मुखपृष्ठ पिछले अंक पचास साल की 'भुवन सोम’
मार्च - 2020

पचास साल की 'भुवन सोम’

प्रमोद कुमार बर्णवाल

सिनेमा/मृणाल सेन

 

 

 

भारतीय सिनेमा के इतिहास में वर्ष 1969 एक विशेष स्थान रखता है। इसी वर्ष से सामाजिक सरोकारों को दर्शाने वाली यथार्थवादी शैली में बनी कुछ अलग तरह की फिल्मों की शुरुआत हुई, जिसे समान्तर, समानान्तर, सार्थक या नई लहर सिनेमा कहा गया। समान्तर सिनेमा नये जॉनर का सिनेमा था, इसकी शुरुआत जिस फ़िल्म से हुई, वह थी- 'भुवन सोम’। 'भुवन सोम’ वर्ष 1969 में रिलीज हुई। इस लिहाज से देखों तो इस फिल्म ने पचास साल की आयु प्राप्त कर ली है। रिलीज के पचास साल बाद भी विषय-वस्तु और कुछ नये तरह के प्रयोग के कारण इस फिल्म की चमक अब तक बनी हुई है।

मृणाल सेन 'भुवन सोम’ फ़िल्म के निर्देशक हैं। 14 मई, 1923 को अविभाजित बंगाल के फरीदपुर (वर्तमान समय में बांग्ला देश में अवस्थित) में जन्मे मृणाल सेन बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने फरीदपुर में हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की, इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता (तब के कलकत्ता) आ गए, वहीं पर उन्होंने भौतिकी विज्ञान में एमए तक की शिक्षा प्राप्त की। उनका शुरुआती जीवन आर्थिक कठिनाइयों से भरा रहा। उनके साथ पत्नी और बच्चे को भी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके पास कई बार अपने बच्चे को दूध पिलाने तक के पैसे नहीं होते थे, ऐसे समय में हतास पत्नी रोती-बिलखती; उन्हें ताने देती, उन पर झल्लाती। मृणाल सेन आर्थिक अभावों से मज़बूत पति और पिता के रूप में अफ़सोस करते, सिर झुकाये चुपचाप खड़े रहते, फिर उनसे जब सहा नहीं जाता, तो घर से चलकदमी करते हुए बाहर निकल जाते। उन्होंने छोटे-मोटे कई तरह के काम किये, पर आर्थिक अभाव बना रहा; ऐसी विकट स्थिति में भी उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया, वे सदैव पढ़ते-लिखते रहे।

उन्होंने चार्ली चैपलिन की एक फिल्म देखी, वे इससे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बाद में चार्ली चैपलिन की कई फिल्में देखी; उन्हें चैपलिन इतने पसंद आए कि उन पर एक स्वतंत्र पुस्तक की रचना कर दी। उन्होंने चैपलिन के अलावा सिने-आलोचना पर भी पुस्तकें लिखी। वे 'इप्टा’ के सदस्य रहे, कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जुड़े रहे। राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने बांग्ला, हिन्दी, उडिय़ा और तेलुगु भाषा में फ़िल्में बनाईं।

हिन्दी और बांग्ला भाषा के मशहूर गायक और संगीतकार हेमंत कुमार दूरदर्शी व्यक्ति थे, उन्होंने मृणाल सेन से छिपी क्षमताओं की पहचान की थी। उन्होंने ही उन्हें पहली बार 'रात भोरे’ शीर्षक बांग्ला फिल्म निर्देशित करने का मौका दिया। इस तरह से मृणाल सेन ने 'रात भोरे’ (1955) फिल्म से निर्देशन के क्षेत्र में डेब्यू किया। हेमंत कुमार ने इसके बाद दो और बांग्ला फिल्मों में मृणाल सेन को मौके दिए। ये दोनों फिल्में हैं - 'नील अकाशेर नीचे’ (1958) और 'बाईशे श्रावण’ (1960)। प्रारम्भिक दोनों फ़िल्मों में मृणाल सेन को क्षेत्रीय पहचान दी। लेकिन 'बाईशे श्रावण’ ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की।

 

2.

मृणाल सेन ने 'बाईशे श्रावण’ के बाद चार और बांग्ला फ़िल्में निर्देशित कीं। इसके बाद ओडिय़ा भाषा में 'मेचिर मनिषा’ (1966) फिल्म निर्देशित की। इन आठ फिल्मों के बाद जिस फ़िल्म ने मृणाल सेन को बड़े स्तर पर पहचान दिलाई, उनकी फ़िल्म निर्देशन-कला का प्रसार अधिक-से-अधिक लोगों तक किया, वह 'भुवन सोन’ है। मृणाल सेन ने 'भुवन सोम’ से पहले जितनी फ़िल्में निर्देशित की, वे सभी किसी-न-किसी व्यक्ति या प्राइवेट फ़िल्म निर्माण कम्पनी की निजी पूँजी से निर्मित थीं। लेकिन 'भुवन सोम’ भारत में बन रही अन्य फ़िल्मों से इस मायने में अलग है कि इसका निर्माण सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक निधि से किया गया। केंद्र सरकार ने 1951 में एस.के. पाटिल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति का उद्देश्य भारतीय सिनेमा उद्योग के विकास के लिए जरूरी जमीन की तलाश करना था। इस समिति ने 1953 में अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में विभिन्न फ़िल्मकारों को फ़िल्म के निर्माण में सहायता देने के लिए एक वित्तीय संस्थान के गठन की आवश्यकता पर बल दिया गया। इस रिपोर्ट के बाद भारत सरकार ने 1960 में 'फ़िल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन’ की स्थापना की। इसी संस्था का नाम कालांतर में बदलकर 'नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ (एनएफडीसी) कर दिया गया। 'फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन’ से वित्तीय सहायता प्राप्त करने वाले पहले निर्देशक 'मृणाल सेन’ थे, उन्होंने इस संस्था की सहायता से 'भुवन सोम’ फिल्म का निर्देशन किया। इस प्रकार 'भुवन सोम’ से भारतीय समान्तर सिनेमा की शुरुआत हुई।

सिनेमा बनाने के लिए बहुत सारे रुपये-पैसे की ज़रूरत पड़ती है। समान्तर सिनेमा के दौर से पहले तक भारत में दो तरह से फ़िल्में बनाई जा रही थी। एक स्टूडियो द्वारा; और दो, स्वतंत्र फ़िल्मकारों द्वारा। कुछ लोगों ने स्टूडियो का निर्माण करके एक कंपनी जैसा बना लिया था; स्टूडियो में निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्री, तकनीशियन, गीतकार, संगीतकार, लेखक, पटकथा लेखक, संवाद लेखक इत्यादि अनेक लोग मासिक वेतन पर रखे जाते थे। इनकी सहायता से स्टूडियो के मालिक फ़िल्में बनाता था। जबकि कुछ लोग ऐसे थे जिनके पास कम पैसे थे, ये किसी स्टूडियो के मालिक नहीं थे। ये लोग स्वतंत्र रुप से फ़िल्मों का निर्माण करते थे। ये लोग कुछ दिनों के लिए किसी स्टूडियो को किराये पर ले लेते और कलाकारों और तकनीशियों को एक निश्चित रकम देकर अपनी फिल्म में काम करवाते। फिल्म निर्माण के बाद सभी को अपना-अपना पारिश्रमिक मिल जाता और फिर वे सब अपने-अपने रास्ते पर चल देते।

समान्तर सिनेमा के दौर में एक नया बदलाव देखने को मिला- सरकार ने लोगों को फ़िल्म निर्माण के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाई, बल्कि इसके बजाय हम यहभी कह सकते हैं कि यह सरकारी आर्थिक सहायता ही थी जिसके कारण समान्तर सिनेमा का दौर संभव हो पाया। जैसा कि इस बारे में प्रसिद्ध सिने-आलोचक सुमिता एस. चक्रवर्ती कहती भी हैं, ''विभिन्न सिने-आलोचक और फिल्मकार व्यवसाय और लाभ पर आधारिक लोकप्रिय सिनेमा के नेतृत्व से प्रतियोगिता कर सके ऐसी कोशिश को भारत में 'समान्तर सिनेमा’, 'कला सिनेमा’, 'भारतीय नई लहर’, 'नयी तरंग’ या 'क्षेत्रीय सिनेमा’ कहा गया। इसकी अवधि बीसवीं शताब्दी के साठ के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक रही। इस अवधि में सरकार द्वारा प्रायोजित सिनेमा ने भारत में परंपरागत रूप से अब तक बनने वाली फिल्मों से अलग हटकर एक 'नई परंपरा’ को गढऩे का प्रयास किया, जिसके लिए वास्तविकता या यथार्थवाद शब्द का प्रयोग किया जा सका।’’ (देखें पुस्तक 'नेशनल आइडेंटिटी इन इंडियन पॉपुलर सिनेमा (1947-1987); प्रकाशक: ऑक्सफोर्ट यूनिवर्सिटी प्रेस, वाई.एम.सी.ए. लाइब्रेरी बिल्डिंग, जय सिंह रोड, नई दिल्ली- 110 001; संस्करण: 1998; पृष्ठ- 235)।

'फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन’ या एनएफडीसी फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में एक प्रमुख संस्ता के रूप में उभरी। मृणाल सेन की 'भुवन सोम’ के बाद अनेक फ़िल्मकारों ने इसकी वित्तीय सहायता से विभिन्न फ़िल्मों का निर्माण किया। जी.वी. अय्यर, नीरद एन. मोहपात्रा, सत्यजित राय,केतन मेहता, विजया मेहता, गौतम घोष, मीरा नायर, सुधीर मिश्रा, सईद अख़्तर मिर्जा, परवेज मेरवंजी, सुरिन्दर सिंह, के.एस. सेथुमाधवन, तपन सिंहा, अरुण कौल, बासु चटर्जी, जब्बार पटेल, श्याम बेनेगल, बुद्धदेव दासगुप्ता, पामेला रूक्स इत्यादि ने एनएफडीसी की वित्तीय सहायता से विभिन्न फ़िल्मों का निर्माण किया। ये फ़िल्में न केवल लोगों द्वारा सराही गईं, बल्कि इन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में नये कीर्तिमान भी अर्जित किये। वर्ष 1969-76 तक 'फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन’ के चेयरमैन रहे वरिष्ठ सिनेमा विशेषज्ञ बी.के. करंजिया ने अपने एक संस्मरण में इस बारे में लिखा भी है, उनके अनुसार, ''अपने सात साल के कार्यकाल में मैंने 36 फ़िल्मों को वित्तीय सहायता उपलब्ध करवायी और जहाँ तक मुझे याद आता है, उन फिल्मों ने 21 राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते।’’ (देखें पुस्तक 'काउंटिंग माई ब्लेसिंग’; प्रकाशक: पेंग्विन/वाइकिंग, पेंग्विन बुक इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, 11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, पिन - 110017; संस्करण: 2005; पृष्ठ-197)। एनएफडीसी ने विभिन्न फ़िल्मकारों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई। 1969 से लेकर 1975 तक इसमें कई डॉक्युमेंट्री और बाल फ़िल्मों का निर्माण किया। 'गांधी’ (1984) और 'सलाम बॉम्बे’ (1988) जैसी अन्तराष्ट्रीय रूप से चर्चित फिल्मों के निर्माण में आर्थिक सहयोग दिया।

यहाँ पर एक बात उल्लेखनीय है कि मृणाल सेन को 'भुवन सोम’ बनाने के लिए भले ही एनएफडीसी से वित्तीय सहायता मिली, किंतु उन्होंने हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि फिल्म बनाते समय इसमें कम-से-कम खर्च आए। मृणाल सेन ने इस फिल्म को बनाते समय इसके बजट का विशेष ध्यान रखा। उन्होंने इसे 2,00,000 लाख रुपये में बनाकर तैयार कर लिया। यह अविश्वसनीय रूप से कम-से-कम बजट था। यह एक तरह से रिकॉर्ड था, नया ट्रेंड जो आगे चलकर दूसरे निर्माता निर्देशकों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बना।

 

3.

सरकार द्वारा प्रदत्त वित्तीय निधि की सहायता से समान्तर सिनेमा का विकास हुआ। इसके अलावा इन फिल्मों की एक और विशेषता थती कि इनकी विषय-वस्तु में सामाजिक प्रतिबद्धता की झलक मिलती थी। इनमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक समस्याओं को यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। स्वतंत्रता के पूर्व आम जनता की ऐसी सोच थी कि अंग्रेज़ों से आज़ादी मिलने के बाद सबकुछ बदल जाएगा; राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक समानता आ जाएगी और सभी को विकास का समान अवसर मिलेगा; किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अंग्रेज़ों के जाने के बाद कुछ लोगों के हाथों में सत्ता आ गई। गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ों ने ले ली। नेताओं, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों ने स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता से लगा लिया; ये काले अंग्रेज़ अपनी स्वार्थसिद्धि में लग गए। फलस्वरूप आम जनता और बुद्धिजीवियों का स्वतंत्रता के मूल्यों से मोहभंग हुआ। इस मोहभंग का प्रभाव भारतीय सिनेमा पर पड़ा। बीसवीं शताब्दी के सत्तर के दशक में सिनेमा के क्षेत्र में एक विशेष तरह का बदलाव आया। कुछ फ़िल्म निर्देशकों ने उन घटनाओं को अपनी फ़िल्मों के समान्तर ऐसी फ़िल्मों का दौर चला जो प्रगतिशील राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक चेतना से सम्पन्न थीं। मृणाल सेन ने 'भुवन सोम’ से इसकी शुरुआत की। इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार और आलोचक कृपाशंकर चौबे एक जगह लिखते हैं, ''बांग्ला सिनेमा के इतिहास में 1955 में 'पथेर पांचाली’ का आना एक क्रांतिकारी घटना थी। उसने बांग्ला सिनेमा को नया जन्म दिया था। इसी तरह 1969 में 'भुवन सोम’ का आना हिंदी सिनेमा में एक क्रांतिकारी घटना के रूप में दर्ज है, जिसने हिंदी में 'न्यू सिनेमा’ को जन्म दिया। वैसे 'पथेर पाँचाली’ और 'भुवन सोम’ के पहले का भी बांग्ला सिनेमा और हिंदी सिनेमा का एक लंबा इतिहास रहा है पर जीवन, संस्कृति और समाज के जटिल यथार्थ को स्पष्ट विचारकोण के साथ परदे पर लाने की गंभीर पहल करने का श्रेय बांग्ला में 'पथेर पाँचाली’ बनाने वाले सत्यजित राय को और हिंदी में 'भुवन सोम’ बनाने वाले मृणाल सेन को ही है।’’ (देखें पुस्तक ''मृणाल सेन का छाया लोक’’; प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूल, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर 16, पिन- 134 113; संस्करण 2001; पृष्ठ 24):

 

4.

'भुवन सोम’ से समान्तर सिनेमा की शुरुआत हुई ही, इसके अलावा कई मायनों में यह फिल्म नवीन थी। मृणाल सेन ने इसी फ़िल्म के माध्यम से हिन्दी सिनेमा में डेब्यू किया। उत्पल दत्त ने 'भुवन सोम’ से ही हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में डेब्यू किया। सुहासिनी मुले ने भी इसी फिल्म से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा। विजय राघव राव इस फिल्म के संगीत निर्देशक हैं। उन्होंने 'भुवन सोम’ से ही पहली बार कथा-फ़िल्म में डेब्यू किया। के.के. महाजन ने पुणे स्थित 'भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान’ से 'मोशन पिक्चर फोटोग्राफी’ डिप्लोमा पाठ्यक्रम में गोल्ड मेडल प्राप्त करने के बाद कुछ लघु फ़िल्मों और डॉक्यूमेंट्री में काम किया; इसके बाद उन्होंने पहली बार बड़े स्तर पर 'भुवन सोम’ के माध्यम से छायांकन के क्षेत्र में कदम रखा। वर्तमान समय में हिन्दी फ़िल्मों के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन ने सबसे पहले इसी फिल्म के माध्यम से सिनेमा के क्षेत्र में डेब्यू किया। इसमें उन्होंने परदे के पीछे रहकर काम किया। उन्होंने फिल्म में अपनी आवाज़ दी। बाद में उन्होंने 'सात हिन्दुस्तानी’ फ़िल्म से अपने अभिनय कैरियर की शुरुत की और अनेक फिल्मों में अपनी आवाज़ दी। मृणाल सेन ने किसी साक्षात्कार में 'भुवन सोम’ और अमिताभ बच्चन के बारे में एक दिलचस्प बात बताई थी। उन्होंने कहा था कि अमिताभ बच्चन ने 'भुवन सोम’ से ही पहली बार फ़िल्मों में कमाई शुरु की। फिल्म में अपनी आवाज़ देने के बाद अमिताभ बच्चन पैसे लेने के इच्छुक नहीं थे,पर मृणाल सेन ने उन्हें 300 रुपये का चेक लेने के लिए राजी कर लिया। (इस बारे में अधिक जानकारी के लिये गूगल के इस लिंक पर क्लिक करें Scroll.in/reel/810879/mrinal-sen-on-bhuvan-shome-aburlesque-and-inspired-nonsense)

 

5.

फ़िल्में वैसे तो सामूहिक कर्म की देन होती हैं, किंतु 'भुवन सोम’ विशेष इसलिए है क्योंकि यह अखिल भारतीय स्तर पर सामूहिक एकता की परिणति है। इस फ़िल्म की खास बात यह है कि विभिन्न भारतीय भाषा-भाषी और संस्कृति के लोगों ने इसमें काम किया। इस फ़िल्म के निर्देशक मृणाल सेन खुद बांग्ला भाषी थे। संगीत निर्देशक विजय राघवन राव मूलत: तमिल भाषी थे। उनका जन्म अविभाजित भारत के मद्रास (वर्तमान समय में चेन्नई) में हुआ। कैमरामैन के.के. महाजन मूलत: पंजाबी भाषी थे। उनका जन्म अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत (वर्तमान पंजाब राज्य के गुरदासपुर) में हुआ। फ़िल्म में शीर्षक भूमिका निभाने वाले एक्टर उत्पल दत्त मूलत: बांग्ला भाषी थे। फ़िल्म के एक अन्य प्रमुख एक्टर साधु मेहर मूलत: ओडिय़ा भाषी थे। अभिनेत्री सुहासिनी मुले मराठी संस्कृति में पली-बढ़ी थी। इसके अधिकतर दृश्यों की शूटिंग गुजरात राज्य के सौराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। सौराष्ट्र क्षेत्र के मूल ग्रामीण निवासियों ने फ़िल्म में ग्रामीणों की ही भूमिका निभाई। इस तरह से भारतीय समान्तर सिनेमा की शुरुआत हिन्दी में बनी जिस फ़िल्म से हुई, उससे जुड़े सभी महत्वपूर्ण कलाकार गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्र के थे। इस तरह से 'भुवन सोम’ की फ़िल्म-निर्माण समूह में राष्ट्रीय सामूहिक एकता के दर्शन होते हैं। यह राष्ट्रीय सामूहिक एकता की मिसाल है।

 

6.

यह फ़िल्म बांग्ला भाषा के सुविख्यात लेखक बलाई चंद मुखोपाध्याय उर्फ बनफूल की 'भुवन सोम’ शीर्षक कहानी पर आधारित है। इसकी पटकथा मृणाल सेन ने खुद लिखी है। संवाद सत्येन्द्र शरत और बद्रीनाथ ने लिखे हैं। कमेंट्री यज्ञ शर्मा ने लिखी है, जिसे अमिताभ बच्चन ने अपना स्वर दिया है। मैकअप देवी हाल्दार का है। फ़िल्म में बीच-बीच में एनिमेशन का प्रयोग किया गया है, यह कारीगरी राम मोहन ने की है। विभिन्न दृश्यों के बीच में एनिमेशन के प्रयोग से फिल्म बेहद खूबसूरत बन पड़ी है।

इस फ़िल्म में काम करने वाले कलाकारों की बातें करें तो इसमें उत्पल दत्त, साधु मेहर और सुहासिनी मुले ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। उत्पल दत्त ने फ़िल्म में शीर्षक भूमिका निभाई है। भुवन सोम विधुर है, वह रेलवे का एक बहुत बड़ा अधिकारी है। इसके मातहत उससे भय खाते हैं। साधु मेहर ने फ़िल्म में जादव पटेल नामक टिकट कलेक्टर (टीसी) की भूमिका निभाई है। वह भ्रष्ट है, वह यात्रियों से पैसे लेने में कोई बुराई नहीं समझता। सुहासिनी मुले ने फ़िल्म में ग्रामीण स्त्री गौरी की भूमिका निभाई है। जादव पटेल यात्रियों से पैसे लेते हुए पकड़ा गया है, भुवन सोम इसकी जाँच करने और उस पर कार्रवाई करने के लिए आया हुआ है। भुवन सोम को यह पता है कि जादव पटेल भ्रष्ट है। भुवन सोम बहुत कड़क अधिकारी है, इसलिए साधु मेहर डरा हुआ है कि न जाने उसे क्या सज़ा मिले? इस दौरान एक घटना घटती है। भुवन सोम शिकार खेलने के लिए किसी गाँव में पहुंचता है। ...भारत की अधिकांश जनसंख्या आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, ये ग्रामीण अपनी आजीविका के लिए कृषि और इससे संबंधित कार्यों पर निर्भर करते हैं; लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि आज के समय की अधिकांश फ़िल्मों को देखें और उनमें गाँव पूरी तरह से गायब होते जा रहे हैं। उनमें शहरों को ही दिखाया जाता है। इन शहरों में भी जिस तरह की विषय-वस्तु को लेकर कहानी गढ़ी जाती है, उनमें वास्तविक दुनिया नहीं दिखाई पड़ती। ऐसे समय में 'भुवन सोम’ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसमें न केवल शहर के दर्शन होते हैं, बल्कि इसमें ग्रामीण क्षेत्रों की विशेषताओं को भी देखा जा सकता है। इसमें कुछ दृश्य शहर के हैं तो कुछ गाँव के। भुवन सोम शिकार खेलने के लिए जब गाँव में पहुंचता है, तो वहाँ उसकी मुलाकात गौरी नामक ग्रामीण स्त्री से होती है। गौरी बहुत अच्छे स्वभाव की महिला है, वह दरअसल साधु मेहर की पत्नी है। गौरी शिकार करने में भुवन सोम की मदद करती है। बातचीत के दौरान भुवन सोम को यह पता चल जाता है कि गौरी कोई और नहीं बल्कि उसके मातहत साधु मेहर की पत्नी है। भुवन सोम की मदद करती है। बातचीत के दौरान भुवन सोम को यह पता चल जाता है कि गौरी कोई और नहीं बल्कि उसके मातहत साधु मेहर की पत्नी है। भुवन सोम जब शिकार खेलकर वापस आता है तो बहुत प्रसन्न हो जाता है। दरअसल विधुर होने के कारण भुवन सोम के जीवन में एक रिक्तता आ गई थी। इसी से उसका स्वभाव बहुत कड़क हो गया था। गौरी के साथ कुछ समय बिताने से उसके स्वभाव में कोमलता आती है। वह वापस आकर साधु मेहर को कोई सज़ा नहीं देता, बल्कि उसका तबादला एक बड़े जंक्शन पर कर देता है।

वर्ष 1947 में हमारा देश स्वतंत्र हुआ और 1950 में गणतंत्र। इन ऐतिहासिक वर्षों के बाद भारतीय लोकतंत्र ने अपने जन्म के साथ दशक पूरे कर लिए, लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि अभी तक हमारे देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का सही याने में, सही तरह से विकास नहीं हो पाया है; बल्कि इधर के कुछ वर्षों  में हमारे यहाँ एक नये तरह का लोकतंत्र स्थापित होता जा रहा है जिसमें एक तरफ दबा-कुचला-पिछड़ा, जीवन की नितान्त आवश्यकताओं से महरूम, अविकसित 'भारत’ है तो दूसरी तरफ साधन-सम्पन्न 'इंडिया’। हम कह सकते हैं कि आज का भारत वह नहीं है, जिसके सपने आज़ादी के दीवानों ने देखे थे। यहाँ पर सवाल उठता है कि आख़िर हमारी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में चूक कहाँ पर हुई? इसकी पड़ताल करनी हो, अच्छी तरह से जानना-समझना हो, तो 'भुवन-सोम’ फिल्म इसके लिए एक महत्वपूर्ण औजार का काम करती है। 'भुवन सोम’ श्वेत-श्याम रंग में बनी है, लेकिन इसमे ंलोकतंत्र को जानने-समझने के कई रंग देखने को मिलते हैं। इसमें कॉमेडी है, लोकगीत और लोकसंगीत की छाँक है, एनिमेशन का प्रयोग है, तो स्पेशनल इफेक्ट भी है। विभिन्न पात्रों को अवसरानुकूल कॉस्ट्यूम और प्रॉप में दर्शाया गया है, जिससे दृश्य बेहद प्रभावी बन पड़े हैं।

'भुवन सोम’ में कई दृश्य हैं जो हास्य उत्पन्न करते हैं। ऊपरी तौर पर देखें तो यह कॉमेडी फ़िल्म नज़र आती है; लेकिन 'भुवन सोम’ को सि$र्फ कॉमेडी कह देने से इसके साथ इंसाफ नहीं किया जा सकता, इसके महत्व को ठीक से नहीं समझा जा सकता। इसलिए इस फिल्म को ठीक से समझने की ज़रूरत है। वास्तव में यह फ़िल्म एक दृष्टांत कथा (Allegory) पर आधारित है। दृष्टांत कथा का अर्थ एक ऐसी कथा से होता है जिसमें पात्र और घटनाएँ प्रतीक की तरह होते हैं। यानी कि दृश्य में जो नज़र आ रहा है उसका एक सांकेतिक महत्व होता है। उस समय देश को स्वतंत्र हुए दो दसक से ज्यादा हो चुके थे; स्वतंत्रता के बाद लोग बड़ी उम्मीद से भारत सरकार की तरफ देख रहे थे। जनता को उम्मीद थी कि उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा; लेकिन ऐसा हो नहीं रहा था। कहने के लिए तो हम सब एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हो गए थे। हमारे सामने एक चुनी हुई सकार थी; किंतु वास्तव में भारतीय सरकार के नाम पर व्यापारिक-औद्योगिक पूँजीपति, ग्रामीण भू-स्वामी, नौकरशाह हावी हो गए थे। देश की अधिकांश जनसंख्या अपनी जीविका के लिए कृषि और उससे संबंधित कार्यों पर निर्भर थी, किंतु अधिकतर के पास अपनी ज़मीन नहीं थी। भूमि-सुधार करना बहुत ज़रूरी था, लेकिन केंद्र अधिकतर के पास अपनी जमीन नहीं थी। भूमि-सुधार करना बहुत ज़रूरी था, लेकिन केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान देने की बजाय इसे प्रांतीय विधायिकाओं के हवाले कर दिया था और प्रांतीय विधायिका इसके बारे में कोई निर्णय नहीं ले रही थी, क्योंकि भूमि-सुधार होने से सबसे ज़्यादा नुकसान इन्हें ही होना था। यानी कि शासन में निर्णय वे ही ले रहे थे, कानून वे ही बना रहे थे जो सुदूर ग्रामीण इलाकों में सबसे ज़्यादा कटे हुए थे। 'भुवन सोम’ फ़िल्म को अगर ध्यान से देखें तो  इसमें संकेत के रूप में इसके चिह्न दिखाई पड़ेंगे। फिल्म में भुवन सोम एक कड़क अधिकारी है जिससे सभी लोग डरते हैं, किंतु आश्चर्य यह कि जब यही कड़क अधिकारी एक गाँव में पहुँचता है तो एक भैंस के सामने उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। यानी कि भुवन सोम तभी तक कड़क है जिस समय तक उसे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है। प्रसिद्ध सिने विशेषज्ञ एम. माध्व प्रसाद 'भुवन सोम’ फ़िल्म के बारे में एक जगह लिखते हैं, ''केंद्र और हाशिये, राज्य और राष्ट्र के संबंधों से 'भुवन सोम’ फ़िल्म की मौलिक संरचना बनी है। एक सरकारी अधिकारी जब राज्य के दूरस्थ इलाके में जाता है और उसे अपने देस के यथार्थ का अनुभव होता है तो वह स्वभाव से मानवीय हो जाता है। 'भुवन सोम’ फ़िल्म में चालीस के दशक का सेट बनाकर एक राष्ट्रीय दृष्टांत कथा के द्वारा यह बताया गया है कि राष्ट्र और राज्य के संबंधों में परिवर्तन लाकर ही स्वतंक्षता का बोध करवाया जा सकता है न कि सिर्फ कानून बनाकर।’’ (देखें पुस्तक 'आइडियोलॉजी ऑफ़ दि हिन्दी ीिफल्म: एक हिस्टोरिकल कंस्ट्रक्शन’, प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, वाई.एम.सी.ए. लाइब्रेरी बिल्डिंग, जय सिंह रोड, नई दिल्ली - 110001; संस्करण 1998, पृष्ठ - 191)।

फ़िल्म यही बताना चाहती है कि उन दिनों राजनेता और सरकारी अधिकारी अपने ऑफ़िस में बैठकर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में निर्णय ले रहे थे, उन पर कानून बना रहे थे; किंतु उन्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं था। स्वतंत्रता के सात दशक और 'भुवन सोम’ की रिलीज़ के पचास साल बाद कमोबेश आज भी वैसी ही स्थिति बनी हुई है। मृणाल सेन ने इस फ़िल्म के माध्यम से यह दिखाने का प्रयत्न किया कि राजनेता और सरकारी अधिकारी अपने ऑफ़िस से बैठकर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में निर्णय लेने और ज़रूरी कानून बनाने के लिए राजनेताओं और नौकरशाहों को उन इलाकों में अपना समय बिताना चाहिए, जहाँ के बारे में उसे निर्णय करना है। 'भुवन सोम’ फिल्म शहरी और ग्रामीण जीवन के बीच सेतु का काम करती है। यह 'इंडिया’ और 'भारत’ के बीच संवेदनशीलता का विकास करती है। यह लोकतांत्रिक राज्य के कल्याणकारी भाव को बनाये रखने के लिए आजमाये जा सकने वाले ज़रूरी औजारों की तरफ लोगों का ध्यान खींचती है। यह फ़िल्म लोकतंत्र को कामयाब बनाने के लिए किए जा सकने वाले कार्यों की ओर संकेत करती है।

7.

समान्तर सिनेमा के दौर में बनी फ़िल्मों को देश-विदेश में आलोचनात्मक प्रशंसा मिली किंतु इनमें से अधिकतर फ़िल्में व्यावसायिक रूप से असफल रहीं। 'भुुवन सोम’ इस दौरान बनी फ़िल्मों से इस मायने में अलग रही कि इसे न केवल आलोचनात्मक प्रशंसा मिली, बल्कि यह व्यावसायिक रूप से भी बेहद सफल रही। इस फ़िल्म की व्यावसायिक सफलता के बाद ही मृणाल सेन के कैरियर में आर्थिक स्थायित्व की शुरुआत हुई। इसके बाद उन्होंने और कई फिल्में निर्देशित की। उन्होंने 'इंटरव्यू’, 'एक अधूरी कहानी’, 'कलकता 71’, 'पदातिक’, 'कोरस’, 'मृगया’, 'एक दिन प्रतिदिन’, 'अकालेर संधाने’, 'खंडहर’, 'एक दिन अचानक’ इत्यादि कई फ़िल्में बनाई। मृणाल सेन को समय-समय पर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया। गत वर्ष 30 दिसंबर 2018 को 95 वर्र्ष की आयु में मृणाल सेन का निधन हो गया। वे अब हमारे बीच नहीं हैं, किंतु उनकी बनाई गई फ़िल्में और उनकी लिखी पुस्तकें सिनेमा को अच्छी तरह से समझने के लिए सदैव प्रेरणा का काम करती रहेंगी।

 

 

 

2018 के अंत में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मृणाल सेन का 95 वर्ष की वय में निधन हुआ। 1969 में उनकी निर्देशित फिल्म 'भुवन सोम’ रिलीज हुई थी। उसने अब 50 वर्ष पूरे कर लिए हैं। प्रमोद कुमार वर्णवाल भारतीय सिनेमा पर विशेष लेखन करते रहे हैं और महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित है। 'राम नगर की रामलीला’ की डाक्युमेन्ट्री में रिसर्च अस्सिटेंट के रूप में काम किया।

संपर्क- मो. 9451895477, बोकारो

 


Login