कविताएं - विष्णुचंद्र शर्मा
विष्णुचंद्र शर्मा
महज़ एक सवाल
15 अगस्त को मैं अपने कमरे में गिरा था फर्श साफ़ थी घर खाली डॉक्टर ने कहा लो-बीपी है, फ्रूटी ले लें। टांग सीधी की पर खड़े होने की ताकत नहीं थी खुले दरवाज़े से मैं सड़क पर देखता रहा चेहरे या टांगें चलती हुयी... तभी वह आया ... मुझे बैठा दिया चौकी पर उसे चिंता इसी बात की थी गिरने पर कौन देखेगा मुझे! उसने अपना बिस्तरा लगाया मैं सिर्फ उसे देखता रहा रात में और गिनता रहा दिन 16,17,18 देश बड़ा है यह वह भी जानता है पर दिन गिनने से आदमी अपने पैरों पर खड़ा कब होगा! अब मैं उसके दिल दिमाग का एक सवाल हूँ मेरा अकेला आदमी क्या फकत एक सवाल है !
मेरा सर झुका है
फले हुए नारियल सा मेरा सर झुका है ओंठ में दबी है इलायची चेहरे केरल की बाढ़ में इलायची से मुंह खोले हुए हैं बेहाल आदमी पत्तल थामे खड़ा है केरल के गाँव गाँव में पानी बस पानी पसरा है कुछ लोग भूस्खलन में धंसे हैं मेरे सर झुकाने से क्या केरलवासी बचेंगे सुंदर केरल तब एक बगीचा था मैं केरल प्रवास में था तब अब केरल मौत से जूझ रहा है पंजाब कर्नाटक दिल्ली की सरकारें दु:ख में डूबों का हाथ थाम रही हैं ... कहाँ कौन शहर डूबा है कितने बड़े हादसे में कहाँ कौन मरा है कितनों ने जान दी है कितने बड़े हादसे में आदमी बस घिरा है फिर-फिर मेरा सर झुका है !
सुस्त
दिन बीमार का सुस्त रहता है मैं सुस्ती में अखबार के पन्ने उलटता हूँ टीवी में एक एक चैनल बदलता हूँ कभी आँख में दवा डालकर पड़ा रहता हूँ सुस्ती तार-तार है मैं अपनी सुस्ती को गीले कपड़े की तरह पटक रहा हूँ .. और सोचता हूँ - सुस्ती आज़ादी के बाद की गरीबी है! या बेकारों की है विपद-कथा! या बिस्तर पर पड़ी मेरी उत्साहहीनता है .. या कविता का कच्चा माल है! मैं इतिहास के चेहरे दर चेहरे में क्या खोज रहा हूँ! क्या गुज़रे चेहरे बोलते हैं! बस दिन बीमार है लफ्फाजी सुन सुन कर.... जुखाम, घुटने में दर्द भी कोई रोग है ! गन्दा पानी पीने वाला भारत का इंसान तो मर मर कर जीता है! फिर मेरा बीमार दिन है क्या!
विष्णुचंद्र शर्मा वरिष्ठ कवि, जीवनीकार, संपादक और विचारक हैं। आप सादतपुर, दिल्ली में रहते हैं।
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