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जून 2019

आठ कविताएं

सईद शेख

कविता

 

1.

 

कभी-कभी वह नज़र आ जाता है

इतिहास के पन्नों से झांकता हुआ

या फिर चट्टानों की दरारों से

गिरगिट की तरह सर बाहर निकाले हुए

रंग बदलता उसी की तरह

वर्ना ज़्यादातर बिताता है अपना समय

गुफा में।

अब भी महानगरों में जहां-तहां

खड़ी हैं उसकी प्रतिमाएं

इंगित करती हुईं

पता नहीं किस दिशा में

उसके इशारों पर हुए थे रक्तपात

बही थीं खून की नदियाँ अनगिनत

सिंच गयी थी धरती

जिस पर पनप रहे हैं खूनी पेड़

फल रहे हैं

जिनके साए से उभरता है

एक अन्धेरा आकाश।

 

2.

 

दूर से आता है कहीं से संगीत

घूमता हुआ

एक विशाल बर्मे सा धंस जाता है

सफ़ेद हिम-संचय में

चक्कर काटता रह जाता है वहीं खामोश।

 

मैं भी यहाँ टिका हूँ

हठी पक्षियों की तरह

जो कभी देशांतरण नहीं करते

जो झेलते हैं बहुत सारे झंझावात

झेलते हैं बहुत सारे बर्फानी तूफ़ान

अड़े रहते हैं

नहीं बदलते हैं कभी अपना विचार

उन्हीं की तरह मैं भी टिका हूँ यहाँ।

 

3.

 

रेत में धंसे हुए पदचिन्ह

अरसा हुआ इधर से कारवाँ को गुजरे

तटों पर टूटती समुद्र की तरंगें

ध्वनित होता क्या कुछ।

इतिहास रुकता है

ठिठकता है पल भर

डालता है नज़र फिर एक बार।

फिर गुज़र जाता है

बढ़ जाता है आगे।

इस बीच कितने षडयंत्र रचे गए

घटित हुए कितने ही रक्तपात।

 

4.

 

अभिलेखागारों के दस्तावेजों में

अंकित है मात्र तुम्हारा ही नाम

स्मृतियाँ जो उठाती है

एक ज्वार सा हृदय में।

शरीर के जोड़ों के आर-पार

रिसते हैं दु:ख असंख्य

वसंत में सूखे पेड़ों पर झूल रहे हैं

खडख़ड़ाते क्षत-विक्षत सूखे नर-कंकाल

धरती की गोद में त्याग रही है

प्रकृति अपने प्राण।

हर नुक्कड़ पर नरभक्षी निर्मम।

उदास एकांत आ बसा मन में सदा के लिए

फिर भी बचा हुआ है टुकड़ा एक अपना

छोटा सा

आकाश का।

 

5.

 

खंड-खंड खंडित होता आकाश

गिरता हुआ धरती पर

दीवारों से टिकी हुई स्मृतियाँ

या फिर मृत लोगों के धुंधलाते दस्तखत।

बारिश की बूंदों में बुना हुआ इन्द्रधनुष।

हवा में तैरते हुए चेहरे

परिचय नाम।

शेष है साँसों में अभी गर्माहट।

कूची से उभरते रंग बनते दृश्य

झिझकते चेहरों में झलकता

अटका हुआ इतिहास।

 

6.

 

होते हैं ऐसे रास्ते बहुत से

जो अनजाने गुजर जाते हैं हमारे भीतर से

छोड़ते हुए टूटे बिम्ब कुछ

रास्ते बदलते जाते हैं

बदलते जाते हैं हम भी।

चट्टानों पर तरशते रहे दृश्य आदिम

पहाड़ों के गर्त से कहीं उठते रहे राग

घाटियों में उग रहे हैं हाथ

खिल रहे हैं सपने अनेक

भूली-बिसरी प्रेम-गाथाओं की तरह

वहां से समुद्र बहुत दूर नहीं था

सिर्फ पीठ पीछे

जहां से शुरू होता था महानगर एक

 

7.

 

वृक्षों की शाखा के लटके हुए

अनगिनत अनकहे शब्द

सरसराते हवा के झोंकों से।

समुद्र की तरंगें मार रही हैं थपेड़े

मौसमों के चेहरों पर।

पत्तों की नोकों में ठहर गयी ओंस की बूँदें

चमकती हैं एक सतरंगी आभा में।

 

8.

 

धरती-आकाश आलिंगन में

धरती अभी भी लेती है सांस

आकाश से टपकते हैं चुभते प्रकाश-बिंदु

धरती के वक्ष पर।

एक पुरातन सूर्य करता है रोशन

 

एक नयी सुबह को।

 


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