मुखपृष्ठ पिछले अंक कुछ पंक्तियाँ
सितम्बर - अक्टूबर : 2020

कुछ पंक्तियाँ

ज्ञानरंजन

 

उत्तर छायावाद के प्रमुख कथाकारों, आलोचकों और कवियों पर विचार-विमर्श और मूल्यांकन का काम काफी हद तक हमने चार सालों में पूरा किया। इसमें नए पुराने, सहमत असहमत खेमों के साहित्यकारों को शामिल किया। इस काम को तरतीब से पूरा करने में हमें सर्वश्री रविभूषण, रोहिणी अग्रवाल, सूरज पालीवाल, कर्मेन्दु शिशिर, पंकज चतुर्वेदी, प्रियम अंकित,  अमिताभ राय, अच्युतानन्द मिश्र, सुजाता, अविनाश मिश्रा, शशिभूषण मिश्र का रचनात्मक सहयोग निरंतर मिला। इस अंक में पंकज चतुर्वेदी, भारतभूषण अग्रवाल पर अपने वक्तव्य के साथ इस गंभीर उपक्रम का समापन कर रहे हैं। इसके पूर्व अच्युतानंद मिश्र ने विजयदेव नारायण साही पर आलेख लिखा था जो श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय के साथ एक छोटी सिरीज़ का हिस्सा था। बड़े आलोचक रविभूषण जी का लेखन पहल में जारी रहेगा। विजयमोहन सिंह पर यहाँ आप उनकी दूसरी किश्त पढ़ सकते हैं। इसके पूर्व उन्होंने देवीशंकर अवस्थी पर लिखा था।

देश में महामारी के भयानक हालातों के बीच 'पहल’ का प्रकाशन जारी है। कई तरह की आर्थिक, प्रकाशकीय और वितरण सम्बन्धी कठिनाइयों के बीच गौरीनाथ ने एक रणनीति के बतौर 'पहल’ का प्रकाशन वितरण संभव किया। वे अब अपने उपन्यास को पूरा करने में लगे हैं, जो भागलपुर के दंगों पर है। हमारे सहयोगी राजेन्द्र दानी भी अब दूसरा उपन्यास लिख रहे हैं। हमारे दूसरे सहयोगी पंकज स्वामी का पहला कहानी संग्रह भी पाण्डुलिपि की शक्ल में तैयार है। हमारे संपादक साथी राजकुमार केसवानी ने एक दुर्लभ ग्रंथ प्रकाशित किया है, जिस पर वे दशकों से काम कर रहे थे। यह संग्रहणीय और लगभग दुर्लभ दास्तानों से भरीपूरी किताब 'मुगले आज़म’ है जो सिनेमा के एक पूरे रहस्य हो गये संसार का दस्तावेज है। इसका मुद्रण एक उदाहरण होगा। इसे अनेक दुर्लभ सूचनाओं और चित्रों के साथ सजाया गया है। यह क़िताब अब बेस्ट सेलर की सूची में आ गई है। मक़बूल फ़िदा हुसैन की कलाकृतियाँ भी इसमें हैं। हम यह विवरण इसलिए दे रहे हैं कि हमारे पाठक जान सकें कि 'पहल’ की मण्डली अपना रचनात्मक योगदान भी कर रही है। हमारे कला संपादक अवधेश वाजपेयी की कुछ एकल चित्र प्रदर्शनियाँ जो मुम्बई, बड़ौदा, भोपाल में होनी थीं, अभी कोरोना के कारण टली हुई हैं। जितेन्द्र भाटिया की दो जिल्दें और सूरज पालीवाल की एक ज़ल्द 'पहल’ में हुए उनके लेखन की शीघ्र प्रकाश्य हैं। जितेन्द्र भाटिया के 'सोचो साथ क्या जाएगा’ के दो खंड संभावना प्रकाशन ने प्रकाशित कर दिए हैं।

इस अंक में सिरे से नए स्वाद के साथ हम कुछ दस्तावेजी चीजें प्रकाशित कर रहे हैं। यशपाल, नये पथ के संपादक के रूप में; सुधीर विद्यार्थी, एक जीवनीकार के रूप में; सुदूर असम में बसे एक बड़े लेकिन उपेक्षित कथाकार उदयभानु पाण्डे, एक भेंटकत्र्ता के रूप में पढ़े जा सकते हैं। निराला और रामविलास शर्मा, दो दिग्गजों पर एक संस्मरण प्रकाश मनु का है जिन्होंने बहुत पहले 'पहल’ के लिए विष्णु खरे का एक प्रामाणिक साक्षात्कार किया था। कर्मेन्दु शिशिर, लीलाधर जगूड़ी, अशोक कुमार पाण्डे, वंदना राग की किताबों पर $खास लेखन यहाँ है। ऐतिहासिक काम करने वाले ग्रंथ शिल्पी, राजनैतिक कार्यकत्र्ता श्याम बिहारी राय को साहित्यिक पत्रकारिता ने लगभग अछूता छोड़ दिया। आनंद स्वरूप वर्मा जो अफ्रीकी और नेपाली राजनीति और संस्कृतियों के ज्ञाता है, ने श्याम बिहारी पर लिखा है।

ममता कालिया पहल में पहली बार, पर कभी उपेक्षा महसूस नहीं की। पहल की शानदार दोस्त बनी रहीं। कभी इस संपादक ने अन्यत्र उनकी एक कविता 'आधार’ के एक विशेष अंक में छापी थी, जिसका शीर्षक था - ''अक्ल उडऩे लगेगी जैसे साडिय़ों के रंग। ज्यां द्रेज और भुवन पाण्डे भी पहल में पहली बार। भुवन पाण्डे देश के न्याय तंत्र और शाहीन बाग तथा लोकतंत्र पर अपने विचार रख रहे हैं। वे हिन्दी में पहली बार आए हैं। ज्यां द्रेज का लेख हमें कवि बद्रीनारायण ने उपलब्ध कराया है। बस्तर पर केन्द्रित अपने उपन्यास को लोकबाबू ने बरसों की तैयारी से पूरा किया है। उसका एक अंश यहाँ है। यह उपन्यास राजपाल से जल्दी ही आएगा।

पहल-121 में अशोक अग्रवाल (कथाकार और यायावर) का एक संस्मरण बाबा नागार्जुन पर हमने छापा था जिसे व्यापक सराहना मिली। इसके साथ सोशल मीडिया की कुछ तत्पर, बेलगाम, उत्तेजित और प्रतिहिंसा से भरी टिप्पणियाँ भी। नागार्जुन के प्रिय और लम्बे सहचर वाचस्पति को भी उसके अंशों से ठेस लगी जिसका खेद हम प्रकट कर चुके हैं। पर एक छोटा गिरोह है, घोर दक्षिणपंथी जो जाहिर उत्पात करता रहा। अंतत: उसे विलीन होना था, विलीन हो गया। एक महत्त्वपूर्ण रचना आपको खुश भी कर सकती है, ठेस भी पहुँचा सकती है। संस्मरण में, जो कि निजतापूर्ण है लेखक का मूड, प्रहार या निंदा का कतई नहीं है। तथ्यों में अंतर हो सकते हैं। अशोक अग्रवाल के बाबा के लम्बे और आत्मीय संबंध रहे हैं। विभूतियों की शक्ल और जीवनियों की कई बार भक्ति ऐसी होती है कि बहुतों को चोट लगती है, उसके दर्पण टूटते हैं। इसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। पहल और उसके संपादक से नागार्जुन का लम्बा सम्बन्ध था। वे हमारे साथ कई कई बार महीनों रहे थे। उनकी 50 वर्ष से अधिक बड़ी कविताएँ पहल में छपी हैं और उनका अप्रतिम मोनोग्राफ पहल ने ही छापा हैं। बाबा के जीवन की कहानी में कई भटकाव हैं। वे विवादास्पद भी रहे। उन्होंने पहल में ही स्वीकार किया था कि मैं वेश्या की गली से होकर गुजर गया। बाबा असंख्य गलियों से गुजरे। बहुत से लोगों को यही ऐंठ है कि अशोक अग्रवाल आखिरकार कौन चीज हैं... उनका हक़ क्या है...? नवोदितों को कमर कसने से पूर्व हिन्दी के आधुनिक इतिहास का प्राथमिक ज्ञान होना चाहिए।

बहरहाल, अशोक अग्रवाल ने समूचे विवाद पर अपना छोटा-सा पत्र हमें भेजा है, जिसे हम यथावत छाप रहे हैं।

 

पत्र

 

4.7.2020

आदरणीय भाई,

 

फेसबुक और वाट्सअप्प की सुविधा मुझे उपलब्ध नहीं है, न ही उस पर लिखी जा रही सामग्री के प्रति विशेष उत्कंठा ही। इस कारण बहुत सी जानकारियों और प्रतिक्रियाओं से वंचित रहता हूँ। 'पहल-121’ में प्रकाशित अपने संस्मरण 'बुजुर्ग हिप्पियों का आदिब्रहम: नागार्जुन’ पर उत्पन्न विवाद की जानकारी मुझे अपने कुछ मित्रों से और आज आपसे फोन पर मिली है।

मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि बाबा नागार्जुन के साथ मेरा सुदीर्घ (वर्ष 1979-1996) सघन सम्पर्क रहा है। उनकी स्मृति के अनेक दुर्लभ, आत्मीय और अन्तरंग क्षण मेरी डायरी और स्मृति में दर्ज़ होते रहे हैं।

एक संस्मरण लेखक के बतौर अपनी उपस्थिति लगभग नगण्य रखने का प्रयास करते हुए यह आलेख लिखा गया था। इस संस्मरण में वर्णित किसी प्रसंग या पंक्तियों के साथ पूर्व में घटित किसी घटना से जोड़कर अपने-अपने नज़रिए से टिप्पणी करने का हर किसी का अधिकार है।

मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि यह मेरा संस्करण, जिसका किसी अन्य व्यक्ति के स्मरण से कोई संघर्ष नहीं है। लेखक की अभिव्यक्ति की निजी शैली और भाषा होती है। मेरी भी। इस खारिज़ करने या सराहने की स्वतंत्रता पाठक की है।

बाबा नागार्जुन एक पारंगत किस्सागो थे। हास-परिहास, व्यंग्य और वक्रोक्ति उनमें कूट-कूट कर भरी थी। वाचस्पति जी के संदर्भ में कही उनकी बतकही मेरी स्मृति में जिस तरह दर्ज़ हुई, वह अब लगता है तथ्यपरक नहीं थी। वाचस्पति जी का पत्र मिलने के बाद उन्हें जो ठेस पहुँची उसके लिए मैं उनसे, विशेष आदरणीय शकुन्तला जी से, पहले भी पत्र लिख कर और अब पुन: 'पहल’ के माध्यम से खेद प्रकट करता हूँ।

इससे अधिक मुझे और कुछ नहीं कहना है।

 

आपका

(अशोक अग्रवाल)

 

**

 

पिछले अंक में कुछ पंक्तियों के अन्तर्गत एक भूल हुई है। राजेन्द्र सिंह बेदी की जगह ख्वाज़ा अहमद अब्बास लिखा गया है। अन्यत्र ठीक है। हमें इसका गहरा खेद है।

 


Login