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दिसंबर - 2019

ख़ुदा का भेजा हुआ परिंदा

सिद्दीक़ आलम

उर्दू रजिस्टर/सौजन्य अजमल कमाल

 

 

                                                                1

यह पुराना स्टेशन जिसकी मेहराबों से आज भी चमगादड़ें लटकती हैं, मैंने हमेशा इसके बाहर बूढ़े बुद्धराम को अपना इंतिज़ार करते पाया है। मगर इससे पहले मैं आपको इस शहर में आने का उद्देश्य बता दूं।

पच्चीस बरस पहले मेरे दादाजान इस स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर फ़सादियों के हाथों मार डाले गए। यह मेरी पैदाइश से पहले की घटना थी, मगर होश संभालते ही एक दिन मेरे हाथ में दादाजान की जेबी घड़ी आ गई और साथ ही उनकी निजी नोट-बुक भी, जो अलमारी में मज़हबी किताबों की भीड़ में दुबकी पड़ी थी। यह नोट-बुक उन्हें ख़ासी प्रिय रही होगी क्योंकि उन्होंने घडिय़ाल के जिस चमड़े से इसकी जिल्द करवाई थी वह चमड़ा अपने सफ़र के दौरान उन्हें किन हालात में हासिल हुआ था, उसका ज़िक्र इस नोट-बुक में ख़ासतौर पर दर्ज था। दूसरी तरफ़ यह घड़ी उनकी जेब से बरामद हुई थी जब उनका जला हुआ जिस्म प्लेटफ़ार्म से उठाया गया। दरअस्ल उनके झुलसे हुए जिस्म के सबब उनकी पहचान मुम्किन न होती अगर उनकी शनाख़्त उसी घड़ी के ज़रिए न की गई होती जो उन दिनों ट्रेन के कंडक्टर अपने बटन के सुराख़ से लटकाए रखते थे; यह और बात थी कि मेरे दादा ट्रेन में ड्राइवर थे। इस जेबी घड़ी की चैन सलामत थी जिसके एक सिरे से इसकी चाबी लगी हुई थी। इसका शीशा पिघल कर डायल के साथ चिपक गया था जिसमें अब रोमन का सिर्फ़ सात का हिंदसा बचा था जिससे जाने क्यों मैंने यह नतीजा निकाला कि यह घटना दिन या रात के सात बजे पेश आई होगी, जबकि इसे सही परिकल्पना नहीं कहा जा सकता। घड़ी का ढक्कन खोलने पर, जो अब सिर्फ़ एक पिन के ज़रिए घड़ी के केस के साथ जुड़ा था, मुझे उधड़े हुए डायल के पीछे पहियों और स्प्रिंगों की एक दुनिया नज़र आई। अंदर की ज़्यादातर प्लेटें सलामत थीं जिनमें सबसे बड़ी प्लेट पर 'स्विटज़रलैंड में बना’ लिखा हुआ था। उस वक़्त जबकि में काफ़ी कमसिन था और एक दूसरे शहर में अपने वालदैन के साथ रह रहा था जो मेरा पैदाइशी शहर भी था, इसे अपनी मुट्ठी में दबा कर मुझे ऐसा लगा था जैसे यह अब भी गर्म हो, गरचे मुझे मालूम था यह एहसास सरासर मानसिक था। आज मैं आंखें खोल कर देखता हूं तो मेरे दादाजान, जिनकी कोई तस्वीर हमारे घर में मौजूद नहीं, उनका नाक-न$क्शा मेरे सामने बिल्कुल स्पष्ट और साफ़ होता जाता है, जैसे यह वर्तमान की घटना हो और मैं उनकी गोद में बैठा हुआ यह शहर देख रहा हूं।

 

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दादा-जान जिन्हें कुत्तों और कमसिन लड़कियों से प्यार था, नमाज़ के लिए उनका एहतिराम लोगों की समझ से बाहर था, गरचे यह उन्हें आए दिन शराब के अड्डे की तरफ़ जाने से नहीं रोकती थी। उन्होंने अपनी पहली शादी में इस बात को यक़ीनी बनाना चाहा कि उनकी जीवन-संगिनी उनके लिए कुंवारी साबित हो। उस रात उन्होंने अपनी दक़ियानूसी नोट-बुक में लिखा: ''अगर मेरे साथ धोखा नहीं किया गया है तो मेरे होने वाले बच्चे का बाप इस धरती के गोले पर कहीं भटक रहा होगा।’’

सड़क पर केरोसीन लैम्प के रंगीन शीशों से छन-छन कर आती रोशनी में चलते हुए वे यही सोच रहे थे। उन्होंने महसूस किया कि अब रात और ज़्यादा गहरी होने वाली नहीं और आखिऱी दुकानें बस अपने झांपे गिराने ही वाली हैं, तो उन्होंने एक मिठाई की दुकान के सामने रुक कर अपनी कमसिन बीवी के लिए पेड़े ख़रीदे, क्योंकि वह गर्भवती थी और हमेशा भूखी नज़र आती थी।

''इसे दो आदमी का खाना चाहिए,’’ उन्होंने बंगाली दुकानदार को आंख मारते हुए कहा। दुकानदार अधेड़ उम्र का था और अपनी काफ़ी बड़ी तोंद पर एक चिरकुट बनियान चढ़ाए, मिठाई के शोकेस के पीछे खड़ा, किसी गाहक की उम्मीद में एक बूढ़े इंसान के लिए बिल्कुल भी तैयार न था। यूं भी यह उसकी रखैल का वक़्त था और ढलान में उतर कर उसे खेत के किनारे ठर्रे की दुकान से एक पव्वा लेना ज़रूरी था।

''आप इन लोगों का पेट कभी नहीं भर सकते,’’ दुकानदार टेंडर के कुरूप काग़ज़ के ठोंगे के अंदर पेड़े रखते हुए दादा को पहचानने की कोशिश कर रहा था। छप्पर के कुंडे से लटकती लालटैन की मद्धम रोशनी में वह काफ़ी भीमकाय नज़र आ रहा था। अगर उन्हें बच्चा देना हो तो आप कभी रोक नहीं पाएंगे।’’

''औरतों के बारे में तुम्हारा रवैया सेहतमंद नहीं,’’ दादा ने शो-केस के शीशे पर पैसा गिनते हुए कहा। शो-केस के अंदर जलती मोम-बत्ती की गर्मी के सबब शीशे पर हरे पतंगे पड़े-पड़े  तप रहे थे। उन्हें हलवाई की बात से तकलीफ़ पहुंची थी। ''तुम शादीशुदा नहीं हो सकते,’’ वे बड़बड़ाए।

''जबकि मेरे छ: बच्चे हैं।’’

जिससे कुछ भी साबित नहीं होता! दादा रेलवे की पटरियों को एहतियात से फलांगते हुए सोच रहे थे क्योंकि रौशनियां ऊंचे खम्बों पर लगी होने के कारण पटरियां धुंधली लकीरों में बदल गई थीं. रेलवे के गोदाम की चहारदीवारी के साथ बगलों की बीट से सफ़ेद गगन-चुम्बी वृक्षों का सिलसिला शुरू होता था जो चांदनी रातों में काफ़ी रहस्यमय और ज़्यादा काले नज़र आते। रास्ते में कहीं-कहीं ईंट की कोई दीवार नमूदार हो जाती जिसके वहां होने के औचित्य का पता लगाना मुश्किल था—सिवाए इसके कि उस जगह से गंदगी की वह ख़ास दुर्गन्ध आया करती जिसका ताल्लुक़ सिर्फ़ रेलवे यार्ड से होता है। दादा को अपना रास्ता बख़ूबी मालूम था। बहुत जल्द वे रेलवे के क्वार्टरों से बाहर निकल आए जहां खेतों के बीच रिहाइशी घरों की ज़्यादातर रौशनियां बुझ चुकी थीं और कुत्ते तक ख़ामोश थे। दिन के वक़्त ऐसा लगता जैसे उस जगह से आधे कोस दूर, दादा के गांव के घरों की दीवारों तक यह शहर अपनी ग़लाज़त के साथ कभी भी पहुंच न पाएगा। मगर क़रीब पहुंचने पर ख़ुद उनका गांव भी घूरे का एक ढेर ही साबित होता। मगर यह घूरे का ढेर न था जब दादा ने अपना घर बनवाया था। दादा इस शहर के नहीं थे और जब रेलवे की नौकरी के सिलसिले में उनका तबादला इस स्टेशन पर हुआ तो सस्ती ज़मीन और सुकून की तलाश में वे इतनी दूर आ गए थे जहां कुछ साल पहले तक गन्ने के खेतों और नारियल के दरख़्तों के झुण्ड के बीच कंवल के पत्तों से ढके हुए कई तालाब थे जिनके पानी पर बिछी मोटी काई पर बत्तख़ लकीरें खींचते नज़र आते और तरह-तरह की लांबी चोंच वाली धूसर-सफ़ेद चिडिय़ां मछलियों की तलाश में पानी के ऊपर ऊपर मंडराया करतीं, और जब जोहड़ के किनारे वे पानी में उतरतीं तो यह देखकर हैरत होती कि किस तरह इतनी लम्बी-लम्बी पतली टांगों को, जिनका गुलाबी रंग चकित करने वाला था, उड़ते वक़्त वे अपने जिस्मों के अंदर छुपा कर रखती थीं। यही वे चीज़ें थीं जिन्होंने उनका ध्यान अपनी ओर खींच लिया थी। इस वक़्त उन्हें इस बात की बिल्कुल भी ख़बर न थी कि अपने शोर और गंदगी के साथ इस जगह तक पहुंचने में इस शहर को सिर्फ़ बीस बरस लगेंगे और ज़्यादा तर तालाब या तो ढक दिए जाऐंगे या कूड़े के ढेर में बदल जाऐंगे।

''मुझे और भी ज़मीनें ख़रीद कर रखनी चाहिए थीं,’’ एक दिन उन्होंने अपने दोस्त बुद्धराम से कहा जो सिगनल मैन की डयूटी से रिटायर तो हो चुके थे मगर अब भी हरे और सुर्ख़ सिगनल के ख़ाब देखने से बाज़ न आते।’’ मैं कभी अच्छा बिज़नस मैन नहीं रहा। यह तुम नहीं समझ सकते, एक ऐसा आदमी जो सिगनल की रोशनियों से बाहर कुछ सोचने की ताक़त नहीं रखता।’’

शायद वे ठीक कह रहे थे क्योंकि बुद्धराम की सारी ज़िंदगी बेकार गई थी। वे ख़ानदानी नास्तिक थे जिन्होंने हाल ही में ईसाईयत क़बूल की थी और बड़े गिरजा के पादरी के हुक्म से उनके नाम के आख़िर में हरबर्ट का लक़ब चिपका दिया गया था। मगर उनके इस लक़ब से कम लोग परिचित थे, और जो परिचित थे उन्होंने इस पर यक़ीन नहीं किया था। ख़ुद उन्हें लोगों ने कभी चर्च जाते नहीं देखा था। ऑफ़िस के रजिस्टरों में वे अब भी बुद्धराम ही थे। बुद्धराम ने जीवन भर अपने रिश्तेदारों से दूर रेलवे क्वार्टर में ब्रहमचारी की ज़िंदगी गुज़ारी और रिटायर होने के बाद अब एक किराए के घर में रहते थे, जो दरअस्ल एक रेलवे क्वार्टर ही था मगर जिसके नाम से वह अलाट था उस व्यक्ति ने उसे किराए पर दे रखा था। उन्हें इसकी पर्वाह नहीं थी कि उनके रिश्तेदारों ने कभी उनकी कोई ख़बर नहीं ली सिवाए उन दिनों के जब उन्हें पैसे की ज़रूरत हो। शायद इसमें क़सूर इन्हीं का था। उनके पास हर ज़रूरतमंद के लिए कुछ न कुछ रक़म तैयार रहती थी.

''मैं जीवन भर एक अच्छा इंसान रहा,’’ बुद्धराम ने अपनी खैनी की डिबिया निकालते हुए कहा। ''और मैंने देखा है, इस दुनिया में पाने के लायक़ कुछ भी नहीं है। और वे जिन्होंने बड़ी-बड़ी हवेलियां खड़ी कीं और खेत और बाग़ों के ढेर लगा दिए, मरने के बाद उन्हें दो गज़ ज़मीन पर संतोष करना पड़ा। उन्हें तीन पुश्त से ज़्यादा याद भी नहीं रखा गया।’’

''यह एक हारे हुए इंसान की सोच है।’’ दादा सामने ढलान की तरफ़ देख रहे थे जहां बच्चे डूबते सूरज के नीचे एलमूनियम के पहियों के साथ भागते हुए दस का हिंदसा बना रहे थे। ''अगर तुम्हारे ख़याल से मैं एक ऐसा घर छोड़कर जाऊंगा जिसकी किसी को ज़रूरत न होगी तो यह तसल्ली मेरे लिए कम नहीं कि मेरे लगाए हुए आम और अमरूद के पेड़ बरसों तक फल देते रहेंगे। और अगर वे फल देना बंद भी कर दें तो भी कठ-बढ़ई और गिलहरियां इसमें पनाह तो ले ही सकती हैं।’’

शायद दादा को आने वाले दिनों की आहट मिल चुकी थी। अंग्रेज़ देश छोड़कर जा चुके थे। मुसलमानों की एक बड़ी आबादी पूर्वी पाकिस्तान का रुख़ कर चुकी थी। अब इस बस्ती में चंद ही मुसलमान रह गए थे जो अब तक उनकी दो-मंज़िला इमारत से आस लगाए बैठे थे और जब भी शहर के अंदर दंगों का बाज़ार गर्म होता, पनाह लेने के लिए इसके अंदर आ जाते। उन्हें इस बात का दुख था कि सिर्फ़ इस वजह से उनके मकान को पुलिस वाले शक की नज़र से देखते थे और आए दिन उन्हें पाकिस्तानी जासूस होने के इल्ज़ाम का सामना करने के लिए थाने जाना पड़ता। उन्हें पता था, देर-सवेर इस घर को बिक जाना है। ख़ुद उनके मकान के चारों तरफ़ निचली जातियों के हिंदूओं ने घर बना लिए थे, और एक ऐसा व्यक्ति भी था जो कभी उनका नौकर रह चुका था मगर अब सरकारी नौकरी में निचली जाति वालों को रिज़र्वेशन मिल जाने के कारण उसके चारों लड़कों को सरकारी नौकरियां मिल गई थीं और अब उसके पास इतना पैसा आ चुका था कि वह दादा के घर को ख़रीदने के बारे में सोच सके।

''मुझे तुम्हारा यह नमक-ख़वार पसंद नहीं,’’ बुद्धराम ने एक दिन अपनी उकताहट ज़ाहिर की. वह कैसे खुले-आम तुम्हारे घर के बारे में बात कर सकता है।

''क्योंकि उसे पता है मेरे मर जाने के बाद यह घर उसका होने वाला है। ये मेरे नालायक़ लड़के, तुम इनसे क्या उम्मीद रखते हो? उन्हें सिवाए पहलवानी के आता भी क्या है! और इसके लिए तुम इन निचली ज़ात के लोगों को ज़िम्मेदार ठहरा नहीं सकते। कभी वे दूसरों के हाथों बे-ज़मीन कर दिए गए थे। आज इन्होंने अपनी ज़मीनें वापस लेना शुरू कर दी हैं। तारीख़ अपने आपको दुहराती है।

बुद्धराम ने शादी नहीं की थी। इसका यह मतलब नहीं था कि वे ख़ुश थे। दादा को इसका पता था कि उनके रिश्तेदारों की एक फ़ौज थी जिसने उनकी ज़िंदगी तंग कर रखी थी और आए दिन अपनी अजीबो-ग़रीब मांगों के साथ नमूदार होते रहते थे। मगर इसके लिए वे बुद्धराम को ही ज़िम्मेवार ठहराते थे। वे जब भी शराब के नशे में होते, उनका दिल बुद्धराम के लिए भलाई के जज़्बे से भर आता। बुद्धराम जो कभी किसी औरत के साथ हम-बिस्तर न हुए, उन्हें उनसे ज़्यादा दयनीय इंसान और कोई दिखाई न देता।

''वैशाली मैं तुम्हारा इतना बड़ा कुंबा है...’’ वे अक्सर बुद्धराम को समझाया करते। ''तुम अपने रिश्तेदारों में लौट क्यों नहीं जाते? बुढ़ापे में एक इंसान को सबसे ज़्यादा अपने लोगों की ज़रूरत होती है।’’

''एक दिन तुम्हें अपने लोगों का मतलब समझ में आएगा जब मैं तुम्हें अपने लोगों के बीच ले जाऊंगा,’’ बुद्धराम ने सर हिलाते हुए जवाब दिया। ''उस दिन तुम सही राय देने के क़ाबिल हो जाओगे।’’

बुढ़ापे में एक और शादी करने के दंड के तौर पर (और यह उनकी तीसरी शादी थी) दादा को अपने सफ़ेद बाल और डाढ़ी को मेंहदी से सुर्ख़ करना पड़ा था, गरचे मेरी कमसिन दादी को इससे कोई लेना-देना नहीं था। वह तो एक बड़ा सा पेट उठाए आज भी एक अल्हड़ लड़की नज़र आती थी।

''वह कैसे इतना बड़ा पेट लेकर दीवार फाँद जाया करती है?’’ बुद्धराम ने एक दिन अपनी हैरत का इज़हार किया। ''मुझे पता न था कि तुमने एक गिलहरी से शादी की है।’’ मेरे दादा को बुद्धराम की बात पसंद आ गई। ''वह सचमुच एक गिलहरी है!’’ उन्होंने बुद्धराम की दी हुई खैनी फांकते हुए आंख मारी। ''एक जंगली गिलहरी, जिसे अव़्वल तो पकडऩा आसान नहीं, और अगर पकड़ में आ जाए तो ज़्यादा देर तक थामे रखना मुश्किल है।’’

''बूढ़े आदमी, तुम्हें अपने आस-पास के नौजवानों पर नज़र रखनी चाहिए। यह दुनिया एक बहुत ही बुरी जगह है। तुम यक़ीनन नहीं चाहोगे कि इस बुढ़ापे में कोई तुम पर हंसे।’’

''लोगों को हंसने से कौन रोक सकता है!’’ मेरे दादाजान ने एक आह भरते हुए कहा। वैसे उसे एक बार मां बन लेने दो, सब ठीक हो जाएगा। और तुम चारों खूंट घूम आओ, जहां तक औरत का ताल्लुक़ है, बिस्तर में मेरे जैसा दूसरा आदमी तुम्हें दिखाई न देगा।’’

बुद्धराम ने दया भाव से मेरे दादा की तरफ़ देखा। उन्हें ऐसा लगा जैसे वह अब ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा रहने वाले नहीं। इस दिन एक सुर्ख़ सिगनल की तरफ़ ताकते हुए उन्होंने सोचा, हम किसी चीज़ को पाने की धुन में उसे अपने आपसे कितनी दूर कर देते हैं।

                                                          3

बुद्धराम बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरी तरफ़ देख रहे थे। उनकी आंखों में एक अजीब रोशनी थी। ''आप मेरी तरफ़ इस तरह क्यों देख रहे हैं?’’ मैंने पूछा। मुझे उनकी आंखों से बेचैनी हो रही थी। वे थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्होंने अपनी ख़ामोशी तोड़ी। कभी-कभी तुम्हारी शक्ल तुम्हारे दादा से मिलने लगती है। लेकिन यह शबाहत ज़्यादा देर क़ायम नहीं रहती। ''मैंने उन्हें कभी नहीं देखा,’’ मैं ने कहा। ''शायद मेरा चेहरा उनसे मिलता हो।’’ ''नहीं,यह बात नहीं है। कोई भी चेहरा तुम्हारे दादा की बराबरी नहीं कर सकता। वह मुझसे उम्र में कुछ बरस छोटा था मगर उसने इसे कभी नहीं माना। उसके अंदर दो बैल की ताक़त थी। पुलिस भी उसे हवालात में डालने से डरती थी।’’

बुद्धराम अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिन गिन रहे थे और इन दिनों हमारे दादा के मकान में किराएदारों के लिए बनाई गई कोठरियों में से एक में बग़ैर किराए के रह रहे थे। उनके कमरे का आधा हिस्सा सदैव अंधेरे में डूबा रहता, जिसकी उन्हें पर्वाह न थी। उनकी सारी ज़िंदगी की पूँजी एक ट्रंक के अंदर बंद थी जिस पर बैठे-बैठे वे खिड़की से बाहर आसमान पर नज़रें टिकाए रहने के आदी थे। उन व$क्तों के अलावा जब मैं क़ानूनी दस्तावेज़ात पर उनकी राय लेने आता जिनके सहारे में अपने दादा की जायदाद को बचाने की जद्दो-जहद में व्यस्त था, बाक़ी वक़्त वे मेरे साथ अपनी याददाश्त के गलियारों में घूमने के आदी थे। और यह मुझे पसंद भी था क्योंकि मुझसे ज़्यादा मेरे दादा के वाक़ियात का इल्म बुद्धराम को था। बुद्धराम जिन्हें कहानी बुनने का फ़न बख़ूबी आता है।

 

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वह एक बड़ा ही ख़ामोश दिन था, बुद्धराम ने कहना शुरू किया। मेरे क्वार्टर की खिड़की बरसात का पानी पी-पी कर फूल गई थी और ठीक से बंद नहीं हो रही थी जब इस पर एक दस्तक हुई। यह दस्तक मेरे लिए आश्चर्यजनक थी। अब मेरी ज़रूरत किसे हो सकती है? मैंने न बंद होने वाला पट खोला तो एक अधेड़ उम्र की औरत एक सब्ज़ तोता हाथ में लिए खड़ी थी।

''इस तोते पर अल्लाह का नाम लिखा हुआ है,’’ उसने कहा।

आह, मैं ने सोचा, अब यहां बुरा वक़्त आने वाला है।

मैंने उसके लिए दरवाज़ा खोला, जो मुझे नहीं करना चाहिए था। और वह एक बहुत ही बातूनी औरत निकली क्योंकि दस मिनट के अंदर अंदर उसने वह तोता और पंचगोनी तार का पिंजङ़ा जिसके अंदर तोता बंद था, मुझे बेच डाला।

''इसका सम्मान करना, यह ख़ुदा का भेजा हुआ ख़ास परिंदा है,’’ उसने रुपये साड़ी के पल्लू में बांधते हुए कहा।

दरअस्ल इस अधेड़ उम्र की औरत ने मुझे एक ही नज़र में अपना ग़ुलाम बना लिया था। मुझे पहली बार हैरत हुई कि इतनी लम्बी उम्र किसी औरत के बग़ैर मैं ने कैसे गुज़ार दी थी। ''तुम किस गांव की हो?’’ मैंने उससे पूछा। ''मैं इसी शहर की हूं,’’ औरत ने जवाब दिया। मुझे समझने में देर न लगी, औरत को इस बात का एहसास हो गया था कि मैं बुरी तरह उसकी मुहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका हूं। उसने अपने जिस्म के भरपूर एहसास के साथ मेरी तरफ़ देखा और अपने ज़मीर का बोझ हल्का करते हुए आगे कहा, ''इस तोते को पानी से बचा कर रखना वर्ना अल्लाह का नाम ग़ायब हो जाएगा।’’

शायद अब उसे मेरे साथ झूठ बोलने की ज़रूरत न थी।

उसके जाने के बाद मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने उसके घर का पता क्यों न पूछ लिया, गरचे मुझे इस बात का इतमीनान था कि यह शहर इतना बड़ा नहीं कि में इसके अंदर इस तोता-फ़रोश को ढूंढ कर निकाल न सकूं। बाद में जब मैं ने तुम्हारे दादा से इस घटना का ज़िक्र किया तो उसने बड़े शक के साथ इस पूरे मामले को देखा। ''तुमने देर कर दी,’’ तुम्हारे दादा ने कहा। ''अब वह इस लायक़ नहीं रह गई है कि तुम्हारे लिए बच्चा दे सके। क्या वह कुंवारी थी?’’ ''वह मुसलमान थी,’’ मैंने इस सवाल से बचने के लिए यह बेतुका सा जवाब दिया।

''फिर तो मामला और भी पेचीदा है,’’ तुम्हारे दादा बड़बड़ाए। ''इसमें पेचीदा क्या है?’’ मैंने ज़िद की। ''आख़िर हम ईसाई और मुसलमान एक ही पै$गंबर के मानने वाले हैं।’’ ''नहीं, तुम इसे नहीं समझ सकते, इससे पेचीदगी और भी बढ़ जाती है,’’ और तुम्हारे दादा ख़ामोश हो गए. लेकिन मुझे इल्म था, वह इतनी आसानी से किसी भी चीज़ को भूलने वाला आदमी न था। दूसरी सुबह जब वह अपना शंटिंग इंजन लेकर पटरी से गुज़र रहा था, उसने इशारे से मुझे बताया कि मुझे शाम ख़ाली रखनी चाहिए, जब हम सुंदर पट्टी से गुज़र कर स्टीम गेट के पीछे बड़े खलियान की तरफ़ जाऐंगे जहां की देसी शराब हमें ख़ासतौर पर पसंद थी। ख़ाली? मैंने सोचा। अब मेरे पास ऐसा है ही क्या कि अपने आपको व्यस्त रखूं! मगर मेरा यह सोचना ग़लत था। $कुदरत ने कुछ और ही चीज़ मेरे लिए तय कर रखी थी। अचानक उस औरत की मुझे बहुत याद आने लगी और दोपहर तक मेरी हालत इतनी ग़ैर हो गई कि मैं तुम्हारे दादा को भूल कर उसकी तलाश में निकल खड़ा हुआ।

सनद के तौर पर मैंने अपने साथ वह तोता रख लिया था जिस पर अल्लाह का नाम लिखा था। शहर... क्या तुम इसे शहर कहोगे, सिर्फ़ इसलिए कि इसकी तारकोल की सड़कों पर बिजली के खम्बे आ गए हैं और इसकी नई पुरानी इमारतों में हर तरह के लोग रहने लगे हैं और तुमने ज़रा भी देर की तो वहां रात उतर जाती है और ऐन मुम्किन है कि तुम रास्ता भूल जाओ या कोई तुम्हें लूट ले या एक विद्रोही के घेरे में आ जाओ या किसी अश्लील काम में व्यस्त जोड़ा तुम्हें देखते ही भाग निकले? मगर यह दिन इस तोते का था। वह पिंजड़े के पंचगोनी ख़ानों से पंजों के नाख़ून बाहर निकाले ख़ामोश खड़ा था और बार-बार सर न्यौढ़ाकर नीले आसमान की तरफ़ देख रहा था जिसमें अब हफ़्ते में दो एक टू-सीटर जहाज़ नमूदार होने लगे थे जो सामानों के इश्तिहार फेंक जाया करते. यह काग़ज़ी  इश्तिहार पुलंदों के रूप में जहाज़ से बाहर आते मगर देखते-देखते शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैल जाते।

मैं बहुत थक चुका था। मैं पनाह लेने के लिए एक इमारत के अंदर दाख़िल हुआ। वह वीरान पड़ी थी। मैं किसी नेक-दिल इंसान की तलाश में इसकी सीढिय़ां तय करने लगा। इमारत के तमाम दरवाज़े, दरीचे बंद थे, या शायद मेरी दस्तक उसमें रहने वालों तक नहीं पहुंच पा रही थी, या शायद उन्हें मेरी नीयत का पता चल चुका था। आख़िरकार मैं इसकी छत पर पहुंच गया जिसके ऊपर नीले आसमान में पतंगें उड़ रही थीं और सूरज दूर क्षितिज में चांदी के बादलों के अंदर बुझता जा रहा था। मैं ने पानी के काई लगे टैंक के सामने, जिससे पानी रिसता हुआ कोने में जम रहा था, एक आधी टूटी हुई दीवार का इंतिख़ाब किया और पिंजङ़ा इस पर रखकर बैठ गया। मुझे पता भी न चला दीवार पर बैठे-बैठे कब मेरी आंख लग गई।

 

                                                              5

आंखें खुलीं तो मैं ने अपने आपको एक अजीबो-ग़रीब शहर के अंदर पाया जो अजनबी होते हुए भी काफ़ी जाना-पहचाना लग रहा था। यह कौन सा शहर है? मैं यहां किस तरह से पहुंचा? दूर तक कंक्रीट की इमारतें जिन्हें हम सोच भी न सकते थे, जिनके दरमयानी रास्तों में बिजली के ऊंचे ऊंचे खम्बे लगे थे, जिन्हें मैं पहली बार देख रहा था। एक-आध पुरानी इमारतों के मीनार और गुम्बद अब भी बाक़ी थे मगर कंक्रीट के इन ऊंचे डिब्बों के सामने वे तुच्छ नज़र आ रहे थे। वह खुला हुआ शहर जाने कहां चला गया था। हर तरफ़ तंग रास्तों और गलियों का जाल बिछ चुका था। सूरज शायद निकल रहा था या डूब रहा था और मैं अपनी ऊंची मगर तंग छत की मुंडेर पर बैठा ईंट और पलस्तर के उन ढेरों की तरफ़ ताक रहा था जिन पर बरसात दर बरसात काई जम कर कई बदसूरत पेड़ उग आए थे। चील कोठी की छत पर पानी का टैंक अपनी जगह खड़ा था और आज भी इससे पानी रिसता हुआ कोने में जम रहा था। इस पानी में एक कबूतर मरा पड़ा था। छत के फ़र्श से लेकर उसकी लगभग अँधेरी सीढिय़ां और उनके बीच के चबूतरे तक गंदे हो रहे थे। ऐसा लग रहा था इस इमारत में रहने वाले अपनी सारी गंदगियां इन जगहों पर डालने के आदी हो गए हों।

लेकिन मेरे यहां होने का औचित्य क्या था? और यह ख़ाली पिंजङ़ा! मैं इसे उठाए क्यों खड़ा हूं? और मुझे इसका अफ़सोस होने लगा कि मैं अकेला इस मुहिम के लिए निकल आया था। मुझे तुम्हारे दादा को साथ लेना चाहिए था। आख़िरकार औरतों के मामले में वो एक दुनिया-देखा इंसान था। तो मैंने छतों की ऊंची-नीची श्रृंखला पर दूर तक नज़र दौड़ाई जहां दिलचस्पी के लायक़ कुछ न पाकर मेरी नज़र वापस ख़ाली पिंजड़े पर टिक गई। क्या मेरी नींद की हालत में तोता उड़ चुका था या कोई उसे चुरा ले गया? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह कोई जादूई तोता हो जो मुझे इस शहर में लाने का कारण बना हो, दास्ताने-अलिफ़ लैला की किसी कहानी की तरह जो अपना काम करके हमेशा-हमेशा के लिए ग़ायब हो चुका हो? तो यह भी एक हक़ीक़त है कि उस औरत का ज़रूर कोई न कोई अस्तित्व रहा होगा जिसने वह पवित्र तोता चंद सिक्कों के बदले मेरे हवाले किया था।

मैं जब सीढिय़ां उतर रहा था तो मैंने देखा, नीचे की चारों मंज़िलें बज़ाहिर वीरान पड़ी थीं जिनके अंदर घुप अंधेरा था, मगर हर दो सीढिय़ों के दरमियानी चबूतरे पर खड़े होकर अजीबो-ग़रीब भिनभिनाहटों और सरगोशियों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। मुझे यक़ीन हो गया, इमारत आबाद तो थी मगर आज भी लोग मेरा सामना करने से कतरा रहे थे। नीचे कंक्रीट की सड़क पर मैं ने कुछ राहगीरों और साइकिल सवारों को देखा जो शायद मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे और अपने आस-पास की दुनिया को भूल कर मेरी तरफ़ देख रहे थे.

''किसी ने मेरा तोता देखा है?’’ मैंने अपने ख़ाली पिंजड़े को ऊपर उठा कर दरयाफ़्त किया। ''उस पर अल्लाह का नाम लिखा हुआ था।’’

उन्होंने जवाब देने के लिए मुंह खोलने की कोशिश की। मैं देख रहा था, उन्हें इसमें नाकामी हो रही थी। अचानक मुझे उनके चेहरों में ऐसा कुछ नज़र आया जिससे मुझे यक़ीन हो गया कि तोते के बारे में सारे शहर को वाक़फ़ियत थी। ''यह कौन सा शहर है?’’ मैंने डरते-डरते पूछा। ''यह मेरा शहर तो नहीं हो सकता।’’ मैंने देखा, राहगीर मुझ से दूर हटते जा रहे थे जबकि साइकिल सवारों ने अपनी साईकलों का रुख़ पुल की तरफ़ मोड़ लिया था और तेज़ी  से पैडल चला रहे थे। मैं उनका पीछा करते हुए, गरचे यह पीछा करना निरर्थक था, एक दूसरी वीरान सड़क पर निकल आया जो एक लौहे के पुल से गुज़रती थी जिसके नीचे कीचड़ों भरे पानी का खाल था। खाल के किनारे बच्चे मछलियां पकड़ रहे थे। शायद मैं किसी गोदी के इला$के में भटक रहा था। सड़क पर दृष्टि की सीमा तक एक ही तरह के लौहे के लैम्प-पोस्ट खड़े थे जिनमें से एक के नीचे एक भिखारी अपनी गुदडिय़ों के बीच बैठा था। इसका कुत्ता उससे एक हाथ के फ़ासले पर एक छोटी दीवार पर, जो शायद कभी संगे-मील रहा होगा, अपने सामने के पंजे जमाए खड़ा नीचे खाल की तरफ़ ताक रहा था। उसकी भैंगी आंखों में सारे शहर की दहश्त लिखी हुई थी। ख़ुद भिखारी के वजूद से एक अजीब तरह की दुर्गन्ध आ रही थी जैसे उसका जिस्म सड़ चुका हो।

''आप इस शहर के लिए नए नहीं हो,’’ भिखारी ने कहा। ''और मैं आपसे भीख नहीं ले सकता, कहीं मुझे आपके किसी सवाल का जवाब न देना पड़े।’’

''जिससे साबित होता है कि न सिर्फ़ तुम पढ़े-लिखे हो बल्कि तुम्हें मेरे तोते का भी पता है।’’

''हां,’’ भिखारी ने कहा। ''वह इसी तरह के हथकंडे लोगों पर आज़माया करती थी, मगर एक ही शहर में आप बरसों तक लोगों को एक ही तरह के फ़रेब नहीं दे सकते, एक न एक दिन आपका पोल खुल जाता है। उसे चाहिए था कि किसी दूसरे शहर में क़िस्मत आज़माती। मगर कोई ख़ास वजह उसे इस शहर को छोडऩे से रोके हुए थी। तो उसने अपना पेशा बदल लिया। उसने खाल के किनारे धंधा करना शुरू कर दिया। वह हर शाम इसी लौहे के पुल पर मल्लाहों की उम्मीद में आती मगर उसे ज़्यादातर ख़ाली हाथ लौटना पड़ता क्योंकि उसकी उम्र के कारण किसी गाहक को उसके अंदर क्या दिलचस्पी हो सकती थी। ख़ास तौर पर जब कमसिन लड़कियों की खेप की खेप चकलों के अंदर भर चुकी हो। रहा आपका तोता, तो वह कब का मर चुका है।’’

''तुम्हें मालूम नहीं, तुम जिस तोते की बात कर रहे हो वह कोई ऐसा वैसा तोता नहीं था,’’ मैंने कहा। ''तुम इतने सरसरी अंदाज़ में उसकी मौत का ज़िक्र नहीं कर सकते। वह ख़ुदा का भेजा हुआ ख़ास परिंदा था।’’ ''मुम्किन है वैसा ही रहा हो,’’ भिखारी ने अनुमोदन में सर हिलाया। ''मगर आप वापस क्यों नहीं लौट जाते? शायद आपको मालूम नहीं, आप अपने वक़्त से बाहर निकल आए हैं।’’ मैंने हैरत से उसकी तरफ़ देखा। ''तुम्हें इतना सब कुछ कैसे मालूम?’’

भिखारी अपने अजीबो-ग़रीब दांतों से मुस्कुरा रहा था।

''मैंने आपसे कहा था न कि मैं आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकता। फिर भी एक बात तो बता ही सकता हूं। बीस बरस पहले एक बूढ़ा आपकी तलाश में यहां आ निकला था।’’ हवा की एक ठंडी लहर से बचने के लिए भिखारी ने चीथड़ों को अपने गिर्द लपेटना शुरू कर दिया जिससे बिसांद और भी तेज़ हो गई। ''वह आपको लगभग तलाश कर चुका था कि शहर में दंगे फैल गए और लोगों ने उसे स्टेशन के प्लेटफ़ोर्म पर ज़िंदा जला डाला। इसके बाद भी वह सरकारी अस्पताल में कई दिनों तक ज़िंदा रहा। फिर उस पर दिल का दौरा पड़ा और उसके लोग उसे वापस उठा कर ले गए। और आप का तोता बीस साल तक ज़िंदा नहीं रह सकता। उसने ज़रूर पिंजड़े के अंदर जान दे दी होगी और वह धीरे-धीरे मिट्टी में बदल गया होगा।’’

''शायद तुम ठीक कह रहे हो...’’ मैं पिंजड़े के अंदर देख रहा था। ''कुछ ऐसा ही हुआ होगा। और उसकी मिट्टी को बरसात का पानी बहा कर या हवा उड़ा कर ले गई होगी। मगर तुम्हें उस औरत का पता तो मालूम होगा?’’ मैंने पूछा। ''ऐसी औरतों का कोई पता ठिकाना नहीं होता,’’ भिखारी ने जवाब दिया। मैंने उसे अर्से से देखा भी नहीं है। यूं भी, वह अब आपके किसी काम की नहीं, वह हर तरह के ट्यूमर से घर चुकी है। अगर वह ज़िंदा है तो किसी अस्पताल के अहाते में अपनी मौत का इंतिज़ार कर रही होगी। यह उसके इन-गिनत गुनाहों का नतीजा है।

 

                                                                6

तुम्हारे दादा की मौत की ख़बर मुझ पर बिजली बन कर गिर पड़ी। मैं पागल की तरह सड़कों पर दौड़ता फिरा। कुछ रास्ते और गलियां मेरी पहचान में भी आ गईं और फिर धीरे-धीरे मैं उनकी पहचान बन गया। मैंने वह पंचगोनी तारों वाला पिंजङ़ा कब खो दिया, मुझे इसका एहसास न था। ख़ुद में अच्छा-ख़ासा बूढ़ा हो चुका था। मैंने एक लंबे समय तक शहर में आवारागर्दी की। अपनी आवारागर्दी के दिनों में भूख मिटाने के लिए मुझे कई मासूम चोरियां भी करनी पड़ीं। एक बार पकड़ा भी गया मगर मेरी उम्र को देखते हुए लोगों को मुझ पर तरस आ गया और उन्होंने मुझे बूढ़ों के एक आश्रम में डाल दिया जहां से भागना आसान न था क्योंकि उसका पागल दरबान एक घंटे के लिए भी नहीं सोता था। मगर मैं भाग निकला। आख़िरकार वह दिन आ ही गया जब मैं ने तुम्हारे दादा की क़ब्र ढूंढ निकाली। ख़ुदा भला करे उन लोगों का जिन्होंने क़ब्रों पर कतबा लगाने की परंपरा डाली। शहर में आज के बरअक्स उन दिनों तुम मुसलमानों का एक ही क़ब्रिस्तान था, मगर तुम्हारे दादा को तुम्हारे लोगों ने तुम्हारे ख़ानदानी क़ब्रिस्तान में दफ़न किया था जिसके दो हाथ के फ़ासले पर उसका कुत्ता भी दफ़न था जिसे तुम्हारे दादा ने रमज़ान में रोज़ा रखने की आदत डलवाई थी। मगर तुम्हारे बड़े चचा ने, जिसने घर के तमाम साज़ो-सामान के अलावा इस इतनी बड़ी इमारत की छत से लगे शहतीरों से लेकर खिड़कियों दरवाज़ों की चौखट तक गिरवी रख दी थी, मुझे एक अलग ही वाक़िया सुनाया। उसके मुताबिक़ वह रेलवे के हादसे में मारा गया था। वह मालगाड़ी लेकर किसी सुनसान स्टेशन से गुज़र रहा था जब उसका इंजन बफ़र लाइन पर ग़लती से जा निकला जिसके अंत में ट्रेन को रोकने के लिए बनाई गई ऊंची ज़मीन से टकरा जाने के कारण उसका उबलता हुआ बोयलर फट कर तुम्हारे दादा पर आ गिरा जिससे वह झुलस कर मारा गया। यह स्टीम इंजन का ज़माना था जब पटरियां दस्ती बैरम के ज़रिए बदली जाती थीं और किसी ने शरारत से पटरी का रुख़ बफ़र लाइन की तरफ़ मोड़ दिया था।

बुद्धराम से मैंने उस तोते के बारे में दरयाफ़्त किया—क्या वाक़ई उसका कोई वजूद था? क्या वाक़ई वह ख़ुदा का भेजा हुआ परिंदा था जिसके अंदर इतनी ताक़त थी कि वह घड़ी के कांटों को तूफ़ानी रफ़्तार से चलने मजबूर कर दे, इतनी तेज़ी  से कि दहाइयां गुज़र जाएं और आदमी को पता न चले, और ख़ुद उसका अपना शहर उसके लिए अजनबी बन जाए, जैसा कि उनके साथ हुआ था?

''बिल्कुल,’’ वे हंसे। अब तक इस बूढ़े की हंसी में इसका बचपना झलकता था। ''अगर तुम्हारे दादा ज़िंदा होते तो इस बात की पुष्टि करते।’’

कुछ दिनों के बाद हमारे दादा का मकान हमारे हाथ से निकल गया। हम लोग बुद्धराम को उनके ट्रंक के साथ स्टेशन छोडऩे आए जिसकी मेहराबों से हमेशा की तरह चमगादड़ें लटक रही थीं। हिमालय की तराई में उन्हें एक कोहरे से ढके हुए शहर की याद थी जहां अब भी उनके कुछ रिश्तेदार ज़िंदा थे जो उन्हें पहचान सकते थे।

''मेरी समझ में नहीं आता, मैं वहां क्यों जा रहा हूं?’’ बुद्धराम ने कहा। हम लोग लौहे का ट्रंक सीट के नीचे रखकर अभी-अभी बाहर आए थे और उनकी खिड़की के सामने खड़े थे। ''अगर तुम लोग कुछ और दिन इंतिज़ार करते तो अपने दादा की ज़मीन में ईसाई रस्मो-रिवाज के मुताबिक़ मुझे दफ़न कर सकते थे। आख़िरकार उसमें एक कुत्ता भी दफ़न है। मैं तो खैर एक ईसाई हूं।’’

''हम अदालत के हुक्म के सामने मजबूर हैं,’’ मैंने अपनी मजबूरी का ज़ाहिर की। ''वह मकान अब हमारा नहीं रहा।’’

ट्रेन चल चुकी थी जब बुद्धराम ने खिड़की से हाथ निकाल कर चिल्लाते हुए कहा, ''एक दिन मैं वापस आऊंगा, उस औरत और उस तोते की तलाश में। उस दिन तुम्हारे दादा के बारे में मैं और भी बहुत सारी जानकारी दूँगा।’’

ऐसा नहीं था कि मैंने पूरी तरह उनकी बात का भरोसा किया हो, मगर वह दिन और आज का दिन, मुझे अब भी उस ट्रेन का इंतिज़ार है। आज कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण मैं इस शहर का बाशिंदा बन चुका हूं जहां एक औरत और उसके तोते की अधूरी कहानी के साथ-साथ मेरे दादा की ज़िंदगी के अन-गिनत वाक़ियात दफ़न हैं जिनका इल्म सिर्फ़ बुद्धराम को है।

''बुद्धराम,’’ मैं दादा की जेबी घड़ी को जिसमें वक़्त हमेशा के लिए रुक चुका था, उसकी ज़ंजीर से अपने सामने लटका कर उसके सात के हिन्दसे को देख रहा था, ''जब तक तुम लौट कर नहीं आते, न वह तोता मर सकता है, न वह औरत, और न ही तुम मर सकते हो। वक़्त का यही फैसला है!’’

लिप्यंतर : अजमल कमाल

 

पुरुलिया पश्चिमी बंगाल में जन्मे सिद्दीक़ आलम उर्दू के कथाकार हैं। उनके उपन्यास चार्लक की खेती, चीनी कोठी और सालिहा-सालिहा प्रकाशित है। पहला कहानी संग्रह लैम्प जलाने वाले का  हाल मरे हुए आदमी की लालटेन प्रकाशित हुआ। दक्षिण भाषी लेखक जे.एम. कोट्मी के उपन्यास 'वेटिंग फॉर द बारबेरयन्स’ के बाद एक पूरावक्ती-लेखक के रूप में सिद्दीक़ आलम कलकत्ते में अपना उत्तराद्र्ध व्यतीत कर रहे हैं।

 


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