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सितम्बर - 2018

ओह अगरतला

कृष्ण कल्पित

कविता

 एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान अब एक जुआघर है

 

 

 

1.

एक वंचित राजकुमार के गाँव का नाम है अगरतला

 

सचिन देब बर्मन भाग गया

पहले कलकत्ता फिर बम्बई

सारे मछुआरे चले गये उसके साथ

सारा संगीत

संगे-मरमर से बने हुये

वे सुचिक्कन श्वेत राज-महल

जलाशयों से और आदिवासियों की झोपडिय़ों से घिरे हुए

 

बोडतल्ला (चोर) बाज़ार का नाम है अगरतला के जहाँ त्रिपुरा के

मुख्यमंत्री नृपेन चक्रबर्ती सुबह-सुबह रिक्शा में बैठकर मछली रीदने

और बाज़ार करने आते थे कोई भूमि-सुधार नहीं, ईमानदारी की ख्याति

रही उनकी अंत तक

1997 में गया था मैं अगरतला और जब 1999 में लौटा तो माणिक

सरकार वहाँ का मुख्यमंत्री था

 

कितना पानी बह गया हाबड़ा नदी में

जो अगरतला को काटती है

जिस पर एक पुल है

जिसमें हर रोज़ कोई लाश मिलती थी 1998 में

त्रिपुरा आतंक से ढकी हुई घाटी का नाम है

जिसकी राजधानी अगरतला है

 

त्रिपुरा के राजा ने पहचानी थी

किशोर रवींद्र की प्रतिभा

दिया था वज़ीफ़ा विदेश-यात्रा का

 

97 में साइकिल पर चल कर आता था माणिक सरकार दूरदर्शन के

$फ्तर वहीं कैंटीन में खा लेता था खाना जिसे शायद वह सिगरेट पीने

के लिये खाता होगा उसकी सरलता, सादगी, ईमानदारी के किस्से

जनमानस में आज तक प्रसिद्ध हैं लेकिन उससे कोई नहीं पूछता कि

तुमने 20 बरसों में क्या किया वही तस्करी, वही आतंक, वही हत्यायें, वही

दमन, वही रीबी क्या किया तुमने

 

तुम्हारे सामने कोकबरोक जैसी ज़िंदा ज़बान को ख़ामोश किया जाता रहा

 

प्रिय माणिक सरकार,

लो सिगरेट पिओ और मेरी बात सुनो कॉमरेड,

मुख्यमंत्री मदर टेरेसा नहीं होता

 

ओह, वे कूपियों की झिल-मिल रोशनी से चमकते बाज़ार

वे तड़पती हुई मछलियाँ

 

आज 20 बरस बाद याद आया अगरतला

जो कभी अगर के अनगिनत वृक्षों से घिरा हुआ था

जिसकी धूम के कभी समूचा आर्यावृत धूमायित रहता था!

 

2.

अगरतला अब एक टूटी हुई बाँसुरी है

 

एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान

अब एक जुआघर है

उजड़ा हुआ एक चाय-बाग़ा

 

नाथ-पंथियों की प्राचीन रमण-स्थली

हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला

 

उड़ीसा और बंगाल से पहले

यह ताबूत की अनन्तिम कील है

 

जिस विजन-पथ से चोरी-छुपे तुम आती थी मिलने

त्रिपुर-सुंदरी,

वह अब लुटेरों की राह है!

 

3.

 

रेलगाड़ी पहुँची अगरतला

मेरे लौट आने के बाद

 

ढाका और अगरतला के बीच जो चलती थी

वह बस बन्द हो गयी होगी

 

चोर बाज़ार के नुक्कड़ पर बिकता

वह ज़हीन गाँजा

और सौ-सौ रुपये में बिकती

बांग्लादेश से तस्करी के जरिये आई सूती कमीज़ें

 

मंदिरों में नहीं

इलेक्शन-बूथों के सामने औरतों की अति लंबी कतारें

 

नदियों को और सुंदर बनाती हुईं नावें

ले चल पार

मेरे साजन हैं उस पार

 

जिस साल मैं लौटकर आया त्रिपुरा में

उस समय अगरतला में एक सोनमछरी पैदा हुई थी

 

बाँस और बाँसुरियों के देश में

अनन्नास अब तक रस से भर गये होंगे!

 

तुम्हें 2019 की चिंता है मैं 2119 को देख रहा हूँ

(स्वीडिश चित्रकार मिया साल्बर्ग की पेन्टिंग 'द लास्ट बस’)

 

अंतिम आशा

 

जो मंदबुद्धि यह सोच रहे हैं कि

मौज़ूदा सरकार का तख्ता-पलट होने के बाद रामराज्य आ जायेगा

वे मुग़ालते में हैं और बहुत कम सोच रहे हैं

तुम देश के बारे में सोच रहे हो

जबकि यह पूरी पृथ्वी अंदेशों से घिरी हुई है

एक काली छाया मंडराती रहती है इसके चारों ओर

तुम्हें 2019 की चिंता है

में 2119 को देख रहा हूँ

अभी यह दुनिया और रसातल में जायेगी

सात सौ समुद्रों का पीछा सात सौ समुद्री-डाकू कर रहे हैं

स्त्रियों को सताया जाता रहेगा

दलितों-आदिवासियों के घर जलाये जाते रहेंगे

कमज़ोर को अपराधी ठहराया जाता रहेगा

क्लासिक-फ़ासीवाद की सतत प्रतीक्षा में बैठे कवियों

अभी यह दुनिया अधिक बर्बर होगी

लुटेरों ने कहर बरपा रखा है

धर्म अभी सबसे बड़ा अधर्म है

राष्ट्र और लोकतंत्र नहीं

मनुष्यता अभी तरे में है

मनुष्य इन दिनों सर्वाधिक गिरा हुआ आदमी है

यह ऐसा समय है

जब टेलीफोन की घंटी बजती है तो लगता है

मौत की घंटी बज रही है

9 बजकर 30 मिनट पर

अजमेरी गेट से जगतपुरा जाने वाली 309 नम्बर की

सिटी-बस ही अब अंतिम आशा है!

 

नया काफ़िर बोध

1.

 

नदियाँ हमारी नावें हमारी

मत्स्येन्द्रनाथ हमारे गोरखनाथ हमारे चर्पटीनाथ हमारे

शताब्दियों से जल रहा यह अखण्डधूना हमारो-

 

तुम यहाँ क्या कर रहे हो, ठाकुर?

 

2.

 

कोई युवा निषाद थाम लेता है उत्तरपूर्व से आते विजयरथ को-

कोई बढ़ई का बेटा कील निकाल देता है

कोई अहीर का छोरा रोक लेता है अश्वमेध के अश्व को

एक दलित! सिंहिनी की गर्जना से सारा जंगल खामोश हो जाता है-

 

3.

 

ये घोड़े हमारे हैं

ये मैदान हमारे हैं

ये गढ़ हमारे हैं

ये मठ हमारे हैं

 

आप यहाँ साधुवेश में क्या कर रहे हैं, ठाकुर?

 

4.

 

तुम हिन्दू महासभा की बात करते हो वो अभी कल की बात है राष्ट्रीय स्वयंसेवक

संग को सौ बरस भी पूरे नहीं हुए

तुम भारतीय जनता पार्टी की क्या बात करते हो नाथपंथ की परम्परा हज़ार साल से

अधिक पुरानी है जो मानव

इतिहास की एक सामाजिक क्रांति थी जिसमें कोई छोटाबड़ा नहीं - सब बराबर थे

चमार से लेकर ठाकुर तक कोई

भी वहां परमपद पा सकता था नाथपंथ ब्राह्मण-पाखंड के विरुद्ध था यहाँ सब की

समाई थी धुर त्रिपुरा-यज्ञ-क्षत्रिय-

अफगानिस्तान तक फैला हुआ नाथपंथ एक समावेशी रास्ता था जहाँ कालांतर में

पिछले-बंगाल से लेकर धुर सिंध

मुसलमानों बुनकरों जोगियों को भी रहने की बराबर की जगह मिली

 

इस मठ में मुसलमान जोगी जब ईद मनाते थे तो अबीर गुलाल भी उड़ाया करते थे

 

यह तुम्हारी जगह नहीं है, ठाकुर!

 

5.

 

गोरखपुर पूरब की राजधानी है

यह हमारा नगर है और यह मठ भी हमारा है

 

अन्यायी के सामने

झुके नहीं ये माथ

तरफ तुम्हारी आ रहा

बाबा गोरखनाथ!

 

6.

 

नाथ सम्प्रदाय ही उग्र हिन्दुत्व की विघटनकारी राजनीति का तोड़ हो सकता है

 

गोरखपुर में ब्राह्मण ठाकुर लड़ते रहे और एक तीस बरस का निषादों का छोरा

जीतकर आ गया

 

यही नयापंथ है

यह नया काफ़िर बोध है!

 

7.

 

जाओ रे जोगी

तुम जाओ रे!

 

टिटहरी की आवाज़

 

इतना सारे कवियों का क्या करें

हर शहर में सैंकड़ों मिलते हैं

शाइरों की भरमार है वे हर गली-कूचे पर पाये जाते हैं जिनसे बच निकलना तक

मुश्किल है

जानता हूँ कि काल की क्रूर छलनी से जब छाना जायेगा तब इनमें से एकाध ही

बचेगा लेकिन तब तक क्या करें इन मनहूस मूर्खों का

 

मुझे मरे हुये कवि पसन्द हैं जिन्हें छलनी से छाना जा चुका है और जिनके कंकर

चुन लिये गये हैं मुझे मृत कवियों का साथ पसन्द है जीवित कवियों की बजाय

 

मरे हुए कवि कभी नहीं कहते आपसे कि सिगरेट पिला दो व चाय कॉफी के लिये

भी नहीं कहते और उन्होंने कभी मदिरा-पान की भी इच्छा जाहिर नहीं की

 

जीवित कवियों के नखरे स्त्रियों से अधिक होते हैं

जबकि मृत कवि अपनी कब्रों में ख़ामोश सोये हुये रहते हैं केवल एक टिटहरी की

आवाज़ आती रहती है रह-रहकर!

 

खून राबा

 

हर नया वाक्य

जोख़िम उठाकर ही लिखा जा सकता है

 

लिखे जा रहे हो लिखे जा रहे हो लिखे जा रहे हो

दुनिया एक दफ्तर बन गई है

 

कुछ दिन नहीं लिखेंगे तो क्या बिगड़ जायेगा

लुटेरा देखते-देखते भाग जाता है-

और तुम लिखते रहते हो

अनपढ़ राष्ट्राध्यक्ष देखता रहता है

अपने नागरिकों को लिखते हुये प्रार्थनापत्र-

 

जब पत्थर से पत्थर टकराता है

क्या वह आवाज़ लिख सकते हो

क्या क्रंदन को क्रंदन की तरह लिख सकते हो

 

कलम को कुछ दिन आराम करने दो

जब निकालो उसे स्याही की दवात से

जैसे कोई तलवार निकालता है मियान से

 

जब लिखा तो यह सोचकर लिखना

कि लिखना घाटे का बहीखाता है -

लिखना एक लड़ाई है

एक ख़ून! राबा है-

 

*** जयपुर 18,2018/02/

 

एक अधूरी किताब

 

ख़िरी मुहब्बत थी

ख़िरी किताब

 

ख़िरी सिगरेट थी

और माचिस की अंतिम काड़ी

 

यह अंतिम तूफ़ान था

ख़िरी पैमाना

 

यह अंतिम रात की अंतिम गतिविध थी

 

इसके बाद सिर्फ रात थी

आंसुओं से भीगी हुई!

 

कवियों के कंकाल

 

मैं देखना चाहता था कि

शब्दों में कितनी शक्ति बची हुई है

 

बेचैनी में कितनी बेचैनी

शांति में कितनी शांति

 

मैंने देखा प्यार नामक शब्द में

कुछ जलने की गंध आ रही थी

 

झूठ अब उतना झूठा नहीं रहा था

जितने महान थे उतने टुच्चे थे

लुच्चे थे

जितने भी सदाचारी थे

सच्चाई पर अब किसी को यकीन नहीं था

धीरज में से धैर्य गायब था

 

पानी अब प्यास नहीं बुझाता था

अग्नि के साथ-साथ चलता था अग्नि-शमन दस्ता

 

शब्दों के सिर्फ खोखल बचे थे

उनका अर्थ सूख गया था

 

जब भी लिखता था कविता

एक संरचना हाथ आती थी

 

कवि अब कहाँ थे

हर तरफ कवियों के कंकाल थे!

 

 

 

 

कृष्ण कल्पित की कविताओं पर हाल ही में 'पहल' में एक लेख अविनाश मिश्र का प्रकाशित हो चुका है।

संपर्क - मो. 7289072959, जयपुर

 


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