कुछ पंक्तियां
ज्ञानरंजन
खासतौर पर लम्बी आलोचनात्मक रचनाएं भाषा, प्रतीकों और विन्यास के रचनात्मक अनुशासन के आगे पिछड़ जाती हैं। उन्होंने अपनी स्वतंत्र दुनिया नहीं बनाई है। वे अनावश्यक स्पेस लेती हैं और दावा करती हैं कि गहराई के कारण विस्तार होता है। यह तर्क एक पराजित हास्य है और संसाधनों पर बेजा कब्ज़ा करता है। वाचित से लिखित पर आने से बड़बड़ाहट कम होनी चाहिए। यूं भी आलोचना एक अधूरी और पंगु विधा है। कम कहती है और बड़ा रक़बा ले लेती है। यूं इसके विपरीत गुणीजनों की आलोचना के श्रेष्ठ उदाहरण भी कम नहीं हैं। प्राय: मनोवृत्तियां ही एनक्रोचमेंट की होती हैं। यह लिखते हुए मुझे श्रीपत राय के कहानी में लिखे गये आलोचनात्मक संपादकीय याद आ रहे हैं जो संक्षिप्त, दक्ष और मूल्यवान होते थे। पहल भी श्रीपत राय की प्रेरणा से ही ये पंक्तियां लिख सकी है। किसी रचना का बेबस स्थान घेरना मूल्यवान होगा यह पक्का नहीं कह सकते। बहरहाल, हमें पाठकों को अज्ञानी मानने का भ्रम भी तोडऩा होगा।
इस बार हमने कई छोटी कहानियां छापी हैं। ये सरल, सीधी, पारम्परिक और जीवनदायी हैं। इसमें एक रेखा है अतिक्रमण और विखण्डन नहीं। इन कहानियों में बूढ़े, बच्चे, कारीगर, उलटती पलटती सभ्यताएं हैं और तहस-नहस होते मूल्य हैं। पहल के पुराने पाठको को ये मनोहारी लगेंगी। इन कहानियों में कारीगरों की दुर्बल लेकिन मजबूत आवाज़ें हैं और इनके लेखकों का कोई सूचीपत्र या कैरियर नहीं है।
जैसा हमने वायदा किया था लंबी कविता 'हाउल’ के प्रकाशन के बाद कविता को विस्तार देने वाला लेख कुमार अंबुज ने भेजा जो पहल के पाठकों को समृद्ध करने के लिए छापा जा रहा है। विश्वास है कविता के प्रति पहल के प्रेम और लगाव के साथ इसे पढ़ा जायेगा। इसमें अंबुज की कड़ी मेहनत शामिल है। पहल के एक सक्रिय पाठक को हम सलाम करते हैं जिन्होंने ध्यान हमारी ही एक चूक की तरफ दिलाया है। ये पाठक हैं आर.पी. सिंह, पंजाब के मुकीरियां से एक सिख किसान। मिरोस्लाव होलुब का जो लेख अंक 112 में छपा है उसके पृष्ठ 66 पर छपे फोटो कोलाज में दो चित्र ऊपर के होलुब के नहीं एल्फ्रेड ब्रेडल के हैं जो विश्वविख्यात पियानो वादक हैं और सेलेब्रेटी। बाकी सभी चित्र मिरोस्लाव होलुब के हैं। संपादकीय टीम पाठकों से इस लापरवाही की क्षमा मांगती है।
महान फ़िल्मकार इंगार बर्गमैन का जब निधन हुआ था पहल ने राजकुमार केसवानी का एक लंबा मूल्यांकन प्रकाशित किया था। अब इस वर्ष बर्गमैन की जन्म शताब्दी चल रही है, अगले अंक में हम वायदा करते हैं कि एक विहंगम दृष्टि वाला लेख प्रस्तुत करेंगे।
अब एक लगभग भूली हुई सूचना कि 1 अगस्त को पहल ने अपने प्रकाशन के 45 बरस पूरे किये हैं। हमें पता भी नहीं था, ध्यान उचटा हुआ था पर कथाकार सुभाष पंत ने बधाई दी फिर असंख्य ख़बरें आई गईं। पाठकों को यह ख़बर अच्छी लगेगी। यहाँ पर कृतज्ञता के तौर पर कुछ पंक्तियां हम दे रहे हैं जिसे हमारी टीम के एक साथी ने तैयार किया है।
पहल प्रकाशित होते हुए इस अगस्त में 45 वर्ष पूरे हो गए। 1 अगस्त 1973 को पहल का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ था। पूरे देश में पहल से एक बड़ा परिवार बन गया। पहल की दूसरी पारी की शुरुआत में इसकी वेबसाइट व फेसबुक अकाउंट बनाने के पश्चात यह परिवार वैश्विक हो गया। पहल ने पहले अंक से अभी तक प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाया है। आपातकाल को लगे तैंतालीस वर्ष पूर्ण हो गए। आपातकाल ही नहीं बल्कि सभी गलत नीतियों का पहल ने प्रतिरोध किया और भविष्य में भी करती रहेगी। पहल ने पंजाब के आतंकवाद का विरोध किया। पंजाबी के प्रसिद्ध कवि पाश को हिंदी में पहल ने ही छापा। वसंत दत्तात्रेय गुर्जर की मराठी कविता गांधी माला भेटला होता (गांधी मुझसे मिले) का हिंदी अनुवाद लगभग 15 वर्ष पूर्व हमने प्रकाशित करने में तत्परता दिखाई। वर्तमान में इस कविता को गांधी विमर्श पर महत्वपूर्ण कविता माना गया है। गौरतलब है कि पहल के द्वारा समय-समय पर सांस्कृतिक संकट पर पहल पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। पहल ने तत्कालिक प्रतिरोध के स्थान पर सतत् व स्थायी प्रतिरोध को हर समय प्राथमिकता दी है। वर्तमान समय और तैंतालीस वर्ष पूर्व की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं दिख रहा है, बल्कि यह समय ज्यादा खतरनाक मोड़ पर है। 'एस्टेब्लिशमेंट’ के खिलाफ छोटे विरोध को फुसलाया व प्रलोभित किया जा रहा है और स्थायी व बड़े विरोध को होशियारी से निबटाया जा रहा है। अब तो खुलकर कहा जा रहा है कि 'सबक’ सिखा दिया जाएगा। फासीवाद के इस कठिन समय में साहित्य और लेखकों की भूमिका बड़ी व महत्वपूर्ण हो गई। इस विषम समय को हम भली भांति समझ रहे हैं और जैसे चार दशक पहले अडिग थे, वैसे ही आज भी हैं। बाज़ार मूल्य से ऊपर 'पहल’ को कीमती बनाने की हमारी प्रतिबद्धता है। हमारा प्रयास है कि पाठक के साथ मिलकर अपने समय की नाड़ी, तापमान और मुहावरे की तरफ बढ़ते हुए जरूरी भाषा की खोज की जाए। जीवित परम्पराओं से लेकर अज्ञात भविष्यों तक की पहचान और समर्थन पहल की कोशिशों का स्थायी भाव है। 'पहल’ अपनी छापी गई रचनाओं का समर्थन करता है और हमारी संपादकीय नीति की यह एक मुख्य कार्रवाई है। 'पहल’ का घोषित उद्देश्य है - भारतीय उपमहाद्वीप के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रगतिशील रचनाओं को स्थान देना। 45 वर्ष की यात्रा में लेखकों, चित्रकारों, सांस्कृतिक कर्मियों व पाठकों का समर्थन अविस्मरणीय है। धन्यवाद।
श्याम कश्यप बड़े कवि आलोचक संपादक थे। हाल ही में उनका निधन हुआ। महीनों कैंसर से जूझते हुए। वे बहादुरी से लड़े। वे पहल के एक खास अंक फासिस्ट विरोधी अंक के संपादकों में थे जिसका पटना में जनता जनार्दन के बीच लोकार्पण हुआ था। श्याम ने मार्क्सवादी सौंदर्य शास्त्र वाले पहल के अंक में भी हमें सहयोग दिया था। आपातकाल में पहल पर हुए प्रहारों के खिलाफ 'जनयुग’ में उन्होंने निरंतर लिखा। उनकी भाषा लड़ाकू थी वे पहल से अभिन्न थे। इस मौके पर जब पहल को 45 वर्ष हुए हम श्याम कश्यप को भीतर से याद कर रहे हैं। तसवीरें घूम रही हैं। तेजिंदर चौंका कर गये। ऐसे कोई जाता है तो हम अवाक रह जाते हैं। हमारी हर महीने लगभग बात होती थी। बस्तर पर उनका उपन्यास, हमारे पीछे पडऩे के बावजूद अधूरा रह गया। वे जबलपुर उसका एक अध्याय लेकर आये थे। प्रणाम हमारे दोनों दोस्तों।
संपादक
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