जीवनानन्द दास की कविताएं
अनुवाद : मीता दास
भारतीय कविता
आऊंगा फिर लौट के धान सीढ़ी के तट पे - इसी बंगाल में...
आऊँगा फिर लौट के धान सीढ़ी के तट पे - इसी बंगाल में या तो मैं मनुष्य या शंख चील या मैना के वेश में: या तो भोर का काग बनकर आऊंगा एक दिन कटहल की छाँव में; या तो मैं हंस बनूं या किशोरी के घूंघर बन रहूंगा लाल पैरों में; सारा दिन कट जाएगा कलमी की सुगंध भरे जल में तैरते हुए; मैं लौट आऊंगा फिर बांग्ला की मिट्टी, नदी, मैदान, खेत के मोह में जलांगी नदी की लहरों से भीगे बांग्ला और हरे-भरे करुण कगार में;
दिखेगी जब शाम के आकाश में सुंदर उड़ान लिए हवा सुनाई देगा तब एक लक्ष्मी का उल्लू बोल रहा है सेमल की डाल में; शायद धान की लाई उड़ा रहा एक शिशु आंगन के घास में; रुपसा के गंदले जल में हो सकता है एक किशोर फटे सफेद पाल की डोंगी बहाता तो, ... लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अँधेरे में ही लौटता हो नीड़ में देखोगे जब एक धवल बगुले को; पाओगे तुम मुझे उन्हीं की भीड़ में...।
स्वप्न
पाण्डुलिपि समीप रखकर मैं धूसर द्वीप पर निस्तब्ध होकर बैठा था; शिशिर झर रहा था फिसल कर धीरे-धीरे; नीम की शाखों से एक अकेला पाखी उतर कर आया और उड़ गया कोहरे में, ...कोहरों के संग सुदूर घने कोहरे में उसी के पंखों की हवा में शायद बुझ गया दीप? आहिस्ते-आहिस्ते दिलासलाई लिए अंधकार में ढूंढता फिरता हूँ, जब जलाऊंगा दीप तो किसका चेहरा देख पाऊँगा कह सकते हो?
किसका मुख? ...आंवले की शाखों के पीछे से सींग की तरह टेढ़ा, नीला चाँद एक दिन जिसे देखा था क्या वही; इस धूसर पाण्डुलिपि ने भी एक दिन देखा था वही सब कुछ ...आहा, वह चेहरा धूसरतम लगता है शायद वही थी पृथ्वी। फिर भी इस पृथ्वी के सब उजाले एक दिन बुझ गए, पृथ्वी के सब गल्प, किस्से एक दिन जब ख़त्म हो जायेंगे, मनुष्य भी जब नहीं बचे रहेंगे, रहेगा सिर्फ तब भी मनुष्य का स्वप्न तबछ वही चेहरा और मैं ही रहूंगा बचा उस सपने के भीतर।।
ऐसा लगता है
पता नहीं कौन हैं वे लोक जिन्होंने बड़े-बड़े कपास हैं खोले, वापस उन्होंने बंद भी कर दिए हैं; पता नहीं कहाँ कितनी दूर.... पसरी हुई है नीरवता आकाश की सीमा रेखा तक।
तकिए पर सर रख कर जो सोये हुए हैं वे सोये ही रहते हैं; कल सुबह जागने के लिए। ये सब जो धूसर सी हँसी है, कहानी, प्रेम और चेहरे की लकीरें हैं पृथ्वी के पत्थरों, कंकालों के अंधकार में घुले-मिले थे धीरे-धीरे वे जाग रहे हैं; पृथ्वी के अविचलित कंकाल को खिसका कर मुझे ढूंढ निकालते हैं।
समस्त बंगाल की खाड़ी का उच्छवास जैसे थम जाता है; मीलों तक यह धरती नीरव बनी रहती है! जाने कौन कहता है: अगर मैं इन सभी कपाटों को स्पर्श कर पाता तब इस तरह की गहरी निस्तब्धता रात में ही स्पर्श कर आता... मेरे ही कन्धों पर धुंधला सा स्पर्श रखकर धीरे-धीरे मुझे जगा देता!
आँखे उठाता हूँ मैं दूर गाढ़े अन्धकार के भीतर धूसर मेघों की तरह ही प्रवेश किया मैंने! उस चेहरे के भीतर ही प्रवेश किया मैंने।
पल
आसमान पर छिटकी हुई है चाँदनी... और जंगल के पथ पर है चीता बाघ की देह गंध; और मेरा हृदय हो जैसे एक हिरण; रात के इस नीरवता में मैं यह किस ओर चल रहा हूँ! रुपहले पत्तों की छाया पड़ रही है मेरी देह पर, कहीं भी और कोई हिरण नहीं मेरे सिवाय, जितनी भी दूरी तय करता हूँ दिखता है मुझे सिर्फ हँसिये सा टेढ़ा चाँद आखिरकार लगता है जैसे सुनहले हिरणों ने सारी फसल काट ली हो जैसे; तत्पश्चात धीरे-धीरे चाँद डूब रहा हो जैसे शत-शत मृगों की आँखों में नींद की भांति अंधकार।
सावन की रात
कहीं दूर बंगाल की खाड़ी की आवाज सुन कर सावन की रात्रि के गहरे अंधकार में धीरे-धीरे नींद टूटती है शायद बरसात बहुत पहले ही बरस कर थम गई है; मिट्टी के अंतिम छोर पर तरंगों की गोद में चुपचाप बैठी हो जैसे; और निस्तब्ध होकर, दूर से आती है उपसागर की ध्वनियाँ सुन रही हो जैसे।
मृत्यु
अस्थियों के भीतर जिन लोगों को ठण्ड का बोध होता है माघ की रात में... वे लोग दोपहर में शहर की ग्रिल पकड़कर मृत्यु का अनुभव करते हैं बेहद गहरे और अति उन्नत रूप में रूपसी चीन्हती है मरण को दर्पण के उस पार ठीक पारद के समान ही निरुत्तर रहता है या परिपूर्ण रहता है। एक-आध दैत्याकार आकृति दिख जाती है जो जनता को चलाते हैं शाम की बड़ी-बड़ी सभाओं में, जबरदस्त विश्वास के बीच... स्थिर है, वे जानते हैं यह मृत्यु नहीं है... फिर भी वे उनके मुग्द्ध चकित रौशनी से परिपूर्ण फोटोग्राफ से निकल ही आते हैं डरे हुए अपनी ग्लानिरहित हालात देख कर।
पृष्ठभूमि
पृष्ठभूमि के भीतर न जाने कब झांक कर मैंने तुम्हें देख लिया था करीब दस-पंद्रह साल पहले, उस वक्त तुम्हारे बाल काले थे मेघों में छिपकर बिजली सा दमकाया तुम्हारा तेजस्विनी सा चेहरा... चीन्हता है अंतर्यामी। तुम्हारा चेहरा : चारों दिशाओं के अंधकार में ठीक जल का कोलाहल कहीं भी किसी समुद्र तट पर कोई नियंत्रण नहीं... तेज हवाओं पर फिर भी शिकारी मछेरे, इस युद्ध से थक कर लौट ही आते हैं;
वे युवा है, वे मृत हैं। मृत्यु फिर भी मेहनत से मिलती है। वक्त को कभी भी किसी ने काली सूची में नहीं डाला फिर भी तुम्हारे चेहरे की ओर आज भी उसे रोक कर खड़ी है, नारी.... हो सकता है सुबह हम सब इंसान थे, उसी के निर्देश पर सूर्य का वलय फैला है आज इस अंधे जगत में समुद्र के चारों ओर - जेसन ओडिसी की फिनिश और बाहर फैली हुई अधीर रौशनी... धर्म के शोक का, खुद का ही नहीं, फिलहाल कल हम और आज भी वहन करते हैं, समुद्र से बेहद कठिनाई से मूंगा लूटकर तुम्हारी आँखों का विषाद कम करने के लिए.... प्रेम का दिया बुझा दिया प्रिये।।
बेटी
मेरी छोटी सी बच्ची सब ख़त्म हो गया बेटी सोई हुई हो तुम भी बिस्तर के निकट सोई रहती हो... उठती-बैठती हो... चिडिय़ा की ही तरह बातें करती हो घुटनों के बल घूमती-फिरती हो, धरती-आसमान एक करती हो...
भूल-भूल जाता हूँ उसकी बातें... मेरी प्रथम कन्या संतान थी वह मेघों के संग बह कर आई हो जैसे- आकर कहती : ''बाबा तुम ठीक तो हो? अच्छे हो? जरा प्यार करो मुझे? झट से हाथ पकड़ लेता हूँ मैं उसकी : सिर्फ धुआँसा सा कुछ सफेद कपड़े की तरह क्यों दिखता उसका मुखड़ा! दर्द होता है बाबा? मैं तो कब की मर चुकी हूँ... आद भी याद करते हो तुम मुझे?’’
दोनों हाथों को चुपके से हिलाती हौले-हौले मेरी आँखों को सहलाती, मेरे चेहरे को सहलाती मेरी मृत बेटी, मैं भी उसके चेहरे पर अपने दोनों हाथ फेरता, पर उसका चेहरा कहीं नहीं है और न आंखे और बाल। फिर भी मैं उसे ताकता हूँ... सिर्फ उसे ही... धरती पर पर मैं नहीं चाहता कुछ भी न रक्त-मांस वाली, आँखों वाली और न ही बालों वाली मेरी वो बेटी मेरी प्रथम कन्या संतान... चिडिय़ा सी... सफेद चिडिय़ा.... उसी की चाह है मुझे;
जैसे उसने बूझ लिया हो सब.... नया जीवन पाकर वह हठात मेरे करीब आ खड़ी हुई मेरी मृत बेटी।
उसने कहा: ''मुझे चाहा था तुमने इसलिए इस छोटी बहन को यानि तुम्हारी छोटी बेटी को घास के नीचे रख आई हूँ इतने दिनों तक मैं भी थी वहां अन्धकार में सोई हुई थी मैं ‘‘ .... घबराकर रुक गई मेरी बेटी, मैंने कहा : ''जाओ दोबारा जाकर सो जाओं वहाँ... पर जाते हुए छोटी बहन को आवाज देकर दे जाओ मुझे!’’
दर्द से बर उठा उसका मन... जरा ठहरकर शांत सी... उसके पश्चात धुआँसा सा। सब कुछ धीरे-धीरे छिटककर धुएं में विलीन हो गया, सफेद चादर की तरह समझ हवा को आगोश में भर लिया। न जाने कब एक कौआ बोल उठा... देखता हूँ कि मेरी छोटी बेटी घुटनों के बल चल रही है और खेल रही है ...और वहाँ कोई भी नहीं है।।
अल्प आयु प्राप्त जीवनानंद दास की कविताओं ने ग्रामीण बंगाल राजनैतिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे बड़े कवि हैं। बंगाल में राष्ट्रवाद के प्रभावी कवि। झरा पालोक, घूसर पांडुलिपि, वनलता सेन, सातटी तारार तिमिर, बेला अबेला उनके प्रमुख संग्रह है। उन्हें रवीन्द्र पुरस्कार मिला। मीता दास उल्लेखनीय अनुवादक है। आपने सुकांत की कविता अनुवाद किया है। भिलाई में रहती हैं। संपर्क- मो,9329509050 |