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मेरे इतिहास में आनंद नहीं क्रन्दन की ध्वनि है : रणजीत गुहा

प्रस्तुति : हरिहर वैष्णव

सुप्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार

रणजीत गुहा से हरिहर वैष्णव की अनौपचारिक बातचीत

 

 

  

हरिहर वैष्णव : आदरणीय गुहा जी, जैसा कि इस युनिवर्सिटी के डॉ. क्रिस ग्रेगोरी ने हमें बताया कि आपने भारतीय इतिहास और दर्शन आदि पर काफी कुछ लिखा है। हम इसी सिलसिले में चर्चा करेंगे। दादा, आपने बंगाल कब छोड़ा? मतलब, कब से बाहर हैं, आप?

 

रणजीत गुहा : बंगाल ----- कलकत्ता------- बहुत बरस हुआ मैंने कलकत्ता छोड़ दिया। उन्नीस सौ सैंतालीस से बावन तक मैं योरोप में था। फ्रान्स और योरोप में था। उसके बाद मैं वापस गया कलकत्ता। बावन से उन्सठ तक मैंने कलकत्ता में अध्यापन किया। उसके बाद उन्सठ से अस्सी तक विलायत में था। अस्सी से यहाँ, ऑस्ट्रेलिया में हूँ।

 

हरिहर वैष्णव : आप फ्रांस, हंगरी, इंग्लैंड वगैरह में रहे। वहाँ आप किस सिलसिले में रहे?

 

रणजीत गुहा : पहले दफे पांच बरस, सैंतालीस से बावन तक, मैं फ्रांस और योरोप के अन्य देशों में था। वहां मैंने राजनैतिक काम किया। मैं कम्युनिस्ट हूं। वहां नौजवानों का संगठन था। मैं वहाँ भारत का प्रतिनिधि था। सन् 47 से 52 की बात है यह। उस समय मैं युवा था। अभी तो मैं 68 वर्ष का हूं। इसके बाद मैं भारत वापस हो गया। 1956 में मैंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी। कारण, रशिया की पॉलिसी ऐसी थी। उसने हंगरी पर आक्रमण किया। इसी के प्रतिवाद में मैंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ी। वापस आ कर मैंने कलकत्ता में अध्यापन किया। मेरे अध्यापन, मेरी गवेषणा का नया रास्ता बनाने की मैंने कोशिश की। मैंने नए किस्म से भारत का इतिहास लिखने का उद्योग किया था। उस समय मैं युवा था। बड़े-बुजुर्गों ने मेरे प्रयास में मेरी कोई सहायता नहीं की। 1959 में युनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर से मुझे एक प्रस्ताव..... एक फैलोशिप मिली। मैं भारत छोड़ कर इंग्लैंड चला गया। वहां 1980 तक रहा। शिकागो में रहा। 1980 में ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के निमंत्रण पर यहां रिसर्च करने के लिये चला आया। तब से यहीं हूँ। एक समय मैं विप्लवी था। लेकिन  जिस दल के साथ मिल कर मैंने विप्लव किया, वह दल... वह राजनीति गंदी हो गयी। हमने वो राजनीति छोड़ दी। लेकिन जो राजनीति है, जो उद्यम है, जो देश-प्रेम है.... ये सब मैंने भारतवर्ष का इतिहास लिखने के उद्योग में नियोग किया। एक नये तरीके से इतिहास लिखने की कोशिश की। इस कोशिश में मैंने बहुत से नवजवानों, इतिहासकारों और अध्यापकों को इकठ्ठा करके एक मोर्चा बनाया। इस मोर्चा का नाम है, ''सबाल्टर्न स्टडीज़’’। हिन्दी में ''निम्न वर्गों के प्रसंग’’

 

हरिहर वैष्णव : इसकी ज़रूरत आपने क्यों महसूस की?

 

रणजीत गुहा : इस मोर्चा का मूल मतलब ये है कि भारतवर्ष का जो इतिहास आज तक लिखा गया है, वह सब उच्च वर्ग की दृष्टिभंगी से हुआ। उच्च वर्ग में..... ऊपर वाली जाति, श्रेणी, सरकार, साम्राज्यवाद..... आदि की दृष्टिभंगी से इतिहास लिखा गया। मैंने एक नये किस्म का जो अनुसंधान शुुरू किया, उसका नायक है, निम्न वर्ग। यह निम्न वर्ग है कृषक, मज़दूर, आदिवासी और नारी। ये हैं चार मेरे हिन्दुस्तान के निम्न वर्ग। नारी, जिसके ऊपर पुरुष का अत्याचार, आदिवासी..... जिसके ऊपर हिन्दू-मुसलमान.... सब उच्च वर्ग का अत्याचार होता है। मज़दूर के ऊपर मालिक का और कृषक के ऊपर ज़मींदार का अत्याचार होता है। हमने ये चार जो निम्न वर्ग हैं, इसके लिये एक नया अनुसंधान शुरू किया। इस अनुसंधान का फल ''सबाल्टर्न स्टडीज़’’ नाम की यह पुस्तक आपके हाथ में है। इस पुस्तक के छह खण्ड हैं। मेरे साथियों ने भी इसी दृष्टिभंगी से पुस्तकें लिखीं। मैंने भी। इस पुस्तक का नाम है, ''एलीमेन्ट्री ऑस्पेक्ट्स ऑफ पीजेन्ट्स इनसर्जेन्सीज़ इन कॉलोनियल इंडिया’’। इसका हिन्दी अनुवाद होगा, ''अंग्रेज़ी शासन में भारतवर्ष में कृषक-विद्रोह के इतिहास का मूल प्रसंग’’। इस किताब में मैंने चासियों और आदिवासियों का इतिहास लिखा है। संथाल, मुंडा, कोल, भील... ये सभी आदिवासी जनता, जिसने 200 वर्षों तक अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया था, मैंने उसका इतिहास लिखा है। यह इतिहास नया नहीं है। कितने ही लोगों ने ऐसा इतिहास लिखा है। शासकीय और अन्य प्रतिष्ठानों के सहयोग से ऐसे इतिहास लिखे गये हैं। लेकिन इस इतिहास की दृष्टिभंगी अलग है। यह उच्च वर्ग-विरोधी है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि भारतवर्ष के राष्ट्रीय जीवन, समाज-जीवन का मूल निर्देश उच्च वर्ग की बुद्धि या मानस से नहीं आता। भारतवर्षीय जीवन का मूल आधार है, निम्न वर्गीय जीवन। जितना इतिहास लिखा हुआ था आज तक, वह इतिहास उच्च वर्ग के जीवन का था। मैंने एक नया इतिहास लिखा। ये है आदिवासियों, कृषक, मज़दूर और नारी का इतिहास। इस प्रसंग को विस्तारपूर्वक लिखने हेतु केवल विद्रोह का इतिहास लिखना काफी नहीं क्योंकि जनता, निम्न वर्ग की जनता, ये तो हर रोज विद्रोह नहीं करती। हम शांति से जीवन बिताते हैं। इस जीवन में बहुत-से उपादान ऐसे हैं, जिन्होंने भारतवर्षीय चिन्ता, कर्म, अस्तित्व के रस का संचार किया। इसलिये हमने खाली चासियों और मज़दूरों की कहानी नहीं लिखी। हमने कोशिश की, लेकिन थोड़ी, कि आदिवासियों और कृषकों के जो विश्वास.... धर्म विश्वास..... उनके प्रत्यय, उसकी कल्पना...... पुराण-इतिहास का उसका मानस, ये भी..... इसके लिये भी कुछ स्थान इस इतिहास में किया। ऐसी कई गवेषणाएं इस पुस्तक में हैं। इसके अन्दर एक कहानी मैंने लिखी। राहू जो होता है, जो सूरज और चाँद को ग्रसता है, इसकी कहानी मैंने लिखी। पौराणिक नहीं। ये कहानी ब्राह्मण की नहीं, निम्न वर्ग की है। मैंने अपने प्रबन्ध में दिखाया कि ये कहानी कैसी थी? चासी, आदिवासी, डोम, कोल..... अछूतों ने राहू को देवता माना। पुराण में ब्राह्मण के मानस से राहू की छवि असुर की है। दोनों में अन्तर है। मैंने यह बताने की कोशिश की कि राहू का क्रम-विकास निम्न वर्ग के मानस में ऐसे हुआ कि उसकी कल्पना में राहू उच्च वर्ग का विरोधी हुआ। ब्राह्मण कहता है, राहू असुर है। लेकिन मेरे प्रबन्ध में निम्न वर्ग की दृष्टिभंगी से राहू असुर नहीं देवता है। मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि दुनिया उलट गयी लेकिन हम लोग यानी निम्न वर्ग.... अपने बाहुबल से दुनिया को नहीं उलट सकते। क्योंकि निम्न वर्ग का बाहुबल काफी नहीं है। लेकिन निम्न वर्ग के दु:ख से, उसकी भूख से, उसकी आँखों के पानी से, उसके हृदय के दर्द से एक भाषा तैयार हुई है, जिसमें एक नया पुराण लिखा गया। इस पुराण में मैंने उच्च वर्ग के असुर को सुर बनाया। ये है सामान्य निर्देश मेरे अनुसंधान का।

 

हरिहर वैष्णव : दादा, आपने बंगला में लिखा कुछ?

 

रणजीत गुहा : हाँ, मैंने बंगला में लिखा। अंग्रेज़ी में कोई ज्यादा नहीं लिखा। बंगला में आज भी लिखता हूँ। हम बंगाली है। हम भारतीय हैं। हमारी चिन्ता की भाषा भारतीय है। मैंने एम.ए. तक की शिक्षा कलकत्ता में पायी। विदेश की कोई डिग्री मेरे पास नहीं। मैंने विदेश में अध्यापन किया। लेकिन मैं एकदम भारतीय हूं। मैं बंगाली हूं। मैंने विदेश में अध्यापन किया लेकिन मैं एकदम भारतीय हूं। मैं साहेब नहीं हूँ। मेरे मन में एक आक्रोश है। आप मेरे छोटे भाई की तरह हैं। मेरी उम्र 68 वर्ष हो गयी है। दो-तीन साल में मेरा इंतकाल हो जायगा। मेरे मन में आक्रोश है। हमारा देश..... लाखों-लाखों बरस पुराना देश, लाखों-लाखों बरस पुरानी सभ्यता। कोटि-कोटि लोगों की जन्म-स्थली। इस महादेश में, इसका अतीत और वर्तमान..... इनकी जो व्याख्या होती है..... उसमें..... इसका जो मनश्चित्र लिखा हुआ है.... उसमें हम खाली दो-तीन बड़े आदमियों के चित्र देखते हैं। गांधी-नेहरू। एक दादा एक पार्टी का लीडर........ काँग्रेस हो, या बीजेपी हो या कि कम्युनिस्ट पार्टी का हो..... यही बड़े आदमियों के चित्र देखते हैं। मेरा आक्रोश है कि जो कोटि-कोटि भारतीय, जो इस महादेश के हैं, वे कहाँ गये? हमारे देश के पुराने-से-पुराने आदिवासी.... संथाल, कोल, मुंडा, भील...... ये कहाँ गये? जो कोटि-कोटि कृषक, कारीगर..... वे लोग कहाँ गये? खाली गाँधी, खाली नेहरू! इनको हटा कर एक नया चित्र बनाना चाहिये। हमें नया चित्र सामने रखना है। हमारा उद्योग यही है। इसमें सफल होना बहुत मुश्किल है। मैं दु:खवादी हूँ। मैं आनंद भी देखता हूं, दु:ख भी देखता हूं। हमने दोनों देखा है। लेकिन मैं मनुष्य जाति के अदृष्ट भाग्य में दु:ख देखता हूं। निम्न वर्ग की जय पुकारने के लिये किताब लिखना, अनुसंधान करना, अध्यापन करना.... ये एक अलीक आकाश-कुसुम है। ये कभी सफल नहीं होगा। लेकिन संग्राम चलाना चाहिये। सफलता मिले या न मिले, संग्राम करना है। इसलिये आपका जो काम है, उस काम में आपको जो आनंद होता है..... उस काम में भी एक उपादान है वो आक्रोश। आप जो बस्तर का पुराना शिल्प यहाँ दिखा रहे हैं, वहाँ के लोक साहित्य की जो बात कर रहे हैं, ये आनंद है। आनंद होता है दु:ख से। मेरे मन में जो सहानुभूति है, उसके भीतर एक क्रोध है। इसलिये मैं आपके साथ एक होना चाहता हूँ। इससे ज्यादा मैं कुछ बोल नहीं सकता।  मेरे मन में तिक्तता है। सुख नहीं है। ये हमारा महादेश, महाजाति, महासभ्यता.... इसे क्या हुआ आज? क्या किया हमने? पहले अँग्रेज थे। अब नहीं हैं। हम शिल्पी, साहित्यकार, अध्यापक हैं। हम फेरीवाले के माफिक बेचने-खरीदने आये हैं। यह गरीबी है। इसी बात का मुझे दु:ख है। मैं यही दु:ख लेकर मर जाऊँगा। मैंने अपने इसी आक्रोश को अपने लेखन में व्यक्त किया है।  

 

हरिहर वैष्णव : दादा, आपके मन में इतनी व्यथा, इतना आक्रोश है। इसके लिये कौन-सी घटना या स्थिति....?

 

रणजीत गुहा : स्वाधीनता के पहले अँग्रेजी शासन का युग अपमान का युग था।  ये कितनी भारी अपमानजनक स्थिति थी, यह मैं आपको नहीं समझा सकता। एक अंग्रेज यहां आकर यहां के लोगों का अपमान करने की शक्ति रखता था। मैरा शैशव अपमान के इतिहास के भीतर बीता। मेरा परिवार एक बहुत उच्च वर्ग, सम्भ्रांत परिवार था बंगलादेश में। हम बहुत बड़े जमींदार थे। मैं जब शिशु था, मैंने देखा, अपने जैसे ही जमींदार परिवार के लोगों द्वारा चासियों को जूतों से पीटते हुए। एक चासी था, मेरे घर के नजदीक। उम्र में मुझसे बड़ा था। मैं उसे दादा कहता था। मेरे लिये वह नारियल लाता था। मछली धरने नदी में जाता था तो अपनी नौका में मुझे बिठा कर ले जाया करता था। मैंने देखा, मेरे चाचा और हमारी जमींदारी के कारिन्दे उसे जूतों से पीटते थे। एक दिन वह दुखी होकर गांव-घर छोड़ कर चला गया। एक छोटी-सी नाव लेकर वह चला गया। यह सब देख कर मेरे बाल-मन पर असर हुआ। बचपन से ही यह व्यथा मेरे मन पर छा गयी। यह समव्यथा है। सम्वेदना है। मेरी चिन्ता, मेरा आक्रोश उसी स्थान से आता है। मेरे मन में तभी से उच्च वर्ग के द्वारा अपनाए जाने वाले व्यवहार के विरूद्ध खड़े होने की बात आयी। प्रतिवाद का स्वर मुखर होने लगा। अंग्रेजी शासन-काल में देला का अपमान, शैशव की कष्टप्रद स्मृतियां और तीसरी बात कि नेहरू से शुरू करके आज तक भारतवर्ष का नेतृत्व। इस नेतृत्व ने भारतवर्ष की जनता के साथ विश्वासघात किया। ..... सभी जगह यही है। भारतवर्ष में आदिवासी और अछूतों पर विगत सन् 1947 से जितने अत्याचार हुए, उसका नजीर न तो मुस्लिमकालीन भारत के इतिहास में है और न अंग्रेजकालीन भारतीय इतिहास में। मैं एक इतिहासकार हूँ। तमिलनाडु, महाराष्ट्र और बिहार में अछूतों के ऊपर जो अत्याचार हुए, उसका कोई नजीर औरंगजेब के जमाने में भी नहीं हुआ। ये हुआ नेहरू के जमाने में। अछूतों के गांव-के-गांव जला दिये गये। ये सब स्वतन्त्र भारत का इतिहास है। मेरा प्रतिवाद आता है वहां से कि ये आजादी झूठी नहीं है, लेकिन दस आना झूठी और छह आना सच्ची है।  भारत देश एक बहुत दु:ख का देश है। मेरे इतिहास में आनंद की नहीं क्रन्दन की ध्वनि है।

 

हरिहर वैष्णव : आपका पारिवारिक जीवन...?

 

रणजीत गुहा : ....... मेरी पत्नी ऑस्ट्रिया की हैं। विवाह हुआ दिल्ली में। हम चाहते थे कि हमारा विवाह या तो मेरी पत्नी के देश में हो या फिर मेरे देश भारत में।  हमारे बच्चे नहीं हैं। मैं प्रोफेसर्स के बीच एक गरीब प्रोफेसर हूं। मेरी पत्नी नौकरी में हैं। वे विदुषी हैं, डॉक्टर हैं लेकिन लायब्रेरी में काम करती हैं। उन्होंने भी जर्मन भाषा में किताबें लिखी हैं। मेरी पत्नी के वेतन से ही हमारा गुजर-बसर होता है। कलकत्ता में सभी घर में, चाहे वह किरानी हो, बड़ा अफसर हो या एक स्कूल-टीचर ही हो, सभी के घर में एक औरत काम करती है। उसे ''झी’’ यानी दासी कहते हैं। वह अपनी बस्ती से आकर घर-पोंछा, झाड़ू सभी काम करती है। वह गरीब होती है। एकदम गरीब। वह गरीबी की मूर्ति है। वह मूर्ति हमें दिखलायी पड़ती है सत्यजित राय की फिल्म में, परितोष सेन के स्क्रिप्ट में, प्रभाष सेन, शंखो चौधरी के स्कल्पचर, अध्यापक की किताब में -------- इन सभी की साक्षी है यह औरत।  तो मेरे मस्तिष्क में कलकत्ता की उसी चाकरानी की मूर्ति है।

 

हरिहर वैष्णव : आपने जब आपके साथी अध्यापकों से इतिहास को क्षेत्रीय भाषाओं में लिखने को कहा तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

 

रणजीत गुहा : वो तो आपकी उम्र के हैं। 30-40 वर्ष के। वे अपना कैरियर बना रहे हैं। योरोप-अमरीका घूम रहे हैं। अभी उनके पास समय नहीं है। जब वे 60 वर्ष के आसपास होंगे, तब वे सोचेंगे। लेकिन तब समय उनके लिये नहीं बचा रहेगा। मैं लिख रहा हूँ अँग्रेजी में। उस पर चर्चा होगी।

 

 

 

रणजीत गुहा से बातचीत, दिनांक : 29 मई 1991

 

स्थान :  डॉ. क्रिस ग्रेगोरी का कमरा, ऑस्ट्रेलियन नेलानल युनिवर्सिटी, कैनबरा, ऑस्ट्रेलिया।

 

साथ में : डॉ. क्रिस ग्रेगोरी, प्रागैतिहासकार और नृतत्वशास्त्री, ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा, (ऑस्ट्रेलिया) तथा भारतीय धातुशिल्पी जयदेव बघेल। छायांकन : डॉ. क्रिस ग्रेगोरी।

 

 

 

रणजीत गुहा : जन्म 1923, पूर्वी बंगाल। कलकत्ता से एम. ए.। विदेश की कोई डिग्री नहीं। 1980 तक इंग्लैंड के ससेक्स विश्वविद्यालय में अध्यापन। 1980 में विजिटिंग फेलो की तरह ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी में आमंत्रित और इसके डिपार्टमेन्ट ऑफ एन्थ्रॉपॉलॉजी के अन्तर्गत रिसर्च स्कूल ऑफ पैसिफिक स्टडीज शाखा में दक्षिण एशियाई इतिहास पर शोध एवं लेखन। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ''सबाल्टर्न स्टडीज’’ श्रृंखला के सम्पादक। प्रकाशनों में ''अ रूल ऑफ प्रॉपर्टी फॉर बंगाल : एन एसे ऑन दि आइडिया ऑफ परमानेन्ट सेटलमेंट’’ (1963), ''एलीमेंटरी ऑस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इनसर्जेंसीज इन कोलोनियल इंडिया (1983) तथा ''एन इंडियन हिस्टॉरियोग्राफी ऑफ इंडिया : अ नाइंटींथ सेंचुरी एजेंडा एंड इट्स इंप्लीकेशंस’’ (1988) भी सम्मिलित।

 

सम्प्रति : ऑस्ट्रिया में निवासरत। 96 वर्ष की आयु। कैन्सर से जूझ रहे हैं ।

 

 

 

 

 

हरिहर वैष्णव- सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर- (छग), मोबाईल : 76971 74308, ईमेल : agardhankul@gmail.com

 

 

 

 


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