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मार्च - 2020

लातिन अमेरिका डायरी ग्वातेमाला-रोती हुई स्त्री का शाप 'ला लोर्ना’ !

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

      

 

'बस्ती-बस्ती’ के पिछले क्रमों में मयनमार से आगे उत्तर पूर्व की यात्रा पर हम देश की उन सात बहनों से मिले थे, जो आपस में बहुत अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं- असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा और मिज़ोराम!  इत्तफ़ाक कुछ ऐसा है कि सुदूर अमेरिका में उत्तर और दक्षिण के बीच की  इस पतली सी पट्टी पर हम एक बार फिर सात बहनों से रू-ब-रू हैं। एक ही माता की सात संतानें, जो एक ही भाषा बोलती हैं, जिनका इतिहास एक सांझे संघर्ष की दास्तान है और जिनके आकाओं ने सदियों से इन्हें अपनी हवस का शिकार बना, आज पूरी तरह खोखला कर अपने हाल पर छोड़ दिया है- ग्वातेमाला, बेलिज़, होंडुरास, एल सालवाडोर, निकारागुआ, कोस्टारिका और पनामा। दुनिया के मनहूस नक्शे पर बदहाली में डूबे सात देश, जिनकी कुल चार करोड़ से कुछ अधिक की जनसँख्या भी इत्तफ़ाक से हमारे अपने उत्तर पूर्व की कुल जनसंख्या से हू-ब-हू मेल खाती है, हालांकि उनका संघर्ष हमारे अपने सात के राज्यों से कहीं अधिक बड़ा और गहरा है।

सात देशों के इस समूह को अक्सर उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका से अलग एक तीसरे महाद्वीप की संज्ञा दी जाती है, यद्यपि इसका वर्ग-क्षेत्रफल हमारे देश का सात प्रतिशत भी नहीं होगा और यहाँ की प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या भी हमसे एक चौथाई से भी कम है। मेक्सिको की दक्षिणी सीमा से ग्वातेमाला और आगे बेलीज़ तथा दक्षिण में कोस्टा रिका और आगे पनामा तक फैला यह प्रदेश हज़ारों साल पहले पुरातन माया संस्कृति की जन्मस्थली था। ईशु से ढाई हज़ार पहले इस सभ्यता का उदय, नवीं शताब्दी तक इसका विकास और इसके बाद इसका पतन आज भी रहस्य का विषय बना हुआ है। कहा जाता है कि इस सभ्यता ने अपनी पूर्ववर्ती ओल्मेक सभ्यता के चलाने वालों से बहुत कुछ सीखा। यह एक अत्यंत समृद्ध संस्कृति थी। कोलंबस के आगमन के बाद इस धरती पर स्पेनिश साम्राज्य फैलता गया। स्पेनिश सैनिकों ने एक ओर यहाँ नए शहर और इन शहरों में गिरिजाघर बनाकर लोगों को साम-दाम-दंड से कैथोलिक धर्म की ओर खींचा तो दूसरी ओर माया वंश के बचे-खुचे उत्तराधिकारियों को युद्ध में हरा जंगलों की ओर खदेड़ दिया। स्पेन का यह साम्राज्य मेक्सिको से दक्षिण में पनामा तक और पूर्व में स्पेनी वेस्ट इंडीज़ तक फैला था और तब इसे न्यू स्पेन के नाम से जाना जाता था। इसका प्रशासनिक नियंत्रण ग्वातेमाला के कैप्टेनसी जनरल से वहां के गवर्नर द्वारा होता था। लगभग ढाई शताब्दी के स्पेनी शासन के बाद आखिरकार 1821 में गवर्नर ने जब समूचे न्यू स्पेन को योरोपियन स्पेन से मुक्त होने का ऐलान किया तो इस 'मध्य अमेरिका प्रदेश’ को मेक्सिको साम्राज्य के अधीन कर दिया गया। लेकिन दो वर्ष बाद ही 1823 में इसे स्वतंत्र रूप से 'मध्य अमेरिका संघीय गणतंत्र’  का नाम मिला और इससे आगे 1837 में निकारागुआ, ग्वातेमाला, होंडुरास और कोस्टा रिका को सम्पूर्ण स्वतंत्रता मिली. एल साल्वाडोर 1841 में, पनामा 2003 और बेलीज़ (ब्रिटिश होंडुरास) 1981 में स्वतंत्र हुए।

लेकिन स्वतंत्रता के पहले से ही कुशासन के चलते इन देशों की आर्थिक स्थिति जर्जर थी। कृषि प्रधान देशों की सबसे बड़ी पूँजी उसकी प्राकृतिक सम्पदा होती है। कैरीबियान और उत्तरी लातिन अमेरिका में गन्ने की गाथा हम पढ़ चुके हैं। मध्य अमेरिका के देशों में शासकों, जनतांत्रिक नेताओं और तानाशाहों ने आयात बढ़ाने के यहाँ की खेती को व्यापक रूप से कॉफ़ी और केलों की खेती की ओर मोड़ा, जिससे कालांतर में गन्ने की तरह कॉफ़ी और केलों की खेती और इसका व्यापार इन देशों में आयात और पूँजी उघाने का सबसे बड़ा ज़रिया बन गया। सबसे बड़ी त्रासदी यह थी कि कृषि का यह कारोबार (कोस्टा रिका में कॉफ़ी के इकलौते उदाहरण को छोड़कर) छोटे छोटे भूमि मालिकों की जगह कॉर्पोरेट के उन अंतर्राष्ट्रीय समूहों को सौंप दिया गया, जिनकी शासकों और तानाशाहों से गहरी साठ-गाँठ  और दोस्ती थी। परिणामस्वरूप खेतों में मजदूरों का शोषण और उनपर अत्याचार चरम तक पहुँच गया। इसका एक बड़ा उदाहरण मध्य अमेरिका में केले उगाने का व्यवसाय है, जिसकी समूची जिम्मेदारी अमेरिका की बोस्टन स्थित कॉर्पोरेट यूनाइटेड फ्रुट कंपनी को सौंप दी गयी। कालान्तर में इस कंपनी का कद (हमारे अपने देश में सरकार की चाहीती अम्बानी और अडानियों की तरह) वहां  के शासकों से भी बड़ा हो गया और वे देश $कर्ज़, बदहाली और वंचितों पर अत्याचार में लिप्त होते गए। उधर अकेली यूनाइटेड फ्रूट कंपनी केले के समूचे व्यवसाय के साथ-साथ प्रदेश में 35 लाख एकड़ भूमि की स्वामी भी बन गयी। पूँजी का इतना बड़ा एकाधिकार शायद ही कहीं देखा गया होगा। यह दैत्याकार कंपनी अपनी आर्थिक ताकत से सरकारों की आर्थिक नीतियों को इस कदर प्रभावित करने लगी कि इन देशों को अक्सर 'केला जनतंत्र’ या अंग्रेज़ी में 'बनाना रिपब्लिक’ नाम से पुकारा जाने लगा। कॉफ़ी और दूसरे प्राकृतिक उत्पादों के आयात में भी पूंजीपतियों के एकाधिकार की कहानी केलों के व्यापार से बहुत अलग नहीं है।

जर्मन ग्लोबल इंस्टिट्यूट के अनुसार मध्य अमेरिका में ''दो सौ वर्षों की सामजिक अस्थिरता, हिंसक संघर्ष और राजनीतिक क्रांतियों के बाद भी व्यापक सामाजिक बदलाव नहीं आया  है। गरीबी, सामजिक अन्याय और हिंसा का यहाँ बोलबाला है। निकारागुआ आज छोटे से 'हैती’ के बाद दुनिया का सबसे गरीब देश है और ग्वातेमाला एवं एल साल्वाडोर भी इससे बहुत पीछे नहीं हैं।’’

प्रदेश के सबसे स्थिर देश कोस्टा रिका में भी बेरोजग़ारी का आंकड़ा पिछले दो वर्षों में 12 प्रतिशत से आगे निकल चुका है।

जीवन में कविता की प्रासंगिकता पर हम अक्सर सवाल उठाते हैं. हालांकि कविता ने हर युग में अत्याचार के खिलाफ वंचितों और दमितों का साथ दिया है। इसका सबसे सशक्त ताज़ा उदाहरण हमारे अपने देश में 'एनआरसी’ और 'सीएए’ के विरुद्ध फैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे’ का देश भर में गाया और अनूदित होना है। फैज़ की ही तरह जन संघर्ष के लिए धार्मिक शब्दावली एवं 'इमेजरी’ का इस्तेमाल कैफ़ी आज़मी ने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद लिखी (राम का) 'दूसरा बनवास’ नज़्म में भी किया था। लातिन अमेरिका और स्पेनिश के चहीते कवि पाब्लो नेरुदा कुछ इसी तरह धर्म के कैथोलिक प्रसंगों को अपनी कविता में यूं लाते हैं--

 

यूनाइटेड फ्रूट कंपनी (1950)

 

जब बिगुल बजा

और धरती पूरी बन गयी

तो जेहोवाह (ईश्वर) ने इसे दे डाला 

आनाकोंडा सांप के साथ, कोका कोला कंपनी

फोर्ड कॉर्पोरेशन और दूसरी संस्थाओं को

और यूनाइटेड फ्रूट कंपनी के लिए रख छोड़ा

ज़मीन का सबसे मांसल

सबसे लज़ीज़

अमेरिका की कमर का निचला हिस्सा!

 

उन्होंने बप्तिस्मे में इसे नाम दिया--

Banana Republics!

तोरणों के संग महानता, आज़ादी लाने वाले

बेचैन नायकों          

और सोये मृतकों की कब्रों पर

स्थापित किया एक विद्रूप भरा 'ओपेरा’...

तानाशाही की भिनभिनाती 

रक्त पिपासु मक्खियों के बीच

'फ्रूट कंपनी’ के जहाज़ लंगर डाल

ले जाते रहे 

डूबते प्रदेश की

सारी कॉफ़ी, सारे फल.... 

अपने पीछे छोड़ 

कचरे में फेंके

चंद सड़े हुए, अधखाये, मृत टुकड़े...

 

पाब्लो नेरुदा की लम्बी कविता 'कांटो जनरल’ से       

 

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हम मूल निवासियों और माया संस्कृति के उत्तराधिकारियों की तलाश में मध्य अमेरिका आये हैं. लेकिन लातिन अमेरिका के पुरातन निवासी अब मध्य अमेरिका ही नहीं, इस नयी दुनिया में कहीं नहीं हैं. सदियों पहले योरोप से आये गोरे प्रवासियों और सैनिकों की मेहरबानी से उत्तरी और पूरे लातिन अमेरिका में इन मूल निवासियों का लगभग सम्पूर्ण सफाया हो चुका है, फिर चाहे वे अमेरिका के रेड इंडियन हों, मध्य अमेरिका के माया या अज़तेक अथवा लातिन अमेरिका के इन्का साम्राज्य के प्रतिनिधि। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में माओरी और एबओरिजिनों तथा पापुआ न्यू गिनी में वहाँ के मूल निवासियों के हालात भी इनसे बहुत ज़्यादा बेहतर नहीं हैं। दिक्कत यह है कि साम्राज्यवाद की खातिर करोड़ों निरीह लोगों के जनसंहार की कोई सज़ा हमारे इतिहास ने आज तक मुकर्रर नहीं की है। 

जिस तरह वर्तमान में समय को हम येशु से पहले BC और येशु के बाद AD में विभाजित करते हैं, कुछ उसी तरह लातिन अमेरिका में इतिहास को कोलंबस से पहले (प्री कोलंबियन) और कोलंबस के बाद के तथाकथित आधुनिक युग से पहचानने का चलन है। पंद्रहवीं शताब्दी में इस नयी दुनिया में कोलंबस का आगमन अपने साथ यहाँ के मूल निवासियों के विनाश का फरमान भी लेकर आया था। इतिहास बताता है कि लगभग चार शताब्दियों में कुल तेरह से चौदह करोड़ मूल निवासियों का समूचा अस्तित्व बीमारियों, अत्याचारों और हत्याओं के ज़रिये  सभ्यता से हमेशा के लिए मिटा दिया गया. उत्तरी अमेरिका में यह हश्र जहां रेड इंडियन कबीलों का हुआ, वहीं लातिन अमेरिका में इस्पानियों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसों तथा अंग्रेजों ने संपदा की अंधी हवस में मूल निवासियों से उनकी सभ्यता, खुशहाली और अंतत: उनका जीवन भी छीन लिया. इतिहासकार जूलियन स्टुवर्ड अपनी मानक संपादित पुस्तक 'हैंडबुक ऑफ़ साउथ अमेरिकन इंडियंस’ में इस प्रदेश में कोलंबस के आगमन से पूर्व और येशु से भी कई हज़ार वर्ष पहले से रहने वाली कोई पांच सौ मूल जातियों का ब्यौरा देते हैं।  ये जातियां ग्वातेमाला से लेकर कोलंबिया/ वेनेज़ुएला, गियाना, एंडीज़ पहाड़ों, ब्राज़ील के मैदानों और अमेज़न नदी के तटों में निवास करती थी और इनमें से अधिकाँश की अपनी एक समृद्ध, कई हज़ार पुरानी, सामाजिक परंपरा और संस्कृति थी। आज इनमें से अधिकाँश के वंशधरों को ढूंढना भी मुश्किल होगा। इनकी सांस्कृतिक परम्पराएँ भी अब  किन्हीं संग्रहालयों के बंद कमरों में बाहर से आए विदेशी पर्यटकों को नुमाइश की तरह परोसे जाने तक सीमित रह गयी हैं।

तो फिर इस समूचे नयी दुनिया के साम्राज्य का असली वारिस कौन है? वर्तमान में लातिन अमेरिका की पहचान उसके उन मिली जुली नस्ल के भूरे (ब्राउन) लोगों से बनती है जो पिछले तीन चार सौ वर्षों में गोरे प्रवासियों, अफ्रीका और एशिया से लाये गए श्रमिकों/दासों और उनके बीच हुए अंतर्जातीय संबंधों/विवाहों के परिणामस्वरूप यहाँ मौजूद हैं। ये लोग आज हर जगह हैं। इनके सारे मुख्तलिफ नाम—मुलातो, मेस्तिज़ो, पार्दो और मेरिनो इनकी मिली जुली रक्त परंपरा का एक परिचय मात्र देते हैं। ये ही आज इस प्रदेश के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं. 'मेस्तिज़ो’ के नाम से इनकी जनसंख्या परागुआ में 95 प्रतिशत, इक्वेडोर में 65  तथा कोलंबिया में 58 प्रतिशत है। कैरीबियान में इन्हें ईस्ट और वेस्ट इंडियन नामों से जाना जाता है. ब्राज़ील में एक अर्से तक सिर्फ पुर्तगाली प्रवासी ही भारी संख्याओं में आकर बसते रहे. यहाँ कुछ समय तक दूसरे योरोपियनों के बसने पर प्रतिबन्ध था। 1872 की जनगणना के अनुसार ब्राज़ील में 45 प्रतिशत मिली जुली नस्ल के 'पार्दो’ लोगों का वास था। अर्जेंटीना की साढ़े चार करोड़ जनसँख्या में से नब्बे प्रतिशत लोग शहरों में रहते हैं।  यहाँ भी एक तिहाई लोग मिली जुली 'मेस्तिज़ो’ नस्ल के हैं। इसी तरह तीन करोड़ जनसंख्या वाले पेरू में, जहां 77 प्रतिशत संख्या शहरों में रहती है, कोई 37 प्रतिशत लोग 'मेस्तिज़ो’ मूल के हैं। पंद्रह करोड़ के देश चिली में अश्वेत कम हैं, लेकिन यहाँ भी लगभग 45 प्रतिशत जनसंख्या 'मेस्तिज़ो’ लोगों की है. इसी तरह बोलीविया की एक करोड़ जनसंख्या में भी दो तिहाई लोग 'मेस्तिज़ो’ मूल के हैं।

अलग अलग नामों से पहचाने जाने वाले मिली जुली नस्ल के ये लोग प्रदेश के इतिहास और इसके भविष्य की शायद सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं। इन्हें समझे बगैर यहाँ की संस्कृति को समझना संभव नहीं. शायद अपने पूर्वजों की पहचान, उसके इतिहास एवं उसकी मौखिक-लिखित परम्पराओं के वे एकमात्र संवाहक हैं. 'दि लास्ट टेम्पटेशन’ के यशस्वी ग्रीक लेखक निकोस काज़ान्त्ज़कीस के शाश्वत शब्दों में-- 

''हमारे भीतर तह-दर-तह अँधेरे की कई परतों में होती हैं—कर्कश आवाजें, झबराले बालों वाले भूखे जानवर! तो क्या कुछ भी मरता नहीं? क्या इस दुनिया में कुछ भी मर नहीं सकता? वह आदिम भूख, प्यास, तकलीफ, आदमी के आगमन से पहले की रातों के वे सारे चाँद, सब हमारी आख़िरी सांस तक उसी भूख, प्यास और दु:ख से सताए हमारे साथ चलते रहेंगे। हमारी अंतडिय़ों में ढोए जाने वाले इस भयावह बोझ की हुंकार सुनकर मैं बेतरह आतंकित हो उठा था। क्या मुझे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी? नया और सबसे लाडला शिशु हूँ मैं अपने पूर्वजों का, उनके लिए उम्मीद और पनाह का आखिरी ठौर। उनके पास जो भी भोगने, झेलने या हिसाब चुकाने के लिए बचा है, वह सब मेरे ज़रिये ही प्रतिफलित हो सकता है। यदि मैं मरता हूँ तो मेरे साथ वे भी मर जाते हैं!’’

लातिन अमरीका का इतिहास और भविष्य आज इन्हीं मिश्रित नस्ल वाले लोगों के बीच ढूँढा जा सकता है. इनमें सबसे बड़ी संख्या कैथोलिक समुदाय से है। इसके बावजूद यह जानना सुखद है कि लातिन अमेरिका की यह पीढ़ी आज अपने प्री-कोलंबियन इतिहास को जानने में गहरी रूचि रखती है।  जहां मध्य अमेरिका में विश्व की प्राचीनतम माया लिपि को समझने का नया उत्साह है, वहीं इन्काओं की धरती पेरू में बच्चे योरोप से आयी कैथोलिक संस्कृति और इससे जुड़ी स्पेनिश भाषा के मुक़ाबिल इन्काओं की अपनी भाषा 'केचुआ’ सीखने और पढऩे तथा अपने आपको इन्काओं का वंशज मानने में विश्वास रखने लगे हैं। इन्हीं 'एथनिक’ लोगों ने पिछली शताब्दियों में गोरे शासकों, पिठ्ठू तानाशाहों और नृशंस बादशाहों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा है और आज भी ये एक बेहतर जीवन के लिए लगातार लड़ रहे हैं।

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दुनिया के इस हिस्से में धरती भी मनुष्य का साथ नहीं देती। सदियों से ज्वालामुखी और भूकंप मध्य अमेरिका की जीवन शैली को निर्धारित करते रहे हैं। ज्वालामुखी वृत्त चाप (सेंट्रल अमेरिकन वोल्कानिक आर्क) पर स्थित ग्वातेमाला से कोस्टा रिका और उससे दक्षिण में पनामा तक फैला 1500 किलोमीटर का यह इलाका भूकम्पों और ज्वालामुखियों  का प्रदेश है जहां कोई न कोई सक्रिय ज्वालामुखी आए दिन लावा उगलना शुरू कर देता है। इनमें से कई तो विस्फोटों के साथ भी फटते हैं। सबसे ऊंचे ज्वालामुखी पहाड़ ग्वातेमाला में हैं, जिनमें ताजुमुल्को और वोल्कान तकाना की ऊँचाई चार हज़ार मीटर से भी अधिक है। अकेले कोस्टा रिका में कोई दो सौ ज्वालामुखी हैं, जिनमें से सात आज भी सक्रिय हैं। घोड़े की नाल जैसे  'प्रशांत आग के घेरे’ पर स्थित यह प्रदेश आए दिन भूकम्पों के झटकों से भी आक्रान्त रहता है।

कोस्टा रिका की धरती पर बहुत से अमरीकी पर्यटक तमाम तफरीही गतिविधियों के साथ-साथ किसी अजूबे की तरह ज्वालामुखी देखने भी आते हैं। लैंडस्केप चित्रों में धुंआ उगलता ज्वालामुखी एक ख़ास तरह का 'फोटोजेनिक’ प्रभाव पैदा करता है। लेकिन ज्वालामुखी के पास पहुंच, सेल्फी के ज़रिये ज्वालामुखी के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने को यात्रा का चरम बिंदु समझने वाले लोग अक्सर प्रदेश की दूसरी प्राकृतिक विशेषताओं, वहां की राजनीति और  जनजीवन से अछूते ही वापस लौट जाते है। तपती राख और लावा उगलते हर सक्रिय ज्वालामुखी का एक विनाशकारी इतिहास होता है जिसे लोग हमेशा याद रखते हैं, लेकिन उसकी नेमतें हमें दिखकर भी दिखाई नहीं देती। ज्वालामुखियों की घाटियों में उपजाऊ लावे की मिट्टी कालान्तर में घने वनों को जन्म दे, अनोखी वनस्पतियों, जीवों और पक्षियों की पनाह बनती है। यानी प्रकृति जितना लेती है, उससे कहीं अधिक हमें लौटा भी देती है। ज्वालामुखी की न्यायिक सत्ता का यही अनोखा नियम है।

स्पेनिश नामों की खुशमिजाज़ी से चमत्कृत हम राजधानी सैन खोसे  से हेरेदिया और वहाँ से ला फ़ोर्चूना होते हुए आरेनल वोल्केनो पार्क के पहाड़ी रास्ते पर बढ़ते हैं तो दाहिनी ओर धुंआ उगलते आरेनल ज्वालामुखी का विहंगम दृश्य हमें ठिठककर रुकने पर विवश करता है। लेकिन ज्वालामुखी की चोटी से निकलता धुंआ धोखादेह है। असलियत यह है कि आरनेल 2010 वर्ष से शांत अवस्था में है और इस हालत में भी इसमें से धुंआ और गैसें निकलती रहती हैं। पचास वर्ष पहले 1968 में लम्बे अंतराल के बाद इसने भयानक रूप से फटकर कई लोगों की जान ली थी। तब से 2010 तक इसमें कई बार उफान आ चुका है, लेकिन प्रदेश के आम लोग अब इसके प्राकृतिक प्रकोप के लगभग आदी हो चुके हैं।

आरेनल ज्वालामुखी की घाटी में लकड़ी के मकानों और दुकानों से बने छोटे से शहर ला फ़ोर्चूना की यह बस्ती पूरी तरह अस्थायी, किसी फिल्म के लिए खड़े गए गत्ते और लकड़ी के नकली सेट जैसी दिखाई देती है। गर्दन से लटकी ट्रे पर सिगरेट बेचने वाले झुर्रियों वाले बूढ़े को याद नहीं कि उसने अपने  जीवनकाल में कितने भूकंप देखे हैं। ज्वालामुखी एक तरह से धरती के भीतर के कम्पनों को फैलने की जगह भी देता है। अंग्रेजी बोलने और समझने वाला एक दूकानदार कहता है कि आप इस वक्त भूकंप की 'फाल्ट लाइन’ पर खड़े हैं। इसी के चलते पूरे शहर में शायद ही कोई दो मंजिला इमरत मिले। शहर का दूसरा शांत ज्वालामुखी सेरो चाटो  साढ़े तीन हज़ार वर्षों से शांत पड़ा है। इसने अपनी दो चोटियों ('चातितो’ यानी छोटी और 'एस्पिना’ यानी कंटक) के पास शहर के एकमात्र पर्यटक स्थल 'ला काताराता दे ला फ़ोर्चूना’ जलप्रपात को जन्म दिया है। इसके आसपास कई गर्म पानी के सोते हैं, जिनमें से हरएक पर किसी न किसी रिसोर्ट ने अपना एकाधिकार जमा लिया है। वे अपने ग्राहकों को कोई तरह के तेल बेचने के अलावा स्लीपर, बाथरोब और बाथकैप  भी किराए पर देते हैं। पानी इतना साफ़ और गुनगुना है कि उसमें आराम से नहाया जा सकता है। पानी में मिले प्रकृति के कई लवणों के लाभकारी प्रभावों को सुनाने में माहिर होटल के छोकरे कपड़े उतारने में आपकी मदद भी करेंगे और चट्टानों के बीच आपको रास्ता भी दिखाएंगे। आसपास निरूद्देश्य भटकते हुए आपको कई तरह के लोग मिल जाएंगे। पोटलियों के साथ सफ़र करते बूढ़े, स्पेनिश में आपसे कुछ खरीदने की धाराप्रवाह सिफारिश करती बूढ़ी स्कर्ट वाली औरतें और ताम्बई त्वचा वाले बच्चे जो कुछ कौतुक के साथ हम हिन्दुस्तानियों की ओर देखते हैं. ये सब 'मेस्तिज़ो’ हैं या कोई और, पता नहीं। लेकिन यह तय है  कि इनके पास फिलहाल हमें देखने के अलावा कोई और काम नहीं है।

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2005 में कोस्टा रिका की राजधानी सैन खोसे को उत्तर में 1000 किलोमीटर दूर स्थित ग्वातेमाला की राजधानी 'ग्वातेमाला सिटी’ का जुड़वां शहर घोषित किया गया था। दोनों शहरों में अनेकानेक ज्वालामुखियों तथा एकमंजिला इमारतों से लेकर स्पेनिश एवं अमरीकी आर्थिक प्रभाव तक आपको कई समानताएं मिल जायेंगी। लेकिन दोनों के बीच एक भारी अंतर भी है. सैन खोसे जहां प्रदेश के सबसे स्थिर देश की राजधानी है, वहीं ग्वातेमाला दशकों से अभावों, कुव्यवस्थाओं और शासकीय भ्रष्टाचार से जूझता प्रदेश का सबसे खस्ताहाल देश है। दुखद यह है कि क्रूर शासकों और भ्रष्ट तानाशाहों ने यहाँ की धरती के जायज़ उत्तराधिकारियों को हाशिये से बाहर खदेडऩे और कुचलने की हर संभव कोशिश की है. देश की जर्जर अर्थव्यवस्था और लोगों की बदहाली का भी यही सबसे बड़ा कारण है। कमज़ोर सरकारों की दमनकारी नीतियों और सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार ने ग्वातेमाला, एल सालवाडोर और निकारागुआ जैसे गरीब देशों में अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है।

1917 के भीषण भूकंप में ग्वातेमाला शहर की अधिकाँश ऐतिहासिक इमारतें नष्ट हो गयी थीं। जो कुछ दिखाई देता है, वह इसके बाद का है। बाद में 1976 में फिर से वहां 7.6 रिचटर तीव्रता वाला एक और झटका आया था। ताज्जुब की बात यह है कि प्रदेश में ईशा से दो हज़ार पहले जन्मी इन्का संस्कृति के कुछ अवशेष भूकम्पों और ज्वालामुखियों के इस लम्बे सिलसिले के बावजूद आज भी बचे रह गए हैं।

ग्वातेमाला से गुज़रना एक तरह से हज़ारों वर्ष पुरानी माया संस्कृति को छूकर निकलना भी है। हालांकि चंद खंडहरों के अलावा इसका शायद ही कोई अवशेष आज कहीं देखने को मिले। लेकिन स्थानीय लोग  बताते हैं कि ग्वातेमाला में खेती, भोजन और रहन-सहन की परम्पराएं आज भी माया संस्कृति की पुरातन मान्यताओं पर टिकी हुई हैं। उत्तर में मेक्सिको, उत्तर पूर्व में बेलीज़, दक्षिण में होंडुरास और एल साल्वाडोर तथा पूर्व में कैरीबियान समुद्र को छूने वाला आज का ग्वातेमाला अपने भीतर कई ज्वालामुखी, सुरम्य वन सम्पदा और पुरातन संस्कृति के बहुमूल्य  खंडहरों को समेटे अपने लोगों की जायज़ आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान पाने के लिए जी जान से संघर्ष कर रहा है।

हज़ारों साल पहले पुरातन माया शासकों ने ग्वातेमाला में कई शहर बसाए थे। देश की राजधानी ग्वातेमाला सिटी भी किसी ज़माने में माया शासकों की सबसे बड़ी नगरी कमिनालजियु थी जिसकी जनसंख्या वर्तमान बृहत्तर शहर के 20 लाख के आंकड़े के आसपास ही थी। भूकम्पों से यह पुराना शहर लगभग नष्ट हो चुका है। 1775 में स्पेनिश औपनिवेशकों ने यहाँ नए शहर की स्थापना कर इसे प्रदेश की राजधानी बनाया।

माया समाज में एक मुकम्मल लिखित भाषा प्रचलन में थी जिसमें आकृतियों के साथ साथ एक लिपि का प्रयोग होता था। इसके अनेकानेक  उदाहरण माया खंडहरों, महलों और भवनों पर लिखे मिलते हैं, लेकिन आज तक इन्हें कोई पूरी तरह पढ़ नहीं पाया है। विश्व के कई विशेषज्ञ आज भी इसे समझने के प्रयासों में जुटे हैं। उस लिपि का विस्तार खगोलशास्त्र, समय के आकलन, पांचांगों और कैलेंडरों तक भी  था। माया युग में लिखे गए 93 वृत्तांतों का भी पता चला है। धातुओं की जानकारी के बगैर भी माया कारीगर विलक्षण इमारतें, मंदिर, भवन और बेधशालाएं बनाते थे। साथ ही वे अनुभवी कृषक भी थे जो अपने खेतों में मक्का, फलियाँ एवं सब्जियां उगाते थे। वे ज़मीन के भीतर पानी का संचयन करते, कपड़े बुनते एवं चाक पर मिट्टी के बर्तन भी गढ़ते थे। वे मानते थे कि मनुष्य का जीवन अंतरिक्ष की गतिविधियों से बेतरह प्रभावित होता है।

माया सभ्यता का गणित का ज्ञान भी अचम्भे में डाल देने वाला था। वे सिर्फ तीन अंकों—बिंदी (एक), __(पांच) और शंख(शून्य) को मिलाकर बड़ी बड़ी संख्याओं तक पहुँच जाते थे। उनकी संख्या माला में एक, दस, सौ और हज़ार की जगह 1, 20, 400 और 8000 जैसी संख्याएं होती थी। इन तीन अंकों के सहारे जोड़ और घटाव इतना आसान था कि साधारण अशिक्षित व्यक्ति भी इनका इस्तेमाल अपने निजी व्यापार और दिनचर्या में कर सकता था। हमें अपने देश के स्वाभिमानी इतिहास में अक्सर बताया जाता है कि हमने सिफर या शून्य का आविष्कार किया था, लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है। मेसोपोटोमिया में ईशु पूर्व दूसरी सदी में और माया सभ्यता में स्वतंत्र रूप से ईशु के बाद की चौथी सदी में शून्य का आविष्कार हो चुका था, जब कि भारत में ईशु के बाद की पांचवी शताब्दी में गणितकार ब्रह्मगुप्त ने सबसे पहले इसका प्रयोग किया था। हाँ, यह जरूर सच है कि भारत से ही शून्य का ज्ञान पांचवीं से छठी शताब्दी में कम्बोडिया, चीन और इस्लामी जगत तक पहुंचा था। 

सोलहवीं शताब्दी में स्पेनिश सैनिकों के आने तक भी ग्वातेमाला में यहाँ-वहां माया कबीले बिखरे हुए थे, जिन्हें पूरी तरह नष्ट करने में सैनिकों को लगभग दो शताब्दियाँ लग गयी। माया कबीलों में से अधिकांश के पास सेना नहीं होती थी। वे मुख्यत: किसान थे और स्पेनिश सैनिकों से उनकी अधिकाँश झड़पें आत्मरक्षा या अपने बंदी साथियों को छुड़ाने के लिए होती थी। वे अक्सर छिपकर वार करते थे। स्पेनिश सैनिकों ने प्रदेश से इस सभ्यता को जड़ से समाप्त करने के लिए अपनी सारी ताकत दांव पर लगा दी।

ग्वातेमाला सिटी के आसपास के माया अवशेष जहां पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं, वहीं अ_ारहवीं शताब्दी के मध्य में यहाँ से कोई पांच सौ किलोमीटर दूर घने जंगलों के बीच माया शहर याक्स मुताल के अवशेषों का पाया जाना एक ऐतिहासिक घटना थी। इन अवशेषों को आज तिकाल के प्रचलित नाम से जाना जाता है और युनेस्को द्वारा घोषित इस विश्व सम्पदा स्थल तक पहुंचना अब बेहद आसान हो गया है। माया संस्कृति की सबसे मुकम्मल तस्वीर यहाँ के खंडहरों में देखी जा सकती है।

समय के अभाव में हमारे सामने ग्वातेमाला सिटी से आधे घंटे की उड़ान लेकर फ्लोरेस के मुंडो माया हवाई अड्डे तक पहुँचने के सिवा कोई विकल्प नहीं था, हालांकि हमारे साथ के कुछ दोस्तों को रात की ट्रेन पकडऩे का सुझाव अधिक अच्छा लगा था। फ्लोरेस एक छोटे से द्वीप पर इस्पानियों द्वारा बसाया छोटा सा शहर है जिसका अपना दर्दनाक इतिहास है। पुरातन युग में यह मायाओं का नोजपेतेन शहर था।  यहीं पेतेन इत्ज़ा झील के तट पर स्पेनिश सिपाहियों ने इत्ज़ा-माया लोगों के साथ अपनी आखिरी लड़ाई लड़ी थी। बहुत कोशिश के बाद भी वे जब उन्हें हरा नहीं पाए थे तो 1697 में उन्होंने नावों से हमला कर पूरे द्वीप को नष्ट कर दिया था जिससे  अधिकाँश इत्ज़ा मारे गए थे, और जो थोड़े से बच निकले थे, वे कई वर्षों तक आसपास के जंगलों में छिपे रहे थे। कहा जाता है कि उनमें से कई आज तक वहीं पनाह लिए हुए हैं।  शायद स्पेनियों के चले जाने की खबर अब भी उन तक नहीं पहुँची है। नोजपेतेन के खंडहरों पर जिस आधुनिक फ्लोरेस शहर का उदय हुआ है, उसमें माया, इत्ज़ा और अज़तेक सभ्यताओं का नामो-निशान तक नहीं मिलेगा, लेकिन फिर भी जादुई यथार्थ और पुरातन पुण्यात्माओं के प्रेत आपको यहाँ के रीति-रिवाजों, सामाजिक अनुष्ठानों और अंधविश्वासों तक हर जगह स्वच्छंद विचरते नज़र आयेंगे। इन प्रेतों को किसी देश विशेष या किसी एक धर्म या जाति से जोड़कर देखना मुश्किल होगा और इनकी नागरिकता भी किसी 'एनआरसी’ या 'सीएए’ जैसे अंधे $कानून से आंकी नहीं जा सकती।

फ्लोरेस से बस द्वारा पचास किलोमीटर दूर स्थित तिकाल की यात्रा के दौरान उस विलक्षण सभ्यता के जड़ से मिटा दिए जाने का अफ़सोस लगातार आपके साथ होगा। यहाँ बचे हुए खंडहरों में से बहुत से कोलंबियन काल से पहले के हैं और लगता है कि पेरू के माचू पिचू (जहां हमें आगे के दिनों में पहुंचना है) की तरह यहाँ के निवासी किसी मोड़ से आगे इन महलों और मंदिरों को छोड़ जंगलों की ओर लौट गए। ऐसा शायद उन्होंने अपने भविष्य को बचाने के लिए किया होगा। लेकिन जिस रफ़्तार से अब जंगल भी काटे जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए  इनके लिए सुरक्षा का कोई ठौर अब बाकी नहीं बचा है।

अपनी उम्र का लिहाज करते हुए हमें यहीं से अपने आरामदेह रिसोर्ट में लौट जाना है। लेकिन यहाँ भी गाइड की मारक चेतावनी हमें बार-बार भीतर तक झिंझोड़ देती है। यहाँ शाम ढलने के बाद अकेले निकलना खतरे से खाली नहीं। असली डर जंगल के जीव जंतुओं से नहीं, बल्कि उन खस्ताहाल इंसानों से है, जो अपने अनुभव और तल्ख़ इतिहास के आधार पर समृद्ध पर्यटकों से बेहिसाब नफरत करना सीख चुके हैं।

हमारे नौजवान साथियों ने हमें छोड़ जंगल में ताज़ा पाए गए एल मिराडोर के कुछ और खंडहरों तक पहुँचने का मन बनाया है। यह एक सप्ताह का कठिन जंगली रास्तों और दलदली इलाकों से पैदल होकर जाने का सफ़र होगा जिसके लिए मन और शरीर का एकात्म होना ज़रूरी हैष खोये हुए माया शहर एल मिराडोर (एल पेतेन) को 1926 में खोजा गया था और ब्रूस डाहलिन ने 1978 में इसका पहला नक्शा बनाया था। ये खंडहर छठी शताब्दी के हैं। इस असंभव दलदली इलाके में मायाओं ने मक्का, लौकी, कोको, कपास और फलियाँ उगाने का तरीका ढूंढ निकाला था। नेशनल जिओग्राफिक के जॉर्ज स्टुअर्ट दु:ख से कहते हैं कि इस प्रदेश में खोजे गए 26 स्थलों में से अभी तक सिर्फ 14 का अध्ययन हो पाया है और कोई 30 स्थलों का तो अभी खोजा जाना भी बाकी है। ''शायद जब तक यह काम पूरा होगा, तब तक जंगल काटने वाले और लुटेरे इन्हें पूरी तरह बर्बाद कर चुके होंगे!...अनुमान है कि माया युग के कोई एक हज़ार बहुमूल्य चीनी मिट्टी के बर्तन हर साल चोरी-छिपे, तस्करी लुटेरों द्वारा प्रदेश से बाहर बेच दिए जाते हैं।’’ 2003 से कैलिफ़ोर्निया का ग्लोबल हेरिटेज फण्ड इस विरासत की चोरी को रोकने का प्रयास कर रहा है। लेकिन कोई नहीं जानता कि धरती के नष्ट होने, पेड़ों के कटने, जंगल में लगाई जाने वाली आग, तस्करी और सामान के लुटेरों से लडऩे में यह संस्था कहाँ तक सफल होगी।

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पौने दो करोड़ की सबसे सघन जनसंख्या वाले देश ग्वातेमाला में जहां एक ओर लुटेरे और तस्कर देश की सांस्कृतिक विरासत को नोचने-खसोटने में व्यस्त हैं, वहीं 1837 में मिली आज़ादी से 2015 तक देश का 178 वर्षों का इतिहास इसके कतरा-कतरा लहूलुहान होने की रोंगटे खड़े देने वाली दर्दनाक कथा कहता है। इसके लम्बे अध्यायों से गुज़रे बगैर भी इस मर्मान्तक संघर्ष की कुछ स्याह तारीखें यूं बयाँ की जा सकती हैं :

 

  • 1837 से 1897 के बीच देश में अनगिनत सैनिक शासकों के बीच हाथापाई और युद्ध  चलते रहे जिनमें सबसे अधिक अन्याय सबसे गरीब तबके के साथ हुआ. सत्ता से चर्च का गहरा सम्बन्ध था और वह देश में सबसे अधिक भूमि की स्वामी थी।
  • 1898 में पहले असैनिक राष्ट्रपति कबरेरा ने निजी स्वार्थ के लिए अमेरिका की यूनाइटेड फ्रूट कंपनी को वहाँ लाकर उसे फलों के आयात के अलावा रेलवे की भी सम्पूर्ण ज़िंम्मेदारी सौंप दी। इस कम्पनी ने मजदूरों का बेतरह दमन किया और जब वे हड़ताल पर गए तो कबरेरा ने सोते मजदूरों पर हमला कर सैंकड़ों की जान ले ली।
  • देश के उच्च वर्ग ने मजदूरों के बढ़ते संघर्ष को दबाने के लिए ज़ालिम तानाशाह उबेको को राष्ट्रपति बनाया जिसने 1931 से 1944 के बीच भूमिहीन मजदूरों को प्रति वर्ष बेगार पर 100 दिनों का सख्त श्रम  मु$कर्रर किया। उसने फ्रूट कंपनी को 2 लाख हेक्टर ज़मीन लगभग मुफ्त दे दी। बिजली, रेलवे और गोदी का सारा काम भी इसी कंपनी के जिम्मे था। श्रमिकों से सारे अधिकार छीन लिए गए और पुलिस को उन्हें शूट कर मारने की खुली छूट दे गयी। उसकी अमरीकी सरकार से गहरी दोस्ती थी।
  • देश जब क्रांति की कगार पर जा पहुंचा तो अमेरिका ने इसे दबाने के लिए उबेको को हटाकर नए पि_ू तानाशाह को नियुक्त किया।
  • 1952 में देश के एकमात्र जनतांत्रिक राष्ट्रपति अर्बेंज़ ने 'डिक्री 900’ नाम का कानून चलाकर 5 लाख भूमिहीनों को ज़मीन दिलवाई तो यह कदम अमेरिका और फ्रूट कंपनी को बेहद नागवार गुज़रा।
  • 1954 में अमरीकी राष्ट्रपति आइज़नहावर ने सी आई ए की मदद से ग्वातेमाला में 500 कमांडो उतारकर वहां की सत्ता को पलट दिया। इसके लिए उन्होंने ग्वातेमाला शहर में झूठी खबरें (फेक न्यूज़) $फैलाने वाला एक रेडियो स्टेशन भी स्थापित किया। वहाँ की सेना ने बिना लड़े ही हार मान ली और अर्बेंज़ को अंतत: इस्तीफ़ा देना पड़ा।
  • 1954 से लेकर 1996 तक देश भयानक गृहयुद्ध में झुलसता रहा जिसके दौरान गुरिल्ला सेनाओं और सरकारी दस्तों ने हर सम्भव अत्याचार लोगों पर किया।
  • 1996 में संयुक्त राष्ट्र की मदद से गृहयुद्ध का अंत हुआ लेकिन इसके बाद भी देश के शासकों पर अत्याचार और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे।
  • गृह युद्ध पर छपी आधिकारिक रिपोर्ट में कहा गया कि इसमें कोई दो लाख लोग मारे गए, दस लाख लोग बेघर हुए और सैंकड़ों गाँव नष्ट हो गए. मानव अधिकारों के उल्लंघन की 93 प्रतिशत वारदातें सरकार और सेना द्वारा हुई और मारे जाने वालों में  83 प्रतिशत लोग माया मूल के स्थानीय निवासी थे। इस रिपोर्ट के छपने के साथ ही इसे प्रस्तुत करने वाले बिशप कोनेडेरा को अज्ञात लोगों ने अपने ही गैराज में पीट पीटकर मार दिया। 1999 में अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने माना कि गृह युद्ध के दौरान उनकी सरकार का ग्वातेमाला की सेना को सहयोग देना गलत था।
  • 2012 में गृह युद्ध के अभियुक्तों में तत्कालीन तानाशाह एफ्रैन मोंट को 100 से अधिक वारदातों, 1771 हत्याओं, 1445 बलात्कारों और तीस हज़ार नागरिकों के विस्थापन का दोषी पाया गया। 2013 में इसके लिए उन्हें 80 वर्ष जेल की सज़ा सुनाई गयी। लेकिन 2015 में ग्वातेमाला की अदालत ने अभियुक्त की आयु और स्वास्थ्य को देखते हुए इस सज़ा को खारिज कर दिया।
  • इससे पूर्व 2010 में ग्वातेमाला से भागते समय हिरासत में लिए गए भूतपूर्व राष्ट्रपति पोर्तिल्लो पर जनसंहार और 2009 में कैबरेरा पर सार्वजनिक संपत्ति के गबन का मामला भी खारिज हो चुका था।   
  • कई लोगों का मानना है कि ग्वातेमाला की न्याय व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी है और उसमं  अपराधी तत्वों का समावेश हो गया है।

 

ग्वातेमाला मध्य अमेरिका ही नहीं, देश के सबसे निर्धन देशों में है, जहां की आधे से अधिक जनता निर्धनता की रेखा से नीचे जी रही है और जहां चार लाख लोग बेकार हैं। पिछले सौ-सवा सौ वर्षों में ग्वातेमाला की जनसँख्या दुगुनी हो चुकी है और इनमें से लगभग पंद्रह लाख लोग जायज़-नाजायज़ रूप से अमेरिका में रहते हैं. कहा जाता है कि अमेरिका में बसे  निवासियों के पैसों से देश की दस प्रतिशत सकल आय की आपूर्ति होती है। देश से सबसे बड़ा आयात कॉफ़ी, केलों और सब्जियों का है, जिस पर बड़े कोर्पोरेटों का सख्त शिकंजा है. चिरकाल से देशवासियों का मुख्य अन्न मक्का है, जिसमें से आधा अमेरिका से निर्यात होकर आता है। हताशा की स्थिति में देश की सरकार अब पोस्त और मारिजुआना की खेती को वैध करने पर विचार कर रही है। इसका हश्र अंतत: क्या होगा, यह सोचना भी आज मुश्किल है।

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किंवदंतियों का प्रदेश ग्वातेमाला चिरंतनकाल से अपने मृतकों के लिए आंसू बहाता है. इन्हीं में  सबसे प्रसिद्ध है 'ला लोर्ना’ यानी रोती हुई स्त्री की कथा, जो माया लोगों के गीतों, चित्रों और छवियों में अनंत रूप ले चुकी है. अपने मृत बच्चों को ढूंढती यह स्त्री शाश्वत है, मरकर भी मरती नहीं और उसके अपार दु:ख को कोई लांघ नहीं सकता। वह विलाप करती हैं प्रियजनों के लिए, जिन्हें कोई छीनकर ले गया. वे आततायी आज चाहे बच गए हों,लेकिन 'ला लोर्ना’ का शाप अनंतकाल तक उनका पीछा करता रहेगा....

यूं तो लातिन अमेरिका में जादुई यथार्थ हर जगह है, लेकिन मैंने सोचा नहीं था कि ग्वातेमाला की 'ला लोर्ना’ मुझे कोलकाता के 'नंदन’ प्रेक्षाग्रह में उस छोटे से कद के, माया लोगों जैसी  गहरी आँखों वाले ग्वातेमाला नागरिक और फिल्मकार जयरो बुस्तामान्ते में मिल जायेंगी. जयरो अपनी तीसरी फिल्म 'ला लोर्ना’ या 'आंसू बहाती स्त्री’ को लेकर कोलकाता फिल्म समारोह आये हैं। फिल्म के प्रदर्शन के बाद वे थिएटर के बाहर परीक्षा के परिणाम का इंतज़ार करते विद्यार्थी की तरह बेचैनी से टहलते दिखाई देते हैं। ग्वातेमाला में हर साल बमुश्किल दो या तीन फिल्में बनती हैं और इतने बड़े हॉल के यूं खचाखच भरे होने की तो कल्पना कर पाना भी उनके लिए मुश्किल है। वे कहते हैं कि उनके देश में तीन सबसे घृणित शब्द हैं 'इन्डो’ (आदिवासी, माया), 'गे’ (समलैंगिक) और 'कम्युनिस्ट’। उनकी पिछली दो चर्चित फ़िल्में इन पहले दोनों शब्दों का पीछा करती है और यहाँ प्रदर्शित तीसरी फिल्म 'ला लोर्ना’ में वे हज़ारों लोगों के हत्यारे तानाशाह एफ्रैन मोंट के न्यायालय से छूट जाने के बावजूद  'ला लोर्ना’ के शाप से दण्डित होने की ओर लौटते हैं। अदालत से छूट जाने के बाद मोंट के अंगरक्षक उन्हें पागल भीड़ से किसी तरह बचाकर सुरक्षित महल पहुंचाते हैं, लेकिन नारे लगाती भीड़ ने महल को चारों ओर से घेर लिया है। मोंट तथा उनके परिवार के लिए दिन रात गूंजते उन नारों से निजात नहीं है। और रात के अँधेरे में महल के हर कोने से 'ला  लोर्ना’ की भयावह सिसकियाँ गूंज उठती हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस फिल्म को कोलकाता समारोह में जब सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिलता है तो विद्यार्थी जयरो बुस्तामान्ते अपने सिर को सिर्फ हल्के से हिलाते हैं।

शायद वे जानते हैं कि परीक्षा में अव्वल आ जाने के बावजूद ग्वातेमाला में सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को एक लम्बा सफ़र तय करना अभी बाकी है।

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    (अगले अंक में जारी)

संपर्क-9324223043 jb.envirotekindia@gmail.com

 


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