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अप्रैल - 2019

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन

 

 

प्रस्तुत अंक और आगामी अंक की बाबत हम कुछ जानकारियां पाठकों के लिए साझा कर रहे हैं। हमारा उर्दू रजिस्टर एक छोटे व्यवधान के बाद नये सिरे से यहां उपलब्ध किया जा रहा है। कथाकार रहमान अब्बास (पुरस्कृत उपन्यास 'रूहजिन’) को हाल ही में केन्द्रीय साहित्य अकादमी का सम्मान मिला है। रहमान अब्बास को अपने पहले उपन्यास के लिए कारागार की हवा खानी पड़ी और 2015 में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ़ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के प्रभावी प्रतिरोध के दौर में उन्होंने महाराष्ट्र सरकार की उर्दू अकादमी के पुरस्कार को वापस किया। उपन्यासकार को भारत, पाकिस्तान, कनाडा, मध्यपूर्वी देशों और यूरोपीय दुनिया में गहरी सराहना मिली। कुछ ज्वलंत सवाल-जवाब के साथ वे इस अंक में उपस्थित हैं। कथाकार रवि बुले ने इसे हमारे लिए संभव किया।

कुछ बरस पहले हमने विख्यात शायरा और हमारी दुनिया की जानदार आवाज़ फ़हमीदा रियाज़ के एक साक्षात्कार छापने के संकल्प की चर्चा 'पहल’ में की थी जिसके लिए फ़हमीदा स्वीकृति दे चुकी थीं लेकिन अटूट बाधाओं, सेहत की तकलीफों और उनकी व्यस्तताओं की वजह से यह काम आधा अधूरा, रुकावटों के साथ चलता रहा। इसमें अंतराल भी आये। हमारे साथी संपादक राजकुमार केसवानी ने इसे थोड़ा थोड़ा, धीमे धीमे अग्रसर किया पर दुर्भाग्य कि पिछले साल फ़हमीदा रियाज़ की जीवन लीला शेष हुई। 'चादर और चारदीवारी’ नज़्म के बहाने उन्हें अस्सी के दशक में जनरल जिया ने देश निकाला दिया और उन्हें भारत में पनाह मिली - जहां उनका जन्म हुआ था और जिससे उन्हें गहरा प्रेम था। वे गद्यकार भी थीं और नारीवादी विचारक भी। अपने अंतिम दिनों में भारत के बारे में उनके अनुभव का एक दुखांत यह था कि ''भारत तुम भी पाकिस्तान जैसे होते जा रहे हो।’’ बहरहाल विभिन्न शैलियों में संवाद के मार्फत राजकुमार केसवानी ने फ़हमीदा रियाज़ पर अपनी अनूठी रचना तैयार की। उनका उन्यास ''बाजे वाली गली’’ इसलिए स्थगित हुआ कि दो रचनाएं एक साथ संभव नहीं थीं, दूसरे 'पहल’ की किश्तों में विलम्ब होता था और उपन्यास को प्रकाशन की ओर तेजी से बढऩा था। उर्दू की बड़ी, विस्मृत शख्शियतों को लेकर उनकी पुरानी सिरीज़ अगले अंक में शुरू होगी जिसमें कन्हैयालाल कपूर होंगे।

'पहल’ में यात्राओं से संबंधित सामग्री लगातार छपती रही है। नए भूखण्डों, देश देशांतरों की दबी हुई हलचलों और जनजातीय भारत की बेचैन सामाजिक पृष्ठभूमियों को लेकर  'पहल’ की कोशिश नए पुराने लेखकों के साथ बराबर बनी हुई है। 'बस्ती बस्ती परबत परबत’ की अनेक किश्तों के साथ जितेन्द्र भाटिया ने बहुत आदर प्राप्त किया है। पूर्वोत्तर भारत की नई खोजों में जैसी कठिन मेहनत वे कर रहे हैं वह हिन्दी में एक नई धारा ही है। हमें राहुल सांस्कृत्यायन के शानदार सफ़रनामे, एशिया के दुर्गम भूखण्डों और पार उतर कंह जहियो (प्रभाकर द्विवेदी) की याद आती है। इसी तरह हमारे नौजवान साथी लेखक शिरीष खरे ने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ के अंधेरों में जाकर एक नई जीवन संस्कृति पेश की है। पिछली बार उन्होंने दण्डकारण्य और इस बार राजस्थान में थार के मरुस्थल की नई कथा लिखी है। कथाकार गौरीनाथ की डायरी एक प्रकार का कोसी का सफ़रनामा है जो दो किश्तों में जा रही है। कोसी का अंचल नेपाल सीमा और बराज से लेकर एक लंबा क्षेत्र है जहां हिन्दी की महान प्रतिभाएं पैदा हुईं। यह भूखण्ड अब बदला है, बदल रहा है। फणीश्वर नाथ रेणु, राजकमल चौधरी और मैथिली की उर्जावान सम्पदा उजड़ कर नया रूप ले रही है। गौरीनाथ इसी क्षेत्र से आते हैं। वे अपनी ज़मीन पहचानते हैं, उसके परिवर्तनों को देख रहे हैं, उससे प्यार करते हैं, अपनी खिन्नताओं के बावजूद। गौरीनाथ में वह बीज है जो केन को प्यार करने वाले केदारनाथ अग्रवाल और एथेंस को प्यार करने वाले जार्ज सेफरिस में था। इस संदर्भ में हम पाठकों को याद दिलाएंगे कि पांच दशक पूर्व हमने कोसी और सुंदरबन इलाकों की छाया को डॉ. रघुवंश की ''हरीघाटी’’ में छुआ था।

इस अंक में स्कंद शुक्ल के स्तंभ के साथ, वैज्ञानिक सोच और उसकी वर्तमान रूढ़‍ियों पर एक लेख प्रदीप का है जो महादेश के वैज्ञानिक विकास की हमारी प्रतिज्ञाओं और संकल्पों के अनुकूल है।

पाठक, अंग्रेजी कविता के शीर्षक से के. श्रीलता की कविताएं और नेपाली कवि विनोद विक्रम केसी की पहली बार भारत में छपने वाली कविताओं पर ध्यान देंगे और साथ में वीरू सोनकर की लंबी कविता 'भग्नावशेष’ पर भी। इस बार पहल में कहानियां भी अधिक संख्या में हैं। अंक की शुरुआत त्रिभुवन के एक सारगर्भित लेख से है जिसमें उपन्यासकार चतुरसेन शास्त्री, प्रेमचंद, निर्मल वर्मा के विचार संदर्भों से लेकर वर्तमान भारत दुर्दशा की त्रासदी को पढ़ा जा सकता है।

अगले अंक में सुप्रसिद्ध इतिहासकार और इतिहास कांग्रेस के सक्रिय भागीदार हितेन्द्र पटेल (कोलकाता), आलोचक रविभूषण की कृति 'वैकल्पिक भारत की तलाश’ पर लिख रहे हैं और रविभूषण जी अपनी आलोचना देवीशंकर अवस्थी पर केन्द्रित करेंगे। नये आलोचक अच्युतानंद एक छोटी सिरीज़ के अंतर्गत रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा का मूल्यांकन करेंगे। कुमार अंबुज की कई ताज़ा कविताओं से पहल का आगामी अंक तैयार किया जा रहा है।

दो सूचनाएं अंत में - पहल के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र वाले अंक को पुस्तकाकार साजिल्द 350 पृष्ठों में वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। पाठक अमेजान पर इसकी खरीददारी भी कर सकते हैं। दूसरी सूचना यह है कि पहल के नये सदस्यों की आगे से किसी प्रकार की सदस्यता अवरुद्ध कर दी गई। जो सदस्य अपना नवीनीकरण कराते रहेंगे उन्हें ही पहल उपलब्ध हो सकेगी।

ज्ञानरंजन

 


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