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जून - जुलाई : 2020

प्लेग और कवारंटेन

राजिंदर सिंह बेदी

उर्दू रजिस्टर

 

 

 

 

 

हिमाला के पांव में लेटे हुए मैदानों पर फैल कर हर एक चीज़ को धुंदला बना देने वाली कुहरे के मानिंद प्लेग के ख़ौफ़ ने चारों तरफ़ अपना तसल्लुत जमा लिया था। शहर का बच्चा बच्चा उस का नाम सुन कर काँप जाता था।

प्लेग तो ख़ौफ़नाक थी ही, मगर कवारंटेन इस से भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक थी। लोग प्लेग से इतने हिरासाँ नहीं थे जितने कवारंटेन से, और यही वजह थी कि महिकमा-ए-हिफ्ज़ान-ए-सेहत ने शहरीयों को चूहों से बचने की तलक़ीन करने के लिए जो क़द-ए-आदम इश्तिहार छपवाकर दरवाज़ों, गुज़रगाहों और शाहराहों पर लगाया था, इस पर ''ना चूहा ना प्लेग’’ के अनवान में इज़ाफ़ा करते हुए ''ना चूहा ना प्लेग, ना कवारंटेन’’ लिखा था।

कवारंटेन के मुताल्लिक़ लोगों का ख़ौफ़ बजा था। बहैसीयत एक डाक्टर के मेरी राय निहायत मुस्तनद है और मैं दावे से कहता हूँ कि जितनी अम्वात शहर में कवारंटेन से हुईं, इतनी प्लेग से ना हुईं, हालांकि कवारंटेन कोई बीमारी नहीं, बल्कि वो इस वसीअ रकबा का नाम है जिसमें मुतअद्दी वबा के ए्याम मैं बीमार लोगों को तंदरुस्त इन्सानों से अज़रूए क़ानून अलाहदा कर के ला डालते हैं ताकि बीमारी बढऩे ना पाए। अगरचे कवारंटेन में डाक्टरों और नर्सों का काफी इंतिज़ाम था, फिर भी मरीज़ों के कसरत से वहां आ जाने पर उनकी तरफ़ फ़र्दन फ़र्दन तवज्जा ना दी जा सकती थी। ख़वेश-ओ-अक़ारिब के क़रीब ना होने से मैंने बहुत से मरीज़ों को बे-हौसला होते देखा। कई तो अपने नवाह में लोगों को पै दर पै मरते देखकर मरने से पहले ही मुर्गए। बाज़-औक़ात तो ऐसा हुआ कि कोई मामूली तौर पर बीमार आदमी वहां की वबाई फ़िज़ा ही के जरासीम से हलाक हो गया और कसरत-ए-अम्वात की वजह से आखिऱी रसूम भी कवारंटेन के मख़सूस तरीक़ा पर अदा होतीं, यानी सैंकड़ों लाशों को मुर्दा कुत्तों की नाशों की तरह घसीट कर एक बड़े ढेर की सूरत में जमा किया जाता और बगैर किसी के मज़हबी रसूम का एहतिराम किए, पैट्रोल डाल कर सबको नज़र-ए-आतिश कर दिया जाता और शाम के वक़्त जब डूबते हुए सूरज की आतिशीं शफ़क़ के साथ बड़े बड़े शोले यक-रंग वहम आहंग होते तो दूसरे मरीज़ यही समझते कि तमाम दुनिया को आग लग रही है।

कवारंटेन इसलिए भी ज़्यादा अम्वात का बाइस हुई कि बीमारी के आसार नमूदार होते तो बीमार के मुताल्लिक़ीन उसे छिपाने लगते, ताकि कहीं मरीज़ को जबरन कवारंटेन में ना ले जाएं। चूँ कि हर एक डाक्टर को तंबीया की गई थी कि मरीज़ की ख़बर पाते ही फौरन मतला करे, इसलिए लोग डाक्टरों से ईलाज भी ना कराते और किसी घर के वबाई होने का सिर्फ उसी वक़्त पता चलता, जब कि जिगर दोज़ आह-ओ-बुका के दरमयान एक लाश इस घर से निकलती।

इन दिनों में कवारंटेन में बतौर एक डाक्टर के काम कर रहा था। प्लेग का ख़ौफ़ मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर भी मुसल्लत था। शाम को घर आने पर में एक अरसा तक कार बालक साबुन से हाथ धोता रहता और जरासीमकुश मुरक्कब से ग़रारे करता, या पेट को जिला देने वाली गर्म काफी या ब्रांडी पी लेता। अगरचे इस से मुझे बे-ख्वाबी और आँखों के अन्धेपन की शिकायत पैदा हो गई। कई दफ़ा बीमारी के ख़ौफ़ से मैंने $कै आवर दवाएं खा कर अपनी तबीयत को साफ़ किया। जब निहायत गर्म काफी या ब्रांडी पीने से पेट में तख़मीर होती और बुख़ारात उठ उठ कर दिमाग़ को जाते, तो मैं अक्सर एक हवासबाख़ता शख्स के मानिंद तरह तरह की क़यास-आराइयाँ कुर्ता। गले में ज़रा भी ख़राश महसूस होती तो मैं समझता कि प्लेग के निशानात नमूदार होने वाले हैं उफ़ में भी इस मूज़ी बीमारी का शिकार हो जाऊँगा प्लेग और फिर कवारंटेन।

उन्हें दिनों में नौ ईसाई विलियम भागो ख़ाकरूब, जो मेरी गली में सफ़ाई किया करता था, मेरे पास आया और बोला। ''बाबूजी ग़ज़ब हो गया। आज अम्बो इसी मुहल्ला के क़रीब से बीस और एक बीमार ले गई है।’’

''इक्कीस? एम्बूलैंस में&?’’ मैंने मुतअज्जिब होते हुए ये अलफ़ाज़ कहे।

''जी हाँ पूरे बीस और एक उन्हें भी क्विंटन (कवारंटेन ले जाऐंगे आह वो बेचारे कभी वापिस ना आएँगे।’’

दरयाफ़त करने पर मुझे इलम हुआ कि भागो रात के तीन बजे उठता है। आध पाओ शराब चढ़ा लेता है। और फिर हसब हिदायत कमेटी की गलीयों में और नालीयों में चूना बिखेरना शुरू कर देता है, ताकि जरासीम फैलने ना पाउं। भागो ने मुझे मतला किया कि इस के तीन बजे उठने का ये भी मतलब है कि बाज़ार में पड़ी हुई लाशों को इक_ा करे और इस मुहल्ला में जहां वो काम करता है, उन लोगों के छोटे मोटे काम काज करे जो बीमारी के ख़ौफ़ से बाहर नहीं निकलते। भागो तो बीमारी से ज़रा भी नहीं डरता था। इस का ख्याल था अगर मौत आई हो तो ख़ाह वो कहीं भी चला जाये, बच नहीं सकता।

इन दिनों जब कोई किसी के पास नहीं फटकता था, भागो सर और मुँह पर मुँडासा बाँधे निहायत इन्हिमाक से बनीनौ इन्सान की ख़िदमतगुज़ारी कर रहा था। अगरचे उस का इलम निहायत महिदूद था, ताहम अपने तजरबों की बिना पर वो एक मुक़र्रर की तरह लोगों को बीमारी से बचने की तराकीब बताता। आम सफ़ाई, चूना बिखेरने और घर से बाहर ना निकलने की तलक़ीन करता। एक दिन मैंने उसे लोगों को शराब कसरत से पीने की तलक़ीन करते हुई भी देखा। इस दिन जब वो मेरे पास आया तो मैंने पूछा। ''भागो तुम्हें प्लेग से डर भी नहीं लगता?’’

''नहीं बाबूजी बन आई बाल भी बीका नहीं होगा। आप इत्ते बड़े हकीम ठहरे, हज़ारों ने आपके हाथ से शिफ़ा पाई। मगर जब मेरी आई होगी तो आपका दारू दरमन भी कुछ असर ना करेगा हाँ बाबूजी आप बुरा ना मानें। मैं ठीक और साफ़-साफ़ कह रहा हूँ।’’ और फिर गुफ़्तगु का रुख बदलते हुए बोला। ''कुछ कोंटेन की कहीए बाबूजी कोंटेन की।’’

''वहां कवारंटेन मैं हज़ारों मरीज़ आ गए हैं। हम हती अलोसा उनका ईलाज करते हैं। मगर कहाँ तक, नीज़ मेरे साथ काम करने वाले ख़ुद भी ज़्यादा देर उन के दरमयान रहने से घबराते हैं। ख़ौफ़ से उन के गले और लब सूखे रहते हैं। फिर तुम्हारी तरह कोई मरीज़ के मुँह के साथ मुँह नहीं जा लगाता। ना कोई तुम्हारी तरह इतनी जान मारता है भागो ख़ुदा तुम्हारा भला करे। जो तुम बनीनौ इन्सान की इस क़दर ख़िदमत करते हो।’’

भागो ने गर्दन झुका दी और मुँडा से के एक पल्लू को मुँह पर से हटा कर शराब के असर से सुरख़ चेहरे को दिखाते हुए बोला। ''बाबूजी, मैं किस लायक़ हूँ। मुझसे किसी का भला हो जाये, मेरा ये निकम्मा तन किसी के काम आ जाये, इस से ज़्यादा ख़ुशक़िसमती और क्या हो सकती है। बाबूजी बड़े पादरी लाबे (रेवरेंड मोनित लाम, आबे जो हमारे महलों में अक्सर परचार के लिए आया करते हैं, कहते हैं, ख़ुदावंद यसवा मसीह यही सिखाता है कि बीमार की मदद में अपनी जान तक लड़ा दो मैं समझता हूँ।’’

मैंने भागो की हिम्मत को सराहना चाहा, मगर कसरत-ए-जज़बात से मैं रुक गया। इस की ख़ुश एतिक़ादी और अमली ज़िंदगी को देखकर मेरे दिल में एक जज़्ब-ए-रशक पैदा हवा में ने दिल में फैसला किया कि आज कवारंटेन में पूरी तनदिही से काम कर के बहुत से मरीज़ों को बकैद-ए-हयात रखने की कोशिश करूँगा। इन को आराम पहुंचाने में अपनी जान तक लड़ा दूँगा। मगर कहने और करने में बहुत फ़र्क होता है। कवारंटेन में पहुंच कर जब मैंने मरीज़ों की ख़ौफ़नाक हालत देखी और उन के मुँह से पैदा शूदा ताफ्फून मेरे नथनों में पहुंचा, तो मेरी रूह लरज़ गई और भागो की तक़लीद करने की हिम्मत ना पड़ी।

ताहम उस दिन भागो को साथ लेकर मैंने कवारंटेन में बहुत काम किया। जो काम मरीज़ के ज़्यादा क़रीब रह कर हो सकता था, वो मैंने भागो से किराया और इस ने बिलाताम्मुल किया ख़ुद में मरीज़ों से दूर दूर ही रहता, इसलिए कि मैं मौत से बहुत ख़ाइफ़ था और इस से भी ज़्यादा कवारंटेन से।

मगर क्या भागो मौत और कवारंटेन ,दोनों से बालातर था।

इस दिन कवारंटेन में चार-सौ के क़रीब मरीज़ दाखिल हुए और अढ़ाई सौ के लग भग लकम-ए-अजल हो गए।

ये भागो की जाँबाज़ी का सदक़ा ही था कि मैंने बहुत से मरीज़ों को शिफ़ायाब किया। वो न$क्शा जो मरीज़ों की रफ्तार-ए-सेहत के मुताल्लिक़ चीफ़ मैडीकल ऑफीसर के कमरे में आवेज़ां था, इस में मेरे तहत में रखे हुए मरीज़ों की औसत सेहत की लकीर सबसे ऊओनची चढ़ी हुई दिखाई देती थी। मैं हर-रोज़ किसी ना किसी बहाना से इस कमरा में चला जाता और इस लकीर को सौ $फीसदी की तरफ़ ऊओपर ही ऊओपर बढ़ते देखकर दिल में बहुत ख़ुश होता।

एक दिन मैंने ब्रांडी ज़रूरत से ज़्यादा पी ली। मेरा दिल धक धक करने लगा। नब्ज़ घोड़े की तरह दौडऩे लगी और में एक जुनूनी की मानिंद इधर उधर भागने लगा। मुझे ख़ुद शक होने लगा कि प्लेग के जरासीम ने मुझ पर आख़िर-ए-कार अपना असर कर ही दिया है और अनक़रीब ही गलटयां मेरे गले या रानों में नमूदार होंगी। मैं बहुत सरासीमा हो गया। इस दिन मैंने कवारंटेन से भाग जाना चाहा। जितना अरसा भी मैं वहां ठहरा, ख़ौफ़ से काँपता रहा। इस दिन मुझे भागो को देखने का सिर्फ दो दफ़ा इत्तिफ़ाक़हुआ।

दोपहर के क़रीब मैंने उसे एक मरीज़ से लिपटे हुए देखा। वो निहायत प्यार से इस के हाथों को थपक रहा था। मरीज़ में जितनी भी सकत थी उसे जमा करते हुए इस ने कहा, ''भई अल्लाह ही मालिक है। इस जगह तो ख़ुदा दुश्मन को भी ना लाए। मेरी दो लड़कीयां।’’

भागो ने इस की बात को काटते हुए कहा। ''ख़ुदावंद यसवा मसीह का शुक्र करो भाई तुम तो अच्छे दिखाई देते हो।’’

''हाँ भाई शुक्र है ख़ुदा का पहले से कुछ अच्छा ही हूँ। अगर मैं कवारंटेन।’’

अभी ये अलफ़ाज़ उस के मुँह में ही थे कि इस की नसें खिच गईं। इस के मुँह से कफ़ जारी हो गया। आँखें पथरा गईं। कई झटके आए और वो मरीज़, जो एक लम्हा पहले सबको और ख़ुसूसन अपने आपको अच्छा दिखाई दे रहा था, हमेशा के लिए ख़ामोश हो गया। भागो उस की मौत पर दिखाई ना देने वाले ख़ू न के आँसू बहाने लगा और कौन उस की मौत पर आँसू बहाता। कोई उस का वहां होता तो अपने जिगर दोज़ नालों से अर्ज़-ओ-समा को शक़ कर देता। एक भागो ही था जो सब का रिश्तेदार था। सब के लिए उस के दिल में दर्द था। वो सबकी ख़ातिर रोता और कुढ़ता था एक दिन इस ने ख़ुदावंद यसवा मसीह के हुज़ूर में निहायत अजुज़-ओ-इन्किसार से अपने आपको बनीनौ इन्सान के गुनाह के कफ़्फ़ारा के तौर पर भी पेश किया।

इसी दिन शाम के क़रीब भागो मेरे पास दौड़ा दौड़ा आया। सांस फूली हुई थी और वो एक दर्दनाक आवाज़ से कराह रहा था। बोला। ''बाबूजी ये कोंटेन तो दोज़ख़ है। दोज़ख़। पादरी लाबे इसी किस्म की दोज़ख़ का नक्शा खींचा करता था।’’

मैंने कहा। ''हाँ भाई, ये दोज़ख़ से भी बढ़कर है मैं तो यहां से भाग निकलने की तरकीब सोच रहा हूँ मेरी तबीयत आज बहुत ख़राब है।’’

''बाबूजी इस से ज़्यादा और क्या बात हो सकती है आज एक मरीज़ जो बीमारी के ख़ौफ़ से बेहोश हो गया था, उसे मुर्दा समझ कर किसी ने लाशों के ढेरों में जा डाला। जब पैट्रोल छिड़का गया और आग ने सबको अपनी लपेट में ले लिया, तो मैंने उसे शोलों में हाथ पाँव मारते देखा। मैंने कूद कर उसे उठा लिया। बाबूजी वो बहुत बुरी तरह झुलसा गया था उसे बचाते हुए मेरा दायाँ बाज़ू बिलकुल जल गया है।’’

मैंने भागो का बाज़ू देखा। इस पर ज़र्द ज़र्द चर्बी नज़र आ रही थी। मैं उसे देखते हुए लरज़ उठा। मैंने पूछा। ''क्या वो आदमी बच गया है। फिर?’’

''बाबूजी वो कोई बहुत शरीफ़ आदमी था। जिसकी नेकी और शरीफी (शराफ़त से दुनिया कोई फ़ायदा ना उठा सकी, इतने दर्द-ओ-करब की हालत में इस ने अपना झुलसा हुआ चेहरा ऊओपर उठाया और अपनी मरियल सी निगाह मेरी निगाह में डालते हुए इस ने मेरा शुक्रिया अदा किया।’’

''...और बाबूजी’’ भागो ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा ''उस के कुछ अरसा बाद वो इतना तड़पा, उतना तड़पा कि आज तक मैंने किसी मरीज़ को इस तरह जान तोड़ते नहीं देखा होगा इसके बाद वो मर गया। कितना अच्छा होता जो में उसे उसी वक़्त जल जाने देता। उसे बचा कर मैंने उसे मज़ीद दुख सहने के लिए ज़िंदा रखा और फिर वो बच्चा भी नहीं। अब इन ही जले हुए बाज़ुओं से मैं फिर उसे उसी ढेर में फेंक आया हूँ।’’

इसके बाद भागो कुछ बोल ना सका। दर्द की टीसों के दरमयान इस ने रुकते-रुकते कहा। ''आप जानते हैं वो किस बीमारी से मिरा? प्लेग से नहीं। कोंटेन से कोंटेन से!’’

अगरचे हमा याराँ दोज़ख़ का ख़याल उस लामतनाही सिलसिला-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब में लोगों को किसी हद तक तसल्ली का सामान बहम पहुँचाता था, ताहम मक़हूर बनी-आदम की फ़लक श्गिाफ़ सदाएँ तमाम शब कानों में आती रहतीं। माओं की आह-ओ-बुका, बहनों के नाले, बीवीयों के नौहे, बच्चों की चीख़-ओ-पुकार शहर की इस फ़िज़ा में, जिसमें कि नसफ़ शब के क़रीब उल्लो भी बोलने से हिचकिचाते थे, एक निहायत अल्मनाक मंज़र पैदा करती थी। जब सही-ओ-सलामत लोगों के सीनों पर मनों बोझ रहता था, तो उन लोगों की हालत क्या होगी जो घरों में बीमार पड़े थे और जिन्हें किसी य$र्कान-ज़दा के मानिंद दरोदीवार से मायूसी की ज़रदी टपकती दिखाई देती थी और फिर कवारंटेन के मरीज़, जिन्हें मायूसी की हद से गुज़र कर मुलक-उल-मौत मुजस्सम दिखाई दे रहा था, वो ज़िंदगी से यूं चिमटे हुए थे, जैसे किसी तूफ़ान में कोई किसी दरख़्त की चोटी से चिमटा हुआ हो, और पानी की तेज़ो तुंद लहरें हर लहज़ा बढ़कर इस चोटी को भी डुबो देने की आर्ज़ूमंद हूँ।

मैं इस रोज़ तवहहुम की वजह से कवारंटेन भी ना गया। किसी ज़रूरी काम का बहाना कर दिया। अगरचे मुझे स$ख्त ज़हनी कोफ़त होती रही क्योंकि ये बहुत मुमिकन था कि मेरी मदद से किसी मरीज़ को फ़ायदा पहुंच जाता। मगर इस ख़ौफ़ ने जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर मुसल्लत था, मुझे पा बह ज़ंजीर रखा। शाम को सोते वक़्त मुझे इत्तिला मिली कि आज शाम कवारंटेन में पांसो के क़रीब मज़ीद मरीज़ पहुंचे हैं।

मैं अभी अभी मादे को जिला देने वाली गर्म काफी पी कर सोने ही वाला था कि दरवा•ो पर भागो की आवाज़ आई। नौकर ने दरवाज़ा खोला तो भागो हाँफ्ता हुआ अंदर आया। बोला। ''बाबू जी मेरी बीवी बीमार हो गई इस के गले में गलटयां निकल आई हैं ख़ुदा के वास्ते उसे बचाओ इस की छाती पर डेढ़ साला बच्चा दूध पीता है, वो भी हलाक हो जाएगा।

बजाय गहिरी हमदर्दी का इज़हार करने के, मैंने ख़शमगीं लहजा में कहा। ''इससे पहले क्यों ना आसके क्या बीमारी अभी अभी शुरू हुई है?’’

''सुबह मामूली बुख़ार था जब मैं कोंटेन गया।’’

''अच्छा वो घर में बीमार थी। और फिर भी तुम कवारंटेन गए?’’

''जी बाबूजी’’ भागो ने काँपते हुए कहा।’’ वो बिलकुल मामूली तौर पर बीमार थी। मैंने समझा कि शायद दूध चढ़ गया है इस के सिवा और कोई तकलीफ़ नहीं और फिर मेरे दोनों भाई घर पर ही थे और सैंकड़ों मरीज़ कोंटेन में बेबस।

''तो तुम अपनी हद से ज़्यादा मेहरबानी और कुर्बानी से जरासीम को घर ले ही आए ना। मैं ना तुमसे कहता था कि मरीज़ों के इतना क़रीब मत रहा करो देखो में आज इसी वजह से वहां नहीं गया। इसमें सब तुम्हारा क़सूर है। अब में क्या कर सकता हूँ। तुमसे जाँबाज़ को अपनी जाँबाज़ी का मज़ा भुगतना ही चाहिए। जहां शहर में सैंकड़ों मरीज़ पड़े हैं।’’

भागो ने मिलतजयाना अंदाज़ से कहा। ''मगर ख़ुदावंद यसवा मसीह।’’

''चलो हटो बड़े आए कहीं के तुमने जान-बूझ कर आग में हाथ डाला। अब उस की सज़ा में भगतों? कुर्बानी ऐसे थोड़े ही होती है। मैं इतनी रात गए तुम्हारी कुछ मदद नहीं कर सकता।’’

''मगर पादरी लाबे।’’

''चलो जाओ पादरी लाम, आबे के कुछ होते।’’

भागो सर झुकाए वहां से चला गया। इस के आध घंटा बाद जब मेरा गुस्सा फ़िरौ हुआ तो में अपनी हरकत पर नादिम होने लगा। मैं आक़िल कहाँ का था जो बाद में पशेमान हो रहा था। मेरे लिए यही यक़ीनन सबसे बड़ी सज़ा थी कि अपनी तमाम ख़ुद्दारी को पामाल करते हुए भागो के सामने गुज़श्ता रवैय्या पर इज़हार-ए-माज़रत करते हुए उस की बीवी का पूरी जाँ-फ़िशानी से ईलाज करूँ। मैंने जल्दी जल्दी कपड़े पहने और दौड़ा दौड़ा भागो के घर पहुंचा वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि भागो के दोनों छोटे भाई अपनी भावज को चारपाई पर लुटाए हुए बाहर निकाल रहे थे।

मैंने भागो को मुख़ातब करते हुए पूछा। ''उसे कहाँ ले जा रहे हो।’’

भागो ने आहिस्ता से जवाब दिया। ''कोंटेन में।’’

''तो क्या अब तुम्हारी दानिस्त में कवारंटेन दोज़ख़ नहीं भागो?’’

''आपने जो आने से इनकार कर दिया, बाबू जी और चारा ही किया था। मेरा ख्याल था, वहां हकीम की मदद मिल जाएगी और दूसरे मरीज़ों के साथ उस का भी ख्याल रखूँगा।

''यहां रख दो चारपाई अभी तक तुम्हारे दिमाग़ से दूसरे मरीज़ों का ख्याल नहीं गया? अहमक़।’’

चारपाई अन्दर रख दी गई और मेरे पास जो तीर बह हदफ़ दवा थी, मैंने भागो की बीवी को पिलाई और फिर अपने गैर मुरई हरीफ़ का मुक़ाबला करने लगा। भागो की बीवी ने आँखें खोल दी।

भागो ने एक लरज़ती हुई आवाज़ में कहा। ''आपका एहसान सारी उम्र ना भूलूँगा, बाबूजी।’’

मैंने कहा। ''मुझे अपने गुज़श्ता रवैय्या पर सख्त अफ़सोस है भागो इश्वर तुम्हें तुम्हारी ख़िदमात का सिला तुम्हारी बीवी की शिफ़ा की सूरत में दे।’’

इसी वक़्त मैंने अपने गैर मुरई हरीफ़ को अपना आख़िरी हर्बा इस्तिमाल करते देखा। भागो की बीवी के लब फड़कने लगे। नब्ज़ जो कि मेरे हाथ में थी, मद्धम हो कर शाना की तरफ़ सरकने लगी। मेरे गैर मुरई हरीफ़ने जिसकी उमूमन फ़तह होती थी, हसब-ए-मामूल फिर मुझे चारों शाने चित्त गिराया। मैंने नदामत से सर झुकाते हुए कहा। ''भागो बदनसीब भागो तुम्हें अपनी कुर्बानी का ये अजीब सिला मिला है आह!’’

भागो फूट फूटकर रोने लगा

वो नज़ारा कितना दिल-दोज़ था, जब कि भागो ने अपने बिलबिलाते हुए बच्चे को इस की माँ से हमेशा के लिए अलाहदा कर दिया और मुझे निहायत आजिज़ी और इनकिसारी के साथ लौटा दिया।

मेरा ख्याल था कि अब भागो अपनी दुनिया को तारीक पाकर किसी का ख्याल ना करेगा मगर इस से अगले रोज़ मैंने उसे बेश अज़ पेश मरीज़ों की इमदाद करते देखा। इस ने सैंकड़ों घरों को बेचिराग़ होने बचा लिया और अपनी ज़िंदगी को हीच समझा। मैंने भी भागो की तक़लीद में निहायत मुस्तइद्दी से काम किया। कवारंटेन और हस्पतालों से फ़ारिग़ होकर अपने फ़ालतू वक़्त मैं ने शहर के ग़रीब तबक़ा के लोगों के घर, जो कि बदरुओं के किनारे पर वाक्य होने की वजह से, या ग़लाज़त के सबब बीमारी के मस्कन थे, रुजू किया।

अब फ़िज़ा बीमारी के जरासीम से बिलकुल पाक हो चुकी थी। शहर को बिलकुल धो डाला गया था। चूहों का कहीं नाम-ओ-निशान दिखाई ना देता था। सारे शहर में सिर्फ एक-आध केस होता जिसकी तरफ़ फौरी तवज्जा दिए जाने पर बीमारी के बढऩे का एहतिमाल बाक़ी ना रहा।

शहर में कारोबार ने अपनी तिब्बी हालत इख्तियार कर ली, स्कूल, कॉलेज और दफ़ातिर खिलने लगे।

एक बात जो मैंने शिद्दत से महसूस की, वो ये थी कि बाज़ार में गुज़रते वक़्त चारों तरफ़ से उंगलियां मुझी पर उठतें। लोग एहसान मंदाना निगाहों से मेरी तरफ़देखते। अख़बारों में तारी$फी कलिमात के साथ मेरी तसावीर छपीं। इस चारों तरफ़ से तहसीन-ओ-आफ़रीन की बौछार ने मेरे दिल में कुछ ग़रूर सा पैदा कर दिया।

आख़िर एक बड़ा अज़ीमुश्शान जलसा हुआ जिसमें शहर के बड़े बड़े रईस और डाक्टर मदऊ किए गए। वज़ीर-ए-बलदीयात ने इस जलसा की सदारत की। मैं साहब-ए-सदर के पहलू में बिठाया गया, क्योंकि वो दावत दरअसल मेरे ही एज़ाज़ में दी गई थी। हारूँ के बोझ से मेरी गर्दन झक्की जाती थी और मेरी श$िख्सयत बहुत नुमायां मालूम होती थी। पर ग़रूर निगाह से में कभी इधर देखता कभी उधर ''बनी-आदम की इंतिहाई ख़िदमतगुज़ारी के सिला में कमेटी, शुक्रगुज़ारी के जज़बा से मामूर एक हज़ार एक रुपये की थैली बतौर एक हक़ीर रक़म मेरी नज़र कर रही थी।’’

जितने भी लोग मौजूद थे, सबने मेरे रफ़क़ाए कार की उमूमन और मेरी खुसूसन तारीफ़ की और कहा कि गुज़श्ता आफ़त में जितनी जानें मेरी जाँ-फ़िशानी और तनदिही से बची हैं, उनका शुमार नहीं। मैंने ना दिन को दिन देखा, ना रात को रात, अपनी हयात को हयात-ए-कौम और अपने सरमाया को सुरमा य-ए-मिल्लत समझा और बीमारी के मस्कनों में पहुंच कर मरते हुए मरीज़ों को जाम-ए-शिफ़ा पिलाया।

वज़ीर-ए-बलदीयात ने मेज़ के बाएं पहलू में खड़े हो कर एक पतली सी छड़ी हाथ में ली और हाज़िरीन को मुख़ातब करते हुए उन की तवज्जा इस स्याह लकीर की तरफ़ दिलाई जो दीवार पर आवेज़ां नक्शे में बीमारी के दिनों में सेहत के दर्जा की तरफ़ हर लहज़ा उफ़्तां-ओ-खेज़ां बढ़ी जा रही थी। आख़िर में इन्होंने न$क्शा में वो दिन भी दिखाया जब मेरे •ोर निगरानी चोवन 54) मरीज़ रखे गए और वो तमाम सेहत याब हो गए। यानी नतीजा सौ फीसदी कामयाबी रहा और वो स्याह लकीर अपनी मेराज को पहुंच गई।

इसके बाद वज़ीर-ए-बलदीयात ने अपनी तक़रीर में मेरी हिम्मत को बहुत कुछ सराहा और कहा कि लोग ये जान कर बहुत ख़ुश होंगे कि बख्शी जी अपनी ख़िदमात के सिला में लैफ़्टीनैंट कर्नल बनाए जा रहे हैं।

हाल तहसीन-ओ-आफ़रीन की आवाज़ों और पर शोर तालियों से गूंज उठा।

इन ही तालियों के शोर के दरमयान मैंने अपनी पर ग़रूर गर्दन उठाई। साहब-ए-सदर और मुअजि़्ज़ज़ हाज़िरीन का शुक्रिया अदा करते हुए एक लंबी चौड़ी तक़रीर की, जिसमें इलावा और बातों के मैंने बताया कि डाक्टरों की तवज्जा के काबिल हस्पताल और कवारंटेन ही नहीं थे, बल्कि उन की तवज्जा के काबिल ग़रीब तबक़ा के लोगों के घर थे। वो लोग अपनी मदद के बिलकुल नाक़ाबिल थे और वही ज़्यादा-तर इस मूज़ी बीमारी का शिकार हुए। मैं और मेरे रफ़क़ा ने बीमारी के सही मुक़ाम को तलाश किया और अपनी तवज्जा बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने में सिर्फ कर दी। कवारंटेन और हस्पताल से फ़ारिग़ हो कर हमने रातें इन ही ख़ौफ़नाक मस्कनों में गुज़ारें।

इसी दिन जलसा के बाद जब मैं बतौर एक लैफ्टीनैंट कर्नल के अपनी पुरग़ुरूर गर्दन को उठाए हुए, हारूँ से लदा फंदा, लोगों का नाचीज़ हदया, एक हज़ार एक रुपये की सूरत में जेब में डाले हुए घर पहुंचा, तो मुझे एक तरफ़ से आहिस्ता सी आवाज़ सुनाई दी।

''बाबू जी बहुत बहुत मुबारक हो।’’

...और भागो ने मुबारकबाद देते वक़्त वही पुराना झाड़ू क़रीब ही के गंदे हौज़ के एक ढकने पर रख दिया और दोनों हाथों से मुँडासा खोल दिया। मैं भौंचक्का सा खड़ा रह गया।

''तुम हो? भागो भाई!’’ मैंने बमुशकिल तमाम कहा ''दुनिया तुम्हें नहीं जानती भागो, तो ना जाने मैं तो जानता हूँ। तुम्हारा यसवा तू जानता है पादरी लाम, आबे के बेमिसाल चेले तुझ पर ख़ुदा की रहमत हो!’’

इस वक़्त मेरा गला सूख गया। भागो की मरती हुई बीवी और बच्चे की तस्वीर मेरी आँखों में खिच गई। हारूँ के बार-ए-गिरां से मुझे अपनी गर्दन टूटती हुई मालूम हुई और बटोई के बोझ से मेरी जेब फटने लगी। और इतने एज़ाज़ हासिल करने के बावजूद मैं बेतौक़ीर हो कर इस क़द्रशनास दुनिया का मातम करने लगा।

 

बेदी उर्दू के बड़े कथाकार हैं। इस पुरानी कहानी को आज के संदर्भ में पढ़कर पाठकों को ता•ज़ुब हो सकता है। इस दुर्लभ और गुमी हुई कहानी को अजमल और राजकुमार ने उपलब्ध कराया है।


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