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पहल - 114

बाजे वाली गली

राजकुमार केसवानी

उपन्यास अंश - 3

 

 

क्त अपनी पूरी रफ़्तार से गुज़रता जा रहा था, पर नहीं गुज़र रहा था तो सियासी उथल-पुथल और अरा-तरी का वह दौर, जिसका आग़ाज़ बंटवारे के ऐलान के साथ ही हो गया था। पाकिस्तान की हिंदू आबादी के पलायन की वजह से वहां का सारा तंत्र छिन्न-भिन्न होने लगा था। रोज़-मर्रा की ज़रूरत की कई चीज़ों तक की क़िल्लत होने लगी थी। दुकानों पर ताले लगे थे जिनकी चाबियां और अपनी जान बचाकर हिंदू व्यापारी भाग निकले थे। धीरे-धीरे इन दुकानों के ताले एक के बाद एक टूटते चले गए। कुछ दुकानों का माल लुट गया तो कुछ पर वहां पहुंचे मुहाजिरों ने कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। लेकिन चार दिन बाद मुश्किल उसी शक्ल में सामने आ खड़ी हो जाती कि ख़ाली होती दुकानों में भरने के लिए नई सप्लाई की व्यवस्था न थी।

इधर सड़कों पर झाड़ू लगाने और घरों के पाख़ाने साकरने वाले सफाई कर्मचारी भी नदारद थे। नतीजे में घरों और सड़कों पर गंदगी और बदबू का आलम फैलने लगा था। एक पाक और जन्नत निशां मुल्क की आस में अपना शहर, अपना घर-बार छोड़कर पहुंचे हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए वहां फैली बदहाली का यह आलम किसी सदमे से कम न था। और जो इतना काफ़ी न था तो वहां के मकामी मुसलमानों के एक बड़े तबके के रवैये ने उनका दिल तोड़ दिया।

हालात हिंदुस्तान में भी बहुत बेहतर न थे। एक सा-सुथरी पुनर्वास नीति के अभाव में तमाम सरकारी कोशिशें लच्चर साबित हो रही थीं। ख़ासकर दिल्ली में सारी व्यवस्था चरमराने लगी थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं की तमाम कोशिशों के बावजूद मार-काट, खून-राबा जैसी बातें रोज़ का मामूल सी बनने लगी थीं। और जो कोई कसर बाकी थी तो जब-तब फैलती भड़काऊ अवाहों से पूरी होती जाती थी। इन अवाहों को पुख्तगी देने में दोनो मुल्कों के अबार पूरी तरह आमादा नज़र आते थे। इसके बाद का काम दोनो तर की सियासी जमातों ने मानो अपने ज़िम्मे ले लिया था। इन मुश्किल से मुश्किलतर होते हालात के लिए दोनो मुल्क, हिंदुस्तान और पाकिस्तान, एक दूसरे को ज़िम्मेदार बताते हुए, खुल्लम-खुल्ला एक दूसरे पर फौजी हमले की बातें करने लगे थे।

हिंदू महासभा के अध्यक्ष एन.बी.खरे जैसे नेताओं के लिए तो पौ-बारह वाले हालात बन गए थे। पाकिस्तान पर हमला कर उसे फिर से हिंदुस्तान का हिस्सा बनाकर ''अखंड भारत’’ कायम करने जैसी त$करीरें आए दिन की बात हो गई। ''एक धक्का और दो / पाकिस्तान को तोड़ दो’’ जैसे नारे की गूंज धीरे-धीरे पूरे देश में सुनाई देने लगी थी। उधर पाकिस्तान में भी मुस्लिम लीग इसी तरह का माहौल बनाए हुए थी। आए दिन अंग्रेज़ी अबारों में छपने वाले फ़ोटो और बरों से मालूम हो रहा था कि वहां मुस्लिम लीग के रहबरान भी जंग का माहौल बनाने में जुटे हुए हैं। जलसों में गूंजने वाला नारा ''हंस के लिया है पाकिस्तान / लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान’’ मुल्क भर की दीवारों पर उतर आया था। इसी माहौल का फायदा उठाकर एन.बी.खरे ने तो बाकायदा यू.एन.ओ में पिटीशन भी लगा दी थी, जिसमे उन्होने पाकिस्तान को $गैर कानूनी तौर पर कायम हुआ देश बताते हुए उसकी मान्यता रद्द करने की अपील की थी। अदालत में प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, लार्ड माऊंटबेटन और कुछ और लोगों को वादी बनाकर विभाजन पर जनमत संग्रह की मांग की अपील भी कर दी थी। उनका आरोप था कि ''कुछ अनाधिकृत लोगों ने’’ षडय़ंत्रपूर्वक देश के नागरिकों की सहमति के बिना बंटवारे का फैसला लिया है, जिसके अधिकार उन्हें था ही नहीं।

कराची और दिल्ली में छिड़ी इस सियासी जंग की आंच से भोपाल भी पूरी तरह बरी न था। हालांकि यहां बकाया मुल्क के मुकाबले में हालात काफ़ी बेहतर थे फिर भी म और गुस्से की आंच पूरी तरह बुझी न थी। 

इसी माहौल में दादा ने एक तरफ रिफ्यूजी पंचायत की ज़िम्मेदारी और दूसरी तर हिंदू महा सभा की राजनीति में शामिल होकर अपनी व्यस्तताओं को बेतरह बड़ा दिया था। नई-नई शुरू हुई वकालत के लिए वक्त निकालना भी मुश्किल हो चुका था। नतीजे में घर की माली हालत बुरी तरह डांवाडोल हो रही थी। इसी बात को लेकर घर में रोज़ कलह मचती। हालात को काबू में रखने को दिन रात खटती मां दादा के ज़बानी हमलों और तुहमत तराज़ी के निशाने पर रहती।

दादा अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों से भले ही भाग रहे हों लेकिन सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए उन्होने खुद को पूरी तरह खपा रखा था। इसी वजह से उनसे मिलने और अपने दुख-दर्द और दाद-रियाद सुनाकर मदद मांगने वालों की तादाद भी लगातार बढऩे लगी थी। सुबह सवेरे ही हवेली के बंद दरवाज़े पर सांकल की चोट से उठने वाली आवाज़ बार-बार हवेली में रहने वालों के सामान्य जीवन में लल पैदा करने लगी थी। इस दरवाज़े से ही सटा हुआ सबसे पहला घर दादाजी का था। अक्सर वे ही या फिर चाचा, जो दादाजी के साथ ही ऊपर बनी बरसाती में रहते थे, जाकर दरवाज़ा खोल देते थे। बाज़ मर्तबा यूं भी होता कि हवेली का कोई दूसरा बाशिंदा जाकर दरवाज़ा खोलता और आने वाले के मुंह से दादा का नाम सुनकर निराशा भरी आवाज़ में इसकी बर हमें दे जाता। धीरे-धीरे इन सारे लोगों ने यह मानकर कि दरवाज़ा बजाने वाला दादा के लिए ही आया होगा, दरवाज़ा खोलना छोड़ दिया। सिवाय दादाजी के कोई भी दरवाज़ा खोलने नहीं जाता। इस बदलाव के नतीजे में कई बार दरवाज़े का सांकल देर तक पिटता रहता और हर बार उसकी आवाज़ आरोह से अवरोह की ओर चढ़ती चली जाती। जब दरवाज़ा खुलता तो यूं भी हो जाता कि आया हुआ इंसान हवेली के किसी और घर का मेहमान निकलता। ऐसे में उनकी बातचीत इस उलाहने के साथ शुरू होती, ''कलाक खों दर पया खड़कायूं! घर में सब सुम्हिया पया हुयव छा?’’ (एक घंटे से दरवाज़ा पीट रहा हूं. घर में सब सो रहे थे क्या?)

आए दिन बनती इस हालत से तंग आकर सबने एक सामूहिक $फैसला ले लिया कि दिन के व$क्त दरवाज़ा खुला रखा जाए। यह फैसला सुविधा के साथ ही साथ हवेली के सिंधी और गली के मुस्लिम परिवारों के बीच एक-दूसरे के लिए धीरे-धीरे बढ़ती आपसी समझ और भरोसे का प्रतीक भी था। धीरे-धीरे बदलते इस रिश्ते पर घर में जब भी बात निकलती तो मां कहती - ''अमीरी में होड़ और गऱीबी में जोड़... लाला याद रखना रीबी का रिश्ता आसते-आसते बनता है। मगर बन जाए तो सबसे मज़बूत रिश्ता होता है।’’

गली के दो-चार घरों को छोड़ बाकी हर घर से एकदम सुबह-सवेरे लगभग एक ही व$क्त अधखुली आंखें और बंद मुठ्ठी में इकन्नी या दुअनी के सिक्के लिए घरों से लोग बाहर निकलते तो एक-दूसरे का सामना हो ही जाता। इन सब की राह एक ही होती - ब्रिजीसिया मस्जिद के नज़दीक मुश्शू मियां और पोकरदास की परचून की दुकानें और तोस वाली बेकरी। रोज़-रोज़ एक राह चलते, एक दूसरे को देखने की आदत सी पड़ गई तो धीरे-धीरे मुस्कराहट की अदला-बदली करना भी सीख गए थे। साथ-साथ दुकान की तर चलते हुए जब दुकान पर पहुंचकर इन सबकी मु_ियां खुलतीं तो सिक्के भी अक्सर एक ही वज़न के निकलते। इसी तरह आवाज़ें भी मिलती-जुलती से ही होतीं - ''छोटी पुडिय़ा, तोता छाप और एक छटांक शक्कर।’’ किसी-किसी आवाज़ में यह मांग एक आधा पाव शक्कर और दो पुडिय़ा भी होती, लेकिन ब्रुक बांड की तोता छाप चाय पत्ती की मांग लगभग यकसां होती थी। लिप्टन की रूबी डस्ट की मांग भी सुनाई देती, मगर ज़रा कम।

बद्दू मियां इस चाय के चस्के में डूब रहे लोगों से बेहद $फा रहते थे। वो बताते थे कि यहां पहले दूध-मक्खन का ही चलन था. इसी वजह से सारा शहर अखाड़ों और पहलवानों से भरा पड़ा था। बाद को अंग्रेज़ों ने अपनी कम्पनियों के मुना$फे के लिए यह ''गन्दी’’ आदत डाली। ''शहर के सारे हाट बाज़ारों में ये लोग टेबलें लगा-लगा कर मुफ्त में चा पिलाते थे। आवाज़ें लगा-लगा के बुलाते, मिन्नतें कर-कर के केते चा पी लो मियां, चा पी लो। हराम के जने बुरी तरां झूम जाते ओर तब तलक पीछा नी छोड़ते जब तलक आप चा पी न लो। साले न जाने कां-कां से सात-सात फ़िटे लोग पकड़ लाते कि लोग उनको देखने खड़े हो जाएं। आप खड़े हुई नईं कि विनने $फौरन आपको चा पिलाई नईं। ऐसे ही एक बड़ा लंब-तड़ंग जवान आया था जो जिता लंबा था वितना ई चोड़ा। उसके पीछे बच्चों की भीड़ लग जाती थी। वो भी बाकी सब की तरां गायब हो गया। और बाद को देखो तो साला फ़िल्मों में दिखने लगा। तभी पता चला कि उसका नाम शे मुख्तार था। कसम खुदा की, उसकी फ़िल्म देखने सारा शेर पोंच जाता था टाकीज़ में। वो पर्दे पे आता तो आवाज़ें लगतीं - ''चाय गरियम, चाय’’ और फिर ठहाके लगते। पर्दे पे तो वो दस-दस को अकेला पछीट-पछीट के मारता है। अब तो उती हुल-गदागद नईं होती जिती पेले होती थी। पेले उस साले ने चा की आदत डाली बाद को फ़िल्म की।’’

बद्दू मियां की बात में दम था। सचमुच शहर भर में चाय के इश्तिहार ही सबसे ज़्यादा दिखाई देते थे। मुश्शू मियां की दुकान पुरानी और ज़रा छोटी थी जबकि पोकरदास की दुकान उससे कुच्छ बड़ी। छोटी दुकान पर ब्रुक बांड चाय का एनामल पेंट वाला टीन का छोटा सा बोर्ड लगा था तो इस नई दुकान ने ब्रुक-बांड, लिप्टन और असहानी चाय की तिख्तयां टांग रखी थीं। एक तख्ती पर लिखा होता - ''अच्छी चाय जब / दिल खुश मेरा तब’’। ब्रुक बांड वाले टीन के पतरे पर मां-बच्चा छाप चाय, जिसे कुछ लोग औरत छाप चाय भी कहते थे, का इश्तिहार होता जिस पर चाय का एक बड़ा सा पुड़ा हाथों में थामे एक नाचते-गाते परिवार की तस्वीर होती। उसके नीचे अंग्रेज़ी-हिंदी और उर्दू में लिखा होता - ''ब्रुक बांड चाय - कोरा डस्ट। सबकी दिलचस्पी का मरकज़।’’

दूसरा इश्तिहार ज़्यादा सा-सुथरा और सीधी बात करता था - ''कड़क और बढिय़ा चाय की ज़्यादा प्यालियां - ब्रुक बांड - ए-1 डस्ट टी।’’ इस पर तोते की पीठ पर लदा एक तोता छाप चाय के पैकेट का चित्र होता। दिलचस्प बात यह है कि इन दोनो बड़े पैकिट के रीदार इस दुकान पर कभी-कभार ही दिखते थे।

लिप्टन की जाकूजा और रुबी डस्ट चाय का इश्तिहार उसे ''हिंदुस्तान की उम्दा और तेज़ $खुश्बू, $खुश रंग और कम कीमत चाय’’ बताता था। लेकिन सुबह के इस व$क्त दुकान पर आने वालों में से किसी के भी पास इन इश्तिहारों को पढ़कर चाय रीदने का समय नहीं होता था। यहां तो अक्सर अरा-तरी का माहौल बना रहता कि सबको जल्दी घर पहुंचना है। सबके घरों में पानी का पतीला लगभग चूल्हे पर चढऩे को तैयार होता या फिर चढ़ ही चुका होता था। ऐसे में जल्दी होना लाज़िम था। उस पर बीच में शमीम बेकरी वाले, जिसे सब शम्मू भाई बुलाते थे, के यहां से तोस भी लेने होते थे। ख़ासकर टाई लीवर तोस। वापसी के व$क्त जवां मर्द तेज़ चाल से और बच्चे लगभग दौड़ते हुए जल्दी से घर पहुंचने को आतुर दिखाई देते। हम लोग तो बाकायदा आपस में रेस करते, खिलखिलाते अपने-अपने घरों तक पहुंचते। कुछ दोस्तों के घर बीच में ही पड़ते और कुछ के आगे, हमारी हवेली गली के बीचों-बीच थी। हर रोज़ यहां पहुंचकर मुझे दादाजी को, जिन्हें मैं बाबा कहता था, दरवाज़ा खोलने को आवाज़ देनी पड़ती थी। लेकिन उस दिन दरावाज़ा पहले ही से खुला था। सो बस, सब उसी दौड़ वाली रफ़्तार में सीधे अंदर घुस गए।

***** 

इस एक दरवाज़े का खुलना न जाने कितने अनदेखे दरवाज़े खोल गया। यहां इस हवेली से बड़े घर ज़रूर थे लेकिन सबसे बड़ा दरवाज़ा इसी हवेली का था। इस बड़े दरवाज़े के खुल जाने की चर्चा गली के बकाया बंद दरवाज़ों के पीछे खूब हुई कि सिंधियों वाली हवेली का बड़ा दरवाज़ा खुल गया है। यह शायद पहला मौका था जब इस गली के रहने वालों की ज़बान पर इस हवेली को यासुद्दीन की बजाय सिंधियों के नाम से जोड़कर देखा गया। इस खुले दरवाज़े से यहां आने वालों की आमद भी बढ़ सी गई। इसमें एक बड़ी तादाद मुहल्ले और आसपास की उन औरतों की भी थी जो कपड़े सिलवाना या पापड़ रीदना चाहती थीं। बंद दरवाज़े ने शायद इन औरतों को अब तक रोक रखा था।

इसी दिन एक दरवाज़ा और भी खुला। यह सरकारी मदद का दरवाज़ा था, जो पिछले कुछ बरसों से किसी सिनेमा घर की टिकट खिड़की की तरह खुलता और बंद होता रहता था। इस बार भारत सरकार ने विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए अगले दौर की कुछ योजनाओं की घोषणा की जिनको अमल में लाने के लिए $गैर सरकारी संगठनों को भागीदार बनाया जाना था। इन योजनाओं में एक बंद हुई पुरानी स्कीम भी थी जिसके तहत महिलाओं के लिए सिलाई मशीन और बीस रुपए नगद और पुरुषों के लिए स्व-रोज़गार योजना के तहत 250 रुपए नगद की योजना भी शामिल थीं।

दादा ने इस $फैसले को अपने लिए एक बड़ी जीत माना। यहां आने के बाद से मुंह अंधेरे उठकर पूजा-पाठ के बाद ही लगभग रोज़ाना बनते-बिगड़ते हालात की त$फ्सीली कहानी कहता एक त प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को ज़रूर लिखते थे। सिंध से आते-आते वे अपने साथ अपना वह पोर्टेबल रेमिंगटन टाईप राईटर भी ले आए थे, जिसे वो कभी ''सिंध आब्ज़र्वर’’ के रिपोर्टर के तौर पर इस्तेमाल किया करते थे। इस टाईप राईटर को रखने के लिए उन्होने दीवार में बने एक खूबसूरत से आले को चुन रखा था। यहां उनका काज़ का रिम और कोरस कार्बन का बारीक सा डिब्बा और आल पिन की डिब्बी रखे रहते थे।

दादा की टाईपिंग का अंदाज़ बड़ा अनोखा होता था। वे एकदम तूफानी रफ़्तार के साथ एक उंगली से की बोर्ड के बटन ठोकते चले जाते और काज़ पर काले-काले हरू उभरते चले जाते थे। मेरे लिए यह एक जादू का सा खेल था। उससे भी ज़्यादा दिलचस्प होता था वह लम्हा जब दादा अपना ख़त पूरा कर लेने के बाद रोलर घुमाकर काज़ बाहर निकालते तो ऊपर दिखते एक काज़ के पीछे लगे कभी चार, कभी पांच काज़ों को कार्बन पेपर्स से जुदा करके एक-एक कापी के छापे को जांचते। पूरी ताकत से बटन ठोकने के बावजूद अक्सर ही आख़िरी कापी हल्की ही निकलती थी। इसी कापी को वो सब्जेक्ट के मुताबिक बनी फाईलों में से किसी एक में आफ़िस कापी बना लेते थे। इस कापी पर वो पेन से श/ष् लिखना और अपने मुख़्तसिर से दस्तख्त करना कभी नहीं भूलते थे।

मैं अक्सर दादा के जाने के बाद कार्बन पेपर के डिब्बे से वह इस्तेमाल शुदा कार्बन पेपर निकाल कर उन पर पड़े अक्षरों के छापे पढऩे की कोशिश करता रहता। बाहर निकलकर सूरज की दिशा में ऊपर उठाकर लोहे के हथोड़े की तरह हुए वार के नतीजे में कार्बन पेपर से गुम हुई कालोंच और उस पर बन चुकी स$फेदी में छपे हुए अंग्रेज़ी के शब्दों की धुंधली सी आकृतियों से आती रोशनी को अपने चेहरे पर लाने की कोशिश करता रहता। मुझे इस तसव्वुर भर से खुशी होती कि यह सारे शब्द, जिन्हें मैं पढ़ भी नहीं पाता था, उस घड़ी मेरे चेहरे पर फैले हुए हैं। खुशी से चेहरा खिल जाता और मैं भागकर मां का हाथ पकड़ बाहर लाता और उसे अपने इस खेल में शामिल कर पूछता, ''चाचा नेहरू की चिठ्ठी मेरे चेहरे पर भी छप गई ना?’’ मां भी मुस्कराकर मेरा दिल रखने को कह देती, ''हां-हां, छप गई। अब चल अंदर।’’

दादा की इन तमाम चिठ्ठियों के जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय, राहत और पुनर्वास मंत्रालय और बाकी संबंधित विभागों से भी बाकायदा आते थे। इन जवाबी तों पर अक्सर सरकारी डाक टिकटों की एक लड़ी सी चिपकी होती थी, जो अक्सर डाक्टर की दवा वाली शीशी पर लगे डोज़ के निशान वाली टिकली की याद दिलाती थी। मुहल्ले का पोस्टमैन जब भी आता, दादा से यह बात ज़रूर कहता कि मुहल्ले भर में सबसे ज़्यादा डाक आपकी ही आती है। दादा इस बात से खुश होकर अपने आसपास मौजूद लोगों की तर देखते और पोस्टमैन को धन्यवाद देते कि वह उनकी डाक सम्हाल कर लाता है।

इसी तो-किताबत का नतीजा यह हुआ कि जब इस सरकारी अनुदान को बांटने की बारी आई तो सरकार ने इस काम की ज़िम्मेदारी भोपाल में रिफ्यूजी पंचायत को सौंप दी। इस काम को ठीक तरीके से संचालित करने के लिए व्यवस्था बनाने के लिए पंचायत की बैठक हुई तो इस बार पिछली बैठकों के उदास चेहरों पर आत्म विश्वास और जीने का जोश ज़्यादा था।

सबसे पहले तो बैठक में दादा को यह मशीनें और पैसे बांटने के लिए पंचायत की की तर से अधिकृत कर दिया गया। उनके सहयोग के लिए उनके साथ चार वालंटियर भी मनोनीत कर दिए गए. इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ शिकवे-शिकायतों और मांगों का। सबसे बड़ी शिकायत थी स्थानीय व्यापारियों के ख़िला। वे अपने यहां न तो किसी सिंधी को नौकरी देते थे और न ही बाज़ार में कहीं खड़े होकर छोटा-मोटा कारोबार जमाने देते थे। शिकवा यह था कि पंचायत इस मामले में उनकी कोई मदद नहीं कर पा रहा। अब सवाल यह था कि सरकार से मिलने वाली रकम से कोई भी काम शुरू करेंगे तो उसमे भी यही लोग अड़ंगे लगाएंगे।

इस बात पर चलती बहस के दौरान एक दार्शनिक अंदाज़ में बोलने वाले कवि परसराम ''कामिल’’ ने एक नई बात उछाल दी - सिंधु देश की बात। उनका तर्क था कि एक बेवतन कौम की हैसियत दुनिया में किसी यतीम की सी होती है। यतीमों को ''बेचारे’’ का दर्जा तो समाज दे देता है लेकिन ''बराबरी’’ का दर्जा कभी नहीं देता। जब तक अपनी ज़मीन, अपना वतन नहीं होगा, तब तक किसी तरह की बराबरी की उम्मीद करना बेकार है। इसलिए हम सब को बम्बई के भाई प्रताप की उस मुहिम से जुड़ जाना चाहिये, जिसके तहत वो कच्छ की खाड़ी के किनारे बन रहे सरकारी बंदरगाह के आसपास ख़ाली पड़े विशाल भू-भाग पर सिंधियों के लिए कराची जैसा एक बड़ा शहर कायम करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके लिए सिंधु देश का नाम प्रस्तावित था।

हर रोज़ जीने-मरने की मुश्किल से जूझ रहे लोगों को यह बात बेमानी और दूर की कौड़ी लगी। उनकी नाराज़गी थी कि इस तरह से उनके तात्कालिक मुद्दे से ध्यान भटक जाएगा। अधिकांश लोगों की राय यही थी कि सबसे पहले इन मसलों के हल खोजे जाएं। काफ़ी बहस-मुबाहिसे के बाद यही तय पाया गया कि व्यापारियों से टकराव की बजाय, नए ठीये-ठिकाने ढूंढकर धीरे-धीरे काम जमाने के रास्ते तलाशे जाना बेहतर होगा। सरकार से मिलने वाली रकम से सड़क पर खड़े होने की बजाय सस्ते किराए की छोटी-छोटी दुकानें तलाश कर रोज़-मर्रा की ज़रूरत वाली चीज़ों का कारोबार किया जाए।

इस बैठक के फौरन बाद ही शहर के उन इलाकों में जहां विस्थापित परिवारों को बसाया गया था, दादा ने सरकारी अमले और अपनी टीम के साथ केम्प लगा-लगा कर सिलाई मशीनें और 250 रुपए की सहायता राशि बांटने का सिलसिला शुरू कर दिया। 250 रुपए की इस रकम को कुछ लोगों ने अल्लादीन के चरा की तरह इस्तेमाल कर दिखाया। इनमे से कुछ लोगों ने कारोबार शुरू करने के लिए भाई ईदनदास की शरण ली। बम्बई के कल्याण कैम्प में काफ़ी अरसे तक रहने के बाद भोपाल आकर बसे भाई ईदनदास कभी जेकबाबाद, सिंध के नामी व्यापारी थे। ईदनदास को वहां किराना के थोक व्यापार का बादशाह माना जाता था। बंटवारे के बाद कुछ अरसे तक बम्बई के कल्याण कैम्प में रहकर खुद को फिर से स्थापित करने की सम्भावनाओं को तलाशते रहे। इसी तलाश में उनकी मुलाकात हापुड़ मंडी के एक बड़े आढ़तिये से हो गई, जिसके साथ बरसों पुराने कारोबारी रिश्ते थे। इस आढ़तिये ने एक सलाह दी कि वे किसी बड़े शहर में छोटी सी पूंजी से कोई कारोबार नहीं जमा सकते, सो उन्हें किसी छोटे शहर की तर रु करना चाहिये। इसी बातचीत में आढ़तिये ने भोपाल का नाम सुझाया जहां उसके कई व्यापारियों से सम्बंध थे और उनके मोटे मुनाफे का उसे ख़ासा अंदाज़ था। इस एक मुला$कात के बाद भाई ईदनदास ने भोपाल का टिकट कटाया।

भोपाल पहुंचकर ताज महल के एक ख़ाली कमरे में डेरा जमाया और एक अदद दुकान की तलाश शुरू कर दी। इस तलाश में उनकी मुला$कात एक बुज़ुुर्ग फ्रीडम $फाईटर लालचंद गुप्ता से हुई, जिनके मन में विस्थापितों के लिए गहरी हमदर्दी थी। शहर के ख़ास बाज़ार के बीच बने उनके घर के नीचे पांच दुकानो में से दो दुकाने ख़ाली थीं। उन्होने उसमे से एक दुकान ईदनदास को देना मंज़ूर किया। किराया अलबता 13 रुपए से कम न किया, जो वह बाकी किरायादारों से ले रहे थे। यह उसूल की बात थी।

देखते ही देखते हापुड़ मंडी की भरपूर मदद मिली और उन्होने किराना और ख़ासकर खाने के तेल का थोक व्यापार शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होने 20 टक्के की दर से मुनाफे वाली गणित के प्रचलित व्यापार को सीधे 10 टक्के की दर पर लाकर सस्ता माल बेचना शुरू कर दिया। कम भाव के इस माल से जल्द ही बाज़ार में यह दुकान शहर और आसपास के गांव के फुटकर व्यापारियों की पसंदीदा दुकान बन गई।

इन्हीं ईदनदास की साख का लाभ दुकानें लगाने के इच्छुक सिंधियों को भी मिला। ख़ासकर जुमेराती और सराय सिकंदरी के इलाके में ख़ाली पड़ी दुकानों के मुस्लिम मालिकान ने इन लोगों को आसान शर्तों पर दुकाने किराए पर दे डालीं। इसकी एक ख़ास वजह थी कि यहां के मुसलमान परिवार पुराने हिंदू व्यापारियों को चतुर-चालाक मानते थे जबकि नए-नए आए सिंधियों के बारे में अभी पूरी तरह राय कायम न हो पाई थी। अलबता उन्हें कमज़ोर ज़रूर मान लिया गया था। इसकी ख़ास वजह थी शहर में उनकी कोई रसाई न थी और न आड़े व$क्त उनकी मदद करने वाला। मुन्ने पहलवान, जिसने अपनी दो दुकानें किराए पर दी थीं, का एक जुमला उन दिनों $खूब चला था। और वह जुमला था, ''एसा हे कि अगर इनमे से कोई भी ज़रा तेढ़ा हुआ तो मांकड़ों के दो बुट मार के भगा देंगे। इनको बचाने वाला यां कौन है?’’

सुनने में तललीदेह इस एक जुमले ने न जाने कितने सिंधी दुकानदारों की न जाने कितनी मदद कर डाली। शहर में इन लोगों को अब मुसलमान ही नहीं हिंदू भी बेझिझक दुकानें किराए पर देने लगे। पुराने व्यापारियों ने भी हालात को समझते हुए ख़ुद को बदला। छोटी-छोटी गुमटीनुमा दुकानो से धंधा करने की कोशिश में लगे सिंधी दुकानदारों को उधार और कम मुना$फे पर माल देकर अपनी तर खींचना शुरू कर दिया।

इन छोटी-छोटी कोशिशों को बड़ी ताकत तब मिल गई जब भारत सरकार ने विस्थापितों को पाकिस्तान में छोड़ी गई अपनी ज़मीन-जायदाद के मुवाअज़ा क्लेम्स की सुनवाई और निपटारा की कार्यवाही शुरू कर दी। जिस वक्त यह क्लेम फार्म भरे जा रहे थे तब स्थानीय अदालत में बैठने वाले एक सिंधी टाईपिस्ट दानामल ने चार-चार आने लेकर फार्म भर दिए थे। जब सेटलमेंट कमिश्नर के दफ्तर में इन मामलों पर सुनवाई शुरू हुई तो तरह-तरह की मुश्किलें सामने आने लगीं। कानूनी नु$ख्तों को समझने और समझाने के लिए किसी वकील की ज़रूरत पडऩे लगी लेकिन इस मामले को समझने के लिए विस्थापित होकर आए एक पंजाबी वकील सुखदेव अरोरा के अलावा और कोई आगे न आया।

सुखदेव अरोरा काफ़ी बुज़ुर्ग और लाहौर के पुराने वकील थे, लेकिन उनके साथ एक ही मुश्किल थी कि उनके पंजाबी लहजे की वजह से सिंधी मुव्वकिलों को बात-चीत में बड़ी मुश्किल होती थी। ऐसे ही मुव्वकिलों में से एक गुरनोमल, अरोरा साहब को छोड़ दादा के पास आ पहुंचा। गुरनोमल, बारदाने का कारोबार करता था। जूट के ख़ाली बोरे रीदने और बेचने के धंधे में काफ़ी कामयाब भी था। उसने आते ही दादा के हाथ में चांदी के बीस कलदार सिक्के पकड़ा दिए और कहा कि वो उनका क्लेम वाला केस लड़ें। क्लेम मिलने पर ऐसे ही बीस कलदार और देने का वादा भी कर डाला।

दादा के हाथ में रखे गए गोरे-गोरे, कलदार सिक्कों की चमक और वज़न ने दादा के चेहरे पर एक अजब सी मुस्कान भर दी। गुरनोमल जब तक बात करता रहा, दादा उतनी ही देर तक बार-बार नज़रें फेरकर कलदार की तर देखकर मुस्कराते रहे और उसकी हर बात पर हां-हूं करते रहे। तभी उसने अरोरा साहब के यहां से उठाकर लाई हुई अपने क्लेम की पूरी फाईल भी दादा की तरबड़ा दी। कलदार में खोए दादा ने चौंककर सारे सिक्के टेबल के ड्रावर में उंडेल दिए। हाथ खाली हुआ तो $फाईल हाथ में ले ली। एक-एक पन्ने को ध्यान से देखते और पढ़ते रहे। गुरनोमल की निगाहें इस पूरे वक्त दादा के चेहरे पर लगी रहीं। आख़िर दस मिनट की ख़ामोशी के बाद दादा ने फाईल टेबल पर रख दी। फिर गुरनोमल की तर देखते हुए कहा, ''कल सुबह 6 बजे आ जाओ, रात में मैं फाईल पढ़कर तैयारी कर लूंगा। कुच्छ सवाल हो सकते हैं, सो सुबह-सुबह हम शांति से बैठकर बात कर लेंगे। ठीक है?’’

गुरनोमल के चेहरे पर $खुशी का एक चमकदार भाव आया और वह ''मेहरबानी’’ कहकर चला गया। उसके जाते ही दादा ने टेबल का ड्रावर खोल लिया और सारे सिक्के चुन-चुन कर हाथ में ले लिए। फ़िर अपनी कुर्सी छोड़, उठ खड़े हुए और तीन तर पर्दों से ढक कर बेड रूम के दरवाज़े के पास बनाए गए आफ़िस के पर्दे हटाते हुए दूसरे हाल में बनी रसोई की तर निकल आए, जिस तर मां चूल्हे पर दाल पका रही थी और मैं ठीक उसके सामने छत के नीचे लगे लकड़ी की एक मोटी सी मियाल पर बंधे झूले में बैठा, झूला झूल रहा था। दादा के आने से पहले ही मां का और मेरा ध्यान दादा के आफ़िस की तर से आ रही सिक्कों की उस खनकदार आवाज़ की तर चला गया था, जो दादा बच्चों की सी मस्ती और $खुशी में डूबकर एक हथेली से दूसरी हथेली में उछाल-उछाल कर पैदा कर रहे थे। $खुशी में लहराते दादा ने मां के सामने एक बार फिर से सिक्कों को इस हाथ से उस हाथ में उछाल कर खन-खन की जादुई आवाज़ पैदा की और कहा - ''हे दिस। चांदी जा सिक्का। रानी विक्टोरिया जा कलदार’’

मां के थके हुए से चेहरे पर भी यकायक एक ताज़गी सी आ गई। $खुशी से हाथ आगे बढ़ाकर दादा के हाथ से सिक्के लेने की कोशिश की। लेकिन दादा ने सिर्फ़ एक सिक्का निकालकर मां के हाथ में धर दिया। इस सारे खेल में मैं भी शामिल होना चाहता था सो चलते झूले से कूद पड़ा और नीचे गिर पड़ा। घुटना ज़रा सा छिल गया था लेकिन उस व$क्त न मेरे पास रोने-धोने का वक्त था और न मां या दादा ने मेरे गिरने की तर ध्यान दिया। सो मैं खुद ही फौरन उठकर दादा से चांदी के सिक्के छीनने की कोशिश करने लगा। लेकिन दादा की पकड़ सिक्कों पर बहुत मज़बूत थी। मेरे हाथ में भी एक सिक्का थमाकर कह दिया, ''सब एक जैसे हैं. यह देख लो।’’

मेरा मन इस बात से न भरा। मैं तो सारे सिक्के हाथ में लेना चाहता था। शायद मां भी सारे सिक्के ही हाथ में लेकर देखना चाहती थी मगर उसके पास भी एक ही सिक्का था। सो लाचार मैने मां से ही कहा, ''ला मुझे दिखा ना। देखूं तेरा सिक्का कैसा है।’’ मां ने बिना किसी हील-हुज्जत सिक्का मुझे दे दिया। वाकई थोड़ी बहुत चमक के अलावा दोनो सिक्के एक जैसे थे। उस वक्त सिक्के पर सिर्फ़ एक चेहरा भर नज़र आया जिसे देखकर मेरे लिए मर्द या औरत का र्क कर पाना मुश्किल था। जो कुच्छ लिखा था उसे भी पढ़ नहीं सकता था।

अभी हम यह सिक्के देख-देख खुश हो ही रहे थे कि दादा ने दोनो सिक्के वापस ले लिए। फिर मां की तर धीरे से मुख़ातिब होकर बोले, ''एक केस जीत गया तो ऐसे कई सौ क्लेम्स के केस आएंगे. उसके बाद तो बस...’’

मेरी समझ में बहुत कुछ भले न आया हो लेकिन इतना ज़रूर समझ में आया कि यह खुश होने वाली बात थी। सो बस, हम तीनो खुश हो गए। शाम में दादा बाज़ार से घर आते हुए हरे रंग की सौं वाली शराब की पूरी बोतल ले आए थे। चाचा को भी आते-आते आवाज़ लगा आए थे सो कुछ देर में वे भी आ गए। उसके बाद बड़ी सी तश्तरियों में शराब के जाम बन गए। महफ़िल जम गई। खुशी के माहौल में अपनी थकान को भूली बैठी मां पापड़ और फिर उसके बाद पकोड़े के घान के बाद घान उतारकर उन्हें परोसती रही। उस दिन के गूंजते ठहाकों की गूंज बाकी मौकों की गूंज से बिल्कुल अलग थी। इस गूंज में आज से ज़्यादा कल की गूंज थी।

***

बचपन की खूबसूरती यह है कि बाहरी दुनिया के बदतरीन अंधेरों में भी वह अपने लिए एक रोशन कोना ढूंढ ही लेता है। बाजे वाली गली के बच्चों को तो जैसे इस खेल में महारत सी हासिल थी। ख़ाली जेब और ख़ाली पेट के बीच की संगत से ''कुल्ल वल्लहो हू’’ का कलमा पढ़ती, अचलती-मचलती अंतडिय़ों से उठती आवाज़ों को ठहाकों में तब्दील करने के एक से एक नायाब फार्मूले उनके पास थे। इन फार्मूलों के बाबा आदम की तस्वीर किसी मुस्सविर ने तो शायद बनाई नहीं है लेकिन इतना तय है कि जब भी कोई बनाएगा तो उसमे वह भी आदम-हव्वा की ही तरह पूरा ही नंगा होगा। बस र्क इतना भर होगा कि उसके हाथ में न तो बाईबल वाला सेव होगा न ही $कुरान वाली गंदुम। शायद इसी महरूमी के जवाब में उसने हंसी ईजाद की होगी। और हंसने के लिए तरह-तरह के फार्मूले।

बाजे वाली गली उसी बाबा आदम की नस्ल वालों का डेरा था। यहां बाजे भले ही कम बजें लेकिन ठहाके ख़ूब गूंजते थे। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक कोई भी इस नेमत से महरूम नहीं था। अलबता दोनो के लिए व$क्त अलग-अलग थे। बच्चों की पारी ज़रा लंबी होती - सुबह से शाम ढले तक। बड़ों की पारी शुरू होती रात में पटियों पे। इस पटिया क्लब के ठहाकों में दिन भर के रंजो-म धुलकर बह जाते थे।

अब जो याद आती है तो असोस होता है कि हम बच्चों के यह ठहाके भी अक्सर उन्हीं लोगों की कीमत पर होते थे, जिन्हें खुद इन्हीं ठहाकों की तलाश होती थी। उनमें भी ख़ासकर गली से गुज़रने वाले खाने-पीने की चीज़ें बेचने निकले फेरी वाले।

एक से एक मज़े के लोग आते और उतनी ही मज़े की आवाज़ें लगाते। उस चीज़ को खाने में भले ही उतना मज़ा न आए लेकिन इन आवाज़ों में सिर्फ़ मज़ा ही मज़ा होता था। नतीजे में बेचने वाले का माल भले ही न बिका हो लेकिन उसकी आवाज़ का जादू हर उस जगह हमेशा-हमेशा के लिए ऐसा रच-बस जाता था कि दीवारों तक से वैसी ही सदाएं सुनाई देतीं।

जैसे एक ठेले वाला था, जिसका नाम हमने रख दिया था गुलाब गंडेरी। बदलते मौसमों के मुताबिक ही बदल-बदल कर चीज़े लाता था। कभी गंडेरी, कभी फालसा, कभी ककड़ी, कभी भुट्टा, मगर न बदलता तो न बदलता उसका नाम - गुलाब गंडेरी।

गेंहुआं रंग, ख़ासा निकला हुआ कद, सुतवां बदन, चौड़ा माथा, सुकून से भरी, जगमगाती सी काली आंखें, चेहरे पर बती नाक और उस पर खूबसूरती से तराशी और ताव खाकर तनी हुई मूंछे। बदन पर नित नया रंगीन कुर्ता और ढीला पाजामा। अपनी जवांमर्दी का ऐलान करता वह कुर्ते के पूरे तीन बटन खुले रखता था, जिससे उसकी छाती के घने बाल झांकते दिखाई देते। तेल से चुपड़े सर के घने बाल बिखरे-बिखरे से रहते थे और उनमे से एक लट पेशानी से नीचे तक लटक-लटक जाती थी जिसे वह बड़ी अदा से हाथ से पकड़कर सर के बाकी बालों के साथ रख देता। अगर कभी सौदा देते वक्त हाथ में तराजू फंसा हो और बालों की लट, $ख्वामख़ाह की लटन की तरह आंख से छेड़-छाड़ करने उतर आती तो वह तराजू पकड़े-पकड़े ही मुंडी ऊपर करके ज़ोर की फूंक से जब बाल ऊपर उड़ाता तो मालूम होता जैसे कोई बाप अपने ज़िद्दी बच्चे को डांट रहा हो।

जब वह गंडेरी बेचने आता तो उसकी सदा होती - गंडेरी वाला, गुलाब गंडेरी। अरे शरबत से सींची हैं, और शकर सी हीटी हैं। गंडेरी! गंडेरी खा लो, गंडेरी - गुलाब गंडेरी।’’ और जो बारी आती फालसा की तो आवाज़ होती - ''क्या सांवला सलोना है / नमक से सना, क्या खूब बना / $फालसा नहीं काला सोना है।’’ किसी दिन, ''नई बहार आई है / ककड़ी-भुट्टा लाई है।’’

एक ठेले वाले दादा और आते थे जो लब्दो नाम की एक अदभुत स्वादिष्ट चीज़ बेचते थे। निहायत अनोखी बनावट के इंसान थे। उनकी विशाल देह और $खूब लांबा $कद देखकर मालूम होता कि कोह-ए-का से कोई बूढ़ा सा देव परियों से रूठकर चला आया है। उनका $खूब जमा हुआ काला रंग, उस पर खूब मोटी नाक, उस पर धागे से कसकर बंधे टूटे फ्रेम का चश्मा, ऊपर सिर पर गोल टोपी। ठेले पर रखी लब्दों वाली देग में बड़ा भारी सा खुरपा घुमाकर टना-टन की आवाज़ निकालते और उसी के पीछे-पीछे उनकी भारी-भरकम आवाज़ गूंजती - ''लब्दो! खट्टी-मीठी लब्दो।’’ उनकी आवाज़ का वज़न इतना भारी होता कि अगर वह आवाज़ लोहे के बांट में तब्दील हो जाती तो मन्नों-टन्नों की तौल के काम आ जाती।

सूखे बेर को नमक, मिर्च और ज़रा सी गुड़ की डल्ली के साथ पानी में उबलकर तैयार होने वाली इस लब्दो का ज़ायका खाने के बाद घंटों ज़बान पर बना रहता था। लेकिन इस ज़ायके के लिए भी पैसे की ज़रूरत होती थी, जो ज़्यादातर बच्चों के पास अक्सर नहीं होता। बस किसी-किसी घर से किसी ज़िद पर अड़े बच्चे की मां ज़रूर लब्दो वाले दादा से ''ज़रा सी’’ लब्दो लेकर दे देती। या फिर किसी व$क्त कुछ बच्चे आपस में मिलकर एक दोना ले लेते और ज़रा-ज़रा सा आपस में बांट लेते।

मैं जब-जब मां से लब्दो के लिए पैसे की ज़िद करता तो मां मुझे बहलाने को उससे भी अच्छी चीज़ बनाकर खिलाने का प्रलोभन देती.. तब मां कहती - ''लाला, हम लोग यह चीज़ नहीं खाते। गंदी होती है। मैं तुम्हे उससे अच्छी चीज़ खिलाऊंगी।’’ मगर मुझे तो दोस्तों के साथ लब्दो खाना होती, सो बस नाराज़ होकर वापस दोस्तों के पास जाता और निराशा से दोनो हाथ के इशारे से अपनी नाकामी का ऐलान कर देता।

दूर से गूंजती, दीवारों में कंपकपी पैदा आवाज़ नज़दीक आती-जाती ज़बान पर आती हुई लार को अंदर ही गटककर, हम हंसना शुरू कर देते। जिस घड़ी लब्दो दादा नज़दीक आ जाते तो अंदर गई हुई लार शैतानी शक्ल इ$िख्तयार कर सर तक जा चुकी होती। ज्यों ही टना-टन की आवाज़ के बाद आवाज़ आती - ''लब्दो! खट्टी-मीठी लब्दो’’ इसके जवाब में $फौरन कोई बच्चा दादा की आवाज़ की नक्ल करता हुआ, आवाज़ लगाता, ''लब्दो - खा के, पी के हग दो’’ और फिर अपनी इस हरकत से खुश होता, बेतहाशा हंसता हुआ कहीं किसी घर या पतली गली की तर भाग जाता।

आवाज़ सुनकर दादा का भन्नाया हुआ चेहरा, चारों सिम्त घूमता रहता लेकिन रार हो चुका उनका मुजरिम उनकी नज़र में कभी न आता। लब्दो वाले दादा ने अभी गली से बाहर जाने लिए ठेला मोड़ा भी न होता कि दूसरे छोर से किसी दूसरी चीज़ का आवाज़ सुनाई देने लगती। कभी कबीट, अमरूद, कभी कसेरू, कभी बिरचन तो फिर कभी आईसक्रीम वाला तो कभी कुल्फ़ी वाला।

एक कम उम्र मासूम सा खोमचे वाला लड़का अक्सर सर पर गजक या फिर नारियल का बड़ा सा थाल लेकर आता था। जब वह गली में आवाज़ लगाता हुआ आता - ''तांबा-पीतल की पूरी तोल’’ - तो बच्चे घर की तर लपक पड़ते। क्योंकि यह सौदा पैसे से नहीं बल्कि कबाड़ा हो चुके तांबे—पीतल की किसी चीज़ के बदले में मिलना था। गली के पटियों पर बैठकर ज़ट्टें मारने वाले बुज़ुर्गान ने उसका नाम रख दिया था चुन्नू मियां। चुन्नू, अक्सर अपना खोमचा रखकर हमारे साथ खेल में कुछ देर शामिल हो जाता था।

एक पुराने ज़माने की औरत रामप्यारी बाई भी टोकरी में बेर, कबीट, मकोई, इमली जैसी चटोरेपन की $खुरा$क लेकर आती थी। मुहल्ले की सारी औरतें उसे जानती थीं और वह यहां की सारी औरतों को। बल्कि इन औरतों के ज़रिए मर्दों और बच्चों तक को जानती थी। यहां के घरों में उसे राम प्यारी की बजाय सिर्फ़ प्यारी बाई कहकर ही बुलाया जाता था। ज़्यादातर औरतें उसको घर के अंदर बुलाकर बिठातीं, उससे शहर भर की बातें पूछतीं। बातों-बातों में कुछ बेर भी चट कर जातीं और आख़िर में सौदा लेते व$क्त इसरार करतीं कि वह उतने बेर या इमली तौल में कम कर लें। तब उसका बड़ा प्यारा सा, दिल जीतने वाला जवाब होता, ''अरे गोंई, कैसी बात करती हो। घी कहां गया, खिचड़ी में ई ना? फिर।’’ जाते वक्त जब वो ''राम-राम बाई’’ कहकर खड़ी होती तो मुस्कराते हुए चेहरों से जवाब में उसे भी अक्सर ''राम-राम प्यारी बाई’’ सुनाई दे जाता।

ऐसा न था कि हम सिर्फ़ख़ाली ज़बान ही फेरते रहते थे। अल्लाह की बसाई इस दुनिया में खाने का इलाही इंतज़ाम भी $खूब था। शहर भर में इतने सारे फलदार पेड़ थे कि घरों और मस्जिदों की पहचान ही उन पेड़ों से होती थी। हमारी गली से महज़ एक र्लांग की दूरी पर आबाद गिन्नौरी के इलाके का एक घर ''खट्टे पेड़ों वाला मकान’’ मशहूर था। इस घर में तरह-तरह के पेड़ थे जिनमे से ज़्यादातर खट्टे स्वाद वाले थे। इस घर पे सबसे ज़्यादा पत्थर कम्बरख के पेड़ पर फिकते थे जिसकी शाखें मकान की दीवार से $खूब बाहर तक फैली हुई थीं। बचपन की हदों से गुज़र कर जवान हो चुके या बुज़ुुर्गी तक पहुंचे लोग भले ही मस्जिद की किसी चीज़ को चुराना गुनाह-ए-अज़ीम समझते हों लेकिन बच्चे बेखौ मस्जिदों में लगे पेड़ों से खूब फल तोड़कर खाते थे। मस्जिदों में पेड़ थे भी इरात। यहां तक कि उन मस्जिदों की पहचान ही इन पेड़ों से होती थी। कबीट वाली मस्जिद, रामफल वाली मस्जिद, अरीठे वाली मस्जिद,चमेली वाली मस्जिद और न जाने कितनी। जब कभी किसी के हाथ में कबीट और शरी$फा (सीताल) दिख जाता तो उस पर आवाज़ लगती - ''कों बे, हमको नईं बुलाया तूने। चल इधर ला ज़रा सा।’’

इन सारे कारनामों को अंजाम देने में दोस्तों के बीच इख्तला उस वक्त पैदा होता था, जब कुछ बच्चे मुफ्त का दूध पीने के लिए मचल जाते थे। बुधवारा के चार बत्ती इलाके में शिमला कोठी वाले नवाब रशीदुर्र ज़ख़ान की कोठी लिए ख़ास तौर से लगाई गई मक्खन $फैक्ट्री, ताज डेरी, से निकलकर बहने वाले सप्रेटा दूध को लेकर ख़ासा द्दर रहता था। मक्खन निकले इस दूध को इस $फैक्ट्री से एक परनाले के ज़रिए नाली में बहाने के लिए छोड़ दिया जाता था। इस दूध के इंतज़ार में बच्चों का हुजूम जमा हो जाता था, जैसे ही दूध की पहली धार बहकर आती तो धक्का-मुक्की शुरू हो जाती। शहज़ोर आगे और कमज़ोर पीछे।

हमारे कुछ दोस्त, जिनके लिए दूध बड़ी नायाब चीज़ थी वो, दूध की बहती धार देखकर ललचा ही जाते थे। उस व$क्त हम लोगों में भी बंटवारा हो जाता था। कुछ बच्चे उस धार की तर भाग पड़ते तो कुछ बच्चे दूर से ही खड़े देखते तमाशबीन बन जाते। इस सारी कसरत के बाद फिर जब घर लौटना होता तो सब एक साथ, हाथों में हाथ लेकर, ऊंचे सुरों में कोई न कोई गीत गाते-गुनगुनाते चल पड़ते। इन गीतों में सबसे ज़्यादा पसंदीदा गीत था, ''सालन में बटाटे हैं / अहा, अहा, सालन में बटाटे हैं, खा लो सालों... खा लो सालों।’’ जिस दिन गली में किसी पटिये पर बैठे बद्दू मियां तक गाने की आवाज़ पहुंचती तो उनके चेहरे पर ऐसी $खुशी दिखाई दे जाती मानो आज ख़ुद उन्होने भरपेट रोटी खा ली हो। इसी खुशी में लरज़ती आवाज़ में कहते ''आ गए मेरे शेर, शहर भर से अपना हक लेकर। जीते रहो और जीतते रहो।’’

***

हर रोज़ की धमा-चौकड़ी के बीच एक शाम एक सजी संवरी सी नई साईकल पर सवार एक सजे-संवरे से इंसान की आमद हुई। उस वक्त यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि साईकल ज़्यादा सजी-संवरी थी कि साईकल सवार खुद। हमारे नज़दीक आकर उसने बिना साईकल से उतरे ही एक पैर ज़मीन पर टिकाकर और बिना किसी ख़ास बच्चे को संबोधित किए सवाल किया, ''अरे यह मंगलवारा की मंडी का रास्ता मालूम है किसी को?’’

यह बड़ा अनोखा सवाल था। वजह यह कि मंगलवारा मंडी शहर ख़ास की सील के घेरे के अंदर ही था। कोई सील को पकड़कर चलता चला जाए तो बिना किसी से पूछे मंगलवारा मिनटों में पहुंच जाए। साईकल सवार के इस सवाल से हैरान हम सब के बीच उम्र में सबसे बड़े मंसूर ने अपने पूरे हरामीपन भरे अंदाज़ में पलटकर सवाल दा दिया, ''चिच्चा, आप भी अपनी साईकल की तरियों ही भोपाल में नए मालूम हो रिये हो?’’

साईकल सवार मुस्करा दिया। उसने सिर हिलाकर हामी भरी। ''हां जी श्रीमान, नया हूं। मंगलवारा जाना है। किसी को रास्ता मालूम हो तो बता दो बेटा।’’

इस जवाब पर सारे बच्चे एक साथ हंस पड़े। अवाक से निहारते साईकल सवार को जवाब एक बार फिर मंसूर ने ही दिया, ''चिच्चा, मंगलवारा में तो हिजड़े रहते हैं। वहां क्या काम पड़ गया?’’

मंसूर की बात पर एक बार हंसी के फव्वारे फूट पड़े। साईकल वाले के चहरे पर इस बार खीज और गुस्सा उभर आया और मंसूर को झिड़कते हुए कहा, ''यही सिखाया है मां-बाप ने। हैं? बड़ों से बदतमीज़ी करो?’’

ज्यों ही साईकल वाले ने गुस्से में तमतमाते अपना पैर ज़मीन से उठाकर पैडल पर ले जाने की कोशिश की तो मैने आगे बड़कर कहा, ''भैया, आप यह इधर से मुड़कर, इतवारा चले जाओ। वहां से...’’

मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि साईकल वाले ने चेहरे से गुस्से का मुखौटा उतारकर मुस्कान ओढ़ ली और मुझसे कहा, ''राजा भैया! मुझे तो इतवारा भी नहीं पता।’’

मैंने उसकी तर हैरत से देखा कि इतना बड़ा हो गया और उसे इतवारा तक नहीं मालूम। इस बात पर बाकी सारे बच्चे पेट पकड़कर हंसते हुए एक तर से दूसरी तर होते हुए बिखर गए। साईकल वाले की सूरत पर आए भावों को देखकर मुझे उससे हमदर्दी और दोस्तों पर गुस्सा आने लगा। इसी हमदर्दी में मैने आगे बड़कर रास्ता दिखाने की पेशकश कर दी। साईकल वाला मेरी बात से एकदम $खुश हो गया। उसके चेहरे पर आया शर्मिन्दगी और $गुस्से वाला भाव एकदम मुस्कान में बदल गया। उसने खुश होकर मुझे साईकल के आगे वाले डंडे पर बिठा लिया और पैडल मारकर गाड़ी आगे बड़ा दी।

जिस लम्हे मैं साईकल के डंडे पर बैठा उसी लम्हे मेरे दोस्तों ज़ोर-ज़ोर से हंसने और गालियों से लबरेज़ आवाज़ें कसने लगे। मैं बिना इस सब से विचलित हुए साईकल पर बैठकर रास्ता बताने लगा। गली से मुड़कर साईकल खजूर वाले पीठे और फिर ब्रिजीसिया मस्जिद तक पहुंची तो मैंने ज़ोर से उलटे हाथ पर मुडऩे की आवाज़ लगा दी। मैं घबरा गया था कि कहीं साईकल लत दिशा में न मुड़ जाए सो इसी फ़िक्र और घबराहट में ख़ासी ज़ोर से आवाज़ निकली और साथ ही मेरे मचलते हाथ से हैंडल पर लगी घंटी की चाबी भी दब गई। घंटी की आवाज़ निहायत ही खूबसूरत थी। बाकी आम घंटियों से एकदम अलग। बड़ी संगीतमय आवाज़ जो बजने के बाद काफ़ी देर तक गूंजती भी रही।

इस घंटी की आवाज़ ने मेरा ध्यान इस साईकल की तर मोड़ दिया। एकदम नई कसी हुई गाड़ी। पूरी तरह से लक-दक, दुल्हन बनी हुई। आगे केन की बड़ी स्टाईलिश टोकरी। पहियों के भीतर लगे हुए रंगीन चक्री लगी थी जो पहिये के साथ घूम-घूम कर नाच रही थी। हैंडल पर एक तर पेपर वेट की सी गोल, चमकदार घंटी। दूसरी तर हार्न बजाने का लाल बटन। हार्न का बटन देखकर मुझे एक अजब गुदगुदी सी हुई। साईकल पर हार्न? मन ही मन हंसी आ रही थी। मज़ा भी आ रहा था। सो लाड़ में आकर हार्न वाला बटन दबा ही दिया। सचमुच ही आवाज़ आई - पीं। मैने पलटकर साईकल वाले भैया की तर देखा तो उन्हें हंसी आ गई। बोले, ''शैतानी मत करो। बहुत महंगी चीज़ है।’’ मैने जिज्ञासावश पूछ लिया, ''आपकी साईकल में हार्न कैसे बजता है?’’

साईकल वाले ने कोई जवाब न दिया। मुझे इस साईकल की सवारी में मज़ा आने लगा था। मैने जान-बूझकर सीधे रस्ते की बजाए एक गली से होकर गुज़रने वाला लंबा रास्ता बताकर साईकल उस तर मुड़वा ली। यह एक लंबी और सीधी सी गली थी जिसमे ज़्यादातर मकानों के पिछवाड़े की दीवारें थीं। जब हम मंडी के नज़दीक पहुंचे तो दूर से ही सील दिखने लगी थे। मंडी की चहल-पहल को सामान से लदी बैल गाडिय़ों की आवा-जाही ढक-खोल रही थी। यह मंज़र सामने आया तो मैने हाथ के इशारे से बता दिया कि वो रही मंडी। इस पर साईकल वाले ने अचानक वहीं साईकल को ब्रेक मारा और उसे स्टैंड पर चढ़ाकर कहा, ''ज़रा एक मिनट ध्यान रखना।’’ ऐसा कहकर वो ख़ाली पड़ी उस गली की एक दीवार की तर मुंह करके पेंट के बटन खोल कर पेशाब करने लगा। मैं, पता नहीं किस धुन में इस सारे कारनामे को यूं देख रहा था मानो सर्कस का खेल चल रहा हो।

एक लम्हे में ही पत्थर की चुनी हुई दीवार पर पेशाब की धार ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। सड़क की आवाजाही के नतीजे में ज़मीन से उड़कर दीवार पर जा चिपकी लाल मिट्टी बहकर नीचे आने लगी। यूं लग रहा था मानो कोई $खून मूत रहा है। इस याल से मन में हंसी शुरू हुई जो ज़ब्त की वजह से होंठों तक आते-आते मुस्कराहट में तब्दील हो गई।

मैंने $फौरन नज़रें फेरते हुए अपना ध्यान पास खड़ी साईकल की तर घुमा लिया। ध्यान से देखा तो टोकरी के आगे बैटरी से जलने वाली बत्ती और हार्न का चोंगा भी लगा हुआ था। पिछले पहिये पर डायनेमो भी लगा हुआ था, जो टायर के साथ घिसकर चलने पर बिजली पैदा करता है। मुझे लगा कि यह आदमी तो वाकई सर्कस ही है। उसकी साईकल भी और वह खुद भी।

उधर साईकल वाला दीवार पर जमी मिट्टी की काफ़ी$फाई करने के बाद, उस पर एक अजब सा नक्शा छोड़कर पेंट की जेब से रूमाल निकालने लगा। रूमाल के साथ ही उसकी जेब से निकलकर चवन्नी का एक सिक्का ज़ोर से उछलकर पास ही पड़ी हुई एक र्शी के ऊपर जा गिरा। इस चवन्नी ने मुझे यक-ब-यक दादा के कलदार रुपयों की याद दिला दी। मैं उसे गौर से देखने लगा। यह चवन्नी भी साईकल वाले की बाकी तमाम चीज़ों की तरह अजब अनोखी चीज़ साबित हो रही थी। र्शी पर गिरकर सीधे चित होने की बजाय वह अपने अंदर भरे संगीत के साथ नीचे गिरने से पहले बड़ी देर तक 'डांसकरती रही। साईकल वाला भी शायद पहली बार ही ''चवन्नी डांस’’ देख रहा था। सो उसने भी चवन्नी का पूरा डांस देखा और जब वह थककर पत्थर पर चित पड़ गई, तब जाकर उसने उसे उठाया।

मैं भी इस दौरान रोमांच से भरा इस खेल का मज़ा ले रहा था। खेल देखते-देखते यह चवन्नी मेरे मन को भाने लगी। रोमांच छोड़ मैं उसे लालच और हसरत से भरी नज़रों से देखता, मुस्कराता रहा। मुझे चवन्नी से प्यार सा होने लगा था।

साईकल वाले ने चवन्नी उठाकर ऊपर वाली बुशर्ट की जेब में डाल ली। फिर धीरे से पेंट की जेब में हाथ डालकर उसमे पड़ी रेज़गारी निकाली। उस रेज़गारी में भी अलग-अलग तरह के, छोटे-बड़े सिक्के थे। उसने पहले एक पैसे का छेद वाला तांबे का सिक्का चुनकर हाथ आगे बड़ाया और मेरी तर देखकर मुस्कराया। इसी के साथ उसका हाथ वापस उसी हथेली पर गया जिस पर सिक्के बिखरे हुए थे। उसने एक पैसे का सिक्का हथेली पर छोड़कर एक आने वाला सिक्का उठाया और बाकी सिक्के जेब के हवाले कर दिए।

मैं बुशर्ट की जेब में पहुंच चुकी चवन्नी को निहारते-निहारते, बीच-बीच में साईकल वाले की सारी हरकतें भी बड़ी ख़ामोशी से देख रहा था। तभी साईकल वाले ने बड़े प्यार से वह एक आने वाला हाथ मेरी तर बढ़ाकर कहा, ''यह लो। चाकलेट खा लेना। अच्छी वाली। तुम अच्छे बच्चे हो न। लो’’

इकन्नी वाली इस आवाज़ ने यक-ब-यक चवन्नी के लिए जगे मेरे प्यार को एक झटके में तोड़ दिया। $ख्वाब टूटा तो होश आया। होश ने कहा - बेटा, पाप से बच गया। मैं पराई दौलत से दिल लगा रहा था। मैने इंकार में सर हिलाते हुए एक आना लेने से इंकार कर दिया। अब तक मां इस इकन्नी और मेरे बीच आकर खड़ी हो चुकी थी।’’ कभी किसी से कोई चीज़ मुफ्त में नहीं लेनी चाहिये....’’ साईकल वाला समझाता रहा कि वो यह इकन्नी अपनी खुशी से दे रहा है, लेकिन उस व$क्त ज़मीन पर गढ़ चुकी मेरी नज़रों से वह आदमी, वह गिरी हुई ''डांसिंग चवन्नी’’ और यह इक्कनी सब ओझल थे। जो सुनाई दे रही थी वह थी मां की आवाज़ और जो दिखाई दे रही थी, वह थी मां की सूरत। मैं अड़ गया और आख़िर इस लालच से जीतकर वापस घर की तर पांव-पांव चल पड़ा।

रस्ते भर अभी-अभी गुज़रा हुआ मंज़र आखों के सामने घूमता रहा। चवन्नी का डांस, फिर एक पैसे का गोल सिक्का और फिर वह इक्कनी। चलते-चलते इतवारा वाले अपने पसंदीदा पार्क तक आ पहुंचा तो जी चाहा थोड़ी देर वहां बैठ जाऊं। इस विचार के साथ ही पहले से ही ज़$ख्मी हाथ की उंगलियों में दर्द महसूस होने लगा। चेहरे पर कुछ सोचकर मुस्कान आई और मैं तेज़ी से आगे बड़ता चला गया। सामने नंदा सेठ की होटल थी, जहां समोसे का एक नया घान थाल में जमाया जा रहा था।

समोसे को देखते ही ज़बान पर हरकत हुई। दिल में एक चाह उठी। बस इसी घड़ी खुद पर गुस्सा आने लगा। ''वह इकन्नी मैने क्यों नहीं ली? क्यों छोड़ दी वह इक्कनी? इकन्नी होती तो अभी समोसा खा लेता। इसी के साथ किसी वक्त खाए हुए समोसे के मसालों का स्वाद जीभ पर महसूस होने लगा। बर के लड्डू वाले ख़ानचंद का बर्फ़ की सिल पर चलता उसका रंदा और फिर रंगा-रंग शरबत से भीगा बर का गोला भी दिखाई देने लगा. उसकी आवाज़ भी ज़हन में गूंजने लगी - ''खा लो, पी लो, बर का लड्डू / ठंडा मीठा - बर का लड्डू।’’ अब मेरा मन रोने को होने लगा था। $खुद को तमाचे मारने को जी चाहने लगा। खुद को हज़ार गालियां दे मारीं होंगी। फिर मेरे $गुस्से की धार मां की तर मुड़ गई। ''मां भी क्या-क्या सिखाती रहती है। इस तरह तो मैं ज़िंदगी भर भूखा ही मरूंगा।’’

मां को कुछ बुरा-भला कहने के म$काम पर पहुंचते ही सारे जिस्म में बर्फ़ का वह लड्डू जो अभी तक खानचंद के हाथ में दिख रहा था, अचानक ही पिघलकर मेरे पूरे जिस्म में फैलता हुआ सा महसूस होने लगा। अंदर कंपकपी सी होने लगी। धीरे-धीरे यह कंपकपी शर्मिंदगी में तब्दील होती चली गई। लेकिन इस शर्मिंदगी ने आख़िर-आख़िर में उस साईकल वाले पर गुस्से की शक्ल ले ली। अब मेरे निशाने पर वह साईकल वाला आ खड़ा हुआ था। ''एक तो साले हरामी को दोस्तों की गालियां सुनकर भी इतनी दूर तक छोडऩे आया। रस्ता दिखाया। वापस भी अब पैदल-पैदल जा रहा हूं फिर भी उसने दी तो इक्कनी। चवन्नी तो फौरन जेब में डाल ली.... कितनी सारी तो चिल्लर थी उसकी जेब में। चवन्नी निकली थी तो चवन्नी देता। लेकिन नहीं इक्कनी लो बेटा। चाकलेट खा लेना....हुं... इक्कनी की चाकलेट। हरामी का बच्चा।’’ घर के पास पहुंचते-पहुंचते मेरा पारा उतरने लगा था। मुझे अचानक ही अहसास हुआ कि मैं आज जीत कर घर लौट रहा हूं। इकन्नी जैसी कीमती चीज़ को हराकर आ रहा हूं। यह बात मैं अब सबसे पहले मां को बताऊंगा और फिर उन दोस्तों को जो मुझ पर हंस रहे थे।

गली में पहुंचा तो देखा सारे बच्चे शाम के फैलते धुंधलके में खो-खो का खेल खेल रहे थे। एक घड़ी को मेरा मन भी ललचाया लेकिन अगले ही पल मन में मां से मिलने और उसे सब कुछ सुनाने की उमंग ने इस लालच को भी पछाड़ दिया। मैं ''लालू-लालू’’ की पीछा करती आवाज़ों को चीरता हुआ, तेज़ रफ़्तार से भागता-भागता घर जा पहुंचा।

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