इन्द्र का शल्य
स्कंद शुक्ल
विज्ञानवार्ता/धारावाहिक/एक
''तो इस तरह इन्द्र के वृषण ,बोले तो टेस्टिस , उनके शरीर से अलग हो गये।’’ सुधाकर रजनी को कहानी सुनाते हुए ठहर जाता है। ''ओहो ! यह तो अजीब तरै का शाप... शाप मिला उन्हें !’’ ''अब शाप तो अजीब ही होते हैं। पृष्ठभूमि में हुई घटना से कहीं अधिक अजीब।’’ ''इन्द्र बगवान् के इस तरै ... ओ जाने से पनिशमेंट कइसे पूरा उआ बला?’’ ''इन्द्र का दोष वस्तुत: उनके उच्छृंखल पुरुषत्व का दोष था। अहल्या का उनके प्रतिकामी स्त्रीत्व का। नतीजन दण्ड भी दोनों को उसी मेल के मिले। लैंगिक पहचानों से दोनों को हीन बना दिया गया। एक को शिला कर दिया गया ,दूसरे को क्लीव। दोनों ही अनुर्वर , दोनों ही कुछ उत्पन्न न कर सकने वाले। जो पहले हल्या रही होगी , उसे कवि ने अहल्या नाम दे दिया।’’ ''और इन्द्र को क्या नाम दिया?’’ ''उसका नाम नहीं बदला। अहल्या ने जो किया था ,वह पहली-आख़िरी बार था। लेकिन इन्द्र तो बार-बार...’’ ''आँ ,जो हैबिचुअल होता है उसका नेमिंग मुश्किल बउत!’’
सामने कुछ दूरी पर लेटा अधजगा-अधसोया देवराज उन दोनों की बातें सुन रहा है। यूरोलॉजी-वॉर्ड में ही नहीं , पूरे अस्पताल में लगभग डॉ. हो चुके सुधाकर के िकस्से मशहूर हैं। वे जहाँ भी ड्यूटी करने पहुँचते हैं , माहौल में ताज़गी आ जाती है। बातें छिड़ती हैं , उनसे कई सवाल निकलते हैं। उन सवालों से फिर कई बातें, उनसे फिर कई सवाल। इस तरह से तैनात नर्सिंग-स्टाफ़ हो या वॉर्डबॉय-आया, सभी का खाली समय सरसता से कट जाता है। लगभग तेईस की उम्र के सुधाकर चिकित्सक हुए नहीं हैं, अभी इंटर्न-भर हैं। चिकित्सा का कर्मक्षेत्र भी कई-कई िकस्से डॉक्टरों के सामने रख देता है : लेकिन वह-सब अभी उनके जीवन में घटित नहीं हुआ है। अभी उन्होंने केवल अतीत में घटे या लिखे गये को अपने सामने पाया है। लेकिन जो कुछ भी घटना-स्वरूप या कथा-स्वरूप सामने आता है, उसमें वर्तमान के यथार्थ का स्वयं को देखना स्वाभाविक ही है। सो ऐसा ही कुछ देवराज कर रहा है। साठ वर्षीय देवराज का कल ऑपरेशन होना है। उसे प्रोस्टेट का कैंसर है। ऐसा रोग जो नर-हॉर्मोनों की खाद पाकर पलता और पनपता है। उनके कारण बढ़ता है। फिर पूरे शरीर के अंग-अंग में फैल जाता है। बस! इसीलिए इस रोग से मुक्त होने के लिए ऑर्किडेक्टमी ज़रूरी है। ऑर्किडेक्टमी यानी वृषणों को काटकर अलग करना। पुंसत्व से मुक्ति। नरता रहेगी, तो कैंसर रहेगा। नरता नहीं, तो कैंसर भी नष्ट। ''सिस्टर ! सिस्टर!’’ वह उन-दोनों के वार्तालाप को भंग करता है। ''भूख लगी है ... बहुत!’’ ''काने को डॉक्टर मना कर गये न बाई! कल ऑपरेशन तुमारा! कॉपरेट करो न तोड़ा!’’ नर्स रजनी बैठे हुए वहीं से जवाब देती है। देवराज के गले का टेंटुआ किसी समुद्री लहर सा उठता है और फिर नीचे को गिर जाता है। पिछले कई दिनों से उसने ओपीडी से लेकर इस वॉर्ड में , वार्तालापीय तटस्थता दिखायी है। डॉक्टर उससे उसके रोग के लक्षण पूछते हैं, जाँचे पलटते हैं। फिर सर्जरी को उपचार में आवश्यक बताकर भर्ती होने का निर्देश देकर चले जाते हैं। देवराज और उसके परिवारवाले हाँ-हूँ करते रह जाते हैं। लेकिन यह कहानी उसके मन में उथल-पुथल मचाने लगी है। सुधाकर की िकस्सागोई उसके भीतर के अतीत पर टॉर्च मारती जान पड़ रही है। रोशनी पड़ी नहीं, कि अँधेरे में छिपे चमगादड़ उड़े। उड़े नहीं कि असहजता बढ़ी। बढ़ी नहीं कि सर्जरी ... ओह! ऑपरेशन ... आह! ऑर्कि... डेक्टमी... नहीं ! देवराज जानता है कि आसमान पर उडऩे के लिए परिन्दा होना ज़रूरी है। जो पक्षी न होकर उड़ान भरेगा, वह संशय जगाएगा। कुतूहल भी। भय भी। ऐसे में ऐसी उड़ानों को न ही भरा जाए, तो बेहतर। और ऐसे आसमानों को न ही निहारा जाए, तो अच्छा। लेकिन सुधाकर और उसकी बातें! वह रुकता ही नहीं, बस कहता जाता है। िकस्से-कहानियाँ नायकों-प्रतिनायकों वाली। और सुनने वाले अपने-अपने िकरदार उसके कथा-वाचन से उठाते चलते हैं। जिसको जो भा जाए, जिसमें जो रम जाए! देवराज को एक पल को रजनी में भी अहल्या नजऱ आती है। वह उसे पुरुष-दृष्टि से अंग-अंग पर ठहर-ठहर देखता है। उसकी आँखें अब भी आधी-अधूरी ही खुली हैं। वह कुर्सी पर बैठी सुधाकर से गप्प लड़ा रही है। हाथ में चाय है। रात के आठ बजे ड्यूटी शिफ्ट होनी है। तब तक चुस्कियाँ और कहानियाँ! कहानियाँ और चुस्कियाँ! ''आपका गर्लफ्रेंड ऐ डॉक्टर?’’ रजनी की दिलचस्पी कथाक्रम से हटकर सुधाकर के निजी जीवन में चली आयी है। ''न।’’ ''कोई नइ? कोई बी नइ?’’ ''न।’’ ''कोई दोस्त-वोस्त तो ... पैले कबी?’’ ''न।’’ सुधाकर को अक्षरीय नकार से चिपका देखकर रजनी मुस्कुरा देती है। विस्मयपूर्ण मुस्कान। इतना सरस और वाचाल व्यक्ति भी सिंगल हो सकता है! कहानियाँ ही कहानियाँ हों जिसके पास! भला कौन दिलचस्पी रोक लेगा अपनी ... या रोक लेगी! ''िकस्सों के शौक़ीन िकस्सों तक ही आपसे सरोकार रखते हैं सिस्टर। िकस्से ख़त्म, सुनने वालों का सरोकार भी ख़त्म। अब पूरी ज़िन्दगी िकस्सागोई करते तो नहीं काटी जा सकती न! ‘‘ सुधाकर मानो उसके मौन को पढ़कर उत्तर देता है। ''पर आप केवल स्टोरी-टेलर कआँ! आप तो पूरा कैरेक्टर!’’ कहते हुए उसकी हँसी फूट पड़ती है। देवराज के अँधेरे में फिर से चमगादड़ चीं-चीं करने लगते हैं। मानो पुन: किसी ने उनपर उजाले से प्रहार किया हो। वे उड़ते हैं, भित्तियों से टकराते हैं और फिर एक असहज शान्ति छा जाती है। ''सिस्टर! सिस्टर !’’ वह धीमे स्वर में बोलता है। ''क्या?’’ ''प्लीज़ इधर।’’ अनमने ढंग से रजनी उठती है और उसकी ओर बढ़ जाती है। ''आँ , बताओ बाई!’’ ''कुछ नहीं ... बस .... उम्म्म्म ... जी मालिश कर रहा है।’’ ''जी मालिश कर रहा?’’ फिर वह थोड़े ऊँचे स्वर में सुधाकर के लिए कहती है। ''इसका जी मालिश करता। नॉज़िया। ऑन्डेम दे दूँ?’’ ''दे दो।’’ कथा में अब भी डूब-उतरा रहा सुधाकर वहीं से बैठे-बैठे कहता है। ''ओवर में मगर बता जाना अगली स्टाफ़ को इसकी समस्या।’’ देवराज की एक और कोशिश नाकाम जाती है। वह वार्तालाप का हिस्सा बनना चाहता है, लेकिन बन नहीं पाता। सुधाकर-रजनी की बातचीत में वह प्रवेश करना चाहता है, लेकिन कैसे करे? सोचते-सोचते उसके गले के टेंटुए की एक तरंग उठती है और नीचे को बैठ जाती है। ''तब क्या उआ डॉक्टर ?’’ रजनी के हाथ देवराज को इंजेक्शन लगा रहे हैं , लेकिन कान कथा में मगन हैं। ''इन्द्र बगवान के सात तो बड़ा बुरा ओ गया।’’ ''हाँ ,सो तो है। मर्दानगी के बिना व्यक्ति का बुरा हाल न होगा! फिर क्या देवता और क्या आम इंसान!’’ ''फिर-फिर!’’ ''फिर इन्द्र ने व्यथित-व्याकुल होकर साथी-देवताओं से विनती की। उनसे अपनी समस्या बतायी। फिर उन्हें भेड़े के वृषण लगाये गये। इस तरह से उनका पौरुष वापस लौटा।’’ ''पोरुष ... पोरुष कआँ लौटा डॉक्टर सर? जो लगाया गया, वो तो जानवर का ता। इट वुड ऐव मेड हिम मोर ऐनिमल-लाइक।’’ ''वी ऑल आर एनिमल्स रजनी सिस्टर। हम-सब पशु ही तो हैं। पर हर पशु-समाज के भी नियम-$कायदे होते हैं। इन्द्र ने उस समय का नियम तोड़ा ,तो सज़ा दी गयी। अब अगर आज का ज़माना होता ...’’ ''आज के ज़माने में तो कंसेंट मैटर्स डॉक्टर सर! म्यूचअल कंसेंट! बस इत्ता सा बात। और न कोई शाप, न कोई सज़ा। कोर्ट बी तो 497 स्क्रप कर चुका न!’’ ''हम्म्म। और जो तकलीफ़ चीटिंग के कारण स्पाउज़ को हुई सिस्टर? उसका क्या?’’ ''उसके लिए आप किसी का ऑर्गन नईं काटेगा न आज! बिलकुल न काट सकता! आपका शादी नईं बनता, तो छोड़ दो। बस!’’ देवराज जल्दी सोना चाहता है, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही। वह अपने अँधेरों में अकेला भटक रहा है। दस-बीस-तीस साल पहले के वे कि़स्से। अनेक। अब तो गिनती भी याद नहीं। मल्लिका। मार्था। सोनाली। रहमाना। और न जाने कौन-कौन! अलग-अलग मोड़ों पर अलग-अलग मुलाकातें। अलग-अलग जुड़ाव, अलग-अलग सम्पर्क। अलग-अलग प्रेम के तरीके, अलग-अलग धोखे के कायदे। इनमें से ज़्यादातर तो शादीशुदा ही थीं न! देवराज करवट बदलता है, मानो कानों में कहानी को आने नहीं देना चाहता। लेकिन कान कोई आँखें थोड़े ही हैं! और न आवाज़ कोई रोशनी के ढर्रे की चीज़ है! वह तो हवा की सवारी करती कहीं भी पहुँच जाती है। जहाँ हवा है , वहाँ आवारगी है। जहाँ आवारगी है, वहाँ आवाज़। उ$फ्फ़ ! उ$फ्फ़ ! उ$फ्फ़ ! वह अपने बाएँ कान को नीचे बिस्तर पर कसके भींचता है और दाहिने पर तकिया रख देता है। कानों की साँसें रुक जाती हैं। वे कुछ देर तक कुछ सुन नहीं पाते। मगर फिर ... धीरे-धीरे हवा कपड़े की दीवारों के पार होने लगती है। ओह यह सुधाकर का स्वर! देवराज जानता है कि उसका वर्तमान दु:खद है और भविष्य अनिश्चित। इसीलिए उसे सुधाकर की बातें और कचोट रही हैं। वह उन-दोनों की बातचीत में घुलना चाहता है, मगर उपचारी-उपचारक के बीच की सीमारेखा फाँद नहीं पा रहा। वह कहना चाहता है कि इस कथा के बाबत में उसके मन में कई अनुत्तरित सवाल हैं, लेकिन खुलकर कह नहीं पा रहा। वैसे भी स्टाफ़ को मरीज़ों की निजी ज़िंदगी में भला कहाँ रुचि होगी! इलाज कराने आये हो, इलाज कराकर जाओ न भाई! क्यों अपने अतीत के अनुभव हमें सुनाकर बोर करते हो! होगे तुम अपने ज़माने के बहुत बड़े वाले कैसेनोवा या कामदेव! हमें क्या! माइंड योर ओन बिज़नेस बडी! इसलिए देवराज अपने अँधेरे अतीत में बढ़ चलता है। कम-से-कम वह सुखद तो रहा है। उसमें न आज जैसा कोई अपराधबोध है और न कल होने वाली सर्जरी जैसी कोई अनिश्चितता। उसमें सुन्दर रंग-रंग के चेहरे हैं , कोमल ऊष्मीय गाल हैं , नरम गुलाबी होंठ हैं, भरी-मांसल देहें हैं! एक-से-बढ़कर-एक! अहा! देवराज उनको अलग-अलग करके आज नहीं देख रहा, देखना ही नहीं चाहता। भयभीत वह उन सबको साथ देखकर अपने कष्ट को काटना चाहता है। किसी एक सम्बन्ध में इतनी उपचारी शक्ति नहीं कि उसे प्रोस्टेट कैंसर से निजात दिला दे। निजात न सही, उसका भय ही कम कर दे। कम न करे, जीवन में आश्वस्ति ही ले आये! इतना सा इलाज भी क्या बीते दिनों के सभी सुखों के पास मिलकर नहीं! भूत वर्तमान और भविष्य के सामने इतना क्लीव हो जाता है! देवराज को अपना बीता हुआ कल भी किसी इन्द्र सा ही जान पड़ता है। उसे भी कोई असाध्य रोग हो चला है, बल्कि वह भी रोगी ही था। यथार्थ के शाप के सामने वह कुछ नहीं कर सकता। भूत के भी पुंसत्व पर ग्रहण लगा पड़ा है। वह किसी काम का नहीं। देवराज अपने अँधेरे में उड़ते चमगादड़ों की चीं-चीं अब भी सुन रहा है। बाहर से आ रहा सुधाकर-रजनी-वार्तालाप का अस्पष्ट स्वर उन्हें जगाने के लिए काफी है। चमड़ी-मांस के वे लोथड़े हवा में नाचते-नाचते बीच-बीच में नीचे को गिर पड़ते हैं और उनके स्थान पर कोई पुराना सम्बन्ध प्रकट हो जाता है। कोई पुराना प्रेम। कोई पुरानी चंचलता। कोई पुरानी अय्याशी। कोई पुराना क्षण-स्खलन। और हर सम्बन्ध के पीछे कोई दूसरा , छाया-सा। हर अहल्या के पीछे कोई गौतम। हर सम्बन्ध के पीछे कोई शाप। ओह! अरे! नहीं! देवराज आगे नहीं बढ़ सकता। वह ठिठक जाता है। उसकी दिल खरगोश की तरह सीने के बिल में घुस जाएगा ! साँसों की मिट्टी बाहर को खोदता-छोड़ता! वह ज़ोर से चीख पड़ता है, ''सिस्टर! कब से पूछ रहा हूँ! पानी पी लूँ क्या!’’
आँखें खुलने पर धूप देवराज को चिढ़ाती जान पड़ती है। मानो कह रही है --- अब तुम पहले-से पुरुष नहीं रहे, तुम्हारा कैंसर ठीक हो गया।
दोपहर के दो बजे हैं और सामने डॉक्टरों का समूह राउंड पर है। वे उसके आगे से जा चुके हैं। उसका ऑपरेशन सुबह ही हो गया था, वृषण काटकर उसकी देह से अलग कर दिये गये। प्रोस्टेट से पनपे उस शत्रु को भी अब हॉर्मोनी खाद मिलनी बन्द हो गयी है। अब वह मुरझा जाएगा। कैंसर से बचने के लिए मर्दानगी की कुर्बानी कौन सी बड़ी है ! देवराज सिर उठाकर अपने अधोवस्त्रों की स्थिति देखना चाहता है। वह चाहता है कि एक बार अपने इस टाँकों से सजे अंगभंग को निहार सके। वह उठने की कोशिश में है ही कि एक कोमल हाथ उसे वापस नीचे लेटने का निर्देश देता उसके माथे पर पड़ता है। रजनी सिस्टर की आज शि$फ्ट दोपहर की है। तो क्या आज भी िकस्सा चलेगा? यही इन्द्रकथा आगे को? अब और क्या होना-हो बीतना शेष है? सब कुछ तो हो गया! लंच के समय वहाँ फिर से दो ही लोगों का स्टाफ़ है। सुधाकर और रजनी सामने बैठे हैं; रजनी भोजन कर रही है। ''आप लेगा डॉक्टर सर!’’ वह बीच-बीच में पूछती जाती है। सुधाकर मना करता है। वह खाना खा चुका है। थैंक यू! ''ये बेड तीन का मरीज़ बउत मचमच करता डॉक्टर!’’ रजनी कह रही है। ''उसके टेस्टिस एम्प्यूटेट हुए हैं सिस्टर। मचमच तो बनती है। इन्द्र ने तो ऐसे में सारे देवताओं का आह्वान कर लिया था। भूल गयी?’’ रजनी खिलखिला रही है। ''अरे , तो क्या ये मिस्टर पूरे हॉस्पिटल को सर पे उटा लेगा! बीमारी ऐ, सर्जरी तो ओगा न! फिर!’’ ''मरीज़ कॉज़-ए$फेक्ट का रिलेशन नहीं समझता सिस्टरजी। वह कहानी समझता है। उसी से रिलेट करता है। उसी में ख़ुद को खोता है। उसी में स्वयं को पाता है। क्या करे बेचारा!’’ ''पर कहानी सोल्यूशन किदर देता ऐ? कहानी तो एंटरटेनमेंट ऐ! रिएल्टी में तो लौटना पड़ेगा न सच के सात! सबी को!’’ ''कई बार यथार्थ एक रोग को उखाड़ कर दूसरा बो जाता है, रजनी सिस्टर। वह बीमारी काटता है, बीमारी लगाता भी है। ऐसे में सच्चाई का इस्तेमाल सबके लिए एक-जैसे नहीं किया जा सकता न?’’ देवराज की आँखों ने आँसू ढलक पड़ते हैं। इस तरह से नज़रें बचाकर वे चेहरे के मैदानों पर सरकते हैं कि कोई उन्हें देख न ले। रजनी नहीं। सुधाकर तो बिलकुल ... नहीं। कब तक है उसकी ड्यूटी आज? इस वॉर्ड में पोस्टिंग कब तक? और कब छुट्टी होगी उसकी इस अस्पताल से? कोई-न-कोई तो क्रम-भंग करे! सामने डॉक्टर और नर्स की बातें जारी हैं। वॉर्ड में वे कम विचर रहे हैं , कहानियों में ज़्यादा। यथार्थ से दूर मिथकों में। बिना भटकन से डरे। बीमारी-इलाज-ऑपरेशन-दवाएँ, सब उनके िकस्सों में बीच-बीच में आकर हाज़िरी लगा जाते हैं। देवराज भी लगाना चाहता है। वह भी कहना चाहता है कि सर्जरी-भर से वह ठीक नहीं हुआ है। नहीं होगा। उसे कुछ और उपचार की दरकार है। ''तो कल से आपका पोस्टिंग किदर डॉक्टर?’’ रजनी का स्वर देवराज को भेद जाता है। ''कल से गायनी। पुरुषत्व-पोस्टिंग समाप्त, स्त्रीत्व-सेवा चालू।’’ सुधाकर ठहाका लगाता है। ''आपका किस्सा मैं मिस करेगा बउत! बड़ा एन्जॉय किया!’’ ''एन्जॉय करना भी इलाज लेना है सिस्टर।’’ ''आप मुजे बीमार समजता है?’’ ''मैं सबको बीमार समझता हूँ। सम्पूर्ण स्वास्थ्य एक छल है, एक झूठ जिसे पाने के लिए हम-सब दौड़ लगा रहे हैं।’’ देवराज की अँधेरी गुफा में सैकड़ों चमगादड़ चीं-चीं कर रहे हैं। वे बार-बार उड़ रहे हैं, भित्तियों से टकरा रहे हैं और गिर रहे हैं। स्त्रियों में बदल रहे हैं और फिर उड़ जा रहे हैं। लगातार, हर बार, बार-बार। देवराज ने कभी चमगादड़ों की चोटें नहीं देखीं। उड़ते हुओं के घाव ज़मीन से यों भी नज़र नहीं आते। लेकिन जब वे स्त्रियों में बदलते हैं, तब वे घायल दीखते हैं। उनकी पीड़ा और उनका सुख - देवराज को सब दिखने लगता है। वह इस सब से छूटना चाहता है, मुक्त होना चाहता है, उसे शल्योपचार से बाद कथोपचार चाहिए। कैसे कहे? किससे? सुधाकर से? किस तरह? डॉक्टर से अपना निजी जीवन? सुनेगा वह? रुचि होगी? कोई लाभ भी है इसका? घड़ी जैसे देवराज का मन्तव्य जान गयी है और उधेड़बुन भी। इसीलिए तेज़ी से उसके काँटे आठ की ओर भाग रहे हैं। जल्दी से समय पूरा हो। जल्दी से शि$फ्ट बदले। जल्दी से ड्यूटी ऑफ़ हो, कहानी भी। जल्दी-जल्दी-जल्दी! लेकिन देवराज? अब उसके पास कोई बहाने नहीं बचे हैं। रोग की सर्जरी हो चुकी है, छुट्टी भी हो ही जाएगी। कैंसर के लिए इस विभाग के डॉक्टर जो कर सकते थे, कर चुके हैं। आगे भी वे यथासम्भव करते रहेंगे। लेकिन क्या इन प्रयासों से वह पूरा ठीक हो जाएगा ? उन कन्दराओं का क्या, जहाँ न डॉक्टर की कैंची पहुँचती है और न गोली कोई। वहाँ विशेषज्ञ बनकर रोग का निदान न किया जा सकता है और न उपचार। भाग्यशाली है सुधाकर जिसमें इतना कुछ सामान्य अब तक रह छूटा है। पर न जाने कब तक वह भी अस्पर्शित रहेगा? शास्त्रों का एक बड़ा शक्तिशाली झोंका आएगा और बस! उसकी किस्सागोई की चाँदनी बादलों की कई परतों में जा लुकेगी। शायद हमेशा के लिए। फिर न कोई रजनी होगी और न कोई सुधाकर। सब-कुछ आच्छादित, सब-कुछ प्रच्छन्न। बस उसके पास कुछ ही मिनट बचे हैं। ''डॉक्टर ,जा रहे हैं ?’’ बड़ी सुई बारह की चोटी पर किसी पर्वतारोही की तरह चढऩे को है और वह समूची शक्ति से बोल उठता है। ''हाँ। लेटे रहो।’’ वे धीमे स्वर में यों कहते हैं, मानो सभी के लिए कह रहे हों। सामान्य निर्देश। सभी रोगियों के लिए। कुछ भी उसके लिए व्यक्तिगत नहीं। ''मुझे आपसे ... कुछ पूछ... कुछ कहना है सर। दो मिनट देंगे?’’ सुधाकर की मँडराती आँखें अब देवराज पर टिक जाती हैं। दरख़्त की पुकार पंछी दरकिनार कर सकेंगे भला? वह पास आता है और उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहता है, ''कहो।’’ ''यह बीमारी जो मुझे हुई ... इसके लिए जो यह सर्जरी हुई... मेरा मतलब है ,यह सब जो हुआ मेरे साथ, यह सब ...’’ ''तुम जो भी पूछना चाहते हो, वह खुलकर पूछो ... देवराज।’’ पहली बार सुधाकर की जीभ पर उसका नाम ठहर रहा है। ''मैं कुछ पूछना नहीं, बताना चाहता हूँ। आप सुनेंगे?’’ सुधाकर एक पल को सोच में है। डॉक्टरों से पूछने वालों की तादाद बहुत है। उन्हें सुनाने वाले विरले ही मिलते हैं। आज एक मिला है। सुन लेते हैं। देखें क्या सुनाना चाहता है। ''कह दो, जो कहना है देवराज तुम्हें।’’ ''सर, मैं न पूरी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाला आदमी रहा। मौज-मस्ती, धूम-धड़ाका, खाना-पीना और .. सब कुछ। कोई ऐसा ऐब नहीं, जो किया न हो।’’ ''तो?’’ ''बता रहा हूँ वही। कहीं यह बीमारी उसी का फल .. मेरा मतलब है ...’’ ''तुम भी बताते-बताते पूछने पर आ गये? खैर। कोई बात नहीं। न, तुम निश्चिन्त रहो। तुम्हारे कुछ भी करने से इसका सीधा कोई रिश्ता नहीं। दुनिया मौज करती है, दुनिया ऐश काटती है। सबको तो प्रोस्टेट कैंसर नहीं होता न।’’ ''फिर भी। मेरा ढेरों औरतों से जिस्मानी... जिस्मानी रिश्ता रहा.... रहता आया है।’’ ''मर्ज़ी से ही रहता आया है न भाई। ज़बरदस्ती तो नहीं न?’’ ''नहीं। सहमति से ही।’’ ''बस फिर बेफ़िक्र रहो। यह रोग किसी कुकर्म का सीधा दण्ड नहीं।’’ ''पर आपकी वह इन्द्र-अहल्या वाली कहानी सर? उसमें तो ...’’ ''वह तब की बात रही होगी देवराज, जब लोग वैसे रहे होंगे। वे पाप को मानते होंगे, शाप को भी।’’ ''आप नहीं मानते पाप और शाप को?’’ ''कुछ भी सीधी रेखा में नहीं चलता देवराज। न जीवन,न प्रेम, न सम्बन्ध और न विच्छेद। यहाँ तक कि कैंसर भी। सब-कुछ बहुत सारी घटनाओं का प्रतिफल हुआ करता है। हम अन्तिम नतीजा देखते हैं और सीधी रेखा अतीत में जोड़ लेते हैं। यह हमारी मासूमियत है।’’ ''जाते-जाते एक बात और बताते जाइए। क्या भेड़े के वृषण मेरे ...’’ ''ओ नहीं! मनुष्य को किसी अन्य जीव का अंग लगाने से बेहतर साथी-मनुष्य का ही अंग लगा देना है। और एक बात। इतनी मर्दानगी तो तुम्हारे शरीर में अन्य जगहों पर बनती ही है, कि तुम्हें वृषणों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। और वैसे भी शरीर और कैंसर में , शरीर की माँग माननी चाहिए। शरीर के लिए अब मर्दाने हॉर्मोन हानिकारक हैं, कैंसर के लिए वृद्धिकारक। किसे चुनना सही रहेगा?’’ ''शरीर को।’’ ''बिलकुल। वह मर्दानगी से बड़ा जो है।’’ ''पर क्या होगा अगर शरीर अब भी सम्बन्ध ... चाहेगा ?’’ ''साथ दे और सामने वाली की सहमति हो ,तो उसकी सुनना। अन्यथा शरीर से भी बड़ी कोई सत्ता है न? बोलो?’’ ''हाँ। है ,तो सर।’’
( हॉर्मोन वे रसायन हैं , जिन्हें सूक्ष्म मात्रा में शरीर की कई ग्रन्थियाँ बनती और रक्तधारा में छोड़ती हैं। सूक्ष्म मात्रा में बनने के बाद भी ये शरीर के भीतर कई कार्य सम्पादित करते हैं। नर-हॉर्मोन टेस्टोस्टेरोन के कारण कई पुरुष-अंग विकसित होते हैं और उनकी कार्यक्षमता सुचारु होती है। यही नहीं , कई रोग ऐसे हैं जिनमें ये हॉर्मोन वृद्धिकारक सिद्ध होते हैं। यानी केवल स्वस्थ अंगों का ही विकास हॉर्मोन करें ऐसा नहीं , कई बार कैंसर-जैसे रोग भी हॉर्मोनों के वृद्धि-सिग्नल पाकर बढऩे लगते हैं। चार्ल्स ब्रेंटन हग्गिंस ने सिद्ध किया कि प्रोस्टेट ग्रन्थि का कैंसर पुरुष-हॉर्मोन टेस्टोस्टेरोन के कारण बढ़ता है और इस हॉर्मोन को न पाने से मरने लगता है। इसी क्रम में जब प्रोस्टेट-कैंसर-पीडि़त रोगी के वृषण काटकर निकाले गये, तो उनका कैंसर ठीक होने लगा। यही हाल तब हुआ जब इन कैंसर-पीडि़तों को स्त्री-हॉर्मोन ईस्ट्रोजेन के इंजेक्शन दिये गये। चार्ल्स ब्रेंटन हग्गिंस की इसी खोज के लिए उन्हें सन् 1966 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। )
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