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सितम्बर - 2018

आवृत्ति और तीव्रता

स्कंद शुक्ल

विज्ञान निरंतर/तीसरी कड़ी

 

 

 

उसने रुचिर की ओर उसी विचित्र तिरस्कारी हास्य के साथ देखा था और कहा था , ''पदार्थ!’’

भौतिकी की छात्रा होने के नाते वह यह अक्सर करती। जब प्रेम की ऊँचाइयों का स्पर्श पाती , तो उसे 'प्रकाशकहती। लेकिन ज्यों ही उसके मन को लगता कि यह अन्य साथी लड़कों-सा ही उथला और हलका है, उसके मुँह से 'पदार्थकिसी अर्धविकसित गाली-सा बाहर आता।

पदार्थ और प्रकाश में ऊँचाई-निचाई का चुनाव आम जन के लिए मुश्किल कहाँ है! संस्कार ही कुछ मन में ऐसे गहरे पैठे हैं हमारे। पदार्थ भारी है , लेकिन यह भार हमें उठने से रोकता है। हमें धरातल पर रखता है। हमें मूलभूत आवश्यकताओं से आगे सोचने और बढऩे ही नहीं देता। पदार्थ में द्रव्यता है। द्रव्यता यानी ...

''मैंने कैलफ़ोर्निया की रोवेल स्कॉलरशिप के लिए अप्लाई किया है। अगले महीने तक पता चल जाएगा...’’ रुचिर उसे बता रहा था।

बदले में वह कुछ न कहती। मुस्कुराती और उस पर से नज़र हटाकर कहीं दूर अज्ञात पर टिका देती। साथ ही बाएँ अँगूठे को तर्जनी पर पैसों के अन्दाज़ में चलाती। और आँखों से दो आँसू नीचे को ढलक पड़ते।

''अब तुम तो द्रव न बहाओ अपना! तुम्हें तो पता है कि...’’ कहते हुए वह दोनों गीले मोतियों को मिटा देता। मानो चाम पर उन्हें पीस कर पनीला बुरादा फैला दिया हो। रुचिर अपने किसी भी निर्णय में उसे रोता नहीं देख सकता।

रुचिर को यह यात्रा करनी ही है। यह निर्णय उसका निजी-भर नहीं है, पूरे परिवार का है। महत्त्वाकांक्षा जब व्यक्तिगत हो , तो उससे संवाद किया जा सकता है। लेकिन जब वह कौटुम्बिक हो जाए , तो एक ही रास्ता है - समर्पण। सो रुचिर ने समर्पण किया।

यों समर्पण उसने भी किया है। निर्धन परिवार में जन्मी पाँच बेटियों में से सबसे बड़ी को घर से इतनी दूर कोई भौतिकी में मास्टर्स करने भेजता है भला! लेकिन उसके पिता ने उसे रोका नहीं। वे उसकी शादी के लिए लड़का ढूँढ़ रहे हैं, लेकिन उसे उसकी इच्छा ढूँढऩे दे रहे हैं। पर अब आगे यह स्वतन्त्रता भी कहाँ तक साथ निभाएगी! हर चाहत न घट सकती है और न घटती है! कहाँ है उनके पास बाएँ अँगूठे का तर्जनी पर वह फिसलाव!

''तुमको भी अप्लाई करना था स्कॉलरशिप के लिए! मैंने कहा था न!’’ रुचिर आँसुओं को पोछने के स्थान पर उनके स्रोत को तर्क से बाँधने की कोशिश करता। लेकिन वह ऐसी तरल कि तर्क से रिसकर फूट निकलती। ''तुम्हारी तरह मैं अपने घर की इकलौती नहीं रुचिर। मेरे पीछे चार बहनें और हैं। पापा आज़ादी दे सकते हैं, अर्थ नहीं। तुमको दोनों मिले, तुम भाग्यवान् हो।’’

''फ़िज़िक्स पढऩे के बाद भी 'भाग्यशब्द को शब्दकोश से निकाला नहीं तुमने?’’

''क्वॉण्टम की दुनिया में एक शब्द इंडिटर्मिनेसी भी होती है रुचिर। अनिश्चितता। न जान पाना कि आगे अगले पल क्या होगा।’’

क्वॉण्टम! यानी पैकेट! शब्द जिसकी भौतिकीय समझ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विकसित होनी आरम्भ हुई और फिर ऐसी लहरनुमा उठी कि सम्पूर्ण भौतिकी को एकदम नया दृष्टिकोण दे दिया!

लहर! 'लहरशब्द से हम कितने भाव-विभोर हो जाते हैं! सागर की एक गीली बाँह उठती है और हमें सहलाती हुई वापस सिमटकर समा जाती है। तरंग की तारंगिकता में बात ही कुछ ऐसी है। हमने सदियों से उसके विच्छेद या उसके स्पर्श को तोड़-तोड़कर समझने की कोशिश ही नहीं की। हमने लहरों में कण नहीं देखे, कणों में लहरें नहीं! हमने कभी सोचा ही नहीं कि कण भी लहर हो सकते हैं, लहर भी कणस्वरूप। हमने हमेशा कणों को मिलाकर उनसे पदार्थ बनाए और तरंगों से मिलाकर प्रकाश-सरीखी ऊर्जा। हम दोनों को कभी एक-साथ कहीं देख ही न पाए!

उनका परिचय भी पदार्थ-प्रकाश के इसी द्वन्द्व को समझते-बूझते उस क्लास में हुआ था, जहाँ फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव की चर्चा उस दिन अचानक चल निकली थी।

''सो यो पीपुल आर ऑलरेडी अवेयर ऑफ द लाइट्स इंटरैक्शन विद मैटर ... ह्वॉट आइंस्टाइन पब्लिश्ड इन 1905 ...’’ रजत सर पढ़ाते हुए कह रहे थे।

उसी क्षण उसे लगा कि दो जोड़ी आँखें उसपर लगातार पड़ रही हैं। बगल से। दृष्टि-वर्षा। नज़र का प्रकाश। लेकिन इस बरसात में आज उसने कुछ अजीब और अलग महसूस किया। ऐसा जैसा पहले उसके साथ कभी-कहीं नहीं घटा था।

उसे जब भी किसी ने धातु का टुकड़ा कहा, तो वह चिढ़ती रही। इंसान भला क्यों सोना-चाँदी की बिरादरी में शामिल होना चाहेगा! यह ठीक है कि पूरी दुनिया पदार्थ के लिए आपधापी मचा रही है और उसकी उसे इतनी कोई कदर नहीं, लेकिन फिर भी वह अपनी देहकान्ति-भर से जानी जाए , यह उसे कभी गँवारा नहीं हुआ ...

''सौर-प्रकाश हर जगह रोज़ बिखरता है बारह घण्टे आसमान से। फिर रात में भी चाँद। हमारे बनाये लट्टू। बिजली जब तक न जाए, हम प्रकाश को मिस नहीं करते। लेकिन पदार्थ...’’ रुचिर उससे तर्जनी पर उसी तरह अँगूठा फेरते हुए कहता था। ''उसे तो हम हमेशा मिस करते हैं , हमेशा!’’

''तुम तो पदार्थ की ढेरी पर पैदा हुए हो। तुम प्रकाश को मिस करते हो?’’

''मेरे घर में लाइट नहीं जाती डार्लिंग। जहाँ मैं रहता हूँ ,वहाँ बड़े-बड़े वीवीआईपी ...’’

''पदार्थ। मटीरियलिस्टिक है यह लड़का।’’ वह बात काट देती।

''तुम्हें भी लोग मटीरियल के नाते पसन्द करते हैं। अब न कहना कि तुम जानती नहीं! तुम भी उनके लिए मटीरियल ही हो। मैटर। महज़ मैटर। कोई ज्योति-आलोक-प्रकाश नहीं।’’

''जानती हूँ। क्यों नहीं जानती होऊँगी। मैं अपनी धात्वीयता जानती हूँ। लेकिन धातु कहलाना मुझे पसन्द नहीं। धातु केवल देह है...’’

''$गलत। तुम जानती हो ,लेकिन मानती नहीं। तुम मैटर को लाइट से इन्फीरियर समझती हो। तुम सोचती हो, जो मैटर की बात करते हैं, वे लाइट को बूझ न सके हैं। वे केवल बाहरी स्पर्श, केवल बाहरी संसर्ग , केवल बाहरी सम्मेल ...’’

वह उसका हाथ पकड़ लेती। ''मेरे लिए यह मायने नहीं रखता कि लोग क्या समझते हैं। मेरे लिए तुम्हारा सोचना मायने रखता है। तुमने तो मुझमें प्रकाश की परख की है न?’’

वह उसकी आँखों में वही चिरपरिचित दृष्टि-वर्षण करने लगता और वह तपने लगती। विद्युत छोड़ती किसी विद्युल्लता-सी। मानो फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव जी रही हो। आइंस्टाइन के उस शोधपत्र में समाती हुई।

''प्रकाश और पदार्थ में इतना बड़ा विभेद नहीं, जितना तुम खींचती हो। पता है ?’’

''पर है भी तो। प्रकाश के कणों का द्रव्यमान् नहीं होता। सभी पदार्थों का होता है।’’

फिर वह कॉलेज के पदार्थ-प्रकाश-सम्पर्कों को याद करने लगती। हर लड़का जो प्रकाश-सा उस पर पड़ता। उससे यों जुड़ता कि मानो उसमें बिजली ला ही देगा। लेकिन कुछ नहीं। वह ऐसी थी ही नहीं। उनमें वह आवृत्ति ही नहीं, कि उसमें उठाव उपजा सकें। वह उनसे तनिक न जगी। यथावत् रही। जस-की-तस।

लेकिन आशि तो फिर आशि ठहरे। तीव्रता से युक्त होने के बाद भी से वे बार-बार प्रयास न करते। कि शायद उसमें हिलोर लगा दें। किंचित् वह तड़क उठे। कदाचित् उसमें से बहाव बह निकले!  लड़कों में आवृत्ति यानी दोहराव भी भला क्या ज़रूरत। एक नहीं तो कोई और सही। दूसरी कोई जिससे वे जुड़ सकें। कहीं और ट्राई।

तीव्रता बनाम आवृत्ति का यह द्वन्द्व उसके मन में पहले-पहल तभी आया। क्या महत्त्वपूर्ण है सम्बन्ध के घटित होने में : तीव्रता या आवृत्ति ? सामान्य सोच रखते हुए वह भी यही सोचती आयी थी कि सम्बन्ध के लिए पहली शर्त तीव्रता है। तीव्र होगा कोई , तो वह बह चलेगी। आवृत्ति तो फिर बाद की बात है। लेकिन सच उसके सामने किसी और ही रूप में सामने आया।

कॉलेज के पहला वर्ष बीतते-बीतते रुचिर का उसके जीवन में प्रवेश हुआ। वह जिसमें उसे विद्युतीय करने की ऊर्जा थी। आवृत्ति और तीव्रता , दोनों भरपूर थीं। आज भी हैं। वह जानती है कि उसके एक दृक्पात से वह लहक उठती है। उसमें से बिजली फूटने लगती है। ऐसा पहले उसे कभी न हुआ था।

रुचिर ने उससे जुडऩे के लिए, उसमें प्रभाव पैदा करने के लिए, आवृत्ति दिखायी। आवश्यक आवृत्ति। आवृत्ति जो प्रेम में आवश्यक है। रुचिर की तीव्रता से उसका परिचय तो बहुत बाद में हुआ। जब वे मिले। वह जब मिलता, तब पड़ता। पड़ता, तो प्रभाव छोड़ जाता।

और फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव! जितनी बार उसे पढ़ा जाता , वह उसे अपने जीवन में घटती घटनाओं का ताना-बाना जान पड़ता। धातु का टुकड़ा। उसपर पड़ता प्रकाश। प्रकाश जो स्वयं फ़ोटॉन-कणों से बना है। कण जो तरंग भी हैं। जो एक-साथ दोनों हो सकते हैं। कण जिनमें ऊर्जा है। कण जिनकी एक आवृत्ति है। वे धातु से टकराते हैं। फलस्वरूप धातु से एलेक्ट्रॉन बाहर को निकल पड़ते हैं। एलेक्ट्रॉनों का यही प्रवाह तो विद्युत् है ! एलेक्ट्रिसिटी!

जब भी रुचिर से वह मिलती, तो इस पर चर्चा चल पड़ती। जीवन में प्रवेश करता हर पुरुष मानो प्रकाश का एक प्रकार। उसकी अपनी ऊर्जा। अपनी आवृत्ति। अपनी तीव्रता। बार-बार किसी स्त्री से टकराना, उस पुरुष की आवृत्ति हो सकती है; कैसे वह प्रस्तुत होता है, उसकी तीव्रता। लेकिन तीव्रता-मात्र अधिक होने से स्त्री में प्रेम का विद्युतीय प्रवाह नहीं जागता, समझे? प्रेम के एलेक्ट्रॉन तब ही बाहर को फूटते हैं, जब सामने वाले में फ्रीक्वेंसी हो। फ्रीक्वेंसी। इंटेंसिटी तो बहुत बाद की बात है।

''मुझमें इंटेंसिटी है? तुम्हें लगती है?’’ रुचिर अपनी ऊर्जस्वित नज़रें उसपर जमा देता।

वह बह चलती। धातु के किसी खण्ड से जैसे एलेक्ट्रॉन फूटे पड़ रहे हों। प्रकाश का पदार्थ पर प्रभाव और उससे विद्युत् का नि:सरण।

और फिर आज! वह जा रहा है। सम्बन्ध यहीं छोड़ कर, सम्बन्ध से परे। सदा के लिए।

उसे वह प्रकाश समझती थी। ऊर्जावान् ज्योति। लेकिन आज वह पदार्थ जान पड़ रहा है। बुझा-बुझा लेकिन निश्चायत्मक कहीं अधिक। आलोकहीन होकर वह कितना संयत-नियत हो गया है।

अब तक शाम हो चली है। कॉलेज की स्ट्रीटलाइटें जल पड़ी हैं। वे जिन्होंने दिन-भर सूर्य का प्रकाश बटोरा है। अब उनकी बारी है। सूर्य बुझ चुका है। परन्तु उन्हें जलना है। विद्युत-प्रवाह अनवरत।

वह धीमे से उठती है। चलने से पहले एक आ$िखरी बार पलट कर पूछती है - ''एक्सपेरिमेंट ओवर, रुचिर? यही फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव था?’’

वह कुछ कह नहीं पाता। उसकी दोनों जलती हथेलियाँ अपने हाथों में लेता है और उसे अपने में भींच लेता है।

 

 

( प्रकाश क्या है? इसकी प्रकृति कैसी है? यह किससे बना है? इस तरह के सवालों से विद्वानों को सदियों से उलझाए रखा है। कभी कणों से तो कभी तरंगों से निर्मित इसे भौतिकशास्त्रियों द्वारा बताया जाता रहा। लेकिन फिर बीसवीं सदी के आरम्भ में एक बड़ा आमूल-चूल बदलाव विज्ञान में देखने को मिला, जिसने सिद्ध करके यह प्रतिपादित किया कि प्रकाश दरअसल कणों-तरंगों, दोनों से निर्मित है और दोनों के गुण-धर्म प्रदर्शित करता है। यह जिन कणों से निर्मित है, वे प्रकाश-कण फ़ोटॉन कहलाते हैं।

एल्बर्ट आइंस्टाइन उन कई वैज्ञानिकों में शामिल हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी के आरम्भ में प्रकाश और पदार्थ के परस्पर सम्बन्ध का अध्ययन किया और कई बातें संसार के सामने रखीं। क्या होता है, जब कोई प्रकाश किसी पदार्थ (जैसे कि धातु के किसी टुकड़े) पर पड़ता है? किस तरह से फ़ोटॉन उसके भीतर के एलेक्ट्रॉनों के टकराते और उन्हें बाहर की ओर विस्थापित करते हैं? एलेक्ट्रॉनों की यह बाहर निकलती धारा $फ़ोटॉनों के किन गुणों पर निर्भर है? आइंस्टाइन ने जिन प्रयोगों के माध्यम से यह सब हमें बताया, वे आज फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव के रूप में जाने जाते हैं और इसी के लिए उन्हें 1921 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (न कि सापेक्षता के सिद्धान्त के लिए!) आगे जाकर फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव जैसे प्रयोग क्वांटम-भौतिकी की समझ विकसित करने के लिए महत्त्वपूर्ण मील के पत्थर साबित हुए। क्वाण्टम यानी पैकेट : पैकेट जिनमें ऊर्जा है। प्रकाश के फ़ोटॉन नामक कण इन्हीं क्वाण्टमों के धारक होते हैं।

प्रकाश को तीव्रता से युक्त कणों से बना अगर न माना जाए, तो आप फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव की व्याख्या नहीं कर सकते। प्रकाश तरंग भी है, सो इन तरंगों की एक आवृत्ति भी है। आवृत्ति और तीव्रता में पहले महत्त्व किसका है और कितना है, इसी को ध्यान में रखते हुए इस कल्पना का ताना-बाना बुना गया है।)

- जारी

 

 

 

संपर्क - मो. 0948696457, लखनऊ


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