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जुलाई 2018

भौतिकी का विलक्षण हॉकिंग तारा

शिवप्रसाद जोशी

स्मृति: स्टीफन हॉकिंग

 

 

 

''भौतिकी यूं तो बहुत अच्छी है लेकिन ये पूरी तरह से ठंडी है। मैं सिर्फ भौतिकी से अपनी ज़िंदगी नहीं चला सकता था। दूसरों की तरह, मुझे भी उष्णता, प्रेम और निष्ठा की दरकार है। एक बार फिर मैं बहुत भाग्यशाली हूं, मेरी जैसी अयोग्यताओं वाले दूसरे लोगों की अपेक्षा कहीं ज़्यादा भाग्यशाली कि मुझे बड़े पैमाने पर प्यार और अपनापन नसीब हुआ है। इस मायने में संगीत भी मेरे लिए बहुत अहम है।’’

 

कुछ खास ढंग की- ऊपर उठी हुई, आकार में कुछ बड़ी, आरामकुर्सी जैसी व्हील चेयर, चेयर के सामने स्टैंड पर लगा कम्प्यूटर, कुर्सी के हत्थे पर कुछ बटन, कुर्सी पर रखी हुई एक मुड़ीतुड़ी देह, गहरे रंग का कोट पैंट जूते टाई चश्मा, चौड़ा चमकता माथा और एक ओर को लुढ़की हुई सी गर्दन। मनुष्य मस्तिष्क और मशीन का अद्भुत संगम है स्टीफन हॉकिंग। किसी आकाशगंगा के किसी तारामंडल का कोई नक्षत्र। हो सकता है अपनी लगभग पूरी उम्र इसी अवस्था में रहे हॉकिंग की यही छवि ब्रह्मांड में भी अंकित होगी और कभी उस छवि की झलक दिखाता कोई तारा प्रकट हो जाए तो उसका नाम हॉकिंग तारा ही रख दिया जाए। या हॉकिंग को दिलोजान से चाहने वाली विज्ञान बिरादरी के टेलीस्कोप किसी भी नये नक्षत्र को ढूंढ निकालें तो उसे हॉकिंग स्टार कहकर बुलाने लगें। आ$िखर हॉकिंग रेडिएशन भी तो वहां है ही। उस अनंत अंधकार में, हमारे कवि मुक्तिबोध के शब्दों में 'कीर्तिमान कष्टों के बीच/ नये जीवन का समारोह।

समकालीन विज्ञान जगत, खासकर खगोलविज्ञान में स्टीफन हॉकिंग की वैसी ही धूम है जैसी साहित्य जगत में गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की रही है। कुछ मामलों में तो हॉकिंग को अपने अग्रज आइन्श्टाइन से ज़्यादा लोकप्रियता और प्यार हासिल हुआ। हॉकिंग सैद्धांतिक भौतिकी के हीरो थे। अपने दिक्-काल में घूमता भटकता एक मनमौजी। दुनिया का चक्कर लगाने में तो जैसे हॉकिंग को मज़ा आता था। हाथ पांव से निष्क्रिय और बोलने में असमर्थ, व्हील चेयर पर बैठे हुए वो मानो अपनी धुरी पर भी घूम रहे थे।

व्हील चेयर पर खगोलीय गुत्थियां

ब्रिटिश भौतिकविद् स्टीफन हॉकिंग सर्वकालिक महान वैज्ञानिकों में एक थे। 14 मार्च 2018 को जब दुनिया उनके निकट पूर्वज और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्श्टाइन की जयंती मना रही थी, हॉकिंग ने इस दुनिया से विदा ली। यूरोप की तीन विभूतियों से 14 मार्च अनायास ही जुड़ गया है। महान दार्शनिक कार्ल माक्र्स इसी दिन दिवंगत हुए थे। 31 मार्च को ब्रिटेन के शहर कैम्ब्रिज में उनके शव को दफनाया गया। हज़ारों लोगों ने उन्हें नम आंखों से विदाई दी। गैलीलियो की मृत्यु के 300 साल बाद, आठ जनवरी 1942 को हॉकिंग का जन्म हुआ था। 21 साल के थे जब एक घातक बीमारी एएलएस (amyotrophic lateral sclerosis) का शिकार हो गये थे जिसने उन्हें शारीरिक रूप से अपाहिज और चलने फिरने में असमर्थ कर दिया। इस बीमारी को मोटर न्यूरॉन डिज़ीज़ भी कहा जाता है। 1985 में जब वो यूरोपीय एटमी एजेंसी, सर्न (CERN) के दौरे पर थे, तो अचानक उन पर निमोनिया का प्राणघातक हमला हुआ। हालत यहां तक आ गई कि डॉक्टरों ने उनकी पत्नी को लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने की सलाह मांगी। पत्नी जेन ने इंकार कर दिया और इसके बदले गले के ऑपरेशन का रास्ता चुना जिससे स्टीफन की जान तो बच गई लेकिन आवाज़ हमेशा के लिए चली गई। पहले से व्हील चेयर के हवाले हो चुके स्टीफन की चेयर में नये हालात के बाद बदलाव किए गये। इंटेल कंपनी की मदद से एक खास किस्म की चेयर तैयार की गयी थी जिस पर कई अत्याधुनिक उपकरणों के साथ कंप्यूटर लगाया गया जो एक स्पीच सिंथेसाइज़र प्रणाली से जुड़ा था।

डॉक्टरों का अनुमान था कि इस बीमारी के बाद स्टीफन ज्यादा दिन जीवित नहीं रहेंगे और अगर बच भी गये तो बच्चे नहीं कर पाएंगें। हॉकिंग न सिर्फ लंबे समय तक अच्छे भले रहे बल्कि उनके तीन बच्चे भी हुए। नाती-पोतों के साथ वो एक भरापूरा परिवार छोड़कर गये। स्टीफन ने अपनी विकलांगता के बावजूद कभी हार नहीं मानी। बीबीसी से 90 के दशक की एक बातचीत के दौरान (अनुवाद पहल में पूर्व प्रकाशित), अपनी बीमारी और उससे लडऩे की तरतीब के बारे में पूछे गये सवालों के जवाब में उन्होंने जो कहा था, वो पाठकों की सुविधा के लिए ये रहा:

बीमारी का मुझ पर पहला प्रभाव तो अवसाद का था। लगता था बहुत तेज़ी से मेरी हालत बिगड़ती जा रही है। कुछ भी करने का या अपनी पीएचडी पर काम करने का कोई मतलब नहीं रह गया था क्योंकि मैं नहीं जानता था कि उसे पूरा करने के लिए मैं उतनी देर ज़िंदा भी रह पाऊंगा। लेकिन तभी चीज़ों में कुछ सुधार होना शुरू हो गया। धीरे धीरे ये हालत और बढ़ती गयी और मैंने भी अपना काम बढ़ा दिया, खासकर ये साबित कर दिखाने में कि ब्रह्मांड की शुरूआत निश्चित रूप से महाविस्फोट से हुई होगी। बीमारी की चपेट में आने से पहले मैं ज़िंदगी से ऊब गया था लेकिन आसन्न मृत्यु की आशंका ने मुझे अहसास करा दिया कि ज़िंदगी तो वाकई जीने लायक है। करने को इतना कुछ है। इतना कुछ कि कोई भी कुछ भी कर सकता है। मुझे उपलब्धि की एक सच्ची अनुभूति होती है कि मैने अपनी हालत के बावजूद मनुष्य ज्ञान को समर्थ बनाने में एक अदना सा लेकिन महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ज़ाहिर है, मैं बहुत खुश$िकस्मत हूं लेकिन अगर हर कोई कड़ी मेहनत करे तो उसे कुछ न कुछ ज़रूर हासिल हो सकता है। मैं नहीं मानता कि ये बीमारी किसी के लिए भी फायदेमंद हो सकती है। लेकिन मेरे लिए ये दूसरों के मुकाबले कम नुकसानदेह इसलिए रही क्योंकि मैं जो काम करना चाहता था उससे ये बीमारी मुझे रोक नहीं पाई, और वो काम ये समझने की कोशिश करने का था कि ब्रह्मांड कैसे ऑपरेट होता है।

 

कैसे ऑपरेट होता है ब्रह्मांड

1915 में आइन्श्टाइन ने अपने प्रसिद्ध सिद्धांत की खोज की जिसे सापेक्षिकता का सामान्य सिद्धांत कहा गया। आइन्श्टाइन का मत था कि गुरुत्व बल यानी ग्रैविटी, महज़ दिक्-काल के स्थिर बैकग्राउंड में संचालित होने वाला बल नही है। बनिस्पत, वो दिक्-काल का व्यवधान, डिसटौरशन है। जो उसके द्रव्यमान (मास) और ऊर्जा से आता है। पृथ्वी दिक्-काल के बीच सीधी रेखा में गतिमान रहने की कोशिश करती है लेकिन सूर्य के द्रव्यमान और अंतत: उसके गुरुत्व बल की वजह से दिक्-काल में जो करवेचर बनता है उससे पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ गोल गोल घूमती है। हम सूरज की दिशा में पडऩे वाले तारे नहीं देख पाते लेकिन ग्रहण के समय जब सूरज का अधिकांश प्रकाश चंद्रमा से ढक जाता है तब उन तारों से निसृत प्रकाश देखा जा सकता है। प्रथम विश्वयुद्ध की छाया के बीच आइन्श्टाइन ने ये साबित कर दिया दिक्-काल सपाट नहीं है बल्कि अपने अंदर अवस्थित पदार्थ और ऊर्जा की वजह से घुमावदार या वक्रता लिए हुए है।

स्टीफन हॉकिंग ने अपने एक चर्चित व्याख्यान में एक उदाहरण से इसे समझाया है कि मान लें कि रबड़ की एक चादर (दिक्-काल) है और उस पर एक वजन रखा हुआ है। ये वजन माना किसी तारे का है। उस वजन से चादर पर दबाव पड़ेगा और उसके नज़दीक चादर की सतह बजाय सपाट रहने के मुड़ जाएगी या दब जाएगी। इसके बाद अगर इस रबड़ की चादर पर संगमरमर की कुछ गिट्टियां लुढ़काई जाएं तो उनके रास्ते बजाए सीधी रेखाएं होने के टेढ़े-मेढ़े या वक्र होंगे। लेकिन इस युगांतरकारी खोज के कुछ कष्ट जल्द ही सामने आने लगे और यहीं से आइन्श्टाइन की दुविधा बढऩे लगी। उस दौरान ये माना जाता था कि ब्रह्मांड स्थिर है। आइन्श्टाइन का गणित कहता था कि वो या तो फैल रहा है या सिकुड़ रहा है। 1929 में एडविन हबल नाम के वैज्ञानिक ने खोज की कि दूरस्थ मंदाकिनियां (गैलेक्सीज़) हमसे अलग हो रही हैं। यानी ब्रह्मांड फैल रहा है।

आइन्श्टाइन इस घटनाक्रम पर पहली उंगली रख चुके थे लेकिन वो वहीं रुक गए और जब ब्रह्मांड के फैलने की पुष्टि हो गयी तो आइन्श्टाइन ने जैसा कि कहा जाता है अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती भी विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर ली। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं थी। आइन्श्टाइन को हैरान करने के लिए और फलसफे सामने आने वाले थे। ये तथ्य कि कोई पदार्थ दिक्-काल को अपने ही चारों तरफ घूम जाने पर विवश कर देता है एक नए सत्य की तरफ इशारा कर रहा था। इसी तथ्य की बिना पर ये पाया गया कि पदार्थ किसी क्षेत्र विशेष को उसके अपने ही इर्दगिर्द इतना मोड़ सकता है कि अंतत: वो क्षेत्र शेष ब्रह्मांड से कट जाए। ऐसे हालात में वो क्षेत्र ब्लैक होल यानी काला छेद या गड्ढा बन जाएगा। 1969 में पहली बार अमेरिकी वैज्ञानिक जॉन व्हीलर ने 200 साल पुराने इस विचार का नामकरण किया था- ब्लैक होल। हॉकिंग अपनी रबड़ की चादर की मिसाल से फिर ये समझाते हैं कि अगर इस चादर पर भारी से भारी और ज़्यादा सकेंद्रित वजन रखते जाएं तो उनसे वो चादर और दबेगी, दबती चली जाएगी। फिर एक समय ऐसा आएगा जब वजन और आकार के चरम पर चादर पर गहरा छेद बन जाएगा (आम अर्थ में चादर किसी खास जगह पर फट जाएगी।) यही फटा हुआ हिस्सा या बिंदु ब्रह्मांड के वे ब्लैक होल्स या काले छेद हैं जहां पर किसी भी वस्तु या व्यक्ति का उसमें गिर जाना तय है। इस काले छेद के पास अपार अपरिमित गुरुत्व बल होगा जो हर चीज़ को निगल लेगा। चीजें यहां से बच कर तभी निकल सकती है अगर वे प्रकाश की रफ्तार से ज़्यादा तेज़ चलें। लेकिन सापेक्षिकता का सिद्धांत इसकी इजाज़त नहीं देता था। लिहाज़ा ब्लैक होल नाम के इस पेटू बिंदु के भीतर पदार्थ फंसकर रह जाता और अत्यधिक उच्च घनत्व वाली किसी अज्ञात अवस्था में पहुंच जाता। स्टीफन हॉकिंग जैसे भौतिकविदों के मुताबिक आइन्श्टाइन इस तरह के अंत के लिए तैयार नहीं थे लिहाज़ा उन्होंने ये माना ही नहीं कि ऐसा वाकई हुआ था। आइन्श्टाइन ने ये नहीं माना कि ब्रह्मांड के कई विभिन्न इतिहास या इतिवृत्त हो सकते हैं। वो एक निश्चतता के दायरे में काम करते रहे लेकिन क्वांटम यांत्रिकी और उनके अपने ही फोटो इलेक्ट्रिक एफेक्ट के सिद्धांत ने ऐसी अनिश्चितताएं ला खड़ी की थीं कि इनको नकारते हुए और कुछ कुछ खिन्न हालत में आइन्श्टाइन ने कह दिया कि ईश्वर जुआरी हो ही नहीं सकता, वो पासे नहीं खेलता।

लेकिन स्टीफन हॉकिंग के ब्लैक होल नाम की ब्रह्मांड की कथित दुर्दांत अंतिम जेल के रोचक अध्ययनों ने आइन्श्टाइन की सापेक्षिकता, प्रकाश के क्वांटा और क्वांटम गुरुत्व का मिलाजुला विवरण सामने रखा और ये साबित कर दिखाया कि ब्लैक होल्स की हठधर्मिता के कुछ तार इतने लचीले हैं कि उनकी मदद से उसमें समा जाने वाली कोई चीज़ दोबारा वापस आ सकती है। शायद वो ठीक उसी रूप में न हो लेकिन ऐसा नहीं कि ब्लैक होल उसके द्रव्यमान उसके आकार और उसकी ऊर्जा को समूचा गड़प लेता है। उससे कुछ ऊर्जा निकलती रहती है जो दरअसल उसमें समाहित पदार्थ की है। यानी वहां से विकिरण के छूट जाने की संभावना है। इसे हॉकिंग रेडिएशन कहा गया। ब्लैक होल के बारे में स्पष्ट और ठोस तलाश अभी जारी है लेकिन वैज्ञानिक मान्यता रही है कि प्रकाश तक उसमें जाकर डूब जाता है। लेकिन हॉकिंग का कहना था कि ब्लैक होल से भी बाहर कोई रास्ता जरूर निकलता होगा। एक दूसरी स्थिति ये है कि ब्लैक होल से उगले जाने वाले कण भी अपना एक ब्रह्मांड रच लेते हैं जो शिशु ब्रह्मांड की अवस्था है। ये कथन 'सिंगुलैरिटीनामक प्रस्थापना की ओर भी इंगित करता था जिसे दरअसल दिक्-काल का एक अनिश्चित झुकाव माना जाता है। हॉकिंग अंतिम समय तक ग्रैविटी और क्वांटम मैकेनिक्स को एकीकृत करने की गुत्थियों में डूबे हुए थे और आखिर तक ये जानना चाहते थे कि वाष्पीकृत होने के बाद ब्लैक होल का क्या होता है।

ईश्वर का इतिहास

1988 में प्रकाशित 'समय का संक्षिप्त इतिहास’ (अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम) जैसी किताब ने स्टीफन हॉकिंग को रातोंरात विज्ञान दुनिया का सितारा बनाया। संडे टाइम्स की बेस्टसेलर सूची में ये किताब अभूतपूर्व 237 सप्ताह तक बनी रही और इसकी बदौलत गिनीज़ बुक में इसका नाम दर्ज हुआ। एक करोड़ से ज़्यादा प्रतियां बिकीं और 40 भाषाओं में अनूदित हुई। इसके बारे में एक मजाकिया कथन भी प्रचलित है कि बिकी तो खूब लेकिन क्या किसी ने इसे पूरा पढ़ा भी। हॉकिंग खुद ऐसे मजाकों पर रस लेते थे। 1993 में दूसरी किताब 'ब्लैक होल्स ऐंड बेबी यूनिवर्सेस ऐंड अदर एसेसप्रकाशित हुई। इसी किताब में हॉकिंग ने ब्रह्मांड से जुड़े अपने अध्ययनों को रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किया है। इसमें कुछ व्याख्यान भी हैं और वो महत्वपूर्ण लेख भी है जिसमें हॉकिंग ने आइन्श्टाइन की दुविधाओं पर अंगुली रखी है। 2001 में उनकी किताब आयी 'द यूनिवर्स इन अ नटशैल।और इसने भी तहलका मचा दिया। रिकॉर्ड बिक्री हुई। खगोल विज्ञान की कई महत्त्वपूर्ण किताबों के अलावा बच्चों के लिए भी उन्होंने खगोलीय परिघटनाओं पर रोचक अंदाज में किताबें लिखीं।

हॉकिंग अनीश्वरवादी थे। उन्होंने कहा कि संसार या ब्रह्मांड की रचना में ईश्वर का 'हाथनहीं है। अंधविश्वासों और धार्मिक रूढिय़ों को फटकारते रहे और ताउम्र एक संवेदनशील, मेहनतकश और प्रगतिशील दुनिया का सपना देखा। उनका कहना था, ''मैं अब भी ये मानता हूं कि वास्तविक समय में ब्रह्मांड का प्रारंभ था, महाविस्फोट के रूप में। लेकिन एक दूसरी तरह का समय भी है, काल्पनिक समय, जो वास्तविक समय के समकोण पर अवस्थित है जिसमें ब्रह्मांड का न प्रारंभ है न ही अंत। इसका अर्थ ये हुआ कि ब्रह्मांड की शुरूआत कैसे हुई, ये तय होगा भौतिकी के नियमों से। किसी को ये नहीं कहना पड़ेगा कि ईश्वर ने किसी ऐसे निरंकुश तरीके से ब्रह्मांड की रचना की जो हमारी समझ से बाहर है।’’ उनसे पूछा गया कि अगर इस बात की संभावना है कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है तो फिर आप उन चीज़ों  के बारे में क्या कहेंगे जो विज्ञान से इतर हैं- प्रेम। या विश्वास जो लोगों में रहता है और जो उनमें आपके लिए भी है और यकीनन आपकी अपनी प्रेरणा से भी जुड़ा है। इस पर हॉकिग का जवाब था: ''प्रेम, विश्वास और नैतिकता भौतिकी की अलग कैटगरी में आते हैं। आप भौतिकी के नियमों से ये नहीं बता सकते कि किसी आदमी को कैसा व्यवहार करना चाहिए। लेकिन ये उम्मीद की जा सकती है कि भौतिकी और गणित के तर्कसंगत विचार, नैतिकता को  व्यवहार में लाने में किसी का मार्गदर्शन कर सकते हैं।’’ ईश्वर की अवधारणा को चुनौती देते स्टीफन के विचार हमारे पास अध्ययनों के रूप में हैं। उन्होंने कहा था, जो कुछ भी मेरे काम ने दिखाया है उसमे ये है कि आपको ये नहीं कहना पड़ता कि ईश्वर की मनमर्जी से ब्रह्मांड प्रकट हुआ। लेकिन आपके पास तब भी एक सवाल रहता है- 'फिर भला ये ब्रह्मांड अस्तित्व में क्योंकर है।अब ये सवाल ऐसा है कि आप चाहें तो इसका जवाब देने के लिए ईश्वर की परिभाषा गढ़ सकते हैं।

समकालीन समय के हॉकिंग

हॉकिंग दो बार भारत भी आ चुके थे। पहली बार 1959 में और दूसरी बार 2001 में। जनवरी 2001 में मुंबई में अपने व्याख्यान में हॉकिंग ने कहा था, ''अगली सहस्त्राब्दी में उच्चतर मनुष्य नस्ल विकसित की जा सकती है। मैं ये नहीं कहता कि मनुष्य जेनेटिक इंजीनियरिंग कोई अच्छी चीज़ है लेकिन उसके ज़रिए ऐसा हो सकता है चाहे हम पसंद करें या न करें।’’ इसी यात्रा के दौरान उन्होंने दिल्ली में कुतुबमीनार और जंतरमंतर का भी दौरा किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन से मुलाकात में उन्होंने अपनी यात्रा को अद्वितीय बताया था। वे गणित और भौतिकी में भारतीय रुझान और प्रतिभा के कायल भी थे।

हॉकिंग की आज की दुनिया को सबसे बड़ी देन ये है कि उन्होंने विज्ञान में कविता और संगीत को पिरो दिया। हॉकिंग ने पर्यावरण दुर्दशा पर तीखी टिप्पणियां की और ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे से दुनिया को आगाह किया। इस मुद्दे पर अमेरिका को फटकारा। उन्होंने इन्हीं संदर्भों में एलियन की अवधारणा को भी अपने चुटीले और व्यंग्यात्मक अंदाज में हवा दी और बताया कि ये न मानने का कोई कारण नहीं कि आकाशगंगाओं में कहीं कोई एक ऐसी प्राणी व्यवस्था जरूर है जो हमारी धरती के मनुष्यों से हर स्तर पर उच्चतर स्थिति में है। वो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के संभावित खतरों से भी बाखबर थे। आइन्श्टाइन की ही तरह पश्चिमी शास्त्रीय संगीत पर हॉकिंग की असाधारण पकड़ थी। मोत्जार्ट उनके प्रिय थे। राजनीतिक रूप से सजग हॉकिंग ने वियतनाम युद्ध में अमेरिका की भत्र्सना की, िफलस्तीनी पक्ष से सहानुभूति और गजा पर इस्राएली कब्जे के विरोध में 2013 में एक व्याख्यानमाला के लिए इस्राएल जाने से इंकार कर दिया।

ये तय है कि पूरी दुनिया के समकालीन विज्ञान जगत में इतना खिलंदड़ और मस्तमौला वैज्ञानिक नहीं देखा गया। कई मायनों में तो वो अपने निकट पूर्वज आइन्श्टाइन से भी ज्यादा नटखट थे। रही बात समानताओं की तो आइन्श्टाइन जैसी समानताएं सबसे ज़्यादा उन्हीं में थीं। संगीत को लेकर आइन्श्टाइन में जो आला दर्जे की समझ थी, हॉकिंग उस समझ को नये विस्तारों में ले गये। पश्चिमी शास्त्रीय और पॉप संगीत पर उनकी असाधारण पकड़ थी। स्टीफन हॉकिंग का जीवन, कला की उन उद्दाम ऊंचाइयों की झलक दिखाता है जहां संगीत और भौतिकी जैसी दो जटिल दुनियाएं एक बिंदु पर थिरकती रहती हैं। 

 

संपर्क- मो. 09756121961, देहरादून

 


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