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जुलाई 2018

सूरज और तहख़ाना

स्कंद शुक्ल

विज्ञान/निरंतर-दो

 

 

 

दूर नदी की सतह पर डूबता हुआ सूरज अपने प्रतिबिम्ब को छूता मुझे आठ की आकृति का आभास दे रहा था। ऊपर एक लाल गोला और उसी की छाया पानी में। स्पष्ट न सही लेकिन मन में चल रहे भावों के अनुरूप वह मुझे संख्या-सा ही दिखायी दिया। एकमात्र ऐसा अंक जो किसी हृष्ट-पुष्ट मनुष्य-सा जान पड़ता है।

सुमी के जाने का समय हो गया था, वह चल पड़ी थी। आठ की बायीं ओर किसी एक सी। एक-और-एक ग्यारह की तर्ज़ पर यह एक-और-आठ अठारह की आकृति थी। मनुष्य और प्रकृति एक साथ। अगल-बगल चलने का आभास। कुछ ही क्षण और। फिर सुमी अपने रास्ते और सूरज अपने। अँधेरे में दोनों कुछ घण्टों के लिए गुम जाएँगे।

सुमी और मैं स्कूल के सहपाठी हैं। हम बारहवीं तक साथ पढ़े फिर कई साल अपनी-अपनी अंक-तालिकाओं के साथ अपना उद्देश्य और स्थान तलाशते रहे। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैंने उसे इस शहर में ढूँढ निकाला। हम मिले तो पाया कि अलग-अलग तालिकाओं में होकर भी हम अगल-बगल काम करते हैं। वह एक स्कूल में विज्ञान की अध्यापिका है और मैं बैंक का एक मुलाज़िम। अंकों के साथ दिन-भर सावधानी बरतते हमारा जीवन बीत रहा है लेकिन हमें पुराने दिनांकों को भी फिर से जी लेना चाहिए। सो हम मिलने लगे और आज तक मिल रहे हैं।

सुमी रसायन की सत्ता को मानती है। इसलिए नहीं कि वह साइंस-टीचर है और विज्ञान उसकी जीविका। बल्कि इसलिए कि वह उसे प्रतिपल अनुभूत करती है। जीवन उसके लिए संसार की किसी परखनली की अभिक्रिया है, जिसमें कोई किसी से भी नहीं जुड़ जाता। सब अपने-अपने अनुसार जुड़ाव का चुनाव करते हैं और इसके लिए बड़ी ऊर्जा भी व्यय की जाती है।

''और यह सब समाज की पारदर्शी परखनली में सबके सामने होता है! जानते हो जुडऩे में बड़ी ऊर्जा लगती है, टूटना उसकी तुलना में सहज-सरल है!’’

''कुलीन लोग पुराने दोस्तों तक के प्रति निष्क्रिय रहते हैं। चार साल एक ही शहर में रहते हो गये और मिली महीने-भर पहले हो।’’ मैं कटाक्ष करता हूँ।

''भक्क!’’

सुमी को कुलीन कहे जाने पर चिढ़ है। उसे कुलीनता में एक $िकस्म की निष्क्रियता दिखती है। एक ऐसा स्वभाव जो आपको लोगों से जुडऩे से रोकता है। आप परखनली में रहते हैं लेकिन फिर भी अलग-थलग। सबसे इतने कटे हुए कि लोग जान ही पाते कि आप हैं भी।

''तुम शुरू से ऐसी ही थीं। स्कूल में भी इसी तरह। क्लास आती थीं लेकिन दिखती नहीं थीं। तुम्हारा होना मुझे केवल अटेंडेंस के समय मालूम पड़ता था। रोज़ सुबह एक नाम जो उपस्थिति दर्शाता था किसी व्यक्ति की और फिर नदारद। कह दो कि मैं झूठ बोल रहा हूँ ? कहो! कहो न!’’

मेरी आँखों में शरारत है, जो अभिक्रिया माँग रही है। मैं इस सम्भावित सम्बन्ध को ऊर्जा दे रहा हूँ कि शायद यह आज बन सके। जो तब न हुआ, वह अब हो। इतने सालों में उसकी निष्क्रियता और मेरी सक्रियता, दोनों बढ़े ही हैं। देखता हूँ : शायद हमारा रासायनिक सम्मेल घट ही जाए।

बदले में सुमी मुझे कुलीनता की एक कहानी सुनाती है। मुझे लगता है कि वह मुझे अपना सत्य कहानी बनाकर सुना रही है। सत्य को कथा-सा कहने वाले सबसे बड़े बहरूपिए होते हैं, कथा को सत्य-सा मानने वाले सबसे बड़े मासूम। सो सुमी मेरी नज़र में इस समय सबसे अधिक प्रछन्न है और मैं उसकी दृष्टि में सबसे अधिक प्रस्तुत। कहानी में से मुझे सत्य बीनने होंगे : इसलिए आप भी इसे मेरे साथ सुनिए।

''इस दुनिया में सूरज कभी नहीं डूबा है और न उगा है विहग, तुम जानते ही हो। हम किसी बच्चे के गुब्बारे-सा उसके संग बर्ताव करते आये हैं। किसी बाल्टी में उसे डुबोया कि उसकी हवा निकली कि नहीं। मगर वह अगले ही दिन फिर उसी आकार-आकृति में हाज़िर!

सो जो दुनिया में बड़े हो गये, वे सूरज के डूबने को बचपना मानने लगे। उन्होंने पूरी दुनिया $फतह की और यह घोषणा की कि सूरज उनके राज्य में कभी नहीं डूबता। वह हमेशा उदित रहता है। यह कितना हास्यास्पद है न विहग? जो बात सच है उसे आप अपना दम्भ बनाकर दुनिया को सुनाएँ? हँसी नहीं आती?’’

मैं हँस देता हूँ और मेरी मासूमियत खुल जाती है। कथा को समेटे सुमी आगे बढ़ती है, सचों को बिखेरती हुई।

''तो वे अँग्रेज़ थे जिनको यह लगता था कि उन्होंने सूरज को डूबने से रोक लिया। वह काम उन्होंने कर दिखाया जो पहले से हुआ पड़ा था। वे संसार के सबसे बड़े साम्राज्य के अधिपति थे। साम्राज्य वयस्क लोग ही बनाते हैं दोस्त ,बच्चे इतने खाली नहीं होते। उनके पास गुब्बारों की हवा जाँचने से $फुरसत कहाँ!’’

''तो फिर?’’ मैं उससे पूछता हूँ।

''तो यह कि संसार के सबसे बड़े साम्राज्यों में सबसे कम मुस्कराहट पायी जाती है। वहाँ निश्छलता नहीं होती, वहाँ एक दृढ़ता सामान्य मानवीय मनोभावों को ढँके चलती है। वह कुलीनता का काल था। और जब कुलीनता जब अपने चरम को छूती है तो निष्क्रियता का आवरण ओढ़ लेती है। जानबूझकर ताकि लोग उसे औसत न समझें। वह जन में मिलना नहीं चाहती, वह जन सी दिखना नहीं चाहती। विक्टोरिया के काल में भी यही हुआ। महारानी के पति क्या असमय दिवंगत हुए, उनके चेहरे की स्मित-रेखाएँ भी निष्क्रिय चाम-तले ढँक गयीं। फिर तो सब कुछ ही ढँक गया। लोगों के तन और उनके मन --- सभी मशीनों  के शोर और धुएँ में दफन हो गये। शोकाकुल महारानी की और उनके यान्त्रिक साम्राज्य की जयजयकार ही इतनी ऊँची थी!’’

मैं चुपचाप सुमी का ग्लोबनुमा चेहरा देखता जा रहा हूँ जहाँ उन्नीसवीं सदी की असंख्य घटनाएँ आकार ले रही हैं। पीछे पीले सूरज से जगमग आसमान है, सामने बच्चे गुब्बारों से खेल रहे हैं। ऐसा लगता है कि लापरवाही से एक गुब्बारा उन शरारतियों से छूट गया है।

''फिर सूरज ने अपनी चाल चली। उसने विक्टोरियाई प्रच्छन्नता देखकर स्वयं को कुछ देर के लिए प्रच्छन्न कर लिया। काले लिबास की महारानी के सामने उसने भी कुछ क्षणों को काला लिबास पहन लिया। वह सन् 1868 था।

सूरज का वह मातम लेकिन कुछ लोगों को उसका एक भेद दे गया। उन्होंने उसके सतरंगी आँचल में एक पीली पट्टी देख ली। यह एक नये तत्त्व की खोज थी। उसका नाम बाद में रखा गया हीलियम। सूर्य में मिली गैस, सूर्य-सा उसका नाम। सूर्य पर उसका जन्म हाइड्रोजन के परस्पर टकराने से हो रहा है।’’

''हाइड्रोजन वही हाइड्रोजन-बम वाली न?’’ मैं अपनी मूर्खता ज़ाहिर करता हूँ।

सुमी धूप-सी मुस्कुराती है। ''हाँ , वही। धरती के बम-से वहाँ न जाने कितने फट रहे हैं। और उस विनाश के ताप से हम यहाँ जीवन पा रहे हैं। हमारी काँच की परखनली की आँच वहीं तो है!’’

''हमारे यहाँ वायुमण्डल में हाइड्रोजन और हीलियम नहीं?’’

''नहीं। वे इतनी हल्की हैं कि पृथ्वी उन्हें गुरुत्व से बाँध ही नहीं पाती। वे बनती भी हैं तो अन्तरिक्ष में निकल जाती हैं। बहुत हलकों की यही समस्या है, वे पक्के आवारा निकलते हैं। एक ठौर टिकते ही नहीं, एक से मोह लगाते ही नहीं।’’ कहते हुए वह गम्भीर हो जाती है।

''हाइड्रोजन और हीलियम में क्या अन्तर है सुमी? मेरा मतलब है मुझे रसायन-विज्ञान का कुछ भी नहीं पता : मैं कैसे इनके भेद को महसूस करूँ?’’

सुमी मुझे हाइड्रोजन और गुब्बारों के बारे में बताती है। हल्केपन के कारण उसे उनमें भरा जाता था। लेकिन फिर हादसे होने लगे। हाइड्रोजन ने अपनी आग्नेयता प्रकट कर दी। उसका भार बहुत कम सही, लेकिन वह ऊष्मा से दहकने को बे$करार है। ऐसे तत्त्व के हाथों में हम उड़ानें नहीं सौंप सकते। और बचपन! उसे तो बिल्कुल भी नहीं!

सुमी के मुँह पर हिंडेनबर्ग-आपदा का नाम आता है। विमानों के पहले की वह जर्मन यात्री-गुब्बारा दुर्घटना जिसमें कई लोग मारे गये थे। हाइड्रोजन का वह प्रलयंकर रूप था। उसके बाद से संसार ने उसकी जगह हीलियम को तरजीह देना आरम्भ कर दिया। गुब्बारों में यात्राएँ बन्द हो गयीं और वे केवल बच्चों के हाथ के खिलौने-भर रह गये।

''जानते हो विहग, हाइड्रोजन-से बड़े-बड़े ऊष्मावान्, बड़े-बड़े आग्नेय जो यहाँ आग लगाकर आतंक मचाया करते हैं, सूरज के माहौल में बाअदब हीलियम में बदलने में बेहतरी समझते हैं। विस्फोट करके गैर-ज़िम्मेदारी से जलना एक बात है, आपस में जुड़कर किसी दूसरे तत्त्व का निर्माण एक-दम जुदा बात।

''ऊर्जा तो दोनों में पैदा होती है न!’’ अब तक मैं भी धीरे-धीरे उसकी भाषा बोलने लगा हूँ।

''हाँ, होती है। लेकिन साधारण रासायनिक विस्फोट का परमाणु-ऊर्जा से कोई मु$काबला है भला? केमिस्ट्री कितनी भी अन्तरतम हो पगले, वह फिर भी बाह्य है। उसके भी भीतर िफज़िक्स है, उससे भी कहीं अधिक गहरी, उससे भी कहीं अधिक नाभिकीय।’’

यह कहकर वह अपनी कहानी को अर्धविराम देती है। उसे अभी जाना होगा, इसलिए यह कुलीन-कथा अभी यहीं रुकेगी। तब तक सूरज जो कभी नहीं डूबता , उसे मुझे डूबता मानना होगा। फिर रसायन के रहस्यों के साथ वह मिलेगी, मेरी अभिक्रियाओं का चुनाव देखने के लिए।

रात बस मोहल्ले के पार्क में ही आ पायी थी अन्यथा पूरे शहर में दिन बीता नहीं था।

''महानगरों के दिन दीर्घायु होते-होते अमर-से हो गये हैं, सुमी। अब रातें मनोनीत होती हैं, दिन के किसी एक छोटे-से टुकड़े को लोग गुडनाइट कहकर सो लिया करते हैं।’’ मैंने उससे कहा था।

''रातें ज़रूरी कालखण्ड हैं, विहग। और रातों को जगने वाले भी। बहुत से रहस्य अन्धकार में टटोलकर पा लिये जाते हैं, जो आँखें भरे-दिन नहीं ढूँढ़ पातीं। याद है मैंने तुमसे कहा था कि भारत में दिखे एक सूर्यग्रहण के समय ही विज्ञान ने हीलियम को खोज निकाला था?’’

''हाँ, पर इस शहरी अँधेरे में सूरज की कमी इंसान को नहीं खलती। उन चमकते नियॉन के साइनबोर्डों को देखती हो?’’

''नियॉन नवीन सदी के मुहाने पर खोजी गयी थी, विहग। जब उन्नीसवीं से बीसवीं मिलने को थी। नाम में ही नूतनता। वह नये प्रकाश की आभा लिए दमकती है, अपनी बहनों आरगॉन, क्रिप्टॉन और ज़ीनॉन के साथ। जानते हो इन्हें सूरज पर नहीं पाया गया था, ये चारों यहीं धरती पर मिली थीं।’’

''मगर कृत्रिम प्रकाश के इन लट्टुओं और बोर्डों में इनका क्या काम? ये तो निष्क्रिय गैसें हैं न?’’

''निष्क्रियता की ज़िम्मेदारी का एक उदाहरण तुम गुब्बारों में देख चुके हो। वह हीलियम थी। अब इन रात्रिकालीन ज्योतियों में उसकी बहनों का महत्त्व देखो। इनसे बिजली दौड़ती है, तो ये दमकने लगती हैं अपने परमाणुओं से एलेक्ट्रॉन त्याग कर। लाल-नीले-हरे अलग-अलग रंग जो हमें लुभाते हैं! हमारी रातों के अँधेरे को रंगीन बनाते हैं!’’

''जो काम हीलियम आसमान में उस पीले गोले में करती है, वह काम उसकी बहनें यहाँ काँच के मर्तबानों में मनुष्यों के लिए करती हैं। प्रकाश वहाँ, प्रकाश यहाँ!’’ मेरे हाथों की उँगलियाँ सक्रियता-निष्क्रियता को बारी-बारी से दर्शाती खुल-बन्द हो रही हैं।

''दमकने से ज़्यादा ज़िम्मेदारी दमक की पहरेदारी में है, मेरे दोस्त। दमकने वाला अपने स्वार्थ में खोया चौंध पैदा करने में लगा है, उसे क्या पता कि बिना निष्क्रियता के आवरण के ये चौंध लम्बा जीवन न जी सकेगी। चमकने के लिए आभामय होने के लोभ का संवरण भी ज़रूरी है न!’’

''वह कैसे?’’

''वह ऐसे कि बल्ब की प्राणरेखा-सा वह तन्तु झटपट जल कर फुँक जाएगा। भक्क की आवाज़ और बस! प्राण उड़ गये उसके! वह जला लेकिन ऐसे कि बस उसका जलना जान पड़ा! उसकी ज्योति अगर लम्बी चलती तो लोग उससे लाभ पाते।’’

''हाँ ,लोग तो लाभ को ही याद करते हैं।’’

''इसी लाभ के लिए लोगों ने उस ज्योति-तन्तु के चारों ओर नियॉन-आरगॉन-क्रिप्टॉन-ज़ीनॉन का एक आवरण बना दिया। इन निष्क्रिय गैसों का ऐसा गोला जहाँ प्राणवायु कहलाने वाली ऑक्सीजन की मनमरज़ी न चले। जानते हो ऑक्सीजन का बस चले तो वह हर जीवन को जम कर जी डालने के नाम पर अल्पायु बना डाले। ऐसी सक्रियता जो केवल अपने काम आए! लेकिन निष्क्रिय गैसें उसका प्रभाव मन्द रखती हैं। नतीजन फिलामेंट धीमे-धीमे सुलगता है। वह जीता है, ज्योति बाँटता है और फिर प्राण त्यागता है। यही निष्क्रिय परमार्थ का सर्जन है, यही प्राणों के आलोक का मन्द-मन्द विसर्जन है।’’

मेरे सामने जगमगाती शहर की रोशनियाँ जैसे हँसने-झूमने लगती हैं। गोया उन्हें सुमी की प्रशंसा भा गयी हो। कोई तो आया जो इस अन्दाज़ में निष्क्रियता के गुण गा रहा है। जीवन की परखनली में वरना सक्रियता की ही तो अभ्यर्थना होती रही है।

''दिन-रात के प्रकाश के अलावा क्या इन गैसों का और कोई अवदान भी है संसार में? मेरा मतलब है कि ज्योति के अलावा भी तो जीवन के कई मायने हैं न!’’ मैं वापस उससे कहता हूँ।

''अन्तरिक्ष में यात्रा से लेकर समुद्र में गोता$खोरी तक मानव का साथ ये बहनें निभाती हैं। चिकित्सा में इनका उपयोग किया जाता है : कभी निदान, तो कभी उपचार में। हमारे लिए इस कुलीन-गैस-कुल के महत्त्व एक नहीं अनेक हैं, विहग।’’

''इनसे परिचय में मानव-जाति को इतनी देर क्यों लगी? मेरा मतलब है इनको ढ़ूँढ़ते-ढूँढ़ते हम बीसवीं सदी तक आ गये ...’’

''जो निष्क्रिय होते हैं न विहग, उन्हें परिचय की जल्दी नहीं होती। वे ठहरते हैं, लोगों का इन्तज़ार करते हैं। वे सामने रहते हैं, लेकिन नज़र नहीं आते। उनमें न गन्ध होती है, न रंग। वे हर जगह क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं दे बैठते।’’

''तो मशीनों के शोर के बीच आदमी का इन गैसों को ढूँढ़ पाना कोई उपलब्धि नहीं?’’

''है। उस शोरगुल करती भीड़ में कुछ थे जो शान्ति से प्रच्छन्नता को पढ़ पाये। उन्होंने सूर्यग्रहण के प्रकाश में उसे पा लिया, धरती की वायु में उसका पता लगा लिया। वे जो रंग-गन्ध-क्रिया के परे झाँक सके, वे कुछ शान्त अकेले लोग।’’

''हम्म्म ... तो यह है इन कुलीन जनों की कथा। लेकिन इतने निष्क्रिय तो नहीं हैं ये। रसायन के रूप में भले हों, जीवन में तो इनकी सक्रियता सिद्ध हो चुकी है।’’

''नहीं! फिर रसायन में भी इनकी सक्रियता पायी गयी। ज़ीनॉन के कई अन्य तत्त्वों से सम्बन्ध हुए, क्रिप्टॉन के भी कुछ से। जो जितने बड़े परमाणुओं वाली, उसके सम्बन्ध उतने अधिक। सक्रियता-निष्क्रियता भी दरअसल सापेक्ष बातें हैं, विहग। हम एक परिस्थिति में निष्क्रिय हों तो आवश्यक नहीं कि दूसरी में भी वही रहें। जीवन की परखनली में पल-पल नये नियमों के अनुसार तत्त्व लीलाएँ करते हैं। कभी योगी भोगी बन जाता है और कभी भोगी योगी।’’

''कुलीन वह जो गुप्त सम्बन्ध बनाये। निष्क्रिय वह जिसके रसायन कम उद्घाटित हों। देर से पता चलें। तुम्हारी केमिस्ट्री सब की पोलपट्टी खोल देती है, किसी के सम्मान को अक्षुण्ण नहीं रहने देती।’’

सुमी चुप हो जाती है। मानो वह इसमें आगे कोई बात जोडऩा नहीं चाहती। इसलिए मैं ही उसकी निष्क्रियता की हद को अनजाने में टटोलता हूँ और वहाँ पहुँच जाता हूँ, जहाँ किसी का भी उसने प्रवेश-निषिद्ध कर रखा है।

''तो प्रकाश-जीवन-उपचार-निदान-जैसे शब्दों पर ही कुलीनता की कथा समाप्त होती है तुम्हारी। कितना सार्थक समूह और सबसे अन्त में इन गैसों को विज्ञान ढूँढ़ पाया।’’

सुमी के चेहरे के भाव तेज़ी से बदलते हैं। ज्यों अचानक उगने-डूबने वाला सूरज बुझ गया हो। संसार-भर की कृत्रिम ज्योतियों का रंग उड़ गया हो। अन्तरिक्ष जाते विमान से धरती का सम्पर्क भंग हो गया हो। किसी को सर्जरी-हेतु निष्क्रियता की निश्चेतना दी गयी हो और मूर्च्छित न होने के कारण चाकू की धार लगने से चीख पड़ा हो।

''सारी कुलीनताएँ साधनाएँ नहीं होतीं,भोले विहग। कुछ हत्यारिनें भी होती हैं। अँधेरे तहखानों से निकलने वाली वे मृत्यु की उपासिकाएँ ऊपर उठती हैं और कितने ही मनुष्य काल के गाल में समा जाते हैं।’’

मेरे चेहरे पर किसी सुखद िफल्म का अन्तिम दृश्य मानो पीड़क क्लाइमैक्स में बदल जाता है।

''रेडॉन। धरती के थोरियम-यूरेनियम-रेडियम के नाभिकों के टूटने से बनने वाली अन्तिम सदस्य,जो स्वयं हानिकारक कैंसर-उत्पादक विकिरण पैदा करता है। जानते हो दुनिया-भर में फेफड़े के कैंसरों का दूसरा बड़ा कारण है यह, धूम्रपान के बाद।’’

मुझे झटका-सा लगता है। कोई खलनायक यहाँ भी होना ही था; महागाथा बिना किसी दुष्कर्ता के अधूरी रह जाती। मानो हीलियम से रेडॉन तक का एक चक्कर निष्क्रियता ने पूरा करके दिखा दिया है कि वह कितनी और किन-किन तरी$कों से सक्रिय है। वह जो सूरज में जगमगाती है, धरती के अँधेरों में आलोक जगाती है, मरती ज्योतियों को जिलाती है, अन्तरिक्ष में आदमी की अदम्य इच्छा ले जाती है, उसके दैहिक कष्टों के निदानों और उपचारों को उनसे मिलवाती है --- वही अन्त में ऐसी निर्मम हो जाती है कि मोम को पूरा जलाकर पिघलने से पहले ही बुझा जाती है।

''सारे निष्क्रियताओं का एक सूरज है और एक तहखाना, विहग। सूरज में रहना आसान है, ज़मीन के नीचे सीलन में रहना बहुत मुश्किल। दोनों जगहों पर एक-साथ रह सकोगे? बोलो, आसमान में उग कर भूमिगत मर सकोगे?’’ वह शायद पहली और अन्तिम बार सक्रिय होती है।

''हाँ। मैं हर सूरज और सीलन में सहयात्री हूँ तुम्हारे। हर हीलियम-रेडॉन की परख में संग। अपनी तालिका के पास स्थान दोगी मुझे?’’ मैं स्वयं को उसकी निष्क्रियता के हवाले कर देता हूँ।

प्रश्न से प्रश्न का टकराना रात के इस पल किसी उत्तर का जन्म है। हमारे बीच में किसी विद्युत-स्फुलिंग की कौंध है, जिससे उपजेआलोक में सब कुछ सा$फ-स्पष्ट दीख रहा है। ज्यों किसी निष्क्रिय गैस ने किसी सक्रिय तत्त्व से भरी रसायन-तालिका की नज़र बचा कर संयोग किया हो, इसी तरह हम दोनों संसार की परखनली के अँधेरे में एक-दूसरे की बाँहों में समा जाते हैं।

 

 

(नोबल गैसों से हमारा परिचय मात्र डेढ़-सौ वर्ष पुराना है। अपनी रंग-गन्धहीनता और सामान्य निष्क्रियता के कारण इन्हें ढूँढ़ पाने में वैज्ञानिकों को स्वाभाविक रूप से देर लगी। भारत के गुंटूर में सूर्यग्रहण के दौरान फ्ऱांसीसी और अँग्रेज़ वैज्ञानिकों पियरे जानसन और जोज़ेफ लॉकियर ने सूर्य पर हीलियम की पुष्टि की। फिर एक अन्य अँग्रेज़ वैज्ञानिक सर विलियम रैम्से ने लॉर्ड रेलीघ के साथ मिलकर तरल वायु के आसवन द्वारा नियॉन-आर्गन-क्रिप्टॉन-ज़ीनॉन को खोज निकाला। बाद में इस सारणी में रेडॉन का नाम भी जुड़ा, जब जर्मन फ्रेड्रिख डॉर्न ने उसकी खोज की।

नोबल यानी कुलीन कही जाने वाली इन गैसों के बारे में पहले धारणा यह थी कि ये सामान्यत: रासायनिक अभिक्रियाएँ नहीं करतीं। लेकिन फिर कई नोबल गैसों के रासायनिक यौगिक बनाये गये। इससे यह सिद्ध हुआ कि ये गैसें पूरी तरह निष्क्रिय नहीं हैं, उचित परिस्थितयों में होने पर ये अभिक्रिया भी कर सकती हैं।

इन गैसों के महत्त्व कई हैं। सूर्य पर नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूज़न) से हाइड्रोजन हीलियम में बदल रही है। यहाँ धरती पर उसका प्रयोग गुब्बारों से लेकर स्क्यूबा डाइविंग तक में होता है। नियॉन और आरगॉन साइनबोर्डों और कृत्रिम प्रकाश-स्रोतों के रूप में ख्याति पा चुकी हैं। क्रिप्टॉन-ज़ीनॉन का उपयोग अन्तरिक्ष-यानों के ईंधन और चिकित्सा-क्षेत्र में विविध रूपों में हो रहा है। रेडॉन हानिकारक है, भूमि में मौजूद रेडियोधर्मी तत्त्वों के विखण्डन से यह पैदा होती है और मनुष्यों में फेफड़े का कैंसर करती है।

संसार के समक्ष इन गैसों की महत्त्वपूर्ण खोज के लिए सर विलियम रैम्से और लॉर्ड रेलीघ सन् 1904 में रसायन-विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किये गये। तब से अब तक इन कुलीन जनों के साथ हमारी परिचय-प्रगति जारी है। )

 

जारी.....

मो. 09648696457, लखनऊ

 


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