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मार्च - 2020

ठहरा जिसमें जितना बल है

व्योमेश शुक्ल

डायरी

(प्रतिक्रियाएँ और नोट्स)

 

रोज़मर्रा जीवन के अछोर सिलसिले में कुछ बातें कविता की तरह क़रीब आती हैं। वे सर्वोत्तम पंक्तियाँ भूल जाता हूँ। यही याद रहता है कि भूल गया।

इसके बाद लिखने बैठों तो कुछ है ही नहीं। ख़ुद, ख़ुद को देखो, कि व्योमेश बैठकर लिख रहा है।

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कोई माने या न माने, कवि बनकर जीवन का अनुभव करने में एक धंधई चतुराई तो है। ख़राब से ख़राब कवि को दिन में एकाध बार यह तो याद आ ही जाता होगा कि वह कवि है।

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एक बार एक आदमी कुर्सी पर बैठते समय गिरते-गिरते बचा तो कुर्सी की चाल देखकर मेरे मुँह से निकल गया कि हर सिंहासन इंद्र का सिंहासन है, तो कुछ देर ठहरकर कुमार विजय ने मुझसे कहा कि तुम कविता क्यों नहीं लिखते? यों, पहली बार मुझपर कवि होने का शक किया गया।

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हमलोग एक म्यूज़िंकट्रैक की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में थे। तबला बज रहा था। एक जगह मैंने तबलावादक से कहा: 'यहाँ कुमार गंधर्व के भजन वाला ठेका बजना चाहिए’। वह तैयार हो गए और बोले: 'उसे अभंग कहते हैं।’

अभंग- मैं रुक गया। आठ मात्राओं के लोकप्रिय ताल-कहरवे का जो रूप कुमारजी के भजनों में बजता आया है, उसका नाम अभंग है? मेरा मन तुरंत मान गया। उतनी सादगी, उतने कम बोलों का विन्यास; उतना कम श्रृंगार। कोई तिहाई नहीं, किसी चटपटे अंदाज़ में सम पर पहुंचने की कोई जल्दबाज़ी नहीं, एक अनंत निरंतर - जैसे यह ताल हमेशा से बजता आया है और हमेशा बजता रहेगा। नामदेव और तुकाराम लगातार विट्ठल की स्तुति में कविता कहते रहेंगे।

अभंग- मैं रुका ही रहा। आज कुमारजी होते तो ज़रूर मुक्तिबोध को गाते और पीछे बजता अभंग।

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हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान, आलोचक प्रोफेसर बच्चन सिंह, वह अस्सी बरस के थे और मैं पच्चीस साल का। एक समय ऐसा था, जब हमलोग प्राय: रोज़ मिलते थे। जिस दिन मैं उनके यहाँ नहीं जा पाता था, वह बेचैन फ़ोन करते थे। मेरी माँ उनकी शिष्या थीं - निराला की काव्यभाषा पर अपनी पीएचडी उन्होंने बच्चनजी के सुपरविज़न में ही पूरी की थी। लेकिन मैं उनका दोस्त था। कम से कम मैं और वह, एक दूसरे को दोस्त ही मानते थे। अपनी स्थापनाओं, अंतर्दृष्टियों और पढऩे की आदत से वह लगभग हर मुला$कात में चकित करते थे।

लेकिन सबसे ज़्यादा दंग उन्होंने उस दिन किया - जिस दिन उनकी पत्नी का देहांत हुआ था। ख़बर मिलते ही हमलोग उनके घर पहुँचे। उन्होंने मुझे भीतर आते देख लिया, मैं आ ही रहा था कि उन्होंने ललकारती हुई आवाज़ में कहा: हमें मृत्यु-संबंधी कविताओं का एक संचयन तैयार करना चाहिए।

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गोपनीय क्या है? वह - जो हम किसी से नहीं बताते या वह - जो हम कुछ ख़ास लोगों से यह कहकर बता देते हैं कि यह बात बहुत गोपनीय है; इसे किसी और से मत बताना। फिर वह गोपनीय बात ऐसे ही गोलगोल घूमती रहती है।

दरअसल कई तरह की गोपनीयताएँ हैं। एक गोपनीयता वह है, जिसके बारे में हिंदी कवि ज्ञानेन्द्रपति ने उस दिन कहा था कि मैं ऐसी गोपनीयताओं की रक्षा नहीं करता। राजनीति में गोपनीयता का बड़ा मान है - पद के साथ उसकी भी शपथ दिलाई जाती है; वहीं शिवजी एक जगह पार्वती से कहते हैं कि यह मंत्र इतना गोपनीय है कि इसे प्रयत्नपूर्वक अपनी योनि में रख लो - गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वती।

हमारी सभ्यता में गोपनीयता की हैसियत बहुत ऊँची है। उसका बहुत जलवा है - मिथकों और पुराकथाओं से संसद और विधानसभाओं तक। वह सर्वव्यापी और सर्वभूतान्तरात्मा है - हवाओं में छिपी हुई। दिलों के क़ब्रिस्तान में दफ़न। कानाफूसियों और खुसफुसाहटों के पहियों पर सवार। कई बार गोपनीयता घटना बनकर प्रकट होती है तो कई बार प्रहसन बनकर। कई बार वह जहाँ है, वहाँ से भी ग़ायब हो जाती है और लोग उसे भूल जाते हैं।

गोपनीयता के पास चिरयौवन का वरदान है। वह कभी न बूढी होगी, न बीमार - जहाँ है, वहाँ बैठी-भैठी वह हम सबको देखकर मुस्कराती रहेगी।

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अयोध्याकांड के अंत में एक प्रसंग है। भरत राम को वापस ले चलने की कोशिश में असफल हो चुके हैं और उनके खड़ाऊँ ही लेलकर लौटने वाले हैं। साथ में अयोध्या की प्रजा भी है। तभी, मौ$का, पाकर, देवताओं के कुटिल राजा इंद्र ने सबका उच्चाटन कर दिया।

तुलसीदास आगे लिखते हैं कि यह कुचाल भी सबके लिए हितकारी हो गई। अन्यथा विरह के मारे लोग मर ही गए होते।

उच्चाटन। मैं यहीं रुक गया। लोग उचट गए। उन्हें दुख नहीं हुआ। वहाँ जो कुछ हो रहा था, जो भी होने वाला था, वे उससे फ़र्क हो गये। मैं भी कई बार ऐसे ही बचा हूँ। वस्तुस्थिति से उचट गया और बाल-बाल बच गया। जिस तकलीफ़ की कल्पना से भी डर लगता है वह जब मुझपर से होकर गुज़री तो मुझे ख़त्म हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेरे उचाट ने मुझे बचा लिया। दरअसल, मैं उस हालत का अनुभव ही नहीं कर सका। मेरा मन प्राण ऐन उस पल में भटककर कहीं और खड़ा रहा होगा।

उच्चाटन भी क़माल चीज़ है। तकलीफ़ की कोई भी याद इस चीज़ के बिना पूरी नहीं होती। लेकिन कविता में इसे घटित होते देखकर मानो अपना ही अनुभव सत्यापित हो गया और वह भी पाँच सौ साल पहले - भक्तिकाल में। तसल्ली भी हुई कि मैं कमीना या पागल नहीं हूँ, जो किसी दुख में पूरी तरह दुखी नहीं होता। ऐसा होता है। होता रहा है। बल्कि अब तो मेरा यह मानना है कि जिस दुख में उचाट न हो वह अनुभव पर आधारित नहीं है, आउटसोर्स किया हुआ है। दूरी जितनी ज़्यादा होगी, उचाट उतना ही झीना और अनुभव उतना ही सह्य। तब बुद्धि उस अनुभव का विश्लेषण भी कर सकेगी, उस पर राय भी बना सकेगी। यदाकदा उस पर कविता-टविता भी लिखी जा सकती है।

लेकिन उच्चाटन। यह क़माल चीज़ आख़िर है क्या? एक पुराना संस्कृत टेक्स्ट है 'सिद्धकुंजिकास्तोत्र’। नवरात्र के दिनों में बचपन में और चीज़ों के साथ हम लोग इसका पाठ भी करते थे। उसमें एक पंक्ति है: 'मारंण मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्’। आज इस पंक्ति की वजह से मुझ संस्कृतशून्य पर इतना तो ज़ाहिर है कि मारण, सम्मोहन, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन आदि दुश्मनी के औज़ार हैं, प्रीति के नहीं, इंद्र ने भी अपनी कुटिलता में ही इसका इस्तेमाल अयोध्यावासियों पर किया था, लेकिन संयोग से, दाँव उल्टा पड़ गया। मेरी ही तरह यह चीज़, उन लोगों के भी काम आ गई।

ऊब मुझे उच्चाटन की सगी भतीजी लगती है। त्रिलोचनजी के एक साक्षात्कार में मैंने उनकी कही एक बात पढ़ ली थी कि वे ज़िंदगी में कभी ऊबे नहीं। मंगलेश डबराल ने उचित ही इस कथन को उनके महाप्राणत्व के एक उदाहरण की तरह बार-बार पेश किया है और मैं बार-बार इस ऊँचाई के सामने कुंठित हुआ हूँ।

बहरहाल, आगे से इस महान मानवीय अनुभव - जिसका नाम उचाट है, के सामने शर्मिन्दा नहीं होउंगा और जीने की क्रिया में सस्नेह, सादर उसका स्वागत करूंगा। कभी उचटा दिखूँ तो आप भी निराश न हों। इंद्र की नीयत हालाँकि ठीक नहीं है, लेकिन उसने मुझे बचाने के लिए ही ऐसा किया है तय जानिये।

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थके नयन रघुपति छवि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।

अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।

जनक का उपवन। पहली मुलाकात में राम को देखते हुए सीता की आँखें थक गयी हैं, लेकिन पलकें पल-भर के लिए भी झपकने का नाम नहीं ले रही हैं। अधिक स्नेह के कारण देह विभोर हो गयी है, जैसे चकोरी शरद के चंद्रमा को देखती हो।

छन्नूलाल मिश्र मानस की यही पंक्तियाँ गा रहे थे। प्रख्यात पर्यावरणविद और संकटमोचन मंदिर के महंत प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र अपने स्वर में इन पंक्तियों को गाकर दोहरा रहे थे। यह रोज़ का क्रम था। अचानक महंतजी रुके और मुझसे कहने लगे: अधिक सनेहँ देह भै भोरी - इन वाक्य का मंचन भला कैसे संभव है? इतनी सामथ्र्य किसमें है? सिर्फ आंगिक से इस 'विभोर’ का निदर्शन हो नहीं पायेगा। उसके लिए बहुत ऊँचा, बहुत गहरा सात्विक चाहिए।

मैं भी चुप होकर सोचता रहा।

कुछ देर बाद, जवाब उन्होने ही दिया: महज़ दो शब्दों में : अमिट और शाश्वत।

केलुचरण महापात्र।

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भीड़भाड़ और शोरगुल से भरी सड़क पर एक पतंग कटकर गिर रही थी। अपने ही अंदाज़ में। हवा से संगत करती हुई। मैं रुक गया और देखने लगा कि दूर-दूर तक कोई उस पतंग को लूटने वाला नहीं है। लोग आ-जा रहे थे। कुछेक इस पार-उस पार से पतंग का लहराता अप्रत्याशित भरसक तटस्थ होकर देख भी रहे थे और पतंग नीचे आती ही जा रही थी। मैंने सोचा: अब क्या होगा? क्या कुछ पल यह पतंग सड़क पर पड़ी रहेगी और फिर कोई गाड़ी वाला इसे कुचलकर चला जायेगा? मैं सरल और उदास हो गया।

खैर, तभी उनका जन्म हुआ और वे तीन लुटेरे दौड़ते हुए ट्रैफिक में घुसे। वे आये अपने सरदार के साथ- जो पतंग लूटकर आगे-आगे भागा। बाकी दो लुटेरे सरदार से भी पतंग लूटकर उसे चिथड़ा-चिथड़ा कर देने के लिए उसके पीछे-पीछे भागे। डाकखाने की लाल गाड़ी ने ऐन पतंग के लूटे जाते समय सरदार को बचा लेने के लिए ज़ोर से ब्रेक लगाया। कोई गाड़ी पीछे से लाल गाड़ी से टकराई। उसकी आवाज़ मैंने सुनी थी।

बाकी आप जानते ही हैं।

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बात कुछ पहले की है - राम मंदिर-बाबरी मस्जिद की जवानी के दिनों की, जब पूरा हिंदी समाज बुखार में तप रहा था। संतोष और लल्लन सगे भाई। लगभग हमउम्र, दोनों बच्चों को घर से एक रुपया मिला। भागकर वे महाशय जी के पास पहुंचे। महाशय जी ने एक रुपया फीस लेकर वीसीआर पर उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस का वीडियो दिखाया। बच्चे भागकर घर पहुंचे और पुन: दादी से सवा-सवा रुपया लेकर उन्हीं महाशय जी से एक-एक भगवा झंडा ख़रीदने निकल पड़े।

लेकिन रास्ते में संतोष को आत्मज्ञान हुआ। वह सोचने लगे कि छोटा भाई लल्लन तो झंडा ख़रीदेगा ही। वह अपने सवा रुपये से क्यों न लवंगलता खा लें। अभागे और अनभिज्ञ एक महान मिठाई है। बहरहाल, संतो, ने धीरज का परिचय दिया और छोटे भाई लल्लन के झंडा ख़रीद लने का इंतज़ार किया। वैसे भी, एक घर में दो झंडों का क्या काम।

झंडा ख़रीदकर लौटते हुए दोनों भाई मिठाई की दुकान पर रुके। संतोष ने अपने पैसे से लवंगलता ख़रीदा और अकेले खाने लगे। लल्लन ने मिठाई में अपनी हिस्सेदारी चाही तो संतोष ने उन्हें याद दिलाया कि वह तो अपने हिस्से के पैसे से झंडा ख़रीद चुके हैं। लल्लन को लगा कि भूल हो गई। वह तत्काल महाशय जी को झंडा लौटाकर सवा रुपया वापस माँगने भागे, लेकिन होनी भला कैसे टलती। महाशय जी ने उन्हें डपटकर भगा दिया। इधर संतोष भी लवंगलता खाकर, पानी पीकर जा चुके थे।

उदास लल्लन झंडे के साथ घर पहुंचे। उन्हें बदला लेना था, सो उन्होंने संतोष तो चेतावनी दी कि वह उनके झंडे की ओर देखें भी नहीं। संतोष ने कोशिश की तो लल्लन ने ज़बर्दस्ती उनका मुँह दूसरी ओर मोड़ दिया।

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पिछले लगभग दशक भर से प्रिविलेज्ड शहराती नागरिकों की तरह बिल्कुल लीलास्थल पर खड़ा होकर भरत मिलाप की लीला देखता रहा। अब यह सिलसिला बंद कर दिया है। अब लीलापथ में वहाँ खड़ा होकर स्वरूपों और महाराज बनारस को देख लेता हूँ, जहाँ से नानी मुझे मेला दिखाती थीं।

मेरे लिए यह एक त्याग है। अपरिग्रह। मैं भरत मिलाप को सोचूंगा। उसकी कल्पना करूंगा। देखा तो है ही। वह याद काम आयेगी। वहाँ - लीलास्थल पर - पैंट-शर्ट-जीन्स, सलवार-कुर्ते और साड़ी वालों ने बनारसी सिल्क, सफेद धोती-कुर्ता और लाल पगड़ी वालों को संख्या में कम कर दिया है। तिस पर हाथ में स्मार्ट फ़ोन्स और सबके मुँह इस छह सौ साल पुराने थिएटर की किसी कोमल-थरथराती हुई चीज़ पर। यह सब अब दृश्य में है - उसे धुँधला और कम सुंदर करते हुए।

मेरा मानना है कि जैसे नदियाँ, वैसे ही रामलीला भी अतिरिक्त उपयोग - चाहें तो दुरुपयोग कह लें - से ख़राब होती हैं। अब मैं इस ख़राबी में शामिल नहीं हूँ। मैं देखने की वासना में किसी को दिखाना नहीं चाहता। बेशक़ मैं हूँ, लेकिन दिखने के लिए नहीं। दिखाने के लिए भी नहीं। सिर्फ देखने के लिए। इसलिए मुझे लीलास्थल में मत खोजिए। मैं वहीं हूँ लेकिन आपको दिखूंगा नहीं। इसे एक आधुनिक का प्रायश्चित भी माना जाये, तो कोई हर्ज नहीं।

क्या आप मेरे रास्ते पर चलेंगे? क्या आपको पसंद आई मेरी बात?

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कुछ बातें जानकर बार-बार दुखी होता हूँ। प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक भैरप्पा मैसूर के दशहरा मेले का उद्घाटन करने वाले हैं। बनारस में बीते प्राय: पाँच सौ सालों से रामीलाल करने वाली कम सम कम पाँच रामलीला समितियाँ हैं। वे हमारे काशीनाथ सिंह या ज्ञानेंद्रपति को नहीं जानतीं। अगर वे उन्हें जान लें और बुला लें तो ये लोग जाने वाले नहीं हैं। संगीतकार समकालीन कविता नहीं जानते। कवि-लेखकों की शास्त्रीय संगीत में कोई ख़ास रुचि नहीं है। नाटक वाले दुनियाकी हर चीज़ के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं। किसी की उपलब्धि अगर अख़बार में छपे या टीवी पर आ जाये या सत्ता की राजनीति उसे इंडोर्स कर दे तो कुछ लोग आपको उस वजह से जान लेंगे।

बहुत गहरी फाँक है। बँटवारा सिर्फ एक बार नहीं हुआ था।

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विष्णु खरे।  वह अतिरेक को आलोचतनात्मक विश्लेषण के औज़ार की तरह इस्तेमाल करते थे। एक बार की बात है, एक महफ़िल में कुछ कवियों के महत्व पर बातचीत हो रही थी और बातचीत करने वाले एकदूसरे से असहमत थे, कि तभी एक बुद्धिमान मित्र ने कहा कि वक़्त तय करेगा कि इनमें कौन बड़ा कवि है।

विष्णु खरे उस मित्र पर बहुत नाराज़ हो गये और क्रोध में भरकर बोले कि मैं वक़्त को यह नहीं तय करने दे सकता कि इनमें से बड़ा कवि कौन है; यह मुझे ही तय करना होगा।

ऐन उस पल में विष्णु खरे का मुकाबला वक़्त से था। शरशेर के शब्दों में : काल तुझसे होड़ है मेरी।

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विष्णुजी की अविस्मरणीय कविता टेबिल। इस कविता के बारे में बात करते हुए एक बार उन्होंने मुझसे कहा : 'जब तक मेरे पिता जिंदा थे, मैं कविताएँ लिखने से थोड़ा घबराता था। मुझे डर था कि मैं जो भी लिखूंगा, उसमें थोड़ी-बहुत आत्मकथा आ ही जायेगी और पिता को ये संकेत मिल जायेंगे कि मैं किसके बारे में क्या बात कर रहा हूँ। मुझपर पिता का बहुत आतंक था। जब तक मेरे पिता ज़िंदा रहे, लेखन के मोर्चे पर मैंने ख़ुद को कैद में महसूस किया। मुझे यह भी लगता रहा कि अगर मेरे पिता दस-बीस साल ज़िंदा रह गये तो मैं मर जाऊंगा। मैं कुछ लिख ही नहीं पाऊंगा। मैंने उस वक़्त तक दो-तीन कहानियाँ लिखी थीं और उनसे छिपाकर रखी थीं, क्योंकि उन कहानियों में वह भी आते थे, हमारे चाचा भी आते थे; और लोग भी आते थे - वे यकीनन समझ जाते। टेबल उनकी मौत के बाद लिखी गयी पहली कविता है। पिता की मृत्यु हुई 1968 में - तब मैं अट्ठाइस साल का था। 28 साल तक मुझपर मेरे पिता का आतंक था। टेबल एक तरह से उस पूरी मुक्ति की कविता है। एक अर्थ में मैं अपने इतिहास से मुक्त हुआ, परिवार से मुक्त हुआ, अपने पिता के डर से मुक्त हुआ, व्यतीत के डर और अतीत के बोझ से मुक्त हुआ। यह मुक्त होने की कविता है। अगर यह कविता लिखे जाने की पृष्ठभूमि न बनती तो शायद मैं कवि न हो पाता या बहुत ही ख़राब कवि होता। अच्छा तो खैर अब भी क्या हूँ। कम से कम मैं उस तरह का कवि न हो पाता, जिस तरह का कवि मैं हूं। यह कविता एक परिवार का - जो संयोग से मेरा परिवार है - उपन्यास है।’

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कुछ बरस पहले मैंने एक बहुत मार्मिक कविता पढ़ी थी। उसे पढ़कर रोया भी था। वह स्वाधीनता के शारदीय विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। उस कविता का नाम था इसलिए। कवि का नाम भी याद है, लेकिन बताऊंगा नहीं। उस कविता के बीच में एक वाक्य था - 'कैसे कहें कि भाषा है, संगीत है और शब्द हैं।’

स्वाधीनता का वह अंक मुझसे खो गया। प्रकाशन का वर्ष ठीक-ठीक याद नहीं है। बाद में, जब कवि का नया कविता-संग्रह छपा तो उसमें भी वह कविता नहीं थी। पढऩे के बाद वह कविता मैंने माँ को सुनाई थी। वह अब इस दुनिया में नहीं हैं।

अब क्या करूँ? मैं कविता को भूल गया और कविता भी मुझे भूल गयी। कवि की बात करना विषयांतर है। वैसे भी, जब मैं कविता पझड रहा था तो मैं था और कविता थी। कवि नहीं था। अब भी, मैं हूँ और उस याद रखी जाने वाली कविता का भूल हुआ-सा वाक्य है। कवि कहाँ है? कवि होता भी कहाँ है। होती है कविता। बशर्ते आप मेरी तरह मुलक्कड़ न हों।

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क़तई भत्र्सना नहीं कर रहा, बस डर गया हूँ। कल रात बनारस में अलग-अलग जगहों पर कम से कम ग्यारह सांस्कृतिक कार्यक्रम थे, जिनकी ख़बर आज के अख़बारों ें डेढ़-दो पन्नों में सचित्र प्रकाशित है - कहीं कोई गा रहा है, कहीं कोई बजा रहा है, कहीं कोई किसी समारोह या प्रदर्शनी में घूमने और खाने-पीने का लुत्फ़ ले रहा है। मैं भी संस्कृति कर्म से जुड़ा हूँ तो फेसबुक पर भी वही रौशनी है। व्हाट्सएप्प समूहों और निजी संदेशों में भी आज और आने वाले दिनों में होने वाले कार्यक्रमों के आमंत्रण हैं। दुर्घटनाओं और इवेंट्स में एक अघोषित होड़ है कि जीवन पर और मन में कौन ज़्यादा जगह घेरेगा। सबलोग 'शो’ के लिए स्नायविक रूप से तैयार हैं। मैं भी। आप भी। आने वाले तीस दिनों में नाटकों के तीन प्रदर्शन तय हैं। इनकी गिनती बढ़ भी जा सकती है। शादी-ब्याह का समय अलग से चालू है। सड़कों पर भीड़, चेहरों पर मेकअप, भागमभाग, नये कपड़े और जूते। अभी ही दीपावली बीती है। ऐसे में क्या है, जो नहीं है और जिसकी तलाश में ज़िंदगी बर्बाद है। ओ मेरी प्यारी मनहूसियत! कहाँ हो? आओ और मेरे चेहरे पर राख की तरह पुत जाओ।

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साहित्येतिहास के काल-विभाजन के द्वैत कई बार धूमिल और नाकाफी हो जाते हैं। दुनिया की सबसे पुरानी रामलीला में केवट राम, सीता और लक्ष्मण को नाव पर बिठाने से पहले रैदास और करीब के पद गाता है। वैसे ही, अच्छी कविता के सामने मूर्त और अमूर्तत का भेद भी ख़त्म हो जाता है। कामायनी में एक जगह श्रद्धा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए प्रसादजी ने लिखा है: उन्नत वक्षों में आलिंगन सुख सहरों सा तिरता। दरअसल, मैं कहना यह चाता हूँ कि अच्छी कविता अमूर्त हो ही नहीं सकती। उसमें सबकुछ ठोस और पारदर्शी ही होगा।

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शेखर सेन अभिनेताओं से बात कर रहे थे। लगातार अभ्यास का कोई विकल्प नहीं है। आज जो कुछ आपसे नहीं हो पा रहा है, वह कल अभ्यास से सध जायेगा। अगर फिर भी कुछ है, जो आपसे नहीं हो पा रहा है, तो इसका हव्वा न बनाइये। मन ही मन इस लाचारगी का महिमामंडन तो क़तई न कीजिये। इसके बाद मेरी ओर देखकर बोले: बांग्ला में इसके लिए एक ख़ास शब्द है - दु:ख विलास।

मैंने मन ही मन यह शब्द दुहराया : दु:खविलास।

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अशोक वाजपेयी के भाषण के नोट्स:

कविता समाज नहीं, व्यक्ति लिखता है, फिर भी कविता एक सामाजिक कर्म है, क्योंकि वह भाषा में लिखी जाती है और भाषा एक सामाजिक संपदा है।

इन दिनों हिंदी झगड़ालू और गाली-गलौज की भाषा बनती गई है।

कविता भाषा का शिल्पित रूप है, कच्चा रूप नहीं।

शिल्प भाषा का अंत:करण है।

कविता एकांत देती है।

कविता भाषा का भाषा में स्वराज है।

जितना कवि समय को, उतना ही समय कवि को गढ़ता है।

कविता सरलीकरण और सामान्यीकरण के विरुद्ध अथक सत्याग्रह है।

कविता परम सत्य और चरम असत्य के बीच गोधूलि की तरह विचरती है।

कविता अपने सच पर ईमानदार शक करती है।

कविता का काम संसार के बिना नहीं चलता। वह उसका सत्यापन भी करती है और गुणगान भी।

कविता कवि, पाठक और श्रोता का साझा सच है।

कविता आत्म और पर के द्वैत को ध्वस्त करती है।

कविता व्यक्ति को दूसरा बनो जाने के क्रूर अमानवीय उपक्रम के विरुद्ध सविनय अवज्ञा है।

अगर कविता न होती तो राम और कृष्ण भी यथार्थ न होते।

कविता यथार्थ का बिंब भर नहीं होती। वह उसमें कुछ जोड़ती, इज़ाफ़ा करती है।

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अरुण कमल का भाषण। उन्होंने जार्ज बर्नार्ड शॉ के एक नाटक के हवालेसे एक विचित्र प्रसंग सुनाया। वह नाटक शेक्सपीयर के लेखकीय व्यक्तित्व की बातें करता है। बक़ौल अरुण कमल, उस नाटक में शेक्सपीयर लिखने की टेबल पर बैठे कुछ लिख रहे हैं, तभी एक काम करने वाली स्त्री वहाँ आ जाती है। शेक्सपीयर उसे अचानक चूमने लगते हैं, चूमते हुए अचानक उन्हें लिखने लायक कुछ सूझता है - वह चूमा छोड़कर लिखने लग जाते हैं। लिखकर फिर से चूमना प्रारंभ करदेते हैं। यह िकस्सा सुनाने के बाद अरुण कमल ने कहा: आदेश के सघनतम क्षण में भी कवि पहले शब्दों को ही चूमता-पकड़ता है।

मायकोवस्की को उद्धृत करते हुए ऐसी ही एक और बात उन्होंने कही - मानो अपने चिरयौवन के पक्ष में दलील देते हुए: मेरी आत्मा का एक भी बाल सफेद नहीं है।

एक कविमित्र बताने लगा कि हाल ही में दिल्ली में हुए एक कार्यक्रम में गाँधीजी के ब्रह्मचर्य का ज़िंक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मुझसे तो ऐसा कोई भी संक़ल्प महीने-भर भी नहीं निभ पाता है।

बार-बार अपने पौरु, का ऐसा बखान क्या ज़रूरी है?

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बंसी कौल। वह कभी भी पद्मश्री की तरह बात नहीं करते। अनोखी अंतर्दृष्टियों और मौलिक चिंताओं के बीच व्यवस्थाओं और व्यक्तियों को गाली आदि देकर अपने और आपके बाद वह एक आमफ़हम रास्ता बना लेते हैं।

इस बार की मुलाकात अलग थी। वह अपनी खेल पहली के बीच में थे। अभिमंच के बाहर पत्थर की बेंच पर बाकी धूप के एक छोटे से टुकड़े में बैठे इस बुज़ुर्ग को देखकर पहली बार मुझे ज़रा-सा डर लगा। मैं उनके पास बैठ गया। उन्होंने कहा: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मंच कला संकाय में ड्रामा डिपार्टमेंट क्यों नहीं है? मैंने उन्हें बताया: कुछ साल पहले अशोक वाजपेयी इसी बात के लिए तत्कालीन कुलपति डी.पी. सिंह से मिले थे। मैं उस मुलाकात में था। उन्होंने हिंदी विभाग के अंतर्गत रायटर्स चेयर जैसी कोई चीज़ बनाने की बात भी की थी। दोनों काम नहीं हुए। अब उन्होंने पूछा: क्या अशोकजी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट दिया है? मैंने कहा: नहीं, वह बोले: आज़ादी के बाद हिंदीभाषी समाज में सर्वोत्तम संस्कृति कर्म करने वालों में से एक इस व्यक्ति को हिंदी पट्टी के किसी बड़े विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि नहीं दी है। अगर वह उत्तर पूर्व या दक्षिण भारत के होते तो वहाँ के लोग उन्हें कंधे पर उठाये घूमते। हिंदी समाज बहुत नाशुक्रा है। मैंने सिर हिलाया: हाँ-हाँ। प्रोफेसर इमैरिटस जैसी संस्था दरअसल बौद्धिकता, जिज्ञासा और रचना का माहौल बनाने का काम करती है। अपनी दुनिया में बहुत कुछ कर चुका एक आदमी एक विश्वविद्यालय में टहलता है, कक्षाओं के बाहर छात्रों से अनौपचारिक बातचीत करता है। शहर में चला जाता है। उस शहर की ज्ञान-परंपार के सूत्रों से विश्वविद्यालय की रोज़ाना पढ़ाई-लिखाई को जोड़ता है। वह संस्था में माहाल और चरित्र बनाता है। हिंदी के विश्वविद्यालयों में इस काम के लिए जो पैसा आता है, वह जाता कहाँ है? उन्होंने मुझसे पूछा। मैं क्या बताता।

बंसी कौल अपने कामकाज के बारे में निर्मम बातें करते हैं। बातचीत के बीच में ही उन्होंने मुझसे कहा: अंदर सेट और लाइट्स का काम चल रहा है। जाओ, देखो।

खेल पहेली का पूरा सेट विकर्णवत है। उसके दरवाज़े नब्बे नहीं, पैतालीस के कोण पर हैं। मुझे टेढ़ी चीज़ें पसंद हैं। मैं घुसते ही ख़ुश हो गया। सफेद पर्दे के बैकग्राउंड में पीछे की और पूरे मंच की चौड़ाई में बहुत से दरवाज़े हैं और उनपर अनिश्चित ज्यामितिक आकार के गड्ढे हैं। वैसे, ज्यामितिक आकार पूरे लैंडस्केप पर तारी हैं। मंच के फ्लोर पर भी काले और सफेद रंगों की जुगलबंदी में अनगिनत त्रिभुजावत, चतुर्भुजवत आकार हैं। जैसे दूर से आता हुआ प्रकाश रास्ते की तमाम चीज़ों से टकराकर, कहीं उन्हीं में बिलमकर, कट-पिट कर ज़मीन पर गिरा हो। विंग्स पर भी ज्यामिती है। चरित्रों के चेहरों पर भी रंग-बिरंगे ज्यामितिक आकाश हैं। इसके अलावा पूरा मंच आगे की ओर ज़रा-सा ढलवाँ भी है। यों, अलग से मंच पर दो स्लोप और कुछ शुद्ध चीज़ें हैं, जो अपने ही ढंग से कोणीय ज्यामिती को काउंटर कर रही हैं।

मैंने सोचा: इस प्रस्तुति का सिनिक डिज़ाइन कितना अतियथार्थ है और बंसी कौल यथार्थ के कितने बीहड़ नागरिक। क्या उनकी कल्पना इन शिल्पों के ज़रिये उनके ही रोज़मर्रा किरदार को चुनौती देती है। कुछ देर पहले क्या इसी पशोपेश में शांत बाहर वह पत्थर की बेंच पर सूरज की रौशनी के क्षरणशील त्रिभुज पर मेरा इंतज़ार करते हुए बैठे थे, जब उन्हें देखकर मैं ज़रा सा डर गया था।

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रतन थियम का नाटक ऊरूभंगम। तेज़ गति, घटनाओं के बेसँभाल प्रवाह और असल ज़िंंदगी के स्टंट के ख़िलाफ धीमेपन-मंथरा को कलात्मक प्रतिकार के औज़ार की तरह बरता जा सकता है। एक दृश्य देर तक जारी रहे। एक संगीत बार-बार, एक ही तरीके से, अनेक आवर्तनों में लौट-लौटकर आता रहे। जिस विनाश को, अभाग्यवश, जीवन में रोज़ देखने के लिए हम अभिशप्त हैं - उसे सिर्फ सुना दिया जाय। नाटक में उसका लाइव टेलीकास्ट न किया जाय। खून, मांस,अस्थि-मज्जा और भाग्नावशेषों का अमूर्तन किया जाय। यथार्थ की तफ़सील की बजाय उसके सारतत्व को कहने की कोशिश में ही शांत शक्ति की उस भाषा की खोज संभव है जो लिखी-पढ़ी-सुनी-समझी-बोली जाने वाली भाषा से कहीं आगे की चीज़ होगी।

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कुछ दर्शक भाषा की सीढ़ी चढ़कर नाटक की छत पर खड़े हो जाना चाहते हैं। वे सबकुछ भाषा के ज़रिये समझ लेना चाहते हैं। रतन थियाम के नाटक की मणिपुरी ने उन्हें निराश करती होगी। उनके लिए, आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह वाक्य: 'अर्थग्रहण से पहले बिंबग्रहण अपेक्षित है।’

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कलापिनी कोमकली कहती है: 'पिता कन्नड़, माँ मराठी, मैं मालवी।’

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एक नाटक के लिए लिखा था यह गाना।

काम बहुत है किये चलो

हम जैसा कहते हैं बिल्कुल

वैसा जीवन जिये चलो

छेदों वाला घड़ा उठाकर,

पाप हमारा भरकर उसमें,

संभलकर-संभलकर लिये चलो।

आओ जल्दी,आओ जल्दी; समय नहीं है बिल्कुल अब्ब

बाकी काम करोगे कब्ब?

बहुत काम करना है साथी, बहुत हार अब खानी है;

बदिकस्मत, रूठे जीवन की फिर-फिर वही कहानी।

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ईश्वर एक ऐसा वृत्त जिसकी परिधि कहीं नहीं और केन्द्र हर कहीं। पटना में सुना था यह कथन। कुछ भूल गया, कुछ याद है।

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'नाटक’ शब्द के कमतर और गैरवाजिब इस्तेमाल से बचना है, जैसे नाटकबाज़ी आदि। जयशंकर प्रसाद कामायनी में कह गये है:

यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्व कर्म-रंगस्थल है।

इसके बाद की पंक्ति तो खैर अविस्मरणीय है:

है परंपरा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है।

 

 

 

व्योमेश प्रथमत: कवि-आलोचक के रुप में जाने गये। पहल में उन्होंने समय समय पर अपनी प्रतिभा से काफी स्पेस लिया। बाद में वे संगीत और रंगकर्म की तरफ मुड़े और देश के प्रमुख नाट्य केन्द्रों में अपनी नाट्य लीलाओं का शानदार मंचन किया। बड़े अंतराल के बाद उनकी डायरी यहाँ प्रकाशित है। एक कविता संग्रह 'फिर भी कुछ लोग’ उपलब्ध है।

संपर्क - वाराणसी vyomeshshukla@gmail.com

 


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