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अगस्त : 2019

ऐसे होते थे कन्हैयालाल कपूर

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष / उर्दू रजिस्टर

 

''...मज़हब बेवकूफों के लिए है। क्योंकि किसी भी मज़हब में कोई ऐसी बात नहीं बताई जाती जिसे एक ज़हीन आदमी पहले से न जानता हो। इसलिए ज़हानत मज़हब की मुहताज कभी नहीं रही है। हां, बेवकूफों को मज़हब की तौसत से बड़ी कामयाबी से फांसा जा सकता है।’’

 

 

 

 

जनाब मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब फ़ रमा गए हैं कि अदबी जलसों में अक्सर तारुफ़  के नाम पर तारीफ़ी कलाम पढ़े जाते हैं। इन तारीफ़ों में हक़ीक़त से ज़्यादा ख़ुशामद होती है। लेकिन तंज़-ओ-मज़ाह के मैदान के कसरती जांबाज़ों की कहानी इससे ज़रा उलट ही होती है। और इसकी वजह ख़ुद वह मज़ाहनिगार होता है जो किस्सा अपनी हाज़िर और ग़ैर-हाज़िर, ज़ाहिर और पोशीदा बुराइयों से शुरू करता है। कन्हैयालाल कपूर तो इस खेल के उस्ताद थे। वो तरह-तरह से अपने अंदर-बाहर की ख़ामियों का मजमा सा लगाकर सरे बाज़ार उसका होक्का लगाते थे।

''नाम कन्हैयालाल कपूर, मगर बहुत कम अहबाब मुझे इस नाम की रिआयत से जानते हैं। क़द छह फुट, अहल-ए-ज़बान सा दिल-ओ-दिमाग़ तो नहीं, अलबता जिस्म ज़रूर रखता हूं। चेहरे के नकूश में सिवाय नाक के और कोई चीज़ उभरी हुई मालूम नहीं होती। मुख्तसर ये कि हुलिया जनाब मजाज़ लखनवी से मिलता-जुलता है। सन विलादत जून 1910 है। गर्दिश-ए-फ़ लक ने एक जगह चैन से बैठने नहीं दिया, इसलिए वतूक़ से नहीं कह सकता कि मेरा मुस्तक़ल पता क्या है, क्या होगा।’’ (''संग-ओ-ख़िश्त’’ के प्रस्तावना से)

छह फुट से निकलता क़द, सींक को ललकारता जिस्म, लंबी-तीखी नाक, उस नाक पर रखा एक चश्मा, नाक के ठीक नीचे भरी-भरी मूंछें रखने वाले इस शख्स के बारे में हंसराज 'रहबर’ कहते हैं - '...सिगरेट हाथ में थामे जब वह मुस्कराता था तो ''गुलीवर्स ट्रेवल्स’ का लेखक (जोनाथन) स्विफ्ट दिखाई पड़ता था।’’ कन्हैयालाल कपूर की एक और ख़ूबी उन्हीं के लफ्ज़ों में - ''उर्दू में लिखता हूं, पंजाबी बोलता हूं और अंग्रेज़ी पढ़ाता हूं।’’

कन्हैयालाल कपूर के पिता लाला हरी राम, ज़िला लायलपुर के एक गांव - चक 498 - के पटवारी थे। पैदाइश की तारीख 27 जून 1910 को मान लिया गया है, गो वे ख़ुद भी कभी-कभार 1 नवम्बर 1911 को इस सिलसिले में याद कर लेते थे। चक 498 नामी इस गांव में बलूच पठानों की बड़ी आबादी थी। इन बलूचों के किरदार का कन्हैयालाल कपूर पर बड़ा गहरा असर उम्र भर बना रहा। ''बलूच निहायत नेक और अल्लाह वाले लोग थे। मैंने उनसे ज़्यादा ख़ुदा तरस इंसान आज तक नहीं देखे। आम तौर पर वह किसी की दिल-आज़ारी (सताना/परेशान करना) नहीं करते थे। उनमे से कोई नौजवान जब बुराई की तरफ़  रािगब होता तो बूढ़े उसे समझाते, 'ख़ुदा और रसूल को क्या मुंह दिखाओगे।’ यह महज़ उनका तकिया कलाम ही नहीं था, बल्कि उसूल-ए-ज़िन्दगी भी था। उन्हीं अनपढ़ बलूचों ने मुझे इंसानियत का पहला सबक दिया।’’ (कन्हैयालाल कपूर - नक़ूश - आप बीती

कपूर साहब की शुरूआती तालीम उस दौर के तमाम बच्चों की ही तरह गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। उस ज़माने में अभी फ़ारसी का बोलबाला कायम था, सो स्कूल में फ़ारसी पढऩे का मौका मिला। फ़ारसी की वजह से उसी कच्ची उम्र में ''गुलिस्तान’’ और ''बोस्तां’’ पढऩे का मौका मिल गया।

स्कूल की शुरूआती पढ़ाई के बाद अगला पड़ाव था तहसील कमालिया का गवर्नमेंट हाई स्कूल। यह तहसील कमालिया होती है मंटो की अमर कहानी से पहचान पाने वाले जिले टोबा टेक सिंह में। 1928 में इसी स्कूल से मेट्रिक पास होकर निकले। डी.ए.वी कालेज लाहौर से बी.ए पास किया तो संस्कृत और अंग्रेज़ी जैसे विषयों में पूरी यूनीवर्सिटी में अव्वल पाए गए। आख़िर एम.ए. करने की बारी आई तो उन्होने अपने प्रिय विषय अंग्रेज़ी को चुन लिया। इस इम्तिहान के लिए दाख़िला लिया गवर्नमेंट कालेज, लाहौर में। किस्मत का खेल कि कपूर को यहां बतौर उस्ताद मिले मशहूर तंज़-ओ-मज़ाह निगार पितरस बुख़ारी।

एम.ए में दाख़िल और बुख़ारी से अपनी पहली मुलाकात का निहायत दिलचस्प बयान कन्हैयालाल कपूर ने अपने एक मज़मून। ''पीर-ओ-मुर्शिद’’ में इस तरह किया है।

''पितरस मेरे उस्ताद थे। उनसे पहली मुलाकात तब हुई जब गर्वनमेंट कलेज लाहौर में एम.ए. इंग्लिश में दाख़िला लेने के लिए उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ। इंटरव्यू बोर्ड तीन अराकीन पर मुश्तमिल था। प्रोफ़ेसर डिकंसन (सदर शो’बा-ए-अंग्रेज़ी) प्रोफ़ेसर मदन गोपाल सिंह और प्रोफ़ेसर ए.एस.बुख़ारी। घर से ख़ूब तैयार होकर गए थे कि सवालात का करारा जवाब देकर बोर्ड को मरर्ऊब करने की कोशिश करेंगे (रौब गालिब करना)।  बुख़ारी साहब ने ऐसे सवाल किए कि पसीने छूटने लगे। जूँ ही कमरे में दाख़िल होकर आदाब बजा लाए उन्होंने ख़ाकसार पर एक सरसरी निगाह डालते हुए पूछा, ''आप हमेशा इतने ही लंबे नज़र आते हैं या आज ख़ास एहतिमाम करके आए हैं?’’ लाजवाब होकर उनके मुँह की तरफ़  देखने लगे।

''आप शायर हैं।’’

''जी नहीं।’’

''देखने में तो आप मजनूं लाहौरी नज़र आते हैं।’’

प्रोफ़ेसर मदन गोपाल सिंह को मुख़ातिब करते हुए फ़ रमाया, ''बख़ुदा इनकी शक्ल ख़तरनाक हद तक मजनूं गोरखपुरी से मिलती है। फिर मेरी जानिब मुतवज्जे हुए। आप कभी मजनूँ गोरखपुरी से मिले हैं?’’

''जी नहीं।’’

''ज़रूर मिलिए। वो आपके हम क़ाफ़िया हैं।’’

फिर पूछा, ''ये आपके सर्टिफ़िकेट में लिखा है कि आप किताबी कीड़े हैं। जानते हो, किताबी कीड़ा किसे कहते हैं?’’

''जी हां,जो श$ख्स हर वक़्त मुताले में मुनहमिक रहता है।’’

''किताबी कीड़ा वो होता है, जो किताब के बजाए क़ारी को खा जाता है।’’

''प्रोफ़ेसर डिकंसन ने बुख़ारी साहब से दरयाफ्त किया। इनके बी.ए. में कितने नंबर आए थे?’’

''उन्होंने मेरा एक सर्टिफ़िकेट पढ़ते हुए जवाब दिया, 329, फ़ स्र्ट डिवीज़न।’’

''तो फिर क्या ख़याल है?’’ प्रोफ़ेसर मदन गोपाल सिंह ने पूछा, बुख़ारी साहब ने मुस्कुराते हुए कहा, ''दाख़िल करना ही पड़ेगा। जो काम हमसे उम्र भर न हो सका वो इन्होंने कर दिया।’’

प्रोफ़ेसर डिकंसन ने चौंक कर पूछा, ''कौन सा काम बुख़ारी साहब?’’

सिगरेट का कश लगाते हुए फ़ रमाया, ''यही बी.ए.में फस्र्ट डिवीज़न लेने का।’’

दूसरे दिन क्लास-रूम में गए। बुख़ारी साहब का उन दिनों आलम-ए-शबाब था, पैंतीस साल के क़रीब उम्र होगी। दराज़ क़द घनी भंवें। सुर्ख-व-सफ़ेद रंगत। बड़ी-बड़ी रौशन आँखें। लंबोतरा चेहरा। शक्ल-व-शबाहत के ए’तिबार से वो अफ़ गान या ईरानी दिखाई देते थे। रेशमी गाऊन पहनकर क्लासरूम में आते थे। हाज़िरी लिए बग़ैर लेक्चर शुरू किया करते। उ’मूमन लेक्चर से पहले अपने अज़ीज़ शागिर्दों से दो एक चोंचें ज़रूर लड़ाया करते थे—बलराज साहनी (मशहूर हिंदोस्तानी अदाकार, उनका अज़ीज़ तरीन शागिर्द था) अक्सर एक-आध फ़िक़रा उस पर कसते थे। ''क्या बात है साहनी, आज कुछ खोए-खोए नज़र आते हो। जानते हो जब कोई नौजवान उदास रहता है तो उसकी उदासी की सिर्फ दो वजहें होती हैं। या वो इश्क़ फ़ रमाने की हिमाक़त कर रहा है या उसका बटुवा ख़ाली है।’’

1931 में कन्हैयालाल कपूर की ज़िंदगी में वह हुआ जो ज़माने के हर तेज़ी से आगे बढ़ते नौजवान के साथ होता है - उनकी शादी हो गई। बीवी का नाम - पुष्पावती। मियां-बीवी के तालुक़त इस क़दर ख़ुशनुमा रहे कि बे-रोक-टोक सात बच्चे, चार लड़कियां और तीन लड़के, भी पैदा हुए।

शादी के वक़्त भी कालेज छूटा न था। उस वक़्त भी स्टूडेंट ही थे। 1934 में तब जाकर कालेज से रिश्ता टूटा जब उन्होने एम.ए. पास कर लिया। लेकिन यह रिश्ता शायद एक अटूट रिश्ता था जो एक बार टूटकर भी फिर से जुड़ गया। हुआ यूं कि एम.ए. कर लेने के बाद किसी अच्छी नौकरी की तलाश में डिग्रियों की फ़ाईल बगल में दाबे-दाबे दफ्तरों के चक्कर लगा डाले मगर सब बेसूद। आख़िर काम मिला भी तो डी.ए.वी कालेज में। टीचर का। तनख़्वाह पूरे पिचहतर रुपए। कुछ अर्से बाद ही छंटनी का शिकार हुए और पिचहतर रुपए माहाना का नुक्सान शुरू हो गया। 

इसी दौर में इतिफ़ाक़न कन्हैयालाल कपूर की मुलाक़ात हुई कृष्ण चंदर से। इस मुलाक़ात ने कपूर साहब की ज़िदगी को एक नया मोड़ दे दिया।

''अब मैने प्राईवेट ट्यूशन को ज़रिया-ए-माश (आजीविका का साधन) बनाया, और एक सस्ते बोर्डिंग हाऊस (हिंदू होटल, लाहौर) में रहने लगा। यहां निहायत ड्रामाई हालात में कृष्ण चंदर से मुलाक़ात हुई। एक दिन मैं एक सर्टीफ़िकेट लेने के लिए अपने प्रोफ़ेसर डिकंस, सदर शोबा-ए-अंग्रेज़ी (विभागाध्यक्ष अंग्रेज़ी विभाग) गवरन्मेंट कालेज, लाहौर की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। उन्होने फ़ रमाया, ''मैं किसी शख्स की मौजूदगी में सर्टीफ़िकेट नहीं लिख सकता। तुम लाइब्रेरी में जाकर बैठो और आधे घंटे के बाद दुबारा आओ।

मैं वक़्त काटने के लिए रिसाला 'हुमायूं’ का ताज़ा शुमारा पढऩे लगा। इसमे कृष्ण चंदर का एक शाया शुदा मज़मून - लाहौर से बहराम गल तक - को पढऩे के बाद मुझे महसूस हुआ कि आसमान-ए-अदब पर एक नया सितारा तुलू (उदय) हुआ है। जब मैं सर्टीफ़िकेट लेकर हिंदू होटल पहुंचा, तो मैने इस मज़मून और अपने हम-साए (पड़ौसी) शिवराम बतरा से ज़िक्र किया। वह हंसकर कहने लगे, ''अरे यह वही तो कृष्ण चंदर है जो आपके साथ वाले कमरे में रिहाइश पज़ीर है।’’

बतरा साहब ने मेरा तारुफ़  क़ष्ण चंदर से कराया और हम दोनो बहुत जल्द एक-दूसरे से खुल गए। अक्सर हम इल्मी और अदबी मौज़ूआत पर बहस किया करते। मैं चूंकि बातें बनाने में तेज़ वाके (साबित) हुआ था इसलिए अमूमन कृष्ण चंदर को शिकस्त तस्लीम करनी पड़ती। एक रोज़ जब हम में गरमा-गरम बहस हो रही थी, उसने मुझसे कहा तुम तबअन और फ़ितरतन (स्वाभाविक रूप से) तंज़ निगार (व्यंग्यकार) हो लेकिन अफ़ सोस कि अपना सारा वक़्त इधर-उधर की बकवास में ज़ाया करते रहते हो। यही बकवास अगर मारिज़-ए-तहरीर (लिखित रूप में) में आ जाए तो तंज़ कहलाए।’’

पितरस बुख़ारी के बाद कृष्ण चंदर दूसरे इंसान थे जिन्होने कन्हैयालाल कपूर में हास्य-व्यंग की प्रतिभा देखी और लिखने की सलाह दी। इस बार कन्हैयालाल कपूर ने भी बात को ज़रा संजीदगी से लिया और लिखना शुरू कर दिया। लेकिन इन साहब की हरकत देखिए कि जिस इंसान ने लिखने के लिए प्रेरित किया उसी को अपनी कलम का पहला निशाना बनाया। उन्होने कृष्ण चंदर की एक कहानी ''यरक़ान’’ (पीलिया) पर पैरोडी ''ख़फ़ क़ान’’ (दिल की बीमारी) लिख मारी। इस पैरोडी को कृष्ण चंदर ने तो ख़ूब पसंद किया लेकिन लिखने वाले का ज़मीर जाग गया। उसे अहसास हुआ कि उसने पैरोडी के बहाने कृष्ण चंदर पर कुछ गहरी चोटें की है, जो नामुनासिब हैं। लिहाज़ा उसे दफ्न कर दिया गया।

कृष्ण चंदर का एक कौल भी है कन्हैयालाल कपूर के बारे में - ''कन्हैयालाल हर उस चीज़ का मज़ाक़ उड़ाता है जो ज़मीन के ऊपर और आसमान के नीचे है।’’

जिस वक़्त कन्हैयालाल कपूर इल्म-ओ-अदब की राहों में अपना रास्ता तलाश रहे थे, उसी वक़्त उन्हें डी.ए.वी कालेज से एक बार फिर नौकरी का बुलावा आ गया। इस बार जो यहां उन्होने अंग्रेज़ी पढ़ाने का सिलसिला शुरू किया तो यह मुल्क के बंटवारे के बावजूद कायम रहा।

पहली कोशिश को दफ्न कर देने के बाद कन्हैयालाल कपूर का दूसरा मज़मून 'अख़बार बीनी’, तीसरा ''चीनी शाइरी’’ भी छप गए। ''चीनी शाइरी’’ 1938 में लाहौर से प्रकाशित 'अदब-ए-लतीफ़ ‘ के सालनामे (वार्षिकी) में प्रकाशित हुआ था। इस मज़मून ने अदबी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खेंचा। इसकी ख़ास वजह थी इसका अंदाज़, जो उस दौर के लिहाज़ से अनोखा था।

''चीनी शाइरी पर कलम उठाने से पहले मैं आप पर वाज़ेह (स्पष्ट) कर देना चाहता हूं कि मैं चीनी नहीं जानता। मगर इस बात का मुझे चंदां (लेश-मात्र) अफ़ सोस नहीं। क्योंकि अगर मैं चीनी नहीं जानता तो आप कब जानते हैं। चीनी लिटरेचर, चीनी तहज़ीब से मेरी वाक़फ़ियत सिर्फ दो चीज़ों की वसातत (ज़रिए) से हुई है। इनमे से एक तो है चीनी का प्याला, जो मैने पिछले साल आल इंडिया नुमाइश से ख़रीदा था और दूसरी है एक चीनी तस्वीर। जिसमे एक चीनी शहज़ादी (मैं उसे शहज़ादी ही कहूंगा) एक कुत्ते की तरफ़  आंखें फाड़-फाड़ कर देख रही है। बहरहाल आपको इन चीज़ों से क्या मतलब? आप तो यह जानना चाहते हैं कि चीन का सबसे बड़ा शाइर कौन है। और चीन में इस वक़्त कितने शाइर हैं। तो लीजिए चीन का सबसे बड़ा शाइर शीन शे शक है और चीन में इस वक़्त हज़ारों शाइर हैं। बिला-मुवालगा चीन का बच्चा-बच्चा शेर कहता है और समझता है। अगर मैं इन तमाम शाइरों के नाम लिख दूं तो आप यक़ीनन हैरान हो जाएंगे।’’

कन्हैयालाल कपूर को उनकी असल पहचान मिली ''ग़ालिब तरक़ी पसंद शुअरा की मजलिस में।’’ (इस मज़मून का नाम बाद में बदलकर ''ग़ालिब जदीद शुअरा की मजलिस में’’ कर दिया था।) 1942 के ''अदब-ए-लतीफ़ ‘‘ के एक अंक में प्रकाशित इस मज़मून ने एक हंगामा  सा बरपा कर दिया। इस मज़मून का रंग निराला था। इसमे रिवायती नस्र है, ड्रामा है और उसी के साथ एक ख़ास असर पैदा करने की गरज़ से पैरोडी का भी ख़ूबसूरत इस्तेमाल भी है। उस दौर के लिहाज़ से यह एक क़ाबिले-तहसीन कारनामा था। तकरीबन 80 बरस पहले लिखे गए इस मज़मून में जद्दीद शाइरी और शाइरों में पनपने वाली जिन घातक प्रवृतियों को निशाने पर लिया गया है, दुर्भाग्य से आज इन्हीं प्रवृतियों ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। इस जगह उर्दू और हिंदी की हालत एकदम यकसां है।

इस मज़मून के चंद नमूने हाज़िर हैं। पहला मंज़र है कि जद्दीद शाइरों के जलसे में ग़ालिब को जन्नत से ख़ास दावत देकर बुलाया गया है। जन्नत के हालात को लेकर शुरूआती बातचीत के बाद शुरू होता है मुशाइरा। आग़ाज़ के लिए ग़ालिब से अपनी कोई ग़ज़ल सुनाने की फ़ रमाइश होती है।

''ग़ालिब:- बहुत अच्छा साहिब तो ग़ज़ल सुनिएगा।

बाक़ी शोअ’रा:- इरशाद।

ग़ालिब:- अर्ज़ किया है;

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो

हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

(बाक़ी शोअ’रा हंसते हैं। मिर्ज़ा हैरान हो कर उनकी जानिब देखते हैं।)

ग़ालिब:- जी साहिब ये क्या हरकत है। न दाद न तहसीन। इस बे मौक़ा खंदा ज़नी (हंसी) का मतलब?

एक शाइर:- माफ़  कीजिए मिर्ज़ा, हमें ये शेर कुछ बेमानी सा मालूम होता है।

ग़ालिब:- बेमानी?

हीराजी:- देखिए न मिर्ज़ा आप फ़ रमाते हैं ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो। अगर मतलब कुछ नहीं तो ख़त लिखने का फ़ायदा ही क्या। और अगर आप सिर्फ माशूक़ के नाम के ही आशिक़हैं तो तीन पैसे का ख़त बर्बाद करना ही क्या ज़रूर, सादा काग़ज़ पर उसका नाम लिख लीजिए।

डाक्टर कुर्बान हुसैन ख़ालिस:- मेरे ख्याल में अगर ये शेर इस तरह लिखा जाये तो ज़्यादा मौज़ूं है;

ख़त लिखेंगे क्यों कि छुट्टी है हमें दफ्तर से आज

और चाहे भेजना हमको पड़े बैरंग ही

फिर भी तुमको ख़त लिखेंगे हम ज़रूर

चाहे मतलब कुछ न हो।

जिस तरह से मेरी इक-इक नज़्म का

कुछ भी तो मतलब नहीं।

ख़त लिखेंगे क्योंकि उलफ़ त है हमें

मेरा मतलब है मुहब्बत है हमें

यानी आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

ग़ालिब:- ये तो इस तरह मालूम होता है जैसे आप मेरे इस शेर की तर्जुमानी कर रहे हैं - 

बक रहा हूं जुनूँ में क्या-क्या

कुछ ना समझे ख़ुदा करे कोई

हीराजी:- जुनूँ! जुनूँ के मुतअल्लिक़ मिर्ज़ा मैंने कुछ अर्ज़ किया है अगर इजाज़त हो तो कहूं।

ग़ालिब:- हां, हां। बड़े शौक़ से।

 

हीराजी:

जुनूँ हुआ जुनूँ हुआ

मगर कहां जुनूँ हुआ

कहां हुआ वो कब हुआ

अभी हुआ या अब हुआ

नहीं हूं मैं ये जानता

ग़ालिब:- (हंसी को रोकते हुए) सुब्हान-अल्लाह क्या बरजस्ता अशआ’र हैं।

मीम नू अरशद:- अब मिर्ज़ा, ग़ज़ल का दूसरा शेर फ़ रमाईए।

ग़ालिब:- मैं अब मक़ता ही अर्ज़ करूंगा। कहा है;

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

वर्ना हम भी आदमी थे काम के

अबदुल हई निगाह:- गुस्ताखी माफ़  मिर्ज़ा। अगर इस शेर का पहला मिसरा इस तरह लिखा जाता तो एक बात पैदा हो जाती।

ग़ालिब:- किस तरह?

अब्दुल हई निगाह: - 

इश्क़ ने, हां-हां तुम्हारे इश्क़ ने

इश्क़ ने समझे? तुम्हारे इश्क़ ने

मुझको निकम्मा कर दिया

अब ना उठ सकता हूं मैं

और चल तो सकता ही नहीं

जाने क्या बकता हूं मैं

यानी निकम्मा कर दिया

इतना तुम्हारे इश्क़ ने

गिरता हूं और उठता हूं मैं

उठता हूं और गिरता हूं मैं

यानी तुम्हारे इश्क़ ने

इतना निकम्मा कर दिया।

ग़ालिब:- (तंज़न) बहुत ख़ूब! भई ग़ज़ब कर दिया।

ग़ैज़ अहमद ग़ैज़:- और दूसरा मिसरा इस तरह लिखा जा सकता था।

जब तक न मुझको इश्क़ था

तब तक मुझे कुछ होश था

सब काम कर सकता था मैं

और दिल में मेरे जोश था

उस वक़्त था मैं आदमी

और आदमी था काम का

लेकिन तुम्हारे इश्क़ ने

मुझको निकम्मा कर दिया।’’

मुशाइरे में बिना रदीफ़  और बिना काफ़िया की एक आज़ाद नज़्म पढ़ी जाती है जिसे सुनकर ग़ालिब बेचैन हो जाते हैं और सवाल पूछ बैठते हैं।

''ग़ालिब:- मगर आपको क़ाफ़िया और रदीफ़  तर्क करने की ज़रूरत क्यों पेश आई? 

रक़ीक़ अहमद ख़ूगर:- उसकी वजह मग़रिबी शोअरा का ततब्बो (अनुसरण)  नहीं बल्कि हमारी तबीयत का फ़ित्री मिलान है जो ज़िंदगी के दूसरे शोबों की तरह शेर-ओ-अदब में भी आज़ादी का जूया (तलाश) है। इसके अलावा दौर-ए-जदीद की रूह इंक़लाब, कश्मकश तहक़ीक़, तजस्सुस (जिज्ञासा), तअक्कुल परस्ती और जद-ओ-जहद है।

माहौल की इस तब्दीली का असर अदब पर हुआ है। और मेरे इस नुक्ते को ठाकरे  ने भी अपनी किताब 'वेनिटी फेयर’ में तस्लीम किया है। चुनांचे इसीलिए हमने महसूस किया कि क़दीम शाइरी नािकस होने के इलावा रूह में वो लतीफ़ कैफ़ीयत पैदा नहीं कर सकती जो मिसाल के तौर पर डाक्टर ख़ालिस की शाइरी का जौहर है। क़दीम शोअरा और जदीद शोअरा के माहौल में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़ र्क है, क़दीम शोअरा बकौल मौलाना आज़ाद हुस्न-ओ-इश्क़ की हदूद से बाहर न निकल सके और हम जिन मैदानों में घोड़े दौड़ा रहे हैं न उनकी वुस्अत (विस्तार) की इंतिहा है और न उनके अजाइब-ओ-लताइफ़  का शुमार।

ग़ालिब:- मैं आपका मतलब नहीं समझा।

मीम नू अरशद:- ख़ूगर साहिब ये कहना चाहते हैं कि हम एक नई दुनिया में रहते हैं। ये रडियो, हवाई जहाज़ और धमाके से फटने वाले बमों की दुनिया है। ये भूख, बेकारी, इंकिलाब और आज़ादी की दुनिया है। इस दुनिया में रह कर हम अपना वक़्त हुस्न-ओ-इश्क़, गुल-ओ-बुलबुल, शीरीं फ़ रहाद के अफ्सानों में ज़ाए नहीं कर सकते।’’

इस एक मज़मून की मक़बूलियत का आलम यह रहा कि इसे तब से लेकर अब तक अनगिनत रिसालों में अनगिनत बार छापा गया है। इस एक कारनामे के बाद कन्हैयालाल कपूर तंज़-ओ-मज़ाह की दुनिया में एक ऐसा मक़ाम हासिल करते चलते गए, कि उस दौर से इस दौर तक, उन्हें वही मकाम-ए-आला हासिल है, जिस मक़ाम तक पहुंचने की तमन्ना में कई सारे मज़ाहनिगार इस दुनिया-ए-फ़ानी में आए और चले भी गए।

''कन्हैयालाल कपूर को जब भी देखता हूं तो कुतुबमीनार की याद आती है और जब कुतुबमीनार को देखता हूं तो आप जान गए होंगे कि किस की याद आती होगी। चूंकि दिल्ली में ऐसी जगह रहता हूं जहां से हरदम कुतुबमीनार से आंखें चार होती रहती हैं इसीलिए कपूर साहिब बे-तहाशा लगातार और बिना कोशिश के याद आते रहते हैं।’’ (प्रसिद्ध व्यंग्यकार मुज्तबा हुसैन)

कपूर साहब को अपना पीर-ओ-मुर्शिद मनने वालों में एक और नाम शामिल है, जो अपने आप में एक बेमिसाल हस्ती माने जाते हैं। इस हस्ती का नाम है तख़ल्लुस भोपाली। उर्दू अदब में तंज़-ओ-मज़ाह का जब-जब नाम आता है, आपका नाम बड़े अदब से याद किया जाता है। ख़ुसूसी भोपाली ज़बान अगर आज भी कुछ-कुछ बची हुई है और याद की जाती है तो इसका सेहरा भी तख़ल्लुस भोपाली के सर है कि उन्होने पिछली सदी की पांचवी-छठवीं दहाई में इस ख़ास भोपाली लहज़े में ''पानदान वाली ख़ाला’’ और ''ग़फूर मियां’’ जैसे नाटक लिखे हैं। आपने ''अवध पंच’’ की तर्ज़ पर उसी दौर में ''भोपाल पंच’’ के नाम से हास्य-व्यंग्य की पत्रिका शुरू की थी।

तख़ल्लुस भोपाली ने कन्हैयालाल कपूर को ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करते हुए एक मज़मून लिखा था - ''जय कन्हैयालाल की!’’ यह मज़मून ''अवध पंच’’ के कन्हैयालाल कपूर विशेषांक, जो कि 1980 में प्रकाशित हुआ था, में छपा था। लिखते हैं :-

''मैं ज़िंदगी भर सिर्फ दो मौकों पर हंसता रहा - अहबाब में बैठकर ज़ाती लतीफ़ों पर और तन्हाई की सूरत में कन्हैयालाल कपूर की तख्लीक़ात पर। इसके इलावा न तो ख़ुद कभी हंसता और न किसी की हंसी को बरदाश्त ही करता। ग़ैर-मुल्की वाल्टेयर या स्विफ्ट या डिकंस जैसे तंज़-मज़ाह निगारों को भी हत्तुल-वसा (जहां तक मुमकिन हो) ऐसी कोई ख़ास लिफ्ट नहीं दिया करता। बल्कि उनके किसी लतीफ़े या मज़ाह पर कहकहा लगाना गोया कौमी नुक्सान समझता हूं। दर असल मैं उस तंज़-ज़राफ़ त का क़ाइल हूं जिसने ब-राह-ए-रास (सीधे-सीधे) अपनी मादरी ज़बान में जनम लिया हो।

यही वजह है कि मैं कपूर की तंज़-ओ-ज़राफ़ त को पसंद करता हूं। क्योंकि कन्हैयालाल का न कोई तंज़ महाजिर होता है और न कोई ज़राफ़ त शरणार्थी। बल्कि उनकी तख्लीक़ात में तंज़-ओ-मज़ाह की जुमला कायनात तवाज़ाद (ओरीजनल) होती है। उनके तंज़-ओ-मज़ाह में ओरीजनलिटी और बेसाख्तगी है। हर तंज़ में तेज़ी, तल्खी और गहराई है। और हर मज़ाह में बला की नफ़ासत और शगु$फ्तगी। चुनांचे मौसूफ़  की बेपनाह फ़ नकारियों से तंग आकर मैंने अरसा हुआ आपको (कन्हैयालाल कपूर को) अपना जाइज़ पीर-ओ-मुर्शिद तस्लीम कर लिया है। यह दूसरी बात है कि पीर-ओ-मुर्शिद को मेरी इस इस्लामी कुरबानी और ग़ैर-मुतासिबाना (सिक्यूलर) ईसार (त्याग) का कोई इल्म न हो। खैर नेकी कर दरिया में डाल।’’

1942 में ही कन्हैयालाल कपूर की पहली किताब ''संग-ओ-ख़िश्त’’ मंज़र-ए-आम पर आई और लोकप्रिय हुई। उसके बाद ''चंग-ओ-रबाब’’(44), ''शीशा-ओ-तीशा’’(45), ''नोक-ओ-नश्तर’’(49), ''बाल-ओ-पर’’(54), ''नरम-गरम’’(57), ''गर्द-ए-कारवां’’(60), ''दलील-ए-सहर’’ और ''गुस्ताख़ियां’’जैसी किताबें भी प्रकाशित हुई हैं।

कन्हैयालाल कपूर ने कालम नवीसी के ज़रिए से समाज के आम तबके से राह-ओ-रस्म कायम की। ''हिंद समाचार’’ में प्रकाशित होने वाला यह कालम ''मैं देखता चला गया’’, आम इंसानी मसलों को हल्के-फुल्के अंदाज़ में उठाकर उनकी तरफ़  ध्यान खींचने की एक बेहद कामयाब कोशिश थी। इस बारे में फ़िक्र तौंसवी लिखते हैं;

''यह कालम नहीं था - यह अवाम से ब-राह-रास्ता ख़िताब था, जो मु$ख्तलिफ़  और मुतज़ाद चक्कियों में पिस रहे थे। अवाम जो इस सितमगरी पर उफ़  तक नहीं कर सकते थे, कहकहा आफ़ रीन कपूर ने उन्हें उफ़  करने का दरस दिया।’’

कन्हैयालाल कपूर के कालम दिलचस्प बयानी से भरपूर होते थे। पहले जुमले से ही वो अपने पाठक को अपने हमराह कर लेते थे। उस पर उनका हुनर यह कि वो हमारी दुनिया के मीर, ग़ालिब और मोमिन जैसी बड़ी अदबी हस्तियों को ज़रिया बनाकर बात को असरदार और रंगीन बना देते थे। उनकी याद्दाश्त में हज़ारों शेर थे, जिनका भरपूर इस्तेमाल करके माहौल भी बना देते थे।

पैरोडी के तो वे सच्चे उस्ताद ही थे। इनकी इस उस्तादी से न तो ग़ालिब बच पाए और न ही $फैज़ और मजाज़। फैज़ की मशहूर नज़्म 'तन्हाई’ को क्या शक्ल दी, ज़रा $गौर फ़ रमाएं।

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं

राह रू होगा कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार

लडख़ड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़

सो गए रास्ते तक-तक के हर इक राह गुज़र

अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए नए कदमों के सुराग़

गुल करो शमें, बड़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़

अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ्फ़ ल कर लो

अब यहां कोई नहीं कोई नहीं आएगा 

(फैज़ अहमद 'फैज़’ की मूल रचना)

फ़ोन पर आया दिल-ए-ज़ार, नहीं फ़ोन नहीं

साईकल होगा, कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, उतरने लगा खंबों का बुख़ार

कम्पनी बाग़ में लंगड़ाने लगे सर्द चराग़

थक गया रात चिला के हर चौकीदार

गुल करो दामन-ए-अफ़्सुर्दा के बोसीदा चराग़

याद आता है मुझे सुरमा दंबाल दार

अपने बेख़्वाब घरोंदे ही को वापस लौटो

अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे ने कन्हैयालाल कपूर के दिल और दिमाग़ दोनो पर बड़ा गहरा असर डाला। कन्हैयालाल कपूर ने अगर ज़िंदगी में कोई इश्क़ किया तो बस लाहौर और उर्दू से। लाहौर से बेदख़ली का दाग़ उनके सीने में उम्र भर एक रिस्ता नासूर बना रहा। लाहौर से निकले तो पहले फ़िरोज़पुर पहुंचे। कुछ माह बाद वहां से एक छोटे से शहर मोगा जा पहुंचे, जहां अक्टूबर 1948 में उन्हें डी.एम. कालेज में प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गई थी।

''1948 में मेरी ज़िंदगी का तीसरा दौर शुरू हुआ। त$क्सीम-ए-मुल्क के बाद फ़िरोज़पुर में पनाह ली। अक्टूबर 1948 में डी.एम.कालेज मोगा में यह समझते हुए कि - जब मैक़दा छुटा तो फिर क्या जगह की क़ैद - नौकरी कर ली। शुरू-शुरू में तबीयत बहुत घबराई। कहां लाहौर की रंगीनियां, हंगामे और कहां मोगा। नीम रेगिस्तान। जहां सरकंडों और रेत के अंबार के इलावा कोई क़ाबिल-ए-दीद चीज़ न थी।’’

तमाम यार दोस्तों के बार-बार के इसरार की अनदेखी करते रहे कि वो मोगा से निकलकर ज़रा किसी बड़े शहर में आएं। अपना अदबी केरियर और अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाएं। उनका एक ही जवाब होता - लाहौर से बेहतर कोई जगह हो बताओ वरना बम्बई क्या और मोगा क्या। दोनो बराबर हैं। दिल्ली से तो खैर उनकी कुछ ख़ास ही खुन्नस थी। सो फैज़ के मिसरे ''जो कू-ए-यार से निकले तो कू-ए-दार चले’’ की तर्ज़ पर लाहौर से निकले तो मोगा पर ही अटक गए। 1973 में कालेज के प्रिंसीपल के तौर पर रिटायर हुए, फिर भी 1978 तक मोगा में ही बसे रहे।

असल में कन्हैयालाल कपूर के लिए लाहौर छोडऩे का मतलब दुनिया छोडऩे से कुछ कम न था। उनके एक मज़मून ''अपनी याद में’’ उनका यह दर्द ख़ूब उजागर हुआ है।

''आज 20 जून 1960 को मशहूत तंज़ निगार कन्हैयालाल कपूर इस दुनिया से गुज़र गए। ''...ख़ुदा ब$ख्शे, बहुत सी ''ख़ामियां’’ थीं मरने वाले में। रूहानी तौर पर तो उनकी वफ़ात उसी दिन वा$के हो गई थी जब आज से तेरह बरस पहले उन्हें लाहौर छोडऩा पड़ा था। लेकिन जिस्मानी तौर पर वह आज इंतक़ाल कर गए। ग़ालिबा दुनिया के वह पहले अदीब थे जो पैदा एक बार हुए लेकिन मरे दो बार।’’

इस मरे हुए इंसान के साथ ज़िंदगी ने जिस बेरहमी का सुलूक़ किया, उसके जवाब में उसने भी ज़िंदगी की हर शय में ढूंढ-ढूंढ कर नुक्स निकाले। उन पर भरपूर वार किए। मुल्क के बंटवारे ने ख़ास तौर से उसके ज़हन पर और उसकी कलम पर बड़ा असर डाला।

''आज़ादी की बाद कन्हैयालाल कपूर की इंशाइयों (लेखन) में गौर-ओ-तामुल और समाजी अहसास के साथ तंज़ का अनासिर (तत्व) बढ़ता गया। इसी निस्बत से 'संग-ओ-ख़िश्त’ या 'शीशा-ओ-तीशा’ वाली शगुफ़्तगी और शोख़ तरारी कम होती गई लेकिन उसकी जगह इंसानी नफ़ सियात की ज़$र्फ बीनी ने उनके मज़ामीन में मज़कात के नए अनासिर पैदा कर दिए, जिससे उनके इंफ़िरादियत के नकूश तीखे हुए हैं...’’ (डाक्टर क़मर रईस - मज़मून - अस्र-ए-हाज़िर में उर्दू तंज़-ओ-मज़ाह)

''काठ का उल्लू’’ में उनके निशाने पर सियासत और दौलत की मक्कार चालबाज़ियों पर जबर हमला है। ''आज़ादी की कसम’’ की तो शुरूआत ही यहां से होती है - ''मैं तिरंगे की कसम खाकर कहता हूं कि बापू के बलिदान को कभी नहीं भूलूंगा लेकिन बापू के बताए हुए उसूलों पर कभी अमल नहीं करूंगा।’

उनके  ''बंदा परवर कब तक?’’, ''चौपट राजा’’ और ''नया शिकंजा’’ इसी सिलसिले की कडिय़ां हैं। ''नया शिकंजा’’ में एक तक्रीर के बहाने उन्होने देश के संविधान और उसमे लगातर किए जाने वाले बदलाव को लेकर निहायत तीखे हमले हैं। मज़हब को लेकर तो उनका रवैया और भी तीखा रहा। ''...मज़हब बेवकूफों के लिए है। क्योंकि किसी भी मज़हब में कोई ऐसी बात नहीं बताई जाती जिसे एक ज़हीन आदमी पहले से न जानता हो। इसलिए ज़हानत मज़हब की मुहताज कभी नहीं रही है। हां, बेवकूफ़ों को मज़हब की तौसत से बड़ी कामयाबी से फांसा जा सकता है।’’ (मज़मून - तारुफ़ ) 

इन तीखे तेवरों वाला कन्हैयालाल कपूर उर्दू की बात आते ही पिघल कर मोम हो जाता है। हमला करने के इरादे से तलवार उठा तो लेता है मगर हमले से ज़्यादा आंसुओं से भरी आंखें पोंछता हुआ नज़र आता है। इस जगह उनके एक शाहकार मज़मून ''बृज बानो’’ को याद करना बेजा न होगा।

''यह बृज बानो की दास्तान है। बृज बानो कौन है? आजकल कहां है? उसके अजीब-ओ-ग़रीब नाम की वजह क्या है? यह तमाम सवाल जिस आसानी से किए जा सकते हैं शायद इनके जवाबात उतनी आसानी न दिए जा सकें, ताहम कोशिश करूंगा कि आपको बृज बानो से रू-शनास करा सकूं। बृज बानो एक ख़ूबसूरत औरत है जो पाकिस्तान से मेरे साथ हिंदुस्तान आई है।’’

यह बृज बानो कन्हैयालाल कपूर की उर्दू है जो बंटवारे के बाद उसी के साथ यहां आई है। ''उसे बृज बानो का नाम इसलिए दिया गया कि उसकी मां हिंदू और बाप मुसलमान था।’’ वह ग़ैर है, क्योंकि उसका बाप मुसलमान है और हम पुरुष प्रधान समाज हैं, सो मां की गिनती नहीं हो सकती। शिखाधारी पंडितों की रोज़-रोज़ की टोका-टाकी, सरकारी दस्तूर से तंग आकर लेखक बृज बानो को पाकिस्तान चले जाने की सलाह देता है। तभी एक सिख ड्राईवर लारी लिए गुज़रता है, जिसकी पुश्त पर यह शेर लिखा है :

दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़ र करते हैं

फिर एक चना ज़ोर गरम वाला ''मेरा चना बना है आला / इसमे डाला मिर्च् मसाला / चना लाया मैं बाबू मज़ेदार / चना ज़ोर गरम।’’ गाता हुआ गुज़रता है। इसका अंत बड़ा मार्मिक है। एक अख़बार आता है जिसमें बड़े-बड़े हर्फों में पहली ख़बर का हेडिंग है - ''बृज बानो हिंदुस्तान में नहीं रह सकेगी’’। मज़मून यहां ख़त्म होता है;

''...चार मिनट हम दोनो ख़ामोश और मबहूत (स्तब्ध) खड़े रहते हैं। उसके बाद मैं उससे कहता हूं,’’ ज़िद न करो बानो। तुम्हे पाकिस्तान जाना ही होगा। वह बिफ़ री हुई शेरनी की तरह कड़क कर कहती है। मैं नहीं जाऊंगी। हरगिज़ नहीं जाऊंगी।

- लेकिन हुकूमत ने फैसला कर लिया है कि तुम ....

- हुकूमत कानून बना सकती है लेकिन अवाम के फ़ितरी रुझानात को नहीं बदल सकती। जब तक हिंदुस्तान में कलगी वाले सिख ड्राईवर और चना ज़ोर गरम बेचने वाले मौजूद हैं, हुकूमत मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकती।

- ख़ुदा की कसम बड़ी ज़िद्दी हो तुम।

बृज बानो मुस्कराती रही और मैं कुल्फ़ी वाले के अल्फ़ाज़ ज़ेर-ए-लब दुहरा रहा था - ''लाजवाब! शानदार!! बे-नज़ीर!!!’’

इंसानियत और मुहब्बत का इस अलम बरदार कन्हैयालाल कपूर का 5 और 6 मई 1980 की दर्मियानी रात को पूना में देहांत हो गया।

बात ख़त्म करूंगा अप्रेल 1978 में प्रकाशित मुज्तबा हुसैन साहब की इस बात से : 

''कपूर साहिब ने उर्दू तंज़-ओ-मज़ाह को क्या दिया है इस का हिसाब किताब तो नािकद करते रहेंगे। यहां मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि जब हिन्दोस्तान की बहुत सी ज़बानों में जदीद सियासी तंज़ की दाग़-बेल भी नहीं पड़ी थी तो तब कपूर साहिब ने उर्दू में जदीद सियासी तंज़ के बेमिसाल नमूने पेश किए थे। कन्हैयालाल कपूर सचमुच उर्दू तंज़निगारी के कुतुबमीनार हैं। जब भी मैं कुतुबमीनार को देखता हूँ तो दुआ करता हूँ कि कपूर साहिब हमारे अदब में यूं ही सर-बलंद-ओ-सरफ़ राज़ रहें।’’

इस पर मैं तो इतना ही कहूंगा - आमीन! सुम आमीन!!

***

एक श्रद्धांजलि

हज़ारों-लाखों के अरमान तेरे साथ गए

तरक्क़ीयात के इम्क़ान तेरे साथ गए

न जाने कितने ही उन्वान तेरे साथ गए

अदब पे होते जो अहसान, तेरे साथ गए

जहान-ए-तंज़ में इक नियामत-ए-ग़फूर था तू

धरम की बंदिश-ए-बेजा से दूर-दूर था तू

यह मैने माना कि इक जाम-ए-नासुबूर था तू

मगर हज़ार कपूरों में इक कपूर था तू

       साजिद अली (अवध पंच में प्रकाशित)

 

सम्पर्क : ई-101/15 शिवाजी नगर, भोपाल - 462016, मो.98270-55559   rkeswani100@gmail.com

 

 


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