मुखपृष्ठ पिछले अंक कछुए : मनुष्यता पर अटूट भरोसे का अद्वितीय आख्यान
पहल - 114

कछुए : मनुष्यता पर अटूट भरोसे का अद्वितीय आख्यान

यादवेन्द्र

सामयिक

 

 

पाकिस्तान में इमरान खान के नेतृत्व वाली नई सरकार के आने पर भारत पाकिस्तान के बीच की राजनैतिक सैनिक तनातनी और परमाणु शक्ति संतुलन पर एक बार फिर से ध्यान दिलाया जा रहा है - पश्चिम से आने वाली एक के बाद एक रिपोर्ट बताती है कि परमाणु बमों के जखीरे में यदि पाकिस्तान भारत से इक्कीस नहीं है तो भी बराबरी पर तो है ही। 2018 की अद्यतन सूचना है कि दुनिया में अनुमानत: 15000 परमाणु बम (तकनीकी शब्दावली में इसको न्यूक्लियर हेड कहते हैं) हैं जिसमें से 6850 रूस के और 6550 बम अमेरिका के पास हैं। चीन 280 , ब्रिटेन 215 ,इस्राइल 80 और कोरिया 15 बमों के मालिक हैं। आम्र्स कंट्रोल एसोसिएशन द्वारा उपलब्ध कराई गयी सूचना बताती है - पाकिस्तान 145 और भारत 135 बमों का बक्सा अपनी अपनी कुर्सियों के नीचे लेकर बैठे हैं। अमेरिका के डिफेन्स इंटेलिजेंस एजेंसी और फेडरेशन ऑ अमेरिकन साइंटिस्ट्स जैसे संस्थान भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं।

पाकिस्तान की न्यूक्लियर क्षमता और इरादों के बारे में दो प्रख्यात वैज्ञानिक सह शांति एक्टिविस्ट परवेज हूदभॉय व जिया मियाँ ने 17 अगस्त 2018  को ''बुलेटिन ऑ एटॉमिक साइंटिस्ट्स’’ में लिखा कि नये प्रधानमंत्री के तौर पर भले ही इमरान खान ने चरमराती हुई अर्थव्यवस्था को देश की सबसे बड़ी चुनौती बताया हो पर असल चुनौती परमाणु बमों के जखीरे को सुरक्षित रखने और इस्तेमाल करने की नीति बनाने की है। विपिन नारंग और अंकित पंडा सरीखे भारतीय विश्लेषक अपने लेखों में आये दिन भारत की परमाणु मारक क्षमता और उसके इस्तेमाल की बदलती हुई प्राथमिकताओं के बारे में बात करते रहते हैं। बहरहाल सीमा के दोनों ओर इस समय ऐसी सरकारें हैं जो अपनी परमाणु क्षमता को लेकर बाँहें भांज रही हैं और बगैर व्यापक मानवीय हितों के संकीर्ण राष्ट्रवादी नजरिये से अपनी गोटियाँ चमकाने में लगी हुई हैं - जिस समय दोनों देशों में नॉन स्टेट प्लेयर्स को मनमर्जी आतंक फैलाने की छूट मिली हुई है उस समय यह चिंताजनक और खतरे की और इशारा है। पुलित्ज़र सेंटर नामक एक थिंक टैंक अप्रैल 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में स्पष्ट कहता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों बड़ी ख़ामोशी के साथ न्यूक्लियर वार की ओर अग्रसर हो रहे हैं।

मैंने गूगल पर जब ''वॉर लाइक सिचुएशन ऑन इंडिया पाकिस्तान बॉर्डर’’ लिख कर सर्च किया तो बार बार अबारों - देशी (घाटी के और बाहर दूसरे प्रांतों के)  और विदेशी, दोनों - में कुछ कुछ दिनों बाद बस लड़ाई अब हुई तब हुई का शोर सुनाई देता दिखा। वैसे पिछले चार सालों से यह शोर बड़े व्यवस्थित ढंग से गर्जन में बदल गया है और भारत पाकिस्तान दोनों एक दूसरे को धमकाते हुए परमाणु बम हमले की धमकी देते गरजते हैं। इन भड़काऊ हालातों में सरहद के आसपास रहने वाले आम जन को पल पल कड़ी परीक्षा के दौर से गुजरना होता है - जीवन और भविष्य निरंतर दाँव पर लगा रहता है और उन्हें हर हाल में सुरक्षित पार उतरना होता है। सांप्रदायिक अतियों को राष्ट्रभक्ति बताने की आग जितनी इधर लगी है उतनी ही उधर भी है - ऐसे में भरोसा है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ बुनियादी मानवीय विवेक पर। मनुष्यता के बुनियादी सरोकारों में शांतिपूर्ण जीवन यापन सबसे ऊपर है और हर दौर में सभी समाजों में ऐसे रचनाकार कलाकार रहे हैं जिन्होंने इन मूल्यों की मशाल जलाये रखी है।पर सिक्के का दूसरा कम प्रचारित पहलू भी है - भारतीय लेखक स्मितु कोठारी और पाकिस्तानी भौतिक विज्ञानी जिया मियाँ द्वारा सम्पादित किताब ''आउट ऑ न्यूक्लियर शैडो’’ और प्रख्यात पाकिस्तानी पत्रकार ज़मीर नियाज़ी द्वारा सम्पादित किताब ''ज़मीन का नौहा’’ जैसी किताबों का निरंतर प्रकाशित होते रहना जो न्यूक्लियर खतरे के बीच बार बार मनुष्यता और अमन का परचम उठाये चलते हैं। खालिक इब्राहिम खालिक और आसि फारुखी सरीखे बड़े लेखकों ने खुल कर पाकिस्तान की परमाणु युद्ध की तैयारियों की आलोचना की।

1928 में श्रीनगर में जन्मे ख्तर मोहिउद्दीन कश्मीरी साहित्य ही नहीं समाज के बेहद सम्मानित अदीब थे जिन्होंने उस समय के चलन के हिसाब से उर्दू में लिखना शुरू तो किया पर जमीन से गहरे जुड़े रहने के चलते उर्दू छोड़ कश्मीरी भाषा में कहानियाँ लिखनी शुरू कीं - उनका यह उद्धरण बार बार याद किया जाता है : ''कश्मीरी(भाषा) के चलते हम कश्मीरी (कौम) हैं वरना हम जंगल में यहाँ वहाँ काँव काँव करते कौव्वे होते।’’

कश्मीरी भाषा के पहले कथाकार की पहली कृति 'सात संगरथी जिसे 1958 में केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। उन्होंने बड़ी संख्या में न सिर्फ़ कविताएँ और कहानियाँ लिखीं बल्कि चालीस के करीब नाटक, अनेक उपन्यास और यात्रा संस्मरण लिखे। कश्मीरी भाषा के इतिहास लेखन और पहले शब्दकोश का श्रेय उन्हें दिया जाता है। उन्होंने कश्मीरी साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं के वार्षिक संकलन निकालने की परंपरा शुरू की और अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन किया।कश्मीरी लोक कथाओं के संकलन का उनका काम बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।उन्होंने महात्मा गांधी की आत्मकथा समेत अनेक देशी विदेशी कृतियों के कश्मीरी अनुवाद किये और उनकी अनेक कृतियों के अनुवाद अन्य देशी विदेशी भाषाओँ में हुए हैं। हाल में उनकी महत्वपूर्ण कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद का संकलन सैयद तफज्जुल हुसैन ने प्रकाशित किया है।

इन सेवाओं के लिए उन्हें कश्मीर के बड़े साहित्यिक सम्मान तथा 1973 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया पर कश्मीरी आज़ादी की माँग करने वाले मकबूल बट्ट को 1984 में फाँसी देने के विरोध में उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार व पद्मश्री दोनों लौटा दिए। इस फाँसी को रोकने के लिए उन्होंने अनेक बुद्धिजीवियों के साथ मिल कर अभियान भी चलाया था।

अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत प्रगतिशील आंदोलन के साथ करने वाले अख्तर मोहिउद्दीन बाद के दिनों में खुलकर कश्मीर की आज़ादी की माँग करने वालों के समर्थन में खड़े हो गए थे....उनके अनेक आत्मीय परिजन इस आन्दोलन की भेंट चढ़ गए थे।

जीवन के अंतिम दौर में लिखी उनकी ''आतंकवादी’’ कहानी प्रतिनिधि कहानियों में शुमार है जिसमें एक बच्चा गश्त लगाते सैनिक से बालसुलभ जिज्ञासावश उसकी राइल छूकर देखने की गुजारिश करता है... सैनिक बच्चे की माँग क्या पूरी करता, ''स्साला आतंकवादी’’ कह कर उसको खदेड़ देता है।

2001 में भरपूर साहित्य सृजन कर उनका इंतकाल हो गया।

 

मैंने कोई पैंतीस सैंतीस साल पहले साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत और प्रकाशित अख्तर मोहिउद्दीन का कश्मीरी कथा संकलन ''सात शिखर’’ (हिंदी शीर्षक) पढ़ा था। कश्मीरी में मूल पुस्तक 1955 में छपी थी और 1958 में पहली बार उसे कश्मीरी साहित्य की श्रेष्ठ कृति के तौर पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया था - जहाँ  तक मुझे याद पड़ता है, हिंदी अनुवाद शशि शेखर तोषखानी ने किया था। इस संकलन की अन्य कहानियाँ तो अब याद नहीं आ रहीं पर इस पतले से संकलन की एक छोटी सी कहानी ''कछुए’’ मेरे मानस पटल पर इस तरह अंकित हो गयी कि दुनिया में जब जब दो देशों के बीच  उन्मादी ताकत का प्रदर्शन करने वाली तनातनी बढ़ती है और तृतीय विश्व युद्ध की दुंदुभी बजाई  जाने लगती  है मुझे यह कहानी बड़ी शिद्दत से याद आती है।

 

यह कहानी इस बात से शुरू होती है कि ''हमारे देश में कछुए नहीं होते’’.... फिर भी उस देश के ही एक कछुए की कहानी है। दर असल कथानायक ने पहली बार कछुए आगरा की जमुना नदी में देखे थे - काले कुरूप, छोटी छोटी टाँगें लिए हुए, पीठ पर एक औंधी पड़ी ओखली जिसके नीचे वे अपने सिर पाँव छिपाए रहते हैं मानो कोई गंभीर चिंतन कर रहे हों। अब्दुल करीम एम ए एल एल बी वह कछुआ है जिसने कश्मीर से अलीगढ़ जाकर एम ए और एल एल बी की डिग्री हासिल की - इस ऊँची तालीम ने अपना अच्छा ख़ासा समय रसूल दर्जी की दूकान पर मोहल्ले भर के लोगों के साथ बिताने वाले हर दिलअजीज़ नौजवान को सिर से पाँव तक बदल कर रख दिया। वहाँ जाकर उसने बहुत सारी किताबें पढ़ लीं - अब्दुल करीम  को मुगालता हो गया कि डारविन के विकासवाद  से लेकर हिटलर के जर्मन जंग तक, अरस्तू अलातून के फलस$फे से लेकर अणु शक्ति के विज्ञान तक की जानकारी उसे बड़े  विश्वविद्यालय में पढ़ कर हो गयी जिसका रत्ती भर भी ज्ञान अपने घर और आस पड़ोस वालों को नहीं है। उसे कानून के बड़े बड़े मसले पूरी तरह से समझ आ गये हैं। उसने शेक्सपियर के समस्त नाटक कंठस्थ कर लिए हैं। ताज महल, लाल किला, $कुतुब मीनार, अजंता की गुफाओं का चप्पा चप्पा उसने छान लिया है। यहाँ तक कि अवंतीपुर और पट्टन के प्राचीन नगरों के अतीत के बारे में भी उसको अंदरूनी जानकारियाँ हासिल हो गयी हैं। इतनी विशिष्ट जानकारी रखने वाले अब्दुल करीम एम ए एल एल बी और घर मोहल्ले के मूढ़, जाहिल और सारी दुनिया से बेखबर लोगों क बीच भला क्या तुलना - कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली! तभी तो अपने पिता के बारे में वह कहता है: ''उस जाहिल को क्या पता कि शिक्षा होती क्या है .... उसने कभी अजंता की गुफा कभी देखी थी? उसे मालूम था कि दुनिया का पहला कहानीकार कौन था? कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी चढ़ाये उसने सारी जिंदगी गुजार दी थी।’’ अब्दुल करीम की अपनी माँ  के बारे में यह राय थी: ''सारी उम्र इसने आखिर देखा क्या है? जीवन के पचास साल बेकार गँवा दिए.... उसे यह भी नहीं मालूम कि (कश्मीर के) इस बूढ़े महाराज से पूर्व कश्मीर का बादशाह कौन था।’’ जब माँ पिता के बारे में उसकी यह राय थी तब मोहल्ले वाले कहाँ ठहरते - ''इन लोगों से भला क्या बात करें? मोहल्ले में ऐसा कौन है जिसमें रत्ती भर भी अक्ल है? कौन है जिसे दुनिया के बारे में कुछ भी आता पता है? कोई यहाँ पढ़ा लिखा नहीं है, सभी बस कछुए जैसे हैं.... औंधे ऊखलों के नीचे सिर पाँव छुपाये हुए सारी दुनिया से बेखबर।’’

ऊँची तालीम के लिए अलीगढ जाने से पहले रसूल दर्जी की दूकान पर लोगों के साथ मेल मुलाकात में अच्छा खासा समय बिताने वाले अब्दुल करीम सबकी इस राय से इत्ति$फाक रखते थे कि (दूसरे विश्व युद्ध में) हिटलर हार जायेगा... जो देश अपने स्वार्थ के लिए संसार की शांति को भंग करे उसका अंत में हार जाना निश्चित है क्योंकि दुनिया के सभी लोग उसके विरुद्ध हुआ करते हैं।

पर एक दिन सारा मामला अचानक उलट  पलट हो गया। तालीम लेकर आने के बाद सबसे कट गए ''परम ज्ञानी’’ अब्दुल करीम एम ए एल एल बी ने अखबार में अमेरिका के उद्जन बम बनाने की खबर पढ़ी तो उनके हाथ पाँव सुन्न पड़ गए, तबियत बिगड़ गयी - उसको समझ आया, अमेरिका युद्ध छेडऩे पर तुला हुआ है क्योंकि वहाँ की सरकार युद्ध पर ही टिकी हुई है... अब ऐसे खतरनाक हथियार के हाथ आ जाने से वह सारी दुनिया को नष्ट कर देगा। अब्दुल करीम ने आसन्न मृत्यु की आशंका के कारण किसी से मिलना जुलना और खाना पीना छोड़ दिया, अपने आपको  कमरे में बंद कर लिया। वह दूर से किसी का गाना बजाना सुनता तो गालियाँ देने लगता : इन बेवकूफों को क्या पता कि कल ही सबको मर जाना है... सालों, अगर एक भी बम गिरा तो सबके प्राण पखेरू उड़ जायेंगे।

लेखक ने इस सन्दर्भ में एक बुलबुल को कहानी का किरदार बनाया है - ''एक बुलबुल उड़ती हुई आयी और खिड़की पर बैठ कर चहचहाने लगी। मिस्टर अब्दुल करीम उठे और उसे उड़ा दिया।

अरे बेचारी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो इसे उड़ा दिया?, उनकी माँ ने कहा : शायद आज कोई मेहमान आएगा।

हुँह, मेहमान आएगा। अरी, अब जल्द दुनिया ना हो जाएगी। फिर आते रहें तेरे मेहमान... आज युद्ध छिड़ा तो समझना कल दुनिया में कोई भी जीवित नहीं होगा अम्मा।’’

शुष्क किताबी ज्ञान और अव्यावहारिक मूढ़ता से सिर से पाँव तक ढँके अब्दुल करीम की हताशा का उसकी अनपढ़ माँ ने बड़े विश्वास और सहज भाव से सरल सा जवाब दिया : ''ऐसा कैसे हो सकता है? आज तक इतने युद्ध हुए, आखिर वे ही लोग मर खप गए जिन्होंने उन्हें छेड़ा था... (अमेरिका ने) बम बनाया है तो क्या हुआ? दुनिया के लोग उसे उसका विस्फोट करने देंगे भला?’’

माँ की बातें सुनकर अब्दुल करीम हँस पड़ा कि देखो तो इस दुनिया की अक्ल!

पर तीन दिन बाद मृत्यु की प्रतीक्षा करते अब्दुल करीम की साँसें दुबारा लौटीं... वह अपनी जाहिल अनपढ़ माँ के पीछे पीछे यह पूछते हुए भागा कि तुम्हें कैसे पता चला कि अमेरिका को वे बम गिराने नहीं देंगे? दर असल हुआ यह था कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, श्रमिकों और सामान्य व्यक्तियों के सामूहिक दबाव ने अमेरिका को विनाशकारी मंसूबे बदलने के लिए मजबूर कर दिया। परम ज्ञानी अब्दुल करीम एम ए एल एल बी तमाम पोथियाँ बाँच कर मनुष्यता की जिस किरण को देख नहीं पाए उसकी अनपढ़ माँ ने बगैर कोई पोथी पढ़े उस जीवनदायी उजाले को देख लिया - उन्होंने सिर के  बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये थे बल्कि समाज की धड़कन वे पहचानती पकड़ती थीं पढ़ा लिखा अब्दुल करीम नहीं।

 

किसी पाकिस्तानी शायर ने कितनी सटीक बात कही है :

 

''कहो के आज भी हम सब अगर खामोश रहे

तो इस दमकते हुए ख़ाकदान की खैर नहीं

जूनून की ढली ऐटमी बलाओं से

जमीन की खैर नहीं

आसमान की खैर नहीं......’’

 

 

वास्तविकता यह है  कि परमाणु विभीषिका भौगोलिक सीमायें नहीं चीन्हती और सीमा पर लगायी बाड़  उसे एक देश से पड़ोसी देश में फैलने से नहीं रोक सकती... न ही यह मर्द औरत, हिन्दू मुसलमान, गोरे काले, शिक्षित अनपढ़ या मांसाहारी शाकाहारी में कोई भेद करती है। हिरोशिमा नागासाकी का रूपक अपनी कविता में शामिल कर प्रख्यात अमेरिकी कवि और कम्युनिस्ट संगठनकर्ता रे ड्यूरेम ( 1915 - 1963 )ने लगभग सत्तर साल पहले यह मार्मिक कविता लिखी थी  जो वैसे तो अमेरिका के अश्वेत आंदोलन का लगभग घोषणा पत्र माना जाता रहा है... पर यह परमाणु विभीषिका की निष्ठुर और गैर पक्षपाती भूमिका को बड़ी पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत करता है :

 

असली बराबरी

           - रे ड्यूरेम

 

जानते हो जोए

जानते हो जोए,बड़ी मज़ेदार बात है!

सारा जीवन तुम मुझको लेकर परेशान रहे

डर था कि कहीं मुझे भी नौकरी न मिल जाये, तुम्हारे साथ

फ़िक्र थी कि मुझे भी कहीं उसी टेबल पर न बैठा दिया जाये जिस पर बैठे हो तुम

हरदम भय सताता रहा: मैं प्यार न कर बैठूँ तुम्हारी बहन को

या क्या पता, चाहने लगे वह ही मुझे..... 

कभी तुमने चाहा नहीं कि मैं खाने बैठूँ संग तुम्हारे

वह भी अगल बगल? कहीं ऐसा हो न जाए... जोए

पर उस ऐटम बम का क्या करोगे, जोए?

लगता है मरूँगा तो मैं तुम्हारे संग ही...

बिलकुल अन्याय लगता है न? है न जोए?

कालों के लिए अलग बम होना चाहिए, गोरों जैसा बिलकुल नहीं

(अनुवाद: यादवेन्द्र)  

 

 

 

( चित्र  ''कश्मीर इंक’’ से साभार )

 संपर्क - मो. 9411100294, पटना

 


Login