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दिसंबर - 2019

ट्रेन

मोहम्मद तैमूर / अनुवाद- शहादत

आधुनिक अरबी साहित्य की पहली कहानी

 

 

सुबह, इतनी सुहानी सुबह में उदास और मायूस दिलों की उदासी खुद-बु-खूद हो जाती, बूढ़े की जवानी लौट आती और ऐसे में ठंडी हवा के झोंके दिलो को नई ताजगी बख्शते हैं। रुह को सुकून पहुंचाते हैं और मायूसी को हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर देते हैं। बाग में पेड़ों के पत्ते दाएं और बाएं झूमते हुए ऐसे चमकते हैं जैसे आज की इस हसीन सुबह की आदम पर नाच रहे हो। लोग सड़क पर आ जा रहे थे। उनके जिस्मों में काम करने की एक हकत थी लेकिन आज, इस खूबसूरत सुबह में मैं अपने बेजार और बदगुमान कमरे की खिड़की में झांक रहा था और इस हसीन मंजर को देख रहा था। जर्रा-जर्रा खुश था और चहक रहा था। सिर्फ एक मेरा ही वजूद उदास और मायूस था। मैंने खुद से इस उदासी की वजह पूछी, लेकिन मुझे उसका कोई सही सा जवाब न मिला।

अपने जी को बहलाने के लिए पढ़ाने की कोशिश की और इसीलिए दीवान ''मोसिया’’ उठाया और पढऩे लगा। मगर मैं ऐसा भी न कर सका और दीवान ''मोसिया’’ वापस ताक पर रख दिया। नीचे बैठा और खुद को सोचों के हवाले कर दिया। ऐसा लगा कि मैं इस कदर आलसी और लाचार हूँ जैसे जमाने के जालिम पंजो में कोई शिकार फंसा हो।

कुछ देर इसी हालत में बैठा रहा। फिर अचानक खड़ा हो गया और एक अनजान मंजिल की तरफ चल पड़ा। मुझे ये भी पता न था कि मेरे कदम मुझे कहां ले जा रहे हैं। यहां तक कि मैं 'बाबा-अल-हमीद’ रेलवे स्टेशन पहुंच गया। मन बोझिल और उदास था। और इस उदासी को दूर करने और रुह को दोबारा ढर्रे पर लाने की कोशिश में मैं गाँव जाने का फैसला किया ताकि वहां के अपनायत भरे माहौल में कुछ सुकून पा सकूं। मैंने एक टिकट खरीदा और रेल के एक डिब्बे में खिड़की के पास बैठ गया। इतने में अखबार बेचने वाले की आवाज सुनी, 'अखबार वादी-अल-नील, अल अहराम, अल मक्तम’, मैंने वादी-अल-नील अखबार खरीदा और उसे पढऩे की कोशिश करने लगा। कुछ देर बाद दरवाजा खुला अमामा (पगड़ी) पहने एक बुजुर्ग डिब्बे में आया। पीला रंग और लंबा कद, पतला जिस्म, घनी दाढ़ी और आँखे थकान से इक कदर बोझिल की पपोटे खुद बंद हो जाते। मालूम होता था कि उनकी नींद अभी भी नहीं टूटी है। वह आकर मुझसे थोड़े से फासले पर बैठ गए। अपना लाल रंग के जूते उतारे ताकि आराम से पालथी मारकर सीट पर बैठ सके। तीन बार जमीन पर थूका और एक लाल रंग के रूमा से होंठ साफ किए। रुमाल से ज्यादा वह कपड़ा बच्चे के नैपकिन के लिए ज्यादा सही था। उन्होंने जेब से तस्बीह निकाली, जिसमें एक सौ एक दाने थे आरै पढऩे लगे। जैसे ही मैंने उन बुजुर्ग से अपनी नजरे हटाइ4, मैंने डिब्बे में एक नौजवान को पाया। शायद बुजुर्ग को देखने के चक्कर में मुझे उसके आने का पता ही नहीं चला।

मैंने नौजवान को ध्यान से देखा और एकदम मेरे दिमाग में ये बात आई कि होना तो हो ये यूनिवर्सिटी में एग्जाम से फारिग हुआ होगा। और छुट्टियां में अपने परिवार और गांव वालों के साथ गुजारने जा रहा होगा। जितनी देर मैं नौजवान को देखता रहा वह भी मेरा और बुजुर्ग का जायजा लेता रहा। उसके बाद नौजवान ने लोक-कहानियों का एक संग्रह अपने थैले से निकाला और उसे पढऩे लगा।

मैंने अपनी घड़ी देखी। इस इरादे से कि काश चौथा मुसाफिर के आने से पहले ही ट्रेन चल देती। लेकिन मेरा सोचना था कि एक और मुसाफिर हमारे डिब्बे में आ पहुंचा। जैसे अक्सर मैंने मूली, गाजर बेचने वाले को गाते सुना है, ये खुशगवा आदमी एक टांग पर दूसरी रखकर मुस्कुराया और हम सब को सलाम किया। हमने भी अजनबियां की तरह सलाम का जवाब दिया और खामोश बैठ गए।

डिब्बे में खामोशी छाई हुई थी। छात्र कहानियां पढऩे में व्यस्त था, बुजुर्ग तस्बीह में अपने आस पास के माहौल से बेखबर, जैसे उसका वजूद ही वहां से गायब हो, वह खुशगवार आदमी एक नजर अपने कपड़ों को देखकर खुश होता और एक नजर हम पर डालता। मैं अखबार वादी-अल-नील पढ़े जा रहा था। इस उम्मीद में कि काश पांचवे मुसाफिर के आने से पहले ट्रेन चल देती।

खामोशी बराबर जारी थी। जैसे हम सब को किसी के आने का इंतजार था। जैसे हम किसी की आहत सुनने के लिए ही खामोश थे और हुआ कुछ ऐसा ही कि कदमों की आहट के साथ ही दरवाजा खुला और एक साठ बरस के इज्जतदार शख्स अंदर आए। लाल रंग और चमकती आँखें. ये लाल रंगत इस बात की गवाही देती कि वह पूरबी हिस्से के रहने वाले हैं और असली शरकशी नस्ल के हैं। उनके हाथ में छतरी थी। उतनी पुरानी और टूटी हुई कि लगता था सारे जमाने में इसी छतरी को खोया और पाया हो। उनके टोपी के किनारे उनकी कनपटियों के किनारे पर पहुंच रहे थे। वह बिल्कुल मेरे सामने बैटे और हमारे चेहरे पढऩे लगे। जैसे पूछ रहे हो, 'तुम कहां से आए हो और कहां जा रहे हो?’ इतने में ट्रेन की सीटी बजी। लोगों को बताती हुई कि बस अब तो सफर शुरु होने वाला है और मुसाफिरों को वहां ले जा रही है जिसने जहां जाने का इरादा किया हुआ है।

सब खामोश थे। जैसे जबानों पर ताले पड़े हो और सिर पर परिंदा बैठा हो। यहां तक कि ट्रेन शबरा स्टेशन पहुंची। पूरबी हिस्से का शख्स मुझे धूर रहा था और फिर कह ही दिया,

''जी आज के अखबार में कोई नई खबर है क्या?’’

अखबार मेरे हाथ में था और मैंने जवाब दिया, ''वैसे तो कोई खबर नहीं है जिसे नई कहे। अलबत्ता एक खबर है शिक्षा मंत्रालय की तरफ से कि शिक्षा को आम करना है और निरक्षरता को दूर करना है।’’ मैंने अपनी बात पूरी न की थी कि उसने मेरे हाथ के अखबार छीना और जल्दी-जल्दी उसे पढऩे लगा। वैसे तो मुझे बेहद गुस्सा आता मगर उसकी इस हरकत पर मुझे कोई हैरानी न हुई क्योंकि मैं जानता था कि पूर्वी क्षेत्र के लोग किस कदर बदतमीज होते हैं।

शबरा स्टेशन पर एक और शख्स हमारा हमसफर बना। अलकलूब का गाँव का सरपंच। मोटा जिस्म, गंदी मूंछे, चिपटी नाक, चेहेर पर चेचक के दाग जिनसे उसकी बदमिजाजी और जहालत का पता चलता था। सरपंच ने पहले सूरहा फातिहा पढ़ी, हुजूर सल्ल्लाहु अलैहिवसल्लम पर दरूद भेजी और मेरे पास बैठ गया।

और अब ट्रेन कबूल गाँव की तरफ जाने लगी।

पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स ने देर तक मुझसे जबर्दस्ती छीना हुआ अखबार पढ़ा। फिर एकाएक अखबार को तह करके ऐसे जमीन पर पटक दिया जैसे दर्द से तड़प रहा होगा और बोला,

''हुकूमत तालीम को आम करना चाहती है। निरक्षरता दूर करना चाहती है। किसानों को पढ़ानी चाहती है ताकि वो अपने मालिक के बराबर हो जाए... अरे मैं कहता हूँ उन्हें हरगिज ऐसा गुनाह नहीं करना चाहिए... गुनाह कैसा? जुर्म है, जुर्म... बहुत बड़ा जुर्म...’’

''कैसा जुर्म?’’ मैंने पूछा।

''तुम अभी जवान हो। तुम्हारी समझ में अभी ये बातें नहीं आएगी। तुम नहीं जानते किसान को कैसे शिक्षित बनाया जाता है... उसका कैसा इलाज है।’’

''किस इलाज की बात कर रहे हैं आप? क्या कोई इलाज है जिससे शिक्षा के प्रसार में कामयाबी मिल सकती है?’’

''हाँ एक इलाज है इसके लिए...’’, ये कहते हुए पूर्वी क्षेत्र वाले ने भंवे चढ़ा ली।

''और वो क्या है?’’ मैंने पूछा।

इस पर वह इतनी जोर से चीखा की बुजुर्ग शख्स की नींद टूट गई और कहा, ''कोडा, जबर्दस्त कोड़े की पिटाई... हुकूमत के लिए कम खर्च और सबसे कामगार नुस्खा। शिक्षा के लिए तो लाखों रुपये खर्च होंगे और याद रखो कि किसान तब तक हुक्म नहीं मानेगा जब तक उसे कोड़े से न पीटा जाए। वह सिर्फ मार की जबान समझता है। पैदा होने से कब्र तक उसके नसीब में मार ही मार है।’’

मैंने पूर्वी क्षेत्र वाले को जवाब देना चाहा लेकिन भला हो सरपंच जी का जो आड़े वक्त में मेरे काम आए। उन्होंने पूर्वी क्षेत्र वाले को मुस्कुराते हुए जवाब दिया,

''खूब फरमाया आपने, जनाब खूब। अगर आप गांव के रहने वाले होते तो इससे बढ़कर बोलते। हमने किसान की बुराई की। उसे नफरत के काबिल समझा है तो उसकी बुरी आदतों की वजह से।’’

पूर्वी क्षेत्र वाले ने सरपंच को संदेह की नजर से देखा और बोला, ''जनाब का ताल्लुक का क्या गाँव से है?’’

''जी मैं गाँव में पैदा हुआ हूँ।’’

''माशाअल्लाह।’’

बातचीत चल रही थी मगर बुजुर्ग अभी भी नींद में डूबे हुए थे और खुशगवार शख्स एकनजर अपने कपड़ों को देकता और एकनजर हमको देखता और हँसता। लेकिन यूनिवर्सिटी के छात्र के चेहरे पर दुख और नापसंदगी के भाव थे। उसने कई बार बोलने की कोशिश लेकिन उसकी कमसिनी और शरम ने उसे रोके रखा। पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स की धमाकेदार तकरीर के बाद अभी पूरी तरह खामोशी छा भी न पाई थी कि मैंने उससे कहा,

''जनाब आपको नहीं लगता कि किसान हमारी तरह एक इंसान है और कितना बुरा है कि इंसान अपने भाई के साथ बुरा बर्ताव करे।’’

इस पर सरपंच मेरी तरफ लपका जैसे मैंने उससे बात की हो और कहा,

''मैं जानता हूँ किसानों को। मुझे मर्तबा हासिल गाँव का सरपंच होने का जिसमें एक हजार किसान रहते हैं। अगर आप को उनके बारे में जानकारी का शौक है तो मैं आपको बताता हूँ मेरे भाई। किसान को मार के सिवा कुछ पल्ले पड़ता ही नहीं। इन साहब ने जो फरमाया है बिल्कुल सही।’’ उन्होंने इशारे से पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स की तरफ इशारा करते हुए आगे कहा, ''आप को किसानों के बारे में इस कदर सही जानकारी कोई ही दे सकता है।’’

छात्र इस बातों से तिलमिला उठा। उसका शरीर कांप रहा था और वह बोला, ''किसान नंबरदार साहब...’’

लेकिन सरपंच ने उसकी बात काटते हुए कहा, ''मुझे सरपंच कहो क्योंकि ये दूसरा रुतबा मुझे बीस साल पहले मिला है।’’

लेकिन छात्र ने फिर कहा, ''किसान नंबरदार साहब आप का कहना नहीं मानता सिवाए मार के। वह इसलिए कि तुमने उसको मार के सिवा दिया ही क्या है? अगर तुमने उसके साथ अच्छा बर्ताव किया हाता तो वह भी तुम्हारा हुक्म बजा लाता और तुमने उसमें एक मेहरबान भाई पाया होता। वह तुम्हारा साथी और मद्दगार होता। लेकिन अफसोस तुमने उसे हमेशा तकलीफ दी और वह भी वापस तुमको तकलीफ पहुंचाने की ताक में रहा। सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे दिए हुए दर्द से वह खुद को कैसे बचाए।’’

इस पर सरपंच ने सिर हिलाया और पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स से कहा, ''ये है पढ़ाई का नतीजा।’’ और पूर्वी क्षेत्र वाले ने जवाब दिया, ''जरा कलम पकडऩा आ गया, बन गया अफसर लाट साहब।’’ लेकिन वह खुशगवार आदमी जोर की हँसी हँसा और छात्र से बोला,

''ब्रेवो नौजवान ब्रेवो..ब्रेवो...।’’

पूर्वी क्षेत्र वाले ने खुशगवार इंसान को खा जाने वाली नजरों से घूरा। उसने इतना गुस्सा आ रहा था कि सांस लेना भी उसके लिए मुहाल हो गया और उससे कहा, ''और आपकी तारीफ?’’

''किस्म का बेटा हूँ मैं... और ऐ इंसान मैं भी इंसान हूँ।’’ खुशगवार शख्स ने जवाब दिया, और जोर का ठहाका लगाया, कई बार।

अब पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स की कमान के सारे तीन खत्म हो गए और अब की बार कभी जमीन पर थूका, कभी नींद में डूबे बुजुर्ग पर और कभी सरपंच के जूतो पर।

इसके बाद सब चुपचाप बैठे रहे। तूफान अभी पूरी तरह थमा नहीं था कि सरपंच जी ने बुजुर्ग को जगाते हुए कहा, ''आप अच्छे जज हैं, हमारे बुजुर्ग आप हमारे इस मसले में हमारी रहनुमाई कीजिए।’’

बुजुर्ग ने सिर हिलाया। खंखारा और जमीन पर थूकते हुए कहा, ''कौन सा मसला है जिसमें आप चाहते है कि मैं खुदा के हुक्म से फैसला सुनाऊँ?’’

''क्या शिक्षा किसान के लिए ज्यादा मुफीद है या मार?’’ सरपंच ने बताया।

इस पर बुजुर्ग ने एक मनगढ़ंत और फर्जी हसीद का तर्जुमा सुनाते हुए कहा, ''नबी अलैहिसलातुवसल्लाम ने फरमाया, घटिया लोगों को तालीम मत दिलाओ।’’

यह सुनकर बुजुर्ग फिर से अलग थलग हो गया और नींद में डूब गया। इस पर छात्र खूब हँसा और कहा, ''क्या वाहियात बात की आपने बुजुर्ग। अमीर और गरीब दोनों वर्गों में अच्छे और बुरे लोग पाए जाते हैं।’’

यह सुनकर बुजुर्ग नींद से जागे और कहा, ''बुरा हो उस दिन का जिस दिन तुमको बात करने का सलीका आया। सलीका क्या, तुम्हारी मत मारी गई है। तुम्हारे बर्ताव ने उसी दिन बगावत की और तुमने दीन के अहकाम भुला दिए। तुम लोगों में से बाज लोगों ने झूठ बोला और जो मन में आया किया। यहां तक कि लाहक के वुजूद का इंकार किया।’’

बुजुर्ग ने ये कहा और सरपंच और पूर्वी क्षेत्र वाले शख्स ने एक साथ कहा, ''वाह बुजुर्ग क्या बात की आपने सुब्हानअल्लाह।’’ और पूर्वी क्षेत्र वाले ने आगे कहा, ''कल तक बेटा बाप के सामने खाने तक से डरता था और आज उसके जी में आता है कि बाप को गाली सुनाए और उसके गाल पर थप्पड़ भी रसीद कर लें।’’

सरपंच ने उसकी बात को और आगे बढ़ाते हुए कहा, ''कल तक बेटे ने अपनी फुफी का चेहरा तक भी न देखा था और आज वह बेतकल्लुफी से अपनी भाभी के साथ मजाक कर रहा है।’’

और ट्रेन कलूम स्टेशन पर रुक गई। मैंने सबको सलाम कहा और ट्रेन से नीचे उतरा। फिर मैं उस गाँव की ओर चल पड़ा जहां का मैंने इरादा किया था। ट्रेन फिर चल दी... हरे-भरे बागों और खेतों से से गुजरती हुई। लेकिन मैंने न ट्रेन का शोर सुना और न सीटी की आवाज। क्योंकि जो बातचीत हमारे डिब्बे में चल रही थी उसकी आवाज अभी भी मेरे कानों में गूंज रही थी।

 

मोहम्मद तैमूर का जन्म 1892 में हुआ था। तैमूर का ताल्लुक मिस्र के एक ऊंचे घराने से था। इनके पिता मोहम्मद तैमूर अरबी के एक बड़े शायर थे और पूरी जिंदगी इल्म-ओ-अदब को बढ़ावा देते रहे। इनके पिता के अलावा भी तैमूर के खानदान के कई लोगों ने अरबी साहित्य की दुनिया में खूब नाम कमाया। तैमूर की सबसे पहली कहानी मिस्र के सबसे बड़े अखबार अल मवायद में छपी। फिर तो ये लगातार लिखने लगे। इसके बाद डॉक्टर की पढ़ाई करने जर्मनी चले गए लेकिन पढ़ाई अधूरी छोड़कर ये पेरिस चले गये और वहां एक कॉलेज में कानून की पढ़ाई करने लगे। लेकिन यहां भी कानून की डिग्री को पूरी नहीं कर सके और साहित्य की दुनिया में चले आए। इन्होंने कहानियां लिखनी शुरु की। अपनी कहानियों में तैमूर ने मिस्र के अवाम-ए-खास की जगह अवाम-ए-आम की जिंदगी को लिखना शुरु किया। इसीलिए इनकी कहानियों के मुख्य किरदार मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के मिलते हैं।

 


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