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जून 2019

रसातल

त्रिभुवन

पहल प्रारंभ/मीडिया

 

 

''सत्य के लिए कभी किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’’

-  हजारी प्रसाद द्विवेदी, ''बाणभट्ट की आत्मकथा’’में

 

''मनुष्य अपने कर्तव्य की आवाज़ को निर्विवाद नियम माने। अंत:करण के आदेशों का पालन करे। भले वे उसके भौतिक हितों के, जैसे पदोन्नति, वेतनवृद्धि, लाभदायी अंश आदि विरुद्ध ही क्यों न हो! मनुष्य को इस लोक में अपने सदाचार के बदले पुरस्कार की कोई आशा नहीं करनी चाहिए।‘’

- इम्मानुएल कांट, ''मेटाफ़ि‍ज़ि‍क्स ऑव मॉरल्स’’में

 

 

पोस्ट ट्रुथ एरा में सम्मोहक झूठों के सामने बौना होता सच और इस कालखंड को कुहनियों से ठेलते कुछ नैसर्गिक स्वर

 

वे एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं। डॉक्ट्रेट हैं। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर पीएचडी की है। वे कई बड़े नेताओं को अपनी सेवाओं से प्रभावित कर चुके हैं। वे अक्सर मुझे ऐसे वाट्स ऐप करते रहते हैं, जिनमें झूठ और सांप्रदायिकता फैलाने के लिए आरएसएस को कोसा जाता है। मैं नहीं समझता कि जिन मेधावी लोगों को मैं जानता हूं, उनमें से वे किसी से कम बुद्धिमान होंगे।

यह घटना छह सितंबर 2018 की है। उस दिन जब देश में दलित आंदोलन हुआ तो उन्होंने मुझे कुछ ऐसे फोटो भेजे, जिन्हें जोधपुर से लाइव बताया गया था। इनमें दलित युवक एक पुलिस अधिकारी को पीट रहे थे। एक चित्र में पुलिस अधिकारी ज़मीन पर गिरा पड़ा था और युवक उन पर लात जमा रहा था। उन्होंने इस चित्र के नीचे लिखा : सर, नाऊ ऐनफ़इज़ ऐनफ़। ये एससी वालों ने हदें पार कर दी हैं। अब और बर्दाश्त नहीं होता! वे जिस फोटो के कारण उद्वेलित थे, वह झूठ था। वह सोशल मीडिया का एक पुराना फोटो था और शरारती तत्वों ने उसे दलितों के नाम से चला दिया।

मेरा मंतव्य और मक़सद न तो बंद के दौरान हुई हिंसा पर कोई लीपापोती करना है और न ही किसी भी तरह के किसी आंदोलन में हिंसा करने वालों के प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति जताना है। बात है ख़बर की सत्यता, वायरल होते झूठ और उस पूरे सत्ता-बाज़ार और सियासत के षड्यंत्र के पीछे की कहानी और एक सुनियोजित सुचिंतित षड्यंत्र की, जिसने राष्ट्र की लोकचेतना और लोकनीति का हरण कर लिया है।

पत्रकारिता का काम है बिना किसी प्रलोभन और बिना किसी भय के ख़बर देना। यह आईना भी है। इसमें समाज के विभिन्न तबके अपनी सूरत और सीरत देख सकते हैं। लेकिन लगता है कि अब इसे जंग लग लग गया है। हमारी पत्रकारिता में भी अब वही शिटस्टॉर्म उठ खड़ा हुआ है, जिसे हम राजनीति में बहुत साफ़ ढंग से पहचान लेते हैं और कई बार अपनी नाक पर रुमाल तक रखने को बेबस हो जाते हैं।

हालांकि न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और हमारे विश्वविद्यालयों में भी यही तूफ़ान सम्मोहक, लेकिन विनाशकारी ढंग से मचल रहा है। अब इसकी दुर्गंध में भी एक सम्मोहन महसूस किया जा रहा है। अब हमारी पत्रकारिता से चार कदम आगे झूठ के हरकारे हैं। अगर एक विश्वविद्यालय का सुशिक्षित प्राध्यापक ऐसे झूठ का प्रसारक हो सकता है तो जो आम लोग अक्सर ऐसा कर बैठते हैं, उनका क्या कुसूर है!

लेकिन मेरी चिंताएं मेरे अपने प्रोफ़ेशन को लेकर भी हैं। हम हर सुबह जब अपनी ज़िंदगी शुरू करते हैं और हमारे रिपोर्टर के रूप में हम जब ख़बरें डालना शुरू करते हैं, तब तक इस पोस्ट ट्रुथ एरा के निष्णात शिकारी अपने आशियानों से वायरल झूठ के इतने मिट्टू उड़ा चुके होते हैं कि सच को लोग सच मानने को ही तैयार नहीं होते। और नतीजा ये निकलता है कि शिकारियों के सम्मोहक पिंजरों में सच छटपटाने लगता है और जब वह हताहत रूप में लोगों के सामने आता है, तब तक लोगों की मन:स्थिति ऐसी हो जाती है कि वह सच को सच स्वीकार ही नहीं कर पाती।

और यह वायरल झूठ आजकल इतना ताक़तवर हो गया है कि एकबारगी इसे सच भी देख ले तो इसे ही सच मान बैठे। इसका असर पत्रकारिता पर भी हुआ है। हर रोज़ वायरल किए जाने वाले झूठ ने पत्रकारिता जैसे पवित्र प्रोफ़ेशन को ठिकाने-सा लगा दिया है। ऐसे में पत्रकारिता को पुनर्जीवित करने की बहुत ही ज़्यादा ज़रूरत आन पड़ी है।

चिंता की बात ये है कि पत्रकारिता में डेस्कटॉप की जगह धीरे-धीरे ट्रैश, स्पैम और रीसाइकिल बिन ने ले ली है। मीडिया का मुख्य काम विद्रूपताओं के सच का उत्खनन है, लेकिन उसे उसके मुख्य काम से हटाकर झूठ को झूठ साबित करने में लगा दिया गया है। मीडिया लैंडस्केप में कई नए ट्रेंड बहुत हतप्रभ करने वाले हैं। सोशल मीडिया में उफनते शिटस्टॉर्म ने मीडिया में विभ्रम फैलाने के कई नए डायमेंशन जोड़ दिए हैं। इसका एक अनुपम उदाहरण है टीवी चैनलों के समय को लीलता ''वायरल सच’’ कार्यक्रम।

अब वह समय गया, जब किसी पत्रकार को पीटा जाता था या किसी मीडिया समूह पर तरह-तरह के दबाव बनाए जाते थे। अब लोग आपकी बुद्धि का ही हरण कर लेते हैं। उन्हें आपकी देह का अपहरण करने या उसे ठिकाने लगाने या कि उसे जेल में डालने की ज़रूरत ही नहीं है।

अब सत्ता बंदूक की गोली से नहीं निकलती। अब सत्ता सोशल मीडिया के माध्यम से पैदा किए गए शिटस्टॉर्म से जन्म लेती है। अब आपकी मानसिकता को बदलने के लिए सम्मोहक ढंग से तैयार किए गए झूठ का बहुत सशक्त और प्रभावशाली नेटवर्क हैं। विवेकशील दर्शक और सोचकर प्रतिक्रया देने वाले श्रोता या पाठक नहीं। अब झूठ के ईको चैंबर हैं और उनमें बैठे झूठ के दक्ष नैरेटर हैं। कहीं कोई िफल्टर बबल नहीं है। बस पैसे, कारोबार, कार्पोरेशंस और पोस्ट ट्रुथ एरा की वर्चुअल शक्तियों के बल पर सिर्फ़ और सिर्फ़ वही एक पॉलिटिकल व्यूपाइंट सही है, जिसे ये कागज़ की नाव की तरह तैराना चाहती हैं। बाकी सब देशद्रोह है। बाकी सब पॉलिटिकल व्यूपाइंट नफ़रत के क़ाबिल हैं। यह झूठ इतना तीव्रतर वेग से हमारे सामने आ रहा है कि आप इसका एक प्रतिशत भी ड्रेन नहीं कर सकते।

मीडिया को किस तरह झूठ के जाल में फंसा दिया गया है, इसका उदाहरण वायरल सच है। झूठ गुफ़ाओं से लेकर स्काईस्र्कैपर्स तक फैला दिया जाता है। ये लोग पहले एक सम्मोहक झूठ तैयार करते हैं। उसे सोशल मीडिया के माध्यम से पूरे देश में फैलाते हैं। पूरे नागरिक तंत्र में जब यह झूठ तारी हो जाता है तो टीवी चैनल के सबसे प्रतिभाशाली प्रोफेशनल लोगों और देश की पीड़ाओं को छोड़कर इस झूठ को झूठ साबित करने में जुटते हैं। वे अपनी स्टेट टीमों को इसमें लगाते हैं। वे टीमें झूठ को झूठ साबित करने के लिए डॉक्टरों, पुलिस अधिकारियों या ब्यूरोक्रैट्स का ज़रूरी समय खराब करते हैं और फिर झूठ को झूठ साबित करने की वाहवाही टीवी चैनल के लोग लूटते हैं। देश भर के दर्शक दिन भर एक झूठ को झूठ साबित हुआ मानकर अपना सिर हिलाते हैं।

ग्लोब्लाइजेशन के इस युग में मास डिस्ट्रक्शन के लिए अब शायद संहारक हथियारों की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। हमारी आकांक्षाओं, हमारे सपनों और हमारी कल्पनाशीलताओं को लील रहा यह झूठ एक नई तरह का नर्व एजेंट है। लेकिन आज जितने भी झूठों और जितनी भी हिंसा को बारूदी सुरंगों की तरह बिछाया जा रहा है, उस सबके पीछे एक पॉलिटिकल आइडियालॉजी है। आप जहां देखो, वहीं वॉयलेंस और ब्रूटैलिटी है। और हैरानी देखिए कि यही लोग आइडियल सोसाइटी के निर्माण की बातें करते हंै। आदिम युग की सोच को लेकर चल रहे इन लोगों की मैथॉडोलॉजी सोशल इनजस्टिस, इकोनॉमिक इनइक्वैलिटीज और विभिन्न संस्कृतियों के बीच सौहार्द की राहें रोकने वाली चीजों को दूर करने वालों को अप्रासंगिक साबित कर देने का मकसद लेकर चल रही है। ये जहां-जहां सत्ता में आए हैं, उन्होंने पूरे मैकेनिज्म को अपने हिसाब से कर लिया है।

आप एक-एक चीज़ को नोट करिए। आपके समस्त मानव अधिकार संगठन पूरी तरह ख़त्म कर दिए गए हैं। पीडि़तों की आवाज़ों के लिए अख़बारों और मीडिया में अब स्पेस नहीं रह गया है, क्योंकि हमारी मानसिकता ही बदल चुकी है।

आज से पांच साल पहले पेट्रोल और डीज़ल के दाम एक या दो रुपए बढ़ जाने पर जो उत्साही सब एडिटर पांच साल पहले न्यूज़ रूम के उस कोने से दौड़कर पेज वन पर ख़बर लगवाता था, उसे अब इसका एहसास ही नहीं हो पाता, क्योंकि आपके दिमाग की मनोदशा का अध्ययन करके शासकों के रणनीतिकारों ने पेट्रोल-डीज़ल के भावों को हर रोज़ बदलना शुरू कर दिया है। देश की एक प्रभावशाली मंत्री स्मृति ईरानी फ़ेक न्यूज़ वाले पत्रकार की बलि तो चाहती हैं, लेकिन वे उसे रणनीतिकार को अपने अपने हृदय में देवता की तरह बिठाए रखना चाहती हैं, जो देश के 135 करोड़ लोगों से डीज़ल-पेट्रोल की दरें बढऩे की घटनाओं को अति चालाकी से छुपा रहा है।

ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमने धर्म का इतना प्रचार कर दिया है कि उसने हमारे दिलोदिमाग में विवेक नामक मानवीय गुण को रीप्लेस करके आस्था नामक तत्व को रख दिया है। हमें वर्षों तक कांग्रेस के शासनकाल में विज्ञान की बेहतरीन शिक्षा से वंचित किया गया और इस तरह धर्म की राह आसान होती चली गई। आस्था के लिए उर्वर जगह तैयार करने वाले किसानों का काम कांग्रेस के नेताओं ने किया।

हमारे जीवन संसार में ऐसी संस्कृति बन गई कि विज्ञान तो एकदम से बाहर ही हो गया। कहां तो हमारी अनपढ़ दादी-नानी विज्ञान के हिसाब से कढ़ी और दाल बनाती और छौंक लगाती थीं और कहां इन लोगों ने मीडिया से ही विज्ञान के समाचारों को बाहर कर दिया। आज से सौ पचास साल नहीं, अभी दस बीस साल पहले तक अनपढ़ों के पास ध्रुव तारे सहित पूरे अंतरिक्ष का अध्ययन मौजूद था, लेकिन नई शिक्षा ने जो कथित पढ़ी लिखी पीढ़ी तैयार की है, वह उनके पास न तो अनपढ़ों जैसी स्पेस को छेद देने वाली आंख है और न विवेकी बुद्धिशीलता। यह स्थिति बहुत डरावनी है।

दरअसल, विज्ञान के बिना न तो हमारा इंटेलेक्ट विस्तार पाएगा और न ही हमारी इमेजिनेशन को कोई आकार मिलेगा। यह सोच, विचार और लक्ष्य की निर्धनता है। इस मैकेनिज्म ने हमारी सबसे दमकती और गौरवशाली संस्थाओं को एक अंधेरी गुहा में डाल दिया है। अगर इस तमस में कोई चीज़ हमें राह दिखा सकती है तो वह कला, साहित्य, संस्क़ति और विज्ञान पर टिका मीडिया ही है।

साहित्य, संगीत, कला और विज्ञान विहीन राजनीतिक लोग शस्त्रों को कम करने की बातें करते हैं, लेकिन वे इन्हें समाप्त नहीं करते। वे हिंसा को कम करते हैं, समाप्त नहीं। वे झूठ को भी समाप्त नहीं करेंगे, सिर्फ़ कम करेंगे। यह एक अनिफनिश्ड स्टोरी है।

हालांकि हम अपने आपको दुनिया का सबसे सभ्य देश मानते हैं, लेकिन सच बात ये है कि किसी भी सभ्यता का सबसे समृद्ध दौर वह होता है जब दूरियां और सीमाओं के दायरे दरकते हैं। और सबसे बुरी और दयनीय सभ्यता वह होती है, जो मनुष्यों के बीच दूरियां खड़ी करती है और नई सरहदों का निर्माण करती है। अतीत की संस्कृति और आज के मनोरंजन युग में कितना फ़र्क है। एक भविष्य की पीढिय़ों के लिए निर्माण और सृजन करती है। भविष्य को जीवंत और सुरक्षित रखती है। उसकी झोली में आशीषें ओर आशीर्वाद हैं। लेकिन आज का मनोरंजन युग खेतों, नदियों, झीलों, पहाड़ों, वनों, वृक्षों, सुखों और सपनों को केक और पॉपकॉर्न की तरह उदरस्थ कर रहा है।

हमें निश्चित ही एक बड़े बदलाव की ज़रूरत है। ऐसे बदलाव की जो व्यापक हो। यह बदलाव ही समाज की जड़ता को तोड़ेगा। विज्ञान मनुष्य की चेतना को झकझोरकर ही उसे चैतन्य बनाता है। विज्ञान को किसी की अप्रुव्ल की आवश्यकता नहीं होती। मीडिया अगर विज्ञान से प्रेम करेगा तो वह विवेकवान नागरिक समाज बनाएगा, जो राजनेताओं का शत्रु समाज होगा। मीडिया अगर धर्म से प्रेम करेगा तो वह आस्थावान नागरिक समाज की रचना करेगा, जो राजनेताओं को ईश्वरीय दूत समझेगा। इसकी डिग्री आज के लोकतंत्र में न्यून हो सकती है, लेकिन बेसिक कैरेक्टर्स तो वही हैं। वही देवता की तरह पूजा जाना। ईश्वर की तरह प्रार्थनाएं करवाना और अल्लाह की तरह निराकर ऐसे कि आपको बहिश्त चाहिए तो दिन में उनकी पांच नमाज़ पढऩी ही होंगी।

धर्म और राजनीति में एक समानता है। वे धत्कर्म, भ्रष्टाचार और हत्याओं को भुला देते हैं। इनका आधार भय, आतंक और अभिशाप होते हैं। धर्म मिथकों के सहारे परवान चढ़ता है। विज्ञान प्रयोगों के नतीजों के सहारे। राजनीति झूठ के प्रयोग करती है। सत्ता की राजनीति काठ की हांडियों में बार-बार सब्ज़बागों का हलवा तैयार करके चुनावों की डायनिंग टेबल सजाने का नाम है।

हम एक विचित्र मीडिया सभ्यता का निर्माण कर रहे हैं। इसमें सरकारों, राजनीति, राजनेताओं और भ्रष्टाचारियों के सच का उत्खनन नहीं होता। इसमें पर्वतों, नदियों, झीलों, वनों, कृषि, औषधियों, वनस्पतियों आदि को नष्ट करने वालों की ख़बर नहीं ली जाती। टीवी चैनलों में इनकी जगह कुकरी और फ़ैशन शो सबसे ज़्यादा चलाए जाते हैं। अब राजनीतिक घटनाक्रमों की विवेचना करने वाले विचारशील राजनीतिक विश्लेषकों की जगह शेफ़ और फ़ैशन डिज़ाइनर ले चुके हैं। कलाविदों, कवियों, कथाकारों, नाटककारों, वैज्ञानिकों, संगीतकारों, दर्शनशास्त्रियों और ललितकला के पारखियों को तो आप भूल ही जाइए। पहले जिस मानसिकता के चलते शिक्षकों और विचारकों को मीडिया के डोमेन में जगह दी जाती थी, उसे अब क्रिकेट सितारे या भौंडे सोपऑपेरा की अपसंस्कृति ने अपदस्थ कर दिया है और वही अब हमारे स्वाद और अभिरुचियों को प्रभावित करते हैं। एक बार फिर स्मरण करवा देना उचित रहेगा कि साहित्य हमें उम्मीदें बांटता है, विवेक देता है, भक्तिभाव से परे करके दृष्टि में आलोचना का रंदा और बसूला िफट करता है। कला सौंदर्य बोध देती है। संगीत दु:खों, कष्टों और अवसादों को आशाओं, न्यायप्रियता और प्रफुल्लताओं में बदलता है। लेकिन ये सब एक जगह मिलते हैं तो वे मनुष्य जैसे मनुष्य की रचना करते हैं।

मीडिया की पिपासा लिबर्टी की पिपासा भी है। उसका काम ऐसे कोनों में झांकना भी है, जहां रूल ऑव लॉ, मानव अधिकारों और मनुष्य की नाना स्वतंत्रताओं का हनन होता है। मीडिया लोकतंत्र का एक ज़रूरी हरावल दस्ता है, जो इस दुनिया को डिक्टेटरों, टेररिस्टों, वारमोंगर्स और फैनेटिक दानवों से मुक्ति दिलाने का काम करता है। यह मीडिया ही है, जिसका काम जंगल में बदलते शहरों की संवेदनहीनता के कोलतार से आच्छादित सड़कों के सहारे फुटपाथ की रक्षा की आवाज़ बुलंद करने से लेकर अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर के सहारे भी ऐसे गलियारों का अस्तित्व तैयार करना है, जिनसे सभी राष्ट्रीयताओं, जातीयताओं, संस्कृतियों को अपनाने वालों और परंपराओं को मानने वालों के कदमों को गतिमान रखने के काम को समर्पित हो। मीडिया का काम शहरों और गांवों में ही पुलों के निर्माण की आवाज़ उठाना नहीं है, उसका काम विभिन्न देशों, नाना संस्कृतियों और तरह-तरह के लोगों के बीच भी सेतु निर्माण का है। अगर वे सेतु बनाने के बजाय ऐसे पुलों के विध्वंस में जुटी शक्तियों के हाथ का खिलौना बनते हैं तो इस लोकतंत्र के लिए बहुत अहितकारी है।

यह एक विचित्र बात है कि मीडिया अक्सर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका निभाने की कोशिशें करने लगता है, लेकिन जैसे ही कला, साहित्य और संगीत की बात आएगी तो वह इनसे आश्चर्यजनक दूरी बनाने लगता है। उच्च संस्कृति, स्वतंत्रता, समृद्धि और न्याय पर आधारित सौंदर्यबोध वाले समाज के निर्माण की आशा एक सुंदर फंतासी है। लेकिन इसे आकार देने में कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका से कहीं अधिक कला, साहित्य और संस्कृति की भूमिका है। एक अच्छा मीडिया बेबाक ख़बरों से कॉन्शंसनेस का ही निर्माण नहीं करता, वह उन डिज़ायर्स और लोंगिंग्स की कोंपलों को भी प्रस्फुटित करता है, जिनसे जन्म लेते सुखद सपने और सुंदर फंतासियां मनुष्य से क्रूरताएं छीनकर करुणा से भीगी मनुष्यता का आह्वान करते हैं। सत्ता की लालसाएं दसों दिशाओं में झपट्टा मा रही हैं और सत्य और तथ्य का अतिक्रमण कर रही हैं। एक ऐसे समय में सत्ता की लिप्सा अनंत अतिक्रमण करते हुए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है, उस समय एक समानांतर मीडिया स्थापित कर आह्वान किया जा रहा है और नए सिद्धांत और सुभाषित स्थापित किए जा रहे हैं।

 

 ''असत्य के लिए कभी किसी से न डरो, लोक से भी नहीं, इतिहास से भी नहीं, परंपरा से भी नहीं, नैतिक मूल्यों से भी नहीं, विधि और विधान से भी नहीं, संविधान से भी नहीं, संहिता से भी नहीं।’’

 

दैनिक भास्कर उदयपुर के संपादक हैं। संपर्क - दैनिक भास्कर, 5ए, सहेली मार्ग, यूआईटी सर्किल, उदयपुर राजस्थान- 313001, फोन नंबर 9672863000

 

 

 

 

 

 


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