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अदृश्य बिरादरी, अपने देश के ही परदेसी

शिरीष खरे

रिपोर्ताज/धारावाहिक

 

 

कनाडी बुडरुक गांव का तिरमली मोहल्ला

 

'तुम भटकते यहां आए पहुंचे हो तो लौटने के लिए तुम्हारे दिमाग में कोई मकान घूम रहा है! हमारे दिमाग में कोई मकान नहीं घूमा करता था।समझ नहीं आया कि भूरा गायकवाड़ ने मुझसे पूछा था, या वे अपनी धुन में थे।

सर्द हवा और दुर्गम पगडंडियों से होकर मैं एक मोहल्ले पहुंचा था, जिसकी मुझे मुंबई से तलाश थी, जिसे न तो कभी देखा था और जिसके बारे में न ही पहले कभी सुना था। जगह का नाम बताने वाला कोई बोर्ड तो लगा नहीं था, फिर भी एक घुमावदार मोड़ के बाद सतीश ने गाड़ी रोककर ज्यों ही कहा, 'उतरोतो देखकर ही समझ गया। और समय के दस—बारह साल आगे यहां बिताएं कई घंटे कई दिन बन मेरी स्मृतियों के जमघट में ठहरे हुए हैं, एक कहानी की तरह...

...और फिर पलक झपकते ही लगा गिरे धड़ाम से!

नहीं, हम नहीं हमसे कुछ कदम आगे एक गड्ढ़े के पास साइकिल पर सवार दो बच्चे औंधे मुंह गिरे। यह देख सतीश ने फौरन पूरी ताकत से ब्रेक पर पैर दबा दिया। एक जोरदार झटके के बाद मोटर—साइकिल रुकी। मैं उतरकर तब तक उन बच्चों के नजदीक पहुंचता, वे झटपट कपड़ों से धूल साफ करते हुए खड़े हो गए। दोनों के हंसने से लगा शायद उन्हें ज्यादा चोट नहीं लगी है! एक ने साइकिल उठाई और दूसरे ने पेड़ के पास गिरा बड़ा—सा गंज। वे फटाक से साइकिल पर बैठे तो मैंने पीछे से साइकिल को धक्का दे दिया। बच्चे मुस्कुराते अपने—अपने हाथ हिलाते बेधड़क चल पड़े। इस बीच भड, भड, भड, भड की तेज आवाज करती एक बुलेट गड्ढ़े के बाजू से यूं गुजरी जैसे यह भी बस गिरी ही। फिर हमारी मोटर—साइकिल उन बच्चों की साइकिल से कुछ आगे बढ़ी और मैंने पीछे मुड़कर दोनों बच्चों की मुस्कराहटों का जवाब अपनी मुस्कराहट से दिया। दूरी को कोई मोटर—साइकिल तो कोई साइकिल से पाट रहा होता है। लेकिन, कई बार अच्छा लगता है ऐसी पगडंडियों पर मिले और साथ चल रहे लोगों की मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से देने में। और मुझे ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो पगडंडियों से हाथ हिलाते हुए दिलों में उतर जाते हैं। इन्हीं के सहारे ही तो मैंने वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान की न जाने कितनी पगडंडियों पर सवारी की है।

आज 4 फरवरी, 2010 को हमारी सवारी जा रही है कनाडी बुडरुक गांव की ओर। यह गांव महाराष्ट्र में बीड़ जिले के कलेक्टर कार्यालय से कोई सवा सौ किलोमीटर दूर है। लेकिन, हम कोई सवा सौ किलोमीटर दूर सीधे बीड़ शहर से नहीं आ रहे हैं। हमने तो कोई पच्चीस किलोमीटर का फासला तय करने के इरादे से एक सर्द सुबह आठ बजे ही वडा पाव खाकर आष्टी कस्बा छोड़ा है। फिर भी पच्चीस किलोमीटर की दूरी सौ किलोमीटर की दूरी पर कही भारी पड़ गई है। कैसे!

ले—देकर कोलतार की एक नाममात्र की सड़क और उसने भी आधे रास्ते साथ छोड़ दिया। फिर लोग अपनी सहूलियत से एक के बाद एक उबड़—खाबड़ और आड़ी—तिरछी पगडंडियां पकड़ बढ़ रहे हैं। ऊंचे—नीचे खेतों से होकर हमारी मोटर—साइकिल एक साइकिल की सी गति से यूं हिचकोले खाने लगी मानो अब गिरी कि तब गिरी। बहकी—बहकी मोटर—साइकिल चला रहे सतीश ने मुझे आगाह किया, 'आराम से बैठना भाऊ!नया—नया दोस्त सतीश का परिचय बाद में। फिलहाल तो पीछे बैठा मैं पूरी मुस्तैदी, या यूं कहें कि पूरे दम से संतुलन साध रहा हूं। करने को ज्यादा कुछ है नहीं, फिर भी 'आरामकी कवायद में मेरे दोनों पैर पता नहीं क्यों बार—बार, बराबर और एक साथ हवा में तैर जाते हैं! अच्छा तो यह होता कि मोटर—साइकिल की बजाय हम सुबह और पहले पैदल ही चल पड़ते। पांच—दस किलोमीटर की बात होती तो चल भी पड़ते।

जो भी हो, मैंने अपनी असल यात्रा यहीं से शुरू मानी। वजह, इन्हीं पगडंडियों ने मुझे पहली बार मराठवाड़ा के अंदरुनी हिस्सों से परिचय कराया। इन्होंने ही मुझे ठंड के दिनों में सूखे के उन चिन्हों से संकट का अनुमान कराया है जिनके बारे में मैंने पहले सुना भर था। लेकिन, यह यात्रा दुष्कालग्रस्त मराठवाड़ा के बारे में नहीं है। इसकी एक कहानी बाद में। अभी तो मुझे तिरमली नाम का एक मोहल्ला मुंबई से अपनी ओर खींचे ले जा रहा है, जिसका रास्ता रहस्यमयी गुफा या प्राचीन मंदिर की ओर नहीं जाता है, न ही किसी जंगल, पहाड़, नदी और समंदर की तरफ, फिर भी रोमांचित हूं, जिसके चलते मैं मोटर—साइकिल के नीचे पेडल पर ताकत से पैर जमाकर बीच—बीच में दोनों हाथ लहराकर आजाद पंछी—सा उड़ रहा हूं, ऐसे यात्रियों के बारे में सोचकर, जिसके बनने के संघर्ष की यात्रा मेरे यहां आने की यात्रा से कई साल पुरानी, बहुत अधिक लंबी, बहुत ज्यादा मुश्किल, कहीं दिलचस्प और अनंत चुनौतियों से भरी हुई है।

जहां तक मेरी यात्रा की बात है तो यह पच्चीस—तीस घंटे पहले ही चार दोस्तों के साथ एक कार में मुंबई से शुरू हुई। फिर साढ़े तीन सौ किलोमीटर के सफर में पुणे, अहमदनगर को पार करके एक रात आष्टी नाम के एक कस्बे में ठहरी, जिसके बाद आज सुबह बाकी के चार दोस्त उसी कार में बैठकर ऑफिस के काम से लातूर जिले की ओर निकल गए और मैं सतीश के साथ मोटर—साइकिल से इस तरफ बीड़ जिले की इन पगडंडियों पर हिचकोले खा रहा था। हां, सुबह होटल छोड़ते हुए तय यह हुआ था कि तीन दिन बाद मेरे दोस्त इसी मार्ग से आष्टी लौटेंगे तो मुझे भी कार से मुंबई ले चलेंगे।

फिर कनाडी बुडरुक गांव से डेढ़ किलोमीटर पहले ही तिरमली मोहल्ला आ गया, जहां मैं दो दिन और एक रात रुका।

भूरा गायकवाड़ कुछ बता रहे थे कि मुझे उन्हें रोकना पड़ा।

वे अपने घर की दहलीज के भीतर बैठे हमें बता रहे थे और हम उनकी दहलीज के बाहर बैठे उन्हें सुन रहे हैं। वे दो दशक पुरानी संघर्ष की इस कहानी के प्रमुख सूत्रधार हैं। लेकिन, पंद्रह—बीस मिनट में ही मुझे उन्हें रोकना पड़ा। बोलने और सुनने वाले की भाषा एक ही हो तो बड़े इत्मिनान से सब सुना और समझा जा सकता है, पर बात जब दूसरी भाषा में चल रही हो तो हर शब्द और भाव पर बहुत ध्यान देना पड़ता है। मैंने कुछ देर तक तो ठीक यही किया, किंतु बहुत ध्यानपूर्वक सुनने के बाद भी कोई फायदा न होता देख बांई ओर बैठे सतीश को टोका। दीनहीन—सा बोला, 'हा मराठी येत नहीं भाऊ, तुमि जरा मराठी ते हिन्दी करा न!और इसके बाद तो अपना मराठी माणूस सतीश कामचलाऊ हिन्दी में मुझे एक—एककर सारी बातें दोहराता गया।

'भाऊ, दादा बोल रहे हैं पहले हमारी जिंदगी एक तमाशे से ज्यादा कुछ न थी!और फिर सतीश भूरा गायकवाड़ के बताए एक—एक शब्द का मर्म दोहराने लगा। वह दोहराता है कि पहले कैसे ये नंदी बैल का खेल दिखाकर लोगों का दिल बहलाते थे, बदले में खुशी से जिसने जितने पैसे फेंके उन्हें उठाते और उनसे अपने बाल—बच्चों का पेट पालते, लेकिन इससे ये बामुश्किल अपनी भूख ही मिटा पाते थे। नंदी बैल पर महादेव शंकर की मूर्ति लेकर गांव—गांव और शहर—शहर घूमते थे। घर, दुकान, गली—गली भटकते थे। फिर भी न खाने का कोई ठौर था, न पीने के पानी का ठिकाना। इन्हें तो बस्ती वाले किसी एक जगह ज्यादा दिन ठहरने भी न देते थे, इसलिए इनके घर न थे, ये एक जगह रुके ही नहीं तो स्कूल का मुंह देखा ही नहीं, इसलिए न ये पढ़ सके और न इनके बड़े—बूढ़े पढ़ सके।

सतीश को तो इनके सुख—दुख के हर किस्से मुंहजुबानी याद हैं। हो भी क्यों न, क्योंकि कोर्ट—कचहरी में जब जरुरत पड़ी तो सतीश ने हमेशा इनके अधिकारों के लिए पैरवी की। सतीश का पूरा नाम एडवोकेट सतीश गायकवाड़। यह युवक इस इलाके में वंचित समुदायों के हक—हकूक के लिए आवाज बुलंद करने वाले वाल्मीक निकालजे की संगठन 'राजर्षि शाहू ग्रामीण विकास प्रकल्पका कार्यकर्ता है। इस नाते भी सतीश ने इनके संघर्ष को बहुत नजदीक से देखा—जाना है। इसलिए, यहां हर एक के मन में सतीश के प्रति बहुत प्रेम, लगाव और सम्मान है। यही वजह रही होगी कि आष्टी से निकलते समय वाल्मीक निकालजे ने मुझे सतीश की मोटर—साइकिल के पीछे बैठा देखा तो पीठ पर लदे बैग पर हाथ रख कहा, 'अता टेंशन नाहीं

सदियों से नंदी बैल तिरमली घुमन्तू जनजाति के जीने का आधार रहा है। ये बैल लेकर जहां—तहां घूमते रहते हैं, इसलिए घुमन्तू जनजाति के तिरमली को आमतौर पर लोग बंजारा भी कह देते हैं। इसीलिए जाति की सूची में 'घुमन्तूऔर 'बंजारादो अलग—अलग श्रेणियां होने के बावजूद मैं तिरमली को कहीं—कहीं बंजारा कह रहा हूं। खैर, भारत की जाति—व्यवस्था में तिरमली की तरह कई घुमन्तू समुदाय हैं जो पीढ़ी—दर—पीढ़ी दूसरों का मनोरंजन करते रहे हैं। इसके बदले इनके सामने कुछ सिक्के फेंक दिए जाते हैं। जाहिर है कि इन्हें मजदूरी का भी हक हासिल नहीं। कहा जाता है कि तिरमली बंजारों ने कोई आठ सौ साल पहले आंध्रप्रदेश से महाराष्ट्र के पुणे, सतारा, सांगली, कोल्हापुर, जलगांव, औरंगाबाद और बीड़ जैसे शहरों की ओर पलायन किया था। नंदी बैल पर गृहस्थी लटकाना और गाना—बजाना तिरमली बंजारों की पहचान रही है। इसके अलावा तिरमली महिलाएं चूडिय़ां और जड़ी—बूटियां बेचती आई हैं। लेकिन, इनका यही अतीत इनके वर्तमान के सामने अब पहाड़—सा आकर रास्ता रोक रहा है।

वजह, आज के बदलते दौर में एंड्रॉइड मोबाइल, एलसीडी टीवी और एफएम रेडियो ने जब मनोरंजन के परंपरागत साधनों की जगह ले ली है तो तिरमली बंजारों को अब कौन पूछे! ऐसे में इनके लिए स्थायी आवास की सबसे ज्यादा जरुरत है, पर बंजारा अपने ही देश में परदेसी की तरह रह रहे हैं, जिन्हें समाज ने आज तक न सही स्थान दिया है और न उचित मान—सम्मान। घर, बिजली, पानी, राशन, स्कूल और अस्पताल कौन नहीं चाहता! लेकिन, इनके चाहने भर से ये सब नहीं मिल जाता है। आमतौर पर सरकार को इनकी नागरिकता का सबूत चाहिए होता है, एक ऐसे कागज के टुकड़े पर जो सिद्ध करता हो कि वे कहां रहते हैं। अपढ़ बंजारे कभी कागजों से नहीं जुड़े, घुमन्तू परिवार कौन—सा कागज लाकर अफसर के सामने सिद्ध करें कि उनका घर यहां हैं! इसलिए, आमतौर पर इनके पास राशन, मतदाता, पेन, आधार जैसे सिविल सोसाइटी की पहचान बताने वाले नंबर/कार्ड नहीं होते। लिहाजा, अकेले महाराष्ट्र में इनकी कुल आबादी का सही—सही आकड़ा सरकार भी दावे से नहीं बता सकती। सरकार के लिए तो ये खानाबदोश जनजातियां सदा ही अदृश्य रही हैं। ऐसे में मराठवाड़ा के इस इलाके में तिरमली नाम से एक मोहल्ला होना अपनेआप में किसी सुखद समाचार जैसा है।

जरुर ही इस मोहल्ले को मेरे आने की इत्तला दी गई होगी, फिर भी आसपास कुछ लोग हैं जो ताज्जुब से मुझ अजनबी को देखे जा रहे हैं। चाय—पानी से फुर्सत होकर जैसे—जैसे तिरमली मोहल्ले में समय बीता और मोहल्ला देखने की जिज्ञासा हुई तो लोगों से मिलने घर—घर जाना हुआ। इस दरम्यान एक विशेष बात नजर आई। विशेष बात यह कि घास—फूस और मिट्टी से बनीं छोटी झोपडिय़ों के मुंह यानी मुख्य दरवाजे एक—दूसरे के आमने—सामने। मैंने देखा कि इनकी ये झोपडिय़ां एक—दूसरे के बेहद नजदीक या कह लीजिए कि आपस में सटी हुई हैं। ये तिरमली बंजारों की आपसी सहभागिता को दर्शाती हैं। साथ ही मिलनसार जीवनशैली की सूचक हैं। मोहल्ले की गलियां, संकरी, सपाट और साफ—सुथरी हैं। बच्चे हेंडपंप से पानी भरते नजर आए। लोगों की सादगी ने सुदंरता का रुप धर लिया। झोपडिय़ां के पीछे मुझे कुछ और झोपडिय़ां दिखीं, अंदर जाकर देखा तो ये भी हू—ब—हू वैसी ही और उतनी ही बड़ी—बड़ी झोपडिय़ां हैं, अंतर है तो बस इतना कि ये गाय, कुत्ते और बकरियों के रहने के लिए हैं। मेरे जैसे आदमी को बड़ी हैरत हुई कि इनके लिए सबका बराबर महत्व है। यह मोहल्ला इस बात की मिसाल है कि तिरमली बंजारे इंसानों और पशु—पक्षियों में कोई भेद नहीं रखते। असल में इनका जीवन समूह का जीवन है। इनकी सामाजिकता किताबों में नहीं मिलेगी, यह तो इनकी दिनचर्या में शामिल है, देखना है तो इनकी झोपडिय़ों में बैठकर यहां से देखा जा सकता है।

'यहां पचास से ज्यादा झोपडिय़ां हैं, हम कोई साढ़े तीन सौ लोग हैं।यह बात मैंने बाबू फुलमारी से जानी। हम दोपहर के भोजन के समय इन्हीं की झोपड़ी में आ बैठे, जहां विशेष तौर पर बाजरा की भाखरी के साथ बेसन का पेटला हमारे सामने परोसा गया और जिसे चाव से खाते हुए बातों—बातों में मैंने जानना चाहा तो बाबू फुलमारी ने मुझे बताया कि अठारह साल की उम्र के हर आदमी का नाम मतदाता—सूची में शामिल है। नौ पंचों वाली ग्राम—पंचायत में एक पंच इनका है। सभी बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं। इन दो दशकों में कुछ ने पढ़—लिखकर सरकारी नौकरी तक पा ली है। हर परिवार के पास राशन—कार्ड हैं। ये अब अस्पताल सहित कई सरकारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। इनकी माली हालत बहुत अधिक सुधर गई हो तो ऐसा नहीं है। लेकिन, इसमें नया भी कुछ नहीं है। देश के करोड़ों लोगों की तरह यह एक अति सामान्य बात हो सकती है। फिर भी नया तो है ही। नया यह है इनकी दुनिया बेबसी के परंपरागत जाल से मुक्ति पा चुकी है। यह क्या कम असाधारण बात है कि मौजूदा पीढ़ी अब बाकी सामान्य जन की तरह अच्छे भविष्य का सपना संजो रही है!

इसके पीछे मुख्य कारण है वाल्मीक निकालजे की पहल पर स्कूली शिक्षण को ध्यान में रखते हुए यहां कई साल पहले खोला गया 'गैर—औपचारिक केंद्र। यही केंद्र भविष्य के सपना के बीच सीढ़ी का काम कर रहा है। उम्रदराज महिला साहिबा फुलमाली इस केंद्र से पढ़ाई करने वाले सब बच्चों को जानती हैं। उन्होंने कई बच्चों को केंद्र से कॉलेज की दहलीज तक जाते देखा है। इस बारे में जब हमने साहिबा से बात की तो साहिबा की आंखें चमक गईं। बोलीं, यह सवाल तो आज तक किसी ने उनसे पूछा ही नहीं। फिर भी जवाब हाजिर— इतने सालों में कई बच्चे अब रमेश फुलवारी और रामा फुलवारी से भी आगे निकल जाना चाहते हैं। रमेश फुलवारी पुलिस में है और रामा फुलवारी राज्य परिवहन बस की कंडक्टर है। नई पीढ़ी के कई बच्चों के लिए ये रोल मॉडल हैं। साहिबा फुलवारी के शब्दों में, 'अब हम निडर, पढ़े, संगठित हैं। अपने अधिकार के लिए बीड़ से बंबई तक लडऩे वाले हो गए हैं।जाहिर है साहिबा एक जागरुक महिला हैं। एक पीढ़ी के अंतराल ने बहुत कुछ बदल दिया है। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण है आत्मनिर्भर और आत्म—सम्मान का जीवन।

जैसे—जैसे मैं इनकी बदलाव की बातों से वाकिफ होता गया वैसे—वैसे मेरे जेहन में एक सवाल घर बनाता गया कि आखिर यह सब हुआ कैसे?— 'खैरात देने—लेन के रिवाज पर चोट किए बगैर क्या कुछ हो पाता? हमने बार—बार चोट मारी।यह जवाब है सतीश गायकवाड़ का, बात सही है लेकिन मुझे मेरा जवाब अब तक नहीं मिला। मेरा कहना है कि इस तरह की सभी परिस्थितियों के खिलाफ दो दशक पहले वह कौन—सी विशेष घटना घटी जिसने हाशिए के लोगों को आगे लाकर खड़ा कर दिया। इनकी आज की स्थिति के पीछे कौन—से बाहरी कारक या ताकत है जिसने इन्हें उन नारकीय दिनों से बाहर खींचा। सवाल है कि जो लोग इन्हें बस्ती के बाहर ज्यादा दिन ठहरने नहीं देते थे और जिस सरकार के लिए ये सदा अदृश्य ही रहे तो ऐसे असंवेदन स्थिति में तिरमली बंजारों के जीवन में आशा की किरणें फूटीं कैसे?

जब मैं इनके साथ सवालों से जूझा तो एक नई कहानी खुल गई। मुझे पता चला कि दो दशक पहले तिरमली बंजारों ने अपने बदलाव की बड़ी कीमत चुकाई थी और इसके लिए बड़ी लड़ाई लड़ी। ये बताते हैं कि एक पीढ़ी पहले तात्या यानी वाल्मीक निकालजे की अगुवाई में इन्होंने इसी गांव के नजदीक की डेढ़ सौ एकड़ खाली पड़ी बंजर जमीन पर सामुदायिक खेती करने का फैसला किया था। लेकिन, बीज रोप देने के कुछ दिनों बाद गांव की दबंग बिरादरी वालों ने इन पर जानलेवा हमला कर दिया। फिर भी तिरमली बंजारों के मन में रोजीरोटी के स्थायी साधन की उम्मीद इस तरह बैठ गई कि ये हर अन्याय के विरोध में एकजुट खड़े रहे। ये लड़ाई लड़े, जीते, और इनकी यह जीत आजादी की जीत के बराबर सिद्ध हुई।

अब मेरे लिए यह जानना जरुरी हो गया कि जमीन के रास्ते इन्होंने आखिर कैसे जाति की जड़ों को काटकर अपना पता हासिल किया और अपनी पहचान बनाई? किस तरह से बंजर जमीन पर फसल उगाई? ऐसा इसलिए कि तिरमली बंजारों ने इसके पहले कभी खेती नहीं की थी।

लेकिन, पूरा दिन कुछ—कुछ जानते—समझते सांझ घिर आई। हाथघड़ी में घंटे का कांटा सात पार कर गया। मेरे पास आज के रात्रि—विश्राम के अलावा कल का दिन भी तो है। फिर इन्हें मुझसे बातें करने के अलावा भी तो कई काम हैं। और इनके मेहनत के खेतों में जाए बगैर इस बारे में लंबी—लंबी बातें हांकने का भी भला क्या मतलब! इसलिए, भूरा गायकवाड़ के यहां भोजन करने के बाद पूरी रात दो कंबलों के भीतर अपनी टांगों को सीधा करने और अपनी कमर को आराम देने में बीत गई। सुबह खेतों में जाने की बात सोचकर नींद टूटी।

***

सबेरे—सबेरे साढ़े नौ बजे काली—कड़क चाय पी और फिर हल्की दोमट मिट्टी के खेत से चलकर बाबू फुलमारी के साथ चार बच्चे, तीन महिलाएं, सतीश और मैं एक पक्के कुएं के पास आकर ठहर गए। कुएं की सफेदी को ढंकती पीली और काली रंगों की मोटी परतों से लगा कि यह कुंआ कोई दस—बारह साल पुराना तो होगा ही। कुएं के मोटरपंप से जुड़े काले पाइप से होकर जब मेरी आंखें पानी तलाशने के लिए कुएं की गहराई में गईं तो पानी की सतह हद से ज्यादा नीचे दिखी। कुंआ जितना गहरा जैसे पानी उतना ही उथला। इसी बीच एक बच्चे ने इसमें पत्थर फेंका तो इसी गहराई में पानी की लहरे कुएं के वृत्ताकार कोरों से टकराने लगीं। मैंने बदन पर सफेद कुर्ता—पजामा, सिर पर सफेद मराठी स्टाइल टोपी और चेहरे पर सफेद दाढ़ी—मूंछों वाले बाबू फुलमारी की कंचे—सी काली आंखों में झांका, पानी की लहरों की तरह कई विचार उनके बहुत भीतर तैरने लगे, वे देर तक इधर—उधर से खेत देखते रहे, और मैं बिजली के खंबों के तारों से उडऩे वाली उन चिडिय़ों को जो आज सुबह आकाश में यहां से वहां खूब उडऩे के बावजूद आंखों से ओझल नहीं हो पा रही थीं। 'यहां इतने पत्थर थे कि नए आदमी को बताओ तो माने भी न!मेरे पीछे खड़ी महिला ने मेरा ध्यान तोड़ा। वे बच्चों को बताने लगीं, 'ये पत्थरों की जमीन थी, जिस पर सबसे पहले ज्वार उगाया।

—'कितने साल पहले?’ मैंने बाबू फुलवारी से पूछा।

— 'पच्चीस साल पहले, पर इस जमीन से हमारा नाता इससे कहीं ज्यादा बहुत पुराना है। असल में मैं तुमको बताऊं, हम और हमारे पुरखे गाय—बैल बेचने का धंधा करते थे। जैसे पंद्रह हजार का कोई बैल बीस से पच्चीस हजार तक में आसपास के किसी गांव में बेच दिया। इसके लिए हम गाय—बैलों को इसी जमीन पर चराते थे। हमारे पुरखे घूम—फिरकर आते यहीं थे। फिर हम लोग चारे का धंधा भी करते थे। इसलिए, हममें से कुछ लोग यहीं रुके रह जाते थे।

जमीन से यही पुराना रिश्ता आखिर इनके काम आया। दरअसल, वर्ष 1991 से पहले महाराष्ट्र में जो लोग ऐसी जमीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं उन्हें सरकार जमीन का पट्टा देती है। यह बात इन्हें वाल्मीक निकालजे और उनके कार्यकर्ताओं के साथ एक बैठक में पता चली। यह बैठक यहीं इसी जमीन पर बैठकर हुई थी। तय हुआ था कि जमीन का पट्टा पाने के लिए एक अर्जी कलेक्टर को भेजी जाए। पर, सवाल था कि आखिर इस बंजर जमीन पर किया गया जाए? फिर एक दिन सबने मिलकर ठाना कि खेती करेंगे! जमीन से पत्थर निकालकर यहां खेत बनाएंगे! 

'पर, हमारी तो पत्थर बीनने में ही हालत खराब हो गई!

महिला बहुत देर से गोद में लेने की जिद कर रहे एक नन्हे बच्चे को उठाकर बोलीं। मुझे ध्यान आया मैंने इनका नाम नहीं पूछा। लेकिन, फिर इस बीच बाबू फुलवारी बताने लगे कि खेतीबाड़ी का काम तो हमने कभी किया ही नहीं था। फिर हमारे पास हल, कुदाली और फावड़े भी नहीं थे। समझ आ गया कि बीज उगाना आसान काम नहीं होता है। यह बहुत मेहनत करने वाले लोगों का काम होता है। खेती—किसानी हमें सीखनी ही थी। और कोई चारा न था। यहां के गांव वालों से हमारी इस जमीन को लेकर अनबन चल रही थी तो हमने यह सब सीखने के लिए पड़ोसी गांव के दलित किसानों से गुहार लगाई। वे भले लोग हमारी बात मानें। हमें कुदाली—फावड़े चलाना सिखाया। इसके लिए हम उनके खेतों में जाते और वहीं बीज रोपना सीखते थे। हमारे बैल खेतों के रास्ते चलने लगे। इसके बाद कुछ कार्यकर्ताओं ने हमारे लिए मुहिम चलाई। इस मुहिम में हमें बत्तीस कुदालियां और चौसठ क्विंटल ज्वार के बीज मिले। हमारी आंखों में आंसू थे। खुशी के आंसू!

तुम पूछोगे बत्तीस कुदालियां ही क्यों?

(हंसते हुए) तब हमारे बत्तीस परिवार थे। मतलब हर हाथ के हिस्से एक कुदाली और दो क्विंटल बीज आए। हम सभी मर्द—औरत अपनी जमीन को जल्द ही हरा—भरा बनाने रात—दिन जुटे रहते और पास ही डेरा डालकर रखवाली किया करते।

...इनके नंदी बैल सही रास्ते चल रहे थे और इनके पांव भी। लेकिन, असल मुश्किल तो अब आनी थी। आई—

बुआई के पंद्रह दिन भी न बीते थे कि एक सुबह गांव के सैकड़ों लोगों ने तिरमली डेरे पर हमला बोल दिया। हमला करने वालों में ज्यादातर दबंग जाति के लोग थे। लोगों ने निहत्थे बंजारों पर जमकर लाठियां चलाईं, पैरों को पकड़—पकड़कर देर तक खसीटते रहे। यहां तक कि बुजुर्ग और बच्चों को भी न छोड़ा, फिर भी रवि जगताप नाम का एक बच्चा नजर बचाकर भाग निकला। यह बच्चा अब बड़ा हो गया है। तब यह भागते—भागते पांच किलोमीटर दूर शिराठ गांव पहुंचा। वहां संगठन के कार्यकर्ताओं तक सूचना पहुंचाई। फिर कुछ कार्यकर्ता पुलिस के साथ पहुंचे। सभी घायलों को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया।

इसके बाद थाने में प्रकरण दर्ज हुआ और आष्टी तहसील कार्यालय के सामने कई दिन सत्याग्रह चला। इसमें आसपास के दलित सहित अन्य जनजातियों के हजारों लोग शामिल हुए। दबाव में पुलिस ने कई आरोपितों को हिरासत में लिया। अखबारों में खबरे छपीं तो दूर—दूर तक संदेश पहुंचा। तिरमली बंजारों को भी संगठन की ताकत समझ आ गई। तब शिराठ गांव के कई युवक रात में तिरमली मोहल्ले की रखवाली करने आते।

आखिर में तिरमली बंजारों और गांव की दबंग लोगों के बीच समझौता हुआ। उन्होंने बंजारों को फिर कभी न सताने का वादा किया। वे आज तक अपने वादे पर कायम हैं।

मैंने खेत से तिरमली मोहल्ले की तरफ मुंह किया तो मिट्टी की हल्की लालिमा के प्रभुत्व के बीच सीमेंट के सफेद—छोटे मकाननुमा ढांचे दिखाई दिए। तिरमली महिलाएं यहां प्याज आदि फसलों को काट—छांट, साफ करके सुरक्षित रखती हैं। हमारे साथ आई मंडली घूम—घूमकर बताने लगी कि खेतों में ज्वार, बाजरा, प्याज और टमाटर उगाते हैं। अब सब खेत से मोहल्ले के रास्ते लौटने को हुए तो मालूम हुआ ये लोग आज भी समूह में ही खेती करते हैं, पक्के कुएं पर सभी का हक है। पैदल आते समय भले ही यह निर्जन रास्ता ज्यादा ही छोटा लगा हो, पर अब तक मैं यह जान चुका हूं कि पच्चीस साल में इस रास्ते से यहां की रंगत और सूरत ही नहीं बदली दो जून की रोटी और उज्जवल कल की उम्मीद में एक दुनिया की दिशा बदली है। यह तभी संभव हुआ जब इन्होंने संगठन की ताकत समझी। सबने मिलकर न केवल जमीन तलाशी, बल्कि इसे पाने के लिए सबने मिलकर जातीय सत्ता की भाषा और हिंसा के खिलाफ मुकाबला किया। हालांकि, हमारा कानून हर नागरिक को आजीविका का अधिकार देता है। लेकिन, इन्हें यह अधिकार पाने में आजादी के बाद चार दशक लग गए।

इस बीच मोबाइल पर देर तक व्यस्त सतीश को कुछ काम समझ आया तो उसने मुझे आष्टी चलने के लिए कहा। लौटने को हुए तो अपने इस मेहमान को विदा करने आधा मोहल्ला बाहर निकला। यहीं पहली दफे गौर किया कि उनके साथ चले आए झब्बेदार काले बाल और लंबी—मोटी पूछ वाले कुत्ते आम कुत्तों से अलग हैं। सतीश ने बताया कि ये शिकारी कुत्ते हैं। वैसे शिकार—विकार कोई नहीं करता। विदा लेने के लिए मैंने हाथ हिलाया तो सब लोगों ने हाथ हिलाया। मुस्कुराते चेहरों को मुस्कुराहट से जवाब दिया। फिर उसी घुमावदार मोड़ से मुड़कर हमारी मोटर—साइकिल आष्टी की ओर जाने वाली कष्टप्रद पगपंडियों पर लौटने लगी।

और रोमांच, उत्तेजना, जिज्ञासा, बैचेनी, विचार, जद्दोजहद, आशा, साहस, संबंधों का एक मोहल्ला पीछे छूट गया।

***

पुनश्च:

कष्टप्रद पगडंडियों से कहीं अधिक कष्टप्रद है उन्हीं पंगडंडियों से वापसी और उन्हीं दृश्यों को देखना जिन्हें कुछ घंटे पहले ही देखा था। आबादी के अनुपात में आसपास के दोनों छोर बहुत ज्यादा खुले—खुले दिख रहे हैं। एक—दूसरे से दूर—दूर इन बसाहटों को गूगल—मेप से देखने पर तिरमली मोहल्ला शायद ही दिखे। अनुमान है कि देश में करीब दौ सौ घुमन्तू और बंजारा जनजातियां हैं। अनुमान है कि भारत की धरती पर पंद्रह करोड़ से भी अधिक घुमन्तू, अर्ध—घुमन्तू और बंजारे हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस महादेश की सामाजिक संरचना में व्याप्त भेदभाव और ऊंच—नीच इनकी राह के सबसे बड़े रोड़े हैं। इसलिए, इनमें से कुछ मुख्यधारा में शामिल भी होना चाहें तो उन्हें शामिल नहीं दिया जाता, जबकि पंद्रह करोड़ की दुनिया को बहिष्कृत बनाए रखे कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता।

ऐसे में साढ़े तीन सौ की आबादी वाला तिरमली मोहल्ला बदलाव का छोटा—सा बिन्दु दिखाई देता है, जबकि तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि ज्यादातर तिरमली लोग नंदी बैल के सिर पर महादेव शिव की मूर्ति, गले में घंटियां और कमर पर रंग—बिरंगे कपड़े बांधे आज भी मटमैली दुनिया में जी रहे हैं। गर्मियों में खुले मैदान तो बारिश में रेल और सड़कों के पुल के नीचे गुजारा कर रहे हैं। इनके पास नौकरी और दुकान तो दूर, एक हफ्ते का राशन भी मिल जाए तो बड़ी बात। ज्यादा राशन ढोकर फायदा भी क्या, क्योंकि ये अपने भरे—पूरे परिवार के साथ बच्चों को लादे कई—कई मील भटकते हैं, जबकि मैं आज बीस किलोमीटर की ही इस कठिन यात्रा में पस्त हो चुका हूं। मेरे मन में इनके पैरों की तकलीफ और अधिक बढ़ गई।

मुझे लगता है कि कनाडी बुडरुक गांव के तिरमली मोहल्ले की यह यात्रा बदलाव की तो है ही, किंतु यह बदलाव के लिए अपनाए जाने वाले जरुरी उपायों को समझने में कारगर साबित हो सकती है। मैं यह सोचता हूं कि इस तरह के संघर्ष की हर यात्रा सामाजिक व्यवस्था की अंदरुनी तहों के नीचे पाई जाने वाली अमानवीयता से होकर गुजरती है। लिहाजा, घुमक्कड़ तिरमली की कहानी इसी अमानवीयता को समझने का स्त्रोत बन सकती है।

'...तो लौटने के लिए तुम्हारे दिमाग में कोई मकान घूम रहा है!

यकायक भूरा गायकवाड़ के ये शब्द मेरे कानों से टकराए। सच ही तो कहा था उन्होंने। हर यात्रा में एक मकान होता है, उसकी चारदीवारी यात्री को अपनी ओर खींचती है। मकान में भी एक यात्रा चल रही होती है। इन बाहरी—भीतरी यात्राओं ने कुछ साल में ही बदलकर रख दिया है मेरे वर्तमान को। यात्रा पूरी करके मकान की तरफ लौटना किसी किताब को पूरा पढ़ लेने जैसा इत्मीनान देता है। एकदम नहा—धोकर बदला—बदला लगने जैसा। जैसा कि थकान के बावजूद अभी इस समय। किन्हीं को किताबें व्यापकता की ओर ले जाती होंगी, मुझे इस तरह की यात्राएं। यह और बात है कि यात्राओं से लौटते हुए मेरे शहरों के मकान बदल जाते हैं। मेरा पता बदल जाता है। भोपाल, दिल्ली, बड़वानी या मुंबई के किराए के मकानों के पते बदल जाते हैं। फिर भी उन दीवारों पर मेरी कई यात्राओं की यादें अंकित हैं। यह सिलसिला जारी है। शायद कभी न रुके। आखिर मुझे मेरे गांव का मकान याद आता है, और फिर उसकी घपरैल वाली छत, बागीचा, लोहे का नीला झूला, हरा गेट और बाहर कोलतार की काली सड़क से बांई तरफ जाती वही लाल रंग की बस जिस पर चढऩे के बाद अब तक कई दिशाओं में घूम रहा हूं। यात्रा वृतांतों के बीच मुझे अपना मकान अब संस्मरण लगता है।

अंत में बस इतना कि जब तक दाढ़ी—मूंछ नहीं आई थी तब तक अकेले घूमने की हिम्मत न हुई थी और अब इतना बड़ा हो गया हूं तो भी कहीं निकलने पर लगता है बैग में कोई सामान रखना भूल गया हूं। इसी तरह, यात्रा से लौटते समय लगता है कोई नायाब किस्सा मिस कर आया हूं। आष्टी दिखने लगा तो सतीश ने बताया कि बालीवुड फिल्मों का शौकीन होने के कारण हिन्दी समझ तो आती है लेकिन बोलने से पहले बहुत सोचना पड़ता है।

आष्टी में वाल्मीक निकालजे उर्फ तात्या से उनके कार्यालय में मिला। पचास की उम्र पार चुके तात्या ने बताया, 'यह बदलाव स्थायित्व के लिए है। जमीन स्थायी आवास की नींव बनती है, जमीन ही आर्थिक संबल का औजार होती है और गांव के परिवेश में जमीन ही आत्म—गौरव का प्रतीक होती है। इसलिए, हमने सामाजिक न्याय की इस लड़ाई को जमीन पर केंद्रित रखा। नतीजा आप देखकर ही आ रहे हैं।

तात्या ने बताया कि तिरमली सवई नाम का वाद्ययंत्र बहुत बढिय़ा बजाते हैं, कई पीढिय़ों से इसे बजा रहे हैं। मुझे लगा, लौटते समय मैं फिर एक नायाब किस्सा मिस कर गया!

 

 

संपर्क — मोबाइल: 9421775247, ई—मेल: shirish2410@gmail.com

 


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