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सितम्बर - 2018

समकालीनता का ज़ख़्मी गद्य : बहुसंख्यकवाद के साए में हम भारत के लोग

शिवप्रसाद जोशी

डायरी/सामयिक

 

 

 

मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से

मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंदी या हिस्सेदार नहीं

मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम कम से कम

एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो।

- विष्णु खरे

'एक कम सेकविता कोष से साभार

 

गणतंत्र के रुप में 69वें वर्ष जिन लोगों को इस बात से कष्ट था कि हिंदू भारत कब बनेगा, उन्हें ख़ुश हो जाना चाहिए कि वे इस प्रक्रिया के काफी नज़दीक आ गये हैं। मुस्लिमों का राजनीतिक अदृश्यीकरण आज के भारत का एक यथार्थ है। उनकी राजनीतिक स्पेस सिकुड़ चुकी है और समाज और संस्कृति से तो उन्हें बेदखल करने का अभियान परिपूर्ण नहीं तो उसके नज़दीक पहुंच गया है। 69 वें गणतंत्र दिवस की कासगंज तिरंगा-भगवा यात्रा सिर्फ गलियों को रौंदती हुई नहीं निकली थी।

इससे अचूक भला क्या होता कि बाकायदा 'वैधानिकऔर 'लोकतांत्रिकविधियों से उनके राजनीतिक सफाए को अंजाम दिया जाता। यही है बहुसंख्यकवाद की निरंकुशता में घिरा हुआ लोकतंत्र तो सिर्फ एक आभूषण है या एक गली। संसद में इस समय कुल मुस्लिम प्रतिनिधित्व चार फीसदी रह गया है 1957 के बाद न्यूनतम। और आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व करीब छह फीसदी पर सिकुड़ गया है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख से पता चलता है कि गुजरात विधानसभा में डेढ़ प्रतिशत से कुछ ज़्यादा मुस्लिम विधायक हैं। तो देश में करीब 14 फीसदी की कुल मुस्लिम आबादी में से बीजेपी के पास सिर्फ दशमलव दो आठ फीसदी मुस्लिम विधायक हैं। देश की सभी विधानसभाओं में कुल 1418 बीजेपी विधायकों में से सिर्फ चार मुस्लिम हैं। अन्य दलों ने भी मुस्लिमों को इतने वर्षों में ऐसा कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया जो एक संवैधानिक व्यवस्था के तहत उनका लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए था। कांग्रेस के सघन प्रभुत्व वाले 1952-77 के काल में मुस्लिमों का संसदीय प्रतिनिधित्व दो फीसदी से सात फीसदी का था। यूपी विधानसभा में 1951-1977 की अवधि में मुसलमान विधायकों का प्रतिशत करीब छह फीसदी से साढ़े नौ फीसदी का था। बिहार को ही देखें वहां जब 1985 में मुस्लिम आबादी करीब 17 फीसदी थी तो विधानसभा में वे करीब साढ़े दस फीसदी ही पहुंच पाए थे। लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए क्या करना होता है। उस लोकतंत्र के सबसे दमित पीडि़त वंचित तबकों से आप प्रतिनिधित्व लाते हैं। लेकिन होता क्या है - जीतने लायक उम्मीदवारों की शिनाख्त के तर्क के आगे लोकतंत्र की मजबूती का ये दायित्व पड़ा पड़ा सूख जाता है। बहुसंख्यकवाद की फैक्ट्री में 'दायित्वएक ईंधन है।

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एक जानलेवा पैटर्न उभर चुका है। बहुसंख्यकवादी बर्बरता ने आख़िकार एक हत्यारी निर्भयता के लिए जगह बना दी है समाज में। हत्यारे पनप चुके हैं। धर्म से चिन्हित करना बंद करो। तुम्हारा ये तमाशा अब नहीं चलेगा। क्योंकि तुम्हारे प्रेत तुम्हारी ही घात लगा चुके हैं। भागो। जान बचाओ। गुरु या अध्यात्म या ईश्वर की शरण लो।

अगर मैं किसी को पसंद नहीं हूं या मेरा आपसे कोई विवाद हो गया है तो सरेराह दिनदहाड़े कभी भी मेरी गर्दन उड़ाने कोई आ सकता है। लोग एक दूसरे को ऐसे मारने के लिए तत्पर हैं जैसे ये कोई वीडियोगेम हो। रियलटाइम वर्चुअल गेम। एक ब्लेड और एक ब्लू व्हेल जैसे सबके भीतर घंसे हुए हैं। आत्महंता भी और हत्यारा भी। खाप की हिंसा से बहुत आगे की और रोज़ाना की हिंसा में हमारा समाज फिसल चुका है।

हॉलीवुड के मुख्यधारा की एक लोकप्रिय मसाला फिल्म है - ''किंग्समैन द सीक्रेट सर्विस’’। इस फिल्म में विलेन और उसका दस्ता, मोबाइल फोन की चिप्स को वायरस से संक्रमित कर अपने ग्राहकों की वहशी भीड़ तैयार कर देता है जो दुनिया के हर हिस्से में जहां कहीं भी साथ हैं एक दूसरे की जान लेने पर आमादा हो जाती है। ऐसे ही एक भयानक दृश्य में एक कैथेड्रल के भीतर कुर्सियों पर बैठे श्रोताओं में से एक औरत अचानक उठती है और अपने साथ बैठी महिला पर हमला कर देती है। धीरे-धीरे सारे लोग एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं और एक दूसरे पर वार करते हुए, नोंचते हुए, लहुलूहान करते हुए एक दूसरे की हत्या कर देते हैं। विकृत हत्यारा समाज देखते ही देखते लाशों में तब्दील हो जाता है। खून और सन्नाटा और विलेन की सांस ही रह जाती है।

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''भारतीय फासीवाद की एक खासियत ये है कि इसे उस समाज में पनपना होता है जहां अधिकांश जन आबादी लोकतंत्र के प्रति समर्पित रहती है आरै लोकतंत्र को उखाडऩे के एजेंडे से उसका कोई लेनादेना नहीं बनता। भारत में फासिस्ट प्रवृत्तियां इस समय दो रुपों में काम कर रही हैं। एक प्रत्यक्ष रुप से और दूसरी अपेक्षाकृत प्रछन्न और घातक। जो ज्यादा प्रत्यक्ष रुप है उसका संबंध एक साम्प्रदायिक मास बेस के मोबीलाइज़ेशन से है जो अपनी तीव्रता में ऊपर नीचे होता रहता है, लेकिन आरएसएस उसे एक ऑर्गनिक रणनीति के तौर पर देखता है। अति राष्ट्रवाद की विचारधारा से भी इस किस्म का फासीवाद लैस होता है..।’’ (जयरस बानाजी, फासिज़्म  : एसेस ऑन यूरोप ऐंड इंडिया, थ्री एसेस कलेक्टिव।)

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टीवी समाचारों और सीरियलों ने एजेंडा सेट किया हुआ है। यह कभी दरकता नहीं। टीवी न्यूज के कई ऐंकर या तो बुद्ध बनने की फिराक में हैं या युद्ध कराने की फिराक में। वे चुस्त हैं और आंखें प्रगाढ़ हैं। उनकी स्वरनलियां सलामत हैं और कंठ में कोई अवरोध नहीं। वे जब बोलते बोलते थक जाते हैं तो और ज़ोर से बोलते हैं। उनका दिमाग भरा रहता है और जैसे ही वो खाली होने लगता है वे उसे और भर देते हैं। वे नियमित भगवान को नहीं मानते हैं और मुसलमान को मुसलमान ही मानते हैं और दलित को दलित। उनकी दृष्टि में कोई धुंधलका नहीं है। शत्रु स्पष्ट हैं। मित्र नहीं हैं क्योंकि वे निष्पक्ष रहते हैं और पक्षधरता में उन्हें कोई न कोई बास आती है। उनकी सूंघने की शक्ति उच्च कोटि की है। देश को आतंकवाद से मुक्त कराने का ऐतिहासिक कार्यभार उन्हें भक्त बनाता है। इसलिए कन्हैया और उमर खालिद और शाहिला रशीद और रोहित बेमुला और चंद्रशेखर और जिग्नेश मेवाणी, और अरुंधति रॉय और बहुत से कार्यकर्ता और लेखक और कलाकार और कवि और शिक्षक और वैज्ञानिक और इतिहासकार और पत्रकार उन्हें रटे हुए हैं और वे उन्हें मुहावरों की तरह पीटते रहते हैं। वे लोग फिर भी दृश्य में लकीर की तरह धंसे रहते हैं तो हमारे ऐंकर दृश्य को ही बदल देते हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में होता यह रहता है कि जितना ज्यादा वे ऐसा करते हैं और दृश्य के बदले नया दृश्य लाते जाते हैं उतनी ही बार न जाने कैसे उन सारे के सारे दृश्यों में लकीरें उभरने लगती हैं। वे आड़ी-तिरछी रेखाएं।

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गायकी के वो दरवेश हैं। अमीर खान जैसे जंगल में भटक गए राहगीर के लिए एक भरोसे की तरह आते हैं। डर, आशंका और उधेड़बुन, विकलता और निकलने की छटपटाहट। घेरा तोड़ देने की कोशिश। अमीर खान तानों के घेरे बनाते हैं और उन्हें ही फिर पायदान बनाकर दूसरी तरफ उतर जाते हैं। नयी तानों, नये मैदानों, नयी गहराइयों की ओर। इस तरह इतना आना जाना इतना चढऩा उतरना इतनी शांत बेसब्री और इतने घेराव और इतने वृत्त हैं उनके गायन में कि हवाओं की सरसराहटें भी आप वहां सुन सकते हैं, अमीर खान के भीतर से निकलती एक और अमीर खान की कुछ आवाज़ें आती हैं, वो एक बहुत मद्धम आवाज है जैसे कोई संत ध्यान में कुछ बुदबुदा रहा है। उसे किसी खलल की परवाह नहीं रहती। वह तो जैसे दीमकों की बांबी के भीतर चला गया मनुष्य है और वहां साधना में लीन है। अमीर खान संगीत के महात्मा बुद्ध हैं।

गिरोह कहते हैं राम का मंदिर वहीं बनेगा, मस्जिद गिरा दी गयी है। और जहां राम बिराजे थे वो तो दूर कलकत्ते में अमीर खान का मन था। उनका अंत:स्थल। जिनके मन राम बिराजे, मालकौंस में एक बेमिसाल बंदिश है। राम का असली वास तो इस आवाज़ में है। फिर ये कौनसे राम के लिए कौनसी जगह की झपटमारी है किन लोगों की मचाई हुई। कौन हैं ये लोग जो मनुष्यता के लिए नहीं मूर्ति के लिए जगह के मुकदमे में उलझ गये।

अमीर खान की गायकी की छाया में हम लोगों ने प्रेम किया और तड़पे। सवाल ढूंढ़े, सवाल पूछे। रुके, दौड़े, सहमे, संकोच किया। हम पर जब बद$िकस्मती या नाइंसाफी की मार पड़ी तो हमने अमीर खान को सुना। हमने अपने बहुत खुशी भरे क्षण में और बहुत निराशा और पराजय के मौ$कों पर उस आवाज़ की स्थिरता और अविचलता में अपनी डगमगाहटें गिरा दी।

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अरुंधति रॉय इसलिए समकालीन भारतीय लेखकों में सबसे तीक्ष्ण और सबसे दुरुस्त और सबसे जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने उन बहुत मामूली सी दिखने वाली चीज़ों को नोट कर लिया है और बहुत बड़ी सी चीज़ों को भी। उन्होंने एक साथ मानो समूची भारतीय संवेदना, समाज, संस्कृति और साहित्य के मर्म को समस्त भारतीय भाषाओं के समस्त उत्तापों, उद्विग्नताओं और रोमानों को खुद में संहिताबद्ध कर लिया है। यहां आशय किसी लेखक के रचनाकर्म को कमतर देखने या दिखाने की कोशिश नहीं है, आशय ये है कि वे सब के सब अरुंधति के साहित्यिक फलसफे में निबद्ध हैं। इस लेखिका का ये प्रताप है। विनम्रतापूर्वक उनसे सीखना चाहिए। न भक्तिभावना में न श्रेष्ठतर की भावना में। क्या अरुंधति इसलिए सफल हैं कि वो ऐसी भाषा की रचनाकार हैं जिसका बाज़ार और जगत में बोलबाला है। क्या ऐसा कहकर हम अपनी किसी ग्रंथि को ही प्रकट नहीं करते? या अपना ही कोई दोष झट से छिपा लेते हैं? िफक्शन को स्थगित कर तत्काल एक युद्ध में उतरने की तरह जो राईटिंग है जिसमें साहस के और िफक्शन के टूल्स काम आते हैं - ऐसा भारत में कितने लेखकों से संभव हो पाया है। हिंदी में प्रहार मुद्रा हावी है। पीड़ाएं और प्रशंसाएं विभिन्न शाखाओं पर फडफ़ड़ाती रहती हैं। बहुत कम यानी गिनती के लेखक छोड़ दे तो एक जातीय, भाषायी और श्रेष्ठता का अहंकार है। ईगो का अपना तिलिस्म होता है और लेखकीय कर्म के लिए इस तिलिस्म का बने रहना भी आवश्यक है, मुश्किल तब आती है जब ये ईगो अपने तिलिस्म को ही तोडऩे के दर्प पर अमादा हो जाता है और तब लेखकीय असाधारणता, तुच्छता में सिकुडऩे लगती है। अपने निजी गौरवों की हि$फाजत करें लेकिन ऐसे न बन जाएं जैसे आज के ये गौ-रक्षक।

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''ये एक मुश्किल वक्त है। इस समय हमें ऐसे लेखकों की आवाज़ों की दरकार होगी जो हमारे किसी तरह जिए जाने के विकल्पों को देख सकते हैं जो हमारे भयग्रस्त समाज और उसकी ऑबसेसिव प्रौद्योगिकियों के समांतर जीने के अन्य तरीकों को देख सकते हैं; और जो उम्मीद के वास्तविक धरातलों की कल्पना भी कर सकते हैं। हमें ऐसे लेखकों की ज़रूरत होगी जो आज़ादी को याद रख सकते हैं। ऐसे कवि, स्वप्नदर्शी - जो एक वृहद यथार्थ के यथार्थवादी होंगे। ठीक अभी, हमें ऐसे लेखकों की ज़रूरत है जिन्हें एक बाज़ारू वस्तु के उत्पादन और एक कला अभ्यास के बीच का $फर्क पता है। ...मैं देखती हूं कि हम अधिकांश लोग, जो उत्पादक हैं- निर्माता हैं, जो किताबें लिखते हैं और उन्हें निर्मित करते हैं - वे इस चीज़ को कुबूल कर लेते हैं - ख़ुद को मुनाफाखोरों के हवाले कर देते हैं, डिओडरन्ट की तरह बेचे जाने के लिए। ...किताबें महज़ कमोडिटी (उत्पाद) नही हैं। कला के लक्ष्यों से अक्सर मुना$फे के उद्देश्य का टकराव होता रहता है। हम पूंजीवाद में रहते हैं, इसकी ता$कत अपरिहार्य लगती है - लेकिन ये बात तो महाराजाओं के दैवीय अधिकार पर भी लागू होती थी। किसी भी मनुष्य ता$कत का प्रतिरोध, मनुष्य ही कर सकते हैं या उसे बदल सकते हैं। प्रतिरोध और परिवर्तन अ$क्सर कला में प्रारंभ होते हैं। हमारी कला में - शब्दों की कला में - तो कुछ ज़्यादा ही।’’

(अमेरिका की प्रसिद्ध साइंस िफक्शन लेखिका उर्सुला ले ग्वेन के एक वक्तव्य का अंश। उनका इस साल जनवरी में 88 साल की उम्र में निधन हो गया था।)

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चीले के विख्यात कवि निकोनार पारा का इस साल 23 जनवरी को निधन हो गया था। एक सदी से ज्यादा उनकी आयु हो गयी थी। उनके अग्रज पाब्लो नेरूदा ने अगर वंचितों और उत्पीडि़तों की कविता लिखी है तो पारा वंचित और उत्पीडि़त ही बन जाते हैं, वो उनमें से एक हो गये। निकोनार पारा ''फैट पोएट्री के िखलाफ थे। निकोनार की तरह उनकी बहन वियोलेता पारा भी अपने समय की असाधारण शख्सियत थीं। लोक गायिका के रुप में प्रसिद्ध वियोलेता ने ही चीले के न्यू सांग आंदोलन की नींव रखी थी।

निकोनार पारा की अंतिम इच्छा थी कि अंतिम यात्रा में उनकी बहन वियोलेता पारा के गीत बजाए जाएं। शव चर्च में रखा था। पादरियों को ये आखिरी इच्छा चर्च की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल लगी। वियोलेता का गाना चर्च से बजे, ये उसकी पवित्रता के खिलाफ था। निकोनार की एक बेटी ने चर्च की मंशा, बाहर जमा शोकाकुल जनता को माइक्रोफोन से बता दी। शोरोगुल का एक घुमाव उठा, वो चर्च की दीवारों को लांघता, इससे पहले ही चर्च के लाउडस्पीकरों से वियोलेता का विख्यात गीत बज उठा- ग्रासियास अ ला वीड़ा (शुक्रिया ज़िंदगी) अपने प्रिय कवि को अंतिम विदाई देने आए शोकसंतप्त लोग सहसा झूम उठे। इसी साधारण जन की झूम में निकोनार पारा निबद्ध थे।

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ज्यां-पॉल सार्त्र मेरे सबसे प्रिय लेखकों-दार्शनिकों में हैं। अंतोनियो ग्राम्शी की ही तरह वो माक्र्सवादी विचार के नये आयामों की तलाश करते हैं। संशोधनवादियों और स्टालिनवादियों और डॉगमेटिक वाम से आगे ये लेखक चिंतक, माक्र्सवाद के मूल तत्व को सबसे पहले तो इन विचलनों की चोट से बचाने का काम करते हैं जो सोवियत दौर से लेकर अब तक यूरोप, लातिन अमेरिका, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और खासकर भारतीय वाम को खाए जा रहा है। सार्त्र के सोवियत और यूरोपीय कम्युनिस्टों के साथ खट्टे मीठे रिश्ते थे। एक लेखक पार्टी के दायरे में अंटता नहीं था। सार्त्र को वैसे लेखकों से परेशानी होती थी। वे चाहते थे कि सार्त्र भी भक्तिमार्ग पर चलें। भला ये कैसे संभव होता। सार्त्र को लेखकों से परेशानी होती थी। वे चाहते थे कि सार्त्र भी भक्तिमार्ग पर चले। भला ये कैसे संभव होता। सार्त्र की अपेक्षाकृत एक कम चर्चित किताब का नाम है: 'व्हॉट इज़ लिटरेचर?’ इस किताब का अनुवाद करते हुए मैं ऐसी कई पंक्तियों से होकर गुज़रा, पर अटका, जो आज के समय को ही मानो उद्घाटित करती हों। सार्त्र कहते थे कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि साहित्य अनश्वर होता है और कोई भी लेखन आने वाले कल के लिए होता हो, वो इस धारणा के भी सख्त विरोधी थे। लेकिन सार्त्र शायद अपनी विनम्रता में ही ऐसा कह रहे होंगे, क्योंकि एक जगह मैंने ये पाया :

''हमें हर रोज पक्ष लेना होगा : बतौर लेखक अपने जीवन में, अपने आलेखों में, अपनी किताबों, और अपने नाटकों में। हमेशा इस बात का ख्याल रहे कि संपूर्ण आज़ादी के अधिकारों को, औपचारिक और भौतिक आज़ादियों के एक प्रभावी संश्लेषण के रूप में, हम अपने निर्देशक सिद्धांतों के तौर पर मह$फूज रख सकें। ये आज़ादी हमारे उपन्यासों, हमारे निबंधों, और हमारे नाटकों में नुमाया होनी चाहिए। और अगर हमारे किरदार फिर भी उसका आनंद नहीं उठा पाएं, अगर वे हमारे समय में ही जीते रहें, तब उस सूरत में हम कम से कम इतना तो उन्हें दिखाने में समर्थ रहे हैं कि इसके (आज़ादी के) न होने की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। बढिय़ा शैली में गालियों और नाइंसाफियों की मज़म्मत करना काफी नहीं है, न ही बुर्जुआजी का शानदार और नकारात्मक मनोविज्ञानी अध्ययन कर लेना काफी है और साहित्य को बचाने के नाम पर अपनी कलम संगठनों की सेवा में खपा देना भी कतई काफी नहीं है। हमें अपने साहित्य में एक पोजीशन लेनी होगी क्योंकि साहित्य मूल रूप से पोज़ीशन लेना ही है।’’

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सार्त्र को पढ़ते हुए मुक्तिबोध याद आते हैं। कितनी जगहों पर कैसा साम्य। उधेड़बुन, संताप और विश्लेषण को परत दर परत दिखाने का विलक्षण अविचल गद्य। मीमांसा को दूर तक ले जाना जैसे लालटेन की रोशनी में किसी भटके हुए पथिक को उसके मुकाम तक पहुंचाने की आत्मीय ज़ि, मानवीय कार्यभार।

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वरिष्ठ पत्रकार, शायर, खेलप्रेमी, आईआईएमसी के पूर्व सहपाठी और मेरे मित्र समी अहमद ने एक शेर कहा है:

                   मरज़ कोई नहीं तुमको, हकीम ने बारहा कहा मुझसे

                   ज़रा भिडऩा तुम कम कर दो, कलेजा चोट खाता

 

 


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