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जनवरी - 2019

बाजे वाली गली - 4

राजकुमार केसवानी

उपन्यास अंश / धारावाहिक

 

 

 

 

अपने लिए जन्नत सी ज़िंदगी तलाशने निकले हिंदुस्तानी मुसलमानों में एक ख़ासी तादाद ऐसे लोगों की भी थी जो पाकिस्तान जाते वक्त अपने घर की औरतों और बच्चों को पीछे छोड़ गए थे। खून-राबे की रो की बरों से डरे हुए इन लोगों ने अकेले ही इस तरे से जूझने और पहले वहां अपने लिए जगह बनाने की से यह फैसला लिया था। लेकिन हालात थे कि किसी एक जगह थमने और लोगों को को एक दूसरे की सुध लेने की गुंजाइश ही न देते थे। आम इंसान तो एक तरख़ुद दोनो मुल्कों की सरकारों से सरकारी निाम सम्हले न सम्हलता था। ख़ासकर  नए-नए पाकिस्तानी निाम की हालत खस्ता थी। अपनी करंसी तक के लिए उसे हिंदुस्तान की मोहताजी झेलनी पड़ी। डाक व्यवस्था का हाल तो यह था कि वह हिंदुस्तानी टिकटों के ऊपर पाकिस्तान छाप कर काम चला रहा था। ऐसे में लोगों तक एक दूसरे की बर पहुंचाने का सवाब पाने वाली चिठी-पत्री का हाल भी बहुत बुरा था। ऐसे माहौल में सिर्फ फलती-फूलती-फैलती अवाहें इंसानी ज़िंदगीयों में हर घोलने का काम कर रही थीं।    

ऐसे ही हालात का शिकार थी बदनसीब ज़ैनब। ज़ैनब की टांग शायद पोलियो की शिकार थी, सो वह लंगड़ाकर ही चल पाती थी। इसी बदनसीबी के सबब उसके नाम के साथ लंगड़ी का लफ् भी जुड़ गया, जिसके चलते वह कहलाती थी लंगड़ी ज़ैनब। बाजे वाली गली से कोतवाली की तर जाती राह पर एक पतली सी गली के एक मकान में ज़ैनब का घर होता था। ज़ैनब का पति रईस निहायत बिगड़ैल किस्म का इंसान था। रईस, घर से रा सी दूरी पर शहर के सात दरवाों में से एक - बुधवारा गेट के बाहरी हिस्से में कायम बस अड्डे पर ''बालू रेत की भुनी मुंफली’’ का ठेला लगाता था। कमाई भले बहुत नहीं थी लेकिन दिन फिर भी हंसते-खेलते ही गुर जाता। और इसकी ख़ास वजह थी यहां का माहौल। 

एक तर कुलसुम बी की मस्जिद। उसके बाहर मियाना और पीनस रखकर  सवारी के इंतार में बैठे कहार। डबल फाटक वाले गेट के नीचे शहर के मशहूर नाई नन्हें मियां की हजामत की दुकान, तो फाटक के ऊपर ''सदर साहब’’ की रिहाइशगाह और उनके ऊपर छत पर लगे अड्डों पर उड़ते-बैठते कबूतरों की हलचल। यहां आने-जाने वाली बसों की तादाद गिनती में भले ही 20-25 तक ही पहुंचती हो लेकिन यहां पहुंचने वाले इंसानो की तादाद, ला-तादाद होती थी। यह कतई रूरी नहीं कि इस जगह दिखने वाला हर शख्स कहीं बाहर जाने को ही यहां आया हो। तरीहन आने वालों की गिनती मुसाफ़िरों से ज़्यादा ही रहती थी। इसी चहल-पहल की गूंज में शामिल हो जाती थीं यहां की दीगर हलचल से उठती आवाज़ें। एक तर चाय-पान की दुकानों का शोर तो दूसरी तर तांगा स्टैंड से उठती आवाज़ें और इन सबके ऊपर मुसाफ़िरों को कभी ओबेदुल्ला गंज, गोहरगंज, बरखेड़ा, तामोट चलने की दावत देतीं आवाज़ें तो किसी व$क्त ग़ैरतगंज, रायसेन या फ़िर गुलाबगंज,भेलसा वालों की आवाज़ें। एक दिलचस्प बात और थी। इन आवा लगाने वालों में से कुछ आवाज़ें मुशाइरों में भी सुनाई दे जाती थीं। इन हरात की वजह से ही कभी-कभार इस बस स्टैंड के पटियों पर रमाइशी मुशाइरे की निशस्त भी जम जाती थी। और इस सारे माहौल में जब एक आदिवासी गोंड कीर आकर अपनी तुनतुनी/ डुगडुगी के साथ ''भूपाला’’ और इसकी गोंड रानी कमलापति के गीत गाता तो हर सुनने वाले के मुंह से वाह निकल ही जाती थी। इस गीत के रिए वो बहुत मुख्तसर में भूपाल के भोपाल बनने की कहानी कहता था कि किस तरह गोंड रानी कमलापति के पति निाम शाह की हत्या उसी के रिश्तेदारों ने उसे धोखे से खाने में हर देकर की थी। किस तरह रानी ने अपने बदले के लिए भोपाल से ही सटे हुए इस्लामनगर के पठान शासक दोस्त मुहम्मद ख़ान को राखी बांधी और अपने पति के हत्यारे आलम शाह से बदला लेने का वचन लिया। जब दोस्त मुहम्मद ने आलम शाह को मार डाला तो रानी ने उसके बदले में यह भोपाल जो उस वक्त एक छोटा सा गांव था, दोस्त मुहम्मद को बतौर इनाम दे दिया।   

ए भूपाला रे, भूपाला अमरा भूपाला रे

कमलापति थी रानी, सुंदर और सयानी रे, सुंदर और सयानी रे

सयानी रानी का ये भूपाला रे ... अमरा भूपाला रे

मार दियो राजा धोके से, ओ आलम शाह ने मारा रे 

मार दियो रानी का राजा रे, ओ रानी का राजा रे

धोके से जब बिरी रानी, याद 'दोस्तकी आई रे

राखी बांधी, बनियो दोस्त मुहम्मद भाई रे

बहिन को बदलो लियो रे भाई रे --- रे, रे, रे भाई रे

दियो इनाम भाई को, ये अमरा भूपाला रे , रे, रे, रे भाई रे

दोस्त मुहम्मद पाया, गांव जो था भूपाला रे

दोस्त बसायो, शहर बसायो भूपाला रे, रे, रे, रे भूपाला रे

भूपाला में बुर्ज, दमदमे, जिन पर सजती तोपां रे

दुश्मन देखें, तोपां गरजें,

लैला गरजे, बिजली बरसे

लेहू-देहू बोले धड़ाम रे

धूम-धाम की धूम निराली,

गरज तो उसकी हैयो हो तूफान रे

जियो, जियो भूपाला रे, जियो, जियो भूपाला रे

जो है सबसे आला रे

जियो,जियो भूपाला रे, जियो,जियो भूपाला रे

ए भूपाला रे, ए अमरा भूपाला रे  

यह गोंड कीर, भोपाल के मूल गोंड निवासियों के शेष बचे उन दस गोंड परिवारों में से एक था, जो शिमला पहाड़ी पर झुगियां बनाकर रह रहे थे। इनमे से अधिकांश दिहाड़ी मदूर थे, जो दिन भर शहर में मदूरी के बाद वापस शिमला पहाड़ी लौट जाते थे जिसकी चोटी पर नवाब रशीद-उर-ज़फ़र खान की शिमला कोठी आबाद थी।

ऐसी ही सरगर्मियों भरे माहौल में रईस के ठेले से मूंगली का कारोबार भी ठीक-ठाक ही हो जाता था, लेकिन इस गुारे लायक कमाई से रईस का जी नहीं भरता था। सो और कमाने के चक्कर में वहीं एक गली में चलने वाली तीन पती के जुए में अक्सर अपनी कमाई हुई रकम भी हार जाता। इस हार का गुस्सा निकलता घर जाकर मार-पीट करने से। घर में बीवी ज़ैनब के अलावा एक बेटी भी थी हिना। हिना के बाद दो बच्चे और भी हुए लेकिन ज़्यादा दिन जी न सके। अब ज़ैनब एक बार फिर पेट से थी।

ज़ैनब और हिना घर पर ही बीड़ी बांधने का काम करके, ज्यों-त्यों ज़िंदगी जीते थे। 1947 जब एक नए मुल्क 'पाकिस्तानकी बर लाया तो लाखों लोगों की तरह रईस के मन में भी एक नई उम्मीद जाग उठी। बस अड्डे पर भी पूरे शहर की ही तरह पाकिस्तान जाने के नफे-नुक्सान को लेकर बड़ी-बड़ी बहसें छिड़ी रहतीं। इन बहसों में अक्सर उम्र-रसीदा लोगों की दिलचस्पी ज़्यादातर बहसें सुनने और मौका-बेमौका भोपाल के हक में दलीलें देने तक ही महदूद रहती थी। उनके लिए हिंदुस्तान का मतलब ही कुल जमा भोपाल और सिर्फ भोपाल था। यह वो लोग थे जिन्होने अपनी तमाम उम्र शहर भर में फैली एक ऊंची सारी दीवार की दो तर बंटे अंदरूनी भोपाल और बैरूनी भोपाल की पुरपेंच सकड़ी गलियों में गुार दी। मजाल जो इसके आगे कभी कदम बाहर निकले हों। लेकिन नौजवानो की जवां उमंगों में भरपूर उत्साह था। वह इस नए मौके को छोडऩा नहीं चाहता था।

अपनी बदहाल ज़िंदगी से बेार रईस को हर वो बात अच्छी और सच्ची लगती जिसमे पकिस्तान में एक खूबसूरत ज़िंदगी के सपने होते। इन्हीं सपनों की तलाश में रईस ने पाकिस्तान जाने का फैसला ले लिया। मर-मर कर जीने से थक चुकी ज़ैनब भी इस बात पर सहमत थी लेकिन ज़िद साथ जाने की थी। इस ज़िद से फ़ा रईस ने जब अपनी बदबानी के चाबुक चलाए तो ज़ैनब ने हथियार डाल दिए। उसे मालूम था कि इससे आगे बात बान की बजाय हाथ-पांव से होगी।

रईस भी जाते व$क्त कोई टंटा नहीं चाहता था। सो जाते वक्त ज़ैनब से निहायत प्यार-मुहब्बत की बातें करता रहा। बेटी हिना, जो उम्र के निहायत संगीन मोड़ तक आ पहुंची थी, उसे शकत भरे अंदा में समझाता रहा। ''एक बार वां सब सई-साट जमा लूं। उसके बाद तो भेतरीन आ के ले जाऊंगा, अपनी शेादी को। तू समझ रई हे ना?’’ बेटी ने भी हामी में सिर हिला दिया और अब्बा के गले लग गई।

इन्हीं सारे हालात में घर से निकलते वक्त पास-पड़ोस के लोगों और रिश्तेदारों को बीवी और बेटी का ख़्याल रखने की गुारिश करता हुआ रईस निकल पड़ा था। पांच साल के ऊपर होने को आते थे मगर इतने लंबे अरसे में उसकी तर से न तो कोई खैर-बर ही मिली न कोई संदेस।

इधर ज़ैनब और हिना के लिए हर नया दिन अाब बनकर आता और सिर्फ दर्द और आंसू देकर जाता। रईस के पाकिस्तान जाने के चंद माह बाद ही ज़ैनब की कोख से एक और बच्ची का जन्म हो चुका था। अब ज़ैनब के सर एक और इंसान का पेट भरने की ज़िम्मेदारी आन पड़ी थी। घर में बीड़ी बनाने का काम करते हुए भी गुर मुश्किल होता जा रहा था। शहर में कोई खास आसरा भी न था सिवाय बड़ी बहिन फातिमा के, जो अंदरूनी बुधवारा में ही रहती थी। फातिमा के खाविंद की भी वहीं मस्जिद के बाहर एक छोटी सी चाय की दुकान थी।

मुश्किल यह हो गई कि रईस के बारे में बर मालूम करने का कोई रिया ही नहीं था। पाकिस्तान जाने वालों की तादाद तो खासी थी लेकिन आने वाला कोई विरला। उस पर सितम यह कि आने वाले को अपने हाल की पूरी बर न थी तो किसी और की बर क्या दे। दोनो मुल्कों में हर रो बढ़ती कानूनी पेचीदगियों की वजह से आने वालों की गिनती लगभग सिर तक जा पहुंची थी।

हिना जवानी की दहली पर आ खड़ी हुई थी, छोटी बेटी भी पांच साल की होने को आई थी। अब ज़ैनब को सोते-जागते बुरे-बुरे सपने आने लगे थे। रेडियो और अबारों में सिवाय बुरी बरों के कुछ भी न होता। ऐसे में ज़ैनब के हन में अपने खाविंद को लेकर बुरे-बुरे याल आते और वह घबराकर बड़बड़ाती - ''मेरे मुंह में खाक’’ कहकर ''असतग़फ़िरुल्लाह’’ (अल्लाह मा करे) का कलमा पढऩे लगती। 

अखाड़े में कसरत के लिए आने वाले पहलवानों की नरें शुरू से ही आते-जाते इस घर में झांकने की कोशिश करती रहती थीं। ज़ैनब अपने लंगड़पन की वजह से भले इनको बुरी लगती हो लेकिन हिना की चढ़ती जवानी की तर उनकी नरें यूं जाती जैसे मकनातीस की तर लोहा। ढीली होती लंगोट वाले इन पहलवानों के ठहाकों के लिए वह ''तैयार माल’’ थी। लेकिन इन सारे पहलवानों को एक भिश्ती मात दे गया। शहाद भिश्ती इस इलाके के कई घरों में पानी पहुंचाने का काम करता था। रईस मियां से भी अच्छा-ख़ासा दुआ-सलाम का रिश्ता होता था। शहाद भरपूर जवां मर्द था। शक्लो-सूरत से भी ख़ासा दिखनौट था। रंग अलबता भरपूर काला था। मगर वो अपनी जवानी के रंग में ऐसा मस्त रहता था कि इसकी बर जहां से वो गुरता वहां के रहने वालों को हो जाती थी। कांधे पर पानी से भरा अपना मश्क लिए ऐसा सुरीला गाता था कि लोग उससे गाना सुनने के लिए रमाइशें करते। शहाद को भी इस काम में खूब मा आता था। रात में पटियों पर जवान होती महफ़िलों में जब वो रमाइश पर कोई फ़िल्मी नमा गाता तो वहां मौजूद सारे लोग उसकी तर तारी भरी नरों से देखते रहते। इन नरों और अपने लिए उठती वाह की आवाों से उसके चेहरे की काली रंगत में सूरज की सी चमक फूट पड़ती थी।

रईस के पाकिस्तान जाने के बाद से वह लगातार ही ज़ैनब और हिना से दुआ-सलाम और हाल-चाल पूछने चला जाता था। हिना की हंसी उसे खूब भाती थी। सो वो अक्सर ऐसी लतीफेबाी करता कि हिना हंस-हंस के दोहरी हो जाती थी। वह बार-बार इस बात को दोहराता था कि भिश्ती असल में भिश्ती नहीं बहिश्ती (स्वर्ग का निवासी) होता है। वो कहता, पानी पिलाना दुनिया का सबसे बड़ा सवाब है। यह कहकर वो फौरन ही मैदान-ए-करबला की दास्तान छेड़ देता और आख़िर में कहता, ''इसीलिए कहा जाता है कि - पानी पियो तो याद करो प्यास इमाम की।’’ ज़ैनब को भी यह सब अच्छा तो लगता था लेकिन उसकी छठी हिस उसे आगे के तरे से आगाह भी करती थी। उस वक्त वो थोड़ी गंभीर हो जाती थी। लेकिन वह हंसी-ख़ुशी के यह चंद लम्हे खोना भी नहीं चाहती थी।

ख़िर एक दिन वह भी हुआ कि ज़ैनब को अपनी इस दो घड़ी की खु़ुशी की कीमत अपनी बेटी हिना की शक्ल में चुकानी पड़ी। मालूम हुआ कि जिस वक्त ज़ैनब बीड़ी कारखाने के सट्टेदार के यहां हिसाब के पैसे लेने गई हुई थी उस व$क्त शहाद भिश्ती हिना को ले उड़ा। बहिन फ़ातिमा और बहनोई की मदद लेकर घर से चंद कदम दूर कोतवाली में रपट दर्ज करवा दी।

पुलिस ने शहाद के घर वालों और दोस्तों से पूछताछ के साथ ही अखाड़े के कुछ पहलवानों को भी तलब कर लिया। इस सारी कसरत से पुलिस को इतना भर ही मालूम हो पाया कि यह सारे लोग सि$र्फ तलबगार थे, गुनहगार नहीं। सो इन बेगुनाहों को बस चार-छह पुलिसिया गालियों से ज़्यादा कुछ भी न मिला।  

ज़ैनब की हर आस धीरे-धीरे दम तोडऩे लगी थी। न तो बेटी की कोई बर मिल रही थी और न ख़ाविंद की। एक दिन उसके कानों पर ऐसी बात पड़ी जिसने आसमान से गिरी बिजली का सा कहर बरपा कर दिया। बीड़ी के सट्टे पर जब वो बीड़ी देने गई तो वहां के सट्टेदार ने उससे कह दिया कि ''ज़ैनब, समझ लो रईस अब नईं लोटने का। सुनते हैं उसने तो वां दूसरा निकाह कर लिया हे। शायद कोई बच्चा-वच्चा भी हो गया हे। अब तुम भी अपनी सोच लो।’’ 

सट्टेदार की बात सुनकर पहले तो उसे बहुत गुस्सा आया लेकिन कुछ सोचकर वह उसे पी गई। ख़ुद को काबू कर इतना भर कह दिया, ''केने वालों के मूं में ख़ाक।  झूठी बातें $फैलाते हेंगे लोग-बाग।’’ रा सी सम्हली तो जोड़ दिया, ''बाकी जो अल्ला की मर्ी।’’ इतना कहकर वह वहां से तो निकल आई लेकिन सट्टेदार की बात लगातार उसके हन में गूंजती ही रही। सोचते-सोचते मन में एक शक भी पैदा हुआ कि आख़िर अब तक रईस ने कोई $खैर-बर क्यों नहीं भेजी। कुछ तो दाल में काला है।

ज़ैनब इन्हीं खयालों में खोई रहती और ख़ुद से ख़ुद सवाल करती और ख़ुद ही जवाब भी देने लगती। मुहल्ले की औरतें उसकी हालत देखकर कहतीं - ''ख़ुदा ग़ारत करे इस मौत पड़े रईस को। वो बिचारी लंगड़ी तो एकदम पगला गई हेगी।’’

एक दिन यह हो भी गया। वो सचमुच ही अपना हनी तवाुन पूरी तरह से खो बैठी। बदहवासी में औल-फौल बकती हुई ज़ैनब घर से निकलकर इधर-उधर फिरती रहती। यूनानी शफ़ाख़ाने के पास, नज्जा दादा के घर के पास वाले पटियों पर बैठ उसे शायद कुछ राहत मिलती थी, सो वहां कुछ देर रूर बैठती। यह नज्जा दादा वही थे कि जिन्होने किसी वक्त अपने कारनामों से नवाब भोपाल हमीदुल्ला ख़ान की नाक में दम कर रखा था।

ज़ैनब वहां बैठे-बैठे इधर-उधर घूमकर शफ़ाख़ाने के पास बने कुएं पर जाकर टिक जाती, जिसका पानी लगातार सूख रहा था। कभी-कभी वह उठकर कुएं की तर चली जाती। कुएं के मुहाने खड़े होकर कुछ देर उसे देखती और फिर बच्चों की तरह मुंह पर दोनो हथिलेयां लगाकर कुएं में ोर से आवा लगाती - ''रईस!’’ खाली होते कुएं से एक हल्की सी गूंज उठती। यह गूंज सुनकर ज़ैनब ोर-ोर से हंसने लगती और फिर जाकर पटिये पे बैठ जाती। हंसते-हंसते थक जाती तो उंगलियों पर कोई हिसाब लगाने लगती। धीरे-धीरे उंगलियों पर हिसाब बंद हो जाता और ख़ाली हाथों ही धागे का खेल खेलने लगती। ईंट के टुकड़े उठाकर, पटिये पर ही लकीरें खेंचती रहती। अचानक ही उठ खड़ी होती और फिर से उंगलियों पर हिसाब लगाती और कुछ बड़बड़ाती हुई चल पड़ती।

बड़ी बहिन फ़ातिमा की तमाम कोशिशों के बावजूद ज़ैनब की हालत में कोई सुधार  न आता था। वेद-हकीम नाकाम हुए तो टोना-टोटका आमाना शुरू किया। इसी का नतीजा था कि ज़ैनब के गले से लेकर बाुओं तक तरह-तरह के गंडे-तावी बंधे हुए थे। मगर क्या मजाल कि ज़ैनब की हालत पर इन तमाम टोटको का रा सा भी असर हो। ज़ैनब की छोटी बेटी जिसका नाम उसने बड़े प्यार से रोशन आरा रखा था, मां की इस हालत का सबसे बुरा शिकार हो रही थी, सो मजबूरन फ़ातिमा को उसे अपने घर ले जाना पड़ा। 

कुछ अरसे बाद ज़ैनब में एक बड़ा बदलाव आया। अब वो कुएं की बजाय बस अड्डा जाकर ख़ामोशी से बैठ जाती। आते-जाते मुसाफ़िरों की सूरतें देखती रहती। कभी अपनी सूनी निगाहों से बिना चेहरे पे कोई भाव लाए एकटक वहां खड़े ठेलों की $कतार पर नर घुमाती और फिर घर चली जाती।

इस ख़ामोशी ने आख़िर एक दिन तूफ़ान बनकर ज़ैनब को निगल ही लिया। वह  घर में अकेली ही थी। उस पर जैसे कोई जिन सवार हुआ और उसने घासलेट के पीपे से बची-खुची घासलेट को घर की चीों पर उंडेल कर उनमे आग लगा दी। जब घर से धुआं उठना शुरू हुआ तो मुहल्ले वालों ने बाल्टियां भर-भर पानी डाल आग बुझाने की कोशिश शुरू कर दी। उस वक्त सबको सिर्फ घर की आग दिखाई दे रही थी, ज़ैनब नहीं। जब किसी को ज़ैनब का याल आया तो पता चला कि ज़ैनब आग में जलकर बुरी तरह ख्मी हो चुकी थी। यह ख़्म भरने वाले ख़्म नहीं जलाने वाले ख्म थे जिनने आख़िज़ैनब को हला$क कर ही दम लिया।

ज़ैनब की बर और उसकी कहानी उसके घर की आग की ही तरह शहर भर में फैल गई। हर शाम उर्दू अबार ''नदीम’’ बेचने वाले नाबीना हाफ़िज़ साहब उस दिन भी शाम को निकले। हाथ में टीन का भोंपू, साथ में अबार थामे बच्चा। बच्चे के कांधे पर हाफ़िज़ साहब का हाथ। रा रुके और भोंपू हाथ में लेकर अबार की बरें सुनाना शुरू कर दीं - ''जल मरी, वो जल मरी। पाकिस्तान के सुनहरे ख़्वाब दिखाने वाले दग़ाबाख़ाविंद की दग़ाबाी की शिकार होकर ज़ैनब जल मरी। ख़ुदा मग़फ़िरत करे (मोक्ष दे)। वो बेचारी जल मरी।’’

ज़ैनब की बर सुनकर बद्दू मियां ने खूब आंसू बहाए और बड़ी देर तक आसमान निहारते, बोलते रहे। आंसुओं से भीगे होंठों और जज़्बात से भरे गले से आसमान से बातें भी करते रहे, जिसमे से सिर्फ उनके आख़िऱी अल्फ़ा भर सुने गए- ''तेरे रा तू ही जानता है। मगर कुछ करम कर, अपनी मलूक पर करम कर। करम कर करम।’’

पटियों पर रात की निशिस्त जमी तो हंसी-ठहाकों की बजाए, निहायत संजीदा अंदा में बंटवारे पर ही बहस छिड़ गई। मुन्ने भाई ''कनकुबड़े’’ तो गुस्से में पटिये से कूदकर नीचे उतर गए और जाते-जाते सारी संजीदा महफ़िल के ठहाके के लिए जुमला छोड़ गए - ''ये इन मादरचोद सियासतदानों ने लौड़े लगा दिए पब्लिक के।’’

हवेली में भी इसी बात को लेकर सुगबुगाहट थी। घर में देर रात लौटे दादा ने आते ही मां से पूछा, ''अरे तुमने देखा था न उस पगली ज़ैनब को? वही जिसका आदमी पाकिस्तान भाग गया था और लड़की को वो साला भिश्ती भगाकर ले गया था। उस बिचारी ने आज आग लगाकर ख़ुदकुशी कर ली।’’

मां ने जवाब दिया, ''हां, सुना। शाम से ही सब उसका असोस कर रहे हैं। मर्दों की मारी थी बेचारी।’’

''मर्दों की नहीं, इन हरामी कांग्रेसियों और लीगियों की वजह से मर रहे हैं लोग। तुमको कुछ पता-वता तो है नहीं। बस मर्दों-मर्दों बोल दिया।’’

इसके बाद दादा ने रो की तरह दारू की बोतल खोल ली। थोड़ी देर बाद कुछ कमी सी महसूस हुई तो मुझे चाचा को बुला लाने भेज दिया। दोनो भाई साथ बैठे तो बात फिर ज़ैनब की छिड़ गई।

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ज़ैनब की बर के नतीजे में सिर्फ बाजे वाली गली ही नहीं पूरे शहर में मुल्क के बंटवारे से पैदा हुए मसलों पर नए सिरे से एक बहस सी छिड़ गई थी। लेकिन शहर का एक घर ऐसा भी था जहां शायद ज़ैनब के रिश्तेदारों के घर से भी ज़्यादा मातम फैला था। मेहंदी वाली गली में यह बूढ़ी आमना बी का घर था। चूने के उखड़ते प्लास्टर से धीरे-धीरे नंगी होती जाती पत्थर की जुड़ाई वाली दीवारों के बीच खड़ा एक छोटा सा शिकस्ता हाल लकड़ी का दरवाा। इस दरवाज़े की हालत देखकर ही अंदाा हो जाता था कि अनगिनत बरसों में आसमानी अगन की झुलसन और फिर उसे ठंडा करती पानी की बौछारें झेलकर यह दरवाा अपनी कुव्वत और अपनी रंगत खो चुका है। उस पर लगे लोहे के बने सांकल और टके अलबता अपने लोहा होने पर इतराते हुए उसी धज से टंके नर आते थे।

घर में आमना बी, उसकी दो जवान बेटियों - सलमा और नजमा और उनके तीन छोटे-छोटे बच्चों समेत कुल छह लोगों की आबादी थी। घर में कोई मर्द न था। घर की चक्की चलाने के लिए तीनों औरतें मिलकर भोपाली बटुए बनाने का काम करती थीं। भोपाली बटुए की माने में शोहरत थी सो हर व$क्त उसकी मांग बनी रहती थी। घर के एक सबसे बड़े कमरे के बीचों-बीच लकड़ी का एक चौड़ा सा फ्ऱेम लगा था जिस पर लोहे की चाबियों से कसा मखमल का कपड़ा दिखाई देता था। इस फ्ऱेम को कारचोब कहा जाता था और इस पर कसे कपड़े पर सूई धागे की मदद से जरी, सलमा, सितारे, कांच, पोत और मोती टांककर बड़ी बारीकी और हुनरमंदी से तरह-तरह की आकृतियां बनाई जाती थीं. किसी व$क्त ताज महल की तस्वीर तो किसी पर कुछ बेल बूटे या फ़िर कभी खूबसूरत परिंदे-चरिंदे का चेहरा।

यूं तो कुच्छ घरों से बटुए बनकर बाार में बिकने भी आते थे, लेकिन आमना बी इस काम की बड़ी नामवर कलाकार थीं। इसी वजह से दुकानदार बटुए की डिाईनिंग का काम उन्हीं के भरोसे छोड़ देते थे। अगर कभी कोई ख़ारमाइशी आर्डर हुआ तो उसके लिए काग़ज़ पर पेंसिल से बने डिाईन भेज देते थे। 

लकड़ी के पायों पर टिके कारचोब नामी इस फ्ऱेम के गिर्द बैठकर किए जाने वाले काम को कारचोबी का काम कहा जाता था। बटुए के अलावा टी-को, साड़ी, जाकेट जैसी चीज़ें भी मांग के मुताबिक बन जाती थीं। इसी काम से गुर-बसर होती थी। और फिर भी जो कोई कमी पड़ती, जो कि अक्सर की बात थी, तो इस बूढ़ी आमना बी का एक जवान भाई महफू आगे आकर उस कमी को पूरा कर देता था।

लेकिन मह$फू मियां की भी अपनी एक सीमा थी। किराए से साईकल देने और साईकलें सुधारने की दुकान से दो घरों की रूरतें पूरी करना रा मुश्किल काम था। फिर भी वह इस उम्मीद में यह सब किए जाता था कि उसकी दोनो बहनों के ख़ाविंद पाकिस्तान में अपने लिए जगह बनाकर लौट आएंगे और उनको साथ ले जाएंगे। लेकिन ज्यों-ज्यों व$क्त गुरता जाता था त्यों-त्यों यह उम्मीद भी टूटती जाती थी। बाकी सब तो ठीक लेकिन घर भर को फ़िक्र सताती तो इस बात की कि तस्सली भर को कोई खैर-बर भी न थी। इस फ़िक्र की एक ख़ास वजह यह थी कि इन दोनो भाइयों - अनीस और हमीद - ने पाकिस्तान जाने का फैसला बहुत देर में किया। कल तक सबके लिए खुले बे-रोक-टोक आने-जाने के रास्तों पर पहरे लग चुके थे। परमिट हासिल करना मुश्किल और बिना परमिट इस पार से उस पार जाना उससे भी मुश्किल हो चुका था। आए दिन बिना परमिट छुप-छुपा कर पाकिस्तान जाने की कोशिश करने वालों के पकड़े जाने और वापस भेजे जाने की बरें छपती रहतीं। कुछ बदनसीब ऐसे भी थे जिन्हें वहां हिंदुस्तान का जासूस मानकर कैद कर लिया गया था। हिंदुस्तान लौटने वाले मुसलमानों के लिए भी हिंदुस्तान में ''पाकिस्तानी जासूस’’ के तमगे के सिवा कुछ न बचा था। ऐसे हालात में अनीस और हमीद की किसी भी तरह की कोई खैर-बर न मिलना, घर वालों के लिए बड़ी फिक्र की बात थी। 

बंटवारे से पहले बल्कि बाद तक दोनो ही भोपाल की पुतली घर वाली जिनिंग फैक्ट्री में नौकरी कर रहे थे। आख़िरी $फैसला लेते-लेते  काफी देर हो चुकी थी। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच नक्शे पर खिंची लकीर मीन पर धीरे-धीरे लोहे की दीवार की तरह खड़ी हो चुकी थी। सो आसानी से इंसानो का आना-जाना तो दूर, आवा तक ठीक से आ-जा नहीं पा रही थीं।

इसी सन्नाटे और नाउम्मीदी भरे माहौल वाला यह घर एक अर्से से किसी अच्छी बर की बाट जोहता बैठा था। कुछ ख़ुशनसीब घरों में भले ही खैरियत की बरे पहुंच रही थीं लेकिन इस घर को भी ज़ैनब की ही तरह बस एक जुमले भर का इंतार था - ''यहां सब खैरियत है।’’ लेकिन इतने लंबे अरसे में न कोई चिठी आई और न किसी और तरह से कोई बर।

ज़ैैनब की बर से सदमे में डूबे इस घर की अगली सुबह, शाइरों के तसव्वुरात की वह तुलू-ए-सहर बनकर आई कि जिसमे ज़िंदगी के हर अंधेरे को मौत मिलनी है। यह सुबह एक बर की शक्ल धरकर आई थी - माशूक मियां भोपाल लौट रहे हैं। यह माशूक मियां 1948 में पूरे ख़ानदान की मर्ी के ख़िला अकेले ही पाकिस्तान चले गए थे और अब जाकर घर लौट रहे थे। इस बर से आमना बी और उनकी दोनो बेटियों के चेहरे पर यक-ब-यक बरसों से गुम मुस्कान लौट आई। यह उम्मीद की मुस्कान थी।

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काठ वाली गली, जहां माशूक मियां का घर था, न जाने क्यों काठ वाली गली कहलाती थी, जबकि इसकी आम पहचान काठ की बजाय बीड़ी और चूड़ी से ज़्यादा थी। गली के एक मुहाने पर मजीद ख़ान बीड़ी वालों का मकान था तो दूसरे मुहाने पर पाशा भाई चूड़ी वालों की रिहाइश थी। इन दो बड़े रईसों के बीच में गली के अंदर मुलिस बस्ती थी। कभी, कहीं किसी सरकारी काग़ज़-पतर में इस बस्ती का नाम इस तरह दर्ज भले ही न हो, लेकिन गली के दो सिरों पर आबाद इन दो सेठियों की अदम मौजूदगी के चलते गली के बाशिंदों को अपनी यही पहचान भली लगती थी। वह भी तब जब कि यहां के कुछ घर ख़ासे ख़ुशहाल किस्म के घर थे।

तो इस मुलिस बस्ती में उस दिन ईद का सा माहौल था। माशूक मियां के घर की ख़ुशियां उच्छल-उच्छल कर पूरे इलाके में फैल रही थीं। इस एक आम से इंसान की आमद की बर ख़ास बनकर, ख़ुश्बुओं की तरह शहर भर में फैल चुकी थी। इस बर में एक ख़ाज़िक्र यह भी था कि माशूक मियां पाकिस्तानी पासपोर्ट लेकर हिंदुस्तान आ रहे हैं। इस पासपोर्ट का मतलब था कि वह अब कानूनी तौर पर पाकिस्तानी नागरिक हो चुका है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनो मुल्कों के यह पासपोर्ट तब अलीबाबा के ''खुल जा सिम-सिम’’ की सी एक नई जादुई ताकत बनकर उभरे थे। एक ऐसा जादू जिसे देख दीवारें भी राह छोड़ देती थीं।

माशूक मियां के स्वागत की बड़ी बरदस्त तैयारी की गई। काठ वाली गली के बाहर बीड़ी वाले सेठ के घर के सामने कतार से पूरे आठ तांगे खड़े थे, जिसमें जल्द ही माशूक मियां के रिश्तेदार-नातेदार, यार-दोस्त स्टेशन की तर रवाना होने वाले थे।  मुहाने पर खड़ा पहला तांगा, हार-फूलों और खूश्बुओं से सजा था। इसी में गाजे-बाजे वालों की टोली भी बैठ चुकी थी। यह भूरा मियां का तांगा था, जिसकी धज शहर भर में मशहूर थी। लेकिन उससे भी ज़्यादा मशहूर थे इन भूरा मियां के जुमले। नाम तो उनके घोड़े का 'सरपटथा लेकिन यह नाम शायद उनकी बान के लिए ज़्यादा मुफीद था, जो उनके घोड़े की रफ्तार से भी ज़्यादा ते चलती थी। उस दिन भी जब उन्होने स्टेशन की तरर शुरू किया तो हाथ में चाबुक लेकर घोड़े की तर चलाया तो मालूम होता था मानों उस पर फूल बरसा रहे हो। उसी के साथ आवा लगाई ''चल बेटा सरपट! माशूक का मेला हे।’’

भूरा मियां रस्ते भर वजह-बेवजह ही इस-उस पर जुमले मारते और हंसते-मुस्कराते चले जा रहे थे। किसी व$क्त किसी राह चलती औरत को निशाना बनाते, ''बीया, रा साईड में, साईड में... नई तो घोड़ा अभी बिचक जाएगा।’’ इन जुमलों का जवाब कभी किसी ख़ुशनुमा खिलखिलाहट से आता या फिर कभी किसी बड़ी-बूढ़ी की तर से ''मुए, नास पिटे’’ में आता।

उस दिन भी भूरा मियां ने चलते-चलाते एक राह चलते आदमी पर रोज़ का सा एक जुमला फेंक दिया, ''पेलवान, सड़क छोड़ के।’’ सड़क चलता वह इंसान इस कदर ख़ुश हुआ कि उसने सड़क छोड़ते हुए भूरा मियां की तर शुक्रिया वाले अंदा में मुस्कराहट फैंक दी। भूरा हैरान होकर खिसियानी हंसी हंसता, तांगे में बैठे बाजे वालों की तर मुख़ातिब होते हुए बोला, ''मांकड़ा, पेलवान सुन के बड़ा खुश हो गिया। हें.. न हाथ न पांव और भाई रे भाई।’’

बाजे वालों के चेहरों पे भी शैतानी भरी मुस्कराहट आई और उन्होने भी हर वक्त चहकते भूरा मियां पर एक तंज़िया फ़ि$करा उच्छाल दिया, ''भूरा मियां, आपने देखा नईं वो बाद में आपको सलाम भी कर रिया था।’’ ऐसा कहकर चारों लोग हंसने लगे। भूरा को कोई जवाब न सूझा तो उसने राह चलतों से मुख़ातिब एक आवा और निकाली, ''मियां, भूरा के तांगे में बेठोगे तो एसे ई ख़ुश रओगे....जैसे ये हो रए हेंगे... चल बेटा सरपट, पहुंचा स्टेशन झटपट।’’

सचमुच ही मेला सा लगा था उस दिन। स्टेशन के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक पर रो-मर्रा की भीड़ के बीच ख़ुशी से भरे चेहरों वाला यह झुंड अलग ही दिखाई दे रहा था। ख़ुशी से दमकते इन चेहरों वाली भीड़ में किसी के हाथों में फूलों के तो किसी के हाथों में गोटा-किनारी के चमचमाते हार देखकर यूं लग रहा था मानो किसी बारात की आमद होनी हो और सब दूल्हे का चेहरा देखने को बेताब हों। बुर्के में ढके चेहरे के साथ आई औरतों के चेहरे से छलकती ख़ुशी और उसमें घुली हुई बेसब्री की एक झलक तब दिखती, जब बेताबी से ट्रेन को तलाशती आंखें बुर्के के जालीदार झरोके भर से नर आने वाले नारे से तसल्ली न होने पर रु से नकाब उठाकर दूर तक फैली, खाली पड़ी पटरियों को ट्रेन के आने वाली दिशा में निहारने के बाद उस तर भी देखने लगतीं जिधर से ट्रेन को आना ही नहीं था। बैंड वाले भी अपनी शहनाई, क्लारनेट, बैग पाईप (मशक बाजा) और ढोलक हाथों में थामे अपना हुनर दिखाने को बेचैन नर आ रहे थे। 

ख़िर इस इंतार के त्म होने की उम्मीद सी जागी। फ़ज़ाओं में कहीं दूर एक कूक से इंजन की सीटी सुनाई दी। अचानक ही प्लेटफार्म पर हलचल सी हुई। कुछ लोग आगे बड़कर दूर तक नरें घुमाकर ट्रेन को तलाशने की कोशिश करने लगे। लेकिन ट्रेन का कहीं दूर-दूर तक पता न था। निराशा में हाथ घुमाते वापस अपने संगी-साथियों के बीच आकर सूट-टाई में पैबंद मसूद मियां ने बाकी साथियों से सवाल किया, ''क्यों खां, सीटी की आवा तो इसी तर से आ रही थी। नहीं?’’

मसूद मियां के सवाल ने बाकी सबके मन में भी शक पैदा कर दिया। उसी शक से भरे अंदा में जवाब मिला, ''लग तो एसा ही रा था। पता नहीं। उधर की सीटी भी हो सकती हे। इन टिरेनों की सीटी का ठीक से पता ई नीं चलता।’’

ख़िर सीटियों की भूल-भुलैयां के बाद वह ट्रेन आ ही गई जिसका इंतार था। ट्रेन के प्लेटफार्म पर आकर रुकने से पहले ही इंतार से ऊबे ढोल और शहनाई वाले सक्रिय हो गए। चलती गाड़ी में दूल्हा मियां को ढूंढती नरों को ज्योंही वे दिखाई दिए तो मसूद मियां ने खूशी में ोर की हुंकार की और आवा लगाई - ''यह रहा अपना माशूक।’’ इतना सुनना था कि सब के सब सक्रिय हो गए. काला धुआं छोड़ती स्टीम इंजन के धुएं की परवाह किए बिना ही शहनाई और ढोल वालों ने इंजन की कान फाड़ू सीटी का मुकाबला करते हुए अपने साों की लय ते कर दी। आख़िर दूल्हा मियां ट्रेन से उतरकर लोगों के कांधों पर सवार हो गए। कांधे से उतरे तो सीने से लगाने वालों ने सीने से लगाया और गोटे-किनारी की मालाओं से लाद दिया। तांगा जुलूस एक बार फिर सड़को पर निकल पड़ा। रवानगी से पहले पीछे के तांगे वालों ने भूरा को छेड़ते हुए पूछ लिया, ''कों खां भूरा, तुम्हारी शेनाई भी कभी बजेगी कि ओरों की बजवाते रोगे?’’

भूरा कहां चूकने वाला था। ट से जवाब दिया, ''एसा हे खां कि अपनी तो बजी बजाई हे। आप तो अपनी बताओ, रूरत पड़े तो भाई को याद कर लेना।’’

उधर दूसरे नम्बर के तांगे में माशूक मियां की सवारी हुई और फिर शुरू हुई आगे-आगे चलती शहनाई, क्लारनेट, मश्की बाजा, और ढोल की चुगलबंदी। पीछे-पीछे दमकते चेहरे और हार-फूल से लदे माशूक मियांका तांगा। जिधर-जिधर से यह कारवां गुरा, वहां-वहां बात छिड़ गई पासपोर्ट और पाकिस्तान गए हुए लोगों की।

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उस दिन अलसाया सा शहर अभी पूरी तरह नींद से भी न जा पाया था कि रेडियो पर एक ऐसा समाचार आया जिसे सुनकर सब लोग सन्नाटे में आ गए। समाचार था प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की हत्या की नाकाम कोशिश का। रेडियो की बर के मुताबिक बम्बई जाने वाली अमृतसर एक्सप्रेस, जिसमे नेहरू जी सर कर रहे थे, उसको उड़ाने के लिए पटरी पर बम रखे गए थे, जिन्हें वक्त रहते एक पुलिस कांस्टेबल ने देख लिया और हादसा टल गया।

शहर भर में सनसनी का महौल था। बर सुनकर सदमे में बैठे लोगों में धीरे-धीरे गुस्सा बड़ रहा था। नेहरू जी चंद हिंदूवादी संगठनों के अलावा देश के हीरो थे, उनकी जान पर हमला बड़ी चिंता और गुस्से की बात थी। दोपहर के वक्त तक यह बर भी आ गई कि कल्याण कैम्प के पास की पटरी पर बम रखने वाले दो सिंधी युवक इस रिफ्यूजी कैम्प से हिरासत में लिए गए हैं। शहर के एक अबार ने फौरन एक पन्ने का स्पेशल बुलेटिन निकालकर बड़े भड़काऊ अंदा में बर प्रकाशित कर दी। बर में कहा गया था कि ट्रेन की पटरी पर बम रखने की सिंधियों की पुरानी आदत है। इस बात को साबित करने के लिए लिखा गया था कि, ''पाठकों को याद होगा कि 1942 में सिंध में हेमू कालानी ने भी अंग्रेी दौर में ट्रेन को बम से उड़ाने की साज़िश की थी, जिसके नतीजे में उसे फांसी भी दी गई थी।’’

इस बर ने गुस्से से भरे उन लोगों को अपना गुस्सा उतारने के लिए सीधा-सीधा एक टारगेट दे दिया। और यह टारगेट था सिंधी समुदाय। वह दिन सिंधियों के लिए कहर का दिन था। राह चलते मर्द, औरतों और बच्चों की खूब पिटाई हुई। कुछ ख़ुशनसीब मह एकाध तमाचा या गालियां खाकर बच निकले। सड़क पर छतरी में रूमाल और दीगर सामान बेचने वाले, गलियों में कपड़े की फेरी करने वाले और बाार में बैठे दुकानदारों में से किसी का कुछ सामान लुत गया तो किसी की इज़्त। उस दिन पहली बार एक जुमला सुनाई दिया - ''सांप और सिंधी एक साथ मिलें, तो पहले साले सिंधी को मारो।’’ 

एक बार फिर वही हालात लौटते से महसूस होने लगे, जो बंटवारे के शुरूआती बरसों में इन सिंधियों ने देखे थे। घरों में दुबक कर बैठे डरे-सहमे यह लोग, रोते-गाते उन लड़कों को कोसते जाते थी जिनकी वजह से आज इन सब की ज़िंदगी अाब बन रही थी। कोई किसी को दिलासा देने की हालत में न था।

अगले दिन भारत सरकार के प्रवक्ता ने किसी तरह के बम की बर का ही खंडन कर दिया। बताया गया कि ''बम’’ की जांच करने वाली फोरेसिंक टीम ने अपनी रिपोर्ट में पटरी पर मिले कथित बम असल में दो बेकार हो चुके बैट्री सेल जैसी कोई ची थी, जिसे एक पुलिस कांस्टेबल ने अपनी नासमझी से बम मान लिया था। बर में यह भी बताया गया कि पुलिस को देखकर भागने वाले दो लड़के असल में पटरी से कोयला बीनने वाले थे, जो कांस्टेबल को देखकर डर के मारे भाग निकले थे। लिहाा उन दोनो को चेतावनी देकर रिहा कर दिया गया था।

इस एक झूठी बर के झूठा साबित होने तक के वक्फे में इंसानी रिश्तों पर एक गहरी खरोंच के निशान पड़ चुके थे। अविश्वास और संदेह सिंधी समाज के पांव में बेड़ी बनकर बाहर जाने से रोक रहा था। ख़ामोश सवालों से भरी आंखों से एक दूसरे को निहारते-निहारते थके तो ख़ामोशी टूटी। सिंध को याद करते-करते बुुर्ग आंसू बहाते और गुस्से में बड़बड़ाते नौजवान दबी बान से माने भर को गालियां बकते जाते।

दिन के चढ़ते-चढ़ते खौफ का साया कुछ उतरा तो ख़्वाख़ाह की मुस्कराहट ओढ़े चेहरे और होंठों पर बेगुनाही की दलील देने की बेकरारी लिए यह लोग आख़िर घरों से निकले और दुनिया के कारोबार में शामिल हो गए। आज के दिन दुनिया की आंखों में कल सी नरत तो न थी लेकिन मैल पूरी तरह सा भी नहीं हुआ था।

अगले आठ-दस दिन तक इन सिंधियों और दूसरे शहरियों के बीच के संवाद में बार-बार यह मुद्दा उठा। बार-बार सफ़ाई दी गई और हर बार सफ़ाई को समझने वाले ने उसे अपनी तरह ही समझा। पंचायत की एक आपात बैठक भी हुई। बैठक में  फैसला लिया गया कि इस सारे घटना क्रम पर ख़ामोशी ओढ़े बैठे राजनीतिक दलों से बात की जाए। इस सारी कसरत का नतीजा यह निकला कि कांग्रेस, हिंदू महासभा, कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ ही साथ शहर $काी ने एक सयुंक्त अपील जारी कर सिंधी समाज के समर्थन में एक अपील जारी की। पंचायत की तर से दादा ने एक मार्मिक सा त भोपाल के आम शहरियों के नाम लिखा। शहर के मशहूर अल्वी लिथो प्रेस से उसे हिंदी और उर्दू में पोस्टर की शक्ल में छपवाकर शहर भर की दीवारों पर चिपकाया गया।

उस दिन घर पर मां ने मैदे की ढेर सारी लेई बनाई, जिससे पोस्टर चिपकाए जाने थे। आधी रात के बाद दादा, पंचायत के दर्जन भर साथियों के साथ पोस्टर और हाथ में लेई के डब्बे और ब्रश लेकर शहर के अलग-अलग हिस्सों में निकल पड़े। इन तमाम लोगों ने पूरी ख़ामोशी से बल्कि चोरों की तरह इस काम को अंजाम दिया।

अगली सुबह कुछ लोगों ने इसे दीवार पर तो कुछ लोगों ने दीवार से उखाड़कर हाथों में लेकर पढ़ा। इस पोस्टर की तहरीर कुछ इस तरह थी।

''ख़िर कब तक?

ख़िर कब तक चलेगा यह सब? कब तक माने की हर गर्दिश का गुनहगार हमें माना जाएगा? घर-बाार हर बार, हर वक्त, हम गुनहगार? क्यों ? एक इंसान की तरह दिल पर हाथ रखकर सोचिए- क्या इस मुल्क का बंटवारा हमारी वजह से हुआ? क्या यह बंटवारा हमसे पूछ कर किया गया ?

आप सब जानते हैं और बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि हम इस बंटवारे के गुनहगार नहीं, शिकार हैं। हमें हमारी जड़ों से उखाड़कर बेघर करने वाले हाथ हमारे नहीं, इस मुल्क के रहबरों के थे, जिन्होने अपने लिए दिल्ली में आलीशान कोठियां और हमारे लिए दर-दर की ठोकरें चुनीं हैं।

अभी कुछ दिन पहले ही हमारे समाज को ऐसे गुनाह की सा दी गई है, जो हुआ ही नहीं। और फिर यह कहां का दस्तूर है कि एक के किये की सा पूरे समाज को दे दी जाए? वह भी पूरा सच जाने बिना।

और एक आख़िरी बात - हमें हमारी तकदीर यहां ले आई। हमने यहां रहते हुए महसूस किया कि तकदीर हम पर बाकी तमाम लोगों से ज़्यादा मेहरबान थी कि हमें भोपाल ले आई। हमारे लिए यह एक रीब नवा शहर है जिसकी तीन चौथाई से ज़्यादा आबादी हमारी ही तरह गुरबत की ज़िंदगी जीती है। बाकी एक चौथाई  की भी चौथाई आबादी ही ऐसी है जो शहर की अलग-अलग बस्तियों में अपने महल-माड़ी में रहकर भी एक ही बस्ती - तिजौरी बस्ती - के मूल निवासी हैं। दुनिया के हर समाज में इस तिजौरी बस्ती ने ही हमेशा शर फैलाया है। रा सोचिए, और फैसला कीजिए - आपके निशाने पर किसे होना चाहिये? शर फैलाने वाले या फ़िर उसके शिकार होने वाले?

सोचिए, ख़िर कब तक हम-आप इन साज़िश करने वालों की साज़िशों का शिकार होते रहेंगे? ख़िर कब तक?’’

पोस्टर की इबारत पढऩे वालों में हर एक की अपनी राय थी, जो कहीं पोस्टर की भावना के अनुरूप तो कहीं इसके एकदम विपरीत थी। मगर इतना रूर हुआ कि पोस्टर की भाषा से शहर के तिजौरी वाले लोग बेहद फ़ा हो गए।

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यह शहर अगर गुलार है और तमाम मुश्किलों के बावजूद बाग-ओ-बहार है तो उसमें इस शहर के चंद मुर्दा और चंद ज़िंदा किरदारों का बड़ा योगदान है। लाला निहालचंद लाहौरी ऐसे ही नेकनाम किरदारों में से एक थे। नरों को जो नर आता है तो नर आता है एक पस्ता कद इंसान। बाकायदा नाप-तौल में जाएं तो हाकी स्टिक से रा से ऊंचे। यूं समझिए कि पांव के जूते मिलाकर नाप लिया जाए तो भी पांच फीट में छह-आठ उंगल कम रह ही जाएगा। बिना जूते के तो खैर जाने ही दें। नईं, मतलब उसका कोई मतलब नईं, क्योंकि आज तक उन्हें बिना जूते के किसी ने कभी देखा ही नहीं है। लेकिन अल्लाह की शान कि उसने इस नन्हे-मुन्ने से कद में ही अक्ल का इता बड़ा कारख़ाना भी फ़िट किया हुआ है। लाला जी ने कुदरत की इस नैमत की हिफ़ात के लिए ख़ुद भी कुछ कम कोशिशें नहीं की हुई हैं। अव्वल तो सर पर इतनी बड़ी पगड़ी बांध रखते कि कारख़ाने से कोई ची बिना उनकी मर्ी बाहर जा ही नहीं सकती थी। उस पर ताला अलबता कभी नहीं लगाया। सो कभी-कभार जब ओवर फ्लो हो जाता तो अक्ल बाहर निकलती हुई दिख ही जाती थी। अक्ल के इन बहते धारों वाला रूप लालाजी का विराट रूप होता था। उस व$क्त वे सारे बृह्मांड से भी बड़े नर आते थे।

मा कीजिएगा, मैने अभी तक आपको लाला जी की पूरी श$िख्सयत से तारु नहीं करवाया। यूं न समझें कि वो सिर्फ सिर पर पगड़ी भर पहनते थे। चूड़ीदार पाजामा और उसके साथ शेरवानी भी होती थी। शेरवानी के ऊपरी बटन वाले काज में चाचा नेहरू की तरह गुलाब का फूल हमेशा लगा हुआ दिखाई देता था, जिससे गुलाब से ज़्यादा गुलाब के इत्र की ख़ुश्बू आती थी। अब पूरे यकीन से कहना तो मुश्किल है लेकिन शेरवानी के नीचे मलमल का कुर्ता टाईप कोई ची भी रहती ही होगी।

बहरहाल, शेरवानी के पीछे क्या है या क्या था के चक्कर से निकलकर लाला जी  की श$िख्सयत और भोपाली समाज पर पडऩे वाले उसके असर की बात करना ज़्यादा रूरी है। लाला जी दिखते वक्त भले ही अकेले दिखते हों, लेकिन वो अकेले होते कभी नहीं थे। उनकी जेब में अगर कोई हाथ डाल पाता, जो कभी कोई नहीं डाल पाया, तो उसमें से कम से कम एक दर्जन कमेटियां, सोसाईटियां और उनके ओहदेदार रूर बरामद होते। दिल की गहराइयों तक कोई देख पाता तो वहां कई सारे परी जमाल चेहरों के दीदार भी हो जाते। कुछ लाहौरी तो कुछ भोपाली।

बात लाहौर तक पहुंच ही गई है तो यह भी बताना रूरी हो जाता है कि लाला जी भोपाल आमद से पहले लाहौर के बाशिंदे थे। जब उन्हें महसूस हुआ कि लाहौर उनकी मौजूदगी का फ़ायदा उठाकर निहाल हो चुका है तो अपने हाथ में मह एक कपड़ा नापने वाला लोहे का ग लेकर भोपाल चले आए। अगर वामन अवतार विष्णु ने ढाई कदम चलकर पूरी पृथ्वी को नाप डाला था, तो लाला जी ने अकेले इसी एक ग से पूरे भोपाल को नाप दिखाया। हर बार की नाप में कुछ यूं किया कि कभी गोहरगंज और ग़ैरतगंज के हिस्से नाप लिए तो कभी शहर के किसी ख़ास इलाके की मीनें। इससे ज़्यादा की लालच उन्होने कभी की नहीं। सो हमेशा ही नाम से और स्वाभाव से वे निहाल ही रहे।

चलने और बोलने की रफ्तार, ख़ुदा के फ़ज़ल से यकसां ही थी। बल्कि इन दोनो में लगातार एक मुकाबला सा जारी रहता था। इसी वजह से शहर में कोई शख्स लालाजी के मुकाबले में खड़ा ही नहीं होता था। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और पश्तो के न जाने कितने किस्से और न जाने कितने लतीफे बानी याद थे, जिसे मौका और महल के मुताबिक सुनाकर वाह-वाही लूट लेते थे। 

एक दिन इन्हीं लालाजी की नर-ए-इनायत ''बेचारे सिंधी रिफ्यूजियों’’ पर भी हो गई, जो ताा-ताा नरत की चोट खाए बैठे थे। सो वे बिना किसी इतल्ला एक दिन पंचायत की मीटिंग में नमूदार हो गए। उनके साथ उनके दो पोर्टेबल मुसाहिब थे, जिन्हें वो वक्त रूरत साथ रखते या दूर भगा देते थे। दोनो के दोनो लालाजी की एक संस्था द्वारा संचालित स्कूल में शिक्षक के पद पर नियुक्त थे, लेकिन ड्यूटी परमानेंट तौर पर लालाजी के साथ लगी हुई थी। इनके असल नाम तो ख़ुदा जाने या फिर लालाजी, वे उन्हें चंदू और नंदू के नाम से बुलाते थे। इन दो लोगों का काम एक ही था - हर नए मिलने वाले को लालाजी की मौजूदगी में लालाजी का तारुफ मय तारी और तवारी सुनाना। उस हालत में लालाजी का रोल भी तय था। वे अपने हाथ की छड़ी, जिसे वे किसी ख़ास मौके पर मह अपने गेट-अप को मबूत करने की से निकालते थे, उस पर हाथ की उंगलियों को नचाते रहते और तारी के हर ल$फ् के साथ चेहरे पर मुस्कराहट फैलाते रहते थे। 

उस दिन भी यही हुआ। दादा ने, जो लालाजी से पहले भी दो-चार बार मिल चुके थे, उठकर ज्यों ही पंचायत के बाकी लोगों से लालाजी का परिचय करवाने की कोशिश की, त्योंही चंदू और नंदू सक्रिय हो गए. उन्होने पूरे भक्ति भाव से कंठस्थ लालाजी चालीसा पूरी जुगलबंदी वाले अंदा के साथ सुना दिया। दादा को पहले तो यह बात बुरी लगी लेकिन लालाजी के चेहरे पर अपने तारीफी बयान सुनकर फैलती ख़ुशी की चमक और बैठक में मौजूद चेहरों पर फैली मुस्कानें देखकर, ख़ुद भी मुस्कराने लगे.

ख़िर चंदू-नंदू का युगल गान समाप्त हुआ। तालियां बजीं। तालियों के त्म होने से पहले ही लाला जी बिना तकल्लुख़ुद ही खड़े हो गए और तकरीर शुरू कर दी। इसकी शुरूआत उन्होने भाईयों की जगह सिंधी ल$फ्''भाइरों’’ से की।

''भाइरों,

मैं बहुत अरसे से आप लोगों के हालात पे नर बनाए हुए हूं। लोग आपको रस्ते  चलते छेड़ते हैं। रि$फ्यूजी कहते हैं। सिंधी साईं कहते हैं। बदतमीी करते हैं। बद अ$ख्ला$की से पेश आते हैं। पश्तो में एक कहावत है - चे सूमरा, $खोले हूमरा - जिसका मतलब है जितने मुंह, उतनी बातें। मगर सलाम है आपको कि आप इन हार मुंह और हार बातों को दरकिनार कर, पूरे सब्र से काम लेते रहे हैं। आप लोगों ने अभी कुछ दिन पहले एक झूठी बर से पैदा हुए हालात का जिस तरह सामना किया, उसके लिए आपको सलाम करता हूं। सलाम है आपको सलाम।

मैं यहां क्यों आया हूं? बताइये ? आप जानते हैं, मैं यहां क्यों आया हूं? मैं जानता हूं आप नहीं जानते कि मैं यहां क्यों आया हूं। यह तो बिल्कुल वैसा ही है कि एक बार एक पठान एक दुकान पर खड़ा हो गया और दुकानदार से सवाल करने लगा कि ''लाले की जान, तुम जानती ए, अम इधर किस वास्ते को आया ए?’’ दुकानदार ने बड़ी हैरत से उसकी तर देखा और बोला, ''नहीं, हमको क्या मालूम।’’ पठान ने फिर पूछा, ''अम कोन ए ये तो जानती ए?’’ दुकानदार बोला - ''हां, आप पठान हो, इतना तो जानता हूं।’’ पठान मुस्कराकर बोला, ''ख़ुचे, इता जानती ए मगर ये नईं जानती कि पठान अखरोट खिलाती ए, चिलगोा खिलाती ए, किश्मिश-बादाम खिलाती ए।’’ इतना कहते हुए पठान जाने लगा, और बोला, ''तुम हमको ठीक से पिचानती ई नईं ए तो तुमको अम कुछ भी नई खिलाएगी... ख़ुदा हाफ़िज़’’

लाला जी के किस्से पर पूरी पंचायत लहलोट हो गई। अपने दुख-दर्द की पोटलियां लादकर यहां आए संगीन चेहरे वाले हरात भी एक दूसरे के कंधे पर हाथ मारते, पेट पकड़कर हंसने को मजबूर हो गए। उसके बाद ज्यों ही लोग रा को सम्हले कि लाला जी, फिर शुरू हो गए।

''तो खैर वह तो पठान था, जो नारा होकर चल दिया। मैं तो आपका भाई हूं, मैं आया हूं तो छोड़कर नहीं जाऊंगा। बिल्कुल, मैं आपका भाई हूं। मैं भी एक रिफ्यूजी ही हूं। बस र्क इतना है कि आप अपनी मर्ी के ख़िला यहां आए हैं और मैं अपनी मर्ी से। लेकिन अपनी मादरी मीन तो हम दोनो ने ही छोड़ी है।

तो आज मैं यह कहने आया हूं कि मैं इस शहर को और शहर के लोगों को और इस शहर की हुकूमत को ब$खूबी जानता हूं, सो मैं आप भाइयों की मदद करना चाहता हूं। आपको यह बताने की रूरत नहीं है कि मुझे आपकी क्या मदद करनी है। मुझे मालूम है आपको कहां और कैसी मदद करनी है।

मैं सब से पहले तो आप लोगों से यह कहूंगा कि आपको अपनी सियासी ताकत बड़ानी होगी। इसके बिना इस माने में गुर नहीं है। आपके नेता हिम्मतराम ने इस तर पहलकदमी तो की है लेकिन वह रा एक तरफ़ा है। एक सियासी जमात में शामिल हो जाओ तो बाकी से जमावट रा मुश्किल होती है। इसलिए सबसे अच्छी पालिसी यह है कि सबसे बना के चलो। दुनिया ऐसे ही चलती है। आप मुझसे बना के चलो और मैं आप से बना के चलूं। बस मामला सेट।

तो मेरी पहली सलाह यह है कि आप लोग अभी तक अकेले-अकेले दिखते हो, इसी लिए पिटते हो। किसी दिन एक साथ पूरी ताकत से दिखाई दो। पूरे शहर को, शहर वालों को, हुकूमत को, मीन को, आसमान को, सबको पता लगना चाहिये कि सिंधी कौम, कमोर कौम नहीं है। मुझे भी ठीक से आपकी तादाद का पता नहीं लेकिन इतना जानता हूं कि जिधर से निकलता हूं उधर ही आप में से कोई न कोई दिख जाता है। सड़क पर चलते-फिरते, सामान बेचते, दुकान पर बैठे, तांगा चलाते या फिर सरकारी दफ्तर में कोई अर्ी लिए। यह सब देखकर ही मन में आया कि एक दिन मैं भी आप से मिलने चला आऊं। सो मैं रफ्फू मियां के टेंट हाऊस पे बैठा तो पता चला कि हिम्मतराम जी के यहां पंचायत की बैठक के लिए 20 दरियां गई हैं। मैने अंदाा लगा लिया कि 20 दरी मतलब कम से कम 150 से 200 लोग तो होंगे ही। सोचा सबसे एक साथ मुलाकात हो जाएगी। आप मुझे पहचानने लगोगे और मैं आपको। भोपाल में रेना हे तो एक-दूसरे को पिचानना भोत ुरूरी हे।’’

लाला जी ने जिस तरह मुंह बनाकर दिलचस्प अंदा में यह भोपाली अंदा का जुमला अदा किया था, उसे देखकर और सुनकर एक बार फिर ठहाके गूंज उठे। वहां मौजूद हर इंसान लालाजी की त$करीर से बेहद मुतासिर दिख रहा था। सबने खूब ोर से तालियां बजाकर इस बात का ऐलान भी कर दिया। यह और बात है कि चंदू और नंदू ने इस ोर की तालियां पीटीं कि तालियों की असल आवा से कई गुना ज़्यादा आवा सुनाई दे रही थी।

तालियां रुकीं तो लालाजी से मिलने और अपना परिचय देने वालों में होड़ सी लग गई। लालाजी सबसे हंसते-मुस्कराते मिलते रहे और फिर दादा को अलग से ले जाकर एक कोने में फुसफुसाहट भरे अंदा में कोई बात की। बात पूरी हुई तो फौरन हाथ जोड़कर सबको संबोधित करते हुए पूरी रफ्तार से बाहर की तर फुर्र हो गए - ''जल्दी में हूं, एक और मीटिंग में जाना है।’’

लालाजी के जाने के बाद भी उनकी बातों की ख़ुमारी इन सभाजन पर काफी देर तक छाई रही। मालूम होता था कि इन सारे पृथ्वी लोक के रहने वालों के बीच अचानक ही एक चंद्र लोक वासी आकर इन्हें चमत्कृत कर गया हो। दादा, अजब पशो-पेश में उलझे थे। कभी सन्नाटे में चले जाते थे तो कभी चेहरे पर मुस्कराहट लाकर सबको यह बताने की कोशिश करते थे कि लालाजी से उनके अच्छे सम्बंध हैं।

ख़िर को पूरी हिम्मत के साथ दादा खड़े हुए और उन्होने कहना शुरू किया, ''जिन लोगों को यह लगता है कि हमने यहां आकर सिर्फ ज़िल्लत और रुस्वाई झेली है, आज उनको यह भी समझ जाना चाहिये कि हमने अपने पुरुषार्थ से इस शहर के बाइज़्त लोगों के बीच इज़्त भी कमाई है। लालाजी इस शहर की एक अीम हस्ती हैं। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े आदमी के साथ उनके मरासिम हैं। यह ठीक है कि मेरे उनसे अच्छे सम्बंध हैं लेकिन आज वो ख़ुद यहां चलकर आए और मदद का हाथ आगे बढ़ाया है, तो ाहिर हममे कोई बात तो देखी होगी। उनके बारे में मशहूर है कि वो बेवजह तो किसी को अपने जिस्म का बुख़ार भी नहीं देते। वो अगर हमको सलाह दे रहे हैं, साथ दे रहे हैं, तो इसमे उनका क्या फ़ायदा है वो जानें, लेकिन हमारा फ़ायदा यह है कि लालाजी ताकतवर आदमी हैं।’’

दादा की बात का कुछ असर तो हुआ लेकिन लालाजी की बातों का जादू अभी लोगों के सर से उतरा न था। सो सभा में मौजूद ''सिंधु देश’’ की स्थापना के हामी कवि परसराम ''कामिल’’ ने उठकर कहा, ''लालाजी को मैने पहली बार देखा और सुना है. बाकी सारे लतीफों को तो जाने दें लेकिन मेरी समझ में उनकी एक बात रूर आई है - अपनी एकता और ताकत दिखाने वाली। यह बिल्कुल सच है। कमोर को सब सताते हैं और ताकत से सब डरते हैं। ताकत दिखाने का मतलब और मकसद डराना नहीं, अहसास कराना है। जो इज़्त से जीने के लिए यह अहसास कराना निहायत रूरी है।’’

सभा में मौजूद लोगों में से कुछ इस बात से सहमत थे तो कुछ की इसमें कतई दिलचस्पी ही न थी। असल में इस ''ताकत’’ दिखाने वाली बात को सबने अपनी-अपनी तरह से समझा और पहचाना था। जिस वक्त एक बुुर्ग पेसूमल भाराणी ने अपनी बात कही उस वक्त यह जज़्बा उभरकर सामने आ गया।

''भाई, सच्ची बात तो यह है कि भूखे पेट वालों के मुंह से यह ताकत-वाकत की बातें अच्छी नहीं लगतीं। अब लालाजी तो ठहरे सेठ आदमी। उनकी ताकत उनका पैसा है। अब पैसे की सित यह है कि उसे दिखाने की रूरत नहीं पड़ती। उसे तो जितना घूंघट में छिपा के रखो, उतने ही आप ताकतवर होते हैं। लोगों को घूंघट भर दिखता है और वे सब उस घूंघट के पीछे छुपी माया के रंग-रूप की अपनी-अपनी तरह से कल्पना और व्याख्या करते रहते हैं। इस वक्त हमारे पास दिखाने को ख़ाली हाथ और ख़ाली पेट हैं। इस वक्त जोश की बजाय होश की ज़्यादा रूरत है। बाकी जो पंचायत की राय।’’

इस पर ख़ासी बहस चली और आख़िर यह तय हुआ कि अपनी मांगों का एक चार्टर बनाकर ची मिनिस्टर को दिया जाए। उन्हें याद दिलाया जाए कि इन्हीं मांगों को कई बार उन्हें और उनकी सरकार के दूसरे ओहदेदारों को बार-बार भेजा गया है और हर बार सिवाय वायदों के कुछ भी नहीं मिला है। इस चार्टर को पेश करने के लिए 11 लोगों की एक कमेटी बनाई गई और तय हुआ कि ची मिनिस्टर से इसे पेश करने के लिए वक्त मांगा जाए। 

*****

लालाजी का मंर पर इस तरह आ जाना दादा के लिए अब तक एक पहेली बना हुआ था। वे लालाजी की ताकत और समाजी हैसियत से ज़्यादा उनकी ''हुनर फेक्टरी’’ में ईजाद होने वाले आईडिया को लेकर परेशान से थे। इधर  पंचायत में दो-तीन और लोग बड़ी तेी से उभरने लगे थे। यह उन चुनिन्दा चार-छह लोगों में से थे जिन्होंने सरकारी असरों के साथ सेटिंग करके छोटी-मोटी ठेकेदारी के रिए कुछ पैसा कमाना शुरू कर दिया था। यह लोग अब समाज में अपनी नेतागीरी जमाकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहते थे। इधर सात दिन गुर जाने के बाद भी मुख्यमंत्री की तर से कोई जवाब नहीं आया था।

इसी फ़िक्र में डूबे दादा ने उस रात अकेले ही बैठकर शराब पीना मुनासिब समझा। तत पर एकदम ख़ामोश, किसी गहरी सोच में डूबे, अकेले बैठे दादा मुझे अच्छे नहीं लग रहे थे। मां भी डरी-सहमी निगाहों से बार-बार दादा को देख-देख परेशान हो रही थी, मगर कुछ कहने से बच रही थी। उस व$क्त रात के अंधेरे के सामने घर में एक अदद लालटेन और दो कोनो पर रखी दो डिबरियों की मासूम सी रोशनी और बेचैन ख़ामोशी फैली हुई थी। बीच-बीच में हवेली के किसी घर से उठती कोई आवारूर आकर इस पसरे सन्नाटे को तोड़ जाती और फ़िर वह आवा भी गुम हो जाती।

इसी माहौल में अचानक तख़त से तबले की थाप सी एक आवा उठी और उसी के साथ-साथ इतनी देर से ख़ामोश बैठे दादा भी बोल उठे। ''अब आएगा मा। अरे लाला, रा भागकर जा और तेरे चाचा को बुला ला।’’ फिर मां से कहा, ''रा दो पापड़ तो सेंक दे।’’

मां और मैं दोनो ही इस ख़ामोशी के टूटने से गद-गद हो गए। हम शायद यह भी जानना चाहते थे कि आख़िर दादा को अपनी चिंता का ऐसा क्या हल मिला है कि वो एकदम चहक उठे थे और कुछ गाते-गुनगुनाते तख्त बजा रहे थे, लेकिन मौके की नाकत भांपकर चुप रहे। बस दोनो ही चुपचाप दादा के आदेश के मुताबिक अपने-अपने काम को अंजाम देने में लग गए। मां ने पापड़ का डब्बा ढूंढना शुरू किया और मैने चाचा के घर की तर दौड़ लगा दी।

दोनो भाई साथ हुए तो दादा ने चाचा को बताया कि वक्त आ गया है कि हम लोग अपना हक हासिल करने के लिए सड़कों पर उतरें। फिर विस्तार से उस योजना की तसील बताई, जो अब तक उनके दिमाग में बन चुकी थी। चाचा, अपने बड़े भाई के अनन्य भक्त थे। दादा की हर योजना को अमल में लाने के लिए वे पेश-पेश रहते और भरपूर मेहनत और ईमानदारी से उसे अंजाम देते। इस वक्त भी उनके चेहरे पर ख़ुशी का एक भाव आ गया और कहा, ''शानदार। इस पर फौरन अमल करना चाहिये।’’

अगले दिन पंचायत के कुछ ओहददेदारों से बातचीत के बाद एक ''दरियापंथी जुलूस’’ का ऐलान कर दिया। एक हफ़्ते तक चली जंगी तैयारियों के बाद सोमवार को यूनानी शफ़ाख़ाना के मैदान पर जब लोगों को आना शुरू हुआ तो वह हर  उम्मीद से बढ़कर एक ऐसा जन सैलाब सा दिख रहा था मानो पूरा शहर आ जुटा हो। लेकिन सच तो यही था कि वहां पहुंचे मर्द, औरत और बच्चे सिंधी समाज के ही लोग थे। मर्दों के हाथ में लालटेन, औरतों के सिर पर थाली में सजे आटे के बने दिये थे।

शाम के बढ़ते अंधेरे के साथ ही इस जुलूस का सर शुरू हुआ। आगे-आगे हाथों में लालटेने थामे दादा और समाज के दूसरे नेता। उसके ठीक पीछे मर्द-औरतों का मिला-जुला एक गायन समूह। इन लोगों के पीछे पूरा जुलूस, जिसमे औरतों ने अपने सरों पर थाली में सजे चार बाती वाले आटे के बने दिये उठा रखे थे। इस जुलूस की मंज़िल थी शहर की जीवन रेखा बड़ा तालाब के बाबा शीतल दास वाले घाट की दिशा। इस मौके के लिए कवि परसराम ''कामिल’’ ने एक गीत लिखा था, जिसमे अपने आराध्य देव वरुण अवतार झूलेलाल और भोपाल के बड़े ताल को दरिया-ए-सिंध तसव्वुर करते हुए मदद की गुहार थी। इसमे शिकायत थी कि इस शहर उनको न कोई ठीक से समझ पा रहा है और न ही मदद को आगे आता है। इसलिए बस अब सिर्फ तेरा ही आसरा है। गायन समूह इस गीत को गाते-गाते, धीमी रफ्तर से घाट की तर आगे बढ़ता जाता था। 

''दरिया साईं, दरिया साईं

को न बुद्धे थो, दर्द असांजो

तूं त मदद कर दरिया साईं

शरण में तुहंजी आया आहियूं

तुहिंजा ई त पहिंजा आहियूं

को न सुजाणे हिते असांखे

तूं त सुजाण ओ दरिया साईं

गायक समूह जिस वक्त ''दरिया सांईं’’ पर पहुंचता. तो उसके बाद उनके पीछे वाला झुंड उस आख़िरी लाईन को उठा लेता और दोहराकर गाने लगता - ''दरिया साईं, दरिया साईं, तूं त मदद कर दरिया साईं’’ इसके बाद तो लगातार यह लाईन एक के पीछे एक आते समूह में वृंद गान वाले अंदा में एक नारे की मानिंद बड़ी देर तक ईको होता चला जाता था - ''दरिया साईं, दरिया साईं, तूं त मदद कर दरिया साईं’’

ारों आवाों की गूंज के साथ जब यह जुलूस मीलों में फैले तालाब के किनारे पर पहुंचा तो यक-ब-यक एक जादू सा हुआ। अब तक जो सिर्फ ख़ामोशी से जुलूस में शामिल होकर चल रहे थे, वे भी भावुक होकर गाने लगे। पानी देखते ही आंखों का पानी भी बह निकला।

घाट पर पहुंचकर यह गीत सांईं झूलेलाल के जयकारों के नारों से गूंज उठा। ''आयो लाल, चओ, झूले लाल / आयो लाल, साईं लाल। लाल साईं उड़ेरोलाल।’’ औरतों के सिर की थालियों में जलते आटे के दिये, ज्यों-ज्यों घाट की सीढिय़ों पर करीने से सजते जाते त्यों-त्यों भावपूर्ण नाना आवाों में यही सदा बार-बार फ़ज़ाओं में गूंज जाती।

उस रात पहली बार हज़ारों सिंधी एक साथ दिखाए दिए थे। जहां-जहां से यह जुलूस गुजऱा, वहां-वहां देखने वालों की भीड़ सी जुट जाती। पहली बार यह शरणार्थी एक साथ, एक स्वर में गाते सड़को पर निकले थे। जुलूस में औरतों के सिर पर आटे के जलते-बुझते दियों की लौ और बुझते दियों को नौ-उम्र बच्चे जिस तरह दौड़-दौड़ कर फिर से रोशन करने इधर से उधर और उधर से इधर भागते-दौड़ते फिर रहे थे, उसे देख कुछ आंखें नम हुई तो कुछ सन्नाटे में चले गए।

उस दिन घाट पर दादा ने एक मुख्तसिर सा भाषण दिया। ''बहिनो और भाइयों, हम ख़ुश किस्मत हैं। ईश्वर ने हमको एक दरिया से दूर किया तो दूसरे दरिया के किनारे पहुंचा दिया। अब आज से कसम खा लो कि हम किसी सरकार से कोई दाद-रियाद नहीं करेंगे। जब भी पुकारेंगे बस इस दरिया को पुकारेंगे। सो आज से हमारा नारा है - हमारी सरकार, यह दरिया अपार। चओ झूलेलाल, बेड़ा ई पार।’’

जिस व$क्त यह जुलूस शहर की सड़कों से गुरता हुआ तालाब की तरफ पहुंच रहा था, लगभग उसी वक्त लाला जी अपने चेहरे पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कान लिए अपनी शेवर्लेट कार में मुख्यमंत्री के बंगले की तर जा रहे थे।

 

 

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