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जुलाई 2018

मेलघाट : बच्चों के मौत की घाटी

शिरीष खरे

सफरनामा

 

 

 

उजाड़ कथाएं

ट्रेन की सामान्य गति से मुंबई की ओर लौटते हुए मेलघाट में जो घटा उसके बारे में सोच रहा हूं। जलगांव रेलवे स्टेशन पार करने के बाद सोचने लगा हूं कि आगे किस तरह की रिपोर्टिंग करुं, या पत्रकारिता का मोह ही छोड़ दूं। फिर जाने क्या हुआ है कि बीच सफर से मेलघाट के जंगलों के सफर पर लौटता हूं।

 

 

वह कल मर गया, तीन महीने

भी नहीं जिया

 

एक मां के मुंह से सपाट लहजे में उसके मासूम बच्चे की मौत की खबर सुन मैं भीतर तक हिल गया। खुद अपने एक सवाल पर शर्मिन्दा हूं, जिसे दोहरा नहीं सकता। वह बार-बार पानी के लिए पूछ रही है और मैं हूं कि खुद 'पानी-पानीहूं।

''अब लौटा जाए’’ कालूराम नहीं बोलता तो मुझे अहसास ही नहीं होता कि मैं यहां कितने देर से बैठा हूं। फिर हम दोनों उठे उस जगह और स्थिति से जिसका सामना करने के लिए दोनों कतई तैयार नहीं थे। कालूराम मुझे अपनी मोटरसाइकिल से इस वीरान जंगल के गांव-गांव, घाट-घाट और घर-घर घुमा रहा था और मैं उसके पीछे बैठकर सुबह साढ़े छह बजे से अब तक डेढ़ सौ किलोमीटर से कहीं ज्यादा इलाका घूम चुका था। हम दोनों कुपोषण की कहानियां तलाश रहे थे, इस दौरान हमें बताया गया था कि कई दिनों से एक बच्चा बहुत बीमार है, भूख से लगभग सूख चुका है। बावजूद इसके, मुझे ऐसी किसी परिस्थिति का अंदाजा इसलिए नहीं था कि इससे पहले मैं कई कमजोर मांओं और बच्चों को देखने के दर्द को झेल चुका था, लेकिन ताजा दृश्य मेरे दर्द की इंतिहा थी, मैंने भूख को इससे पहले इतने करीब से कभी नहीं देखा था। महाराष्ट्र सरकार के पर्यटन विभाग ने बाघ का फोटो दिखाकर जिन हरी-भरी, सुंदर पहाडिय़ों को राज्य के सबसे सुंदर स्थलों में से एक बताया था, अंदाजा नहीं था कि यहां की माताएं इस हद तक भूखी होंगी कि भूख से बिलबिलाकर दम तोडऩे वाले अपने नवजातों को बस देखती रह जाएंगी। अंदाजा इसलिए भी नहीं था कि मैं सोच भी नहीं सकता एक मां इस तरह सपाट लहज़े में बच्चे की मौत की खबर सुना सकती है, मेरे लिए सबसे हैरान और परेशान करने वाली बात यही थी।

यह है 13 नवंबर, 2008 की शाम से कुछ पहले का समय। मेलघाट में यह मेरा चौथा और आखिरी दिन है। यदि मेलघाट के चिखलदरा को केंद्र माने तो तीन सहयात्रियों के साथ एक जीप और दो अलग-अलग मोटरसाइकिलों से चार दिशाओं की ओर मैं अब तक छह सौ किलोमीटर का इलाका घूम चुका हूं, यानी हर दिन एक अलग दिशा में औसतन डेढ़ सौ किलोमीटर। इस तरह, कुल तेरह गांवों के विवरण जमा कर चुका हूं। चिखलदरा से सवा सौ किलोमीटर दूर यह मेरी मेलघाट यात्रा के आखिरी गांव का आखिरी घर है, लेकिन मैंने तय किया है कि इस घर का नाम मैं छिपा लूंगा और उस महिला का नाम और उम्र भी छिपा लूंगा, जिससे मिलकर मैं अभी-अभी लौट रहा हूं। अब मैं शायद ही उसके घर लौटूं, पीछे मुड़कर देखता हूं तो उसका घर कोरकू जनजाति के बाकी घरों जैसा ही है, लेकिन उनसे इतना छोटा है कि उस घर में तीन से चार लोग भी पैर पसारकर न बैठ पाएं। घर के नाम पर माटी,घास और कमजोर लकडिय़ों की चारदीवारी के बूते खड़ी पतरी की छत तो है, लेकिन उसके अंदर कितना खालीपन! कालूराम नहीं बताता तो मुझे पता ही नहीं चलता कि असल में इससे पहले उस महिला के और दो बच्चों ने भूख से बिलबिलाकर इसी तरह दम तोड़ा है।

- ''मैं हूं देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से उत्तर पश्चिम की तरफ कोई 700 किलोमीटर दूर, ''पर मैं हूं कौन-सी दुनिया में भाई!’’

- ''मेलघाट, बच्चों की मौत का घाट।’’ मेरे सवाल पर उत्तर है कालूराम का, जो मूलत: उसका उत्तर भी नहीं है, बीते अठारह साल में भूख से बच्चों की हजारों मौतों के बाद यह यहां एक साधारण उत्तर है।

कालूराम बेलसरे, जो चिखलदरा में पहली बार मिला तो महज एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से और आज मेलघाट यात्रा के इस आखिरी छोर पर अनायास ही दोस्त बन गया है। वह मेरी मेलघाट यात्रा का तीसरा सहयात्री है।

''तुम आज इस हकीकत से सामना नहीं कराते तो भी मैं शायद पत्रकार ही रहता, जो इस गुमान में ही जी रहा होता कि किसी पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है। ...मैं कभी यह जान ही नहीं पाता कि इस तरह के दर्द को झेलने का जज्बा कायम रखना एक पत्रकार के लिए उससे भी बड़ी चुनौती हो सकती है।’’ मुंबई लौटने से पहले मैंने कुछ इसी तरह की बातें कालूराम से कहीं। लेकिन, वह कुछ नहीं बोला।

मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा मैं उसे नहीं देख सकता और यह बात ध्यान से हट गई कि किस तरह वह कच्ची पगडंडियों से पक्की लेकिन कमजोर और उबड़-खाबड़ ढलान की एक सुनसान सड़क पर आकर सावधानी से मोटरसाइकिल चला रहा है। फिर भी मैंने उससे यह तो कहा ही, ''भला हुआ जो तुमने मुझे वहां से लौटने के लिए कहा।’’

और ट्रेन की सामान्य गति से मैं मुंबई लौट रहा हूं। नागपुर से सीएसटी (छत्रपति शिवाजी टर्मिनल), मुंबई की ओर जाने वाली 12106 विदर्भ एक्सप्रेस से। सोच रहा हूं कि छोटी जगहों पर रहकर काम करने वाले पत्रकार कितने मजबूत दिल के होते होंगे, जो इस तरह की बुरी से बुरी स्थितियों के बावजूद हर समय रिपोर्ट लिखने और भेजने को तत्पर रहते हैं। सच, दर्दों को लगातार झेलकर लिखना आमान काम नहीं है और ऐसी जगहों के कई पत्रकार इस जिम्मेदारी को अपनी-अपनी भाषाओं में बाखूबी निभा रहे हैं। लेकिन, जो मुझे जानते हैं उन्हें यह पता है कि जख्मों को खुला रखना और नए जख्मों को जगह देकर लिखना, मूलत: मेरा स्वभाव नहीं है।

आधी रात जलगांव रेलवे स्टेशन पार करते सोच रहा हूं कि आगे किस तरह की रिर्पोटिंग करुं, या फिर पत्रकारिता का मोह ही छोड़ दूं। बडनेरा से रात 8 बजे इस सेकंड क्लास एसी कोच की अपर सीट पर लेटा हूं, कुल 11 घंटे के सफर का हिसाब लगाते हुए यह सोच रहा हूं कि गाड़ी समय पर दौड़ती रही तो सुबह 7 बजे तक पक्के तौर पर मुंबई की दुनिया में लौट जाऊंगा। लेकिन, मेलघाट में बिताए उन चार दिनों की घटनाओं, घाटियों, लोगों और दृश्यों से कभी लौट पाऊंगा, जो लौट-लौटकर याद आ रहे हैं। साढ़े तीन घंटे में कंबल को सिर से ढके मैं मेरी तरह ही मुंबई लौट रहे बाकी लोगों की आवाजों और चेहरों से कट गया हूं। 'गाड़ी 20 मिनट लेटहोने की सूचना देने वाली बुर्जुगिया की आवाज को छोड़ दो तो मैं बीते कुछ घंटों से अपने खयालों में ऐसा तल्लीन हूं कि ट्रैन की खटर, खटर, खटर, खटर, खटर की आवाज के सामानांतर ढोल, मोटरसाइकिल, आटा-चक्की की अलग-अलग आवाजों के साछ कुछ अस्थिर चेहरे दिखाई दे रहे हैं। और जल्द ही एक लयबद्ध गीत की आवाज ने बाकी आवाजों को शांत कर दिया है, यह गीत नहीं मंगल-गीत है, जिसकी धुन के पीछे से मुझे अब खतरे की गूंज सुनाई दे रही है, जो तब नहीं सुनाई दे रही थी जब पहली बार सुना था। और फिर मैं अपनी आंख बंद कर लेता हूं, यहां से फिर शुरु होती है मेरी मेलघाट की यात्रा।

 

एक लाल मढिय़ा के पास 50-60 महिलाएं इकट्ठी हैं, लेकिन दूर से ही हमारा सबसे ज्यादा ध्यान यदि किसी ने खींचा है तो मढिय़ा से सटे एक वृक्ष की लंबाई और हरियाली ने। पीछे कतारबद्ध झोपडिय़ां और उनके पीछे हरी-भरी पहाड़ी और बीच में शांत, खुले मैदान और पगडंडियों का पूरा नजारा देख लगता है कि छोटी-सी दुनिया जैसे उस वृक्ष के नीचे आकर सिमट गई हो। पास आने पर महिलाओं के गीत के सुर और ज्यादा स्पष्ट होते जाते हैं। यहां एक भी मर्द नजर नहीं आता, थोड़ी दूर पर 12 से 15 साल तक के कुछ बच्चे बड़े पत्तलों में जरुर दाल-भात खा रहे हैं।

''अलग-अलग तीज (मौके) पर अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। शिकार, जुदाई, पूजन के गीत अलग और विवाह के अलग। विवाह के गीतों में महिलाएं दूल्हा-दुल्हन बनकर आपस में बतियाती और नाचती-गाती हैं। लेकिन, अभी हम जो गीत गा रहे हैं, वह विवाह के बाद का है। यह 'सिरिंजहै।’’ मंगल-गीतों को यहां 'सिरिंजकहा जाता है। ये सारी बातें हमें मानु डांडेकर नाम की बुर्जुग महिला बता रही हैं। हमारे करीब एक विवाहित जोड़ा खड़ा है और लड़के वाले की ओर से कोरकू महिलाएं मंगल-गीत गा रही हैं। ये सभी दूल्हा-दुल्हन को खुश रहने के लिए आशीर्वाद दे रही हैं। हम भी उन्हें भविष्य में सदा खुश रहने की शुभकामनाएं देकर जीप में बैठकर आगे की ओर बढ़ते हैं।

आगे मतलब महाराष्ट्र में विदर्भ अंचल के हिल-स्टेशन चिखलदरा की ओर, जो अमरावती जिले का एक विकासखंड है और 'एमटीआरयानी मेलघाट बाघ संरक्षण क्षेत्र का बहुत सुंदर कस्बा है, जहां मेरे लिए एक होटल में अगली तीन रात ठहरने का बंदोबस्त किया गया है। मोठा गांव पार करने के बाद चिखलदरा महज चार-पांच किलोमीटर दूर है, अब तक लगातार 13 घंटे से ज्यादा की यात्रा कर चुका हूं, पहले 11 घंटे मुंबई से बडनेरा तक की रेल-यात्रा की और उसके फौरन बाद सड़क मार्ग पर एक जीप के सहारे सवा दो घंटे से कोई नब्बे किलोमीटर की पहाडि़य़ां पार कर चुका हूं। और बीते दो घंटे की ताजा यात्रा ने लंबी, थकाऊ और उबाऊ रेल-यात्रा को पीछे छोड़ दिया है। इसकी एक वजह तो यह है कि सुबह छह बजे बडनेरा से चिखलदरा की ओर हर तरफ नजारा देखा देखा-सा लग रहा है। ऐसा इसलिए कि मेलघाट सतपुड़ा पर्वतमाला का दक्षिण-पश्चिम सिरा है, यह उत्तर-पूर्व की ओर मध्यप्रदेश की सीमा से सटा है, इसके दूसरे छोर पर है मध्यप्रदेश में पचमढ़ी हिल-स्टेशन, वहां सिर्फ घूमने के मकसद से दो-तीन बार जा चुका हूं। हालांकि मेलघाट की यह मेरी पहली यात्रा है और इस यात्रा के पहले सहयात्री हैं - संजय इंग्ले। इन्होंने कोई 15 साल पहले इस इलाके में कुपोषण से लडऩे के लिए 'प्रेमनाम से युवकों का एक दल बनाया और तब से ही भूख के खिलाफ मुहिम में सक्रिय हैं, लेकिन मैं देख रहा हूं कि यह एक कुशल जीप चालक भी हैं, जिन्हें देखकर ही लग रहा है कि ये खाइयों और पहाडिय़ों के बीच संकरी, घुमावदार सड़क पर संतुलन साधते हुए जीप दौड़ाने के अभ्यस्त हैं। इधर, बीच-बीच में देर तक आकाश की ओर देखता हूं तो यह ज्यादा ही खुला दिखाई देता है, जिसे देख मुझे ध्यान आता है कि मुंबई में छह महीने रहते हुए मैंने देखने के मकसद से न सुबह में सूरज देखा और रात में चांद। मुझे याद नहीं आया कि मैंने वहां खुले आसमान को देखने के मकसद से आकाश की ओर कब देखा था।

डेढ़ घंटे में कोई 70 किलोमीटर की यात्रा करके हम परतवाड़ा नामक एक छोटे कस्बे पहुंचते हैं। इस रास्ते पर यह चाय, स्वल्पाहार के लिए ठीक ठिकाना है। साथ ही मैंने मेलघाट की गुलाबी सर्दी से बचने के लिए यहीं की एक दुकान से स्वेटर भी खरीदी है। नवंबर के दूसरे हफ्ते में यहां तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है, इन्हीं दिनों मुंबई का न्यूनतम तापमान 24 डिग्री सेल्सियस तक रहता है।

''यहां से बस 49 किलोमीटर दूर है चिखलदरा। विदर्भ की सबसे ऊंची चोटी की ओर ले जा रहा हूं आपको!’’ जीप पर फिर सवार होने से पहले यह सूचना संजय इंग्ले ने दी है। लेकिन, सच्चाई तो यह है कि मेलघाट में छोटे बच्चों की मौत के आंकड़े यहां की पहाडिय़ों से कहीं ऊंचे होते जा रहे हैं। 1991 से अब तक यहां 10 हजार 762 बच्चों की मौत हो चुकी है, यह महाराष्ट्र सरकार का आंकड़ा है, सरकार यह मानने को राजी नहीं कि ये सभी मौतें भूख से हुई हैं, मेरे पास साल-दर-साल सरकारी आंकड़ों का हिसाब है, उसके मुताबिक मेलघाट में हर साल छह साल तक के औसतन 600 से ज्यादा बच्चों की मौत हो रही है। मेलघाट का क्षेत्रफल 2028 वर्ग किलोमीटर है, जो मुंबई के क्षेत्रफल यानी 604 वर्ग किलोमीटर से तीन गुना अधिक है, लेकिन मेलघाट की कुल तीन लाख आबादी के अनुपात में यहां हर साल कम उम्र में इतने सारे बच्चों की असमय मौतें 'राष्ट्रीय शर्मकी बात होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं।

1991 में पहली बार यहां भूख से बच्चों के मरने की सूचनाएं सामने आई थीं। मैंने यहां आने से पहले कुछ जानकारियां जुटाई तो पता चला कि 1991 में मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अमरावती लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंची थीं। मौजूदा केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। समय के इस अंतराल में विदर्भ को देशभर में किसानों की आत्महत्या वाले इलाके के तौर पर जाना जाने लगा। दूसरी तरफ, मेलघाट इलाके की इन पहाडिय़ों को लेकर न जाने क्यों भूख से बच्चों की मौतों पर खामोशी पसरी रही।

और एक लंबी खामोशी के साथ हम प्रवेश करते हैं चिखलदरा कस्बाई क्षेत्र में, जो आज के दौर की सभी बुनियादी सुख-सुविधाओं के लिहाज से बाकी कस्बों जैसा ही है, लेकिन शांत, व्यवस्थित, अनुशासित और हरियाली की चादर ओढ़े देश के सामान्य कस्बों से अलग, क्योंकि करीब साढ़े चार हजार की आबादी वाले इन कस्बे के आसपास पहाडिय़ों पर सूरज के उदय और अस्त होने की दर्जन भर सुंदर जगहों के अलावा यहां कई झील झरने हैं, जिन्हें  देखने देश और दुनिया के लोग चिखलदरा की होटलों में ठहरते हैं।

ऐसे ही एक होटल के कमरे में मुझे ठहराया गया है। सोचता हूं कि बीते छह साल से अनगिनत रेल के डिब्बों और होटल के कमरों में पनाह ली, जहां सैकड़ों रिपोर्ट तैयार कीं और साथ ही खुद के बारे में सोचा और फिर वहीं के वहीं उन्हें भूलता और जगह बदलता गया। सोचता हूं कि चिखलदरा का यह कमरा बाकी होटल के कमरों से थोड़ा बड़ा है, लेकिन इतने बड़े कमरे की जरुरत क्या थी। फिर मैं अपनी निम्न-मध्यवर्गीय उस आदत के बारे में सोचता हूं तो खुद पर हंसता हूं, जो अक्सर मुझसे पूछती रहती है कि यदि ऑफिस में एक छोटी जगह पर लिखा-पढ़ी का काम चल सकता था तो इतनी ज्यादा जगह घेरने की जरुरत क्या थी, या रेल के स्लीपर में सीट मिल सकती थी तो सेकंड क्लास एसी से चलने की जरुरत क्या थी, या जब सिंगल बेड पर ही अकेला सोया जा सकता था तो इस वकत इस डबल बेड की जरुरत क्या थी। यही सब सोचते हुए जब मैं टीवी के चैनल बदल रहा होता हूं तो डीडी न्यूज पर ठहरकर सुखद आश्चर्य से लगभग उछल पड़ता हूं, कोई खबर के मारे नहीं, बल्कि खबरों को बताने वाले एंकर को देखकर, यह नीतूसिंह है, कई साल से मैंने न न्यूज चैनल देखा है और न नीतू सिंह को। और आज देख रहा हूं तो मेलघाट के इस कमरे में टीवी पर। नीतू सिंह और चित्रा अग्रवाल दोनों भोपाल से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में दिल्ली पहुंची थीं। उन्हीं दिनों आगरा शहर की ये दोनों लड़कियां आखिरी बार नोएडा स्थित 'सहारा समयकार्यालय के मुख्य गेट पर मिली थीं, फिलहाल दोनों ही डीडी न्यूज में हैं और मैं ग्राम मदनपुर का लड़का वाया मुंबई मेलघाट के इन जंगलों में कहानियां तलाशने आया हूं। मेरे पास नीतू सिंह का मोबाइल नंबर होता तो पक्का बात करता, लेकिन वर्ष 2002 में मोबाइल साधारण लोगों के हाथों में नहीं था और तब से याद नहीं आ रहा है कि ऐसे ही दिल्ली जाने वाले कितने सारे दोस्तों से आखिरी बार कब-कब बातें हुई। खाली समय में कुछ यादें खुद-ब-खुद आती हैं, दोस्त याद आते हैं। जैसे उन्हीं दिनों मेरे साथ एक बार भोपाल एक्सप्रेस से दिल्ली जाने वाले दो और दोस्त अनवर माजिद और अनुराग द्वारी याद आते हैं। संघर्ष के छह साल में अनवर माजिद दैनिक भास्कर, दिल्ली और अनुराग द्वारी एनडीटीवी, मुम्बई में कार्यरत हैं।

खैर, आज आधा दिन शेष है, चाहूं तो 25-30 किलोमीटर का इलाका घूम सकता हूं, लेकिन नहीं। बतौर रिपोर्टर मुझे लगता है कि रिपोर्टिंग के लिए जाने से पहले जितना हो सके उतना सोया जाए, जिससे लंबी यात्रा की थकान कम हो जाए और अगले दिन एक बार में ही 150 किलोमीटर से अधिक घूमा जा सके। लिहाजा, नहाने, दोपहर के भोजन और रिर्पोटिंग की पूर्व तैयारी के बाद बाकी दिन और पूरी रात सोने की तैयारी है, इस उम्मीद से कि अगली सुबह मेरी जिन्दगी की एक नई सुबह होगी।

 

और वाकई यह मेरी जिंदगी की नई सुबह है। सूर्य-उदय का इतना सुंदर दृश्य मैंने जिंदगी में पहले कभी नहीं देखा, बचपन में अपने गांव में भी नहीं। समुद्र तल से करीब 1,100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मेलघाट में घाटों का सुंदर मेल, पक्षियों की कोलाहल और प्रकृति के इतने निकट से सूर्य का दर्शन कभी नहीं किया। पहाड़ी और खाई के इस ओर इस बसाहट के बीच यह सुबह मुझे मुंबई की भागमभाग से दूर राहत लेकर आई।

यह सब संभव हो सका मेलघाट की यात्रा के दूसरे सहयात्री और संजय इंग्ले की टीम के साथ सूरज शेडलीवार की बदौलत, जिसके साथ यदि तड़के चार बजे ही मोटरसाइकिल पर बैठकर चिखलदरा से कोई 110 किलोमीटर का फासला सवा तीन घंटे में पूरा नहीं कर पाता तो सलीता गांव में सूरज देखना नसीब नहीं होता। आदि-प्रजाति कोरकू बहुल सलीता गांव में हर रोज ऐेसी ही सुबह होती है। कोई 60 घर और साढ़े तीन सौ की आबादी वाले सलीता गांव में हमारी पहली मुलाकात होती है झोपड़ी के बाहर छोटे आंगन में बैठी एक बूढ़ी अम्मा से। इन्होंने सुबह जल्दी उठकर भी सूरज की ओर नहीं देखा, अक्सर जल्दी उठने के बावजूद इन्होंने कई महीनों से सूरज की ओर नहीं देखा, क्योंकि इनके आंखों की रोशनी करीब-करीब गायब हो चुकी है और पहले की तरह सब कुछ दिखाई देने लगे, यही इनका सपना है। जल्द ही यदि इलाज नहीं कराया गया तो इनकी जिंदगी में उजाले की गुंजाइश नहीं बचेगी। फिर भी, इन्हें अंधी होने से कहीं ज्यादा फिक्र है तो अपने बेटे के लौटने की। कहती हैं, ''बेटा घर जल्द लौटे, बस यही चाहती हूं।’’

यहां के कई जवान बेटे, बहू अपने परिवार के बुजुर्ग और छोटे बच्चों को यहीं छोड़कर काम की तलाश में अमरावती और दूरदराज के मैदानी इलाकों की ओर चले जाते हैं। दरअसल, संघर्ष ही यहां ईमानदारी की एकमात्र परिभाषा है। संघर्ष, पूरी ईमानदारी से जंगल में जीने का। संघर्ष, पूरी ईमानदारी से मैदानी इलाकों में काम तलाशने का।

संघर्ष की इसी जमीन पर हमें सरिता (परिवर्तित) नाम की बच्ची मिलती है, जिसकी उम्र महज 17 महीने है, जिसका शरीर कमजोर होकर सूख-सा गया है, लोगों की सुनें तो इसे 'सूखीहो गाय है, 'सूखीयानी कुपोषण की स्थिति, जिससे यहां के लोग सबसे ज्यादा डरते हैं, क्योंकि यह बच्चों को मौत के घाट उतार देती है। गांव वाले बताते हैं कि सलीता उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में इलाज की व्यवस्था पहले से ज्यादा खराब हो गई है। वजह है कि पांच साल पहले यहां एक बच्ची मर गई थी, इसलिए आपातकालीन प्रकरण यहां से 15 किलोमीटर दूर हतरु गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भेजे जाते हैं।

जब हमारे पास मोटरसाइकिल है तो 15 किलोमीटर की दूरी ज्यादा तो नहीं, इसलिए यहां से हम हतरु पहुंचते हैं, जो डेढ़ हजार की आबादी का थोड़ा बड़ा गांव है। यहां हमारी मुलाकात गांव के सरपंच केण्डे सावलकर से होती है, जिनसे चाय-नाश्ता की एक दुकान पर लंबी चर्चा होती है। मिर्च पकोड़ा और चाय पीकर हम अपनी भूख मिटाते हैं। सावलकर हमें बताते हैं, ''यहां के अस्पताल में आपातकाल की स्थिति में इलाज की विशेष व्यवस्था नहीं है। ऐसे प्रकरण 60 किलोमीटर दूर धारणी के बड़े सरकारी अस्पताल पहुंचाए जाते हैं।’’ एक पल के लिए मेरे मन में खयाल आता है कि क्या मेलघाट के नजारे तभी तक सुंदर हैं जब तक की आप बीमार नहीं, एक बार यदि तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो 70-75 किलोमीटर भागने के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि आप सही सलामत इन जंगलों से बाहर निकल पाएं। यह एक पहाड़ी जंगल है, जहां पर छोटी जरुरत से लेकर अपनी जान बचाने के लिए आदिवासियों को मीलों सफर करना पड़ता है, बगैर किसी मोटरसाइकिल के पैदल।

यहां के बच्चों के लिए पेट भर भोजन और इलाज के लिए उचित दवाइयां कब हासिल होंगी? क्या इस पूरे इलाके के लिए यह एक अनुत्तरित प्रश्न है?

इसी के उत्तर में हम और सूरज ने दिनभर में हतरु के आसपास स्थित सुमिता और सिमोरी जैसे चार-पांच गांव घूम डाले। इसके बाद मेरे मन में कल्पना जागी, कल्पना भी छोटी-सी नहीं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मोबाइल पर बातचीत की। कल्पना में सोचता हूं कि मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुझसे यदि पूछें कि संक्षेप में बताओ तुमने दिनभर में क्या देखा तो मैं उनसे क्या कहूंगा। मैं यही सोच रहा होता हूं कि मुख्यमंत्रीजी का कॉल आ जाता है। वे वही पूछते हैं जो मैंने सोच रखा था। मैं शुरु हो जाता हूं- ''सर, मेलघाट की कहानियां बताती हैं कि बच्चों की मौतों की बड़ी वजह है भूख। दूसरी ओर भूख से निपटने की सरकारी व्यवस्था कई बार बड़ी बाधा बन रही है। ऐसा इसलिए कि इसे अहसास नहीं है कि भूख क्या होती है। भोजन करने की इच्छा भूख का अहसास तो कराती है, लेकिन मेलघाट में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरा नहीं। जैसा कि होता है कि हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोडऩे से भूख बढ़ती गई होगी, अंतडिय़ों में मरोड़ होती गई होगी, कई दिनों तक ज्यादा भूखा रहने के कारण तब कहीं जाकर भुखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा।’’

यह कहते-कहते मुझे लगा कि मैं अकेले ही बोले जा रहा हूं। तभी दूसरी ओर से अचानक जयकारे सुनाई देते हैं और मोबाइल कट जाता है। मुझे लगा कि नेटवर्क न होने के कारण मोबाइल कॉल कट गया होगा, लेकिन बार-बार घंटी जाने के बावजूद वे मोबाइल नहीं उठाते। आगे बात होती तो बताता कि भूख से होने वाली हर बच्चे की मौत पर लगाम कसने के लिए व्यवस्था के पास पर्याप्त समय था और है। इसके बावजूद मेलघाट में सालों से बच्चों की मौत का सिलसिला नहीं थमा तो इसकी वजह तो यही है कि गांव-गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत किसी परिवार को आठ-दस महीने तो किसी परिवार को दो-दो साल से अनाज नहीं मिल रहा है। लेकिन, उनकी व्यस्तता ने मुझे कल्पनाओं से फिर संघर्ष की जमीन की ओर धकेल दिया और मैं फिर लोगों से संवाद करने लगता हूं-

- ''आपके पास कितनी जमीन हैं?’’

- ''मेरे पास कोई जमीन नहीं है।’’

भगनू (परिवर्तित नाम) की इस एक पंक्ति के उत्तर में मेलघाट की हकीकत बयां होती है। दरअसल, भूख की जड़ में गरीबी और बेकारी है। मेलघाट भारत के सबसे गरीब इलाकों में से है, भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि यहां 52 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। सुमिता गांव के भगनू की तरह ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं। वहीं, पूरे मेलघाट को देंखे तो महज 27 प्रतिशत पथरीली जमीन पर खेती होती है, जो कि बारिश के भरोसे है। बाकी 73 प्रतिशत जमीन जंगलों से ढकी है।

- ''तो क्या आप हर साल एक अच्छी बारिश का इंतजार करते हैं?’’

- ''नहीं, क्योंकि बारिश के दिन ज्यादातर लोगों के लिए बुरे होते हैं। तब तेंदूपत्ता का काम भी बंद हो जाता है, लोगकाम के लिए जंगल से बाहर नहीं निकल पाते।’’

सिमोर गांव के सुखदेव (परिवर्तित नाम) की तरह बाकी लोग भी 'सूखीके बाद यदि सबसे ज्यादा डरते हैं तो बारिश के दिनों से। वजह है कि बारिश के दिनों में मेलघाट का मौसम और परिदृश्य भले ही सुहावना प्रतीत हो, लेकिन ज्यादातर लोगों के घरों में अकाल पड़ जाता है।

शाम होने को है और रात 8 बजे से पहले हमें इस जंगली इलाके से चिखलदरा की ओर लौटना भी है, इसलिए वापिस परिचित रास्तों से लौट रहे हैं, आकाश का सूरज हमारे साथ लौट रहा है और मोटरसाइकिल से लौटाने वाला सहयात्री सूरज बताता है कि साल में छह महीने लोग बड़ी तादाद में मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। बारिश के दिनों में लोग मजदूरी के लिए बाहर नहीं निकल पाते हैं। इसलिए उनके सामने भोजन का संकट गहरा जाता है। सबसे ज्यादा बच्चे भी इसी मौसम में दम तोड़ते हैं। जब तक भूख से मौतों के समाचार बाहर पहुंचते है तब तक बारिश के दिन खत्म हो चुके होते हैं, तभी प्रशासनिक अमला कुछ दिनों के लिए जागता है।

लेकिन मेरे मन में सवाल है कि क्या भूख ही यहां की एकमात्र समस्या है? इसका उत्तर जानने के लिए मुझे कल सुबह जल्दी जागना है।

 

''पैसे देकर हमने सबसे पहले नमक खरीदा था। बचपन में मैंने दुकान नहीं देखी थी।’’

इतना बोलते ही झोलेमुक्का धाण्डेकर फिर चुपचाप हो गए। बागलिंगा गांव के धाण्डेकर अपनी उम्र के 85 बरस पार कर चुके हैं। लोग बताते हैं कि ये यहां के सबसे बुजुर्ग और जानकार आदमी हैं। हम उनके छोटी और सुंदर झोपड़ी के भीतर उन्हीं के साथ नीचे बोरे पर बैठें हैं। यह उम्र का असर है या उनके व्यक्तित्व का, जो उनके चेहरे पर मासूम बच्चों से भी ज्यादा मासूमियत है। कुछ पूछने पर थोड़ा-सा बोलकर चुप हो जाते हैं। आवाज महिलाओं जैसी पतली और बातें विशुद्ध कोरकू बोली में, इसलिए मुझे उनकी बातें समझ नहीं आ रही हैं। इसलिए, मेरे साथ आए कालूराम बेलसरे ही उनसे पूछ रहा है और उनकी कही हर बात को मुझे हिन्दी में लिखवा रहा है।

- ''बाबा, तब भी क्या पंचायत होती थी, कायदा (कानून) बनता था?’’

- ''साल में सब एक बार बैठते थे, 'भवई’ (त्यौहार) पर। तब सालभर का कामकाज बांटा जाता था, मिलकर कायदा बनाते थे।’’

- ''बैठक में महिलाएं होती थीं!... शादियां कैसे होती थीं?’’

- ''हां, 'भवईके दिन वे भी बैठती थीं, वे अपनी मर्जी से दूसरी, तीसरी या उससे भी अधिक बार शादी कर सकती थीं।’’

घर के भीतर बहुत अंधेरा है, इसलिए लिखने में दिक्कत होने के कारण हम उनसे बाहर बैठने की गुजारिश करते हैं। फिर तीनों खुली दहलान पर बोरा बिछाकर बैठते हैं।? धाण्डेकर गांव की ओर देखते हुए पहली बार खुद से बोलते हैं, ''हमारी बस्ती पेड़ों से घिरी थी। सागौन, हल्दू, साजड़, बेहड़, तेंदू, कोसिम, सबय, मोहिम, धावड़ा, तीवस, कोहा से।’’ बागलिंगा कोई 800 लोगों की आबादी वाला गांव है, जो चिखलदरा से 35 किलोमीटर दूर पक्की सड़क पर है।

- ''बाबा, आपने अंग्रेजों का जमाना देखा है। क्या वे आपको तंग करते थे?’’

- ''वे हमसे लकडिय़ां कटवाते थे। वे तंग नहीं करते थे। जंगल में आग लगती थी तो हम ही बुझाते थे, इसलिए (जंगल में) वे रहने देते थे। जंगल में किसी चीज के इस्तेमाल की मनाही नहीं थी।’’

कालूराम बाबा को पुरानी साग-सब्जियों, दालों, छालों और फलों के नाम लिखवाने के लिए तैयार करता है। वे रुक-रुक बताते हैं और हम लिखते जाते हैं। वे बताते हैं कि उनके जमाने में सालगिरी, गालंगा और आरा की भाजियां थीं, जो अब कम ही खाई जाती हैं। बेचंदी को चावल की तरह उबालकर खाते थे। काला गदालू, बैलकंद, गोगदू और बाबरा कच्ची खाई जाने वाली चीजें खूब मिलती थीं। ज्वास नाम की बूटी को उबली सब्जी में डाल दो तो वह तेल की तरह काम करती। इसी तरह, तेंदू, आंवला, महुआ, हिरडा जैसे फलों के पेड़ ही पेड़ थे। खेती के लिए कोदो, कुटकी, जगनी, भल्ली, राठी, बड़ा आमतरी, गड़मल और सुकड़ी के बीज थे, जो बंजर जमीन पर भी उग जाते थे।

इतनी सारी जानकारियां हासिल करने के बाद धाण्डेकर के चेहरे पर मुझे कोरकू समुदाय की सरल, सहज और समृद्ध जीवनशैली की झलक दिखाई दी। इन्होंने जंगल से जीवन को जीना सीखा था, लेकिन जैसे-जैसे जंगल से उनके जीवन को अलग-थलग किया गया और वैसे-वैसे इनका जीवन दूभर होता चला गया।

 

मेलघाट, 1974

ठीक से 100 तक गिनती न आने के बावजूद मेलघाट में वर्ष 1974 कई बड़े-बूढ़ों की जुबान पर है, क्योंकि इसी वर्ष 'मेलघाट टाइगर रिजर्ववजूद में आया और कोरकू जनजाति का जीवन दो टुकड़ों में बट गया-विस्थापन और पुर्नवास। ऊंट के आकार में फैले विस्थापन के सामने पुर्नवास जैसे ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर साबित हुआ। आजाद भारत में कोरकू जनजाति पर एक के बाद एक कई प्रहार हुए और इनका जीवन जंगल से कटता गया।

''1974 में (तत्कालीन) प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आई थीं, वे कोलकस रेस्टहाउस में ठहरी थीं, उस समय रामू पटेल प्रदेश के वनमंत्री थे, उन्होंने कुछ खास लोगों को रेस्टहाउस बुलवाया था। कहा था, सरकार शेरों को बचाना चाहती है, इसलिए मेलघाट में शेरों के चमड़े बराबर जगह चाहिए और आज आप देख ही रहे हैं कि शेर का चमड़ा जैसे चौड़ा होते-होते पूरे मेलघाट को ढकने लगा है।’’

वैराट गांव के ठाकुजी खड़के जब यह सब बता रहे हैं तो मुझे यात्रा के दौरान टाइगर रिजर्व परियोजना के कुछ बोर्ड याद आते हैं, जिन पर मराठी भाषा में कई संदेश लिखे गए। इन्हीं पर एक बोर्ड पर लिखा था, 'बाघ पर्यावरणाचे प्रतीक आहेअर्थात बाघ अच्छे पर्यावरण के प्रतीक हैं। मैं सोचता हूं कि क्या जंगलों में आदिवासियों का होना भी अच्छे पर्यावरण का प्रतीक नहीं समझा जा सकता। बीते चार दिनों में मैंने देखा कि वन्यजीवों को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं, लेकिन उनमें से कितने लोग आदिवासियों से बतियाते हैं। दरअसल, देश जंगल के भीतर बनाम जंगल के बाहर की दुनिया में विभाजित है। जंगल के भीतर की दुनिया में भले ही टाइगर रिजर्व सुरक्षित हो रहा हो, लेकिन यहां लोगों की रोटी का संकट जरूर गहराता जा रहा है। जंगल के बाहर दुनिया इस बात से अनजान है, या उसे इस बात से मतलब ही नहीं है कि बीते तीन दशकों से यहां जनजातियों का ही शिकार जारी है।

और इसी कड़ी में अब वैराट और पसतलई जैसे गांवों का विस्थापन की तलवार लटका दी गई है। चिखलदरा से महज बारह किलोमीटर की दूरी पर एक-दूसरे से सटे ये दो छोटे-छोटे गांव हैं, जबकि यह घूमते समय मुझे लगा कि ये एक ही गांव की दो बस्तियां होंगी। दोनों गांवों के कुल 95 घरों में करीब पांच सौ लोग रहते हैं।

''1974 के पांच-छह साल बाद सरकार ने जल से मछली, जंगल से पेड़ों की पत्तियां और जमीन से कंदमूल खोदने पर रोक लगा दी। 1974 के बाद से यह अफसर फाइल लेकर इधर-उधर घूमते तो हमने सोचा नहीं था कि एक दिन वे हमें जंगलों से इस तरह अलग कर देंगे। वे जीपों से आते और कहते तुम्हें घर और खेती के लिए जमीन दी जाएगी। हमें अचरज होता कि जो जमीन हमारी ही है, उसे वे क्यों देंगे!’’

दरअसल, पसतलई गांव के तुकाराम सनवरे का यह बयान जंगल के मालिकों को मजदूर बनाने का लघुकथा है। मनरेगा के तहत मेलघाट की पहाडिय़ों से 46 हजार लोगों के नाम जोड़े जा चुके हैं।

 

''जिंदाबाद!’’

कई लोगों ने एक जगह से मिलकर यह नारा लगाया। मैं खुश हूं, बल्कि गदगद हूं, यह देखकर कि वैराट गांव में एक घर की लंबी और खुली दहलान पर वैराट और पसतलई गांव के लोगों ने मेरे यहां आने की सूचना पर बैठक रखी है। पचास से ज्यादा लोग और खासतौर से महिलाएं अपने-अपने काम छोड़कर यहां क्या सोचकर बैठी हैं। मैं इनके बारे में बात करने के लिए आने वाला कोई पहला पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता भी नहीं हूं। फिर कालूराम मुझे बताता है कि ये बाहर से आए व्यक्तियों का इसी तरह से स्वागत और सम्मान करते हैं। 'जिंदाबादके जवाब में मेरा एक हाथ अपने आप ही उठ गया, भीतर ही भीतर यह सोचकर कि न मैं मंत्री हूं और न अफसर, जो मेरे लिखे से इनकी तकदीर बदल जाएगी। फिर भी इनकी उम्मीद और इनका प्यार मेरी जिंदगी की पूंजी है। यह सच्चाई है कि कोरकू समुदाय के लोग अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन यह भी सच्चाई है कि इस तरह के समुदायों के सामने आकर मुझे मेरी पहचान हासिल होती है, वरना मेरी दुनिया में तो मुझमें कोई बात नहीं है। मेरी दुनिया से अलग इस दुनिया के लोग हर बार पूरे अनुशासन और ध्यान से मेरी बातें सुनते और अपनी बातें सुनाते हैं, लेकिन इस दुनिया से बाहर जब यहीं बातें मैं सुनाता हूं तो कौन सुनता है! मैं खुद इनकी तरह ही वंचित हूं, ये व्यवस्था से वंचित हैं और मैं अपने पेशे से।

चर्चा शुरु होती है तो मुझे पता चलता है कि मेलघाट में इसके पहले तीन गांव होका, कुण्ड और बोरी के 1,200 घरों को विस्थापित किया जा चुका है, पुनर्वास के नाम पर उन्हें यहां से 120 किलोमीटर दूर अकोला जिले के अकोट तहसील क्षेत्र में राजूरा गांव के पास बसाया जा चुका है।

कालूराम खड़े होकर बता रहे हैं कि शिरीष भाई ने उन तीन गांवों का पुनर्वास नहीं देखा। वे लोगों से पूछ रहे हैं कि उन तीन गांवों का पुनर्वास कैसे हुआ और क्या वे भी उसी तरह से बसना चाहते हैं?

''नहीं, नहीं’’ सभी का एक सुर में पुनर्वास का विरोध कर रहे हैं।

तेजुजी सनवारे कहते हैं, ''अफसर ठीक से सर्वे नहीं करते। कागज और जमीन पर फर्क होता है। कुण्ड गांव के ही छह परिवार ऐसे हैं जिन्हें खेती के लिए जो जमीन बताई गई थी वह तालाब के भीतर पाई गई। फिर, कई लोगों को अपने जानवर बेचने पड़े, क्योंकि वहां चराने के लिए जमीन नहीं थी।’’

फकीरजी खड़के कहते हैं, ''हम मरने के बाद आदमी को जमीन के नीचे दफनाते हैं। वहां दफनाने के लिए जमीन नहीं मिलेगी तो हम कहां जाएंगे।’’

किशन खड़के बताते हैं, ''वहां गए कुण्ड के 11 परिवारों को सरकार ने न घर बनाने के लिए पैसा दिया, न जमीन दी।’’ सुखदेव एवले बताते हैं, ''बस्तियां तोडऩे से पहले अफसर आते हैं और बताते हैं कि बस अब इतने दिन और बचे हैं, फिर तुम्हें यहां से जाना पड़ेगा। अफसर के आने का मतलब है कोई खतरा आ गया।’’

शांता सनवारे कहती हैं, ''बस्तियों को तोडऩे का उनका तरीका भी अजब है। जिस बस्ती के आसपास आठ-पंद्रह दिन पहले ट्रक घूमने लगें, समझो घर-गृहस्थी समटने का समय आ गया। घर तोडऩे वाले कर्मचारी चाय की दुकानों पर चर्चा करते हैं कि पूरी बस्ती को वे किस तरह तोड़ेंगे।’’

फूलाबाई खड़के आगे जोड़ती हैं, ''वे (कर्मचारी) कहते हैं, बंबई से चला तीर लौटता नहीं है, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही, समय रहते चले गए तो कुछ मिल ही जाएगा, नहीं तो घर की लकडिय़ां, खपड़े और ईंट निकालने का समय भी नहीं देंगे। ऐसी बातों को सुनकर जब हमारे बच्चे अपने घरों की लकडिय़ां निकालने लगते हैं तो वे हमारे बच्चों को शाबाशी देते हैं और बस्ती तुड़वाने में हमारी मदद करते हैं। फिर देखते ही देखते गांव की पूरी बस्ती के घर टूट जाते हैं।’’

यह कहानी है कोहा, कुण्ड और बोरी गांव के उजडऩे की, जहां के बाशिंदे मेरे आने के सात साल पहले उजड़ गए।

जो तिनका-तिनका जोड़कर

जिंदगी बुनते थे

वो बिखर गए।

गांव-गांव टूट-टूटकर

ठांव-ठांव हो गए।

अब उम्मीद से उम्र

और छांव-छांव से पता

पूछना बेकार है।

 

शिरीष खरे- 17 वर्ष की पत्रकारिता में पांच राजधानियों (नई दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर और मुंबई) में काम का अनुभव। इस दौरान प्रिंट मीडिया की मुख्यधारा के भीतर-बाहर रहते हुए ग्रासरुट की एक हजार स्टोरी-रिपोर्ट प्रकाशित। ग्रामीण पत्रकारिता के झरोखे से विस्थापन, पलायन, सरकारी अराजकता, बेकारी, गरीबी, शोषण, भूख, कुपोषण, रोग अशिक्षा, खेती, मजदूरी, जल जंगल, जमीन, खनन, माओवाद, सूखा, अकाल, नदी-विवाद, आरक्षण, अनाचर, आंदोलन, उद्योग, बाजार, राजनीति और नीतियों का अनोखा दस्तावेज। वर्ष 2005 से 2016 तक सात राष्ट्रीय पुरस्कार। ग्रामीण पत्रकारिता में उत्कृष्ट रिर्पोटिंग के लिए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया की ओर से तत्कालीन उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी द्वारा पुरस्कृत। लैंगिक- संवेदनशीलता पर सर्वश्रेष्ठ फीचर लेखन के लिए दो बार लाड़ली मीडिया अवार्ड। प्रतिष्ठित माधवराव सप्रे (भोपाल) और मिनीमाता (रायपुर) पत्रकारिता सम्मान। 'सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज, नई दिल्लीद्वारा मीडिया शोध और 'रीच-लिली, चेन्नईद्वारा टीवी रिर्पोटिंग के लिए फैलोशिप। वर्ष 2013 में अन्वेषण (इंवेस्टीगेट) रिपोर्टिंग पर 'तहकीकातनाम से पुस्तक प्रकाशित। कैरियर के पहले तीन वर्ष डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण संस्था 'जनमाध्यममें शोधार्थी। यहां सूचना के अधिकार, अनौपचारिक-शिक्षण और भारतीय गणराज्य जैसे विषयों से परिचय। 'सीएसडीएस, नई दिल्लीने वर्ष 2005 में 'लिटिल बैले ट्रूप, भोपालपर फैलोशिप दी तो भोपाल वापसी। फिर दो-ढाई साल बड़वानी जिले की 'आशाग्राम ट्रस्टऔर 'मंथन अध्ययन केंद्रसंस्थानों से जुड़ाव। यहां विकलांगता और पानी के निजीकरण के मुद्दों पर काम। यहीं सरदार सरोवर बांध के कारण निमाड़ अंचल के हजारों परिवारों की डूब और संघर्ष के किस्सों से सीधा सामना। वर्ष 2008 में 'क्राई (चाइल्ड राइटस् एंड यू), मुंबईमें संचार प्रबंधन की नौकरी। इस दौरान महाराष्ट्र के गांव-गांव और गुजरात के शहर-शहर घूमना। वर्ष 2011 में 'तहलकापत्रिका में वरिष्ठ संवाददाता नियुक्त। तीन वर्ष की अवधि में करीब आधा समय राजस्थान ब्यूरो (जयपुर) और आधा समय मध्य प्रदेश ब्यूरो (भोपाल) संभाला। वर्ष 2014 में 'राजस्थान पत्रिकासमाचार-पत्र में विशेष संवाददाता नियुक्त। इस दौरान छह महीने भोपाल संस्करण और ढाई साल रायपुर (छत्तीसगढ़) संस्करण के राज्य ब्यूरो में। वर्ष 2017 से पुणे की संस्था 'शांतिलाल मुथ्था फाउंडेशनमें बतौर संचार प्रबंधन नई पारी।

 


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