज़दीक से देखा तो उसने पहले नहुआत्ल भाषा सीखी और फिर 61 वर्षों का अपना शेष जीवन नहुआ संस्कृति को समझने एवं उनके इतिहास को लिपिबद्ध करने में लगा दिया। एक विशिष्ट सांस्कृतिक ध्येय के लिए समूचा जीवन समर्पित करने का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही कहीं मिले। बारह भागों में 2400 पृष्ठों और 2400 चित्रों/कलाकृतियों से सुसज्जित यह पुस्तक असंख्य नहुआत्ल भाषी पुरुषों-स्त्रियों, सहागुन के विद्यार्थियों और अनगिनत जन-चित्रकारों के सहयोग से 50 वर्षों की अथक मेहनत से तैयार हुई थी। 1590 में सहागुन की मृत्यु के बाद इसकी प्रतिलिपि वर्षों तक फ्लोरेंस, इटली के लॉरेन्शियन पुस्तकालय में सुरक्षित रही। इसी से इसे 'फ्लोरेंटाइन कोडेक्स’ नाम मिला।  कई वर्षों बाद इसका अनुवाद पहले स्पेनिश में हुआ, फिर चाल्र्स डिबेल और आर्थर एंडरसन की जोड़ी ने तीस वर्ष के परिश्रम से 2012 में इसका अंग्रेजी अनुवाद पूरा किया। इसे टेक्नोलॉजी का ही कमाल कहें कि अज्टेक संस्कृति का यह समूचा महाकाव्य आज जनसाधारण के लिए सुलभ रूप से नेट पर उपलब्ध है। पश्चिमी सभ्यता के घेरे से बाहर  जन-साहित्य, इतिहास और संस्कृति का इतना बृहद आकलन शायद दुनिया में दूसरा नहीं है। तमाम इतिहासकार सहज ही इस पुस्तक के रचयिता सहागुन को दुनिया का पहला मानवशास्त्री मानते हैं।

कोलंबस के आगमन से पहले ग्वातेमाला के माया लोगों के समानांतर, मध्य मेक्सिको घाटी में मेसोअमेरिकन और नहुआ सभ्यताओं से आए अज्टेक निवासी रहते थे। इनके कई राज्य थे जिनमें अज्टेक साम्राज्य सबसे बड़ा और शक्तिशाली था। 1430 के बाद से ही अज्टेक सम्राज्य संघीय ढाँचे में तीन राज्यों का सामरिक और आर्थिक संगठन बन चुका था। इसके दक्षिण में त्लाक्सकाला जैसे कई विरोधी राज्य भी थे जिनसे अज्टेक का निरंतर संघर्ष चलता रहता था। प्रदेश में नहुआत्ल सबसे विकसित भाषा थी जिसमें उस समय भी 365 दिनों का वर्ष माना जाता था। मक्का वहाँ की मुख्य फसल थी और नदियों की रेती में वहाँ शब्दश: सोना निकलता था। अज्टेक धर्मपरायण, मूर्तिपूजक लोग थे जो अपने देवताओं के लिए मिस्र वासियों की तरह पिरामिड बनाते थे।  उनके  सैंकड़ों देवी-देवता थे, जिनमें सबसे बड़ा था बेहद मुश्किल उच्चारण वाला युद्ध का देवता हुईत्ज़ीलोपोत्च्ली, जिसके मंदिर में नियमित रूप से युद्ध-बंदियों की नरबलि चढ़ाई जाती थी। प्रदेश में हीरे-जवाहरात और सोने-चांदी के अथाह भण्डार थे। लेकिन अज्टेक निवासी इन्हें ऐश्वर्य या दौलत की नजऱ से नहीं देखते थे। वे इनसे आभूषण, अलंकरण पट्टियां और मंदिरों के लिए कलात्मक मूर्तियाँ बनाते थे। उन्हें  सोने से भी कहीं अधिक प्रिय थे हमिंगबर्ड्स और क्वेटजेल पक्षियों के रंग बिरंगे पंख! इन पंखों से वे कलात्मक वस्त्र और सिर पर रखने वाले आकर्षक मुकुट बनाते थे। उन्हें पत्थर, रत्न और सूती पोशाकें पसंद थी। उनका राजा दिन में चार पोशाकें बदलता था, लेकिन व्यापार में वहाँ सिक्कों की जगह कोको के बीजों का इस्तेमाल होता था! ज़ाहिर है कि स्पेनियों के आने के बाद ये सारी परिभाषाएं धीरे धीरे बदल गयी। अज्टेक सम्राटों ने स्पेनियों को संतुष्ट रखने के लिए उन्हें सोने-चांदी के भरपूर उपहार दिए, लेकिन स्पेनियों की वहशी लालसा का कोई अंत नहीं था।

जब स्पेनी सेनाएं मेक्सिको पहुँची, तब अज्टेक की गद्दी पर मोंतेज़ुमा द्वितीय आसीन था। उसकी शानदार और भव्य राजधानी तिनोचतितलान विशाल टेक्सकोको झील के एक द्वीप पर बसी थी। शहर तक पहुँचने के लिए अनेक पुल और गलियारे थे, जिन्हें युद्ध के समय सुरक्षा के लिए उठाया जा सकता था। अज्टेक साम्राज्य की उस अभिनव राजधानी के आखिरी अवशेष आज मेक्सिको शहर के केंद्र में तैरते बगीचों और महल के कुछ पुराने खंडहरों में ढूंढे जा सकते हैं। तिनोचतितलान से दक्षिण में कुछ ही फासले पर दूसरा बड़ा शहर चोलुला था जहां दुनिया के सबसे बड़े पिरामिड के अलावा अज्टेक वासियों के दूसरे बड़े देवता क्वेत्ज़लकोत्ल का भव्य मंदिर था। चोलुला का पिरामिड दुनिया में सबसे बड़ा है, हालांकि अब इसका एक हिस्सा नष्ट हो गया है और स्पेनियों ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में  इसकी चोटी पर एक कैथोलिक चर्च बनाकर इसके मूल स्वरूप को पूरी तरह नष्ट कर दिया है।

स्पेनिश लुटेरा कोर्तेज़ 1519 में चंद सिपाहियों और बंदूकों के साथ मेक्सिको खाड़ी के वेराक्रूज़ में उतरा था। दरअसल वह स्वयं एक बाग़ी भगोड़ा था जो क्यूबा के तत्कालीन स्पेनिश गवर्नर के अभियान से निकाले जाने के बाद बिना इजाज़त लिए, दल की नावें चुराकर व्यक्तिगत हैसियत से बंदूकों और बागी सिपाहियों के साथ वेराक्रुज़ आ पहुंचा था। उसने सुन रखा था कि प्रदेश में सोने-चांदी और ज़वाहरात के अकल्पनीय भण्डार हैं। उसके गिरोह में अगुलार नाम का एक स्पेनिश था जो बरसों माया लोगों के साथ रह चुकने के बाद उनकी भाषा सीख गया था। बंदूकों और तोपों के चलते स्थानीय लोगों को युद्ध में हराना बेहद आसान था। कोर्तेज़ ने सबसे पहले  माया भाषी राजा पोतोंचान को परास्त कर, अपने साथी अगुलार की मदद से पोतोंचान से सुलह करने में कामयाबी पायी थी। पोतोंचान ने अपार सोने-चांदी के साथ-साथ कोर्तेज़ को बीस स्थानीय दास कन्याएं भी उपहार में दी थीं। इन्हीं में से एक ला मालिंचे नाम की सुन्दर दासी थी जो माया और नहुआत्ल, दोनों भाषाएँ जानती थी। इन दोनों दुभाषियों के सहारे कोर्तेज़ पहली बार त्लाक्सकालन और अज्टेक साम्राज्य के राजदूतों से संवाद स्थापित करने में सफल हुआ। इसी चतुर नीति के बूते पर वह अपनी छोटी सी सेना में कई हज़ार स्थानीय बागियों को जोड़ता चला गया और उसके हर कदम पर उसकी दासी ला मालिंचे ने इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। हर मोर्चे पर कोर्तेज़ पहले स्थानीय कबीलों के प्रतिनिधियों को स्पेनिश में संबोधित करता, जिसके बाद अगुलार उसके आशय को माया भाषा में दासी ला मालिंचे तक पहुंचाता, जो उसे नहुआत्ल में अनूदित कर उन राज्य प्रतिनिधियों को बताती, ताकि संदेह की कोई गुंजाइश न रहे। कोर्तेज़ के सहवास में जब ला मालिंचे को धीरे-धीरे स्पेनिश भाषा आने लगी तो यह शत्रु-संवाद और आसान हो गया। दृष्टव्य है कि ला मालिंचे मेक्सिको में कोर्तेज़ की आखिरी लड़ाई तक उसके साथ बनी रही और अंतत: कोर्तेज़ से उसकी एक संतान भी हुई। मेक्सिको के इतिहास में आज भी ला मालिंचे को कभी स्पेनियों को विजय दिलाने वाली सबसे प्रभावशाली स्त्री, तो कभी जन और समाज की विश्वासघातिन के रूप में याद किया जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओरेगन की पुस्तक 'ला मालिंचे—फ्रॉम होर/ट्रेटर टू मदर/गॉडेस’ जहां स्त्री की इसी दुरभिसंधि के बारे में है, वहीं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मेसोअमेरिकन भाषाओं की प्रसिद्ध भाषाविज्ञ फ्रांसेस कार्तुनेन ने अपनी पुस्तक 'कांटेक्ट फेनोमेना इन टेक्स्ट्स ऑफ़ दि कोलोनियल पीरियड’ में  मेक्सिको-विजय के सन्दर्भ में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका को बखूबी रेखांकित किया है।

दो वर्षों में ही कोर्तेज़ ने महज़ 100 नाविकों, 508 सिपाहियों, 16 घोड़ों, चंद बंदूकों और कुल दस छोटी तोपों की मदद से एक लाख की आबादी वाले चोलुला शहर और चार लाख वाली अज्टेक राजधानी तिनोचतितलान को अपने क़दमों पर झुका दिया था। कुटिल युद्ध नीति के अलावा कोर्तेज़ की इस आश्चर्यजनक विजय में अज्टेक लोगों के गोरों को तथाकथित दैविक रूप में देखने और उनसे आतंकित होने का भी बड़ा हाथ था। उन्होंने अपने जीवन में कभी ऐसे जहाज़, ऐसी आग उगलती तोपें, यूं सरपट दौड़ते घोड़े और उनपर सवार सफ़ेद इंसान नहीं देखे थे! 'फ्लोरेंटाइन कोडेक्स’ के अनुसार-- 

''शहंशाह मोंतेज़ुमा के महल में जब दूतों ने खबर दी कि समंदर में एक पहाड़ी तैरती हुई इस ओर चली आ रही है तो वह घबरा गया। कुछ और दूतों ने तोप के फटने का वर्णन किया और कुछ ने बताया कि वे चूने जैसे सफ़ेद लोग जब छतों से भी ऊंचे हरिणों पर बैठ चलते हैं तो सिर्फ उनका चेहरा दिखाई देता है। मोंतेज़ुमा को लगा कि कहीं उनका देवता क्वेत्ज़लकोत्ल तो क्रोध में फिर से धरती पर वापस नहीं आ रहा? ...’’

लगता है कि तमाम बदकारियों और खून-खराबे से पहले ही मोंतेजुमा मानसिक और दैविक स्तर पर स्पेनियों से पराजय स्वीकार कर चुका था।

 लातिन अमेरिका में किसी आदिकालीन  समय में घोड़े हुआ करते थे, लेकिन उनकी नस्ल कब की लुप्त हो चुकी थी। स्पेनिश सैनिकों के साथ जब वहां फिर से घोड़े दिखाई दिए तो स्थानीय लोगों के लिए उनके सरपट दौडऩे का नज़ारा किसी चमत्कारी जादुई दृश्य से कम नहीं था। उनके गर्दनों में बंधी घंटियाँ, उनकी टापों से उड़ती धूल और उनपर ज़रह-बख्तर और बंदूकों से लैस सैनिकों के बढऩे का नज़ारा अज्टेक की अच्छी से अच्छी सेना के दिल में खौफ पैदा करने के लिए काफी था। यही कारण है कि कोर्तेज़ जहां भी गया, वहां स्थानीय सैनिकों की अचंभित फौज उसके रास्ते से हटती चली गयी। अधिकाँश को लगता कि उनकी अपनी बदकारियों के कारण ईश्वर उनसे बदला लेने के लिए गोरों को साथ लाया है।       

वेराक्रुज़ से आगे बढ़ता हुआ कोर्तेज़ सबसे पहले अज्टेक साम्राज्य से शत्रुता रखने वाले राज्य त्लाक्सकाला पहुंचा। त्लाक्सकाला के सैनिकों को लगा कि स्पेनियों के साथ मिलकर वे अपने पुराने दुश्मन को परास्त करने में कामयाब हो जाएंगे। वे कोर्तेज़ की सेनाओं को सहयोग देते अज्टेक साम्राज्य के दूसरे महत्वपूर्ण शहर चोलुला पहुंचे जहां कोर्तेज़ को अपनी दासी मालिंचे के ज़रिये सूचना मिली कि शहर में स्पेनियों पर हमला करने का षड्यंत्र चल रहा है। उसने झट शहर के सम्मानित व्यक्तियों की सभा बुलाते हुए उन्हें यूं संबोधित किया—

''मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आड़ में छिपे आपके अनगिनत सिपाही हम पर विश्वासघाती  हमला करने के लिए तैयार खड़े हैं। हमें इन गलियों में पाकर आप हमारा मांस नोचकर खाने के लिए बेचैन हैं, लेकिन हमारा ईश्वर कभी ऐसा नहीं होने देगा...’’

(बरनेल दियाज़ देल कास्तिलो की पुस्तक से)

और अपने भाषण के अंत में जब उसने बन्दूक से हवा में गोली चलाई तो इस इशारे के इंतज़ार में खड़े उसके सशस्त्र सैनिकों ने निहत्थे सांसदों, पुरोहितों और नगर के नेताओं को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। शहर की गलियाँ खून से नहा गयी। कुछ ही घंटों में शहर के हज़ारों नागरिक उसकी सड़कों पर मृत पड़े थे। इसपर भी कोर्तेज़ का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो उसने घात में खड़े त्लाक्सकाला के सहयोगी सैनिकों को जीवितों को बाहर घसीटने और नरबलि के लिए उन्हें बंदी बनाने की छूट दे दी। क्षत-विक्षत शहर और उसका मंदिर दो दिन तक धू धू कर जलता रहा।

तीसरे दिन कोर्तेज़ ने नरसंहार से बच गए शहर के नेताओं के ज़रिये मोंतेजुमा को सन्देश पहुंचाया कि चोलुला के बाद स्पेनिश सेनाओं का अगला निशाना राजधानी तिनोचतितलान पर होगा! मोंतेजुमा ने चोलुला के किसी षड्यंत्र में अपना हाथ होने से इनकार करते हुए उसे मनाने के लिए अपने दूतों के हाथ उसके लिए सोने के कई नायाब उपहार भेजे। सोने के खूबसूरत पंखे, साढ़े छ: फीट का सोने के पतरे से ढंका पहिया, स्वर्ण कणों से भरी एक सोने की टोपी और कई अन्य चीज़ें, जिन्हें देखकर स्पेनी खुशी से पागल हो उठे। इसका वर्णन करते हुए ने सहागुन ने 'फ्लोरेंटाइन कोडेक्स’ में लिखा—

''वे जैसे सातवें स्वर्ग में पहुँच गए थे!...खुशी में भर वे बंदरों जैसे बार-बार  सोना उठाकर देखते ..वे जिसके लिए तरस रहे थे, वही उन्हें मिल गया था और वे भूखे सुआरों की तरह उसपर टूट पड़े थे...’’

और इससे आगे मोंतेजुमा से सुलह कर जब कोर्तेज़ की सेना तिनोचतितलान पहुँची तो उनका स्वागत करते हुए अज्टेक वासियों और शहंशाह ने उनके आगे उपहारों के ढेर लगा दिए...

''...उन्होंने सारे सोने के सामान की ढेरी बनाकर उसमें आग लगा दी थी और हर चीज़, चाहे वह कितनी ही बेशकीमती क्यों न हो, आग की लपटों में घिर गयी थी, और फिर स्पेनियों ने उसे पिघला-पिघलाकर सिल्लियों में बदल दिया था...’’  (कोडेक्स)

अज्टेक राज्य के लोग स्पेनियों के आगे कुत्तों की तरह सोना डालते थकने लगे थे, पर कोर्तेज़ के सिपाहियों की भूख का कोई अंत नहीं था। सोने का दैनिक चढ़ावा कम होते ही कोर्तेज़ ने मोंतेजुमा को नज़रबंद कर उसपर और सोना लाने का दबाव बढ़ाया। उसे लगा कि अज्टेक में  सोने के अनंत भण्डार हैं। उसने मोंतेजुमा से पूछा भी कि इतना सोना आता कहाँ से है, तो मोंतेजुमा ने बताया कि राज्य में कई जगह  सोना मिलता है परन्तु इसके सबसे बड़े स्रोत हैं वहाँ की नदियाँ, जिनके पानी को नमक की तरह सुखाकर उससे सोना निकाला जाता है। कोर्तेज़ ने स्पेनी सिपाहियों को नदियों की ओर दौड़ाया, लेकिन उनमें पानी को सुखाने और रेत को छानने का सब्र कहाँ था? उनके लिए नागरिकों की गर्दन पर तलवार लगाकर उनसे सोना उगलवाना इससे कहीं अधिक आसान था।

इस सारे खजाने को हथियाते हुए भी कोर्तेज़ के लिए स्पेनिश हुकूमत की नज़रों में अपने अभियान को वैध दिखाना बेहद ज़रूरी था। स्पेनी नियम के अनुसार हर अभियान में लूटे गए कुल खज़ाने में से बीस प्रतिशत पर हुकूमत का हक़ बनता था। उधर क्यूबा के स्पेनिश गवर्नर वेलाज़क्वेज़ की नज़र में कोर्तेज़ अब भी एक भगोड़ा था जो वादाखिलाफ़ी कर क्यूबा से मेक्सिको भागा था। स्पेन में बैठी हुकूमत से अपनी साख बनाए रखने के लिए कोर्तेज़ एकाधिक बार खज़ाने में सल्तनत का तथाकथित हिस्सा बताकर कुछ सोना जहाज़ के ज़रिये स्पेन भेजता रहता था। लेकिन मेक्सिको के गवर्नर  वेलाज़क्वेज़ को लगता था कि कोर्तेज़ सिर्फ नाम के लिए ऊँट के मुंह में जीरा डाल रहा है और अधिकाँश लूटा खज़ाना उसने स्वयं के नाम कर लिया है। सोने के  अफीम से सौ गुना अधिक मादक होने वाले रहीम मियाँ के (कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय...) वाले दोहे के अंदाज़ में आखिरकार ईर्ष्या से भरे एक वंचित चोर (वेलाज़क्वेज़) ने  दूसरे मालामाल चोर (कोर्तेज़) से लडऩे के लिए अनुभवी सेना अध्यक्ष नर्वाएज़ के साथ एक हज़ार सशत्र सैनिकों का दस्ता मेक्सिको भेज डाला था।

लेकिन कोर्तेज़ भी कच्ची गोलियां नहीं खेला था। खबर पाते ही उसने तिनोचतितलान का मोर्चा अपने सिपहसालार पेद्रो दे अल्वार्दो को सौंप अपने चुने हुए सिपाहियों के साथ नर्वाएज़ की सेना से मुकाबला करने का फैसला लिया। सेम्पोआला में हुए इस युद्ध में कोर्तेज़ की जीत हुई, नर्वाएज़ बंदी बना लिया गया और उसके शेष सिपाही सोने के लालच में खुशी-खुशी कोर्तेज़ की सेना में जा मिले। तो इस तरह जो युद्ध कोर्तेज़ पर लगाम लगाने के लिए छेड़ा गया था, वही अंतत: उसे अतिरिक्त सिपाही, उनकी बहुमूल्य बंदूकें और असला प्रदान करने वाला साबित हुआ। (राजनीति में कुर्सी के लिए दल बदलने और तीस-तीस, चालीस-चालीस करोड़ों में विधायकों के खरीदे  जाने की समसामयिक घटनाएं शायद मानव इतिहास की उसी परंपरा का एक अपरिहार्य विस्तार हैं।)

इस बीच पीछे तिनोचतितलान में कोर्तेज़ के सिपहसालार पेद्रो दे अल्वार्दो को स्थानीय लोगों में स्पेनियों के खिलाफ एक नए षड्यंत्र की आहटें सुनाई देने लगी थीं। हो सकता है यह उसका वहम हो, पर अल्वार्दो को लगा कि जनमानस पर अपना दबदबा स्थापित करने के लिए चोलुला के नरसंहार जैसा कोई नया कदम उठाना अब ज़रूरी हो गया है।

मई के महीने में अज्टेक निवासी अपना सबसे महत्वपूर्ण तोक्सकात्ल उत्सव मनाते थे। इसमें नृत्य, संगीत, पूजन और नरबालियों के बीच ईश्वर से आने वाले दिनों में अच्छी वर्षा की प्रार्थना की जाती थी। खुद अल्वार्दो ने नरबलियों के अतिरिक्त सभी कार्यक्रमों की अनुमति दे दी थी। लेकिन उसकी योजना कुछ और थी। उत्सव के चौथे दिन, जब शहर के सभी प्रमुख लोगों के बीच सर्प-नृत्य का कार्यक्रम चल रहा था, अल्वार्दों ने बाहर निकलने के सभी रास्ते बंद कर, स्पेनिश और त्लाक्सकाला के कोई एक हज़ार सहयोगी सिपाहियों से मिलकर उत्सव के लिए इक_े हुए तमाम लोगों को बेरहमी से मार-काटने का तांडव शुरू किया। इमारतों की छतों से भी सैनिक निहत्थे लोगों पर गोलों की बरसात कर रहे थे। रंग बिरंगे कपड़ों और पंखों में सजे, हज़ारों लहू-लुहान  स्त्री-पुरुष और बच्चे मार डाले गए। तोक्सकात्ल का यह क़त्ल-ए-आम चोलुला के पिछले नरसंहार से भी कई गुना अधिक वीभत्स और भयानक था।  'फ्लोरेंटाइन कोडेक्स’ के शब्दों में—

''वेराक्रूज़ में इंडीयंस द्वारा मंदिर में भगवान के आगे होने वाली नरबलि को देख स्पेनी सरदार कोर्तेज़ ने वितृष्णा व्यक्त की थी, लेकिन खुद अपने साथी अल्वोराडो और अज्टेक के शत्रु त्लाक्सकलन के साथ मिलकर उसने तोक्सकत्ल मंदिर उत्सव में बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद कर, हज़ारों निहत्थों की निर्मम हत्या में नृशंसता की सारी हदें पार कर दी थी...’’

''...और क़त्ल-ए-आम के बाद लोलुप गोरे सिपाही रंग-बिरंगे कपड़ों और पंखों में खून से लथपथ लाशों से सोने के आभूषण उतारने के लिए छीना-झपटी में जुट गए थे...’’

अल्वार्दो को ग़लतफ़हमी थी कि चोलुला-जनसंहार की तरह तोक्सकात्ल मंदिर के क़त्ल-ए-आम के बाद भी तिनोचतितलान में कोई खास हलचल नहीं होगी। लेकिन इसके विपरीत, पूरा शहर इसके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। नर्वाएज़ को युद्ध में हराने के बाद जब कोर्तेज़ तिनोचतितलान लौटा तो उसने पाया कि सारे शहर में घेराबंदी है और उसके सारे साथी अपने महल में दुबके बैठे हैं। कोर्तेज़ के दबाव देने पर बंदी सम्राट मोंतेजुमा ने जब बाहर निकलकर लोगों से शांत रहने का आग्रह किया तो लोगों ने उसपर पत्थरों और तीरों की बौछार की जिससे वह बेतरह घायल हो गया और अंतत: उन ज़ख्मों पर स्पेनियों द्वारा लाई गैंग्रीन की बीमारी से उसकी मौत हो गयी। मोंतेजुमा की मौत के बाद स्पेनियों के लिए शहर में रहना और कठिन भी हो गया। कोर्तेज़ ने रातों-रात वहाँ से भाग निकलने का फैसला लिया।

अंदाज़ है कि उस समय तक स्पेनियों के पास कोई चार टन सोना और चांदी इकट्ठी हो चुकी थी। हीरे-जवाहरात इससे अलग थे। कोर्तेज़ ने इसमें अपना बीस प्रतिशत और हुकूमत का बीस प्रतिशत हिस्सा निकाल, उसे घोड़ों पर लदवाने के बाद सिपाहियों से कहा कि वे शेष में से  जितना चाहे ले लें। मूर्खों ने जहाँ भारी-भरकम सिल्लियाँ अपने साथ बाँध ली, वहीं समझदारों ने सिर्फ चंद हीरे-जवाहरात से ही संतोष कर लिया। रात के अँधेरे में, त्लाक्सकाला से आए  हमालों की मदद से वे टेक्सकोको झील पर बने गलियारे से शहर छोडऩा चाहते थे, लेकिन पता नहीं कैसे, अज्टेक वासियों को इसकी खबर लग गयी और उनकी उग्र भीड़ ने वहीं उन्हें घेर लिया। सारा सोना झील में फेंकते हुए उन्हें भागना पड़ा लेकिन भारी सिल्लियाँ ढोते हुए कोर्तेज़ के लगभग आधे सिपाही अज्टेकों के हाथों मारे गए। कोर्तेज़ और उसके अधिकाँश निकट साथी किसी तरह बच निकले लेकिन उनके साथ का सारा सोना जाता रहा। मेक्सिको के इतिहास में इस क्षति को 'नोचे त्रिस्ते’ या 'दुखों की रात’ के रूप में जाना जाता है!

अपने मित्र राज्य त्लाक्सकाला में कई महीने गुज़ारने के बाद कोर्तेज़ ने अपनी सेना को पुनर्गठित कर दुबारा तिनोचतितलान पर हमला किया और इस बार वह उसे हारने में कामयाब भी हुआ, जिससे आखिरकार 1521 में विशाल अज्टेक साम्राज्य पर स्पेनियों का कब्ज़ा हो गया। सोने का सुराग पाने के लिए कोर्तेज़ अज्टेक के नए बादशाह को कैद कर उसे न जाने कितनी यातनाएं दीं, लेकिन उस रात खोया गया अधिकाँश सोना उसे फिर वापस नहीं मिला।

कहा जाता है कि तिनोचतितलान के महल पर स्पेनी झंडा लहराने के कई दशकों बाद तक अक्सर कई बदहवास स्पेनी सिपाही टेक्स्कोको झील के उथले पानी को पागलों की तरह खंगालते और मथते देखे जाते रहे, उस खोये हुए खज़ाने की तलाश में...

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बोगोटा के स्वर्ण संग्रहालय के एक कमरे में कांच में बंद दो कटी हुई स्वर्ण हथेलियों को देख हम ठिठक जाते हैं। किसी अज्ञात क्विम्बाया कारीगर द्वारा शताब्दियों पहले तुम्बागा में गढ़ी गयी ये हथेलियाँ इतनी सजीव हैं कि आप अपने हाथ कटवाने वाले की भाग्य (या दुर्भाग्य)  रेखाओं तक को आसानी से पढ़ सकते हैं। तुम्बागा—जिसका सोने में मिला तांबा उसकी उस सुन्दरता को कई गुना बढ़ा देता था, जिससे सोने की अविश्वसनीयता को तोड़ वे हथेलियाँ किसी वास्तविक मजदूर की असली हथेलियों जैसी दिखने लगती थी। लेकिन कला की यह सुन्दरता उन घुड़सवारों के किसी काम की नहीं थी, जो बन्दूक की नोक से उन हथेलियों को  भ_ी में झोंक देते थे, ताकि मेड्रिड का कोई असंस्कृत अल्केमिस्ट उनमें से सोने का अंश निकालकर वहाँ की रानी के खज़ाने में कुछ और इजाफा कर सके!

उन कटी हुई हथेलियों में से अधिकाँश आज नहीं हैं। उन्हें गलाकर सोना निकालने की प्रक्रिया दशकों और शताब्दियों तक चलती रही, जब तक कि आखिरी क्विम्बाया, अज्टेक और इंका हाथ कटवा अपनी ही धरती पर ढेर नहीं हो गया।

इत्तफाक से आप चाहें तो संग्रहालय की उन दोनों आख़िरी हथेलियों को मेरे विश्व संकलन 'सोचो साथ क्या जाएगा’ के नए संस्करण के लातिन अमेरिका खंड के आवरण पर देख सकते हैं। उठी हुई बायीं हथेली मुखपृष्ठ पर, और अपने जाने का संकेत देती दाहिनी हथेली पीछे के कवर पर! 

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(अगले अंक में जारी )

 


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