सहरा की धमक - इब्राहीम अल-कोनी
उर्दू से हिंदी : राजकुमार केसवानी
पहल विशेष उर्दू रजिस्टर : लंबी कहानी (अरबी) अंग्रेज़ी से उर्दू तर्जुमा : अजमल कमाल
मिस्बाह सईद लैंड-रोवर से कूदकर नीचे उतरा और इस में से कम्बल निकाल कर एक छिदरे से सहराई दरख़्त के नीचे बिछा दिया। उसने अपने साथी को लैंड-रोवर का सामने का हिस्सा खोल कर तेल की मात्रा जांचते और इंजन को ठंडा करते हुए देखा। उसने सूरज के सामने सहरा (मरुस्थल) के ख़ामोश और पराजित ख़ालीपन पर एक परिंदे की सी भेदी निगाह डाली। इंजन की घरघराहट उस के कानों में लगातार गूँज रही थी। ''जबूर!’’ वो कम्बल पर ढेर होते हुए बोला, ''तुम्हारे पास एक एस्प्रीन तो नहीं होगी? तुम्हारी गाड़ी के शोर से मेरे सर में दर्द हो गया है।’’ उसने सूरज की किरणों में चमकती हुई रेत पर थूका और थूक को रेत के प्यासे रोमछिद्रों में तेज़ी से ग़ायब होते हुए देखने लगा। ''मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरा भेजा उबल रहा हो,’’ उसने कहा। जबूर हाथों में रोटी, सारडीन मछलीयों के डिब्बे और पीले दृव्य से भरी एक बोतल लिए उसकी तरफ़ आया। ''तुम शहर के लोग सहरा के आदी नहीं हो। जऱा ठहरो, मेरे पास सर-दर्द और दूसरी बीमारीयों के लिए कुदरती इलाज है, एस्प्रीन से ज़्यादा असरदार और ताकतवर दवा।’’ ''इतनी गर्मी में विस्की? मआज़-अल्लाह!’’ ''हम शाम होने तक यहां आराम करेंगे,’’ सारडीन के डिब्बे खोलने में मशगूल जबूर ने कहा। ''फिर रात में सफ़र दुबारा शुरू करेंगे। ये हमारे लिए भी बेहतर है और गाड़ी के लिए भी।’’ उसने दोनों हाथों से रोटी तोड़ी, फिर बोतल खोली और दो गिलासों में विस्की उंडेली। ''चलो अब से ये तय कर लेते हैं,’’ वो उसे गिलास थमाते हुए बोला, ''कि मैं एक गिलास पियूँ तो तुम दो पियोगे। मत भूलो कि मैं गाड़ी चला रहा हूँ फिर मैं तुम्हारी तरह का पक्का शराबी भी नहीं हूँ।’’ ''तुमसे किसने कहा कि मैं बड़ा पियकड़ हूँ?’’ ''तुम शहर के हो, और फिर मेरा ख्याल है यूरोप में तुम्हारी ज़िंदगी इन चीज़ों से ख़ाली तो नहीं गुज़री होगी। रहा मैं, तो में तो अभी पढ़ रहा हूँ, और अगर कहीं मेरे बाप को भनक लग जाए तो वो मुझ पर बंदूक़ निकाल ले हालांकि मौसूफ़ ख़ुद अपने वक़्त में ख़ूब लगबी चढ़ाते रहे हैं। आह, हमारे बुज़ुर्ग भी न, किस क़दर ज़ालिम थे। खजूर के सीने के शीरे से मदहोश होने की ख़ातिर सालिम दरख़्त को क़त्ल कर देते थे।’’ ''आह, यूरोप!...’’ मिस्बाह सईद ने ख़ुद से बतियाने वाले अंदाज़ में कहा। फिर उसने एक सैंडविच लिया और इसी लहजे में कहता गया। ''यूरोप... उसने मुझे अपने काबू में ले लिया। वरना मैं भी तुम्हारी तरह ही था।’’ ''यूरोप की बातों को तीसरे गिलास के बाद के लिए उठा रखो,’’ जबूर ने दूसरा गिलास थमाते हुए उसकी बात काटी। ''इस विषय से मुझे बेहद दिलचस्पी है। मुझे वज़ीफे पर फ्रांस भेजने का वायदा किया गया था ताकि में अपने 'ज़रई मुशीर’ मतलब खेती-किसानी के सलाहकार वाले अपने पेशे में तरक्की कर सकूं। ज़रई मुशीर क्या पेशा है तुम्हें अंदाज़ा है कि ये किस क़दर मुसीबत का काम है? उफ़, ये तवारेग * (एक घुमंतू अफ्रीकी क़बीलाई जनजाति), खेती-किसानी के किसी मामले में ज़रा सहयोग नहीं करते। वो अब तक इसी गुमान में हैं कि वो अशराफ़ हैं, सहरा के सूरमा हैं, लिहाज़ा काश्तकारी और काश्तकारों को हक़ीर समझते हैं।’’ उसने दाँतों से सैंडविच काटा और उसे चबाते हुए बोलता रहा। ''मगर हां, ...वो हैं अच्छे लोग... और उनकी मदद करनी चाहिए।’’ वो मिस्बाह सईद की तरफ़ मुड़ा जो उस वक़्त दरख़्त के तने से टेक लगाए बैठा उफ़क़ पर झिलमिलाते सराब को तक रहा था। ''तुम काफ़ी फ़िक्रमंद दिखाई देते हो। फ़िलहाल यूरोप के बारे में सोचना छोड़ो। मैंने कहा ना, तीसरे गिलास के बाद - तीसरा गिलास तुम्हें वो सारे राज़ ख़ुद-ब-ख़ुद खोलने पर मजबूर कर देगा जो तुम मुझे बताना नहीं चाहते।’’ ''यूरोप में कुछ भी राज़ नहीं होता।’’ ''देखेंगे, देखेंगे। दूसरे गिलास के बाद ही तुम चिंतित से लग रहे हो। आह, मुझे याद आया --- यह ग़ात के गवर्नर के बारे में तुम्हारी क्या राय है? ये तो किसी पत्रकार के लिए धमाके की ख़बर होगी। वो बहुत विनम्र किस्म का इंसान है, उसने तुम्हें वो िकस्सा नहीं सुनाया कि उसने किस तरह सन सत्तावन के हमले में, अपने तीन बच्चों के साथ, एकदम अकेले, पूरे फ्रांसीसी बख़्तरबंद दस्ते का मुकाबला किया था। अपनी जांच-पड़ताल में इस घटना को शामिल करना मत भूलना।’’ ''यूरोप जाने से पहले,’’ मिस्बाह ने अपनी ख्वाबों के ख़ुमार में डूबी हुई आवाज़ से उसकी बात काटी, ''जानते हो, मैं तुम्हारी तरह था।’’ इसी के साथ उसने जबूर के हाथ से गिलास ले लिया। ''यूरोप मत जाना,’’ उसने अपने लहजे को सख़्त करते हुए कहा, ''मैं तुम्हें इस बात की सलाह कभी नहीं दूंगा।’’ जबूर ने सवालिया जिज्ञासा भरे अंदाज़ में अपना सर उठाया। जबूर से एक सिगरेट लेते हुए वो बोला: ''इस बात की व्याख्या करना मेरे लिए मुश्किल है।’’ ''तीसरे गिलास के बाद भी?’’ ''दसवीं के बाद भी।’’ इसके बाद कई मिनट तक ख़ामोशी छाई रही। पेशानी से बहते हुए पसीने को ''क़मीज़ की आस्तीन से पोंछते हुए जबूर ने कहा। ''मुझे उम्मीद है कि जब तुम वापिस जाओगे तो तुम्हारे पास वहां की ज़िंदगी के बारे में अच्छा-ख़ासा मसाला होगा। मेरे ख्याल में तुम इस मुल्क में पहले पत्रकार हो जो अपने पेशे को लेकर इतना संजीदा है।’’ मिस्बाह सईद अपने सिगरेट के धुएं को हवा में तैरते हुए देखता रहा। फिर उसने मायूस से लहजे में जवाब दिया, ''हां, मगर मुझे इस में कोई मक़सद नज़र नहीं आ रहा।’’ जबूर आकर उसके बराबर में बैठ गया। ''शायद,’’ उसने चारों ओर पसरे भरपूर ख़ालीपन को घूरते हुए, राज़दाराना अंदाज़ में कहा, ''मगर मैं उसे यूं नहीं देखता। इन बद$िकस्मत लोगों के लिए कुछ ना कुछ तो ज़रूर किया जा सकता है। वो अपनी बदहाली में भी संतुष्ट हैं। मुसीबतों के सामने हार मान लेते हैं, जैसे ख़ुदा ने उनकी तक़दीर में यही लिखा हो। हमारा काम इस संतोष की इस नाजायज़ भावना को ख़त्म करना है। उन्हें यकीन दिलाना है कि वो बद-फ़ितरत लेिफ्टनेंट और उसका मददगार गवर्नर कठपुतलियों से ज़्यादा कुछ भी नहीं हैं, जिन्हें कुर्सियों पर बैठने और हुकमरानों के नाम संदिग्ध किस्म की जाली रिपोर्टें लिख-लिख कर भेजने के लिए रखा गया है। उनकी संतुष्टि के इस भाव को ख़त्म करना मुश्किल तो है, मगर कोशिश करना हमारा फ़र्ज़ है।’’ उसने सिगरेट का कश लिया और फिर कहा। ''और ये काम अख़बारों के ज़रिये ही हो सकता है।’’ ''लेिफ्टनेंट तो अच्छा आदमी है।’’ ''अच्छा आदमी?’’ ख़ामोशी के एक वक्फे के बाद वो फिर बोला, ''अच्छे आदमी क़त्ल नहीं करते।’’ ''क़त्ल?’’ ''और क्या? उसने प्रदर्शन के दौरान चौंसठ लोगों को मार डाला। उन्हें ज़ख्मी किया। उसने इस प्रदर्शन का आयोजन करने के लिए मुझे आज तक माफ़ नहीं किया। वो यूं तो मुझ पर बड़ा प्यार दर्शाता है मगर ये सब ढोंग है --- ढोंग और कमीनगी। वो भोला नहीं है कि इस जुर्म की वजह से उसके दो तमगे उतार लिए गए थे, और उसका ख्याल है कि मैं अब तक लोगों में सियासी काम कर रहा हूँ। तुम देख सकते हो कि इंसान का निजी स्वार्थ हर चीज़ से ज़्यादा बड़ा होता है।’’ मिस्बाह की आँखों में आश्चर्य का भाव प्रकट हुआ लेकिन वो चुप रहा। वो सराब को ख़ामोशी, रेत और धुँधला चुके आसमान से ज़ोर-आज़माई करते देख रहा था।
जब लैंड-रोवर अनंत तक फैले हुए ख़ालीपन में आगे बड़ी तो सूरज डूबने लगा था। ''सहरा किस क़दर सुनसान और डरावना है!’’ मिस्बाह ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा। स्टीयरिंग को पूरी ताक़त से पकड़े हुए जबूर ने इसकी विस्तृत व्याख्या ही कर डाली। ''हाँ , सुनसान और डरावना तो है, मगर ज़िंदगी की तरह है, वजूद की तरह; वीरानी और ख़ामोशी में दबा हुआ एक राज़। ये आदमी को हर चीज़ का बहलावा देता है, रास्ते से भटके हुए मुसाफ़िर के लिए सबसे ज़्यादा कीमती चीज़ का। ये उसे पानी का बहलावा देता है, और जब वो उस की तरफ़ दौड़ता है तो उसे अपने सामने सिर्फ सराब मिलता है। सराब ही सराब, सराबों का समंदर। ये सराब नज़रों के सामने नाचते हैं और ज़बान निकाल कर मुँह चिढ़ाते हैं, और निरुदेश्य भटकाते फिरते हैं। लेकिन ख़बरदार आदमी को इसमे कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। सराब को सराब समझ कर मायूस नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि सहरा का सराब एक मुश्किल सी पहेली सा होता है, जिसके पीछे सचमुच के पानी को तलाश करना लाज़िंमी है। ख़ुद को मायूसी के हवाले नहीं कर देना चाहिए, क्योंकि आख़िर में, दूर, सराब के पीछे, नख़लिस्तान नहीं तो कुँआं ज़रूर मिलेगा। असल बात है कोशिश करना, ये सहरा से मुकाबला करने का पहला गुर है।’’ वो मिस्बाह की तरफ़ मुड़ा और उससे एक सिगरेट सुलगा कर देने को कहा। ख़ामोशी के एक वक्फे के बाद, जिसमें सिर्फ इंजन की घरघराहट सुनाई दे रही थी, वो बोला - ''सहरा किसी नख़रीली औरत की तरह है - अपराजेय, नख़रेबाज़, पहली बार में कभी हाथ ना आने वाला। इस के रहस्यों को समझने के लिए, इस पर काबू पाने की कोशिश करनी पड़ती है, फिर कहीं इस पर अधिकार हासिल होता है। तुम्हें इस में कोई मक़सद दिखाई नहीं देता। मगर मुझे हर चीज़ में मक़सद नज़र आता है। सहरा ने मुझे यही सिखाया है। जहां तक यूरोप का ताल्लुक़ है, उसने तुम्हें इसलिए दाब कर रख दिया कि तुमने उससे हार मान ली।’’ मिस्बाह ने कोई जवाब नहीं दिया। वो बाहर फैले खालीपन में अंधेरे को उतरते देखता रहा, मोटर की घरघराहट सुनता रहा जो उसके कानों को छेदे डाल रही थी और जिससे उस के सर में दर्द भी होने लगा था। रेत की एक छोटी सी पहाड़ी के पास पहुंच कर जबूर ने गाड़ी रोक ली। वो बाहर निकल कर पहाड़ी पर चढ़ा और इधर उधर नज़र दौड़ाई। ''आधी रात का वक़्त है,’’ वो वापिस नीचे उतरते हुए बोला, ''और ऊबारी (एक लीबियाई शहर) की रोशनियां दूर दूर तक दिखाई नहीं देतीं। लगता है हम रास्ता भूल गए हैं।’’ गाड़ी से कूद कर बाहर निकलते हुए मिस्बाह ने चिड़ कर कहा। ''हमें शुरू ही से बड़ी सड़क पर रहना चाहिए था।’’ ''नहीं, ये कहो कि हमें असल में इतनी पीनी नहीं चाहिए थी। वो ज़्यादा दरुस्त बात होगी।’’ जबूर ने हंसते हुए अपने जिस्म को नरम रेत की गोद में डाल दिया और जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। ''मैं शॉर्ट कट लेना चाहता था,’’ सिगरेट जला कर उसने आहिस्ता से कहा। ''मैंने अपने तजुर्बे पर भरोसा किया, मगर लगता है कि सहरा शराबियों को माफ़ नहीं करता। अगर तुम चाहते हो कि हम चौथी ग़लती से महफूज़ रहें तो हमें सूरज निकलने तक यहीं ठहरना चाहिए। इतना पैट्रोल नहीं है कि हम सहरा में यूँ ही भटकते फिरें। हमारे पास पैट्रोल का इतना बड़ा ज़खीरा भी नहीं है। ये हमारी तीसरी और बदतरीन ग़लती है। आ जाओ, मेरे प्यारे दोस्त, आज रात तो तुम्हें मुझसे यूरोप की बातें बतानी ही पड़ेंगी। कुछ नहीं तो वक़्त काटने के लिए ही सही।’’ वो ख़ुश-दिली से हँसने लगा था मगर मिस्बाह के तेवर देखकर रुक गया। मिस्बाह ठंडी रेत पर ढेर हो चुका था और तारीक ख़ामोशी में डूबे रेत के टीलों को देख रहा था। ''थोड़ी देर में चांद अपना चेहरा दिखाएगा जबूर’’ उसकी बेचैनी के सबब को महसूस करके, गोया उसे तसल्ली देते हुए बोला ''तुम देखना सहरा चाँदनी-रात में कैसा तिलिस्मी दिखाई देता है। जब वो किसी यूरोपियन औरत की तरह ख़ुद को एकदम निरवस्त्र करेगा तब तुम्हें इस तिलिस्म का असल लुत्फ़ आएगा। वो तुम पर अपने बहुत से राज़ उजागर करेगा, इतने बेशुमार राज़ जितने कि ये रेत के ज़र्रे।’’
मिस्बाह सईद तवज्जा से कान लगाए सुनता रहा। उसे लगा कि कहीं क़रीब से, बहुत क़रीब से, पहाड़ी के पीछे से या चोटी से, आती हुई ढोल की थाप और मौसीकी की गूंज से उसके कानों के पर्दे फट जाएंगे। वो फिर गौर से सुनने लगा ढोल की थाप और तेज़, और मौसीकी की गूंज और शदीद हो गई। ये कोई अफ्ऱीकी धुन थी ---- शदीद और गूंजदार, दर्द और उन्माद से भरपूर। मिस्बाह सईद इस क़दर व्यग्रता से भर गया कि उसे डर लगने लगा कि कहीं वो अपने साथी से उन आवाज़ों को लेकर कोई बात न छेड़ बैठे। अपने इस डर से मुिक्त पाने के लिए एक अत्यंत प्राचीन लोक गीत गाना शुरू कर दिय। मक़सद था इन आवाज़ों से ध्यान हटाना।
चांद का पीला सा चेहरा रेतीली पहाड़ी के पीछे से नमूदार होना शुरू हुआ। मिस्बाह अभी तक बेचैनी की गिरिफ्त में था। उसने जबूर से सवाल किया। ''जबूर, क्या तुम्हारे ख्याल में आस-पास ख़ाना-बदोश क़बाइली रहते हैं? मसलन तवारेग?’’ ''तवारेग कभी खुले आसमान तले नहीं रहते,’’ जबूर ने सिगरेट सुलगा कर काहिली से रेत पर दराज़ होते हुए कहा। उसने टांग पर टांग रख ली और दूर, ख़ला में देखने लगा। ''इन वीरानों में सिर्फ भेड़ीयों, ख़ामोशी और मुख़्तलिफ़ किस्म की छिपकलियों का बसेरा होता है। वो भी सिर्फ रात के वक़्त दिन में तो यहां फ़क़त धूप की तपिश और सराब होते हैं।’’ ''अजीब बात है मुझे कुछ देर पहले यूं महसूस हुआ...’’ वो अपना राज़ ज़ाहिर करते हुए हिचकिचा रहा था : ''कुछ देर पहले मुझे ढोल की धमक और किसी अजब से साज़ पर बजाई जाने वाली मौसीकी सुनाई दी थी।’’ ''देखा!’’ जबूर मुस्कुरा कर बोला, ''ये पहला राज़ है।’’ ''तुम मज़ाक़कर रहे हो।’’ ''नहीं, मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा,’’ जबूर फौरन संजीदा हो कर बोला। ''ये सहरा की धमक है।’’ ''सहरा की धमक?’’ मिस्बाह ने बच्चों के से लहजे में पूछा। ''तुम मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे हो।’’ ''ये बात नहीं। सहरा एक ज़िंदा वजूद है, इन्सान की तरह इसमें जान होती है। रूह होती है। और इसकी त्वचा में इंसानो की ही तरह रोमछिद्र भी होते हैं। उसे दुख भी पहुंचता है। रात में ये नाचता है, गाता है, ढोल बजाता है, साज़ छेड़ता है। वो शदीद झुलसते हुए दिन की यातना के ख़त्म होने का जश्न मनाता है। तुम सहरा को नहीं जानते, मिस्बाह।’’ मिस्बाह ख़ामोश रहा और जबूर ने ज़र्द चांद की तरफ़ मुंह फेर लिया। ''तुम अफ्ऱीकी मौसीकी का यह राज़ नहीं जानते,’’ वो कहता रहा। ''वो राज़ यही है कि ये मौसीकी सहरा के पेट से निकलती है। वो जानते थे कि इस को तकते रहने से वो पागल हो जाएंगे, इसलिए वो उसके रक्स और जश्न में शामिल हो गए और इस तरह उसके खौफ़ पर फ़तह पाकर इन्होंने उसे अपने वश में कर लिया। अगर वो तमाशा देखने वालों का सा अंदाज़ इ$िख्तयार किए रहते तो दहशत और दीवानगी में उलझ कर रह जाते। वो इससे भी उसी तरह संघर्षरत रहते हैं जैसे ज़िंदगी से। जब मैंने पहली बार ये धमक सुनी थी तो मैं दहशत में आ गया था, लेकिन बाद में मुझे इसकी आदत हो गई।’’ ''मैंने तो उस के बारे में कभी नहीं सुना।’’ ''और सुनोगे भी नहीं। तुम शहर वालों ने ख़ुद को शहरों में क़ैद कर लिया है और ज़िंदगी और दूसरे न जाने किन-किन् चीज़ों की शिकायत करते रहते हो। तुम भला सहरा को कैसे समझ सकते हो? मैंने तुम्हें बताया है, सहरा औरत की तरह है जिसे पहले कदम पर ही जान लेना असंभव है। अगर तुम उसके रहस्यों से परिचित होना चाहते हो तो तुम्हें एक लंबे समय के लिए उससे प्यार करना पड़ेगा। इतना कहते-कहते उसने अपने जूते उतार दिए और हाथ और पैर ठंडी रेत में धँसा लिए। ''सहरा कितना ग़मज़दा है,’’ उसने रुकती हुई आवाज़ में कहा, ''उसे दिन के हाथों यातनाएं झेलनी होती हैं। धूप उस की हड्डियों को पिघला देती है। वो रेत के बारीक ज़र्रों पर अपनी तिलिस्मी धुनें छेड़-छेड़ कर अपनी गहन वेदना की शिकायत करता है। वो मौसीकी छेड़ता रहता है, ढोल बजाता रहता है, तभी उसे एक बार फिर सुबह उसे आ घेरती है। एक बार फिर उसे अपना बदन अपने जल्लाद सूरज के सपुर्द करना पड़ता है। और इसी तरह इस सहरा की आदि से अनंत की लंबी यातना वाला सफ़र जारी रहता है।’’ जबूर ने ज़मीन पर सर झुका रखा था, उस के हाथ और पैर रेत में दबे हुए थे। मिस्बाह सईद को महसूस हुआ जैसे वो अभी रो देगा। वो ख़ामोशी से उसे तकता रहा, फिर उस के कानों में ढोल की आवाज़ हलकोरे लेती हुई दाख़िल हुईं - दर्द और दीवानगी में डूबी हुई आवाज़ें।
मुख्य सड़क तक पहुंचने से पहले गाड़ी का पैट्रोल ख़त्म हो गया। जबूर ने पानी का गैलन लेकर लैंड रोवर पर से छलांग लगाई। ''हम अलावीनात की पुलिस चौकी पर जा चुके हैं, इसलिए वहां से मदद ज़रूर आएगी। उनके तलाश शुरू करने से पहले हमें सड़क तक पहुंच जाना चाहिए।’’ ''हमने सड़क से उतर कर ही ग़लती की।’’ ''असल ग़लती तो ये थी कि हमने बहुत पी ली। मुझे अभी से प्यास लगने लगी है। मैंने एक ऐसा गुनाह किया है जिसे सहरा कभी माफ़ नहीं करेगा।’’ उसने पानी उठा लिया और दोनों सड़क की दिशा में चलने लगे। दोपहर हो गई। सूरज अपने बेलगाम शोलों के साथ सहरा के बदन के बिलकुल क़रीब आ गया। पानी का आख़िरी क़तरा तक ख़त्म हो चुका था मगर वो सड़क से अभी दूर थे।
मिस्बाह अपनी सांस दरुस्त करने के लिए झुलसती हुई रेत पर बैठ गया जबकि जबूर उंगलियों से माथे का पसीना पोंछते हुए अपने सामने क्षितिज तक फैले हुए सहरा के विस्तार को देख रहा था। ''मैं कहीं नहीं जा रहा,’’ मिस्बाह अपने मुँह के अंदर की दीवारों और सूखे हुए होंटों को ज़बान फेर कर तर करने की कोशिश करते हुए बोला- ''मुझमें अब दम नहीं है।’’ जबूर ने उसे सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन उसने सख़्ती से इंकार में सर हिला दिया। उसने जबूर के बोलने की आवाज़ सुनी, फिर उसे अपने पास बैठते हुए महसूस किया, फिर उसे लगातार बातें करते और हाथों से लगातार इशारे करते हुए देखा, मगर उसे आवाज़ नहीं आ रही थी, वो कुछ नहीं सुन रहा था, कुछ नहीं देख रहा था। जब जबूर ने उसे अपने कंधों पर उठाया तो सब कुछ तारीकी में डूब चुका था। वो लडख़ड़ाता, गिरता, फिर उसे पांव से पकड़ कर घसीटने लगता, और नरम सहरा अपनी ग़मनाक, बोझल धुन फिर छेड़ देता।
नारंगी चमक में सूरज की टिकिया आसमान के साथ हम-आग़ोश हो गई। जलती-जलाती हुई सूर्य किरणे दिन-भर बस्ती को गोया दहकती हुई सलाखों से पीटती रही थीं। धूप के तीखापन के ख़त्म होते ही छिपकलीयां और कीड़े-मकोड़े अपनी अपनी पनाहगाहों से बाहर निकल आए और झाड़ीयों, वीरान जगहों और खजूर के दरख्तों में फिरने लगे। लोग भी, जो दिन-भर अपनी झोंपडिय़ों में घुसे रहे थे, बाहर निकल कर अपने काश्त किए हुए खेतों की तरफ़ चल दिए और सिंचाई की सूखी पड़ी नालियों को भरने के लिए पंप चलाने लगे। गेस्ट हाऊस के सामने के अहाते में बड़े बड़े सफेद साफों वाले, बस्ती के बहुत से लोग जमा हो गए थे और सवालों से भरी आँखों से खिड़कियों में से बाहर झांक रहे थे। लैंड रोवर, अपने पीछे गर्द का एक तवील सिलसिला छोड़ती हुई, आ पहुंची। बस्ती के लोग भाग कर बलदिया की इमारत के पिछले भाग में लगे हुए खजूर के दरख्तों में जा छुपे। लंबे क़द के लेिफ्टनेंट ने बाहर क़दम रखा; वो अपनी यूनीफार्म में था और उसके कंधों पर चांदी के दो बिल्ले चमक रहे थे; उस के दाहिने हाथ में एक छड़ी थी। वो गेस्ट हाऊस के अहाते में पहुंच कर रुका और अंदर दाख़िल होने से पहले कुछ देर वहीं खड़ा रहा। ''अब तुम्हारा क्या हाल है?’’ उसने, लकड़ी की कुर्सी पर बैठते हुए, बिना किसी भावना का प्रदर्शन किए सवाल किया। मिस्बाह सईद बिस्तर में उठकर बैठ गया और पीठ दीवार से लगा ली। ''ख़ुदा का शुक्र है,’’ वो बोला। ''मेरी ताक़त रफ्ता-रफ्ता वापिस आ रही है। ताज़ा-तरीन ख़बर क्या है?’’ लेिफ्टनेंट ने सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट मिस्बाह सईद को पेश किया, जिसने लेिफ्टनेंट का सिगरेट सुलगाने के लिए दियासलाई जलाते हुए अपना सवाल दुहराया। ''क्या ख़बर है?’’ ''कुछ नहीं। आख़िरी रिपोर्ट मुझे कुछ देर पहले मिली थी अभी तक कुछ पता नहीं चला। गाडिय़ां लगातार सहरा की ख़ाक छान रही हैं।’’ झींगुरों की आवाज़ें और बस्ती वालों की दबी-दबी सरगोशियाँ ख़ामोशी को चीर रही थीं जो दुबारा गेस्ट हाऊस के गिर्द जमा हो गए थे। ''तुम्हें भी उनके साथ जाना चाहिए।’’ ''मेरा ख्याल है अब वक़्त गुज़र चुका है,’’ लेिफ्टनेंट इस सुझाव के जवाब में बोला। बाहर ख़ामोशी में झींगुरों का शोर और पंपों की घरघराहट और बुलंद हो गई थी। लेिफ्टनेंट ने अपनी बात दुहराई ''मेरा ख्याल है अब वक़्त गुज़र चुका है।’’
पंपों की घरघराहट थम गई थी, बस्ती वाले अपनी झोंपडिय़ों में वापिस चले गए थे, और रात कीड़े मकोड़ों और छिपकलियों की आमाजगाह (लक्षित स्थान) बन गई थी; सिर्फ झींगुरों की मुसलसल मातमी आवाज़ें ख़ामोशी को तोड़ रही थीं। ईरानी कालीन पर आलती-पालती मार कर बैठते हुए, सिवीलियन कपड़े पहने हुए लेिफ्टनेंट राख में छुपे अंगारों की आँच पर सब्ज़ चाय तैयार कर था। ''इन्होंने उसे कुँएं में डूबा हुआ पाया,’’ उसने कहा। ''वो बिलकुल नंगा था।’’ उसने खजूर की शाख़ का पंखा झल कर अंगारों पर से राख हटाई और धीमी आवाज़ में कहता रहा -''तुम्हें पता है, शदीद प्यास के आलम में आदमी ये तसव्वुर करने लगता है कि उसके कपड़े उसके जिस्म पर बहुत भारी हो गए हैं, और वो ख़ुद को हर बोझ से आज़ाद करना चाहता है। ये उस वक़्त होता है जब वो नंगा फिरने की शर्म से आज़ाद हो चुका होता है।’’ ''प्यास,’’ उसने चंद लम्हों की ख़ामोशी के बाद अपनी बात फिर शुरू की, ''प्यास, प्यासे के ज़हन से ये बात अलोप कर देती है कि कपड़ों के ब$गैर कुँएं पर पहुंचने का कोई फ़ायदा नहीं। उन्हें फाड़ कर वो उनकी रस्सी बना सकता था और कुँएं के पानी में भिगो कर उसे चूस सकता था। मगर कपड़ों से उसने ख़ुद को आज़ाद कर लिया है और अब उसे एक दर्दनाक चुनाव का सामना करना है - या तो वो कुँएं की मुंडेर पर से झांक कर पानी को देखते देखते प्यासा मर जाए, या फिर पानी में डूब कर मर जाए।’’ वो चाय में चम्मच हिलाने लगा। फिर अपनी आवाज़ के निर्लिप्त भाव को बदलने की कोशिश किए बग़ैर ही उसने अपनी बात जारी रखी। ''तुम तसव्वुर कर सकते हो कि आदमी के लिए पच्चास मील का रास्ता तै करने के बाद आख़िर में कुँएं की तह में डूब कर मर जाना क्या माइने रखता है। उसने बहुत देर तक माथा-पच्ची की, और पूरी तरह ना-उम्मीद और पागल होने के बाद ही कुँएं में छलांग लगाई।’’ उसने मिस्बाह को कांच की ख़ूबसूरत प्याली में भरी चाय थमाई जिसे उसने फ़र्श पर ही अपने सामने रख लिया। वो ख़ामोश रहा, उस की पीठ दीवार में बसी ठंडाई से लगा रखी थी और वो बाहर से आती हुई झींगुरों की मातमी आवाज़ें सुन रहा था। अपने अंगूठे को ईरानी ग़ालीचे पर बने हुए नक्श पर फेरते हुए वो आहिस्ता बोला : ''लेफ़्िटनेंट, मैंने सूखा और अकाल के दिनों में अलहमादा अलहमरा में पेश आने वाला एक िकस्सा सुना था। एक बदू (ख़ानाबदोश अरब) को खुले आसमान तले एक राहज़न मिला जो उसे उससे उसका ऊंट छीनना चाहता था। बदू ने उससे इल्तिजा की कि ये उस का एक अकेला ऊंट है और वायदा किया कि वो उसे अपनी जान पहचान के एक रईस के पास ले जाएगा जिसे अपने ऊंटों और भेड़ों के गल्ले के लिए किसी गलबान (रेवड़ चराने वाले) की ज़रूरत है। रईस के गांव को जाने वाले रास्ते पर राहज़न का पांव वल्र्ड वार के ज़माने की लगाई हुई एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया। जब उसे अपने पांव के नीचे सुरंग महसूस हुई तो इस में इन्सानी रहम-दिली बेदार हो गई और उसने बदू से भाग कर अपनी जान बचाने को कहा। लेकिन राहज़न की इस इन्सानियत पर आश्चर्यचकित बदू ने उसके पांव के नीचे एक गहरा गढ़ा खोदने पर इसरार किया। गढ़ा खोद कर उसने राहज़न से कहा कि वो उसके दूर चले जाने के बाद पलट कर इस गढ़े में गिर जाये। बद्दू भाग कर इतनी दूर चला गया कि राहज़न की नज़रों से ओझल हो गया। तब राहज़न ने एहतियात से अपना पांव सुरंग पर से हटाया और पलट कर पीछे गढ़े में जा गिरा। मगर बद्दू सुरंग के एक उड़ते हुए बारूदी टुकड़े की ज़द में आकर हलाक हो गया, जबकि राहज़न को ख़राश तक ना आई। तुम मेरी बात समझ गए लेिफ्टनेंट?’’ ''समझ गया।’’ ''हमेशा मासूम शख्स मारा जाता है और राहज़न को ख़राश तक नहीं आती। समझे तुम, लेिफ्टनेंट?’’ ''समझ गया। समझ गया। ज़िंदगी.. ज़िंदगी सहरा की तरह निष्ठुर और ज़ालिम् है। सहरा में ज़िंदगी एक जुर्म है। मैंने ये बात कोह-ए-अकाक़स की दीवारों पर तीफेनाग़* रस्म-उल-ख़त में लिखी हुई देखी थी और तवारेग के एक आलिम शेख़ ने तर्जुमा करके मुझे सुनाई थी।’’ मिस्बाह सईद दीवार से पीठ लगाए बैठा रहा। कुछ लम्हों बाद ख़ामोशी की आंतों में से उठती हुई ढोल की धमक सुनाई देने लगी। तेज़, शोरीदा-सर और गूंजदार, फिर भी बेहद ग़मनाक धुन।
धमक लगातार सुनाई देती रही, फिर इस में गाने की आवाज़ें भी शामिल हो गईं एक अजीब गीत जो मातम की आवाज़ों से भरा हुआ था। उसे गाने और ढोल की धमक में मिली जुली चीखों और कराहों की आवाज़ें भी सुनाई दे रही थीं। उसने सर झटक कर उन आवाज़ों से पीछा छुड़ाने की कोशिश की। अपनी इस कैफ़ीयत के बावजूद उसने पूछा - ''क्या तुम्हें ढोल बजने की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही?’’ ''क्यों नहीं। ये तवारेग नाच गा रहे हैं।’’ ''तवारेग?’’ ''तवारेग हर जुमे को, आधी रात के वक़्त जमा हो कर सुबह तक गाते और ढोल की आवाज़ पर रक्स करते हैं। ये उनका तरीका है।’’ फिर वो उठा और जूते पहनने लगा ''तुम्हें आराम करना चाहिए। कल बहुत लंबा सफ़र करना है।’’ वो अपने पीछे दरवाज़ा बंद करके चला गया। थोड़ी देर में मिस्बाह ने ढोल की आवाज़ों में उलझी हुई लैंड रोवर के इंजन की घरघराहट सुनी। वो कुछ देर सुनता रहा; फिर कपड़े बदल कर बाहर निकल गया।
वो तारीकी में डूबे खजूर के दरख्तों में से रास्ता बनाता हुआ बढ़ता गया। वो क़ब्रिस्तान में से होकर गुज़रा। एक रेतीली पहाड़ी के पीछे उसने ढोलों के गिर्द औरतों को स्याह लिबास पहने, एक घेरे की शक्ल में बैठे हुए देखा। हल्के के दरमियान नकाब पहने हुए मर्द बड़ी-बड़ी सफेद पगडिय़ाँ बाँधे नाच कर रहे थे। वो एक दूसरे को पुकारते थे। उनके नाचते हुए जिस्मों में एक अकडऩ की सी कैफ़ीयत भी थी और वो मुट्ठियों से अपने सीनों पर ज़रबें लगा रहे थे। वो पहाड़ी की चोटी पर बैठ कर उनका दीवानावार र$क्स देखने लगा। उनके ढोलों की गूंजदार धमक, उनकी हृद्य-विदारक चीख़ें और उनके गाने की आवाज़ उसके कानों में आ रही थी, जो यूं लगती थी जैसे वो किसी मरने वाले का मातम कर रहे हों। ये शोर अंधेरे, सहरा और रात की ख़ामोशी को चीर रहा था।
खिड़की के शीशों और दरवाज़ों से टकराती हुई तेज़ हवाओं ने उसे सुबह-सवेरे जगा दिया। वो इस्तिक़बालीया कमरे में बैठ कर इंतिज़ार करने लगा; रेत उस के बालों की जड़ों में, गर्दन के गिर्द और लिबास के अंदर घुसी जा रही थी। लेिफ्टनेंट कमरे में दाख़िल हुआ। उसने गर्मियों की यूनीफार्म पहन रखी थी। उससे बिना कोई रस्मी दुआ-सलाम् किए उसने पूछा - ''तुम तैयार हो? हमें तूफ़ान के और तेज़ होने से पहले रवाना होना है ताकि दोपहर का जहाज़ ना निकल जाए। तुम मेरे साथ चलोगे।’’ लेिफ्टनेंट स्टीयरिंग के पीछे बैठ गया और लैंड रोवर को बेहद तेज़ रफ्तारी से दौड़ाने लगा जो एक ऐसे दिन के लिहाज़ से ख़तरनाक थी जबकि उड़ती हुई गर्द की वजह से तीन मीटर के आगे कुछ दिखाई ना देता था। इन दोनो के बीच एक-दूसरे से पिछले पंद्रह मिनट बिना एक भी लफ्ज़ कहे गुज़र चुके थे। इसके बाद लेिफ्टनेंट ने कहा - ''एक सिगरेट तो देना, प्लीज़।’’ मिस्बाह ने सिगरेट का पैकेट निकाल कर एक सिगरेट लेिफ्टनेंट के लिए और दूसरी अपने लिए सुलगाई। कश लगाते हुए लेिफ्टनेंट ने कहा - ''आदमी को हर चीज़ का पूरा लुत्फ़ उठाना चाहिए।’’ फिर वो खांसा और बोला, ''सिगरेट पीने का भी।’’ ''हाँ। हर चीज़ का लुतफ़ उठाना चाहिए।’’ मिस्बाह ने तंज़ के से अंदाज़ में टिप्पणी की। फिर उसने लेिफ्टनेंट की नक़ल उतारने वाले अंदाज़ में पहले खांसा और उसी तरह का लहजा बना कर बोला, ''जुर्म करने का भी।’’ लेिफ्टनेंट ने सर घुमा कर तेज़ी से उसकी तरफ़ देखा, उस का निचला होंट काँपने लगा ''क्या?’’ उसने चौंक कर और चौकना अंदाज़ में पूछा - ''क्या मतलब है तुम्हारा?’’ ''कुछ नहीं।’’ उनके दर्मियान फिर ख़ामोशी छा गई और लेिफ्टनेंट ने एक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया।
मिस्बाह का चेहरा सुर्ख हो रहा था जब वो चौंका देने वाले सुकून के साथ बोला - ''तुमने उसे क्यों क़त्ल किया?’’ ''मैं तुम्हारी बात नहीं समझा।’’ ''तुम अच्छी तरह समझते हो। कल लोगों ने मुझे सब कुछ बता दिया है।’’ लम्हे भर की ख़ामोशी के बाद लेिफ्टनेंट ने जवाब दिया - ''लोगों ने! लोगों ने शायद तुम्हें मेरी और उसकी दुश्मनी का िकस्सा भी सुनाया होगा?’’ ''नहीं। उन्होंने मुझे दूसरी चीज़ों के बारे में बताया।’’ ''मैं नहीं समझा।’’ ख़ामोशी उनके दर्मियान पहाड़ की तरह खड़ी थी, लेकिन मिस्बाह सईद ने तेज़ी से हाथ बढ़ा कर लेिफ्टनेंट का बाज़ू दबोच लिया और चीख़ते हुए कहा - ''तुम समझते हो.. और तुम बहुत अच्छी तरह समझते हो।’’ लेिफ्टनेंट को ब्रेक लगा कर गाड़ी को रोकना पड़ा। अपने तास्सुर से कोई गुस्सा या नाराज़गी ज़ाहिर किए बगैर उसने मिस्बाह का हाथ अपने बाज़ू से अलग किया । रेत का तूफ़ान इस क़दर शदीद हो चुका था कि आँखों के आगे कुछ नज़र ना आता था। लेिफ्टनेंट ने तूफ़ान के थम जाने तक इंतिज़ार किया और गाड़ी को सड़क के किनारे रोक लिया। फिर उसने सिगरेट का पैकेट निकाला और मिस्बाह को एक सिगरेट पेश की, मगर उसने चौंक कर इंकार कर दिया। लेिफ्टनेंट ने अपना सिगरेट सुलगाया और धुएं के बादल बनाते हुए बड़े सुकून से बोला : ''बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें तुम नहीं जानते -- बहुत सारी चीज़ें।’’ ''लेकिन बहुत सी चीज़ें जानता भी हूँ। आज के बाद मेरा इतना जानना काफ़ी है कि कानून से ताल्लुक़ रखने वाला शख्स दुनिया-भर के सामने जुर्म करके भी बच सकता है।’’ ''क्या तुम उसे जुर्म समझते हो?’’ ''हाँ, उस की जान बचा लेना तुम्हारे लिए मुमकिन था।’’ ''किसी की जान बचाना कानून से ताल्लुक़ रखने वाले आदमी की ज़िंम्मेदारी नहीं है।’’ ''ज़िंम्मेदारी है। बल्कि ये तुम्हारा फ़र्ज़ है।’’ ''हाँ, अब हम असल बात के क़रीब पहुंच रहे हैं। सुनो। गौर से सुनो। सहरा की ज़िंदगी का चुनाव करने वाले को किसी के भरोसे पर नहीं रहना चाहिए। वो किसी के हुक्म का पाबंद नहीं होता, पूरी तरह आज़ाद होता है, चाहे उसे यह भी मालूम न हो कि ग़ज़ालों और सराबों का पीछा करने के सिवा वो इस आज़ादी का क्या इस्तेमाल करे। जब वो प्यासा हो या मुश्किल में हो, तो उसे अपने आप पर निर्भर रहना चाहिए, अपनी मुकम्मल आज़ादी की, किसी के हुक्म का पाबंद ना होने की कीमत अदा करनी चाहिए।’’ मिस्बाह सईद पर लर्ज़ा तारी हो गया। वो लेिफ्टनेंट के क़रीब हो कर बोला : ''अगर जबूर हर किसी के हुक्म से आज़ाद होता तो तुम पर भरोसा न करता।’’ दोनों ने तेज़ी से एक दूसरे को देखा, और फिर लेिफ्टनेंट ने कहा ''अगर वो हुक्म का पाबंद था तो उसने सिर्फ उन बेवकूफ़ लोगों को अपनी तरफ़ करने के लिए मेरे ख़िलाफ़ आवाज़ क्यों उठाई? तवारेग ने उसे सख़्त-कोशी की ज़िंदगी और सहरा का इंतिख़ाब करना सिखाया था, इसलिए उसे मालूम था कि उसे बचाने के लिए कोई नहीं आएगा, और उसकी मौत उसकी आज़ादी के बचाव करने की कीमत थी। हुकूमत उनकी हिफ़ाज़त नहीं करती जो उस की मुख़ालिफ़त में आवाज़ बुलंद करते हैं। जब हुकूमत तुम्हें रोटी और सुरक्षा देता है, तुम्हारी देख-भाल करता है, तो अगर तुम इस से दुश्मनी करने की कोशिश करोगे तो वो यकीनन तुम्हारा सर भी कुचल डालेगा। वो तुम्हें ख़ामोश रहने का मुआवज़ा अदा करता है, तुम्हारी मुस्तिकल ख़ामोशी की कीमत चुकाता है, लेकिन अगर तुमने उससे आज़ादी हासिल कर ली तो फिर तुम्हारे पास सहरा पर निर्भर करने की सिवा कोई रास्ता नहीं बचता।’’ ''तुम्हारी सफ़ाई की दलीलें वहशियाना है, इस जुर्म से भी ज़्यादा घिनौनी,’’ मिस्बाह ने धमकाने वाले लहजे में कहा। ''मगर ठहरो मुझे दार-उल-हकूमत पहुंचने दो। मैं अख़बार में तुम्हारा पर्दा चाक करूँगा। मैं तुम्हारे जुर्म की तफ़सील लिखूँगा और इस वक़्त तक चैन से नहीं बैठूँगा जब तक तुम पर मुक़द्दमा ना चलाया जाए।’’ ''तुम्हें इससे कुछ हासिल नहीं होगा,’’ लेिफ्टनेंट मुस्कुराते होई बोला। ''मुझे सज़ा दिलवाने के लिए तुम्हारे पास ज़र्रा भर भी शहादत नहीं है। जुर्म तो असल में सहरा ने किया है। वो आज़ादी की ख़ाहिश के हाथों क़त्ल हुआ। आज़ादी मुजरिम है, इस पर मुक़द्दमा चलना चाहिए। मैंने तो सिर्फ इतना किया कि देर से पहुंचा। बस जऱा सी देर से, चंद घंटे या शायद आधा दिन, और ये मैंने जान-बूझ कर किया। बाकी काम मेरी तरफ़ से सहरा ने कर लिया। मुझे ये करना था। इस हुकूमत की तरफ़ से छोटी सी सज़ा जिसके ख़िलाफ़ बग़ावत की गई थी, जिसके हाथ से रोटी क़बूल करने से इंकार किया गया था। जहां तक मेरे इस अपराध की स्वीकृति का सम्बंध है, इसका मेरे और तुम्हारे सिवा कोई गवाह नहीं है। और उसे, जिसको तुम मेरा जुर्म कह रहे हो, साबित करने के लिए तुम्हें किसी तीसरे गवाह की ज़रूरत पड़ेगी। ''स्थानीय लोग भी तो हैं, वो मेरे हक़ में गवाही देंगे। इन्होंने मुझे बता दिया कि तुम और गवर्नर और सूबाई अफ़सर उससे कितनी नफ़रत करते थे। वो सब उससे हमदर्दी रखते हैं और तुम्हारे ख़िलाफ़ गवाही देंगे। तुम्हें उससे नफ़रत थी क्योंकि वो तुम्हारे सच से वािकफ़ था, और मैं यह बात सब को बताऊँगा।’’ ''अब बस भी करो,’’ लेिफ्टनेंट ने सर्द लहजे में इस की बात काटी। ''हमारे ज़माने में सच जानना ही सज़ा पाने के लिए काफ़ी बड़ा कारण है। सुनो, मेरा अपना भाई भी मुख़ालिफों में शामिल था।’’ फिर वो कुछ देर ख़ामोशी से रेत के झक्कड़ों को विंडस्क्रीन पर से गुज़रते हुए देख़ता रहा। ''वो आज़ादी के शुरू के दिनों में ज़िंद्दीपन से मुख़ालिफ़त पर अड़ा रहा, और बहुत जल्द हुक्काम ने महसूस कर लिया कि वो कितना ख़तरनाक है। फिर वो अचानक ग़ायब हो गया।’’ ''ग़ायब?’’ हैरत की एक चीख़ मिस्बाह सईद के होंटों से निकली। ''हाँ। तब से लेकर आज तक ग़ायब है।’’ ''मगर कहाँ ग़ायब हो गया?’’ लेिफ्टनेंट ने इस के सवाल को नज़रअंदाज करते हुए अपनी बात जारी रखी ''उस दिन मुझ पर एक परम सत्य प्रकट हुआ। मुझे दो बातों में से एक का चुनाव करना था - सच का साथ दूं या उसे हमेशा के लिए फ़रामोश कर दूं।’’ ''यानी अपने ज़मीर से ग़द्दारी?’’ ''हाँ। मैं ज़िंदा रहना चाहता था। मैंने रोटी के हक़ में फैसला किया।’’ ''तुमने सच के बदले में रोटी ले ली,’’ मिस्बाह सईद ने हिकारत भरे लहजे में टिप्पणी की। ''हाँ। क्यों नहीं?’’ ''तुमने अपने ज़मीर से ग़द्दारी की।’’ ''क्यों नहीं?’’ ख़ामोशी उनके दर्मियान दीवार की तरह उठ कर खड़ी हो गई थी। कुछ देर बाद लेिफ्टनेंट ने खिड़की से बाहर नज़र डाली, फिर मिस्बाह सईद की तरफ़ मुड़ा और, पहली बार कठोरता से मुक्त आवाज़ में बोला : ''मुझे यकीन् है कि तुम मेरी बात समझ गए होगे।’’ उसने चाबी घुमाई और एक्सिलरेटर पर पांव रख दिया। सुबह के हवाई अड्डे के कैफेटेरिया में दोनों एक मेज़ पर आमने सामने बैठे थे। मिस्बाह अपना सामान जमा करा चुका था। एक लंबी ख़ामोशी के बाद उसने कहा : ''इस मेहरबानी के लिए शुक्रिया।’’ लेिफ्टनेंट ख़ामोश रहा। उसकी निगाहें मुसाफ़िरों के दर्मियान भटकती रहीं। लाऊड स्पीकर ने मुसाफ़िरों को जहाज़ की तरफ़ रवाना होने की हिदायत की तो मिस्बाह उठ खड़ा हुआ और उसने लेिफ्टनेंट को उससे पहले खड़े हो कर उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए देखा, जैसे ये हाथ ना हो बल्कि रिवाल्वर हो। मिस्बाह ने उससे हाथ मिलाया और इन्होंने एक दूसरे पर एक तेज़ निगाह डाली। इस से पहले कि मिस्बाह दूसरे मुसाफ़िरों के हुजूम में ओझल हो जाता, लेिफ्टनेंट लपक कर उसके पास पहुंचा और एक तेज़ सरगोशी में बोला : ''लोगों के भरोसे पर मत रहना,’’ और ये कह कर उसने एक चेहरे पर रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट ओड़ते हुए उससे कहा - अलविदा ! ***** Footnotes * तवारेग : उत्तर धुर्वी अफ्ऱीक़ा के सहराओं में पाए जाने वाले ख़ाना-बदोश क़बाइली हैं जो अपनी गुज़र-बसर के लिए गल्लाबानी (भेड़ों की रेवड़ चराना) पर निर्भर रहते हैं और राजनीति की खड़ी की हुई सरहदी लकीरों को ख़ातिर में ना लाते हुए लीबिया, मराक़श, अल-जज़ाइर और बर्र-ए-आज़म के दूसरे मुल्कों के सहराओं में एक नख़लिस्तान से दूसरे नख़लिस्तान की दिशा में लगातार सफ़र में रहते हैं। तुआरेग इस्लाम की शुरुआत से पहले की तारीख और एक बर्बर भाषा बोलते हैं, तमाशेक, प्राचीन मिस्र से संबंधित, एक समान रूप से प्राचीन वर्णमाला और लिपि के साथ जिसे तिफिनग के नाम से जाना जाता है। * तीफेनाग़ : तवारेग क़बाइलीयों की भाषा का नाम है ।
इब्राहिम अल-कोनी हमारे समय के एक बेहद चर्चित लेखक इब्राहीम अल-कोनी का जन्म 1948 में लीबिया के एक मरुस्थली इलाके फैज़ान रीजन के शहर ग़दामस में हुआ। ''वील्ड मेन’’ (पर्दा-पोश) और ''ब्लू मेन’’ के नाम से जानी जाने वाले तवारेग क़बीले में जन्मा और उन्हीं रिवायतों के मुताबिक ही उसे परवरिश मिली। कोनी ने बारह बरस की उम्र में जाकर अपनी मादरी ज़बान से हटकर अरबी भाषा पढऩा और लिखना सीखा। बाद को उसने मास्को के मैक्सिम गोर्की लिटरेचर इंस्टीटियूट में भी अध्ययनरत रहे। मास्को और वारसा में बतौर पत्रकार भी काम किया। 1993 से स्विट्ज़रलैंड में बसेरा किया हुआ है। कोनी का अधिकांश लेखन पौराणिक तत्व, आध्यात्मिक प्रश्न और मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े सवालों से जूझता हुआ लेखन है। यही सवाल उसकी तहरीरों में घुलमिल कर कभी जादूई यथार्थवाद, तो कभी सूफ़ीयाना शाइरी की शक्ल इिख्तयार कर लेते हैं। इब्राहीम अल-कोनी की अब तक अंदाज़न 80 उपन्यास, लघु कथाएँ, कविताएँ और भविष्यवाणियाँ लिखी हैं, जो सभी की सभी अफ्रीका में उत्तरी सहारा रेगिस्तान के खानाबदोश जीवन से प्रेरित हैं। मूल रूप से अरबी भाषा में लिखी गई इन पुस्तकों का दुनिया की 35 विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनका उपन्यास ''गोल्ड डस्ट’’ सन 2008 में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था।
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