मुखपृष्ठ पिछले अंक हिंदू
जून - जुलाई : 2020

हिंदू

गौरीनाथ

लंबी कहानी

 

 

 

 

नागरिक पहचानने का एक साफ़्टवेयर होगा हमारे पास

बारकोड स्कैनर से बस एक क्लिक की ज़रूरत होगी

 

21 फ़रवरी, 2020 : महा शिवरात्रि

उत्पल को अपने काम में डूबा देख माँ दीवार का सहारा लेकर, बड़बड़ाते हुए उसके टेबुल के पास से घिसटती-सी, बालकनी की तरफ़ चली गई। उसकी मजबूरी थी कि इस उम्र में भी वह उत्पल के पास दिल्ली में थी। गाँव में रह रहे तीनों बड़े बेटों ने किसी-न-किसी बहाने पूरी बेहयाई से हाथ खड़े कर दिए थे। उत्पल बेहया नहीं था इसलिए हर हाल में रख रहा था।

कमरे में आई ख़ामोशी के बीच उत्पल ने आँखें बंद कर कुर्सी के पुश्ते से सिर टिका लिया। कुछ क्षण गुज़रे होंगे कि उत्पल चौंक उठा अपनी खुराफ़ात पर! लगा, सचमुच उसने कोई ऐसी खोज कर ली है कि यूरेका-यूरेका चिल्लाकर दुनिया को बताने की ज़रूरत है। अपने तई तो उसको वैसा ही लगा कि क्या कमाल का आइडिया है!... अगर यह मुमकिन होता तो नोबल तो बाद में मिलता, अपनी ही उस सरकार की तरफ़ से जिसके ख़िलाफ़ वह शाहीन बाग़ तक नारे-पोस्टर लहराते उसकी नीतियों की मुख़ालफ़त करता रहा है, देश रत्न तत्काल मिल जाता!...

उसके दिमाग़ के कंप्यूटर की तरफ़ से मेडिकल साइन्स के क्षेत्र में यह एक अमूल्य देन थी। उसके दिमाग़ ने एक ऐसा सॉफ़्टवेयर डिज़ाइन किया था जो बच्चा पैदा होते उसकी बायोमेट्रिक्स लेकर तत्काल उसका एक आधार नंबर ज़ेनरेट कर देगा। फिर उस नंबर का बारकोड बच्चे के दिल, दिमाग़, किडनी, लीवर जैसे तमाम अंगों पर इम्पोज़ कर दिया जाएगा!... फिर उस नंबर का लिंक सरकार के सॉफ़्टवेयर से इस तरह जोड़ दिया जाएगा कि उस व्यक्ति के सोचने-विचारने, बोलने-बतियाने, खाने-पीने से लेकर हगने-मूतने तक का संपूर्ण डाटा सरकार को मिलता रहेगा। सरकार जब चाहेगी देख लेगी कि वह व्यक्ति कितना देश-भक्त या देशद्रोही है!... यदि उसके भीतर सरकार-विरोधी कोई वायरस पनप रहा होगा, तो सरकार को पता चल जाएगा और 'माता रानी’ नामक एंटी-वायरस तत्काल सक्रिय होकर उसका निदान कर देगी! तब टुकड़े टुकड़े गैंग यूँ ही नेस्तनाबूद हो जाएँगे और देशद्रोही पैदा होने के ख़तरे नहीं रहेंगे!... एक क्लिक करते सरकार को पता चल जाएगा कि कौन क्या खाता है, क्या पहनता है, किस तरह सेक्स करता है, कितने से करता है और कब-कब करता है!... कौन-से रंग पसंद करता है!... किसकी वह आराधना करता है, किसकी साधना!... किसी के दिमाग़ में परिवर्तन लाने की ज़रूरत तो नहीं?... संपूर्ण मॉनिटरिंग की सुपर कमांड सरकार के प्रधान के पास होगी। उसी के इच्छानुसार संपूर्ण मॉनिटरिंग टीम काम करेगी!... वर्तमान आईटी सेल के सारे भक्तों की नियुक्ति तब सरकार की एक्सपर्ट मॉनिटरिंग टीम में हो जाएगी! वे सब गाय के गोबर, गोमूत्र और गंगाजल सेवन करनेवाले सरकार के अपने ख़ासम-ख़ास 24 कैरेट शुद्ध भक्त होंगे! वह भक्त ही जिसको चाहेगा वोटर आईडी जारी करेगा! भक्त ही पेन कार्ड देगा, ड्राइविंग लाइसेंस देगा! भक्त ही पासपोर्ट, वीजा, नियुक्ति-पत्र वगैरह भी देगा!... और इन सब के बावजूद वह जब जिसको चाहेगा अपने ही देश का नागरिक मनाने से इनकार कर डिटेन्शन सेंटर भेज देगा!... पाकिस्तान का वीजा थमा देगा!... और जिसको चाहेगा इन सब के बावजूद माई-बाप बना लेगा!... और हो सकता है तब ईबीएम मैनेज करने या चुनाव आयोग को साधने की ज़रूरत ही न पड़े!... न्यायालय तब अपने आप कठपुतली की तरह काम करने लगेगा!...

क्या कमाल की खोज है!...

उत्पल के दिमाग़ की नसें तड़कने लगीं। 'देश के गद्दारों को/ गोली मारो सारों को’ जैसे नारे भीतर शोर मचा रहे थे। सामने के कार्ड-बोर्ड पर उसने एक-दो आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींची थीं। बड़ी देर से पेन्सिल हाथ में थामे वह यूँ ही बैठा था। बालकनी के तुलसी गाछ के पास बैठी माँ पूरी लय में हनुमान चालीसा पढ़ रही थी।

उसके जैसा कलाकार!... उसने ख़ुद से पूछा, ''क्या फ़र्क पड़ता है कि वह क्या करता है? आज कलाकार सहित कीटनाशक वाली गोभी-बैगन बेचकर पेट पालने वाले, अन्न उपजाकर भूखे मरने वाले, जीवन-रक्षक दवा बेच मोटे होने वाले या स्कूलों-थानों में हाजिरी लगाने वाले और जिस्म बेचकर खाने वाले के सोच में क्या फ़र्क रह गया है? यह दीगर बात है कि ईमान बेचकर खाने वाले अपने को इन सब से ऊपर मानते हैं! सर्वश्रेष्ठ!...’’ उत्पल एक मामूली कलाकार है और उसका एक बड़ा-सा परिवार भी है। उसके परिवार में पत्नी, बच्चे और ढेर सारे मित्रों के साथ ही एक वृद्ध-जर्जर माँ भी है!...

हर परेशानी को चुटकी बजाते हवा में उड़ाकर ख़ुश रहने वाला उत्पल उस वक़्त ज़्यादा परेशान था। घर में बाक़ी सब को डाँट-डपट चुका था। मोबाइल पर आए एक ज़रूरी कॉल को इग्नोर करते आख़िरकार स्विचऑफ़ कर डाला था। अपने सर के बाल बस नोच नहीं रहा था वह, लेकिन घर और देश के हालात वैसे ही जटिल थे। माँ कई दिनों से एक ही रट लगाए हुए थी—गाँव, गाँव के लोग, नदी-तालाब, पंछी... पता नहीं क्या-क्या वह मंत्र की तरह बुदबुदाती रहती थी।

उत्पल बड़ी देर से सामने के स्केच में उलझा था। बाक़ी दिन इतने समय में वह एक से ज़्यादा पोस्टर पूरा कर लिया रहता था, लेकिन तब वह तमाम शोर से निकल पेन्सिल चलाने को होता कि माँ की बड़बड़ाहट उसके कान में टपक पड़ती! एक बार गुस्सा कर उसने माँ की तरफ़ देखा भी। लेकिन ज़ुबान पर ताला लगाए रखा! उसको पता है, वह कुछ भी कहेगा माँ सुनेगी नहीं! सुनकर भी नहीं सुनेगी!... फिर आज माँ का जन्मदिन है। 96वीं सालगिरह! शाम तक घर में भीड़ जमा हो जाएगी। तब कोई काम नहीं हो पाएगा।... कि तभी उसके मन-मस्तिष्क में पिछले साल की माँ की बर्थडे सेलिब्रेशन की घटना आ गई!... फिर एक-एक कर माँ की मानो पूरी जि़ंदगी आँखों के सामने रील की तरह आने लगी!...

 

2

इतिहास गवाह है

माँ पर जितनी कविताएँ लिखी गईं उतनी

देश पर भी नहीं...

 

माँ की जि़ंदगी के सत्तर साल गाँव में ही बीते हैं। ख़ू ब मिहनत-मश$क्क़त करते जि़ंदगी के बहुत सारे दुख-सुख उसने गाँव में ही काटा है। कोदो-मड़ुआ कि खेसारी-अल्हुआ खाकर, भूखे-अधपेटे भी ख़ुश रहने की उसकी आदत थी। तमाम तकलीफ़ों के बीच सारे काम निबटाकर हर दिन हँसते-गाते जिसने उसको देखा होगा, उसके लिए हमेशा रोते-झींखते, अपने भाग्य को कोसने वाली आज की माँ की स्थिति कितनी अविश्वसनीय होगी?

पैंसठ साल की उम्र तक वह दिन-रात खटती रही थी। अन्न के एक-एक दाने के लिए भूसे की पहाड़ सी ढेर खंगालने वाली अद्ïभुत जीवट थी माँ। चक्की-मशीनें तब भी थीं, लेकिन एक-एक मु_ी अन्न उसके लिए इतना मोल रखता था कि पिसान बचाने को वह ख़ुद ही ओखल-ढेकी में धान कूटती और जाँते में गेहूँ-मड़ुआ पीसती थी। बड़े जतन से एक-एक बूँद तेल-मशाला बचाते जो खाना वह बनाती थी, क्या ग़ज़ब स्वाद होता था उसमें!...

$खैर, चमकते अतीत की वह बात बहुत पुरानी हो गई। तब पिता भी थे। पिता के गुज़रने के बाद भाइयों में बँटवारा क्या हुआ, सब कुछ तहस-नहस हो गया। वास की ज़मीन के चार टुकड़े हुए और सब का अलग-अलग पारा लगा। एक बच्चे ने चारों को हिस्से का पुर्जा दिया। पुराने घर-आँगन वाला पारा घनश्याम के हिस्से आया। पक्के दीवाल और खपड़ेल वाला दालान-घर का पारा उत्पल के हिस्से आया। उत्तर की तरफ़ की ख़ाली ज़मीन में दो अलग-अलग पारा लगा, जिनमें बहुत सारे आम-कटहल के गाछ भी थे—एक महादेव के हिस्से आया और एक रमेश के। महादेव-रमेश को घर बनाने के लिए साझे से गाछ-बाँस, पाँच-पाँच क्विंटल अनाज और दस-दस हज़ार रुपए भी मिले। फिर बाक़ी एक-एक चीज़ों के टुकड़ों के बाद चारों भाइयों के हिस्से पाँच-पाँच एकड़ ज़मीन आई थी और साढ़े तीन एकड़ रकवे का एक सबसे उपजाऊ टुकड़ा माँ की जीविका के नाम पर सुरक्षित किया गया था। तब भी माँ को अपने साथ रखने को कोई बेटा तैयार नहीं था!...

बँटवारे के समय तक उसके तीन बेटे की शादी हुई थी। दो बड़ी बहुएँ उसके शासन में शासित रह चुकी थीं और तीसरी अभी आई ही थी कि बूढ़े का गुज़रना और बँटवारे की घटना दोनों एक क्रम से कुछ ही दिनों के भीतर घटित हो गए थे। किशोर कुमार रूप में चर्चित गाँव का होनहार गायक चिंटुआ गाने लगा था, ''कनियाँ बड़ उत्फाल करै छै / घोघ तर स’ कमाल करै छै।’’

माँ की ख्याति ज़रूरत से ज़्यादा स$ख्त मिज़ाज सास वाली थी। बड़ी बहू लछमी पर उसने जो जुल्म ढाये थे कि पुराने लोगों में अब भी उसकी चर्चा होती है। लछमी कम उम्र में ही ससुराल आई थी और उसकी एक ही ऐब थी कि पंद्रह-सोलह की अल्हड़ता मायके में छोड़कर नहीं आई थी। सीधी-साधी थी। भूख लगने पर घर के बड़ों से पहले भी जो मिलता खा लेती थी। कुछ ज़्यादा भी खाती थी।... इसके लिए सास और पति के हाथों जानवरों की तरह उसकी जमकर कुटाई होती थी। इतनी कुटाई होती थी कि उस बँटवारे तक न उसकी गोद भरी, न मनुष्य में उसकी गिनती थी। दो-दो बार उसका गर्भपात हुआ था।

बड़ा बेटा महादेव माँ को सबसे प्रिय था, लेकिन लछमी को वह ऐसी पापिन मानती थी कि उसके छूए अन्न ग्रहण नहीं कर सकती थी। इसलिए माँ के उसके साथ रहने की संभावना बिना किसी चर्चा के खारिज कर दी गई थी। दूसरा, घनश्याम जो एक बीमा कंपनी का एजेंट था और खेती-किसानी भी करता था, उसको एक क्षण के लिए माँ की जीविका वाली ज़मीन का लोभ तो हुआ... लेकिन माँ की साँसत में वर्षों से रही अपनी चतुर-चालाक पत्नी सरोज पर उस क्षण इतना प्यार ना जाने कैसे उमड़ा कि उसने चुप्पी साध ली। तीसरा, रमेश जिसको तहसील में नई-नई क्लर्की मिली थी और जो वहीं क्वार्टर लेकर रहने का रूमानी प्लान बना चुका था उसको अपनी नई-नवेली चंपाकली के साथ मौज-मस्ती में बुढिय़ा का ख़लल क़तई बर्दाश्त नहीं था!... उसने साफ़-साफ़ 'ना’ कह दिया!

सबसे छोटा उत्पल तब तक कुँवारा था और फ़ाइन आर्ट में डिप्लोमा कर रहा था। उसको अपनी ही पढ़ाई का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। उसको अपने भाइयों के व्यवहार पर कोई आश्चर्य नहीं, दुख-भर हुआ! तभी बड़े भाई महादेव ने घनश्याम से पूछा, ''तुम्हारी भाभी का छुआ हुआ माँ नहीं खाएगी, वरना मैं ही साथ रखता।... लेकिन तुम क्यों नहीं रखते?’’ बात अनसुना करते घनश्याम सिर खुजाने लगा, तो उसने रमेश से पूछा, ''तुम्हारे परिवार के हाथ का बना माँ कभी खायी भी नहीं है।... तुम क्यों नहीं रखना चाहते रमेश?’’ रमेश ने तत्काल कहा, ''मेरा क्वार्टर छोटा है।’’

आख़िर में उत्पल ने घनश्याम को अलग ले जाकर कहा, ''माँ तो आख़िर माँ है न भैया!... हम नहीं रखेंगे तो इस उम्र में क्या वह अलग चूल्हा जलाएगी?... मेरा एक प्रस्ताव है—माँ की जीविका वाली ज़मीन के साथ ही मेरे हिस्से की ज़मीन भी तब तक आप उपजाकर खा सकते हैं जब तक माँ आपके साथ रहेगी। मैं ट्यूशन वगैरह कर के पढ़ाई कर लूँगा। मन माने तो कहिए?... इस बीच जितना हो पाएगा मदद ही करूँगा, लूँगा कुछ नहीं।’’

घनश्याम ने प्रस्ताव लपक लिया। सरोज तो इतनी ख़ुश हुई कि दोपहर बाद उत्पल को कमरे में आराम करते देख कटौरे में तेल लेकर मालिश करने पहुँच गई। उधर चंपाकली को मौक़ा चुकने का अफ़सोस बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह लगातार ताने मार रही थी, ''देवर बाबू को फाँस ली है छिनरिया!’’ और शाम ढलते वह भी गमकौआ तेल लेकर उत्पल के कमरे में हाजिर थी! खैर...

इस तरह गाँव में माँ की एक व्यवस्था तो हो गई, लेकिन वह बहुत टिकाऊ साबित नहीं हुई। घनश्याम की ज़मीन का बढ़ा हुआ रकवा देख एक तरफ़ चंपाकली और रमेश सुलगते रहते, तो दूसरी तरफ़ महादेव भीतर-ही-भीतर कुढ़ता रहता। सब अपने-अपने तरीके से माँ के कान भरते रहते। बाजवक़्त माँ भी घनश्याम पर ताने मारने लगी थी, ''तू तो स्वार्थ से रख रहा है मुझे! मेरी जीविका से जितनी उपज होती है उसका दसवाँ हिस्सा भी मैं नहीं खाती हूँ। ऊपर से उत्पल के हिस्से की पाँच एकड़ ज़मीन!... तब भी इलाज-कपड़े, तेल-साबुन के लिए मुझे उत्पल के पैसे पर ही निर्भर रहना पड़ता है। तू तो रूखे-सूखे दो कौर अन्न भर देता है, दो अच्छे बोल भी नहीं कहता!...’’ इतनी-सी बात पर सरोज और घनश्याम बुढिय़ा पर टूट पड़ते। जो सरोज कभी बुढिय़ा के शासन में दबी-सी रहती थी, अब उस पर कड़ाई से शासन कर रही थी। बुढिय़ा डरकर अचानक चुप हो जाती। फिर खाना-पीना छोड़ खटवास ले लेती। काफी झाँव-झाँव, कीच-कीच के बाद मान-मनौव्वल होता!...

उस बँटवारे के कुछ ही महीने बाद उत्पल दिल्ली आ गया था। यहाँ तब तक उसकी चित्रकला तो उस तरह आय वाली सिद्ध नहीं हुई थी, लेकिन एक अख़बार में बतौर विजुअल आर्टिस्ट नौकरी लग गई थी। धीरे-धीरे कुछेक पब्लिकेशन्स वगैरह से डिज़ाइनिंग के अतिरिक्त काम भी मिलने लगे थे। दिल्ली में वह यमुना पार के भजनपुरा-गोकुलपुरी एरिया में रहता था जहाँ से काम की तलाश में अक्सर का$फी दूरी तय करना पड़ता था। काम से जुड़े लोगों के अलावा तब तक उसके न ज़्यादा मित्र बने थे और न कोई मनबहलाव के साधन थे। उन्हीं दिनों गाँव-पास के क़स्बे में रहनेवाली उसकी हाई-स्कूल दिनों की सबसे प्रिय सहपाठिन सुधा के भाई के आर्मी ज्वाइन करने के बाद उसके घर बीएसएनएल का लैंडलाइन कनेक्शन क्या लगा, उसने एक शाम कॉल कर दिया। चांस अच्छा था कि कॉल सुधा ने ही उठाया था। उस वक़्त उसकी मम्मी बर्तन धो रही थी और पापा कहीं बाहर थे। सो सुधा ने दबे स्वरों में उसके चित्रों की तारीफ़ करते हुए मम्मी की आँगनबाड़ी कक्षाओं का समय भी बता दिया और ज़ोर से 'रॉन्ग नंबर’ कहते हुए रिसीवर रख दिया।

तब तक अपने देश में मोबाइल फोन नहीं आया था और बीएसएनएल का एसटीडी कॉल बड़ा महँगा होता था। फिर भी सुधा के बोल सुनने के लिए उत्पल महीने की एक चौथाई कमाई ख़ुशी-ख़ुशी पीसीओ वाले को दे आता था। उसी का सुपरिणाम था कि दिल्ली आने के दो साल लगते-लगते सुधा-उत्पल का विवाह जैसे-तैसे हो गया।... जैसे-तैसे इसलिए कि इस शादी में उत्पल के भाइयों सहित गाँव-बिरादरी के कोई शामिल नहीं हुए! सवाल जनेऊ के मैले होने का था!... सुधा के पिता की जाति 'शूद्र’ कटेगरी में आती थी! शादी में उत्पल के दो दोस्त बाहर से आए थे और गाँव से एक मात्र उसका बाल सखा गायक चिंटुआ था!... और बड़ी सादगी से सब कुछ संपन्न हो गया।

शादी की शाम तक रूठी रही माँ अगली सुबह सुधा की परिछन कर गृह-प्रवेश करवाने के लिए तैयार खड़ी थी! वह भी इस ऐलान के साथ कि 'ब्याह के बाद बहू मेरी जाति की हुई!’ ...फिर तो बहू इतनी पसंद आई कि सुधा की पहली यात्रा के साथ ही माँ भी ख़ुशी-ख़ुशी दिल्ली आ गई थी।...

 

3

देश इन्सानों से बनता है और

बँटता है हिंदू-मुसलमानों से

और माँ...

 

उत्पल को जो डर था उसके उलट माँ को दिल्ली आकर अच्छा लगा था। वह गाँव से बाहर पहली बार निकली थी, लेकिन यहाँ उसको किसी चीज़-बात की कमी महसूस नहीं हुई थी। अन्न-वस्त्र का तो सवाल ही नहीं था। वह इतने अभावों में रही थी कि यहाँ हर चीज़ उसको ज़्यादा ही लगता था। गाँव में जितने परिजनों के बीच रही थी, उसमें भी माँ को वैसी कोई कमी महसूस नहीं हुई थी। गाँव-पड़ोस के कई निकट संबंधी और परिचित यहाँ आसपास के मुहल्ले में रहते थे। कोई करावल नगर, सोनिया विहार। कोई नंदनगरी, यमुना विहार। उत्पल की एक मात्र बहन लता का पूरा परिवार सादतपुर में था। एक ममेरी बहन सुजाता का परिवार उसी के मुहल्ले में था। अक्सर किसी-न-किसी का आना लगा रहता था।

फिर उत्पल की अपनी चित्रकला की दुनिया से जुड़े साथियों की बड़ी $फौज थी। चाँद बाग़ में उसने एक स्कूल से लगी छोटी-सी जगह स्कूल-संचालकों के सौजन्य से ले रखी थी जहाँ सप्ताह के दो दिन वह इच्छुक बच्चों को नि:शुल्क चित्रकला की ट्रैनिंग देता था। इस तरह चित्रकला के ज़रिए उसने धीरे-धीरे अपने परिचितों का ऐसा दायरा फैला रखा था कि आसपास के मुहल्लों के का$फी लोग उसको जानने लगे थे। उनमें से रवि, फ़जल, रहमत जैसे कई घर भी आते थे। जुबैर तो पड़ोसी ही था जिस पर अधिकतर घरेलू काम के लिए उत्पल एक तरह से निर्भर-सा रहता था। माँ को उन सब से मिलकर, बात कर अच्छा लगता था। बस एक दिक्क़त थी। उन सब के बीच बैठ कर वह कुछ खाती-पीती नहीं थी। सुधा और उत्पल ने बहुत समझाया लेकिन माँ की अपनी कुछ जि़द और धारणाएँ थीं जो नहीं बदल सकती थीं। जाति-धर्म को लेकर एक दूरी वह सदैव रखती थी। छुआछूत की हद तक। हाँ, यह दूरी प्रकटत: उसके निजी खान-पान और पूजा-आराधना तक ही सीमित थी। उत्पल और सुधा जब दूसरे जाति-धर्म के लोगों के साथ घर में मिल-बैठ कर खाते-पीते, तो देख-रेख करने और परोसने तक में माँ मदद कर देती थी। साथ बैठ वह उनकी बातें सुनती और अपनी बात भी पूरज़ोर तरीके से रखती थी। बस अपने खाने-पीने को लेकर उसके कुछ नियम थे। इसलिए उसके साथ कहीं यात्रा करने में बड़ी दिक्क़त थी। होटल-ढाबे का बना खाना तो दूर, चाय तक नहीं पीती थी!...

कुछ साल बाद नई सदी की शुरुआत के साथ ही जब उत्पल ने यमुना विहार में क़िस्तों पर अपना फ्लैट ले लिया तो माँ बहुत ख़ुश हुई थी। तब तक सुधा-उत्पल के दोनों बच्चे—रोहित और जया—के जन्म से घर में इतनी रौनक आ गई थी कि उसके चेहरे पर हमेशा हँसी-ख़ुशी और होंठों पर लोरीनुमा कुछ होते ही थे। फिर भी यमुना विहार के अपने फ्लैट में आने की जो ख़ुशी उसको हुई थी, उसकी कुछ और वजह थी जिस पर उत्पल ने ख़रीदते समय गौर नहीं किया था। गोकुलपुरी में सबसे निकट पड़ोसी और दोस्त-मददगार जुबैर जैसों का परिवार था और गली में सामने ही मस्जिद थी जहाँ से अजान की आवाज़ साफ़-साफ़ आती थी। यमुना विहार की सोसाइटी में सारे के सारे चौबीस परिवार हिंदू थे और उनमें भी चार-पाँच स्वजातीय। फिर बालकनी के सामने ही शिवजी का मंदिर था जहाँ से हमेशा भजन-कीर्तन की आवाज़ आती रहती थी, जिससे कई बार उत्पल एरिटेट हो जाता था, लेकिन माँ ख़ुश! 

माँ के लिए ख़ुशियों से भरी जि़ंदगी का एक नया दौर शुरू हुआ था। रोहित पाँच साल का था और जया कुछ ही महीने की थी तब। दोनों बच्चे सुधा से ज़्यादा अपनी दादी माँ से ही लिपटे रहते थे। दादी के पास तरह-तरह के गीत और क़िस्सों का ख़ज़ाना था। किचन ज़रूर सुधा के जिम्मे थी लेकिन सब्जी काटने, साग बीनने के काम में अक्सर माँ हाथ बँटाती थी। अदौरी, कुम्हरौरी, बीडिय़ा, अँचार, मुरब्बे बनाने या पर्व-त्योहारों के पकवान और अरिपन माँ के हाथ लगे बिना पूरे नहीं होते थे।

उस दौरान साल-डेढ़ साल में जब किसी प्रयोजन पर उत्पल सपरिवार गाँव जाता, तो माँ भी जाती थी और सप्ताह-दस दिन रहकर साथ ही लौट आती थी। गाँव के किसी बेटे-बहू ने कभी रहने का कोई आग्रह नहीं किया, न उसकी कभी इच्छा हुई। हाँ, माँ के दिल्ली आते उसकी जीविका वाली ज़मीन के लिए गाँव में भीषण कलह शुरू हो गया था। साथ ही उत्पल पर भावनात्मक दबाव भी कि—तुम तो ख़ू ब कमाते हो और हमारी कोई मदद नहीं करते! तब तक उत्पल एक बड़े फ़र्म में आर्ट डाइरेक्टर हो गया था। आख़िर उत्पल ने जीविका वाली ज़मीन में अपना हिस्सा छोड़ते हुए उन तीनों को बराबर-बराबर बाँट लेने की सहमति दे दी। लेकिन उत्पल के हिस्से वाली ज़मीन तब भी घनश्याम ही जोत-खा रहा था। बदले में इतना होता था कि जब कभी उत्पल गाँव जाता तो दस किलो मूँग, पाँच किलो चिड़वा, दो किलो पीला सरसों की तरह की कोई-न-कोई चीज़ उपहार के तौर पर मिलती। उस उपहार के साथ चालाक सरोज दिल्ली में रह रही अपनी बेटी मीरा की चर्चा ज़रूर करती, ''उसके माई-बाप तो आप ही लोग हैं!’’ और एक पोटली उसके लिए भी थमा देती।

वर्ष-दर-वर्ष बीतते गए। माँ दिल्ली में रीत गई।

यूँ सरोज का जब दरभंगा में एक ऑपरेशन हुआ था, तो बहुत आग्रह कर के मियाँ-बीवी दोनों ने घर और बच्चों की देख-रेख के लिए माँ को गाँव बुलाया था। लेकिन महीना भी नहीं लगा कि माँ उधर से आ रहे अपने दामाद संग दिल्ली लौट आई। बोली तो माँ कुछ नहीं, लेकिन बहुत कमज़ोर और खिन्न लग रही थी।... इसी तरह रमेश की बेटी के ब्याह में गई तो चंपाकली के 'एक महीना रुकने’ के आग्रह पर माँ रुक गई। छह-सात दिन ही गुज़रे थे कि एक शाम $फोन पर माँ ने सुधा को अपनी अवहेलना की ऐसी-ऐसी बातें बताईं कि उत्पल को तत्काल टिकट लेकर गाँव जाना पड़ा।

उत्पल गाँव गया और अगले दिन निकलने ही वाला था कि उसकी नज़र घर से पश्चिम के बाँस और शीशम गाछ की तरफ़ गई। वातावरण बदला-बदला-सा लगा। उसने घनश्याम की तलाश की। वह आँगन-दालान कहीं नज़र नहीं आया। उसका हीरो होंडा बीच दालान पर शान से खड़ा था। गाड़ी के बम्पर पर जहाँ पहले 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ का स्टिकर लगा रहता था, अब उसका एडवान्स वर्जन आ गया था—'हिंदू हिंदुत्व हिंदुस्तान/ब्राह्मïण गौरव सगर जहान’। वह इस पंक्ति की आक्रामकता को समझते हुए बगल के रास्ते से बँसबाड़ी की तरफ़ निकल गया।  निकट जाकर देखा तो उसके हिस्से के बहुत सारे बाँस और दो विशाल शीशम गाछ कटे पड़े थे। थोड़ी ही दूरी पर घनश्याम, महादेव और कुछ मज़दूर खड़े थे। इस बाबत उत्पल ने जब घनश्याम से पूछा तो उल्टा वही आगबबूला हो गया, ''यहाँ तुम्हारी कौन-सी ज़मीन है अब और कौन-सा गाछ? बोलते ज़रा भी शर्म-लिहाज नहीं है रे देशद्रोही!... नमकहराम!’’

उत्पल का तो दिमाग़ ही घूम गया घनश्याम के इस रूप को देखकर! गुस्से से वह भीतर तक काँप गया था फिर भी अपने को संयत करते उसने पूछा, ''तो मेरी ज़मीन कहाँ गई?’’

''इतने भुलक्कड़ तो नहीं हो तुम? हाँ, नीयत ख़राब हो गई हो तो उसका इलाज है मेरे पास!’’ गुस्से से धधकते हुए घनश्याम के कहा।

''भुलक्कड़ तो मैं बिल्कुल नहीं हूँ। नीयत किसकी ख़राब है यह आप बेहतर जानते हैं।’’

''तो तुम मुझ पर आरोप लगाओगे, मुझे गाली दोगे रे हरामी!... कुत्ता... साला..!’’ घनश्याम चीख़ने लगा, ''जब तू बुढिय़ा को रखने के लिए मेरे पैर पकड़ रहा था, ख़ुशामद कर रहा था... उस क्षण को भूल गया रे चोट्टा!... कैसे रो-गिड़गिड़ा रहा था तब!... तभी तो तुमने साफ़-साफ़ पेशकश की थी—मैं ज़मीन-जगह लेकर क्या करूँगा भैया!... मुझे तो पढ़ाई करनी है... एक लाख रुपए दीजिए और मेरी नौकरी लगने तक माँ को रखिए!... याद करो 1991 का वह एक लाख जो आज के दस करोड़ के बराबर होगा!... और अब बेईमानी पर उतर आए हो? खाल खींच भूसे भरकर गाछ पर टाँग दूँगा मैं! कोई कम्युनिस्ट, कोई टुकड़े-टुकड़े गेंग वाला बचाने नहीं आएगा। इस गाँव एरिया में मैं एस. पी., कलेक्टर की दाबी रखता हूँ।’’

''कोई सबूत या गवाह है?’’ डूबते को तिनके का सहारा की तरह हौसला लाते उत्पल ने कहा।

''मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कमीना निकलोगे! तब तो मदद ही नहीं करता। मेरे ही पैसे पर पढ़-लिख के आज ऐश कर रहे हो और मुझे चराने निकले हो?’’ और महादेव की तरफ़ हाथ चमकाते उसने कहा, ''पूछ, पूछ ले अपने बड़े भाई से कि तुमने अपनी सारी ज़मीन मुझे दे दी है कि नहीं?’’

उत्पल ने पूरे विश्वास के साथ महादेव की तरफ़ देखा! उसको यक़ीन-सा था कि महादेव अभी-अभी सच कहते घनश्याम को डाँटेगा। लेकिन वह मुस्कुराता-सा चुप रहा। आख़िर उत्पल को पूछना पड़ा, ''आप सच क्यों नहीं बोलते?’’

''अरे, मैं क्यों झूठ बोलूँगा तुम्हारे लिए कि इसके लिए? तुमने ख़ुद ही तो कहा था मुझे... जब मैंने तुमको पूछा था कि घनश्याम मेरे कहने पर माँ को रखने के लिए तैयार नहीं हुआ और तुम्हारे कहने पर कैसे राजी हो गया?... तब तुम्हीं ने तो बताया था कि मैंने अपने हिस्से की सारी ज़मीन दे दी है उसको!... हाँ, तुमने यह नहीं बतायी थी कि रुपए एक लाख कि कितने लिया! वह बात घनश्याम ने ही बतायी थी।... और यह सब अब अकेले मुझे नहीं, पूरे गाँव को पता है।’’

उत्पल हैरत में! उसकी तो आवाज़ ही बंद!...

''देखिए इस बेईमान को! मुझे अपने गाछ-बाँस काटने-बेचने से रोकने आया है। इसी शीशम गाछ की तरह टुकड़े-टुकड़े कर के रख दूँगा सरबे को!... इसकी बात में आकर मैंने जितने दिन बुढिय़ा को रखा, उतने दिन अपना कोई काम नहीं कर पाया। कंगाल कर दिया मुझे बुढिय़ा ने और इस हरमज़ादे ने। जल्दी चल के लिख ज़मीन, नहीं तो...’’ घनश्याम पास रखी कुल्हाड़ी लेकर उत्पल की तरफ़ लपका तो महादेव ने रोक लिया, ''ई साला तो मरने आया ही है, तू अपने साथ मुझे भी जेल ले जाएगा?’’

''मिसर बाबा कहते हैं, देशद्रोहियों का सफाया हिंदू राज में कोई अपराध नहीं।... सामने लोकसभा का चुनाव है। ऐसे लोगों को मारने से किसी को जेल नहीं होगा, उल्टे ईनाम मिलेगा। रुकिए न आप, एक ही कुल्हाड़ी में सरबे को आज ही...’’ दहाड़ते हुए घनश्याम लगातार गालियाँ देता रहा!

उसके बाद पूरे गाँव की पंचायत बैठने सहित ख़ू ब हो-हंगामा हुआ, लेकिन उत्पल को घर-वास की दो क_ा ज़मीन के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। पंचों और ज़्यादातर सगे-संबंधियों पर मिसर बाबा का ऐसा आतंक था कि जाने-अनजाने सबने उत्पल को देशद्रोही मान लिया था। चिंटुआ की तरह के दो-चार लोग असहाय और बेबस थे।

उत्पल का गाँव वाला खपड़ैल घर पुराना हो गया था, लेकिन उसकी मरम्मत की बजाय उसने चारों तरफ़ बाउंड्री वाल देकर पहले वासडीह सुरक्षित करना ही ज़्यादा ज़रूरी समझा था। इस सब में दस दिन से ज़्यादा निकल गए। दिल्ली से लगातार $फोन आ रहे थे। आख़िरकार निराश-हताश वह माँ को लेकर दिल्ली लौट आया था।

दिल्ली लौट कर माँ कुछ दिन उखड़ी-उखड़ी-सी रही फिर सहज होती गई। उसके भीतर कुछ ऐसा दरक-सा गया था कि पहले की तरह स्वस्थ्य-प्रसन्न वह फिर कभी नहीं हुई। कुछ ही दिन बाद गंभीर रूप से बीमार क्या पड़ी, जाँच में एक के बाद एक नई-नई बीमारियाँ उखड़ती ही गईं। पहले बीपी बढ़ी हुई आई। फिर गठिया-वात की शिकायत। फिर शूगर में लगातार वृद्धि दर्ज हुई। नींद कम आने लगी और खुराक भी धीरे-धीरे घटने लगी। कमर-पीठ में दर्द स्थायी रहने लगा।... और सुबह, दोपहर, शाम की दवाइयाँ रूटीन में शामिल हो गईं।

इस बीच गाँव से महादेव का बेटा हीरा काम की तलाश में दिल्ली आया। फिर घनश्याम के दोनों बेटे गोलू और सोनू लक्ष्मीनगर में रहकर पढ़ाई करने आए। हीरा को एक महीना भटकने के बाद भी जब कोई ढंग का काम नहीं मिला तो वह उत्पल के पास आया। हीरा के चेहरे पर फैली उदासी देख उत्पल ने एक-दो जगह फोन कर के कहा। तीसरे दिन एक पत्रिका के सर्कुलेशन विभाग में उसको काम मिल गया। इसके बाद हीरा अक्सर उसके घर मिलने-जुलने आता रहा, लेकिन गोलू और सोनू दादी से मिलने भी नहीं आते थे।

उसी दौरान उत्पल के मामा जब अपनी बेटी सुजाता के यहाँ आए तो उसके यहाँ भी आए। बातों-बातों में अचानक मामा ने माँ से कहा, ''जानती हो दीदी, घनश्याम तो सब दिन शैतान का शैतान ही रहा लेकिन क्या कहूँ तुमको... महादेव भी कम नहीं!’’ अपने कर्ता-पुत्र की असलियत जानकर माँ ज़्यादा दुखी होती है, यह मामा को पता था इसलिए क्षण भर रुककर माँ के चेहरे पर आए भाव को पढ़ते हुए धीरे-से बोले, ''तुमको शिकायत नहीं कर रहा हूँ दीदी, बस बता रहा हूँ!... छह महीने पहले की बात है। महादेव के यहाँ पहुँचा ही था कि वह मेरी साईकिल लेते कहा, 'मामा जी आप तब तक चाय पीजिए, मैं ज़रा चौक पर से खाद लेकर आता हूँ!’... का$फी देर बाद साईकिल किसी के घर रखकर वह पैदल लौटा और बोला कि चौक पर से साईकिल चोरी हो गई!... जबकि आज भी वह साईकिल उसके पास है, बस नई पैंट चढ़ गई है।...’’

माँ कुछ नहीं बोली। वह अपने भाई और बेटा दोनों को पहचानती थी।

''और जानती हो दीदी, घनश्याम की तरफ़ से झूठी गवाही के बदले में महादेव को क्या मिला?... मात्र दस हज़ार रुपए और ईमली गाछ के पास वाली दो क_ा ज़मीन।...वैसे भी महदेवा सबसे ज़्यादा उसी से डरता है। ...बाक़ी 'टुकड़े-टुकड़े’ की लहर ने घनश्याम का काम आसान कर दिया।’’

माँ फिर भी कुछ नहीं बोली।

''तुम्हारे बारे में क्या कहता है घनश्यामा, जानती हो कि नहीं?’’

बोली तो माँ फिर भी कुछ नहीं, लेकिन इस बार आँखें ज़रा चमकीं।

''वह कहता है, माँ को उत्पलवा ज़बरन बंधक की तरह रख रखा है दिल्ली में। गाँव में हम सब माँ को रखना चाहते हैं, उसकी सेवा करना चाहते हैं... लेकिन उत्पलवा अपने घर उसको नौकरानी-आया की तरह खटा रहा है। छोटा बेटा है इसलिए ममता-बस माँ रो-धोकर दुख-गंजन सह रही है! माँ जब तक बोलेगी नहीं हम क्या करेंगे!... ‘‘

''भाई रे, छोड़ उसकी बात!... कौन क्या करता है सबको पता है। दिल्ली और गाँव की दूरी इस मोबाइल वाले युग में पहले जैसी नहीं रही। सब जगह के लोग यहाँ आते-जाते रहते हैं। उत्पल कलाकार है, वह किसी के साथ कोई ग़लत कर ही नहीं सकता। इसको गाँव-जवार ही नहीं, दुनिया जानती है। मैं यहाँ कैसे रहती हूँ, सब जानते हैं।’’ कहते हुए माँ आँसू पोंछने लगी।

माँ सब जानती थी और अपने तई सब के लिए अच्छे की ही कामना करती थी। रमेश और चंपाकली के फोन अक्सर आते रहते थे। महादेव कभी-कभार फोन करता था। घनश्याम भूल से भी कभी फोन नहीं करता था, लेकिन माँ उसी से बात करने के लिए सबसे ज़्यादा व्याकुल रहती थी। जब वह कई बार महादेव से आग्रह करती तो कभी-कभार वह अपने मोबाइल पर घनश्याम से बात करवा देता था। घनश्याम तब भी दिली तौर पर बात नहीं करता था। महादेव के आग्रह पर बेमन से 'पाँव लागी माँ’ कहते हुए उसकी बातों पर बस किसी तरह हाँ-ना भर करता। हाल-चाल तो जैसे पूछना जानता ही नहीं था! लेकिन माँ थी कि सब कुछ जानते-समझते उसके लिए ज़्यादा ही द्रवित रहती थी। यहाँ तक कि दिल्ली में रह रहे घनश्याम के बेटे, जो कभी उससे मिलने भी नहीं आते थे, से हीरा के मोबाइल पर बातें करती वह आँसू बहाने लगती थी। इसके उलट यूँ तो किसी भी पोती से बात करने को माँ बहुत उत्सुक नहीं रहती थी, लेकिन जो रमेश उसको सबसे ज़्यादा कॉल करता था और जिसको तीन बेटियाँ ही थीं उसकी बेटियों से माँ बिल्कुल बात नहीं करती थी।

धीरे-धीरे माँ कुछ अबूझ, कुछ भ्रमित और झक्की की तरह होती जा रही थी। कभी कुछ भी याद कर अकेले में ही बड़बड़ाने लगती थी। ख़ासकर गाँव के लोगों, नदी-तलाव, गाछ-वृक्ष, पशु-पक्षी को याद करते या कोई पुराने गीत गाते रोने लगती थी।... 

 

4

हर नशा कुछ न कुछ उन्माद बढ़ाता है

देशभक्ति का हो कि मातृभक्ति का

 

4 मार्च, 2019 : महा शिवरात्रि

माँ तारा देवी का वास्तविक जन्मदिन किसी को मालूम नहीं। इस बारे में उत्पल की नानी ने अपनी बेटी तारा को बताया था कि जिस दिन उसका जन्म हुआ था, उस दिन वह महा शिवरात्रि का उपवास कर रही थी। इसलिए माँ भी हर साल महा शिवरात्रि का उपवास करती अपना जन्मदिन याद करती थी। फिर एक बात माँ ने ख़ुद बतायी थी कि 1934 के भूकंप उसको पूरी तरह याद है!... उस समय वह दस साल की थी। दोनों सूचनाओं को जोड़कर सब ने यही माना कि माँ का जन्म महा शिवरात्रि के दिन 1924 में हुआ था। सोलह साल की उम्र में उसकी शादी हुई थी, यानी 1940 में।...ï

मूल बात यह कि 2019 की महा शिवरात्रि के ठीक एक दिन पहले रविवार को बातों-बातों में जब रोहित, जया और हीरा को यह पता चला कि अगले दिन दादी का 95वाँ जन्मदिन है, तो उन्होंने इसे सेलिब्रेट करने का प्रस्ताव सुधा के पास रखा। सुधा को अच्छा लगा और वह न मात्र मान गई, तैयारी में भी जुट गई।

दो ही दिन पहले लंबे समय तक हॉस्पिटल में भर्ती रहकर माँ घर लौटी थी। दिसंबर में बढ़ी ठंड के साथ जो वह बीमार पड़ी तो लगभग पूरा सीजन बीमार ही रही। नियमित दवाई और डॉक्टरी जाँच व$गैरह तो वर्षों से लगी ही थी, लंबे समय तक भर्ती रहने की नौबत पहली बार आई थी। कई महीने से उसको पाखाना-पेशाब की भी सुध नहीं रही थी। अक्सर कपड़े में ही... ऐसे में लगभग सबने उसके बचने की उम्मीद छोड़ दी थी। गाँव में बड़ा महादेव इसलिए परेशान था कि कहीं जाड़े में गुज़र गई बुढिय़ा तो क्रिया-कर्म करते वह भी न टपक जाय!... घनश्याम और रमेश बुढिय़ा के श्राद्ध-भोज के आकार और प्रकार पर बात करते बजट बनाते हुए डींग मारने लगते थे। उधर उसके इलाज और ख़िदमत में सुधा और उत्पल इस कदर फँसे थे कि महीनों से उसके सारे काम ठप-से पड़े थे। सुधा और उत्पल में से किसी एक को लगातार हॉस्पिटल में रहना पड़ रहा था। रविवार या किसी छुट्टी वाले दिन शाम तक रोहित भी रह जाता था, बाक़ी दिन के लिए वे दो ही थे।

घर आ जाने के बाद नर्सों वाला काम भी उन पर आ गया था। पेशाब-पाखाना करवाना, साफ़-सफ़ाई, कपड़े बदलवाना-धोना और समय पर सब कुछ खिलाना-पिलाना!... सदा साफ़-सफ़ाई पसंद करने वाली माँ का व्यवहार अचानक ऐसा बदल गया था कि तब अपने आसपास साफ़ रहने ही नहीं दे रही थी। पीकदानी बगल में पड़ी रहती, वह यत्रतत्र कहीं भी बलगम, थूक और पीक फेक देती। सुधा-उत्पल लाख समझाते कि पेशाब-पाखाना लगने पर बता दें लेकिन हर बात कहती और ज़रूरत से ज़्यादा ही बोलती रहती थी, बस उस वक़्त ही अक्सर चुप लगा जाती थी। गंदे कपड़े और बलगम के गोले लगातार साफ़ करते घिन से सुधा का मन ऐसा हो गया था कि इस बीच वह ठीक से खा-पी नहीं रही थी। मन तो उत्पल का भी भिनकता, लेकिन जिम्मेदारी से मुँह मोड़ नहीं सकता था।

बच्चे सब कुछ जानते-समझते थे, लेकिन उनके उत्साह कुछ ऐसे थे कि दादी के शतक का इंतज़ार सचिन के सैकड़ों की सेंचुरी से भी ज़्यादा व्यग्रता से कर रहे थे। इसलिए सभी 95वाँ जन्मदिन मनाने के लिए अपने-अपने तरीके से जुटे थे।

सूचना पाकर लता अपने छोटे बेटे के साथ सुबह-सुबह आ गई और माँ की बगल में बैठ अपने घर के दुख-धंधे सुनाती अपनी बहू की भरपूर निंदा कर रही थी। दोपहर बाद घनश्याम की बेटी मीरा भी आ गई। मीरा के हसबेन्ड को उत्पल से कुछ-न-कुछ मदद की दरकार रहती थी इसलिए वह समय-समय पर मीरा के साथ आता और किसी बहाने अपने श्वसुर की निंदा भी कर जाता था। शाम तक अगल-बगल के कई सगे-संबंधी, परिचित और बच्चों के एक-दो दोस्त भी जमा हो गए। उन सब के बीच हीरा के साथ आया मोहन मिश्रा को देख एक क्षण को उत्पल असहज-सा हो गया था। मोहन उसी की सोसाइटी में रहने वाले भौतिकी के प्रोफ़ेसर महावीर मिश्रा का बेटा था। कुछ दिन मोहन चाँद बाग़ में उत्पल की चित्रकला की कक्षाओं में भी आया था जहाँ अजरा नामक एक लड़की से बदतमीजी के बाद उसने ख़ुद आना बंद कर दिया था। सीधे मुँह तो बोलने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी, लेकिन सोसाइटी में जहाँ-तहाँ वह उत्पल को उग्रवादी बताता रहता था। माँ को नए कपड़ों में तैयार कर सोफ़े पर बैठाया गया। कमरे में टंगे रंग-बिरंगे बेलून और तेज़ लाइट के बीच सामने के टेबुल पर केक सज गया। बच्चों ने बर्थडे सॉन्ग जैसे ही गाना शुरू किया, माँ केक काटने को प्रस्तुत हुई!...

हीरा पहले से कार्यक्रम का फ़ेसबुक लाईव कर रखा था जिसने सुबह में 'दादी का 95वाँ बर्थडे’ ईवेंट क्रिएट किया था। लाईक और कमेंट्स लगातार आ रहे थे। बीच-बीच में बच्चों की तरफ़ से भावनाओं को भड़काने वाली रनिंग कमेंट्री भी आ रही थी जिसकी तैयारी उन्होंने दिनभर में कर रखी थी। उधर हीरा के ज़रिए गाँव में रहने वाले बेटों तक ख़बर सबेरे पहुँच गई थी और वे सब ऑनलाइन जुड़े हुए सब कुछ देख-सुन रहे थे। जैसे ही केक कटा, विजुअल दृश्यों के ज़रिए मातृभक्ति का नशा देशभक्ति की तरह चरम पर पहुँच गया। गाँव में रह रहे बेटों की आँखें इस कदर टपकने लगीं कि फ़ेसबुक पर उसका असर तीव्र गति से बढऩे लगा। दुनिया भर के कमेंट्स में माँ-बेटों के लिए नेह-न्योछावर के साथ माँ के लिए शतायु की कामना थी। माध्यम और दृश्यों की यह ख़ू बी थी कि संपूर्ण कुरूपता सुंदर, धूर्तता सहज, फ़रेब सत्य प्रतीत हो रहे थे! सत्यम शिवम सुंदरम!...

फ़ेसबुक लाईव जैसे ही समाप्त हुआ गाँव से रमेश का वीडियो कॉल आया उत्पल के मोबाइल पर। एक साथ जमे गाँव के तीनों बेटों ने 'पाँव लागी माँ’ कर के आशीर्वाद लिया और बातचीत की। बातों में माँ जहाँ गाँव और उन बेटों के लिए अतिशय भावुक थी, वहीं तीनों बेटे माँ के लिए ऐसे विकल थे जैसे उसके बिना उन सब के सुख-चैन नहीं!...

वीडियो कॉल कटा और उत्पल अपना फोन लेकर केक वितरण की स्थिति का जायज़ा ले ही रहा था कि हीरा का मोबाइल बजने लगा। हीरा कॉल रिसीव करते बालकनी की तरफ़ चला गया। कुछ क्षण बाद मुस्कुराते हुए हीरा लौटा तो उसकी नज़र उत्पल से मिली और सहज रूप में उसने पूछ दिया, ''बड़ा मुस्कुरा रहा है हीरा, प्रेमिका का फोन है?’’

''घनश्याम चाचा ने ऐसी बात ही पूछी कि...’’

उत्पल चुप लगा गया। उसका मन और कुछ पूछने का नहीं किया।

''पूछ रहे थे कि बुढिय़ा के मरने-बचने की कितनी-कितनी संभावना है!... आख़िर क्यों पूछ रहे थे ऐसी बात?’’

''यह मैं कैसे बता सकता हूँ?... उनसे ही न पूछना चाहिए था तुम्हें!’’ उत्पल का मन दुखी हो गया।

कि तभी हीरा के मोबाइल पर घनश्याम का वीडियो कॉल आया, ''माँ से बात करवा तो हीरा!’’ और आवाज़ बढ़ाकर उसने मोबाइल माँ के सामने कर दिया।

''हैलो!... कौन?... घनश्याम?’’

''हाँ, माँ!... मैं घनश्याम!’’

''बोल बेट्टा!’’

''माँ!... हम भी तो बेटे हैं तेरे। थोड़े ग़रीब सही लेकिन रंग-टीप कर नहीं, ईमानदारी की कमाते हैं और अकड़ के गाँव में रहते हैं।’’

''हाँ बेट्टा!... क्या हुआ?’’

''होगा क्या, किस साले की मजाल है जो बलबाँका कर दे!... कह रहा था, अंत काल में हम सब की भी सेवा ले लेती।’’

''हाँ बेट्टा! तुम सब के लिए ही तो मेरे प्राण विकल रहते हैं हमेशा। अपना गाँव-ठाँव, अपने लोक कभी भूलता है कोई?’’

''तो लौट आ ना माँ अपनी जन्मभूमि पर!... वहाँ कहाँ पापी-मलेछों के बीच परदेश में मरोगी! न वैतरणी करवाएगा कोई ना गोदान! दो लकड़ी देने वाले भी कोई अपने जाति-धर्म के नहीं मिलेंगे। वहाँ कोई नियम-निष्ठा और जाति-धर्म का ठिकाना है?’’

''मन तो मेरा भी है बेट्टा! मगर अब सामथ्र्य कहाँ? कैसे आऊँगी मैं? कौन ले जाएगा? वहाँ देख-रेख कौन करेगा?... यहाँ तो सुधा-उत्पल की सेवा पर ही जी रही हूँ मैं। जब भगवान ही मुझे कष्ट दे रहे हैं... मेरा भाग्य ही खराब है तो...’’

''अरे, काहे रोती हो माँ? हम करेंगे ना सेवा! वहाँ एक है, यहाँ तीन-तीन बेटे-बहू हैं! एक दर्जन नौकर-चाकर लगा देंगे! कोई कष्ट नहीं होगा। बस तू हाँ तो कर दे, हीरा और गोलू अच्छी तरह लेते आएँगे तुम को फस्र्ट क्लास में बैठा के!’’

''ठीक है बेट्टा!... जैसी तुम सब की मर्जी!’’

फोन अचानक कट गया।

और माँ गाँव जाने के नाम पर मानो अचानक स्वस्थ्य हो गई! बर्थडे सेलिब्रेशन करने वाले खाना खाकर जाते-जाते इस ख़बर को ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रसारित करते चले गए।

सबसे अंत में लता और उत्पल के जीजा जाने लगे, तो वे माँ को समझाने लगे, ''गाँव मत जाइए!... उन सब से गप्प जो ले लें वहाँ दस-बीस दिन भी ठीक से रखने वाला कोई नहीं है। बाद में फिर पछतावा होगा!...’’ लेकिन माँ एकदम चुप रही जैसे कुछ सुन ही नहीं रही हो!...

देर रात उत्पल बिस्तर पर लौटा तो माँ के बारे में ही सोच रहा था। फिर भी वह चुप ही था कि बड़ी देर से अपने को रोक रखी सुधा फट पड़ी, ''तुम माँ को समझाते क्यों नहीं? जब माँ ठीक थीं तब तो वे श्रवण कुमार एक महीना ढंग से रख नहीं पाए, अब क्या ख़ाक रखेंगे!’’

''तुमको लगता है कि इस समय माँ मेरी बात सुन सकती है? इस बारे में वह किसी की कुछ सुनेगी ही नहीं, चाहे मैं या कोई बोलते-बोलते मर जाय!... फिर हो सकता है माँ के सपूतों का हृदय-परिवर्तन हुआ हो!... माँ तो जैसी हमारी वैसी ही उन सब की भी है। संबंध-अधिकार तो सबके बराबर हैं।’’

''सब बराबर!... बस कहने के लिए!’’ क्षण भर रुककर सुधा बोली, ''हाँ, कोई हृदय-परिवर्तन हुआ है, इस भ्रम में मत रहना! घमंड से भरी भाषा कैसी थी लफंगे की! ज़रूर कोई खुराफ़ात सूझी होगी उन चतुर ब्राह्मïणों को!’’

''क्या खुराफ़ात हो सकती है?... अब तो जो भी रखेगा उसको ख़र्चे से ज़्यादा गू-मूत साफ़ करने की परेशानी उठाना पड़ेगा।’’

''मेरी समझ में कोई बात नहीं आ रही, लेकिन इतना कह दे रही हूँ—माँ जीवित रह गई एक-दो महीने भी तो देखना फिर वे सब बेशर्मी से हाथ खड़े कर देंगे!... उनको अच्छे-बुरे की लाज-शर्म नहीं।... लेकिन तब मैं भी लाने के लिए तुमको जाने नहीं दूँगी। माँ से भी शर्त करवा लो कि जा रही हैं तो हमेशा के लिए जाएँ!...’’

''शांत रहो यार!... चाहे जैसी भी हो, माँ से कोई भला इन्सान ऐसी शर्त करवाते हैं?... कुछ दिन उन्हें भी गू-मूत कर लेने दो न! असलियत अपने-आप सामने आ जाएगी।’’

मुश्किल से उत्पल ने सुधा को शांत किया, लेकिन वह ख़ुद इतने अशांत था कि उसकी आँखों से नींद दूर चली गई थी!...

 

5

और नशा जब उतरता है तो नहीं दिखता

 

होली के बाद 23 मार्च, 2019 को माँ उत्फुल्ल होकर गाँव गई।...

यूँ वह होली से पहले ही जाना चाहती थी। 10 मार्च को हीरा ने आकर गोलू के हवाले से बताया कि टिकट तो बिहार संपर्क क्रांति में बन गया है, लेकिन एक तो स्लीपर क्लास का बना है फिर दो बर्थ मिडिल और एक अपर है! रिगरेट वेटिंग वाले समय का अद्भुत गल्प! उत्पल को सच्चाई समझते देर नहीं लगी!... उसने होली के बाद की तारीख़ में सकेंड एसी में सबसे कम वेटिंग देख तीनों के टिकट लेकर पीएनआर रेलवे देखने वाले एक रिपोर्टर को दे दिया। ऑनलाइन पेमेंट कर दरभंगा रेलवे स्टेशन से गाँव तक के लिए टैक्सी भी बुक करवा दी। साथ में तेल-साबुन, कपड़े-लत्ते और तीन महीने की दवाइयाँ भी दे दी।

हद तो तब हो गई जब दरभंगा में गोलू टैक्सी वाले से रुपए वापस माँगने लगा कि हम दूसरी गाड़ी से जाएँगे!... टैक्सी वाले ने जब साफ़ कर दिया कि मिनिमम काटकर वापसी उसी एकाउंट में होगी जिससे पैसा आया है, तो हार कर उन्हें उसी से जाना पड़ा। कम-से-कम गाँव में हाँकने के लिए कि दादी को कितने शान से लाए हैं साहब!... और रास्ते फ़ेसबुक लाईव हो गए!...

गाँव में माँ के रहने-खाने की व्यवस्था हुई घनश्याम के घर और सुबह बाथरूम ले जाने, स्नान करवाने, गंदे कपड़े धोने की जिम्मेदारी आई लछमी और चंपाकली पर। आठ-दस दिन सब कुछ ठीकठाक चला। इस बीच कई निकट-दूर के संबंधी आकर 'जिगेसा’ (जिज्ञासा) करने की औपचारिकता पूरी कर गए। घनश्याम और महादेव उन सब के साथ माँ को बीच में रख कर दर्जनों $फोटो रोज़ खिंचवाते और फ़ेसबुक पर पोस्ट करते। दो रविवार के $फोटो में रमेश भी शामिल हुआ। कई फोटो में सरोज, लछमी, चंपाकली भी रोज़ अलग-अलग साडिय़ों में नज़र आतीं। शुरू में गाँव भर की स्त्रियाँ भी झुंडों में आकर हाथ-पाँव दबाते या आशीर्वाद लेते $फोटो खिंचा गईं। कुछ नवयुवक-जवानों को भी गाँव की सबसे उम्रदराज के साथ $फोटो के इतिहास में फ़ेसबुक पर अमर होना ज़रूरी लगा। हाँ, सब के सब 'गोड़-लागी’, 'पाँव-लागी’ करते माँ को यह सलाह देना नहीं भूलते, ''अब आपको गाँव में ही रहना चाहिए!’’ यह सब माँ को अच्छा लगता और वह हुलस कर कहती, ''हाँ, अब गाँव में ही मरूँगी!... तुम लोग ही कंधा देना!’’ उधर हीरा, गोलू, सोनू, मीरा वगैरह की फौज घनश्याम के वाल पर लोड होने वाले फोटो को शेयर, लाईक, कमेंट्स से गुलज़ार करने के अभियान में युद्ध स्तर पर लगे थे।

मगर पंद्रह दिन होते-होते चंपाकली आजिज़ आ गई! हगाने-मूताने और साफ़-सफ़ाई करने से उसको ऐसी घिन आती थी कि दिन में कई बार उल्टी करते रहती थी। उसका सारा खाया-पीया निकल जाता था। फिर पूरे शरीर में ऐसी एलर्जी हुई कि 8 अप्रैल को सुबह-सुबह माँ से मिले ब$गैर ही वह एक थ्री-ह्वीलर रिजर्व कर रमेश के तहसील वाले क्वार्टर पर छातापुर पहुँच गई।

इस बीच माँ के स्वास्थ्य में इतना सुधार हुआ कि वह किसी के हाथ पकड़ थोड़ा-बहुत टहलने लायक़ हो गई थी। स्थान-परिवर्तन का असर रहा हो या मौसम का, इतने ही दिनों में माँ का$फी स्वस्थ्य लगने लगी थी। लेकिन चंपाकली के गाँव-छोड़ जाने से यह हुआ कि उनके कपड़े अब ठीक से धुलते नहीं थे और कमरे की भी साफ़-सफ़ाई नहीं होती थी। लछमी एक तो वैसे ही ढीली-ढाली थी फिर गठिया-वात की ऐसी मरीज कि किसी तरह नहला-भर देती थी।

दस-ग्यारह अप्रैल तक स्थिति यह हो गई कि माँ से मिलने आने वाले इधर का रास्ता छोडऩे लगे। देह-कपड़े से बदबू आने लगी थी। आसपास फेंके बलगम- गोलों पर मक्खियाँ भिनकतीं। नाक पर आँचल रखकर आती सरोज दूर से ही थाली सरका कर जाने लगी। माँ के भक्तों के फ़ेसबुक वाल पर अचानक सन्नाटा छा गया!... कि 12 अप्रैल की दोपहर पटना में रह रहे छोटे भाई संग कमर-दर्द का इलाज करवाने लछमी भी चली गई।

अब माँ पेशाब-पाखाना के लिए बड़ी मुश्किल से किसी तरह ससर कर जाती थी। महादेव बाल्टी में पानी भर के दे देता था। स्नान के नाम पर देह पर दो-चार मग पानी डालने का काम भी वही कर देता था। वही बिना साबुन-सर्फ डाले कपड़े पानी में डुबो कर धूप में फैला देता। दिल्ली से बुढिय़ा के संग जो तेल, साबुन, सर्फ आए थे, उसको सरोज पहले ही ग़ायब कर चुकी थी। कभी-कभार पुआल में लपेट कर बलगम के बड़े गोले महादेव फेंक आता या उस पर थोड़ी धूल-मिट्टी डाल देता था। फिर भी भिनकतीं मक्खियों और बदबू का ज़ोर बढ़ता ही जा रहा था। महादेव का घर घनश्याम के आँगन से ज़रा दूर था और कई बार वह वक़्त पर नहीं पहुँच पाता तो बाथरूम में बैठी माँ पानी के लिए किंकियाती रहती लेकिन सरोज कान नहीं देती। ऐसे में कई बार माँ घर में ही... और सरोज परेशान हो गई! इतनी कि तेरह अप्रैल को सरोज और घनश्याम में जंग-सी छिड़ गई। सरोज तरंग कर बोली, ''बुलाइए तो गाल बजाने वाली सब को! मैंने पहले ही कह दिया था, मेरे भरोसे मत लाइए बुढिय़ा को! तब तो आप ही सब से आगे थे?’’

''ई थोड़े जानता था कि खलबी इतने दिन जी जाएगी! साला हिरवा ने ग़लत बता दिया कि अब-तब है! तीन दिन बड़ी चतुराई से मैंने बुढिय़ा को बीपी की दवाई नहीं खाने दी, तब भी...!’’ घनश्याम अफ़सोस कर रहा था।

''तो भुगतिये!’’

''कुतिया!... तू समझती नहीं! अंत काल में रखने का पुण्य तो जो-सो, इमेज बड़ा बनता है गाँव-समाज में। पढ़ी-लिखी होती तब न जानती कि फ़ेसबुक पर कितना अच्छा-अच्छा कमेंट आया है!’’

''तो ख़ुद गू-मूत साफ़ कीजिए और उसका फोटो लगाइए।’’

''उत्पलवा की घरवाली साली उतनी पढ़-लिख के भी कर लेती है, तू नहीं कर सकती?’’

''वह साफ़-सफ़ाई करने वाली जाति की नीच औरत है। उसका ख़ानदान सब दिन यही सब करता रहा।... मैं पंडित की बेटी हूँ!’’

''तो पंडिताइन वाला दिमाग़ से काम ले न हरमजादी! हल्ला क्यों करती है?... और सुन! बुढिय़ा का पहचान पत्र चुराई कि नहीं अभी तक? उत्पलवा कभी भी उसको लेने आ सकता है।’’

''मेरा काम आपकी तरह लेट नहीं होता!... जब आप फार्म पर दसखत करवा रहे थे आँगन में, तभी मैंने बैग से... और ताक़त वाली, गैस वाली दवाई के चार-चार पत्ते भी... पाउडर का डब्बा कितना अच्छा...’’ और सरोज अचानक खिलखिलाने लगी।

आगे चौदह और पंद्रह अप्रैल को माँ के खाने में दूध की कटौती की गई और सोलह से दूध बंद। आख़िरकार अ_ारह की शाम सरोज ने ऐलान कर दिया कि वह बुढिय़ा जैसी गंद की पोटरी को अपने घर में नहीं रख सकती। घनश्याम चुप रहा।

उस रात बुढिय़ा भूखे-प्यासे बड़बड़ाती रही। उस रात महादेव ने भाँग का कुछ बड़ा ही गोला खाया था।...

उन्नीस अप्रैल की सुबह आख़िरकार महादेव माँ को लेकर अपने घर आया। माँ को बिस्तर पर लेटा कर उसने उत्पल को कॉल किया और पूरे सत्ताईस दिन की कहानी सविस्तार सुना दी... फिर माँ की तरफ़ मोबाइल बढ़ाते उसको राजी कर के दिल्ली ले जाने की हिदायत दी!... सदा की तरह अपने भाग्य और भगवान को दोष देती माँ ने कहा, ''जो भी हो, मैं अब यहीं रहूँगी! मैं अपने गाँव की मिट्टी पर ही मरना चाहती हूँ। तुम्हारे बाप की चिता जहाँ जली थी, उसी आम गाछ के पास बुढ़वा की बगल में मुझे जगह दे देना!’’

उत्पल ने काफी समझाने के बाद अंत में ज़ोर देते कहा, ''मैं लेने आ रहा हूँ। जि़द छोड़ो और आने के लिए तुम तैयार रहो! वहाँ तुमको कोई नहीं रखेगा!... कोई नहीं...’’ लेकिन माँ ने तब भी रोका, ''तू मत आ उत्पल!... मैं यहीं रहूँगी! सारी ज़मीन, सारी संपति मेरी है। ये कौन होते हैं मुझे नहीं रखने वाले? मैं पंचायत बैठाऊँगी। अभी महादेव के घर आई हूँ। यह मेरा कर्ता-पुत्र है, इसको मेरी सेवा करना पड़ेगा।’’ और उसने मोबाइल महादेव को दे दिया।

''हेलो!... हेलो!...’’ महादेव बोल रहा था, ''माँ को समझाओ! कैसे भी समझाओ और जल्दी आकर दिल्ली ले जाओ!... आज ही के जहाज से आ जाओ, तुमको क्या दिक्क़त है!... मैं छिहत्तर-सतहत्तर वर्ष का हो गया हूँ। फिर भी तुम्हारी भाभी ठीक होकर आ जाएगी तो मैं ख़ुद जाकर ले आऊँगा।... बस अभी किसी तरह दिल्ली ले जा!’’ 

''देखिए, मैं तो रखता ही रहा हूँ और आगे भी रखूँगा! घनश्याम बाबू से पूछ लीजिए ठीक से कि अंत काल में माँ को जितनी सेवा देनी थी, पूरा दे दिया न?... आप लोग हर बार माँ के बीमार पडऩे पर श्राद्ध और भोज की तैयारी में मज़े लेकर सर खपाते हैं, लेकिन सामने होने पर सिर्फ सताते हैं।...’’

कि महादेव का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। एकदम से गरजने लगा वह, ''मैं लाचार हूँ, परेशान हूँ, तो तुम मेरी इज़्ज़त उतारोगे?... मत आओ हरामी!... आज से कभी तुम से बात करूँ तो मादरचोद होऊँ!... रख फोन, साला!... कुत्ता...’’

 

6

मिट्टी का मोह

 

20 अप्रैल, 2019 को एक कला प्रदर्शनी के उद्ïघाटन सत्र में उत्पल का रहना पहले से तय था इसलिए 21 अप्रैल की सुबह वाली फ्लाइट से वह पटना उतरा और दोपहर बाद क़रीब तीन बजे गाँव पहुँचा। जिस समय वह गाँव पहुँचा था, महादेव के दालान पर माँ की तरफ़ से बुलाए गए क़रीब दस-पंद्रह पंच बैठे हुए थे। इधर-उधर कुछ बच्चे खड़े थे और अड़ोस-पड़ोस के ड्योढ़ी-दरवाज़े से झाँकती स्त्रियाँ थीं।

सारी बातें बता चुकी माँ एक चटाई पर चिंतित मुद्रा में बैठी थी। उत्पल की टैक्सी देख पंचायत की कार्यवाही ज़रा रुकी थी। गाड़ी अपने कैम्पस में खड़ी करवाकर उत्पल के वहाँ पहुँचते ही गाँव के तथाकथित इज़्ज़तदार पंडीजी उर्फ वंशीधर बाबू ने खाँसते हुए अपना गला साफ़ किया। पंडित जी की ख्याति थी कि उसने अपने छोटे भाई की शादी इसलिए नहीं होने दी थी कि संपति बँट जाएगी—उसी ने कहा, ''काकी जी, अब आप गुस्सा थूक दीजिए। आपके सुयोग्य पुत्र उत्पल बाबू आपके लिए कार लेकर आ गए हैं। इनके साथ जाइए और राजधानी का सुख भोग कीजिए। गाँव में क्या रखा है, यहाँ तो नरक है नरक!...’’

''तो आप सारे पंच ई कह दीजिए कि गाँव में मेरा कुछ नहीं है। महादेव, घनश्याम, रमेश का मुझसे कोई संबंध नहीं है!...’’ गुस्से से थरथराती माँ बोली।

''यह कैसे कह सकता है कोई?... सब आपका है।’’ नया-नया वार्ड सदस्य बना तिरपित मिश्र ने मक्खन लगाते हुए कहा।

''ऐसा है तो मैं गाँव छोड़कर नहीं जाऊँगी!... दिल्ली में उत्पल और सुधा ने मेरी सेवा-सुविधा में कभी कोई कमी नहीं की है। सब कुछ है वहाँ, सिर्फ यह गाँव और ई मिट्टी नहीं है वहाँ जिसमें मैं अपनी काया की मिट्टी मिलने की अंतिम इच्छा लेकर जी रही हूँ।’’ माँ एक अलग ही दृढ़ता के साथ बोल रही थी।

अब तक चुप जटाशंकर जो घनश्याम का ख़ास यार माना जाता था अचानक बोला, ''लेकिन यहाँ आपके योग्य सुविधा नहीं है ना काकी!... आपको राजधानी की सुविधा की आदत है और यहाँ तो सब की स्थिति देख ही रही हैं आप। यहाँ सब ख़ुद ही पेशेंट है।’’

''चिकनी-चुपड़ी बात मत कर जटाशंकर!’’ माँ चीख़ उठी, ''मैं खोआ-मलाई नहीं माँगती! इन सब के लिए सारी सुविधा है, सिर्फ मेरे लिए नहीं? तो फिर इन तीनों ने मुझे क्यों बुलाया था? बोल घनश्यामा! तब तुम्हीं था बोलने में सबसे आगे। माँ की सेवा का बड़ा पुण्य लेना चाहता था।...’’

नंगे बदन सिर्फ एक गमछा लपेट कर बैठा घनश्याम जो तब जनेऊ से अपनी पीठ खुजा रहा था अचानक तरंग कर खड़ा हुआ, ''ऐ खलबी बुढिय़ा! ख़बरदार!... तू मुझे दस आदमी में बेइज़्ज़त करती है?... तू अपने इस कुजात, विधर्मी उत्पलवा से पूछ न! इसी हरामी ने सारी खुराफ़ात की है। इसी ने पहले रमेशवा की घरवाली को फोन कर के भड़काया और वो साली चट टेंपू रिजर्व कर थिराई भैंस की तरह छातापुर भाग गई। फिर हिरवा के ज़रिए बड़की भौजी को बहलाकर पटना भगा दिया।... और महादेव भैया कैसे साक्षात महादेव बाबा बने चुप्प हैं! अकेली मेरी घरवाली क्या करेगी? वह मादरचोद वैसे ही कई दिनों से पेट दर्द से तड़प रही है। पता नहीं किडनी-लीवर क्या फ़ेल कर गया है कुतिया का!... इस उत्पलवा ने इतना परेशान कर रखा है कि साला कुछ सोचने के लिए दिमाग़ ख़ाली नहीं रहता। इसी साले की खाल खींच भूसे भर कर टाँगना पड़ेगा। इसके घर वहाँ विधर्मी मलेछ सब आता रहता है। ख़ुद तो ई साला टुकड़े टुकड़े गैंग के साथ रहता ही है, खलबी बुढिय़ा का भी धर्मभ्रष्ट कर दिया है सत्यानाशी ने!...’’

''अरे वाह!... माँ की बहुत चिंता है श्रवण कुमार को!’’ बगल में बैठे गायक चिंटुआ से उत्पल ने इतना ही कहा था कि घनश्याम उछल पड़ा, ''अरे, मुझसे भी बड़ा कोई भक्त होगा माँ का इस दुनिया में?... रे कुत्ता, साला!...’’ और धाराप्रवाह गालियाँ देता वह उत्पल की ओर लपका। जब तक वह उत्पल के पास पहुँचता जटाशंकर, तिरपित सहित तीन-चार लोगों ने उसको पकड़ लिया। लोग घनश्याम को जितना पकड़ते वह उतने ही ज़ोर-ज़ोर से फनकता, गालियाँ बकता, उछल-कूद करता, बार-बार जनेऊ दिखाते कसमें खा रहा था!... घनश्याम की इस काबिलियत से गाँव के तमाम लोग परिचित थे कि वह लगातार झूठ गढ़ते बिना थके दिन भर गालियाँ देता रह सकता था। इस क्रिया के बीच खाना-पीना, माल-मवेशी की देखभाल सब चलता रह सकता था। इसलिए बड़ी देर तक सब उसको झेलता रहा। जब वह खूँटे पर बंधी गाय को सानी-पानी देने चला गया तो पंच लोग उठकर धीरे-धीरे जाने लगे!

जाते-जाते डाक बाबू ने धीरे से कहा, ''ये लोग काकी को गाँव क्यों बुलाए थे, सब जानते हैं! ही-ही-ही... जब काकी के लिए यमराज ही सो गए हैं, तो... लेकिन उत्पल भैया, आप तो मुसलमानों को अपने घर में कुटुंब की तरह मत बुलाइए! एक तो काकी धार्मिक हैं फिर साँप को दूध पिलाने से...’’

''देखिए, मेरे लिए सभी इन्सान बराबर हैं! फिर किसने कहा कि मेरे साथियों के आने से माँ को दि$क्क़त है?... पूछिए तो माँ से!’’

''काकी बोलेंगी नहीं... वैसे भी अच्छी बात नहीं है मलेछ संग उठना-बैठना जो देश को टैक्स नहीं देता सि$र्फ जनसंख्या बढ़ाता है! अभी हिंदू राज है... जिसको पाकिस्तान में होना चाहिए उसको भगवती घर में जगह देंगे तो बुरा लगेगा ही!’’

उत्पल को पता था कि गाँव में ऐसे सोच वाले भक्त बढ़ गए हैं जिनसे बहस करना बेकार है इसलिए उसने इतना ही कहा, ''सब के अपने-अपने सोच।’’

सड़क तक पहुँचे पंडित जी उर्फ वंशीधर ने धीरे से तिरपित मिश्र के कान में कहा, ''घनश्यामा तो पक्का पतित है ही, ई भी प्योर टुकड़े टुकड़े गैंग वाला है।’’ और खीं-खीं कर हँसने लगा।

क्षुब्ध उत्पल उठकर अपने घर के कैम्पस में लौटा। उसके साथ सिर्फ गायक चिंटुआ आया। टैक्सी ड्राइवर को कुछ पैसे देकर उसने चौक तक जाने का रास्ता समझाया और वे दोनों गेट खोल अंदर आ गए। चिंटुआ के सहयोग से उसने मामूली झाड़-पोंछ कर कमरे को रात भर रहने लायक़ बनाया और चाय का पानी चढ़ा रहा था कि माँ के हाथ पकड़ कर टहलाते हुए लेकर महादेव उसके कमरे में आया।

उत्पल ने चाय पीने के लिए रुकने को कहा तो वह बोला, ''बनाओ, आ रहा हूँ दो मिनट में।’’

जब तक उसकी नीबू वाली चाय बनकर तैयार हुई, माँ के कपड़े, दवाई वगैरह लेकर महादेव फिर आ गया। इसी बीच चौक तक गया ड्राइवर भी सब्जी, दूध, पानी आदि लेकर लौट आया था।

चाय पीकर चिंटुआ ने रूआँसे स्वर में माँ से कहा, ''मत आना फिर इस गाँव चाची!... कभी मत आना!’’ और नज़रें छुपाते चला गया।

उस रात माँ और ड्राइवर के अलावा महादेव ने भी उत्पल का बनाया खाना ही खाया था। देर रात में रमेश के साथ लौटी चंपाकली माँ से मिलने आई थी और बड़ी देर तक अपनी व्यथा भरी कथा माँ को सुनाती-समझाती रही।

माँ ऊपरी तौर पर दिल्ली लौटने को तैयार नहीं थी और एकदम से उसने चुप्पी साध ली थी।

अगली सुबह जब माँ टैक्सी में बैठ रही थी महादेव, रमेश, चंपाकली और सरोज सहित कुछ बच्चे उसके पाँव छूने के लिए पहले से खड़े थे। अपने बटुए से निकालकर एक-एक सौ रुपए आशीर्वाद के तौर पर सब को देती हुई माँ ने चारों तरफ़ देख कर दबे स्वर में सरोज से पूछा, ''घनश्याम?’’ वह भी आहिस्ते बोली, ''खेत तरफ़ गया है।’’ और बिना कुछ कहे माँ ने उसके लिए रखे रुपए सरोज की मुट्ठी में डाल दी।

दूर सड़क पर अपने घर के सामने उदास-सा चिंटुआ खड़ा था।

टैक्सी जब गाँव से बाहर निकल गई तो उत्पल ने देखा, माँ की आँखें लगातार बहे जा रही थीं।

 

7

माँ का आधार कार्ड भी नहीं

 

23 अप्रैल, 2019 की सुबह माँ दिल्ली लौट आई थी।

शाम में मिलने आई लता ने कहा, ''तुम्हारे दामाद ने तुमको गाँव जाने से रोकते हुए जो कहा था वो सच हो गया न माँ?... गाँव से ज़्यादा दिन तो तुम यहाँ हॉस्पिटल में भर्ती रह गई थी लगातार।’’ माँ ने नहीं सुनना था, नहीं सुना! फिर लता समझाने के मूड में आ गई, ''देख माँ, गाँव की मिट्टी और यहाँ की मिट्टी में मरने के बाद क्या फ़र्क?... यहाँ मरोगी तो यमुना-तट या हरिद्वार जैसे पुण्य-स्थल पर गंगा-लाभ मिलेगा!... गाँव की कलमबाड़ी में क्या रखा है?’’ पर माँ चुप रही, एकदम चुप।...

कुछ दिन बाद जब सुधा और उत्पल दोनों माँ के क़रीब बैठे थे और थोड़े आ$िफयत में थे तो माँ ने धीरे से कहा, ''तुम दोनों ने मेरी बहुत सेवा की है, एक बात और मानोगे?’’

''बोलो!...’’

''जब भी मरूँगी मैं, मुझे हरिद्वार में ही जलाना... गाँव नहीं तो यही सही।... यह मेरी अंतिम इच्छा है।’’

सुधा-उत्पल ने उसको आश्वस्त कर दिया था। माँ ख़ुश रहने लगी थी, कुछ-कुछ पहले की तरह। लेकिन जल्दी ही उत्पल ने गौर किया कि माँ कोई बात बहुत जल्दी भूलने लगी है। अचानक माँ पानी माँगती और जैसे ही कोई पानी लेकर पहुँचता वह बोलती—अभी तो पीया है पानी! ऐसे ही एक बात कहते-कहते बीच में दूसरी शुरू कर देती और अचानक चुप हो जाती या गाँव पहुँच जाती!...

जल्दी ही घर में सबने गौर किया कि माँ अकेले में भी बोलती रहती है और कुछ ज़्यादा ही बोलती है। नींद उसको अक्सर ठीकठाक आती है, लेकिन वह कभी मानती नहीं। कोई भी उसको हाल-चाल पूछे, वह कभी ख़ुद को ठीक नहीं बताती थी। हमेशा किसी-न-किसी नए दुख को लेकर रोती-झींखती रहती है! बीपी की दवाई, गैस की दवाई, मल्टी विटामिन, फोलिक एसिड, कैल्शियम वगैरह की छह-सात दवाइयाँ वह रोज़ लेती थी... लेकिन दवा-प्रेम ऐसा कि किसी अन्य परेशानी में कोई नई दवा डॉक्टर सप्ताह भर के लिए ही दे तब भी वह उसको कभी छोडऩा नहीं चाहती थी। स्नान के बाद लगाए जाने वाला टेल्कम पाउडर वह दिन में तीन-चार बार लगा लेती थी। उसके कपड़े रोज़ धुलते थे, लेकिन वह अक्सर धूल-मिट्टी लगी होने की शिकायत करती और पाउडर उड़ाते तेज़ी से देह खुजाने लगती। अक्सर हाथ-पाँव में झनझनाहट, सनसनाहट और खुजली की शिकायत करती ही रहती थी। सर घुमने, गले में कुछ-न-कुछ फँसा होने और पेट में गैस-गोले की शिकायत तो स्थायी थी। खाना रोज़ खाती ही थी, लेकिन टेबुल पर खाना लगते रोज़-रोज़ एक ही तरह से वह भूख ना होने और खाना ना खाने की बात कुछ इस तरह शुरू करती कि सबको कुढऩे की हद तक परेशान कर देती थी। हर सप्ताह-पंद्रह दिन पर जब भी डॉक्टर के पास जाती तो दस-बारह तरह की ऐसी परेशानियाँ थीं जो वह रट रखी थी और वो हो-ना-हो बताती ही थी! दिखाई उसको बिल्कुल ठीक देता था, लेकिन कभी-कभी कमरे की रोशनी बढ़ जाने या अंधेरा हो जाने और साँस अटकने का अजीब ड्रामा करती थी। डॉक्टर के यहाँ जाने के तो हमेशा दिन गिनती रहती थी!...

वह लगभग रोज़ और हमेशा ऐसा कुछ करती-बोलती रहती थी कि सब की निगाह उस पर बनी रहे और कोई-न-कोई उसकी सेवा में लगी रहे। गाँव-पास के एक राय साहब की दादी का क़िस्सा क्या ख़ू ब सुनाती थी जो सौ साल से ज़्यादा की थी और जिसकी कई-कई बहुएँ और पोतियाँ हमेशा कटौरों में तेल लेकर मालिश में जुटी रहती थीं।

समय यूँ ही बीत रहा था कि जनवरी 2020 के पहले सप्ताह में एक क़रीबी के दाह-संस्कार में उत्पल को हरिद्वार जाना पड़ा। रास्ते में उसने देखा कि दो जगह मृतक के पहचान-पत्र की माँग हुई। घाट पर भी आधार कार्ड देखा गया।... अचानक उसको याद आया कि गाँव की पिछली यात्रा में माँ का वोटर कार्ड कहीं खो गया था। आधार कार्ड माँ ने सबके ज़ोर देने पर भी जान-बूझ कर नहीं बनवाया था कि इस उम्र में इसकी क्या ज़रूरत जब उसको कोई पेंशन-वेंशन लेना नहीं!...

जनवरी में उत्पल पर आर्ट गेलरी वाले से किए वायदे का दबाव कुछ ज़्यादा ही था। फ़रवरी के दूसरे सप्ताह में उसने एक एजेंट के ज़रिए दो हज़ार रुपए लेकर माँ का आधार कार्ड बनवाने की बात कर ली थी।... तभी शाहीन बाग़ आंदोलन से जुड़े साथियों ने कुछ पोस्टर का आग्रह कर दिया। दो-तीन दिन वह उधर चला गया। यह सब चल ही रहा था कि माँ का 96वाँ जन्मदिन आ गया। 21 फ़रवरी, 2020 को घर के लोगों और एकदम क़रीबियों के बीच सादगी से माँ का जन्मदिन मनाया गया। उत्पल की सख्ती के कारण इस बार फ़ेसबुक-लाईव का अनावश्यक वितंडा नहीं हुआ।

जन्मदिन के बाद शनिवार और रविवार आ गए। 24 फ़रवरी को माँ को  आधार कार्ड सेंटर पर लेकर जाना था।...

 

8

...यमराज रुकेंगे नहीं, धर्म की गति तेज़ है

(...न करोति यम: क्षान्तिं धर्मस्य त्वरिता गति:)

 

24 फ़रवरी तो आई, लेकिन 23 की शाम से ही नगर में सैकड़ों इन्सान दहशतगर्द बन गए। ख़ू न-खराबा और आगजनी से माहौल डरावना हो गया था। उत्पल के मुहल्ले के एक बड़े हिस्से सहित कई मुहल्लों, गलियों में आग-धुआँ, गोली और खंजर के चलते इन्सानियत शर्मसार थी। लोग मर रहे थे। घर, दुकान, गाडिय़ों के साथ जलते इन्सानों की गंध एकमेक हो रही थी। लपटों-धुओं के साथ उग्र नारे लगाते धार्मिक प्रेत नाच रहे थे!... एनआरसी-एनपीआर जैसे शब्दों के साथ डिटेंशन सेंटर की दहशत थी!... डरे-सहमे लोग घरों में दुबक गए थे, सरकार अतिथियों के स्वागत में बाँसुरी बजा रही थी, पुलिस डफली बजाते ताल मिला रही थी और मीडिया झाल!...

उत्पल के मोबाइल पर एक पत्रकार दोस्त का मैसेज आया कि उसके पुराने पड़ोसी जुबैर को उसके घर में ही जला दिया गया है! सुधा को बताते हुए उत्पल फफक रहा था कि उसकी माँ ने कहा, ''हम बच गए कि वो मुहल्ला छोड़ आए। आज वहाँ होते तो...तो...’’

उत्पल का परिवार भी कमरे में बंद था। वह जिस सोसाइटी में रह रहा था उसमें तथाकथित एक ही धर्म के लोग थे। लोग मान रहे थे कि वहाँ तक दंगाइयों का प्रवेश मुश्किल है। सोसाइटी के लोग आपस में मिल रहे थे, बतिया रहे थे, लेकिन ज़्यादातर के बोल बिगड़े हुए थे। 25 फ़रवरी की शाम उत्पल ने अपनी बालकनी से देखा कि उसकी सोसाइटी के कुछ लड़के डंडे, सरिए, कनस्तर वगैरह लेकर दो-तीन गाडिय़ों में एक साथ निकले हैं। वह पस्त-सा कमरे में लौटा और सोफ़े पर बैठ धीरे-धीरे सुधा को बताने लगा। घबरायी-सी सुधा बोली, ''चुप रहो, इस समय हम कुछ नहीं कर सकते!... इस हालात में सरकार, पुलिस, कोर्ट किसी पर भरोसा नहीं कर सकते!’’

''लोग मर रहे हैं और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। कुछ तो हमें करना चाहिए!’’

''हमारी हालत वैसी नहीं! स्थिति को समझो तो।’’ सुधा बोली।

कि तभी उधर आया रोहित धीरे से बोला, ''यहाँ आपको सब पहचानते हैं पापा!... आपकी आइडियोलॉजी जानते हैं!’’

''एक अच्छी बात भी सुनने में आई है!... काफी लोग एक-दूसरे को बचा भी रहे हैं।’’

''वो कुछ अच्छे इन्सान हैं, फरिश्ते हैं... आपको तो उनसे डर है जो इन्सान नहीं भक्त हैं...’’

कि तभी जया के सहारे से उधर आई माँ बोली, ''निश्चिंत रह! हम हिंदू हैं! हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, कहीं निकलो तो टिका लगा लिया कर!...रोहित और जया को मैं हनुमान चालीसा याद करवा दूँगी!...’’

सुधा और उत्पल स्तब्ध रह गए!...

26 फ़रवरी भी तीन चौथाई के क़रीब बीत गई थी। जया और रोहित अपने कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। सुधा शाम की चाय बनाने किचन तरफ़ गई। बैठक ख़ाने में उत्पल माँ को टहलाते हुए योगासन के तरीके बता रहा था कि तभी कॉल-वेल बजी। माँ को सोफ़े पर बैठाकर जब तक उत्पल गेट खोलने पहुँचा, कॉल-वेल दुबारा बज गई।

गेट पर अपनी ही सोसाइटी के दो लड़के थे—मोहन मिश्रा और अंजनी कुमार। पिछली शाम असलहे से लैस जो गाडिय़ाँ निकलते उसको देखी थीं, उसमें मोहन और अंजनी को भी सवार होते उसने देखा था। गेट खोलते ही ''नमस्ते अंकल!’’ के साथ मोहन बोला, ''कुछ ज़रूरी बात करनी है।’’

''आओ!’’ कह कर उत्पल पीछे मुड़ा ही था कि मोहन ने बगल से पिस्टल सटाते कमर से ज़रा ऊपर गोली दाग दी। उत्पल सोफ़ा और टेबुल के बीच फ़र्श पर गिरा—धड़ाम! तभी छाती के पास अंजनी ने गोली मारी। जब तक किचन से सुधा निकली और कमरे से बच्चे, उसके पहले ही चार-पाँच गोलियाँ दाग कर दोनों वीर बालक धर्म का पताका फहराने जा चुके थे।...

सोफ़ा पर बैठी माँ ठीक-ठीक कुछ समझ नहीं पा रही थी, उसकी बस एक चीख़ निकली थी और वह एकटक फ़र्श पर गिरे उत्पल को देख रही थी।

 

 

 

 

गौरीनाथ: इस कहानीकार ने प्राय: स्वातंत्र्योत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों को अपना केन्द्रीय विषय बनाया है। उनके तीन कहानी संग्रह उपलब्ध हैं। बया का संपादन करते हैं। मिथिला से आते हैं। अंतिका प्रकाशन के स्वामी हैं। एक मायने में 'पहल’ की दूसरी पारी को गौरीनाथ ही संभव कर सके हैं। जिन सुधी पाठकों ने शरण कुमार लिंबाले का उपन्यास 'हिन्दू’ और भालचंद्र नेमाड़े के पुरस्कृत उपन्यास 'हिन्दू एक समृद्ध कबाड़’ को पढ़ा है, वे यहां प्रकाशित गौरीनाथ की कहानी 'हिन्दू’ के मौलिक और तेजस्वी स्वर की सराहना ज़रूर करेंगे।

 


Login