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कश्मीरनामा - अशोक कुमार पांडे

लाल बहादुर वर्मा

क़िताब/कश्मीरनामा/अशोक कुमार पांडे

 

  हाल ही में एक युवा कश्मीरी पत्रकार से मुलाकात हुई। जाहिर है बातें कश्मीर पर ही केंद्रित होती गईं। मैनें उससे बातें करते हुए मानो अपनी कश्मीर यात्रा को फिर से जीना शुरू कर दिया। उसे अच्छा तो लग ही रहा होगा। आज के हालात पर जब बात हुई तो उसने दो टूक सवाल कर दिया, ''व्हट डू यू थिंक, इज कश्मीर प्रॉब्लम पॉलिटिकल?’’ (क्या कश्मीर समस्या राजनीतिक है?) मैने भी स्वत: स्फूर्त जवाब दे दिया, ''इट्स नॉट ऑनली पोलिटिकल, इट्स एक्जिसटेंशल’’ (यह सिर्फ  राजनैतिक ही नहीं बल्कि इसका संबंध अस्तित्व से है)। हम दोनों कुछ देर खामोश रहे थे।

मैं उसके सवाल और अपने जवाब पर कई दिनों तक सोचता रहा। बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी। वह जानना चाहता था कि कहीं मैं भी कश्मीर की समस्या को कानून और व्यवस्था का ही प्रश्न तो नही समझता जैसा कि अधिकांश लोग समझते हैं। लेकिन मुझे सुखद आश्चर्य अपने जवाब पर हो रहा था, क्योंकि यह मेरा सुविचारित नहीं सहज उत्तर था। यहीं से मुझे जमीन मिली अशोक पांडे की बहुचर्चित और आश्वस्त करने वाली किताब 'कश्मीरनामापर बात करने की।

सबसे पहले ध्यान 'नामापर गया। याद आये फिरदौसी का 'शाहनामा’, 'बाबरनामा’, 'अकबरनामा’, 'जहांगीरनामाऔर फिर कृष्णा सोबती का 'जिंदगीनामा। शाहनामा तो करीब 50 हजार शेरों की बेमिसाल फारसी में शायरी की किताब है और जिंदगीनामा एक अनोखा उपन्यास है। बाबरनामा और जहांगीरनामा आत्मकथाएं और संस्मरण हैं। अकबरनामा अबुल फजल द्वारा लिखित अकबर के बारे में किताब है। तो दो बातें साफ  हो गईं, नामा इशारा करता है 'बारे मेंकी ओर और उसकी मुख्य लाक्षणिकता है लेखकों की आत्मनिष्ठता। इस तरह कश्मीरनामा भी कश्मीर के बारे में किताब है और कुल मिलाकर एक आत्मनिष्ठ किताब है, इतिहास की अधिकांश किताबों की तरह, वस्तुनिष्ठता के सारे दावों के बावजूद।

मैं सोच रहा हूँ कि अशोक का इस किताब को लिखने और मेरा इस किताब के बारे में लिखने में 'स्टेकक्या है। न तो वह इतिहासकार है, न पत्रकार, न इन्साइडर, न राजनीतिक आउटसाइडर। यही हाल मेरा है। हालांकि मैनें 40 साल तक विद्यार्थियों को इतिहास पढ़ाने का काम किया है (इतिहास पढ़ाने से कोई इतिहासकार नहीं हो जाता, उसी तरह जैसे साहित्य पढ़ाने से साहित्यकार और विज्ञान पढ़ाने से कोई वैज्ञानिक नही हो जाता)। पर किताब पढ़ कर लगा कि अशोक का कश्मीर में वही स्टेक है जो मेरा। यानि विश्व दृष्टि का, जीवन दर्शन का स्टेक- कश्मीर की कथा एक ऐसे समाज की कथा है जो प्रकृति प्रदत्त (गिवेन) को मानव द्वारा सँवारे जाने की कथा है। प्रकृति में बहुत कुछ सुंदर है पर मनुष्य का विवेक और सौंदर्यबोध उसे और सुंदर बना सकता है, जैसे प्रकृति, वनस्पतियां, पौधे और फूल रचती है पर मनुष्य ही खेत, बाग-बगीचा और गुलदस्ते-मालाएं बनाता है। उसी तरह प्रकृति ने मनुष्य को शरीर और बुद्धि तो दे दी पर उसका इस्तेमाल मनुष्य कभी रचनात्मक तो कभी विध्वंसात्मक ढंग से करता है। कश्मीर में मनुष्य की ये दोनों ही तरह की शक्तियां भरपूर अभिव्यक्त हुई हैं। कुल-मिलाकर किसी ने कहा होगा ''गर फिरदॉस बर रूए जमीन अस्त, हमीं नस्तो हमीं नस्तो हमीं नस्त’’ (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है)। यह बात प्रचलित तो बहुत पर सही नहीं लगती, क्योंकि स्वर्ग देवताओं की रचना माना जाता है और वह प्रकृति से अधिक सुंदर रचने में असमर्थ हैं। यह बात लाल किले के बारे में भी कही गई है पर लाल किला प्रकृति ने नहीं इंसान ने रचा है। और हम जिस कश्मीर की बात कर रहे हैं वहां प्रकृति द्वारा रचे सौंदर्य को इंसानी कूवत ने लगातार और ज्यादा खूबसूरत बनाते जाने की इस कदर कोशिश की है कि देवता भी कश्मीर में जन्म लेने को तरसें।

पंद्रहवीं शताब्दी में जैनुल आब्दीन का कश्मीर अकबर के हिंदुस्तान के लिए एक नजीर था। उसके बाद कश्मीर फिर वैसा न हो सका जैसे हिंदुस्तान फिर अकबर के हिंदुस्तान जैसा न हो सका। अशोक पांडे ने शुरूआती कश्मीर से जैनुल के कश्मीर तक का किस्सा, जो बहुतों को ठीक से मालूम नहीं, अच्छी तरह बयान किया है। इस तरह कश्मीरनामा की नींव बहुत मजबूत है। और कश्मीरनामा दरअसल तभी तक पूरी तरह कश्मीरनामा है। उसके बाद धीरे-धीरे वह भारत के अधिकांश इतिहासों की तरह मुख्यत: राजनीतिक इतिहास बनता जाता है।

किताब की थोड़ी और पड़ताल करने के पहले कुछ और जरूरी बातें चिन्हित कर ली जाएं। असली मुद्दा ये है कि कश्मीर कश्मीर रहे, यानि कश्मीर की काश्मीरियत बची रहे। दूसरे, यह कि भारत के संदर्भ में कश्मीर की बात करते हुए जरूरी यह है कि भारत भारत बना रहे, यानि भारत की भारतीयता बनी रहे और तीसरा यह कि अगर बात को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखना है तो यह याद रहे कि इतिहास का वास्तविक विषय मानव समाज है। किसी भी 'माइक्रोविषय के अध्ययन में 'मैक्रोविश्व इतिहास का परिप्रेक्ष्य बना रहना चाहिए। इसी तरह कश्मीर को और बेहतर ढंग से समझा जा सकता है अगर विभिन्न देशों के अंदर चल रहे कुछ आंदोलनों, जैसे ब्रिटेन में स्कॉटलैण्ड का आंदोलन, या स्पेन में कैटिलोनिया का आंदोलन, या पाकिस्तान में सिंध और बलूचिस्तान के आंदोलन का संदर्भ प्रस्तुत कर दिया जाए।

दूसरा मुद्दा यह है कि हर राजनीतिक समस्या का हल शासक समुदाय अपने हित में करना चाहते हैं और पार्टियां वह हल चाहती हैं जिससे वे सत्ता में बनी रहें या फिर सत्ता संघर्ष में उन्हें इस मुद्दे से लाभ मिले। इस तरह क्रोचे की बात कि 'हर इतिहास समकालीन इतिहास होता है’, हमेशा ही लागू रहती हैं यानि अतीत को वर्तमान की नजर से देखा ही जाता है।

तीसरी एक बात, मेरी नजर में, यह है कि कश्मीर के अस्तित्व के सवाल का हल नहीं तो भारत के अस्तित्व का सवाल भी हल नहीं  होगा। इसी बात को दूसरी तरह से इस तरह भी कहा जा सकता है कि भारत के अस्तित्व के सवाल के हल से ही जुड़ा हुआ है कश्मीर के अस्तित्व के सवाल का हल। इस तरह हम कह सकते हैं कि कश्मीर का सवाल 'एग्जिसटेंशलहै- कश्मीर के लिए ही नहीं, भारत के लिए भी।

अब आइए किताब के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करें-

अशोक पांडे ने अपनी भूमिका में जो पृष्ठभूमि चिन्हित की है उसमें यह बात बहुत मार्के की है कि कश्मीर और उत्तर पूर्व को लेकर सरकारें और लोग भी बहुत संवेदनशील दिखते हैं पर वहां के 'हालात, मुश्किलात, इतिहास, आकांक्षाओं और उम्मीदों के बारे में उतने ही असंपृक्त हैं। यह बात स्पष्ट कर देती है कि कश्मीर को लेकर भारत में हर स्तर की चिंताएं काफी पाखंडपूर्ण हैं।

लेखक ने किसी को उद्धृत किया है कि 'कश्मीर शानदार फ्रेम जड़ी एक बद्सूरत तस्वीर है। फिर लेखक लिखता है, ''यह किताब उस बद्सूरत तस्वीर को करीब से देखने और उस बदसूरती के निशानात और वजूहात की शिनाख्त करती है’’। यह एक महत्वपूर्ण बात है पर इसके दूसरे पक्ष के बारे में यह कहा जा सकता है कि फ्रेम भी लगातार बद्सूरत होता जा रहा है और उसमें जड़ी खूबसूरत तस्वीर को वह ठीक से खिलने नहीं दे रहा।

 भूमिका में ही लेखक ने अपनी सीमाओं की भी बात कर दी है और साफ-साफ लिख दिया है कि उसने केवल द्वितीयक स्रोतों का इस्तेमाल किया है, यानि उसने मूल स्रोतों की पड़ताल नही की है। अकादमिक जगत में शोधों में प्राथमिक स्रोतों को बहुत महत्व दिया जाता है पर अधिकांश शोधार्थी प्राथमिक स्रोतों में गए बगैर उनके उद्धरणों को किसी अन्य किताब से ले लेते हैं। इस बेईमानी से तो बेहतर है कि गंभीर द्वितियक स्रोतों की अच्छी तरह पड़ताल कर ली जाए और यह काम लेखक ने अच्छी तरह किया है। और यह भी नहीं कि उसने प्राथमिक स्रोत देखे ही नही, आखिर कश्मीर के इतिहास के लिए कल्हण की 'राजतरंगिणिहमेशा प्राथमिक स्रोत ही रहेगी और लेखक ने उसे अच्छी तरह पढ़ा है। दूसरी बात यह कि द्वितीयक स्रोतों पर आधारित बहुत अच्छी और विश्वसनीय किताबें लिखी जाती रही हैं। आखिर जवाहर लाल नेहरू की किताब 'डिस्कवरी ऑफ  इंडियाद्वितीयक स्रोतों पर ही तो आधारित है, और वह भी बहुत थोड़ी सी किताबों पर। पर इससे किताब का महत्व कम नहीं हुआ है। और वह आज तक प्रासंगिक बनी हुई है। जब लेखक उम्मीद करता है कि उसे कश्मीर पर और अच्छी-अच्छी किताबें पढऩे को मिलेंगी तो निश्चित ही वह 'अहमन्यताका शिकार होने से बच जाता है, जबकि ऐसी किताब लिखने के बाद लेखक सहज ही दंभ से भर सकता था। फिलहाल तो लेखक अपनी औकात के बाहर जाता नही दिखता पर यह किताब उसकी औकात बढ़ाएगी ही, तब की कौन जाने।

शुरूआत में ही अशोक ने कश्मीरी मानस, यानि मुख्यत: कश्मीरियत, को अच्छी तरह चिन्हित किया है और इसमें बौद्ध धर्म, शैव धर्म और सूफी परंपरा और उनके भी कश्मीरी 'वर्जनको चिंहित किया है। यहीं उसने साफ  कर दिया है कि कश्मीर में इस्लाम तलवार के बल पर नही पहुंचा। कश्मीर के शुरूआती इतिहास यानि कश्मीरियत की नींव की पड़ताल काफी अच्छी बन पड़ी है।

कश्मीरियत के 'आयकनजैनुल आब्दीन पर लेखक ने विस्तार से लिखा है। उसका शासनकाल (1420-1470) वही काल है जब यूरोप में 'रिनेसांसकी कोंपलें फूट रही थीं। जाहिर है जैनुल को इसका पता नही था। पर सरसरी तौर पर भी देखा जाए तो वह कश्मीर में यूरोपी पुनर्जागरण की बहुत सी लाक्षणिकताओं को लागू कर रहा था। लेखक के अनुसार वह अपनी प्रजा के प्रति अपार स्नेह और समर्पण का भाव रखता था और उसने कश्मीर को एकदम रूपांतरित कर देने की कोशिश की। कम से कम इस मामले में तो वह अकबर से बहुत आगे था कि वह शिक्षित ही नहीं विद्वान भी था, और वह भी फारसी ही नहीं संस्कृत का भी। यह ठीक है कि अकबर के हिंदुस्तान की अपेक्षा जैनुल का कश्मीर बहुत छोटा था पर बातें शासकों की नीयत से तय होती हैं और मुझे लगता है कि जैनुल की नीयत में कोई खोट नहीं थी। और वह यूरोप के 'प्रबुद्ध’ (एनलाइटेंड) शासकों का आसानी से पूर्ववर्ती कहा जा सकता है।

लेखक एक बहुत मार्के की बात यह कहता है कि दिल्ली ने श्रीनगर को उपनिवेश की तरह रखना चाहा है (पृष्ठ 124), चाहे मुगलकाल हो या वर्तमान। साथ ही यह भी एक लगातार जारी मनोवृत्ति रही है कि कश्मीर से मोहब्बत और कश्मीरियों से नफरत (पृ. 137)

ब्रिटिश शासन ने रणजीत सिंह द्वारा स्थापित सिख राज्य को पराजित कर कश्मीर को गुलाब सिंह को एक तरह से बेच दिया था। गुलाब सिंह की विडंबना यह थी कि उसमें काबिलियत की कमी नहीं थी पर उसका शासन जनविरोधी था और कुशासन बढ़ता ही चला गया।

लेखक ने बीच-बीच में ऐसी बातों की चर्चा की है जिस पर प्राय: लोगों का ध्यान नहीं जाता। उदाहरण के लिए 1865 ई. में कश्मीर के मुख्य उद्योग में बुनकरों ने विद्रोह किया जिसकी चर्चा विख्यात शायर इकबाल ने भी की है। अशोक इसे कश्मीर में वर्ग संघर्ष का एक उदाहरण मानते हैं (पृ. 191)। इसी तरह पूरी किताब में जगह-जगह कश्मीर में नारियों की दशा पर टिप्पणियां की गई हैं। जैसे एक जगह वह कहता है कि घाटी में ऐयाशी का अड्डा बनता जा रहा था।

वह यह भी चिन्हित करता है कि घाटी को दोहरी औपनिवेशिक स्थिति का सामना करना पड़ता था- जम्मू की और फिर दिल्ली की (पृ. 220-221)। नारी के प्रति उसका सरोकार सायास लगातार रेखांकित होता गया है। इसको आमुख में पुरूषोत्तम अग्रवाल ने भी चिन्हित किया है।

इस संदर्भ में वह घाटी में पंडितों की स्थिति को ठीक से विश्लेषित करते हुए यह भी कहता है कि पंडितों और अन्य की श्रेणियां बनाने की बजाय पूरे समाज को कुलीन और सामान्य की श्रेणी के रूप में देखा जाना चाहिए। और यह कि कश्मीर से सभी पंडित नहीं पलाइत हुए हैं। कुछ ने हर हाल में वहीं रहने का निर्णय लिया था। इस बात में बहुत से इशारे हैं। इसी तरह वह 1931 में असंतुश्ट लोगों द्वारा पहली बार कश्मीर में पत्थरबाजी का जिक्र करता है और इशारा करता है कि आज भी विरोध की अभिव्यक्ति के रूप में पत्थरबाजी को आज का षडयंत्र न समझ कर उसे कश्मीर के विरोध के विशेष तरीके के रूप में देखा जाना चाहिए।

कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के आविर्भाव और भूमिका को बहुत अच्छी तरह चिन्हित किया गया है। वह उनकी भूमिका के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर ध्यान देता है और शेख को 'शेरे-ए-कश्मीरकहे जाने को उचित ही साबित करता है। उदाहरण के लिए लेखक कश्मीर में उनके द्वारा किए गए भूमि सुधार को भारत में हुए सबसे क्रांतिकारी भूमि सुधार के रूप में देखता है। नेहरू और शेख अब्दुल्ला के सम्बन्धों की गुत्थी भी सुलझती लगती है।

भारत की आजादी के बाद कश्मीर के भारत में विलय से लेकर आज की भूल-भूलैया में खोई राजनीति तक की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं और विवादों को स्पष्ट करने के लिए उपलब्ध स्रोतों का संतोजनक इस्तेमाल किया गया है और यथासंभव वस्तुनिष्ठता का निर्वाह हुआ है। लेखक किसी एक का पक्ष लेने की बजाय सदिच्छा का पक्ष यानि कश्मीरी जनता के हित का पक्ष लेता है।

लेखक ने बीच-बीच में बहुत सार्थक ऐसी टिप्पणियां की हैं जो इतिहास जन्य विवेक लगती हैं, जैसे 'प्रतिभा को हर दौर में कीमत चुकानी पड़ती है’ (पृ. 117)'विडंबना कश्मीर की राजनीति में जैसे अंतर्विन्यस्त है’ (पृ. 425) और अंत में, 'कश्मीर का आधुनिक इतिहास खोये हुए मौकों का इतिहासलगता है (पृ. 424)

हाल के कुछ दशकों की घटनाओं की जटिलता और सघनता से गुजरते हुए पाठक भी 'सिनिकलहोने की कगार पर पहुंच जाता है पर लेखक सिनिकल नहीं होता और उसे कश्मीर की समस्या के जनतांत्रिक और सेक्यूलर समाधान की अपेक्षा बनी रहती है।

इतने गहरे सरोकार के साथ लिखी गई पुस्तक के अंत में पाठक अचानक हुए अंत से प्यासा रह जा सकता है। उसे कहीं न कहीं किसी समाधान के सुझाव की अपेक्षा हो सकती है पर कोई भी लेखक इतने बदनीयत निहित हितों के जंजाल में फंसे कराहते कश्मीर की समस्याओं का क्या समाधान दे सकता है?

मै तो बहुत खुश हूं कि यह किताब लिखी गई और मैंने इसे पढ़ा। सीधी सी बात है मेरा हर 'सुंदरसे सरोकार होता है और कश्मीर तो 'सुंदरतम्में से है। सौंदर्य तो सबके लिए होता है- इस अर्थ में नही कि कोई उसका अधिग्रहण कर ले, इस अर्थ में कि वह सबका वांछित और सबके आंनद का स्रोत होता है। कश्मीर केवल अपने भूगोल के कारण नही अपने इतिहास के कारण भी, अपनी प्रकृति के कारण ही नहीं अपनी संस्कृति के कारण भी सुंदर रहा है जिसे राजनीति लगातार असुंदर बनाती गई है। अशोक ने इस पक्ष को बखूबी रेखांकित किया है पर शायद यह इतिहास की प्रकृति की ही विडंबना हो कि इतिहासकार सावधानियों के बावजूद राजनीति और घटना प्रधानता का शिकार हो जाता है। प्राचीन यूनान में ही हेरादोतस और पॉलिविअस की इतिहास परंपराओं की दो धाराएं शुरू हो गई थीं। एक से 'यूनिवर्सल हिस्ट्रीकी धारा बही तो दूसरे से 'पॉलिटिकल हिस्ट्रीकी धारा। आज अधिकांश लोग मानते और चाहते हैं कि इतिहास समग्रता के साथ सूक्ष्मता पर भी ध्यान दे पर यह बहुत कठिन काम है। मेरे विचार से इतिहास-लेखन 'तरवार की धार पै धावनों है’, इतिहास, यानि सार्थक और सृजनशील इतिहास, वह होता है या हो सकता है जिसमें विज्ञान की वस्तुनिष्ठता और कला की आत्मनिष्ठ सृजनशीलता का समन्वय हो। यह एक सदिच्छा मात्र हो सकती है क्योंकि ऐसा इतिहास लिख पाना अधिकतर संभव नही हो पा रहा है। हर कोई भगवत शरण उपाध्याय या ऐरिक हॉप्सबॉम तो नही हो सकता।

कश्मीरनामा जैसा है उससे भिन्न होना बहुत कठिन था पर यह कसर तो रह ही गई की आधुनिक कश्मीर के 'नामाका परिपेक्ष्य और बड़ा और समग्र होता तो और अच्छा होता। मैं तो 'हिंदी वालाहूं हिंदी को समृद्ध और सक्षम बनाने के हर प्रयास को सर-आंखों पर रखता हूँ और यह समझता हूँ कि आज हिंदी साहित्य को वाड.मय बनाना यानि साहित्येतर क्षेत्र में हर विधा में लेखन को प्रोन्नत करना अनिवार्य कार्यभार है। आज दुनिया में अंग्रेजी साहित्य का दब-दबा केवल इसीलिए नहीं है कि उसमें शेक्सपियर और शॉ आदि ने लिखा। उसका महत्व इसलिए है कि उसमें न्यूटन, एडम स्मिथ, डार्विन और बट्र्रेन्ड रसेल जैसों नें भी लिखा है। हम हिंदी वाले अपनी कविता/कहानी आदि पर ही आत्ममुग्ध लगते हैं। यह तो वैसा ही है जैसे उस देश के शासकों का विश्व की महाशक्ति और विश्व गुरू होने का मुगालता पालना जिस देश में दुनिया के सबसे अधिक लोग भूख, कंगाली, बेरोजगारी, बिमारियों और तिरस्कार आदि के शिकार हों फिर भी सभी तरह के शासक समुदाय के 'जुमलोंसे मोहासक्त हों। इसी क्रम में हिंदी को विश्व भाषा (राष्ट्रसंघ की भाषा) बनाने के प्रयास को भी देखा जाना चाहिए जबकि हिंदी की दुर्दशा यह कि हिंदी के अधिकांश विद्यार्थियों को कौन कहे, हिंदी के शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और नेताओं तक को ठीक से हिंदी में बोलना/पढऩा/लिखना और हिंदी में सोचना नहीं आता।

इतिहास और साहित्य की जोड़ी सार्थक और कारगर साबित होती है। अशोक का साहित्यकार भी होना कश्मीरनामा को पठनीय और उपयोगी बनाए रखता है। ऐसे में अशोक का यह प्रयास हर हाल में प्रशंसनीय होता। यह तो बेहतर लेखन है। इसलिए लेखक हमारी बधाई ही नही कृतज्ञता का भी पात्र है।

 

लालबहादुर वर्मा देश के अत्यंत प्रतिष्ठित और लोकप्रिय इतिहासकार हैं। देश विदेश घूमते रहे, इतिहास पर एक अनूठी पत्रिका भी निकाली। उनकी यह रचना 'पहलको आत्मीय आशीर्वाद है।

संपर्क- मो. 9454069645, देहरादून

 


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