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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

'शाहीन बाग’, इंडियाज फाउन्डिग मोमेंन्ट (2020) और 'आजादी’

बी.बी. पांडे

प्रतिरोध

 

भारत को छोड़ दें तो लगभग सभी दक्षिण-एशियाई देश लोकतन्त्र के अपने-अपने प्रयोगों-प्रयासों में कमोबेश असफल साबित हुए हैं। अब भारत में भी साम्प्रदायिक ताकतों के उभार ने लोकतन्त्र पर संकट खड़े करना शुरु कर दिया है। हाल में संसद द्वारा पारित 'नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019’ लोकतन्त्र को चुनौती देता एक ऐसा ही प्रयास है। दक्षिण-एशियाई देशों पर भारतीय कानून के इस संशोधन का क्या प्रभाव होगा?

 

हाल के दिनों में भारत में सत्ता की ताकत और आमजन की आज़ादी के टकराव की स्थितियों में खासा उछाल आया है। केन्द्र तथा राज्यों की सत्ताएं विशेष ध्यान रखने लगी हैं: कौन क्या खाता है, क्या पहनता है, क्या कहता है या नहीं कहता, किसके साथ घूमता है या पार्क में बैठता है, आदि। अधिकतर एक अकेला या छोटे समूह का आम जन सत्ता के सामने घुटने टेक देता है, या कोर्ट कचहरी में धक्के खाता रहता है।

पर जब केन्द्रीय सत्ता ने अपनी विधायकी शक्तियों के उपयोग के अंतर्गत सी.ए.ए. संशोधन कानून 2019 पारित किया और उन शक्तियों को कार्यरूप देने के लिए पूरे देश में एन.आर.सी. (भारतीय नागरिकों का रजिस्टर) तथा एन.पी.आर. (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) बनाने की प्रबल घोषणा की तब आमजन ने समूह के रूप में उठखड़े होने का निर्णय लिया। दिल्ली के पश्चिम भाग में स्थित एक मलिन बस्ती, जिसमें अधिकतर गरीब तबके के मुस्लिम समुदाय के लोग बसे हैं, जो शाहीनबाग नाम से पहिचाना जाता है, सत्ता के विरोध का नया ठिकाना बन गया। शाहीनबाग प्रतीक बन गया आजादी का, आमजन के विरोध का एवं सबसे दबी-कुचली, अज्ञानी और अशिक्षित मुस्लिम नारी के उठ खड़े होने का। शाहीनबाग की दादियों और नानियों की सूझबूझ और जुझारूपन का नतीजा था कि सर्वशक्तिमान राष्ट्रीय सत्ता को भारतीय आजादी के सत्तर वर्ष बाद किसी ने संविधानिक चुनौती दे डाली। लगभग सत्तर दिनों बाद भी ठिठुरती सर्दी, आंधी-पानी और प्रत्यक्ष एवं  अप्रत्यक्ष पुलिस दमन के भय के बावजूद शाहीनबाग के आमजन हार मानने को तैयार नहीं थे। ये प्रसन्नता की बात है भारतीय समाज से, हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों ने शाहीन बाग को अकेले नहीं छोड़ा और हर तरह से समर्थन और साधन जुटने लगे आम आदमी की इस अद्भुत लड़ाई के लिए। समर्थन के इस सिलसिले में प्रिंट मीडिया तथा स्वतंत्र चिन्तकों ने भी कुछ योगदान दिया। इस संदर्भ में विभूती नारायण राय का ''वे निकली हैं तो दूर तक जाएंगी’’ (जनवरी 18, 2020 हिन्दुस्तान) नीरजा चंदोक ''इंडियाज़ सिविल सोसाइटी मोमेंट’’ (जनवरी 31, 2020 इंडियन एक्सप्रेस) तथा इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित एवं वंदिता मिश्रा संकलित सिरीज़ ''सी.ए.ए. आरन्ट जस्ट अबाउट सी.ए.ए.’’ (फरवरी 10, 11, 2020 इंडियन एक्सप्रेस) विशेष उल्लेखनीय हैं। विभूती राय शाहीन बाग के संदर्भ में लिखते हैं: ''अगर औरतें बाहर निकली हैं, तो इसके पीछे यह समझ है कि एनआरसी उनके घरों को बर्बाद कर देगी। उन्हें बढ़-चढ़कर आज़ादी के नारे लगाते देखना एक अलग ही अनुभव है। वे पितृसत्ता और धार्मिक कठमुल्लों पर एक साथ हमला कर रही हैं। एक बार हौसला बढऩे पर कल वो परदे से भी मुक्ति की सोच सकती हैं। इस लड़ाई में वह तभी कामयाब होगी जब बड़ी संख्या में गैर मुस्लिम औरतें भी उनके साथ आए।’’ विभूती राय की सोच है कि इसके पीछे संविधान द्वारा प्रदत्त आज़ादी का अधिकार है जिसके कारण संविधान आमजन के विरोध का आधार बन गया है, इन शब्दों में: ''कुछ ही समय पहले यह कहने वाले कि मुसलमान के लिये भारतीय संविधान से अधिक महत्वपूर्ण शरीयत है, अब संविधान बचाने की बात कर रहे हैं।’’ इसके विपरीत नीरजा चंदोक तथा वंदिता मिश्रा शाहीनबाग को ''हम भारतीय जन’’ का संविधान की प्रस्तावना को दोहराने और आमजन की आजादी को नया रूप देने का प्रयास मानते हैं। यह प्रयास कहाँ तक जाएगा और इसके मायने भुक्तभोगी जन के लिए क्या हैं यह वंदिता मिश्रा गया-सासारण्य मुख्य मार्ग पर आयोजित शेरघाटी और हमज़ापुर के ग्रामीणों की शाहीनबाग नुमां सीएए विरोधी सभा का वर्णन वहाँ प्रदर्शित पोस्टरों और बैनरों में दिये गये नारों से बयां करती हैं: ''जहाँ पैदा हुए वहीं दफन भी होंगे’’ तथा ''जीत गये तो वतन मुबारक, हार गए तो क़फन मुबारक’’। ऐसा ''जीना यहां, मरना यहां’’ का ज•बा नीरजा चंदोक की दृष्टि में तानाशाही और बांटने वाली सरकार को जनता का माकूल जवाब है। सत्तर दिनों से अधिक समय से चल रहे शाहीनबाग के संघर्ष का परिणाम है कि इतने दिनों से तटस्थ एवं मूक दृष्टा बनी रही सुप्रीमकोर्ट को शाहीनबाग के धरने का संज्ञान लेना पड़ा और रास्ते के अवरोध हटाने की प्रक्रिया हेतु सीनियर एडवोकेट श्रीमती साधना रामचंद्रन एवं श्री संजय हेगडे को इन्टरलौक्यूटर बनाना पड़ा। साथ ही कोर्ट को पूर्व सीआईसी श्री वजाहत हबीबुल्ला द्वारा शाहीनबाग के अवरोध बावत एफीडेविट भी स्वीकार करने का आश्वासन देना पड़ा। इन्टरलौक्यूटर द्वारा दाखिल रिपोर्ट के उत्तर में जस्टिस संजय कृष्ण कौल एवं जस्टिस के.एम. जोज़ेफ की पीठ ने स्वीकारा कि माताओं, बच्चों और अन्य शाहीनबाग के नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है कि वो सीएए का विरोध करें। आप सामाजिक दबाव बनाने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं किसी भी ऐसे कानून का विरोध करने हेतु जो आपके हितों के विपरीत है। कोर्ट ने साथ साथ यह भी कहा कि विरोध का अधिकार अन्य नागरिकों के पृथक विचारधारा और सड़क पर आवाजाही के अधिकार का हनन करके नहीं होना चाहिए। यहां पर कोर्ट ने स्वयं अपनी 144 सीएए विरोधी पिटीशन्स के शीघ्र निस्तार की अपनी जिम्मेदारी को साफ भुला दिया।

ऐसे आमजन को विरोध के वातावरण में जब सरकार और आमजन के बीच में किसी प्रकार के समझौते की ताज़ातरीन पुस्तक इंडियाज़ फाउन्डिग मामेंट (हारवर्ड यूनिवसिटी प्रेस, 2020) ज्ञान की एक नयी किरण के रूप में उभरी है। जिसमें सत्ता और आमजन के बीच के द्वन्द्व को सुलझाने के सूत्र दिखाई देते हैं। इस ग्रन्थ को लिखने की मूल प्रेरणा माधव खोसला को पंडित जवाहरलाल नेहरू के 1947 में लिखे गये कोनस्टीटूएन्ट एसैंम्बली के एम्स एण्ड औबजैक्टस के इन शब्दों से मिली है: ''वन आफ द अनफौरचुनेट लैगेस्ज़ आफ द पास्ट पोस्ट हैज़ बीन दैट देयर हैज़ बीन नौ इमैजिनेशन इन द अन्डरस्टैडिंग औफ द इन्डियन प्राब्लम।’’ माधव खोसला ने इस पुस्तक में जो उनकी हारवर्ड यूनिवरसिटी की डाक्टोरल रिसर्च है। इसी नेहरूवियन डायलिमा का भारतीय संविधान के द्वारा निराकरण का दावा प्रस्तुत किया है। खोसला साम्राज्यवादी विचारधारा के दो तर्को की संविधान के निर्माताओं द्वारा दिये जाने वाली काट से प्रारम्भ करते हैं। प्रथम, भारतीय समाज के लिये डिमोक्रेसी की उपयुक्तता और संभावनाएं और दूसरा, संविधान द्वारा प्रदत्त यूनिवर्सल एडल्ट सफरेज (बिना धर्म, जाति और लिंग भेद के वोट देने का अधिकार) की उपयोगिता। लेखक के अनुसार: ''इन्डियाज़ फाउन्डर्स... मैट द इम्पीरियल आरगुमेंट आन डायरेक्टर टर्मस। दे बिलीव्ड इन द पासिबिलीटी आप क्रियेटि डिमोक्रेटिक सिटीजन्स थ्रू डिमोक्रेटिक पोलिटिक्स ए स्टडी आफ द कान्स्टियूटनल विज़न ब्रिंग्स टू लाइट ए पौलिटिकल एपरेटस देट कुड इफैक्चुएट दिस ट्रान्जिशन ऐड रिस्पोंड टु द चैलेंज आफ डिमोक्रटाइज़ेशन। ..इच फोर आफ द फ्रेम वर्क सर्वड डिस्टिेंट एण्ड इंफ्लौमेंट्री रोल्स इन रीयलाज़ंग दिस - इन कनवर्टिंग इन्डियन्स फ्रौम सबजेक्टस इंन्टू सिटिजन्स।’’ (पे. 3-4)। पुस्तक में महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य और डा. राधाकमल मुकर्जी के ग्रन्थ डिमोक्रेसीज़ आफ द ईस्ट के आधार पर यह दर्शाया है कि भारतीय समाज के लिये प्रजातंत्र कोई नया और अनजान विचार नहीं है। विशेष उल्लेखनीय है यूनिवर्सल एडल्स सफफरेज के बाबत डा. आम्बेडकर के विचार और उनका भारतीय संविधान में विशिष्ट स्थान। माधव खोसला के अनुसार डा. आम्बेडकर वोट देने के मुक्त अधिकार के ऊपर धर्म, जाति या लिंग के अवरोध को एक प्रकार की जबरदस्ती मानते थे। अपनी प्रथम राउण्ड टेबल कान्फ्रेंस मे 1930 में डा. अंबेडकर ने कहा था:

''जस्ट इज़ द कैपिटलिस्ट हेज़ द पावर, इफ ही इज़ टु हेव एनी कन्स्टियूशन, टू डिक्टेट हाउ ही शैल लिव आन टर्मस आफ एसोसिएटिड लाइफ विथ द लेबर, श्योरली द लेबर इज़ इन्टाइटल्ड आल्सो टू हैव द पावर टू रैगूलेट द टर्मस आन विच ही शैल लिव विथ दे कैपिटलिस्ट मास्टर’’ (पे. 12)। डा. अम्बेडकर के यूनिवर्सल एडस्ट सफरेज के स्पष्ट और उत्तेजक विचारों से प्रेरणा लेते हुए माधव खोसला का धार्मिक और जाति आधारित वोट देने के अधिकार का निष्कर्ष आज के संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है। धार्मिक पहिचान के संदर्भ में खोसला कहते हैं ''इट वुड कन्डेम सिटिजन्स टू प्रीडिटर्मिक, कम्पलसरी आइडेन्टीटीज़। ए मार्डन डिमोक्रटिक स्टेट वाज़ कन्सेपटच्यूला•ड एज़ वन व्हैयर पीपुल कुड क्रियेट देयर ओन पालिटीकल आईडेन्टीटीज़ एण्ड कुड आथोलाइज़ एण्ड इफैक्युएट, चेन्दा बाई एक्सरसाइज़ंग प्रीकरेंसिज़ इन देयर कैपेसिटी एज़ एजेंन्टस’’ (पे. 152)। खोसला के अनुसार जाति सूचक पहिचान धर्म सूचक पहिचान में भिन्न है और दूसरे प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है। जाति की पहिचान, समूह का व्यक्ति के ऊपर हावी रखने और व्यति को विशेष परिरक्षा द्वारा उसकी अक्षमताओं से मुक्त करने का होता है। फिर भी संविधान का अभिप्राय है, माधव खोखला के शब्दों में: ''वैदर इन द केस आफ रिलीजन और कास्ट, द् होप दैट वाज द कान्स्टीट्यूशन वुड रिपरेट इन्डीवीजुअल्स एण्ड एलाऊ दैम टू पार्टीसिपेट इन पालिटिक्स एज़ फ्री एण्ड ईक्वूल परसन्स’’ (पे. 152)

माधव खोसला का मानना है कि भारतीय संविधान जैसा अनूठा दस्तावेज देकर संविधान निर्माताओं ने कौलोनियल लाजिक को चुनौती दी है, क्योंकि साम्राज्यवादी सोच ने भारतीयता को एक खास प्रकार की हीनता मूलक अर्थ देने का प्रयास किया था, पर संविधान ने दिखा दिया कैसे वास्तविकता बदली जा सकती है एक नये प्रकार के राजनैतिक व्यवस्था देकर। माधव खोसला के इस संदर्भ में यह शब्द हैं: ''टू क्रिएट, ए अल्टनेट पालीटिकल आर्डरिग। टु क्रिएट द डिमोक्रेटिक सिटिज़न, द न्यू एरेन्जमेंटस वुड हैव टु प्रोवाइड टु इडियन्स विथ न्यू काइन्ड अआफ नालेज एण्ड पावर... द कांसीक्यूएन्स आफ द कान्स्टीट्यूशनल एरेन्जमेन्ट वज़ देट इन्डियन्स वुड क्यू दैमसल्तस एण्ड वन एनैदर डिफरेन्टली, एण्ड द डिमोक्रेटिक सिटिजन वुड देयरवाई इमर्ज फ्रौम द प्रैक्टरिज़ औफ डिमोक्रेटिक पालिटिक्स’’ (पे. 154)।

आज जब नागरिकता के विषय में 1925 की धर्म आधारित पृथकतावादी सोच देश के ऊपर थोपने पर राष्ट्रीय सत्ता कृत संकल्प दिखाई पड़ती है, माधव खोखला की पुस्तक और उसमें दिये विचारों का महत्व और भी बढ़ जाता है। उनका स्पष्ट मत है कि भारतीय संविधान धर्म आधारित नागरिकता के बजाय केवल, स्व ईच्छा और स्वतंत्रता आधारित नागरिकता को मान्यता देता है। साथ ही खोसला यह भी मानते हैं कि संविधान की अपनी सीमाएं हैं, जो बाहरी राजनैतिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करती हैं। पर जब बाहरी प्रतिबद्धिता का यह आलम है कि ना सत्ता पुनर्विचार के लिये तैय्यार है और ना संवाद से रास्ता निकालना चाहती है, न्यायालय सत्ता के एजेन्ट के रूप में काम करने को तैयार हैं और आमजन के आज़ादी आधारित सीएए विरोधी एक सौ चव्वालीस याचिकाऐं दो माह से अधिक समय से ठंडे बस्ते में पड़ी हैं, केवल शाहीनबाग नुमा शान्तिपूर्ण जन सत्याग्रह ही एक विकल्प के रूप में दिखता है।  शाहीनबाग यह संदेश दे रहा है कि प्रतिबद्धताएं बदली जा सकती हैं और 'आजादी’ की नयी सोच गढ़ी जा सकती है। केवल एक शर्त है कि इसके लिये 'सही’ और प्रबल इच्छा शक्ति होनी चाहिए। द प्लेग में वर्णित शुद्ध इच्छाशक्ति जिसका वर्णन, एलवेयर कामू ने इन शब्दों में किया है : ''एण्ड, आई नो, टू, दैट व्ही मस्ट कीप एण्डलैस वाच आन अवरसैल्फज लैस्ट इन ए केयरलैस मोमेंन्ट व्ही ब्रीथ इन समबडीज़ फेस एण्ड फास्टन द इफैक्शन आन हिंम। व्हाट्स नैचुरल इज़ द माइक्रोब। आल द रैस्ट - हैल्थ, इन्टीग्रीटी एण्ड प्यूरिटी (एफ यू लाइक) - इज़ ए प्रोडक्ट आफ द ह्यूमन विल - आफ ए विजिलेन्स दैट मस्ट नैव्हर फाल्टर’’।

 

 

भुवन पांडे दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि संकाय के प्रमुख रह चुके हैं। संवैधानिक विषयों के ज्ञाता और देश विदेश के विख्यात अध्ययन केन्द्रों  में समय-समय पर रह चुके हैं। हमारे आग्रह पर उन्होंने एक समसामयिक मुद्दे पर लिखा है। पहली बार हिन्दी में लिखा। नैनीताल के एक गाँव गेठिया के रहने वाले, अब लखनऊ में सेवानिवृत्त होकर रहते हैं।

संपर्क- 9899182177

 


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