मुखपृष्ठ पिछले अंक मेरा लहू बहुत उदास था
जून 2019

मेरा लहू बहुत उदास था

शशिकला राय

सिनेमा/विडो ऑफ सायलेंस-प्रवीण मोरछले

 

 

 

बंदूक से चली हर गोली अंतत्वोगत्वा किसी 'महिला’ के ही सीने में जा धँसती है-गोर्की

 

कहाँ जाए हम आखिरी सरहदों के बाद

आखिरी आसमानों के बाद कहाँ भरे उड़ान चिडिय़ा

 

कहाँ सोये पौधे आखिरी सांस के बाद

- महमूद दरवेश

 

महमूद दरवेश की चिंता किसी भी संवेदनशील मन की चिंता हो सकती है जो प्रकृति से, प्राणी से रिश्ते में बुद्ध हो जाए। ऐसी ही करुणा अहिंसा तरलता मैं प्रवीण मोरछले में देखती हूँ। जो अपने हाथों में कुल जमा मात्र तीन फिल्में लिए खड़े हैं। (बेयर फुट टू गोवा, वाकिंग विथ द विंड, विडो आफ सायलेंस, प्रवीण  की तीनों फिल्में राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई हैं। वाकिंग विथ द विंड तीन राष्ट्रीय पुरस्कार की विजेता रही हैं।) पर यही तीन फिल्में संवेदनात्मक ज्ञान के कारण उन्हें उत्कृष्टतम निर्देशकीय प्रतिभाओं की कतार में ला देती हैं। इन फिल्मों का रीमेक नहीं किया जा सकता है। इनकी श्रृंखला नहीं बनायी जा सकती। बकौल कुमार गंधर्व ''हर रचनात्मक परफार्मेंस एक निर्मित है, जिसे दुहराया नहीं जा सकता।’’ यथार्थ की जटिल और अपारदर्शी तहों को उजागर करने की कोशिश में उनकी फिल्मों की संरचना गंभीर और विकासशील हो जाती है। प्रवीण की सांस्कृतिक चेतना पूरे बल के साथ अपने समय में हस्तक्षेप करती है। वे रेम्ब्रा की तरह सत्य को नाजुक ढंग से छूने की कोशिश करते हैं। तर्क या विश्लेषण से नहीं, इस सत्य की अनुभूति वे हृदय में और स्वप्न में करते हैं। प्रवीण अखबार लेखन और थियेटर से बहुत जल्दी मुड़ जाते हैं, किसी और राह की ओर। थियेटर उन्हें लाउड लगता है। पीड़ा की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम खोज रहे थे वे, वह माध्यम क्या होगा उन्हें भी कहाँ खबर थी? बस तलाश थी एक ऐसे मुहावरे की जो अपनी चुप्पी में मुखर हो जाय। सबके अपने तीर्थ होते हैं, जहाँ वह अपनी सारी सात्विकता सौंप देता है और उदात्तता उजास से भरा लौटता है, प्रवीण के लिए सिनेमा वही तीर्थ बन गया। कोलम्बस की तलाश पूरी हुई।  प्रवीण अपने कैमरे का प्रयोग उसी तरह से करते हैं जैसे कोई लेखक अपनी कलम से करता है। वे चित्रों का ऐसा विधान प्रस्तुत करते हैं, जिसे हम भाषा की तरह पढ़ सकते हैं और विचारों की तरह सोच सकते हैं। प्रवीण उन अनुभवों को पकड़ते हैं, जहां कोशिश करके ही पहुँचा जा सकता है। जगहों का खुलापन कभी-कभी इतना संकुचित हो जाता है, कि दम घुटने लगता है। भारतीय फिल्म प्रतियोगिता में चुनी गई सर्वश्रेष्ठ फिल्म 'विडो आफ सायलेंस’ (प्रवीण मोरछले) इन्हीं जगहों की अंतहीन व्यथा उजागर करता है। प्रवीण मोरछले कश्मीर को मनुष्य की तरह बूझते हैं, जमीन की तरह नहीं। कश्मीर के लिए उसी तरह की मानवीय हमदर्द आँखों की तलाश भी करते हैं। कल तक कश्मीर भारत की आत्मा एक पुराने सुदृढ़ वृक्ष की तरह थी। जिसकी शाखाएँ गगन में बाहें डाल लाड़ जताती थी। जड़ें धरती की गहराईयों में समाई थी। रास्ते चिनारों से दहकते थे। हर मौसम में वसंतऋतु से ही फूल खिलते थे। उसका राग रंग कब अंतहीन विलास में बदल गया। फूलों में रक्त आँसुओं की गंध व्याप्त हो गई। युद्धपीडि़त (किसी भी तरह का हो) बच्चे और महिलाएं विकल्पहीन दुनिया में कैद होकर रह गए। ''कश्मीर एक भयावह संभ्रम की स्थिति में है। सौकत कहते हैं कि पहली पीढ़ी को नेतृत्व में विश्वास था। दूसरी पीढ़ी नेतृत्व की तलाश में थी। तीसरी पीढ़ी कोई नेतृत्व चाहती ही नहीं थी।’’ (कश्मीरनामा अशोक पाण्डेय) शोक और विलाप से व्याकुल ही इस धरती के लिए प्रवीण मोरछले उस बेचैन समुद्र की तरह हो जाते हैं, जो कभी नहीं सोता ताकि निद्राहीन आत्माओं का संबल बन सके। कठिन समय की अवधारणा और संकट से गुज़र रही मानव सभ्यता उनकी फ़ि ल्म की नाभिकीय चेतना बन जाती है। ऐसे समय में जब राजनीतिक ताकतें मनुष्य की निजी ज़िंदगी को नियंत्रित कर लेती है, उनके बुनियादी अधिकारों पर भी सत्ता का नियंत्रण हो जाता है। कोई भी संवेदशील मन यूटोपिया नहीं रच सकता। भाषाशास्त्र को और स्त्री संसार को कश्मीर की त्रासद स्थितियों ने एक नया शब्द दिया 'आधी विधवा’ ('हाफ विडो’)। 'विडो आफ सायलेंस’ एक आधी विधवा की कहानी है। (क्या केवल एक?) घर में तीन पीढिय़ों की स्त्री (माँ, पत्नी, पुत्री) और गायब पति की अनवरत प्रतीक्षा मैं फिल्म के शीर्षक को 'विधवा का मौन’ की बजाय मौन की विधवा के रूप में देखती हूँ। आसिया जिलानी उसकी विधवा है जो रहस्यमय तरीके से मौन है। ये अभिशप्त मौन उन लोगों का है जिन्होंने बहुत सारे शब्दों को उच्चारने के सपने देखे। कुछ कहानियाँ हमें बहुत उदास करती है। जीवन के कटु संघर्ष की जिनके अपने ही जीवनगति पर कोई वश नहीं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई भविष्य न बना सकी। जाफ़रान की खेती जीवन न महका सकी।-

जिसने नजर उठाई वही गुम हुआ

इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए।

इन्हीं गुम, हताश निराश जिन्दगियों की बात फिल्म करती है। समकालीन दबावों और प्रलोभनों से हटकर समानांतर फिल्मलोक बना रहे हैं, प्रवीण। वे कार्लोस फेंतेस की डायरी के उस वाक्य की तरह 'फोदा अपनी मौत नहीं मरी थी जिन्दगी ने उसकी हत्या की।’ (टेबल लैम्प गीत चतुर्वेदी) प्रवीण उन्हीं आत्माओं को साथ लेकर खड़े हैं, जिनकी हत्या ज़िन्दगी ने की है। दर्शक को बिना भ्रम में रखे बिना सुखद अंत की सुरक्षा प्रदान किए। वे अपनी फिल्मों में किसी प्रकार का प्रतीकार्थ नहीं आरोपित करते। रॉबर्ट ब्रेसॉ की तरह वे अपनी फिल्मों को देखते हैं - ''अपनी फिल्मों को गतिमान धाराओं और ध्वनियों के विन्यास की तरह देखो उन्हें किसी चीज का नुमाइंदा मत बनाओ प्रतीकार्थ न आरोपित करो।’’ ''आठ से दस हजार लोगों का पता ही नहीं। न थाने में रिकार्ड न लाश इनकी पत्नी आधी विधवाएँ कहलाती हैं। माएँ भी आधी माएँ कहलाती हैं। गार्जियन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक एक सरकारी जाँच में यह स्वीकार किया गया कि उत्तरी कश्मीर की अड़तीस जगहों 2156 ऐसी कब्रें हैं जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं है। (कश्मीरनामा अशोक पाण्डेय) आधी विधवा आधी माँ जैसे शब्दों को लिखते समय मैं कलम की थरथराहट हिचकिचाहट महसूस की। सौन्दर्य और नजाकत से जन्म लेने वाली ज़िन्दगियों का शव परिधान बनने वाले मौत के सौदागरों के दिल भी क्या हमारी तरह ही होते होंगे? नहीं कुछ अलग होते होंगे। जहां मानवता हर वक्त खौफ़जदा हो पनाह माँगती होगी। 'विडो आफ सायलेंस’ कश्मीर के सौन्दर्य का प्रतिपक्ष रचती है। मूकवेदना और असहाय स्वीकार्य ही उनकी फिल्म का शिल्प बन जाता है। प्रवीण कैमरे से कश्मीर के सौन्दर्य का आश्चर्यलोक नहीं फैलाते हैं बल्कि साधारण फ्रेम में एक साथ बाहरी दुनिया की हलचलों और भीतरी दुनिया के दर्द को उकेरते हैं। असंवाद अवसाद, असुरक्षा अपारिभाषित आतंक से शुरू होकर सपनों और उम्मीद की दुनिया तक पहुँचाते हैं। उदासी अंतर्धारा है। उम्मीद के खिलाफ भी एक उम्मीद है। हर साधारण जीवन की सामग्री को प्रवीण असाधारण बेचैनी से जोड़ देते हैं। आसिया और बिलाल फिल्म के वे ही सूत्रधार हैं, जो बाहरी और भीतरी दुनिया की तड़प को एक साथ हमारे मानसपटल पर लाते हैं। बिलाल केवल ड्रायवर नहीं है वह समय का हमराज है और समय उसका हमराही। बिलाल कश्मीरयत को बचाने की जिद्द है। अपनी धरती का सच्चा मासूम सपूत भी। वह जानता है इस्लामियत किसी स्त्री-पुरुष के साथ बैठने से संकट में नहीं आ जायेगी पर किसी बेगुनाह के कत्ल से जरूर संकट में आ जायेगी। जीना यहाँ मरना यहाँ। वाला सम्बन्ध है उसका अपनी माटी से। ''हमको तो ऊपर जाना नहीं हम तो यहीं खुश है।’’ यहाँ पर इतना खामोशी क्यों है? खामोशी कहाँ है? बन्दूकों की आवाज तो सुनाई देती रहती है। पत्थरबाजी और बंदूकों ने कश्मीर के मौसमों को बेरंग कर दिया -

मौसमों का कोई मरहम हो तो पूछो

कितने पतझड़ बाकी है बहार आने में।

यह फिल्म किसी धर्म संप्रदाय पर टिप्पणी नहीं करती। सिनेमा के दृश्य ऊपर से स्थिर लेकिन भीतर से उतने ही ही गतिशील हैं। 'विडो आफ सायलेंस’ जीवन को खास तरह से देखती और सुनती ही नहीं बल्कि सोचती और रचती भी है। फिल्म में देर तक चुप्पी चलती है, चुप्पी सिनेमा की भाषा है। चुप्पी और आसियाँ की आँखें ही सिनेमा की प्रमुख भाषा बन जाती है। सिनेमा की यह भाषा कमाल करती है, जब तक स्क्रीन उपस्थित रहती है पूरी स्क्रीन चिंतन और दर्शन से भरी रहती है बिन संवादों के ही। निम्नमध्यवर्ग के टूटे-फूटे सपनों की तरह टूटी-फूटी ज़िन्दगियाँ, जीवन की न्यूनतम जरूरत पूरा न कर पाने की बेचैनी। तल्खियाँ, खुरदारापन। स्याह कातर आँखें स्क्रीन का अतिक्रमण कर कलेजा बेध देती हैं। किरदारों की हरकतें हजार-हजार संवादों पर भारी है। आसिया का अपनी सास को बाहर जाने से पहले कुर्सी से बाँधना दर्शक को पहले आश्चर्य से फिर करूणा से अंतत: अवसाद से भर देता है। (सास लकवाग्रस्त है) खामोशी की अपनी जुबान होती है, आवाज होती है जिसको रूह से महसूस किया जा सकता है। पढ़ा जा सकता है। अगर कहीं संवाद आता भी है तो इतना सघन की एक पंक्ति पूरी फीचर फिल्म की पूर्णता तक पहुंच जाती है। यानि पूरी फिल्म। 'कहीं बंदूक और फूल से मुहब्बत न हो जाय जनाब।’ अनेक अर्थछाया देने वाली यह भाषा कश्मीर की ही मिट्टी उगा सकती है। कबीर राबिया से लेकर सूर, जायसी तक सबकी पद्धति तो मुहब्बत की ही रही है। एक स्त्री अनवरत पीड़ादायी यात्रा में है। वासना और जमीन के घने जंगलों में गुम है कहीं एक निर्जीव कागज का टुकड़ा जिस पर रहस्यमय अघोषित तरीके से दर्ज है मौत। इस मौत के घोषणापत्र से कई जिन्दगियों के रास्ते खुल जायेंगे। प्रवीण अपनी फिल्म में पाश्र्वसंगीत नहीं देते, वे संगीत रहित ध्वनिरूपक बनाते हैं जिन्हें दर्शक देखने से ज्यादा अपने भीतर आत्मसात करता है। स्त्री न केवल गृहिणी है न व चंचल नायिका बल्कि वह नैतिक दृष्टि से केन्द्रीय भूमिका में है। आसिया की मित्र समझाती है, 'होशमंदी से काम लेना जिसका अपना शौहर गायब होता है। दुनिया के सारे मर्द उसका शौहर बनना चाहते हैं। सैकड़ों कहानियाँ है हर गाँव में।’ रजिस्ट्रार के संवाद से इस शर्मनाक सत्य का आवरण हट जाता है 'सात साल तक खेती न की जाये तो जमीन भी बंजर हो जाती है।’ खेती का यह सत्य भी फिल्म में आकर अश्लील हो उठता है। 'खेती भी माने’ जिसका शौहर गायब हो जाए तो वह औरत बिन जोती जमीन ही हो जाती है। बीस प्रतिशत रिश्वत (जमीन बिकवा कर) और हमबिस्तर होने के बदले में रजिस्ट्रार कल ही डेथ सर्टिफिकेट जारी करवा देंगे। 'सरकार ने अवाम के लिए कभी मुफ्त में कुछ किया है?’ तो ऐसा और कहां होता होगा जहां मौत से रिश्वत वसूल की जाए। एक माँ भी है इस खोयी मौत नाम के शख्स की जिसे आप गलती से मुश्ताक कह सकते हैं। इनाया की किताब के पन्नों में यह कभी-कभी दिख जाती है। माँ सिर ढके झुकी-झुकी आँखों और अंधेरे की स्याही में लिपटी वह औरत है जिसने सात सालों से बोलना बंद कर रखा है। फिल्म अर्धमूक फिल्म का एहसास दिलाती है। फिल्म दरअसल मानव की त्रासद आत्मा का चित्राकंन है, इसीलिए प्रवीण फार्मूला (मसाला) की सारी चीजें खारिज कर देते हैं। सेट हो या कलाकार भव्यता के फ्रेम को तोड़ते हैं। खास तरह की सादगी को अपना उपकरण बनाते हैं, राग रंग रस से परे। प्रवीण कोमलता को इस तरह से फ्रेम में लाते हैं कि नृशंसता बेनकाब हो जाती है। एक दृश्य में इनाया के सहपाठी (स्कूल का दृश्य) पेपर की गोली बनाकर फेंकते हैं और चिढ़ाते हैं वे तुझे भी उठा ले जायेंगे। बच्चे की समझ आघात नहीं सह सकती पर क्या करें कश्मीर की तो पूरी एक पीढ़ी ही आघातों के साये तले बढ़ रही है। यह दृश्य दर्शक को संताप अपराधबोध पश्चाताप से भर देता है। एक बार ठहर कर 'खारी’ होती जा रही भाषा पर सोचना ही होगा। यह फिल्म हमें सोचने की बड़ी वजह दे देती है। सच ही कहते हैं, प्रवीण कि मैं कैमरे को हटा देता हूँ। दर्शकों के सामने जीवन होता है, जीवन की छायाएँ नहीं। प्रवीण की कलात्मक तड़प हमारे तंत्री पर आघात करती है। इनाया मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ रही है बाहर गोली चलने की आवाज। इस आवाज की पहचान हिंदू, मुस्लिम, आतंकवादी, सुरक्षाबल के रूप में नही ंकी जा सकती। बस एक ही पहचान है हिंसा। दर्शक इनाया के चेहरे का भय नहीं देख पाता स्क्रीन पर फैली स्याह रात उसे सुकून देती है चौपाए की तरह इनाया का चलना मोमबत्ती बुझाना खिड़की बंद करना सारा का सारा दृश्यि सांस रोके दर्शक अपनी सनसनाती हुई रीढ़ से महसूस करता है (बशारअत पीर की 'कफ्र्यूड नाईट’ जिंदा दस्तावेज है इन स्थितियों का) गीत याद आते हैं। (गीत चतुर्वेदी) ''यह पेंसिल के जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि लिखते हुए टूटने की बजाय छीलते समय टूट जाए।’’ हजारों इनाया की तकदीर छीलते समय टूट जाने वाली पेंसिल की तरह हो गई है। कश्मीर की चट्टानों में झरनों के नहीं युद्ध के स्रोत छिपे हैं। बिलाल का अपने पूरे समय को रात के रूप में देखना 'अब तो दिन भी रात जैसा लगता है।’ बड़ा सवाल खड़ा करता है। जिसका जवाब प्रवीण को अकेले नहीं हम सबको मिल कर तलाशना होगा। पत्थरबाजी और बंदूकबाजी के बीच शायरी का स्पेस तलाश लेना अखिल विश्व का सौन्दर्यीकरण है, आपस में जोड़ पाने की आस्था से भरा। कविता, गीत, शायरी आज इसकी अहमयित प्रश्नचिन्हित भले ही हो पर बंदूक और पत्थर पर जीत इन्हीं की होती है। चार्ली चैप्लिन कहते हैं - 'कविता दुनिया को संबोधित एक प्रेमपत्र है।’ प्रवीण इस संदेश को खूबसूरती से संप्रेषित करते हैं कि हिंसा की अपेक्षा साहस और मानवता में ज्यादा शक्ति है। प्रवीण अपने माध्यम से दिखाते भर नहीं बल्कि उस माध्यम से हमें एक नए अर्थ तक पहुँचाते हैं। पूरा स्पेस था कि 'विडो आफ सायलेंस’ से अतिभावुकता, अति नाटकीयता, अति अभिनय का प्रयोग हो सके पर प्रवीण ऐसा कुछ भी नहीं करते, बल्कि अपने सूक्ष्म कलात्मक विवेक से वे दृश्य भाषा को क्लासिक की तरह रच रहे थे। स्त्रियों और बच्चों की मुश्किलें, यातनाओं को एक चेरा दे रहे थे। इसी को कुँवरनारायण 'कैमरे की कविता’ कहते हैं। अभिनय में अद्भुत संयम, सहजता कुशलता एकाग्रता आसिया को सिनेमा के कालजयी पात्रों के पथ पर ले जाती है।

'विडो आफ सायलेंस’ उन फिल्मों में से है जो जीवन को केवल खास तरह देखती और सुनती ही नहीं बल्कि सोचती और रचती भी है। व्यवस्था की संवेदनशीलता (अ सायलेंट है) देखिए 'मंगल-बुध आपके नाम हो ही चुके है। जल्दी जुम्मे रात भी आप लोगों के नाम हो जायेगा।’ यह संवाद हमें कब्रों में सोई अनाम खोपडिय़ों तक ही नहीं ले जाता बल्कि कश्मीरी स्त्रियों को बेपनाह करती स्थितियों तक लेकर जाता है। मनुष्य और मनुष्यता को शमशान में बदल देने की ताकतें जवां हो रही हैं। बकौल लीलाधर जगूड़ी-

 

खबरों में लोग मरे पड़े थे

और विज्ञान में जूता भी सांस ले रहा था।

किसान की मासूमियत खबरों में सुनना चाहती है कि उनकी बकरी घास खाती है और एक लीटर दूध देती है पर रेडियो है, कि मृत्यु का मसिर्या बाँचता चला जाता है। बिलाल का सुझाव है, कि इस भोलेपन की जगह तो पागलखाना ही है। जीवन ही सहज नहीं रहा तो खबरें कहाँ से सहज रहती है। 'कौन किसान होना चाहता है? कौन अपने बेटे को भूखा सुलाना चाहता है।’ किसान के ये बोल भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण कर कश्मीर में जाफरान उगाते किसान और मराठवाड़ा में बाजरा उगाते किसान को दुख के एक धरातल पर ले जाते हैं। पूरी फिल्म धीमी गति से चलती है। संवादों की धीमी लय सिहरन पैदा करती है। परन्तु सिनेमा का यही धीमापन और प्रकृति की उदास सिम्फनी उसकी शक्ति बन जाती है। वह तेज रफ्तार वालों के बरअक्स सामंतशाही छदमराजनीति, नौकरशाही के प्रतिरोध का एक समर्थ मुहावरा रचती है। 'जीवन संदर्भों की धड़कती चेतना बन जाती है पूरी फिल्म। आसिया के भीतर इनाया नाम के पौधे झुलसने से बचाने की एक जद्दोजहद है, आज के संदर्भों में बचाना, बचा पाना, बचा ले जाना, शब्द ही भारतीयता का भावात्मक नौतिक सौन्दर्य है। अंतर की आग में दग्ध मनुष्य की उहा, आधी रात न जाने कितनी अनकही बातें फूट पड़ती है आसिया का इनाया के संग एकतरफा संवाद - ''तुम्हें मालूम है तुम्हारा सच क्या है? दूसरों का झूठ तुम्हारा सच नहीं हो सकता। हर तरफ दुश्मन है। मैं घर जमीन तुम्हारे नाम कर दूँगी तुम्हें खड़ा रहना होगा रोते हुए हँसते हुए। तुम्हें हार नहीं माननी है। पढ़ाई करके निकल जाना इस जहन्नुम से।’’ घर जमीन शिक्षा को परिधि बना कर केन्द्र में बेटी को देखने वाली वह केवल माँ नहीं बल्कि स्त्री चेतना से सम्पन्न एक 'स्त्री भी है, जिसके भीतर वर्जिनिया वुल्फ धड़कती है। आसिया जिजीविषा के अर्थ को सामूहिक आक्रामकता के खिलाफ एक बिल्कुल निजी और मानवीय प्रसंग के स्तर परिभाषित और स्थापित करना चाहती है। 'तुम्हें जीना है और स्वतंत्र रहना है।’ जीने की परिभाषा ही स्वतंत्रता में है। आसिया जीवन को साधने में लगी है। हृदय के रेगिस्तान में कहीं कोमल अँखुलाया पौधा है, उसे भी मुरझाने देना नहीं चाहती पर बेबसी का आलम है कि 'मैं किसी को चुनूँ ऐसी मेरी तकदीर कहाँ।’ बिना गिरे बिना झुके, अपने दर्द को सह जाने का सामथ्र्य बनाये हुए वह उन्हीं स्त्रियों में से है जिनका नेल्सन मंडेला आदर करते हैं। (शक्तिमति) पर रजिस्ट्रार का क्या करे आसिया? वह तो क्लेज सांद्रार की काव्य पंक्ति की तरह ''वह अपनी पोशाक पर बदन पहने हुए था।’’ आसिया थप्पड़ मार कर उसके नंगेपन का इलाज कर देती है। वह जानती है आज भी स्त्री श्रम और स्त्री देह से सस्ता कुछ भी नहीं -

मैं एक ऐसी व्यवस्था में जीता हूँ

जहाँ मुक्त ज़िदगी की तमाम संभावनाएं

सफेद आतंक से भरी इमारतों के कोनों में

नन्हें खरगोशों की तरह दुबकी पड़ी है।

- कुमार विकल

इनाया के लिए सायकल लेना चाहती है आसिया और बैंक जाने पर पाती है कि, उसके आत्मसम्मान की कीमत ने जिंदगी के सारे रास्ते बंद कर दिए। आसिया उस कब्र में है जिसे मृतकों ने जीवितों के लिए बनाया है। पति की मृत्यु का प्रमाण पत्र तो मिला नहीं अंतहीन भटकाव के बावजूद, हाँ उसकी अपनी मृत्यु का प्रमाणपत्र अवश्य उसे थमा दिया जाता है। संकट संशय, द्वन्द, दुविधा अजीब समय आसिया के लिए पर कभी उसे आवेग में फटते नहीं देखा जा सकता जबकि उसके आस पास दुनिया विध्वंस के कगार पर खड़ी है। आसिया के पैर सफेद इमारतों के कोनों में कैद नन्हें खरगोशों की रिहाई के लिए बढ़ गए, हाथों में फूलों का गुच्छा लिए हर दिन की तरह सर्द और खामोश। आसिया रजिस्ट्रार की हिंसा रहित हत्या कर देती है। हिंसा रहित हत्या शब्दार्थ में गलत है पर भावार्थ और संदर्भ में दुरुस्त। दुरुस्त है उस जमीन के लिए जो फल उगाने के बजाय खर-पतवार उगाने लगे। ''यह विवशता बना देती है, सरल जीवन को खून की आंधी।’’ (शमशेर) आसिया उदास लहू वाली स्त्री है कश्मीर की हजारों-लाखों स्त्रियों का लहू उदास है। सारा शगुप्ता की तरह उनके घरों की आग चोरी हो गई है, उनकी रोटियाँ कच्ची है। आसिया थाने में उपस्थित है अपनी मृत्यु के प्रमाणपक्ष के साथ। दूर कहीं तैरते हैं हवा में रजिस्ट्रार के शब्द ''तुम अपने मरने से पहले तक यह सिद्ध नहीं कर पाओगी तुम जिंदा हो।’’ फिल्म इंसाफ पसंद ज़िन्दगी की हसरत लिए थम जाती है।

फिल्म पर लिखते हुए यह स्वीकारने में मुझे कत्तई हिचक नहीं कि फिल्म को आँखों के अतिरिक्त किसी और माध्यम से देखना सुखद नहीं कहा जा सकता। विषय वस्तु के चयन व रचाव पर प्रवीण मोरछले की अनोखी पकड़ होती है। वे फिल्म उद्योग की होड़ से परे जाकर निर्भय और प्रभावशाली फिल्में रचते हैं, क्योंकि वे जानते हैं, कि कमर्शियल मानसिकता से बनाई गई फिल्म अपने आशयों और उनकी संरचनाओं को सपाट कर देती है। कोई संदेह नहीं कि समकालीन सिनेमा के परिदृश्य में प्रवीण मोरछले विशिष्ट लैण्डमार्क साबित होंगे। अखबार में फिल्म समीक्षा के कोने में 'पॉपकॉर्न मस्ती’ (न.भा.टा) लिखा रहता है। मैं हैरत और दुख से भर उठती हूँ। जिन लोगों के लिए सिनेमा मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं उनके लिए शशिप्रकाश के शब्दों में बस इतना ही कह सकती हूँ-

एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है।

एक अगंभीर हँसी मुझे रुला रही है।

 

शशिकला राय पुणे विद्यापीठ में प्रोफेसर हैं। मराठी साहित्य और सिनेमा पर विशेष अधिकार है। दलित कार्यकत्र्ता हैं। पहल में 'सैराट’ और उसके निर्माता पर उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। संपर्क - मो. 9665380902, पुणे

 


Login