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जून 2019

मेरा डेरा इस्माइल खान

चन्दर धीगरा

पहल/शुरुआत

 

मेरा डेरा इस्माइल खान

 

उस वक्त उभर आई जहन में,

अनदेखी एक तस्वीर

जब किसी ने बातों बातों में कहा 'डेरा’

 

कहीं हमारा भी तो था एक 'डेरा’

सालों पहले

खून-खराबे में छोड़ आये थे जिसे

या भाग आये थे जहाँ से

 

मैं तो माँ की गर्भ में छिपा,

तय कर आया था सैकड़ों मील का सफर

माँ ने हौसलों से झेली थी हर वो चोट

जो मुल्क के बंटवारे ने दी थी,

उसके मन और तन पर

मुझ पर तो न लगने दिया था उसने

एक भी धक्का

मैं तो झूले सा हिचकोले ही खाता रहा,

पूरे सफर

मैंने तो तुम्हें कभी न देखा था

तुम चिपक गए क्यों मेरे साथ

हर वक्त के लिए?

मेरी तमाम उम्र के लिए?

तुम मेरे थे ही कहाँ

तुम तो बने थे 'इस्माइल’के लिए

 

इस्माइल भी तो बढ़ गया सफर में

छोड़ गया उन सब को

जिनके साथ उगता था उसका सूरज

जिनके साथ शर्माती थी उसकी शामें,

ब्याह को सजती दुल्हन की तरह

 

इस्माइल,

तुम बढ़ गए आगे

रिश्ते छोड़ गए पीछे

क्या सोचा था तुमने?

रिश्ते पुरानी इमारतों की तरह

खण्डर हो टूट जायेंगे एक दिन?

 

रिश्ते यूँ ही नहीं टूट जाते

न हीं मिट जाते हैं सफ़रों के निशां,

आगे बढ़ जाने से...

पर एक सवाल है

तुम आगे बढ़ ही क्यों गए?

मजबूरी रही थी क्या कोई?

 

इस्माइल,

मजबूरियों से जूझना

तो फितरत में था तुम्हारी

तकलीफ तो हुई होगी बहुत

फितरत को मजबूरी के बोझ तले दबाने में?

 

तुम से दूर चले आने के बाद

माँ बिलकुल तनहा रह गयी

अक्सर किया करती बातें

अपने मुहल्ले, गलियों और पड़ोसियों की,

खिले मौसम और सूखे मेवों की,

दरियावों की

और उन सब की

जो माएं देखा करती हैं अक्सर

अपने आस-पास

 

मैं ही था उसके सबसे करीब

खेलते-कूदते मैं ही सुन लेता था उसकी बातें

और कोई नया सवाल उठा,

एक धागा सा थमा देता था उसे

बात बनाने के लिए, और

माँ फिर से शुरू हो जाती नई कहानी के साथ

 

आज सालों बात सोचता हूँ

माँ बहुत कुछ बताना चाहती थी शायद,

किस्से-कहानियों के जरिये

वो बताना चाहती थी इंसानी फितरतों

इंसानी रिश्तों की बातें

वो बताना चाहती थी शायद

मौसमों की तरह

इन्सानों के बदलने की बातें

 

आज सालों बाद

माँ की बातें मुझे बयान जैसी लगती हैं

माँ कभी झुंझलाती, कभी बौखलाती

जिन्हें घर से धकेल दिया गया हो

झुंझलाहट और बौखलाहट

दो खोटे सिक्के ही तो होते हैं, उनके पास?

 

माँ के लफ्ज़ मेरे मन पर

नदी के किनारे लगी काई से जमते गए

मैं इन तमाम साल बुनता रहा

ख्वाबों की चादर

कि हमारा डेरा ऐसा रहा होगा

कि माँ का मोहल्ला ऐसा रहा होगा

कि इस्माइल कुछ, उस लड़के जैसा रहा होगा?

 

तुम शायद यकीं न करो

लोग सोच की कश्ती में बैठ

सात समंदर घूम आते हैं, कई-कई बार

मैं भी जिसे कभी देखा नहीं

उस डेरे इस्माइल खान की गालियों में

जागते ख्वाबों के साथ

घूमता फिरता हूँ

कई-कई दिनों तक, कई-कई बार

 

इस्माइल, तुम तो कहा करते थे

ये हमारा डेरा है

मेरा-तुम्हारा नहीं

ये कोई मुल्क, कोई ज़मी नहीं

एक खानदान है

फिर क्यों धकेल दिया गया

माँ और उसके गर्भ में छिपे मुझे,

अपने खानदान से?

तुम क्यों नहीं बढ़कर आये आगे?

क्यों नहीं दिखा दिया

पठानों का इंसाफ?

 

डेरा इस्माइल खान से भागते वक्त

माँ अपनी गठरी में बाँध लायी थीं

कुछ सामान

इस सामान में थे

कुछ सपने, कुछ यादें

 

इसी गठरी में बंधा था

सुलाईमान पहाड़ से उठता सूरज

जो साँझा था

मेरा और तुम्हारा

इसी गठरी में कपड़ों के साथ

छिपाकर रख लिया था उसने

बन्नू की सरहद का पहाड़,

शेख ओ अबुदीन ही तो नाम था इस

पहाड़ का

याद है इसी पहाड़ पर जाया करती थी

मेरी और तुम्हारी माएँ

अपनी-अपनी मन्नतें बाँधने

 

तुम भूल गए सब

पर मेरी माँ ने बाँध रख छोड़ा था

ये सब मेरे लिए

वे तो कहानियां थी जो माँ ने बुनी थी

सिंध दरिया के आते-जाते

ये वो कहानियां थी

जो अन्दर तक हिला जाती थी उसे,

जलज़ले की तरह

जब भी आता

कोयटा का नाम..

कोयटा में ही तो दब गए थे शायद

गिरती इमारत के नीचे

माँ के कोई ख़ास रिश्तेदार

 

कुछ बादाम

कुछ अखरोट, कुछ नेजे भी थे,

माँ की गठरी में

जो शायद चुन लिए थे उसने

बिलोट शरीफ़ आते-जाते

 

माँ, यूँ तो पांचवी तक ही पढ़ी थी

पर उसने मुझे पढ़ाई थी इतिहास की बातें

पंजाब कैसे पहली बार टूटा,

कैसे डेरे का लईया

डेरे से अलग हुआ?

और कैसे पीछे छूट गए

कुलाची और टांक?

 

माँ सुनाती बोहाडिय़ाँ वाले थल्ले

और हरमिलापी जी की बातें

वो बातें जो उन दिनों मेरे लिए बेमानी थी

माँ भी खूब जानती थी

इस बच्चे को क्या मतलब

कि इस थल्ले पर झंड, चोला और जनेऊ चढ़ते थे

लोग दूर दूर से आते थे

भगवान से मन्नतें मानने

अपने-अपने गिले-शिकवे और बधाईयां बाँटने

 

माँ शायद मुझे पुरानी बातें सुना

दिल हल्का कर लेना चाहती थी परदेस में

पर अपने ही देस में ही परदेस?

परेशान हो जाती थी, इस एक ख्याल से

अब सालों हो गए

माँ ने हम सब का हाथ छोड़

तस्वीरों में बना लिया है अपना घर

जड़ से उखाड़े जाने का माँ का अफसोस,

उसकी बातों के जरिये

मेरा जुड़ जाना तुमसे,

ज़िन्दगी भर के लिए

एक बोझ बन गया है मुझ पर

मुझे तो उम्र के तमाम साल जीना है,

तुम्हें ढोते हुए

 

इस्माइल,

हमारे रिश्ते बिखर गए हैं

माला से टूटे मोतियों की तरह

क्यों नहीं समेट लेते हम-तुम

इन मोतियों को फिर से एक बार

क्यों नहीं पिरो लेते

हम-तुम इन मोतियों को

यकीन, सच्चाई और हिम्मत की डोर में?

 

                                                               ***

चन्दर ढ़ींगरा की माँ की तरह अनेक अज्ञात मायें बंटवारे के समय गर्भ से थीं। मारकाट के माहौल में वे किसी तरह शरणार्थी-विस्थापित होकर भारत आई। डेरा इस्माइल खां इसी अवस्था की एक मार्मिक अभिव्यक्ति है। चन्दर ढ़ींगरा अब सेवानिवृत्त होकर कोलकाता में रहते हैं और एक मानववादी कार्यकर्ता की तरह अपना सक्रिय जीवन बिता रहे हैं।

संपर्क - 9830650285, कोलकाता

 


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