मुखपृष्ठ पिछले अंक यह सिर्फ लेने वालों का समय है, देने वालों का नहीं
जून 2019

यह सिर्फ लेने वालों का समय है, देने वालों का नहीं

नरेश सक्सेना

व्याख्यान

 

 

आर्यभट्ट ने बहुत शुरू में कहा था कि पृथ्वी भ्रमण करती है। यह बहुत छोटा और सरल वाक्य बोला था, और सुना उसे लोगों ने। देखिये, पृथ्वी तो वेदों में अचला कही गयी है। अब वेदों के खिलाफ  कोई बोल रहा है, तो यह समय तब से शुरू होता है और आज तक जारी है उनकी भत्र्सना की गयी, कि यह धर्म के विरूद्ध बोल रहा है। सैकड़ों बरस बीत गये, निन्दा ही होती रही उनकी। यह समझ में नहीं आता था लोगों के, कि आर्यभट्ट ने कहा क्या है? फिर भी लिखा जाता था कि यह बहुत मूर्ख है और उसको कभी पढऩा नहीं! उनके ग्रन्थ नष्ट हो गये। भारत में उनकी कोई प्रति नहीं मिली। उनकी एक प्रति का मलयालम अनुवाद इंग्लैंड के संग्रहालय में मिल गया। तब पता लगा कि आर्यभट्ट, जिसको मूर्ख कहा जा रहा था लगातार सैकड़ों वर्षो से, उसने कहा क्या था? उसने कहा था कि पृथ्वी भ्रमण करती है।

यह हमारे यहाँ कोई आज का समय नहीं है। यह समय तब से चल रहा है और आज तक चलता चला आया है। यह बदलेगा अगर, तो हमारे और आपके बदलने से बदलेगा; क्योंकि हमारा रचा हुआ समय है। किसी और ने नहीं रचा इसे। यह कोई भावनात्मक वाक्य नहीं है। यूरोप में बहुत-से देश हैं, जिनकी आबादी लाखों में है और वे बड़े काम कर रहे हैं और हमारी आबादी बहुत बड़ी है और हम क्या काम कर रहे है, यह दुनिया जानती है। उत्तर प्रदेश की आबादी बाईस करोड़ है, यह बाईस करोड़ उत्तरप्रदेशवासियों का रचा हुआ समय है। 80 एम. पी. यहाँ से चुनकर जाते हैं, इस समय को ध्वनित करने के लिए, लोकसभा में। अगर हिन्दी-भाषी संसार को आप ले लें, तो आधी से ज्यादा लोकसभा हिन्दी पट्टी से बनती है, ये दस प्रदेश है। यही सरकार बनाते हैं और यही सरकार चलाते हैं और जो समय रचा हुआ है, अगर उसे हम ज़्यादा बढ़ा दें, तो यह हिन्दी भाषी लोगों का रचा हुआ समय है।

इसको कहते हैं कि यह बहुत बड़़े धर्म का समय है, लेकिन सच तो यह है कि यह  बड़े अधर्म का समय है। धर्म का क्या मतलब होता है? धर्म की व्याख्या क्या कहकर की गई है? इसे जानने के लिए किसी बहुत बड़े दर्शन में जाने की ज़रूरत नहीं है। आप जगह-जगह पढ़ेंगे, पुराण की कहानियॉं पढ़ें, आप कहीं किसी अध्याय में जाकर देखें, तो कहीं-न-कहीं आपको यह प्रश्न मिलेगा कि भगवान मेरा क्या धर्म है? अरे! तो धर्म क्या बदलता रहता है सुबह-शाम, कि अब क्या धर्म है? कहते हैं, तुम पिता का धर्म निभाओ, तुम पत्नी धर्म निभाओ, तुम बेटे का धर्म निभाओ तो यह धर्म क्या चीज़ है, जो अलग- अलग होता है? बहन का धर्म अलग होता है। भाई का धर्म अलग होता है। धर्म का सीधा-सीधा अर्थ कर्तव्य होता है। जो तुम्हें धर्म बताया गया था वह कर्तव्य बताया गया था। लेकिन जब विषम परिस्थितियाँ आती हैं, तब पूछना पड़ता है, अब क्या करें? अब क्या करना चाहिए? आपने तो कहा था कि चींटी को मारना भी पाप है। लेकिन यह तो साँप सामने आ गया है और निकलने नहीं दे रहा, तो क्या करें ? यानी अब क्या धर्म है, अब क्या कर्तव्य है तो धर्म से कर्तव्य को दूर कर दिया गया और पत्थर में स्थापित कर दिया गया क्या यह पत्थर है? यह वह समय है, जिसमें स्त्रियों के प्रवेश से ही एक पत्थर की मूर्ति अपवित्र हो जाती है। पत्थर की मूर्ति का ब्रह्मचर्य खण्डित हो जाता है। यह कैसा धर्म है? यह धर्म नहीं, घोर अधर्म है। अगर किसी ने व्याख्यायित किया होगा, तो यह घोर अधर्म का समय चल रहा है और इस बात को मैं बार-बार कहँूगा कि यह हमारा ही रचा समय है। कोई बाहर से इसको रचने नहीं आया, बाहर से जब-जब कोई आया, तो हम पराजित हुए। आप याद करें, जितने आक्रमण हुए अंग्रेज़ आये, हम पराजित हुए फ्रांसीसी आये, तो भी हम पराजित हुए, पुर्तगाली आये, तो भी भारतीय पराजित हुए, अफ़ग़ान आये, तो भी हम पराजित हुए, ईरानी आये, तो भी हम पराजित हुए। यह तो पराजित नायकों का ही देश है। तो क्या हुआ है इस देश को?

बाबर का आक्रमण नादिर शाह का आक्रमण, तैमूर लंग का आक्रमण, किस पर थे ये आक्रमण? उनके अन्दर भी एक झूठ भरा है। यहीं से एक अख़बार निकलता है दैनिक जागरण और नरेन्द्र मोहन शायद उसके सम्पादक थे, उन्हीें का सम्पादकीय था कि बाबर ने हिन्दुस्तान पर आक्रमण करके राणा साँगा को पराजित किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। अरे! कहाँ राणा साँगा और कहाँ दिल्ली? बाबर ने इब्राहीम लोधी को पराजित किया था, भाई! हिन्दू राजा इस लाय़क थे ही नहीं कि दिल्ली पर राज्य करते। वो तो पृथ्वीराज आख़िरी थे, जो अपनी भतीजी... जयचन्द उनके 'कज़िन’ थे, अपनी ही भतीजी को भगा लाये। वह दूसरा किस्सा है। वह अजमेर के राजा थे दरअसल। अजमेर बड़ा राज्य था, लेकिन दिल्ली दोनों चाहते थे। पृथ्वीराज भी चाहते थे। वह किस्सा छोड़ दीजिये! लम्बा है। तो जयचन्द ने उन्हें मरवाया, वह आक्रमण भी हिन्दुओं पर नहीं था। वह  जयचन्द का पृथ्वीराज पर आक्रमण था। जयचन्द उनसे निपट नहीं पा रहे थे तो उन्होंने मुहम्मद गोरी से कहा कि तुम आक्रमण करो! उसने कहा-भाई, हम एक-दो बार हार चुकें है। तो उन्होंने कहा-अब हम तुम्हारे साथ रहेंगे। तैमूर लंग का जब आक्रमण हुआ, तो मुगल बन्धु आपस में लड़ रहे थे दिल्ली में। नादिर शाह का आक्रमण तो मुहम्मद शाह रंगीले पर हुआ। इतिहास में तो कहीं यह भी बताया जाने लगा है कि हुमायूं पराजित करके भगा दिये गये थे। मगर उनको पराजित करने कोई हिन्दू राजा नहीं आया था।  शेरशाह सूरी ने उन्हें पराजित किया था। ये सारे हिन्दू तो हुए ही नहीं ना!

एक मजेदार कथा है वह भी हमें अपने समय से जोड़ती है। यह समय जो है, इसमें हमारे जो प्रतिनिधि हैं, वे जाति देखकर बनाये जाते हैं। किस जाति का व्यक्ति पार्लियामेंट में जा सकता है यहाँ से। तो वह कथा, कही की भी कथा सच्ची है। तैमूर लंग तो $खुद ही लँगड़ा था। वह जब आया, तो बारिश हो गई। पहाड़ी को पार करते हुए उसके घोड़े फिसल गये, बहुत-से घोड़े घायल हो गये। तो उसने कहा-यह तो हालत ख़राब हो गई, अब लौट चलें! शाम हो गई थी। रात को उसने देखा कि उसका मुक़ाबला करने के लिए जो सेना जुटी थी, वहाँ कई जगह पर आग जल रही थी। तो उसने आदमी भेजे कि पता करके आओ कि यह क्या हो रहा है? वे आ गये। बताया कि भोजन बन रहा है। बोले-दस जगह क्यों बन रहा है भोजन? तो उन्होंने कहा-साहब, उधर ब्राह्मण का है, वह ब्राह्मणों का बन रहा है। वे अलग भोजन करते हैं। तैमूर लंग ने पूछा-उनमें कितने लड़ाके है? वे बोले-साहब, लड़ते नहीं। उसने फिर पूछा-क्या करने आये हैं? बोले-मन्त्र पढऩे आये हैं और मुहूर्त वगैरह निकालेंगे, आशीर्वाद देंगे, लड़ेगे नहीं। ''तो बेकार है, छोड़ो!’’ फिर इधर आये, बोले-ये तो वणिक वर्ग के लोग हैं, वैश्य हैं। तो पूछा -कितने लड़ाके हैं? बोले-लड़ाका कोई नहीं है, व्यापारी हैं। तो पूछा- क्या करने आये है? बोले-साहब, धन -धान्य लेकर आये है, रसद लेकर आये हैं, कुछ चन्दा वगैरह लेकर आये हैं कि कुछ कमी पड़ रही हो रूपयों-पैसों की, तो साहब, दे देंगे। आप तो हमारे राजा हैं। आप लड़ो। पूछा-इनके यहाँ भी दो-तीन जगह आग जल रही। बोले-साहब वे भी ऊँचे-नीचे होते हैं। वे एक-दूसरे का छुआ नहीं खाते हैं। फिर बोले-ये शूद्र लोग हैं। ''कितने लड़ाके है’’? बोले-कोई लड़ता नहीं। पूछा- ये क्या करने आये हैं ? बोले- सेवा करने आये हैं। उसने कहा- जब ये ससुरे लडऩे वाले हैं ही नहीं यहाँ, इनके तीन-चौथाई लड़ाके ही नहीं है एक साथ और जो लड़ाके हैं, उनके यहाँ चार जगह भोजन क्यों बन रहा है? बोले-साहब, एक सिसौदिया वंश के हैं, एक राठौर हैं, तो एक तोमर हैं। ''अरे! उसने कहा-इन पर अभी आक्रमण करो! इनसे हमारे लँगड़े -टूटे हाथ वाले भी जीत जायेंगे। ये लड़ाके हैं कहाँ? जो एक साथ भोजन नहीं कर सकते एक साथ लड़ नहीं सकते!

यह समय हमारा बीता नहीं, असल में शुरू से जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ जो महसूस कर रहा हूँ, कि जो आर्यभट्ट का समय था, वह आज भी जारी है हमारे बीच में। उसके रचने वाले हम खुद हैं सब। जिसे हम धर्म की व्यवस्था कहते हैं, वह बिना जाति के, सम्भव नहीं... हम किसी दूसरे को अपनी जाति में प्रवेश दे नहीं सकते, जब तक पैदा न हो जाये मर के। बिना मरे वह हिन्दू बन नहीं सकता, मैं चाहूँ कि ब्राह्मण हो जाऊँ! हो सकता है क्या? सारे मुसलमान इस देश के संकट में हैं इस समय। उनके प्रति तो जैसे यह घृणा से भरा हुआ समय है, यह झूठ से भरा समय है।  इतिहास में तरह-तरह से झूठ आये हैं। लेकिन इतने सारे झूठ मिल करके आये हों, ऐसा तो पहली बार हो रहा है। और हम जिम्मेदार हैं इस समय के। एक आदमी लगातार झूठ बोल रहा है और इतना झूठ बोल रहा है, वह जानता है कि मैंने कल क्या कहा था और आज क्या बोल रहा है ? वह जानता है कि ये सब शायद विस्मरण के मारे हुए लोग हैं। उसे लगता है कि वह बड़े भेद खोल रहा है, वह किसी का भेद नहीं खोल रहा है। और इतना बोलता है कि जी.डी.पी.  सकल घरेलू उत्पाद सबसे ऊँची दर पर पहँुच जाता है। इतना ऊँचा पहँुच जाता है। कि रूपया रसातल में पहुँच जाता है और सारी दुनिया में भारत का सम्मान बहुत बढ़ जाता है। अब भारतीय खदेड़े जा रहे हैं वहाँ से। अमेरिका से खदेड़े जा रहे हैं। समय निश्चय ही राजनीति का रचा हुआ है, लेकिन राजनीति को तो हमने रचा है। हमारे हिन्दी- भाषी लोगों ने रचा है। यह ज़िम्मेदारी हम दक्षिण पर, तमिल-भाषियों पर, मलयालम-भाषियों पर, बांग्ला-भाषियों पर नहीं डाल सकते। यह हमारा, हिन्दी का समय चल रहा है।

हिन्दी को राजभाषा पद से दरअसल हटा देना चाहिए। उससे हमें कुछ नहीं मिल रहा हैे। हमारा काम तो अंग्रेज़ी में होता है, क्योंकि सारे मसौदे आईएएस बनाते हैं। जो हिन्दी बोल कर इस देश में शासन करते हैं, वे नहीं बनाते कोई मसौदा। अंग्रेज़ी जानने वाले उसे अंग्रेज़ी में बनाते है, उन्हें अंग्रेज़ी ही आती है। उन्हें आती नहीं भारतीय भाषा। भारतीय भाषा तो बेपढ़े लोग बोलते हैं, जिन्हे अंग्रेज़ी नहीं आती जो सिफऱ् बांग्ला बोल सकता है, मराठी बोल सकता है या हिन्दी बोल सकता है, उसे क्या पढ़ा-लिखा माना जाता है अंग्रेज़ी बड़ी भाषा है। दुनिया की बड़ी भाषा है। बहुत सम्मानित भाषा है और हम सबको जाननी चाहिए। इसलिए कि वह हमारी सुविधा से, भारत में सैकड़ों साल पहले आ चुकी है। सुविधा है यह हमारी, लेकिन विदेशी भाषा 80 साल मेरी उम्र है 75 साल से चीख रहा हूं और आज तक नहीं आती मुझे। मैंने इसी भाषा में इंजीनियरिंग पढ़ी। वह मेरा प्रोफेशन है और पेन्शन तो उसी की मिलती है मुझे। कविता की? कविता से क्या मिलता है, आप जानते हैं। इंजीनियरिंग मैंने पढ़ी मैंने प्रोजेक्ट, अंग्रेजी में ही बनाये। मैं विदेशों में गया। कनाडा में गया, लीबिया में गया। अंग्रेज़ी में ही मैंने सब कुछ किया। लेकिन अंग्रेज़ी आती नहीं और आप में-से किसी को आती है? ... आती हो, तो मेरे एक वाक्य का ट्रंासलेशन कर दीजिये-यह बच्चा बहुत मचल रहा है। प्रिंसिपल मैडम तो अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं। बता देंगी। बहुत आसान है तो मैडम, प्रतीक्षा करूँ या आगे बढ़ूँ? वह बतायेंगी, बता सकती हैं-''दिस चाइल्ड इज़ थ्रोइंग टैंट्रम्स।’’ लेकिन अगर मैं कहूँ कि-मेरा दिल मचल रहा है। तो फिर क्या ट्रंासलेशन होगा माई हार्ट इज़ थ्रोइंग टैंट्रम्स’? अगर सूरज की किरणें लहरों पर मचल रही हैं, तब क्या कहेंगें द सन लाइट इज़ थ्रोइंग टैंट्रम्स ऑन द वेव्ज़? सम्भव नहीं है। उसका अनुवाद नहीं। मैं कोई भी चीज़, कोई भी वाक्य बोल दूँगा, तो अनुवाद सम्भव नहीं होगा। गाना है ... काली घटा छाई, ओ राजा, काली घटा छाई। अनुवाद कर दीज़िये! इसका अनुवाद सम्भव नहीं। मैं बता दूँूॅं आपको, मैडम! उसका कारण हमारा इतिहास, भूगोल, हमारी संस्कृति है। काली घटा वहाँ छाती ही नहीं। काली घटा तो यहाँ छाती है। ऐसी भयानक गर्मी पड़ती है, उसके बाद जब बादल आते हैं, तो कैसा सुन्दर... और लगता है कि बारिश होगी, तो किसान हल चलायेगा, खेत जोतेगा, बीज डालेगा। ऐसा समय होता है -

बरसो राम धड़ाके से,

बड़े-बड़े बूँदा पानी के।

खड़े रूपैया चाँदी के,

बुढिय़ा मर गई फ़ाके से ।।

बरसो राम धड़ाके से।।

तो यहाँ काली घटा है, वहाँ 'रेन,रेन, गो अवे’ बच्चे गाते हैं। उनकी राइम अलग है। उनका भूगोल अलग है, मौसम अलग है, सर्दी से वे काँपते रहते हैं पूरे साल। और बारिश आ गई, तब तो और मुसीबत! बारिश नहीं चाहते। सीलन, बारिश, गीलापन। तो अंग्रेजी वहाँ की भाषा है, वहाँ की शब्दावली ही नहीं है इस भूगोल की। क्या करोगे? इस संस्कृति की शब्दावली ही वहाँ नहीं है। विन्यास असम्भव है। उस भाषा को हमारे ज्ञान का माध्यम बना दिया। 'कम्पेरेटिवली’ आसान है। सबको सीखनी चाहिए। यह मानकर सीखना चाहिए कि उसमें निष्णात होना हमारा संभव नहीं है। लेकिन उसमें हम ज्ञान देतें है। तो फिर ज्ञान की हालत आप देख लें।

 हमारे ज्ञान की हालत यह है कि 70 साल से भारत में कोई विश्वस्तरीय अनुसंधान नहीं हुआ। सिर्फ़ एक बात को समझ लें! क्या कारण है, हमारे यहाँ अनुसंधान हुए नोबेल पुरस्कार भी मिले, लेकिन सब 1947 से पहले। चन्द्रशेखर को मिला, सी.वी.रमन को मिला। एस. एन. बोस (सत्येन्द्र नारायण बोस), जिनके नाम से, जिनके आदर में 'बोसोन’ आविष्कार को नाम दिया गया। आंइस्टाइन के साथ उन्होंने काम किया। ऐसे वैज्ञानिक यहाँ हुए। लेकिन सब आजादी से पहले, क्योंकि आजादी से पहले हमारी भाषाएँ आज़ाद थीं। गुलाम नहीं थीं। उन्हीं भाषाओं में हमने अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ी। लेकिन आजादी आते ही हमारी भाषाएँ गुलाम हो गयीं और सारा ज्ञान हमको ऐसी विदेशी भाषा में दिया जा रहा है, जो हमें आधी-अधूरी आती है। पूरी आती नहीं। मैं शिलांग में था इन्जीनियरिंग कंसल्टेंट। उनका चीफ कंसल्टेंट था। तो वहाँ पर जो चीफ इंजीनियर थे ग्रेटर शिलांग के, उन्होंने एक बार मेरे डिजाइन को कह दिया कि साहब, यह डिजाइन ठीक नहीं है, चलेगा नहीं। दो तरह का वाटर वर्स बनाइये। एक ऊपर बनाइये, एक नीचे बनाइये। हमनें कहा- दोगुना पैसा खर्च करोगे? बोले-सारा पानी नीचे चला जायेगा। मैं बोला- 'नहीं’ उसने पूछाँ - 'मिस्टर सक्सेना, हैव यू एवर वक्र्ड इन द हिल्स?’ मैंने कहा -नो। उसने बोला- 'देन यू डू नॉट नो व्हाट आर यू टॉकिंग एबाउट’? और उसने जब बोला तो बड़ी मीटिंग थी वहाँ, तमाम सेक्रेटरी, मिनिस्टर, चीफ इंजींनियर पूरा अमला बैठा था। तो मुझे कहना पड़ा-कहाँ पढ़ी है इंजीनियरिंग आपने? तो वह 'आल इण्डिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन ऐंड पब्लिक हेल्थ’ से पढ़कर आये थें। मैने कहा - 'आई एम वन ऑफ योर सीनियर्स। वेयर यू टॉट टू डिफरेन्ट हाइड्रोलिक्स?’ दो अलग-अलग हाइड्रोलिक्स पढ़ाई गयी थीं वहाँ पर? एक पहाड़ों पर काम करती है, दूसरी मैदान में काम करती है? 'ओह, नो, नो, नो...बट इट डज नॉट वर्क’। मैंने कहा -'इट विल वर्क।’ तो वह अमेरिकन...जो फण्ड रिलीज करता था (ऑस्ट्रेलियन फण्ड से वह प्रोजेक्ट चल रहा था) उसने मुझे बुलाया। उसने कहा - हम इनको पैसा दे रहे हैं। डिज़ाइन दे रहे है। गाइडेंस दे रहे हैं। नहीं 'यूज’ करना चाहते, छोडिय़े! आप क्यों बहस कर रहे हैं? मैंने कहा -'आई नेवर वाण्टेड टु। बट ही इज़ टॉकिंग नॉनसेंस।’  तो वह थोड़ा चौंका, बोला-आर यू श्योर? यू कैन डू इट ? मैंने कहा 'यस, इफ यू लाइक , आई कैन डू इट।’ बोला-ता यह मैं चैलेजं ले लूँ? ''मैं करके दिखाऊँगा।’’ मैंने कहा। बाहर उसने घोषणा की दिस इज़ नॉट पार्ट ऑफ योर प्रोजेक्ट टु टीच यू हाउ द इंजीनियरिंग प्र्रोजेक्ट इज़ इम्प्लीमेंटेड। बट इफ यू वॉण्ट इट, करके दिखायें!’ उसने सबसे मुश्किल जगह मुझे करने को दे दी कि पानी वहाँ भी जायेगा। नीचे भी जायेगा। खैर, पानी गया पूरे शिलांग में और पूरे मेघालय में हल्ला मचा कि यह पहली बार हुआ। ऐसा तो हर जगह होना चाहिए तो दूसरी जगह भी इम्प्लीमेंट किया गया। दूसरी जगह दूसरी समस्या आ गई। तब फिर मैंने  बोला कि यह आसान है वे बोले-करके दिखा दीजिये! वह भी करके दिखाया। जब दो- तीन बार हो गया, तब उसने पूछा अमेरिकन ने-''कि आप कैसे कर लेते है’’,'हाउ आर यू एबल टु डू इट?’ मैंने कहा -'बिकॉज़ इट इज़ वेरी सिम्पल।’ 'व्हाई कैन दे नॉट डू इट’ मैंने कहा- 'दे हैव बीन टॉट देयर इंजीनियरिंग इन इंग्लिश दे नाइदर नो द इंग्लिश नार द इंजीनियरिंग।’ उन्होंने रटा है। हमारे छोटे बच्चों पर अत्याचार होता है इंग्लिश मीडियम स्कूल में। आप सोचिये 4 साल का, 5 साल का बच्चा। आप अंग्रेज का बच्चा बुला लीजिये! अमेरिका के सबसे अच्छे बच्चे को बुला लीजिये और पढ़ाइये हिन्दी मीडियम में। बच्चा पढ़े। क्या पढ़ेंगे वे? रटेंगे.. जो हमारे बच्चे करते हैं। घर पर आकर हम उन्हें होमवर्क कराते हैं। उन्हें रटाते हैं। रटते-रटते वे 90 प्रतिशत, 100 प्रतिशत अंक पाने लगते है। समझने का तो छोडिय़े दिमाग से निकल जाता है कि बेसिक फन्डामेन्टल्स क्या हम समझे? कारण होता है कि हम जो फॉर्मूले बनाते हैं, फॉर्मूलों में कुछ अवधाराणाएँ होती हैं। कुछ चीज़ों को हम मान लेते हैं कि नॉर्मल फैक्टर इतना है और अगर ग्राउंड कंडीशन मैच नहीं कर रही, तो आपको करेक्शन करना पड़ेगा। स्टडी करनी पड़ेगी वह हम जानते नहीं। हमने रटा हुआ है फॉर्मूला। तो ये रट्टू तोते हमारे देश पर हमारे लिए काम कर रहें है, सारे-के-सारे। और आज देख लीजिये, उसका नतीजा यह है कि 70 साल में भारत ने कोई इन्वेंशन नहीं किया। चाहे तो नोकिया हो, सैमसंग हो, हुंडई कार हो, कुछ भी हो, सब बाहर से आता है। हम कुछ नहीं साउथ कोरिया से बनकर जो सैमसंग टेलीविजन है, वो भारत में आता है। यूरोप का मार्केट भरा हुआ है उससे। न्यूयॉर्क का मार्केट भरा हुआ है। सैमसंग ही है वहाँ पर। उन्होंने बीट कर दिया है पूरे विश्व को क्योंकि वे  अपने यहँा कोरियन में पढ़ाते हैं। साउथ कोरिया की जो भाषा है, उसमें अपने बच्चों को पढ़ाते हैं। वे बढिय़ा इंजीनियर बनते हैं। चीन में भी ऐसा ही है। हम इस विषय पर कितना बतायें आपको!

मेरी तकलीफ़ आज की नहीं है। मेरा समय बदल नहीं रहा, मेरा समय बीत ही नहीं रहा और समय को आप जानते हैं, कभी नहीं बीतता, हम बीत जाते हैं। क्या कोई ऐसा वक्त होता है कि समय न हो? समय तो हमेशा होता है। कहते हैं कि समय चला गया। अरे! जाने से पहले आया भी तो था। वह तो हमेशा आता रहता है। समय कहीं जाता नहीं, आता रहता है। उस आने वाले समय को देखिये, उसे आप क्या देते हैं? वह ख़ाली झोली लेकर आता है। जो उसको दे देंगे, वही ले जायेगा। समय हमारा रचा हुआ है। अच्छा या बुरा, हम रचते हैं।  कुँवर नारायण की एक कविता है -

''समय होगा हम अचानक बीत जायेंगे,

घर रहेंगें

हमीं उनमें रह न पायेंगे,

तो हम बीत रहे हैं मित्रो! हम और हमारी पीढिय़ाँ बीत रही हैं। भाषा का विन्यास आप देखें, मैंने कहा-देखें! 'कैसे देखेंगे आप’? आँखों से? आँखो से तो बहुत- कुछ देखा जाता है।

अब मैं सौभाग्य से, संयोग से, कुछ ऐसे दो-चार लोगों में-से हूँ, जो मुक्तिबोध के समय में जबलपुर में या राजनाँद गाँव में या भोपाल में थे। ऐसे लोग अब बहुत कम रह गये हैं। मेरे साथी विनोद कुमार शुक्ल हैं, ज्ञानरंजन हैं, तब भी थे जबलपुर में। तो यह कोई संयोग नहीं था। देखिये...  ज्ञानरंजन और मैं और विनोद कुमार शुक्ल को थोड़ा बहुत तब भी जाना गया था, जब हम 1958 में वहाँ थे और आज भी जाना जाता हैं तो  यह संयोग नहीं था कि हम तीनों वहाँ थे। हमने अपना एक साथ होना तय किया था इसलिए हम वहाँ थे। जबलपुर में तो हजारों लाखों लोग थे। हजारों लाखों लोग वहँा आकर क्यों नहीं इकट्ठे हुए? हम तीन ही क्यों हुए? तो हम तय करते हैं अपना होना। अपना होना। तय नहीं करेंगे, तो वही होगा, जो देखने के बारे में हमें लगता है।

मुक्तिबोध के जिक्ऱ के बिना हम आज अपने समय और कविता की बात नहीं कर सकते। मुक्तिबोध ने क्या कहा था -

'सीढिय़ों पर अँधेरा है, सीढिय़ाँ’

गीली हैं, और आखिरी सीढ़ी

पानी में डूबी है, जल में डूबी सीढ़ी

जल के भीतर कोई रहता है, मुझे

उससे भय लगता है, शायद मैं हूँ’

ब्रह्मराक्षस को खोजने मुक्तिबोध पुराण में गये थे। हमारे बहुत आलोचक हैं। कोई बताता नहीं ब्रह्मराक्षस आया कहाँ से ? मैं तो चूँकि बेपढ़ा हू,ँ हाईस्कूल के बाद हिन्दी मेरा विषय नहीं रही। इसलिए संकोच बहुत होता है और यह भी निवेदन करता हँू कि अगर कोई बात, कोई वाक्य, कोई शब्द, कोई कॉन्सेप्ट, कोई अवधारणा गलत हो जाये, तो कृपा करके हमें बता देना! हमेशा सीखने की कोशिश करता रहता हूूँ। मैंने बहुत पंडितों से पूछा ब्रह्मराक्षस तो अन्त में मुझे ब्रह्मराक्षस  मिले भागवत कथा में। शायद श्रीमद्भागवत में हैं वो। ब्रह्मराक्षस वह ब्राह्मण था, जिसने अपना कर्तव्य-पालन नहीं किया था और वह ब्रह्मराक्षस हो गया था शापित होकर। उसे होना ही था। उसका कर्तव्य क्या था? ब्राह्मणों का कर्तव्य शिक्षा देना, ज्ञान देना था। उसने जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह दिया नहीं। जो लिया है वह देना होगा, ये मुक्तिबोध बार-बार कहते हैं-

''अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया,

ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम...’’

ब्रह्मराक्षस एक बच्चा है। पढ़ता नहीं है। अक्सर बच्चे नहीं पढ़ते, मार-पीट के, समझा-बुझाकर पढ़ाया जाता है। तो एक दिन उसके पिता ने कहा-तुम निकल जाओ घर से! बहुत नालायक हो! उसे बहुत अपमान का बोध हुआ कि घर से निकाला जा रहा हूँ। तो यह कहकर गया कि अब मैं पढ़कर ही लौटूँगा। अब वह गुरू की खोज में चला। तो कुछ शैतान बच्चों ने उसे एक ऐसी शैतान हवेली में पहँुचा दिया, जो प्रेतग्रस्त बतायी जाती थी। वहाँ वह जाता है। सन्नाटा है पूरी हवेली में। कोई नहीं है। पहली मंजिल, दूसरी मंजिल, तीसरी मंजिल सातवीं मंजिल, कहीं कोई नहीं मिलता। आठवीं मंजिल पर जाकर वह देखता है। कि कोई साधना में लीन है और वह बैठ जाता है उसके पास। बहरहाल, जब उसकी आँख खुलती हैं तो पूछता है- तुम कौन हो? कैसे आ गये? बोला-मैं ज्ञान प्राप्त करने आया हूँ उसने कहा - तुम भाग जाओ यहाँ से, यहाँ रहना ठीक नहीं तुम्हारा। उसने कहा-मैं ज्ञान प्राप्त करने आया हूँ और बिना ज्ञान प्राप्त किये जाऊँगा नहीं तो उसने कहा-बहुत कठिन है। उसने कहा-चाहे जो हो। वह फिर ज्ञान प्राप्त करता है। वर्षो वह वहाँ रहता है  वहाँ बाहर नही जाने दिया जाता । एक दिन गुरू कहता है-मैंने अपना सारा ज्ञान तुम्हें दे दिया, आज हम लोग साथ-साथ भोजन करेंगे तब वो भोजन लगा देता है। अचानक ही वह उठता है, तो वह पूछता है-कहाँ जा रहे? कहता है-कि मैंने खिचड़ी बनाई है। घी की कटोरी लाना भूल गया, तो मैं भण्डार से घी लाता हूँ। तो उसने कहा- तुम बैठो, आज घी मैं ही उठा लेता हूँं। फिर उसने देखा कि गुरू ने अपना हाथ बढ़ाया और वह हाथ बढ़ता चला गया और बढ़कर वहाँ पहुँंचता है जहाँ भण्डार में घी रखा है। वह विद्यार्थी भय से काँपने लगता है, डर जाता है कि किसके साथ अपना समय बिता रहा हूूँ। तो गुरू उससे कहते हैं कि तुम डरो नहीं, मैं 'ब्रह्मराक्षस’ हूँ। मेरी मुक्ति नहीं हुई थी, क्योंकि मैं अपना ज्ञान किसी को नहीं दे पाया था। अब मेरा सारा ज्ञान तुमको मिल गया है। मेरी मुक्ति हो गयी, लेकिन अब तुम्हारी मुक्ति तभी होगी, जब यह ज्ञान तुम किसी को दे दोगे!

यह जो समय है, सिर्फ़ लेने वालों का है देने वालों का नहीं है। बहुत देशभक्ति का समय है, क्योंकि देशभक्ति के लिये प्राण दो! सबसे बड़ी देशभक्ति तो आहुति माँगती है प्राणों की। यह कोई नहीं बताता है कि देश को भी देना है। क्या उनसेे यह कोई नहीं पूछता? देश क्या है? देश भी कुछ देगा? उन आधे बच्चों को, पचास प्रतिशत बच्चों को, जो भूखे और कुपोषित है। 'स्टंटेड’ है। उनकी बाढ़ मारी गयी है। 70 साल हो गये, हम बच्चों को भोजन नही दे पाये।

सारी कथाएँ मिलकर हमारे समाज को ही बता रही है कि यह कैसा समय है? कैसा देश है यहाँ क्या है? यहाँ तो कुछ भी नहीं है, यहाँ न्याय भी नहीं है। यहाँं रिटायर्ड चीफ  जस्टिस सुप्रीम कोर्ट का कहता है कि अगर मेरे ऊपर कोई सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा कर दे, तो मैं उससे लड़ नहीं सकता इस कोर्ट में आकर, न्याय मिलता ही नहीं इस देश में किसी को। उसकी कोई माँग भी नहीं करता! किसी चुनाव में किसी एम.पी. से कोई नहीं कहता कि न्याय-व्यवस्था बदलो! यह कौन-सी व्यवस्था है, जो पचास साल बाद फैसला करती है। यह न्याय व्यवस्था नहीं चाहिए हमको।

वो बात अधूरी रह गई थी कि हिन्दी को राजभाषा बना दिया। काम सारा अंग्रेज़ी में होता है। अनुवाद होकर हिन्दी में जाता है, बांग्ला में जाता है, मराठी में जाता है। काम तो अंग्रेजी में होता है ना! तो हमें क्या मिल रहा है उससे? हमें कुछ नहीं मिल रहा। जो दूसरी भारतीय भाषाएँ है दक्षिण की भाषाएँ हैं, या मराठी है, बंाग्ला है, उनको डर लग रहा है कि सचमुच अगर हिन्दी आ गई, तो हम दो नम्बर पर आ जायेंगेय क्योंकि हिन्दी-भाषी, 50-60 करोड़ हैं। उनको तो सुविधा हो जायेगी, सारा काम हिन्दी में होने लगेगा और हम मराठी-भाषी, बांग्ला-भाषी, मलयालम-भाषी, दो नम्बर के हो जायेंगे। तो हिन्दी का फायदा इसमें है कि वह राजभाषा न रहे। कम-से -कम जो डर और जलन हमारी साथी भाषाओं को है वह ख़त्म हो जायेगी और जो व्यवस्था है, बनी रहेगी। आज भी बनी हुई है। हमें क्या फर्क पड़ता है? हिन्दी भाषा बचेगी, तो उन लोगों से जो इस देश के बेपढ़े लोग हैं। वे हिन्दी बोलते हैं। हिन्दी बची है, तो इसलिए कि बाज़ार की भाषा है। हिन्दी है तो इसलिए कि टेलीविजन और सिनेमा की भाषा है। इसलिए हिन्दी बची है। हिन्दी कविता से हिन्दी नही बची है। हिन्दी कविता की जगह खत्म हो गयी है। बहुत सिकुड़ रही है यह जगह। तो इसलिए सिकुड़ रही है कि हमारी भाषा की हैसियत ही नहीं है ये कितने सौभाग्यशाली लोग हैं, देखिये! ये बहुत तेज लोग हैं। ऐसा सिर्फ  सौभाग्य की बात नहीं। यह भाग्य शब्द तो ठीक नही है, जो मैंने उपयोग किया। लेकिन अपने समय के, अपने विषय के, अपनी भाषा के बहुत ही होनहार और बहुत ही बु़िद्धमान लोग, जो शिक्षा-व्यवस्था में भाषा-साहित्य पढ़ाने के लिए तैनात हो गये हैं। बाकी लोग जो एम.ए. पास हिन्दी से हैं, जो एम.फिल. हैं, पी-एच.डी. किये हैं, उनका क्या होगा? अगर उनको टीचर का जॉंब नहीं मिला, तो उनको कोई जॉंब नहीं मिलेगा। आई.ए. एस. के लिए अंग्रेजी चाहिए, सब जगह अंग्रेजी चाहिए। हिन्दी कहीं नहीं चाहिए। मराठी नहीं चाहिए। यह भारतीय भाषाओं के लिए बहुत बड़ी दिक्कत का समय है।

अब मै आनन्द जी की बात कहूँं। मुक्तिबोध जी आये थे जबलपुर में मैं पैदल चल रहा था मुक्तिबोध के साथ, उन्होंने मुझसे पूछा-इंजीनियरिंग में क्या पढ़ते हो? मैंने कहा-इंजीनियरिंग पढ़ते हैं। तो उन्होंने पूछा-नहीं, सब्जेक्ट क्या होते हैं? मैंने कहा 'थियरी ऑफ स्ट्रक्चर्स’ होता है, 'स्टेऊंथ ऑफ मैटीरियल्स’ होता है। तो बोले- 'अच्छा, जो तुम पढ़ते हो, उसमें-से कुछ तुम्हारा ज्ञान लिखनें में आता है? मैने सोचा-यह कैसे आदमी हैं। 'थियरी ऑफ स्ट्रक्चर्स, 'स्टेंऊग्थ ऑफ मैटीरियल्स’ इन सबका कविता से क्या मतलब होता है? मेरा भौंचक्कापन देखा उन्होंने, तो समझ गये। उन्होंने कहा-'देखो, किसी भी कला का ज्ञान से कोई विरोध नहीं होता। कलाएँ क्या अज्ञान से पैदा होती है? हमने कहा-'नहीं, अज्ञान से तो पैदा नहीं होती होंगी उस वक्त इतना ज्ञान नहीं था। हमने जवाब दिया- 'अज्ञान से तो पैदा नहीं होती है अभ्यास तो बहुत करना होता है।’ उन्होंने कहा- कलाओं का और एक वैज्ञानिक का एक ही रास्ता होता है कि वह चीजों को देखता है। बिना देखे तो कुछ भी सम्भव नहीं होता। न कोई चित्रकला सम्भव है, न सिनेमा सम्भव है, न नाटक सम्भव है, न नृत्य सम्भव है। देखे बिना कुछ नहीं होता। 'देखने’ पर बहुत सुन्दर पंक्ति है अशोक वाजपेयी की-

'दृश्य एक परदा, क्योंकि दृश्य अपने पीछे दृश्यों को छिपाये रहता है। दृश्य की एक निरन्तरता, एक गहराई होती है। लेकिन हम सामने की सतह पर ही देखते रहते हैं।

खैर, मुक्तिबोध जी ने कहा- 'हम जो देखते हैं, तो कभी-कभी आश्चर्य करते हैं कि ऐसा क्यों है? तब हम उसके बारे में सोचते हैं और यही काम वैज्ञानिक करता है। वह देखता है, चीजें रहस्यमयी लगती हैं और वह उनके बारे में सोचता है। दोनों सोचते हैं। अब एक उसको अपनी कला में लाता है और दूसरा विज्ञान की अपनी खोज की ओर ले जाता है। पदार्थो के अन्दर ले जाता है। लेबोरेटरी में ले जाता है और हम मनुष्य के जीवन की ओर जाते हैं। यह कला है, जो मनुष्य के जीवन के बारे में, क्योंकि उसका सारा सम्बन्ध मनुष्य के जीवन से होता है, बात कितनी महत्त्वपूर्ण थी! मैंने जहाँ-जहाँं पढ़ा इस प्रक्रिया के बारे में, मैंने वहाँ-वहाँं पाया कि ज्ञान की प्रक्रिया और कला की प्रक्रिया एक ही होती है। बशर्ते हम उस रास्ते पर चलें कि चीज़ों को देखें। असम्बद्ध चीजों के बारे में आश्चर्य करें। जिज्ञासा पैदा हो उनके बारे में, सोचें और सोचकर पता करें और अपने जीवन, मनुष्य के जीवन की ओर लेकर उसे जायें। देखना, आप देखेंगे कि हमारी भाषा में किस-किस तरह से विन्यस्त है।

इन्होंने, पंकज जी ने कहा था कि बाँसुरी लेते आना! बाँसुरी तो मैं नहीं लाया लेकिन माउथ ऑर्गन लाया हूँ। संगीत के बारे में कोई बात कहने का मौका आया और उदाहरण देना होगा, तो आपको मैं देकर बताऊँगा। क्योंकि संगीत ऐसी चीज है कि बिना उदाहरण के, बिना संगीत को सुने, अब मैं आपको इन्स्ट्रूमेंट दिखाऊँ, तो आपको क्या दिखेगा उसमें? सुनकर देखना, तो मैं आपसे यही कहूँगा। ऐसे क्या देख रहे हैं, सुन के देखिये! आप कपड़ा खरीदते हैं, तो छूकर देखते हैं उसे। चीज़ों को छूकर भी देखा जाता है। आज मैंने सुबह बहुत सुन्दर नाश्ता किया, तो उसको स्वाद से देखा। मैं दही बड़ा खा नहीं रहा था। तो उन्होंने कहा, मैडम ने, जिनको भाभी (कथाकार गिरिराज किशोर की धर्मपत्नी मीरा जी) कहता हूँ। मैं-''अरे नरेश जी, खाके तो देखिये!’’ तो देखना कितनी तरह का होता है हमारी भाषा में, क्योंकि बहुत देखना होता है। सिर्फ आँखों से ही नहीं देखना होता है, छूकर देखना, नाक से सूँघकर देखना, गंध से देखना। फूल कहाँ से कहाँं भेजकर हमें दिखा देता है कि नहीं? माओं की कविता है -

जेल में, कोठरी में, एक दमघोंट कोठरी में बन्द हैं कुछ कैदी। हवा का झोंका आता है और गुलाबों की खुशबू आती है, कैदी कहते है-अरे! बाहर गुलाब खिले हैं और वे जेल तोडऩे पर अमादा हो जाते हैं। गुलाब कहाँ खिला होगा, उसे क्या पता कि वो क्या कर रहा है।

आज के समय में हमारे बीच सुन्दर चीजों, सुन्दर रचनाओं, विचारों, कविताओं की जगह सिकुड़ रही है। लेकिन उनकी एक बहुत बड़ी भूमिका है और उस भूमिका के हिस्सेदार आप भी हैं, और मै भी हूँं। कहीं-न-कहीं एक सुन्दर कविता को होते रहना चाहिए। और उन गुलाबों को सिर्फ  नहीं जो बिना खुशबू के होते हैं। खुशबूदार देशी गुलाबों को खिलते रहना चाहिए। देखना फिर भी पूरा नहीं होता जीभ से देखो नाक से देखो सुनकर देखो देखना फिर भी पूरा नहीं होता। अन्त में हम सभी कहते हैं, अब जरा इस बात को सोचकर देखो तो हम उसे सोचकर देखते हैं और बिना सोचे कुछ देख नही सकते। समझ लीजिये, अगर सोच के नहीं देखा, तो कुछ नहीं देखा। सोचकर देखना जो है, यह भाषा से साहित्य से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। यह विज्ञान से भी जुड़ा है, सारी कलाओं से जुड़ा है। उसको देखना होता है।

इतनी देर तक मुझे आपने बिना हूटिंग किये सुना, तो बहुत-बहुत धन्यवाद! आपका और (अध्यक्षता कर रहे) गिरिराज जी का मुझसे वह हर तरह से बड़े हैं। वह साधारण नहीं हैं। तो यह मेरा सौभाग्य है। वह आपके शहर में है, यह आपका सौभाग्य है।

 

यशस्वी कवि नरेश सक्सेना  द्वारा विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर में हिन्दी विभाग के आयोजन में कविता और मेरा समय विषय पर गुरूवार 25 अक्टूबर, 2018 को दिये गये एकल व्याख्यान का संपादित पाठ।

प्रस्तुति: प्रदीप कुमार (शोध छात्र) कानपुर विश्वविद्यालय, जयप्रकाश नगर, (छोटी बाजार) बिल्हौर, कानपुर नगर, मो0 9793809828

पहल सम्मान से सम्मानित हिन्दी के अत्यंत लोकप्रिय कवि नरेश सक्सेना अपनी कविताओं और उनके पाठ के लिए देशभर में लोकप्रिय हैं। वे गीत विधा से कविता में आए और कविता पर अनथक वार्ता करने की हिम्मत रखते हैं। देशाटन, पाठ और कवियन की वार्ता उनकी रुचि और उत्साह में है। यहाँ प्रकाशित व्याख्यान उन्होंने 2018 में कानपुर में दिया था, जिसे पंकज चतुर्वेदी ने हमें उपलब्ध कराया। संपर्क - लखनऊ

 


Login