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मार्च - 2020

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन

राख की बात क्या

राख की करामात क्या

कि राख का मनुष्य

खाक का भी है

और लाख का भी

सोता है तो गनेलों की तरह

और जागता है तो

ब्रह्मांड हिला देता है।

                 - जन कवि गिर्दा

 

 

कुछ पंक्तियां

 

पहल के अंक 121 की शुरूवात हम बस्तर की कविताओं और सड़क पर कविताओं  से कर रहे हैं। फासिज़्म की नई डिज़ाइन की ख़िलाफ़त के फलस्वरूप ये पैदा हुई हैं। विशेष रूप से नौजवानों के हिंसक दमन के विरोध में इसकी उपज है। ये लिखी और सुनाई गई हैं। पढ़ी जाने की तुलना में समूहों में इनका पाठ प्रभावी है। यह लगभग नया कवि सम्मेलन है जिसने काफी चीज़ों की प्राथमिकता को स्थगित किया है। इस काव्य विस्फोट में अभिनेता, छात्र, रंगकर्मी, गायक, कलाकार, राजनैतिक कार्यकर्ता सभी शामिल हैं। इन्होंने प्रतिरोध की पारम्परिक धारा से भी कविताओं को चुना है और उसमें उर्दू, हिंदी के शीर्ष कवि भी शामिल किए गए हैं। इन लगभग अनाम कवियों ने अपनी रचनावलियां आग में झोंकी हैं क्योंकि अग्नि से बेहतर कोई शिल्प नहीं। सड़क पर इन कविताओं का देश भर की भाषाओं में तत्काल अनुवाद फैल चुका है। दमन सख़्त और क्रूर है, वह नियम, नैतिकता, कानून सब को रौंद रहा है। संपादक ने स्वयं मुम्बई में इसकी बानगी देखी है। अंग्रेज़ी पत्रिका 'वीक’ ने इस पर ध्यान आकर्षित किया है। हिन्दी की कमनीय सत्ता के प्रभु दीवार की तरफ धकेले जा रहे हैं। एक बिल्कुल नई जनता ने इस लड़ाई में प्रवेश किया है। काफी हद तक यह स्वयं-स्फूर्त, आर्गेनिक किंचित तर्कपूर्ण आवाज़ें हैं। इनमें नए सवाल हैं, भेदों को तोडऩे की मुहिम है और यह अपराइज़िंग नई शैलियों से लैस है। इसमें हिन्दू, मुसलमान, उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम कुछ कुछ टूट रहे हैं। संगीत, कला, कविता, स्पीच, संवाद, भीड़, आक्रोश, अहिंसा इसमें सब कुछ मिल रहा है।

फिर भी आशाएँ बहुत चमकदार नहीं हैं। क्योंकि इस देश-व्यापी आंदोलन में मजबूतियों के साथ आवेग भी बहुत है, जिसके खतरे ये हैं कि सत्ता उन्हें अपनी ताकत से रौंद सकती है।

इसके अलावा लगातार गांधी पर नए सिरे से विचार के सिलसिले में 'गांधी के बाद गांधी’ एक ज़रूरी आलेख इस अंक में है। हिन्दुत्व की नैतिकता पर अनुशीलन त्रिभुवन कर रहे हैं और असम के नए काव्य आंदोलन 'मिया कविता’ का शेष हिस्सा भी इसमें उपलब्ध है, जिसे नए कवि/कहानीकार चंदन पांडे ने बनाया है। आलोचक विजयमोहन सिंह पर रविभूषण और आलोचक-कवि विजय देव नारायण साही पर अच्युतानन्द के लेखों का पाठक काफी समय से इंतजार कर रहे थे।

कुलदीप कुमार के पहले कविता संग्रह, पंकज कौरव के पहले उपन्यास, अभिषेक श्रीवास्तव के दुर्लभ काम 'देस गांव’, ऋषिकेश सुलभ के उपन्यास के साथ कृष्ण कल्पित की महादेश की गाथा 'हिन्दनामा’ पर मूल्यांकन पहल के अंक की विशेष बातें हैं। अंक में रिपोतार्ज, यात्रा, साक्षात्कार, निबंध, संस्मरण, आलोचना, गद्य की अनेक विधाएँ शामिल की गई हैं। हमारे निरंतर प्रयासों के बाद नितान्त चुप्पे, अन्तर्मुखी कथाकार अशोक अग्रवाल ने हमें अपना एक दुर्लभ संस्मरण बाबा नागार्जुन पर भेजा जिसमें बाबा के अनेक पत्र भी हैं। बस्ती-बस्ती परबत परबत, अपने स्तंभ से जितेन्द्र भाटिया ने एक इतिहास ही बना दिया है। उर्दू रजिस्टर स्तंभ के अंतर्गत एक लंबी और मशहूर कहानी दी जा रही है जिसमें राजकुमार केसवानी और अजमल की मेहनत देखी जा सकती है। अंक में यह इकलौती कहानी है।

अगला अंक कहानी-अंक होगा। उसमें सुभाष पंत, हरनोट, धीरेन्द्र अस्थाना, गौरीनाथ, प्रज्ञा, शंकर, शहादत, प्रदीप जिलवाने, मनोज रुपड़ा, कैलाश बनवासी, हरि भटनागर, नवनीत नीरव की कहानियाँ रहेंगी। तीन विशेष लेख होंगे। शशिभूषण मिश्र, रोहिणी अग्रवाल और अमिताभ राय के।

अंत में, बस्तर के इतिहास, उसकी आंचलिकता, उसके लम्बे जन उभारों और उसके साथ होते राजनैतिक सलूकों पर लोक बाबू ने एक बड़ा काम किया है। चार भागों में विस्तृत यह उपन्यास उनके जीवन भर की कमाई है। उनकी कुछ कहानियाँ पहल ने बरसों बरस पहले छापी थीं। वे धीमे लेखक हैं। पूरा उपन्यास हमारे पास है। उसका एक हिस्सा पहल के कहानी अंक का आकर्षण होगा।


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