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जनवरी - 2019

आइए, किसी वैज्ञानिकवाद से तलाश कर लाएं कोई श्रीश्री या सदगुरु, पाखंडवाद को विदा करें!

त्रिभुवन

पहल प्रारंभ / 'वालसे साभार

 

 

सीबीआई को वैज्ञानिकों के व्याख्यान की आवश्यकता नहीं है, एक बाबा जी के उपदेशों की ज़रूरत है। बेहतर होता, दुनिया की बेहतरीन अनुसंधान एजेंसियों के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों को बुलवाकर उनके व्याख्यान सीबीआई में करवाए जाते ताकि हमारे अनुसंधान अधिकारी लाभान्वित होते; लेकिन हमारे यहां सब कुछ उलटा-पुलटा है। बाबा लोग हों या ज्योतिषी, पूरी तरह अवैज्ञानिक और मनुष्य को मनोगतवादी बनाने वाली धार्मिक शिक्षा वाले गुरु-लोगों को अवांछित रूप से बुलाकर नाना प्रकार के गुरुडमवाद को पोषित किया जाता है। आखिर सीबीआई के अधिकारियों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए उन्हें विभिन्न देशों के विशेषज्ञों की आवश्यकता है या श्रीश्री रविशंकर की या किसी सद्गुरु की? ये कैसी आधुनिकता है कि कहीं ज्योतिषी और वास्तुशास्त्री बुलवाए जा रहे हैं तो कहीं भजन-कीर्तनिए बाबा लोग! कहीं कोई फलित ज्योतिषी किसी विश्वविद्यालय में कुलपति है तो कहीं कोई अवैज्ञानिकतावादी विज्ञान पढ़ा रहा है।

दरअसल, यह हत्प्रभ होने का समय है। राजनेताओं को तो क्या कहें, जिनका दायित्व ही अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता को दूर करना और लोगों के दिमाग़ों में फैले जाले हटाना था/है, वे ही इस बहाव में बह रहे हों तो क्या कहें! पिछले दिनों मुझे आर्यसमाज के एक अंधविश्वास विरोधी सम्मेलन में जाने का मौका मिला तो यह देख और सुनकर हैरान रह गया कि वहां कृषि वैज्ञानिक विश्वविद्यालय के एक स्वनामधन्य कुलपति दावा कर रहे थे कि फसलों को मंत्र पढ़कर सुनाओ तो वे ज्यादा उत्पादन देती हैं। उन्होंने यह दावा किया कि यह सब उनके एक वैज्ञानिक के अनुसंधान में प्रमाणित हो चुका है। अब अगर वैज्ञानिक केंद्रों के वैज्ञानिक नेतृत्व ही ऐसी बातें करने लगें तो उन राजनेताओं का क्या कुसूर है, जिन्हें वोट बटोरने की विवशता के लिए हर दंद-फंद करना पड़ता है। लेकिन ऐसी कोई बेबसी इन शिक्षाविदों के सामने तो नहीं है।

सच बात तो यह है कि भारतीय संविधान का निर्माण करते समय ही हमारे पुरखों ने वैज्ञानिक शिक्षा और जीवन दर्शन का मार्ग नहीं अपनाया। वे शुरु से ही हिंदूवादी रहे और उन्होंने भारत के राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह का निर्माण करते समय चार सिंहों की बौद्ध प्रतिमा के नीचे 'सत्यमेव जयतेलिखवाया, जबकि यह सब जानते थे कि राजनीति में सत्य सदा ही असत्य के सामने पराजित रहता है। सत्य कड़वा होता है और असत्य मीठा। और जब राष्ट्रीय गीत की बात आई तो 'वंदेमातरम्लेकर आए, जो उस 'आनंदमठउपन्यास से है, जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम करने से न केवल स्पष्ट रूप से मना किया गया है, बल्कि अंग्रेजों को हिन्दू धर्म के संवर्धन के लिए जरूरी बताया गया है। यहां जो लोग यह बात पढ़ रहे होंगे, उन्हें बहुत बुरा लग रहा होगा और यह भी लग रहा होगा कि मैं यहां मनघड़ंत लिखे जा रहा हूं। इसके लिए आप उपन्यास के आख़िरी पांच पृष्ठ पढ़कर अपनी शंका का निवारण कर सकते हैं।

हमारे संविधानविदों ने गाय और मोर की रक्षा पर ज़ोर दिया, लेकिन प्राणिरक्षा के मुद्दे को दरकिनार कर दिया। हिन्दू जिसे आसानी से खा सकता है, उसे सब खा सकते हैं, लेकिन हिन्दू के लिए जो अभोज्य है, वह सबके लिए अभोज्य है। यहां जीव संरक्षा के महत्व को दरकिनार कर दिया गया। मनुष्य मनुष्य समान हैं, हम यह दर्शन तो मानते हैं, लेकिन जीव जीव सब समान हैं, यह हम नहीं मानते। हमारा संविधान भी नहीं मानता, बहुसंख्यकवाद की तरफ़दादारी का यह सिलसिला देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही चल रहा है और जिस देश को वैज्ञानिक मानवतावाद या वैज्ञानिक धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता थी, उसे धार्मिक सहिष्णुतावाद या सर्व धर्म समभाव की घुट्टी पिलाई गई, लेकिन सरकारों का हर काम पूजा और आरती से ही सदा शुरू होता रहा। सरकार चाहे कांग्रेस की रही या समाजवादियों की। माथा ठोक लेने का मन तो तब किया जब मैंने देखा कि बंगाल में दुर्गा पूजा तो कम्युनिस्ट ऐसे करवा रहे हैं, मानो वे हरिद्वार से दीक्षित कोई कर्मकांडी महाब्राह्मण हों! हमारे शासकों ने कभी बहुसंख्यक कट्टरतावाद को तुष्ट करने की कोशिश की तो कभी अल्पसंख्यकों के नि:सार मतांधता को।

हमारे बहुत से प्रगतिशील मित्र अक्सर पंडित जवाहरलाल नेहरू को प्रगतिशीलता का हरिया हारिल मानते हैं,लेकिन अंतिम ब्रिटिश वायसरॉय लॉर्ड  माउंटबैटन ने जनवरी 1973 में दॅ टाइम्स लंदन में साफ़ लिखा था कि 15 अगस्त 1947 का स्वतंत्रता दिवस समारोह न केवल हिन्दू धार्मिक पद्धति से ही मनाया गया, बल्कि आधी रात को सत्ता हस्तांतरण का समय भी ज्योतिषियों से बातचीत करके तय किया गया था। वामपंथी विचारकों के बेहद लाड़ले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय में हिन्दू मंदिरों के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण के कितने ही कार्यक्रम चले और उन्हें केंद्र सरकार का पूरा पूरा संरक्षण रहा। अगस्त 1947 के तत्काल बाद तो उस सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया, जिसे 11 वीं सदी में महमूद गज़नवी ने तोडफ़ोड़ दिया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते भारत के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1951 में वैदिक मंत्रोच्चार और 101 तोपों की गडग़ड़ाहट के बीच इस मंदिर में ज्योतिर्लिंघम् की स्थापना की, यह एक अंतहीन सूची है और इसमें बहुतेरे पाखंड और हस्यास्पद किस्से शामिल हैं, जिन्हें आप देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे। अब आप किसी देश के जन्म के समय ही उसके हृदय में इस तरह के बीजों  का वपन करें तो जो कुछ पल्लवित और पुष्पित होगा, वह वही होगा, जो आज हमारे सामने हैं।

यह कोई हिन्दू धर्म के साथ ही नहीं है। वेटिकन से पोप आएं तो उन्हें भी किसी राष्ट्राध्यक्ष का सा सम्मान मिलता है। धर्म गुरु भले ही अधर्म की प्रतिमूर्ति ही क्यों न हों, प्रधानमंत्री के पदों को सुशोभित करने वाले राजनेता तक उनके साथ नाचते देखे जा सकते हैं। मानव सेवा में अविस्मरणीय और अतुलनीय होने के बावजूद क्या किसी महान धार्मिक सेविका के अंधविश्वासों को प्रतिष्ठित और प्रतिस्थापित करने की अनुमति दी जा सकती है? क्या कोई मुस्लिम धर्मगुरु या किसी भी धर्म का गुरु स्कैंडल करे या आतंक फैलाए तो ही हम बोलें, क्या ऐसे लोगों पर तत्काल तभी रोक नहीं लगनी चाहिए, जब ये देश में अवैज्ञानिकता फैलाते हैं?

आप इस तरह की दकियानूसी संस्कृति को कंठहार बनाकर कैसे एक वैज्ञानिक और विवेकशीलता पर आधारित एक आधुनिक मानव समाज बना सकते हैं। हमें सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सच सुनने से डर लगता है। हम मनुस्मृति को तो जलाना चाहते हैं, लेकिन आरएसएस वाला अगर औरंगज़ेब या दूसरे शासकों के इतिहास को अमान्य ठहराना चाहता है या इसी तरह से इतिहास को नकारने के जो तरीके हैं... तो वह हमें परस्पर बुरे लगते हैं। क्या हम इस वैज्ञानिक और विवेकशीलता को अपने हृदय में स्थापित नहीं कर सकते कि इतिहास तो इतिहास है, वहां भले मनुवाद रहा और मुस्लिमवाद, क्या यह नहीं हो सकता कि हम उस इतिहास के उस घृणित और गर्हित आचरण को संवैधानिक शक्ति से आपराधिक ठहरा दें? इतिहास के उन पृष्ठों की आप निंदा तो कर सकते हैं, लेकिन उन पृष्ठों को कैसे उखाड़ सकते हैं? मनुवाद का अमानुषिक सच हो या मुगलवाद का, या वह आज के शासकों का नृशंस व्यवहार, ग़लत तो ग़लत ही है। निंदनीय तो निंदनीय ही है। गुजरात का गोधरा हो या दिल्ली का सिख नरसंहार, आप अपनी सुविधा के अनुसार इतिहास को नहीं मोड़ सकते। अगर हम सच से भागेंगे तो अगर हम विवेकशीलता और वैज्ञानिकतावाद के बिना कुछ करना चाहेंगे तो कुछ नहीं होता। हालात बद से बदतर होंगे। एक क्रिटिकल स्पिरिट तो रखनी ही होगी। जीवन की अपर्याप्तताओं के विरुद्ध अगर विद्रोह करने की क्षमता नहीं होगी तो हम क्या कर पाएंगे?

क्या आपको अभी ऐसे लोगों पर हंसी या हया नहीं आती, जो स्वयं ही अपने नामों के साथ श्रीश्री या सदगुरु चस्पां किए घूम रहे हैं? क्या ये लोग इस देश के सवा करोड़ लोगों की जीवन पिपासा को शांत कर सकते हैं? आज हमारे देश और दुनिया के इन्सानों और इन्सानियत की जो हालत हो गई है या कर दी गई है, वह क्या ऐसे ही लोगों के भाषणों से बेहतर हो जाएगी? बेहतर हो, अगर हम क्वांटम मैकेनिक्स, फिजिक्स, कैमेस्ट्री, बॉयोलॉजी, मैकेनिक्स, ऐस्ट्रोनॉमी, जियोलॉजी, पैलिएंटोलॉजी या साइंस या सोशल साइंसेज की अन्यान्य ब्रांचेज के विद्वानों में से कोई सद्गुरु या श्रीश्री तलाशें। अपने मुहल्ले,अपने जिले, अपने प्रदेश, अपने देश या अपनी प्रकृति, अपने युनिवर्स, अपने सोलर सिस्टम, अपनी धरती, अपनी ऑर्गेनिक लाइफ़, अपने पक्षियों, अपने पशुओं, अपने वन्य जीवों, अपने मनुष्यों, अपने मानवीय विकास, अपने सोशल नॉम्र्स आरै फॉम्र्स, ह्यूमन इंट्रेक्शन, ह्युमन सोशल युनिट्स के ऑपरेटिंग मॉड, उनकी युनिटी और उनके स्ट्रगल को ठीक करें। उनकी सचाइयों को आत्मसात करें। उनके यथार्थ को खुली आंख से देखें। आख़िर अगर धर्म को ही सब कुछ ठीक करना होता तो अब तक हो ही जाता। अगर देशों से यह दुनिया ठीक होती तो ही हो जाती। अगर संविधान और बिजूका लोकतंत्र ही हमें सम्यक समाज दे पाता तो दे ही देता, शायद समाधान की राह कुछ और है और अब हमें उधर ही बढऩा होगा।

(वाल से साभार)

लेखक राजस्थान के एक शहर में भास्कर के संपादक है।

 


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