मुखपृष्ठ पिछले अंक दूसरा मेघदूत
सितम्बर - अक्टूबर : 2020

दूसरा मेघदूत

ममला कालिया

कहानी

 

 

वह दो हज़ार किलोमीटर दूर चली आई थी, एक निरर्थक छुट्टी मनाने। एक जोड़े की शादी की स्वर्णजयंती का आयोजन था। महीने भर तक तरह तरह के उत्सव उनके बच्चों ने रखे हुए थे। पहले दिन एक वृद्ध रस्म में उनका पुनर्विवाह भी करवाया गया। मेंहदी, जयमाला, फेरे सब कुछ हुआ। दूल्हा दुलहन आज्ञाकार माँ बाप की तरह अपने शिथिल चेहरों पर हँसी ला लाकर फोटो खिंचवाते रहे। बच्चों का उत्साह कम ही नहीं हो रहा था। उन्होंने कुछ मेहमानों के साथ दार्जिलिंग जाने का कार्यक्रम रखा। इस ग्रुप में दो डॉक्टर, तीन इंजिनियर तीन कॉरपोरेट मैनेजर और पाँच बच्चे थे। दो जोड़ी माँ बाप थे और एक अदद वह। थी तो वह भी माँ ही पर साल में दो-चार दिन ही माँ की हैसियत से जी पाती।  टिन्नू व्यस्त रहता, कभी देश, कभी विदेश।

समिधा ने अपना मन लगाना सीख लिया था। खूब पढ़ो, इतना कि पढ़ते पढ़ते नींद में लुढक जाओ। लिखो कभी कभी। ज़्यादा दोस्तियाँ नहीं थीं। राजधानी में हो भी नहीं सकतीं थी।

सब एक दूसरे का गला काटने में कसाइयों को मात देते।

कुछ अनाड़ी, अनगढ़ रचनाकार थीं जिनमें प्रतिभा की जगह पराक्रम का घटाटोप था। वे तुरन्त अपनी पांडुलिपि पकड़ा देतीं भूमिका लिखने के लिए। कभी घर आ धमकतीं 'इसे सुनकर अपनी अमूल्य राय दे दीजिए।’ ये सब काम नागवार थे। पर उसके जीवन के अभिशप्त हिस्से थे। ऐसे में उस अनजान युवक से यकायक हुई पहचान ने उसके कई जमे पानियों को हिलाकर रख दिया। न वह उसका प्रशंसक था न आलोचक। वे जैसे अलग अलग दुनिया से आते थे।

वह यानी श्यामल बैंक में काम करता था और महीने के दूसरे और चौथे शनिवार को किसी न किसी पार्टी या जलसे की एन्करिंग करता। अगर गायक की साँस कभी फूलने लगे तो वह गाना भी सुनाकर जलसा संभाल लेता। थोड़ा वक्त वह रंगमंच को देता। उसकी भूमिका निर्धारित नहीं थी लेकिन उसकी याददाश्त इतनी तेज़ थी कि समूचा नाटक उसे याद हो जाता। अक्सर उसे प्रॉम्पटर बना दिया जाता। कभी कोई अभिनेता बीमार पड़ जाता तो उसे उसकी जगह रख लिया जाता। वह थिएटर और जलसों की दुनिया में कभी नहीं जताता कि उसके पास एक मुकम्मल नौकरी है।

वह नौकरी को उतने नम्बर नहीं देता था।

नौकरी में ही उसने ऑफिस की एक लड़की के साथ शादी कर ली थी।

जैसे उसके सब काम यकायक हुए, शादी भी यकायक हुई थी। हफ्ते भर की पहचान और वॉट्सएप चैट की बिना पर। चैट के दौरान उसे पता चला वह अपने ही ऑफिस की समता सिंह से बात कर रहा है। उसे सोचना पड़ा यह कौन हो सकती है।

दफ्तर में इतनी लड़कियाँ काम करती थीं कि इसे आसानी से महिला शाखा कहा जा सकता था।

दफ्तर के पास इस्कॉन मंदिर था। वहाँ फूलों से सुवासित वातावरण में कृष्णभक्तों ने नाच नाच कर उनके विवाह की रस्में करवाईं और नोटरी को बुलाकर ब्याह पर मुहर भी लगवा दी। छह महीने शादी का उल्लास और मधुमास रखा। एक दिन, शायद वह शनिवार था, उनका झगड़ा हो गया। झगड़ा सुबह शुरू हुआ और रात तक खिंचता चला गया। समता सिंह ने सिंहनी की तरह गरज कर कहा, 'तुम आखिर हो क्या। अपने को क्या समझते हो। तुम कमाते हो तो मैं भी कमाती हूँ। उसके बाद घर में खटती हूँ। तुम थिएटर के आवारा दोस्तों के साथ मज़े उड़ाते हो!’

श्यामल धक् से सुनता रहा कि देखता रहा ध्वस्त होते अपनी दुनिया का ताशमहल। उसके शब्द नि:शब्द हो गए। वैसे भी उसकी आदत थी। वह गुस्से में खामोश हो जाता था। दूसरा जब अपना पूरा लावा मुंह से निकाल देता वह जली हुई ज़मीन की तरह किस्तों में अपनी खलिश निकालता। समता ने आगे कहा, 'तुम्हारी खामोशी का मतलब है ये सारी बातें सच हैं। मुझे हैरानी है ऐसे असभ्य आदमी से मेरी शादी हो गई।’ श्यामल सन्न रह गया। चैटिंग के उस एक हफ्ते ने उसकी दुनिया बरबाद कर दी। वह ऐसा था कि उसके अन्दर कोई न कोई धुन बजती रहती थी। किसी नाटक के संवाद गूंजते रहते। उसके पास संगीत का बहुल सन्दूक था। उसके पास प्राचीन चित्रों का अलबम था। वह बैंक में नौकरी करता था लेकिन उसके अन्दर आँकड़े नहीं भरे थे। वह नौकरी और शौक दोनों को सँभाल सकता था। श्यामल की दिलचस्पियों में समता की विषैली बातों से उसका मन मुरझा गया। वह बिस्तर पर उलटी करवट लेट कर सोने की कोशिश करने लगा. समता रात ग्यारह बजे कमरे में आई। बिजली बन्द कर वह बिस्तर पर लेटी। बड़े अधिकार के साथ उसने श्यामल की पीठ पर हाथ रखा। श्यामल तड़प कर उठ गया।

समता ने फिर एक विष बुझा तीर चलाया, 'पति-पत्नी बिस्तर में नाराज़ नहीं रहतें।’

श्यामल अपना तकिया उठाकर पास पड़े दीवान पर चला गया। देर तक नींद नहीं आई। उसे लगा समता उसे चाभी वाला पुतला समझती है। समता भी उसे मनाने नहीं आई। सो गई।

श्यामल को नींद नहीं आई। यकायक उसका मोबाइल झनझनाया। उसने देखा, वाट्सएप मैसेज था। भेजने वाली कोई समिधा, 'कवि गोष्ठी में तुम्हारे शेरों ने समां बांध दिया।’

श्यामल के अंदर जैसे जान पड़ गई। उसका कलाकार मन लहरा उठा। उसने शुक्रिया कहा और परिचय पूछा। पता चला वह भी लिखती है। श्यामल ने गूगल पर खोजा तो उसकी तस्वीर के साथ सारे विवरण मिल गए। कई पुस्तकों की लेखिका, अध्यापक।

उस रात बस इतना सा संवाद रहा। सराहना और आभार।

समता ने अनबोला रखा श्यामल से। दोनों तैयार होकर काम पर चले गए। अक्सर एक स्कूटर पर साथ जाते थे। आज समता ने ओला कैब बुलाई और गई।

दफ्तर में था कि दिल्ली से एक गीत संगीत की शाम की एन्करिंग करने का निमंत्रण मिला। वे मज़े का मानदेय और इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर में आवास की सुविधा के साथ हवाई यात्रा का टिकट देने को तैयार थे। श्यामल ने हाँ कर दी। यही तो उसके जीवन के उल्लास बिन्दु थे। उसे चैट के दौरान ही पता चला कि समिधा दिल्ली में रहती है। उसके अन्दर थोड़ा अतिरिक्त उत्साह बना फिर बैठ गया। वॉट्सएप की पहचान मीठी की जगह तीखी भी निकल सकती है। समता सिंह इसका सजीव प्रमाण थी। फिर भी इस दुनिया को वह खारिज नहीं कर पाया था। इन्हीं आभासी कदमों से चल कर उसकी दुनिया में अनेक मित्र-हितू आए थे। डोर से डोर बँधती गई थी। उसकी मित्र संख्या तीन हज़ार से ऊपर थी।

रात उसने वॉट्सएप पर पूछा, 'जब मैं दिल्ली आऊँगा तुम मिलोगी?’

समिधा ने कहा, 'अगर तुम चाहो?’

'मैं चाहूँगा’

'क्या, मिलना या न?’

'मिलना।’

'कहाँ?’

'उत्सव में, उसके बाद।’

'अच्छा निमंत्रण भेजना।’

किसी दूसरे शहर में जाना तब तक तबालत लगता है जब तक सब वहां अपरिचित हों। यहां तो आयोजक भी अपरिचित हों। अब एक परिचय का नाम जुड़ा : समिघा।

यह कैसा नाम रखा है इसके माता-पिता ने, श्यामल ने सोचा। जीतेजी, जानबूझकर कोई अपनी बच्ची का यह नाम रख सकता है। हवन में, होम होने वाली समिघा। क्या माता-पिता ने उसके जीवन का अंत चाहा था। कुछ और विचार करने पर श्यामल को लगा हो सकता है यह उसका उपनाम हो। आत्मदया के किसी क्षण में रखा होगा यह उपनाम। प्यार में धोखा खाने पर भी रख सकती है कोई लड़की यह उपनाम। श्यामल को लगा, हो न हो यही हुआ होगा। लड़का कुछ दिन प्रेम जता कर चला गया होगा आदर्श विवाह करने और यह ज़न्दगी के मेले में अकेली रह गई है। उसने बैंक में देखा था जो लड़कियाँ पांच साल पहले खिली खिली लगती थी अब बालों में मेहंदी या हेयर डाई लगाने लगी थीं, उनके चेहरे का ताज़गी दिन पर दिन कम होती जाती थी जबकि फेयर एंड लवली क्रीम की बिक्री दिनों दिन बढ़ रही थी।

समिधा का व्यक्तित्व किसी परिभाषा में बांधा जाना मुश्किल था। शादी हुई थी, बच्चा भी हुआ पर घर नहीं बसा। टिन्नू, तन्मय के पैदा हाने के बाद से ही वरुण दूर होते होते सुदूर हो गया। अब समिधा के पास अधूरे सपनों, इरादों का अम्बार था जो लिखने में काम ज़्यादा आता, जीने के कम। एक बड़े से घर में वह एकल छूट गई थी। उसके समय का इस्तेमाल पढऩे लिखने, दोस्तों से बात करने और रात दस बजे के बाद फोन पर चैटिंग में व्यतीत होता। उसका मन हम उम्र लोगों में नहीं लगता। उसके पास अक्सर शोध छात्र-छात्राओं, युवा पाठकों और लेखकों का आना जाना रहता। उन्हें जानना, समझना उसे ऊर्जा देता।

श्यामल की बातों से उसे उसके भावगत एकाकीपन की झलक मिली थी। उसे दुख हुआ कि इतनी रचनात्मक आयु में उसे जीवन की सामान्य खुशियों से वंचित रहना पड़ रहा है। समिधा के लिए पर जानकारी हर बार एक धक्के की तरह आती कि लोग शादी करने के बाद ज़्यादा अवसादग्रस्त और एकाकी हो जाते हैं। कहीं पति, पत्नी का भावजगत समझने में लापरवाही करता है तो कहीं पत्नी जीवन के गद्य में गहरे धंस कर रिश्तों का रिद्म भूल जाती है।

गीत-संध्या पर वह गहरी उत्कंठा और उत्साह से गई। थोड़ी देर हो गई थी लेकिन आयोजक उसे पहचानते थे। उन्होंने उसे पहली पंक्ति में बैठाया। मंच पर श्यामल की गहरी आवाज़ में गूँज रहा था कलाकार जीत साहनी का परिचय और कार्य विवरण। बीच-बीच में श्यामल के क्षेपक दर्शकों को हंसा रहे थे। इस वक्त के श्यामल को देख कर यह कहना मुश्किल था कि क्या यह वही व्यक्ति है जो रात को अपनी हताशा, हतोत्साह और आहत अभिमान के प्रकरण सुनाता है। दरअसल रात के अंधेरे में हम निष्कवच होते हैं। दिन की दैनिकता हमें सिर्फ कपड़े ही नहीं पहनाती कर्म-भूमिका भी ओढ़ाती है। दिन की समिधा भी ऐेसी ही थी, व्यस्त, विचार सम्पन्न और वाचा। दिन का श्यामल था स्मार्ट, हाज़रजवाब और हँसमुख।

उत्सव के बाद वे मिले डिनर पर। श्यामल आकर पहलू में बैठ गया। उसे यदि समिधा को देख कोई धक्का लगा तो उसने ज़ाहिर नहीं किया। सहज भाव से हाथ पकड़ कर उसने अभिवादन किया। ताज्जुब यह कि जो रिश्ता रातों की चैट में आप से तुम और तू तक पहुँच चुका था, वापस आप पर आ गया।

'आप थोड़ा मटर पनीर और लें।’

'मैं पनीर नहीं खाती।’

'आपके लिए स्वीट डिश ले कर आऊँ?’

'मैं मीठा नहीं खाती।’

श्यामल को लगा समधिा के पास 'नहीं’ की एक लम्बी सूची है जिसे जानने के लिए यह मुख्तसर सी मुलाकात नाकाफी है।

श्यामल से आकर लोग हाथ मिलाते रहे। उसे शाम की सफलता का श्रेय देते रहे। किसी ने कहा, 'जीत साहनी को तो हम रेडियो, यू ट्यूब पर भी सुन लेते हैं, आपकी खूबसूरत आवाज़ आज पहली बार सुनीं।’

श्यामल ज़रा खाली हुआ तो समिधा ने पूछा,

'कॉफी पीने चलोगे?’

'मैं कॉफी नहीं पीता। चाय पीता हूँ, गहरे गोल्डन कलर की। बिना दूध चीनी।’

'ठीक है तुम चाय पीना, मैं कॉफी। लेकिन यहाँ नहीं, कहीं और।’

'मैं यहाँ की जगहें नहीं जानता समिधा।’

'मैं जानती।’

'तू सब जानती।’ जब श्यामल के मुँह से यकायक यह निकला, दोनों के बीच की सारी बर्फ एकबारगी पिघल गई। वे हँसने लगे जैसे रात, फोन पर हँसते थे, बेबात, बेहिसाब।

'क्लेरिजेज़’ में चाय बहुत खूबसूरती से पेश की गई, धातु की टी-पॉट, सिरेमिक के चित्रित प्याले। लेकिन श्यामल ने कहा, 'मैं पारदर्शी प्याले में चाय पीता हूँ। चाय देखने और चखने का सुख साथ लेता हूँ।’

वेटर को समझाया गया। वह मुस्तैदी से पारदर्शी प्याला ले आया लेकिन उसमें हल्की भूरी छांह थी।

'यह भी मेरा प्याला नहीं है।’

'चलो आज इसी में पी लो।’

समिधा की मनुहार उसे अच्छी लगी। आधी रात तक वे घूमते रहे कार में। समिधा ने उसे काफी दिल्ली दिखा दीं।

ऐसी ही छिटपुट मुलाकातें थीं उनकी। कभी समिधा किसी गोष्ठी में इन्दौर गई, कभी श्यामल किसी कार्यक्रम के सिलसिले मे दिल्ली आया। न मिले हों ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। हाथ में थमा मोबाइल झनझना उठता 'कहाँ हो? त्रिवेणी पहुँचे। आठ बजे फुरसत हो जायेगी।’

दोनों के मन में एक दूसरे के लिए गहरी जिज्ञासा थी। अनुभव के कई वातायन अभी खुले नहीं थे। अनुमान के छोटे छोटे जलाशय थे। वे जब मिलते, निजी की जगह साहित्यिक बातों में समय बिताते। ऐेसे नाजुक मोड़ पर इस दोस्ती को टिकाकर समिधा यहाँ दार्जिलिंग आ गई थी बेटे के बुलावे पर।

एक तरह से वह अपने विस्तृत परिवार से पहली बार मिल रही थी। नहीं, दूसरी बार। पहली बार बेटे की शादी पर मिले थे। लेकिन समिधा को सभी चेहरे भूल गए थे। उसने पाया वर्मा साहब की कमर ज़्यादा झुक गई और मिसेज़ वर्मा के कई दाँतों के ऊपर कैप लग गई है। उसे उफसोस हुआ इतना वक्त बीत गया। इनसे समय समय पर वह कितनी बातें कर सकती थी। इनके अन्य बच्चे भी आए हुए थे। सब उच्च शिक्षित थे, सभी महत्व के कामों में लगे हुए थे। उसने अपने सम्बन्धियों से कोई साबका नहीं रखा था।

समिधा कल्पना के चरित्र बनाकर उनमें जान डालती रही। असल जीवन के चरित्र उससे दूर रहे। इनसे बात करना जैसे नए सिरे से परिचय करना था। सबके बच्चे बड़े और कामयाब होकर देश विदेश में जम चुके थे। उनकी शादियाँ हो गई थीं। एक दो को छोड़ कर सभी जोड़ों के यहाँ छोटे बच्चे भी आ गए थे।

कुछ तो दिल्ली में ही रहते थे।

लेकिन दिल्ली इतनी फैली हुई थी कि वहाँ मिलने के वादे केवल तोडऩे के लिए किए जाते।

दार्जिलिंग की जीवनदायी हरियाली सबके ऊपर अलग प्रभाव छोड़ रही थी। तापमान 19 सेंटीग्रेड था, न बहुत ठंडा न गरम। नरम मौसम। स्वच्छ हवा। यहां के लोग ठमके कद के ठस कर बने हुए। इनकी निश्छल मुस्कानें मन मोह लेंती। लामाहट्टा रेज़डेन्सी के विशाल परिसर में लकड़ी का कलात्मक प्रयोग था। दरवाज़ों से लेकर पार्टिशन तक सब सुरुचिपूर्ण था। सबसे सुन्दर था कॉमन रूम जिले डाइनिंग हॉल की तरह काम में लाया जा रहा था। यहाँ टीवी हमेशा चलता रहता। एक कमरे में, बगल में ही बार था और दूसरी तरफ रसोई। हर बरामदे में सीढिय़ों पर नायाब पौधे लगे हुए थे। सड़क पार चीड़ के विशाल तने कतार में खड़े थे। इस टूरिस्ट होम को चलाने वाला मैनेजर विनय खुद स्वागत कक्ष में खड़ा हो कर मेहमानों की आवभगत करता। हर फरमाइश को पूरी करने में अपनी सारी ताकत झोंक देता। सैलानी थके हाल आते। यहाँ के गरम पानी से नहाते, ताजा भोजन खाने से एक बार फिर जोश से भर जाते और चल देते, कोई कलिम्पाँग देखने तो कोई ज़ूओलॉजिकल पार्क घूमने।

समिधा ने दोस्तों का हालचाल लेने के लिए फोन देखा तो मायूस हो गई। यहाँ वॉट्सएप, फेसबुक कुछ नहीं चल रहा था। उसने दो एक फोन करने की कोशिश की। न वोडाफोन काम आया न एयरटेल। जबकि अभी कल दार्जिलिंग सीमा में पहुँचते ही सबसे पहला संदेश वोडाफोन का ही चमका था, 'वेलकम टु दार्जिलिंग इन वैस्ट बंगाल।’ कुछ देर की निष्फल कोशिशों के बाद उसे विनय से पूछा, 'यहाँ का वाइफाई पासवर्ड क्या है।’

उसने साफ़ कह दिया, 'होटल में कोई इंटरनेट नहीं है। आप घूमने आए हैं। घूमने का आनंद लीजिए।’ ओफ कोई कितना घूम सकता है। ऊंचे से ऊंचे पार्क में घूम कर वे सब वापस अपने ठिकाने आ गए। ताश के कई राउंड हो गए। एन्ड्रॉयड से बच्चों ने 'टैबू’ और 'कैन्डीक्रश सागा’ खेल लिया। दो बार चाय पी। घर से लाई मठरियाँ खाईं पर वक्त था कि काटे नहीं कट रहा था, बल्कि काटने दौड़ रहा था।

इस ग्रुप के सभी सदस्य पैदाइशी सज्जन थे जिनका, सिगरेट, सुरा और सामिष-भोजन से कोई सम्बन्ध नहीं था। माँ बापों का अनुशासन इतना सम्पूर्ण था कि विदेश से आए बेटे बेटी भी बैठे वेजिटेबिल सूप पीते रहते। क्या मजाल जो कोई बार तक चला जाये।  बार रूम 'सा$की’ से बीच बीच में कहकहे सुनाई देते; वेटर कबाब और फिशफ्राय की भुनी हुई सुगन्ध वाली प्लेटें वहाँ पहुंचाता रहता लेकिन समिधा का ग्रुप भिण्डी और दाल फ्रॉय से प्रसन्न-मन भोजन कर लेता।

समिधा के लिए यह तय करना मुश्किल था कि यह जीवन ज़्यादा उबाऊ था या दिल्ली का जीवन। यह सच था यहाँ वह समूह में अकेली थी और दिल्ली में एकांत में समूह के साथ। साथी और युवतर रचनाकारों की गतिविधियों की नवीनतम जानकारी में ऊर्जा थी और उमंग। ऊपर से रात दस बजे के बाद के दुआ सलामों की अपनी खासियत थी। उनमें सबका सर्वश्रेष्ठ व्यक्त होता। मीर और $गालिब, फैज़ और फिराक़ स्क्रीन पर आ जाते। पुराने गानों से अपनी बात सजाई जाती। बीते समय को ऐसे आवाज़ दी जाती जैसे वह वाकई लौट रहा है।

श्यामल आधी रात में फोन करता। समिधा धीमे से एतराज़ करती, 'इतनी रात में क्या याद आ गया। आस पास के फ्लैटों तक आवाज़ जाती है, लोग क्या सोचेंगे।’

श्यामल कहता, 'सोचने दो उन ठस्स लोगों को।

तुम मुझ तक आओ।’

'बोल रही हूँ।’

'अजनबी की तरह नहीं।’

'और कैसे बोलूं। तुम्हें पता है यह मेरे लिखने पढऩे का समय है।’

'लेकिन मेरा यह संवाद-समय है। दिन में मैं बुझा और बुझा रहता हूँ।’

'देखो नींद की गोली तो आती है, जागने की कोई गोली नहीं आती।’

'तुम्हारा सुर अलग है। जाता हूँ।’

फोन बन्द हो जाता।

समिधा को उधेड़बुन में छोड़ जाता।

इतनी रात में श्यामल क्या कहना चाहता था। कोई संकट तो नहीं उस पर।

बहुत लम्बे अंतराल के बाद एक दिन नौ बजे रात उसका फोन आया।

'हाँ यह ठीक समय है। बोलो श्यामल।’ समिधा ने कहा।

'मुझे सिर्फ यह बताना है कि रात दस बजे तक संसार मुझे नहीं छोड़ता और ग्यारह बजे मैं आवारा हो जाता हूँ। जो मर्जी करता हूँ, पढऩा, लिखना, संगीत का आनंद लेना, दोस्तों से बातें।’

'सोते कब हो।’

'मेरी लय मत तोड़ो तुम। हम कलाकार हैं। हमारे ऊपर कैले्रन्डर और टाइमटेबिल के नियम लागू नहीं होते। हम जैसे मर्ज़ी जिये।

'इससे अराजकता नहीं फैलेगी?’

'तुम लेखक हो, लेखक की तरह बात करो, पुलिस सिपाही की तरह नहीं।’

'अच्छा बोलो।’

'यह कविता पढ़ो- ‘ फोन बन्द हो गया। समिधा वाट्सएप पर गई।  स्क्रीन पर देर तक टाइमिंग लिखा आता रहा। और आखिरकार जब खुला तो समिधा दंग रह गई। यह उसी की कविता थी जो कविताई के दिनों में लिखी गई थी। तब जीवन आज जैसा गद्यात्मक नहीं था। हर बात में एक लच बनती थी, देखने में, महसूस करने में, कल्पना करने में। याद नहीं उसकी जिसे देख यह लिखी गई मगर यह याद है कि बड़ी शिद्दत से लिखी थी, एक साँस में, जिसका शीर्षक था 'अपरिचित से प्रेम’ और जिसकी सिर्फ अंतिम पंक्तियाँ उसे याद रह गई थीं।

'पता नहीं क्यों मुझे लगता है

तुम मेरे अनुमानों से भी ज़्यादा अच्छे हो।’

गहरी उदासी छा गई समिधा के मन पर। कहानी की नहीं कविताओं का उद्गम भी यही रही। यह कहीं कोई अच्छा लगा उसे पा सकने का कोई जतन, नहीं किया। उसे अपनी डायरी में उतार लिया रेशमी डोर में बाँध। जीव वही निल बटा सन्नाटा और रचनाएं मालामाल। वह अपनी ज़न्दगी की पाण्डुलिपी नहीं संभाल पाई।

श्यामल की बातें थोड़ी देर उसका मान बाँधती लेकिन फोन बन्द होते ही कमरे का भाँय भाँय सन्नाटा उसे साबुत निगल लेता।

दार्जिलिंग में दिल्ली वाले कमरे का सन्नाटा तो नहीं था पर दिनचर्या टूटफूट गई थी।

लामाट्टा की ऊँचाई पर बसे इस गुलाबी छुट्टीघर में उनके ग्रुप के सभी लोग जोड़े से बैठे थे। बूढ़े होते हुए जोड़े भी यहाँ आकर जवान बन गए थे। बारिश कई घण्टों से हो रही थी। तापमान गिरते गिरते 12 डिग्री पर पहुँच गया। सबने आवाज़ उठाई, 'फायरप्लेस में लकड़ी जलाई जाय’

विनय ने इंटरकॉम पर कुछ बातचीत की. थोड़ी देर में प्रिया ने पीठ पर चौड़ी पट्टी के सहारे लकडिय़ां ढोकर फायरप्लेस के आगे रख दीं। बच्चों में होड लगने लगी। 'मैं फायर प्लेस में लकड़ी लगाऊंगा।’ 'मुझे लगानी हैं।’

प्रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, 'तुमसे नहीं होगा। मैं करती।’

उसके चोगे की लम्बी जेब में छोटी खपच्चियाँ और माचिस थीं। उसने फुरती से फायरप्लेस सजा कर चिनगारी लगा दी। बैठक के बाहर वाली जगह में एक गोल छेद था, ढक्कन से ढका हुआ। प्रिया ने उस ढक्कन को हटा दिया। फायरप्लेस का धुआँ वहाँ से निकलने लगा।

कुछ ही देर में कमरा गरम होने लगा। फायरप्लेस की जह से अपनी कुर्सी सरकाने की ज़रूरत पड़ गई। बच्चे समिधा से कहने लगे, 'आंटी हमें पता है आप कहानी लिखती हो, हमें आज कहानी सुनाओ प्लीज़।’ बच्चों से घिरना सुखद लगा उसे। साथ ही उसे शर्मिन्दगी भी हुई कि उसने बच्चों के लायक कोई कहानी अब तक नहीं लिखी। बच्चों की उम्र 6 से 16 साल थी। ऐसी कहानी सुनाना तो सब बच्चों को दिलचस्प लगे, एक चुनौती था। बच्चों के दिमाग डोरेयमॉन अऔर डिस्ने चैनल में भरे हुए थे।

'अच्छा मिकि तुम बताओ तुम हीरो की कहानी सुनना चाहते हो या विलेन की।’

विकी ने पूछा, 'विलेन क्या होता है।’ छह साल के विकी को क्या बता विलेन उर्फ खलनायक क्या होता है।

समिधा ने उसे समझाया, 'टॉम एंड जैरी’ में जो टॉम है वह विलेन है।’

'हमको विलेन नहीं चाहिए। आंटी आप हीरो की कहानी सुनाओ।’

समिधा की आशु परीक्षा हो गई। गलिवर की यात्राओं का जितना हिस्सा याद आया वह उसने तोड़ा फेरबदल कर सुना दिया।

यह कहानी बच्चों को पसन्द आई। वे कल्पना करने लगे कि लिलिपुट के रहन ेवाले इतने छोटे होने पर भी कैसे गलिवर पर हावी हो गए।

खाने के बाद गरम पानी पीने की इच्छा से समिधा ने रसोईघर के दरवाज़े के कांच से झांका। एक स्टूल पर बैठी प्रिया कुछ बुन रही थी। सिलेटी ऊन का गोला उसकी गोदी में पड़ा था और उसकी उँगलियाँ सलाइयों पर चल रही थीं। हालाँकि रसोई के दरवाज़े पर लिखा था 'नो एडमिशन’ समिधा दरवाज़ा धकेल कर अन्दर चली गई।

प्रिया चौंक कर खड़ी हो गई।

'थोड़ा गरम पानी मिलेगा क्या?’ समिधा ने कहा।

'पीने वाला?’ प्रिया ने पूछा।

'हाँ।’

'आप चलो कमरे में। लेकर आती मैं।’ उसने कहा।

ठिठक कर पूछा, 'क्या बुन रही हो?’

'उनके लिए मोज़े। उधर बॉर्डर पर बरफ़ पड़ती।’

'तुम्हारे पति बॉर्डर पर हैं?’ मैंने अचरज से पूछा।

चूल्हे की आँच में प्रिया का चेहरा नारंगी दिख रहा था। उसने गर्दन हिलाई।

'क्या करते हैं? पूछते ही अपने सवाल पर शर्म आई समिधा को। ज़ाहिर है 'गोरखा रैजिमेन्ट में फौजी होगा।

'कब से गए हैं’।

प्रिया नज़रें चुरा कर बोली, 'इधर शादी बनाया।

'उधर ऑर्डर आ गया। दो महीना भी नहीं बिताया छुट्टी पर।’

'तब से अकेली हो?’ 'नई, घर में मम्मी, बहन और भाई है।’

'क्या करते सब लोग?’

'मम्मी चाय बागान में काम करती। भाई स्कूल पढ़ता। मैं इधर रिसोर्ट में।’

'पढऩा जानती।’

'थोड़ा भूल गई। सातवीं तक पढ़ी थी।’

'क्या नाम है तुम्हारे पति का? कभी फोन आता!’

मैं सब कुछ जानना चाहती थी इस भोला भाली प्रिया के बारे में।

'फोन लगताई नईं जल्दी। मैं हलो हलो करती रह जाती।’

'उसका नाम नहीं बताया तुमने?’

'दानसिंह। सब उसको दानी बोलते।’

प्रिया ने कमरे से जूठे ग्लास समेटे और जाने को तत्पर हुई।

मैंने एक और सवाल कर डाला, 'प्रिया तुमको डर नहीं लगता कि तुम्हारा दानी बहुत दूर है। कहीं तुमको भूल गया हो?’

प्रिया का चेहरा लाल पड़ गया, 'कैसी बात बोलती मैडम। कैसे भूलेगा? मेरा आदमी मेरे ही पास आयेगा। दो साल, तीन साल, जब भी छुट्टी मिलेगा, सबसे पहले इधर ई आयेगा। मेरा बड़ा भाई सात साल बाद घर आया था। सब बोलते थे भाभी का दूसरा शादी बना दो। वह नहीं माना। आखिर में एक दिन वह आया न। उसका हाथ टूट गया था। इससे क्या। बाकी जान तो साबुत था। अभी स्टोर खोल के बैठा है।’

ट्रे उठाकर प्रिया चली गई। समिधा उसके विश्वास पर विस्मित विमुग्ध थी। नेटवर्क न मिलने के कारण उसका अपने सब नए पुराने दोस्तों से नाता टूटा हुआ था। उसे बार बार लग रहा था, उसके सारे दोस्त उसे भूल चुके होंगे। उनकी आपस में चुहल चल रही होगी, महफिलें सज रही होंगे, जब तक वह वापस जायेगी, सब उसे टोली-बाहर कर चुके होंगे।

उसका नया दोस्त श्यामल तो एकदम भूल चुका होगा उसे। वह ऐसे पेशे में है जहाँ रोज़ नए दोस्त और सम्पर्क बनते हैं। वह बातों का रसिया है। पर बेहद मूडी। कभी मिनिट पर फोन खनखना देता है तो कभी एकदम मौन। ऐसा गायब होता है जैसे कभी था ही नहीं। उसका सवाक रहना समिधा में जीवन डालता है, उसके मन का सन्नाटा टूटता है। उसे अच्छा लगता है जब वह कहीं बाहर होती है। उसका फोन पर्स में और पर्स गोद में होता है। यकायक फोन का स्पन्दन उसके सर्वांग को झनझना जाता है। कई बार फोन निस्पंद पड़ा रहता है। तब समिधा उसे पर्स से निकालकर उलट पुलट कर देखती है कि वह खराब तो नहीं हो गया।

समिधा ज़्यादातर फोन नहीं करती। उसे संकोच लगता। वह मुखापेक्षी बनने से कतराती। वह वाट्सएप से काम चलाती। वॉट्सएप को उसने छोटा नाम दिया था। वैप। वह श्यामल को वैप करती देर शाम को नौ बजे के बाद। एक टिक का निशान मोबाइल के स्क्रीन पर आता। वह उसे टकटकी बाँद कर देखतीं रहती। सारे काम छोड़ कर। फिर दो टिक आ जाते लेकिन दोनो काले। इसका मतलब वैप पहुँचा, उसने अभी नहीं देखा। अभी वह अपने मोबाइल से दूर है। अभी जब वह देखेगा ये दोों टिक हुए हो जायेंगे। होंगे, होंगे, होंगे। वह देर तक शून्य में देखती रहती। आँखों को रोशनी चुमने लगती। वह कमरे में अँधेरा करती।

अब हरे निशौन साफ़ दिखेंगे।

उफ़ रात बीती जा रही है। वह कब फोन के पास लौटेगा।

या कहीं और है।

मोबाइल कमरे में छोड़ गया है।

उसे अपनी बेचैनी पर हैरानगी होती। ऐसी तडफ़ड़ तो कभी सोलवें साल में भी नहीं हुई जैसी अब है।

श्यामल तो मस्त होगा अपने शो में। आलम यह है कि समिधा सात बजे वॉट्सएप करेगी तो जवाब मिल जाएगा लेकिन सात पाँच पर गोल। एक घण्टे के बाद फिर स्क्रीन पर चमकेगा 'हलो’ समिधा झट से फोन उठाएगी, शिकायत करेगी, 'कहाँ उड़ जाते हो।’ श्यामल हँसेगा 'तुम्हें क्या लगा?’ वह कहता है, 'शो सँभाल रहा था। एक कलाकार नहीं आया। इसलिए लम्बी एंकरिंग करनी पड़ी। आधे से ज्यादा मेहनत तो मुझे पड़ जाती है।’ कसमसा कर रह गई समिधा। यह मिनिट, पाँच मिनिट के कट्स उसे अपने मन मस्तिष्क पर खरोंचो की तरह लगते। वह सोचती, ऐसा टुकड़ा टुकड़ा संवाद सिर्फ एक एंकर बोल और झेल सकता है, एक नॉर्मल इन्सान तो कभी नहीं। यह टुकड़ा संग-साथ जिसे वह क्या नाम दे, दोस्ती या कटपीस परिचय। आभासी सम्बन्ध जो एक क्लिक पर है या नहीं है। लेकिन जब वह वापस फोन पर आता है तो उतना ही तरल और तन्मय होता है जितना पहले।

उसकी फिक्र शुरू कर देता, 'अकेली हो?’

'हम्म’

'कहीं जाना तो नहीं है?’

'बैंक जाना था।’

'अरे किसी को साथ ले जाओ।’

'कौन जाएगा श्यामल?’

'मेड को ले लो। दिल्ली की सड़कें जानलेवा हैं।’

समिधा का मन भर आता। किसी को उसकी सलामती की फिक्र है। कोई उसके बारे में छोटी छोटी बातें जानना चाहता है।

'तुमने खाना खा लिया?’

'आज क्या पढ़ा?’

'कल क्या लिखा?’

'क्या आज गला खराब है?’

समिधा विस्मय से सोचती, उसके बारे में ऐसे फिक्र भरे सवाल तो टिन्नू भी नहीं करता वह बस पता कर लेता कि विधा दोनों वक्त खाना बनाने आ रही है या नहीं। टिन्नू की सब चिन्ताएं, हिदायतों की शक्ल में आतीं।

'कहीं आपने कड़वा बोल कर उसे भगा तो नहीं दिया?’

'कहीं धूप में घंटाघर जाने की बेवकूफी तो नहीं करतीं?’

'रात बारह बजे तक ऑन लाइन क्या करती रहती हो माँ?’

जैसे आदर्श सवाल हैं बेटे के पास, वैसे ही आदर्श उत्तर हैं समिधा के पास।

वह पूरी उत्तर पुस्तिका पर 'सही’ का निशान लगाकर लौटा देती।

महीना बीतने तक छुट्टी समूह के सभी साथियों के चेहरों पर ऊब की थकान दिखने लगी। सबने एकदिन लामाहट्टा के बौद्ध मठ में जाकर खरीदारी की; गौतम बुद्ध की छोटी कांस्य प्रतिमाएँ, पंखे, छतरियाँ, चाभी के छल्ले और घंटियाँ। हर वस्तु पर बुद्ध की छाप। समिधा ने पाया, बुद्ध की मुखमुद्रा देकने मात्र से शांति का अनुभव होता है। इसका सीधा सम्बन्ध उसे दिखाई दिया पहाड़ के निवासियों की मुख-मुद्रा से। सब कितने धीर-गम्भीर शांत-प्रशांत लगते हैं। योगी वेश में छोटे छोटे बटुक भी चंचलता से परे, अपनी भाषा में बोलते हैं और निर्विकार मुद्रा में चीज़ों के दाम कैशबॉक्स डाल देते हैं।

जिस सुबह हमारी तीनों गाडिय़ों पर सामान लादा गया, मौसम और भी सुहाना हो गया। हल्की फुहार चकाचक बारिश में तबदील हो गई। हमारे हैंड लामा थानबहादुर ने कहा, 'दस पन्द्रह मिनट रुक जाइए, तभी चलते हैं।’

हमें बारिश देखना अच्छा लग रहा था। हरे पत्ते और ज्यादा हरे और पीले फूल और ज़्यादा पीले लगने लगे। लामा और ड्राइवरों ने बीड़ी सुलगा ली। तभी प्रिया काही रंग के बक्खु से लिपटी, हाथ में बड़ी सी पीली केतली लेकर आई, 'साब, चाय पीकर जाइए। मसाला चाय बनाई है।’ प्रिया के पीछे छोटू के हाथ में चाय के प्याले और मोमो से भरी ट्रे थी। बड़े और बच्चे सब गरमागरम मोमो पर टू पड़े। यहां पहले भी बहुत बार मोमो खाये लेकिन आज इनमें ज़्यादा रस और स्वाद था। चाय में दालचीनी और बड़ी इलायची की खुशबू थी।

समिधा ने धीरे से प्रिया के हाथ में सौ का नोट पकड़ाना चाहा।

प्रिया पीछे हट गई, 'नईं मैडम, मैं टिप नहीं लेती, कब्बी नईं लिया।’

समिधा ने कहा, 'टिप नहीं, हमारी याद समझो, रख लो।’

प्रिया पास आकर बोली, 'मैडम एक बात बोलें। हमको अपनी याद के लिए वह दे दो जो आपके पास है।’

'क्या?’ समिधा की आँखों ने पूछा।

'चार्जर’ प्रिया के गाल गुलाबी हो गए।

चार्जर मेरे पर्स में था। मैंने कहा, 'यहाँ इन्टरनेट तो आता नहीं है, फोन चार्ज करके क्या करोगी?’ प्रिया बोली, 'नई मैडम फोन तो आता ना। जभी वो बेस कैम्प में आता वहाँ से फोन लग जाता। हफ्ते आठ दिन में वह जरूर करता। वह मेरे को चार्जर दे के गया। मालूम नहीं आजकल उससे चार्ज होताई नईं।’

समिधा को ढेर लाड़ आया प्रिया पर। महीने भर कितना खयाल रखा उसने उन सबका। कितनी छोटी सी चीज़ की माँग की है इसने।

समिधा ने अपना फोन देखा, चार्जिंग पूरी थी। नीचे पहुँच कर वह किसी भी मोबाइल शॉप से नया ले लेगी। वैसे भी यह पुराना हो चला है। समिधा ने अपना चार्जर प्रिया की हथेलियों में दबा दिया, 'खुश रहो।’

बारिश हल्की हो गई थी। उनका काफिला निकल पड़ा हर मोड़ के साथ सड़क नीचे उतर रही थी। एक जगह दवा की दुकान पर गाडिय़ाँ रोकी गईं। सभी को कुछ न कुछ लेना था। समिधा ने इनेहलर खरीदा।

टिन्नू हाँसा, इनहेलर, जाते वक्त खरीदना चाहिए था या आते वक्त। महीना भर बिना इनहेलर के रह लीं।’

समिधा हंस ली साथ साथ। एक ताज्जुब की तरह, बागडोगरा एयरपोर्ट पहुंचते तक, टुन्न-पुन्न करते सबके मोबाइलों में इन्टरनेट सेवा पुन: बहाल हो गई। सबके चेहरों पर मुस्कान लौटी। सबकी आँखें और उँगलियाँ व्यस्त।

समिधा ने अपा मोबाइल ताका। दिल्ली के दोस्तों के कई सन्देसे थे, 'कहीं खुद भी तो लाया नहीं बन गईं, वापस लोटा।’

एक सहेली ने लिखा, 'पहाड़ों की रानी, मैदान में आओ।’

समिधा ने ध्यान दिया एक संदेसा, शब्द बदल बदल कर रोज़ आता है; श्यामल का, 'ऐसी जगह जाना भी क्यों जहाँ दोस्त न दोस्ती।’

'मैं दिल्ली के सब प्रोग्राम कैन्सिल कर रहा हूँ। क्या करूँगा आ कर।’

'तुम्हारे बिना जीना सीख रहा हूँ।’

वे सब सुरक्षा जांच की कतार में लगे थे.

टिन्नू ने पीछे से उसे घुड़का, 'माँ, देखो तुम्हारे आगे के लोग कहाँ पहुंच गए, तुम अभी फोन में ही लगी हो। बन्द करो अपना मोबाइल।’ उसके गुस्से से मां को कोई फर्क नहीं पड़ा।

समिधा को लगा उसकी पीठ पर पंख उग आए हैं। मोबाइल ऑफ़ कर वह कतार में आगे बढ़ गई।

 

 

जानी मानी वरिष्ठ कथाकार। पहल में पहली बार।

संपर्क- मो. 9412741322, गाज़याबाद

 


Login