मुखपृष्ठ पिछले अंक हिंदुत्व की भ्रामक अवधारणा के बरक्स विवेकवादी परंपरा
जुलाई 2018

हिंदुत्व की भ्रामक अवधारणा के बरक्स विवेकवादी परंपरा

शैलेन्द्र चौहान

समसामयिक

 

 

 

भारत की विवेकवादी परंपरा में लोकायत प्राचीनतम परंपराओं में से एक है जिसे तांत्रिक बौद्ध और वेदांती हिंदुत्व के अनुयायियों द्वारा बहुत बदनाम किया गया है और नुकसान पहुचाया गया। संसार के प्रति इनका दृष्टिकोण अपने समय के अनुसार वैज्ञानिक था और वे नास्तिक कहलाते थे। उनका न तो पुनर्जन्म में विश्वास था और न ही मृत्यु उपरांत जीवन में और न ही मानवीय आत्मा की अनश्वरता में। इन सब में विश्वास करने वालों के विपरीत उन्होंने देह और मन में कृत्रिम अंतर भी नहीं माना। उन्होंने मानव मन को मानव शरीर का ही अंग माना जिसका शरीर से अलग स्वतंत्रा अस्तित्व नहीं हो सकता। सिवाय भौतिक शरीर और इसके चारों ओर स्थित भौतिक विश्व के उन्होंने कुछ भी और का अस्तित्व नहीं माना। उन्होंने मृत्यु उपरांत जीवन के लिए बलि या अन्य भेंट-उपहार की परंपरा को नकार दिया जो ब्राहमणवादी हिंदुत्व के अनुयायियों में 900 ई. में प्रचलित था। इसी समय के एक विद्वान मेधातिधि ने जिन्होंने मनु की कृतियों पर भाष्य लिखा है, लोकायतों को नास्तिक और अनीश्वरवादी बताया है। उदाहरणार्थ लोकायतों ने ब्राहमणों में प्रचलित पशु बलि प्रथा का इस प्रकार खंडन किया था:

''यदि बलि चढ़ाया गया पशु सीधे स्वर्ग चला जाता है तो बलि चढ़ाने वाला व्यक्ति अपने पिता को भी क्यों नहीं अर्पित कर देता?’’

''यदि यहां अर्पित दान स्वर्ग में पितरों को मिलता है, तो मकान में उपर रहने वालों को नीचे ही क्यों नहीं अर्पित कर देते?’’

''यदि अर्पित दान मरे हुए लोगों तक पहुंच जाता है तो लम्बी यात्रा पर जाने वालों के लिए गठरी बांधकर देने की क्या जरूरत है?’’

''यदि देह से अलग होने वाला व्यक्ति दूसरे लोक में चला जाता है तो अपने आत्मीयजनों के प्रति प्यार से आकर्षित होकर वह फिर वापिस क्यों नहीं आ जाता?’’

लोकायतों ने वैदिक पुरोहितों और वैदिक मंत्रों को निरर्थक बताया और इसे उन लोगों के लिए खाने-कमाने का साधन बताया जो शारीरिक या मानसिक रूप से वास्तव में काम नहीं करना चाहते थे। इसके बदले लोकायतों ने मानवीय ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव को महत्व दिया और निष्कर्ष निकालने की रीति के प्रयोग द्वारा विश्व के बारे में अपने सिद्धांत विकसित किये।

लोकायतों की मंतव्य प्रणाली के सर्वाधिक ध्यानाकर्षक दृष्टिकोणों में से एक है प्रकृति के द्वंदों की स्पष्ट समझ। कई लोग मन और शरीर के अलग-अलग होने के बारे में इस प्रकार तर्क देते हैं: शरीर जिन वस्तुओं से बना है उन सब में चेतना का अभाव है, लेकिन मन तो चैतन्य इकाई है - अत: शरीर और मन अनिवार्य रूप से अलग-अलग हैं - और चेतना का अस्तित्व आत्मा से मिलती-जुलती किसी वस्तु के अस्तित्व की ओर इंगित करता है। लोकायतों ने इस तर्क का खंडन करते हुए किण्वन प्रक्रिया का उदाहरण दिया जिसमें एक ऐसी वस्तु से जिसमें नशा का लवलेश भी नहीं है, एक मदोत्पादक पेय का निर्माण हो जाता है। सारांश यह है कि लोकायतों ने इस सिद्धांत की खोज कर ली थी कि कई भाग मिलकर उनका योग समूचे से कहीं ज्यादा हो जाता है। यह कि भौतिक और रासायनिक प्रक्रियायें संयुक्त होने वाले पदार्थों के गुणों में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकते हैं। वे यह समझने में समर्थ रहे कि जब कुछ चीजों के संयोजन से एक नई वस्तु का निर्माण होता है तो इस विशेष परिवर्तन में निर्मित नई वस्तु के गुण संयुक्त होने वाली वस्तुओं के गुणों से भिन्न होते हैं।

प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षक होने के नाते संभवत: उन्होंने ही सर्वप्रथम विभिन्न पौधों और जड़ी-बूटियों की प्रकृति को और मानव कल्याण के लिए उनके उपयोग को पहचाना। इस प्रकार से लोकायतों के प्रारंभिक वैज्ञानिक ज्ञान और समझ से भारतीय औषधियों का विकास हुआ। चंूकि लोकायतों का विश्वास था कि चेतना का आविर्भाव जीवित मानव शरीर में होता है और मृत्यु के साथ ही इसका अंत होता है इस बात की प्रबल संभावना है कि मृत शरीर का दाह संस्कार करने की प्रचलित भारतीय प्रथा की शुरूआत उनसे ही हुई होगी।

कोई यह न समझे कि लोकायतों की विश्व के बारे में समझ उतनी ही विस्तृत और सूक्ष्म थी जितनी आज का विज्ञान प्रस्तुत करता है। 20 वीं सदी के मानदण्ड के अनुसार उनके कुछ सूत्रा अधूरे और अविकसित माने जा सकते हैं। यह आशा अनुरूप है भी। उस समय के बाद विज्ञान का भंडार बहुत विकसित हो चुका है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व को देखने का उनका दृष्टिकोण विवेक सम्मत और वैज्ञानिक था।

उदाहरण के लिए कुछ परवर्ती दार्शनिक विचारधाराओं ने लोकायतों के शरीर-मन की एकता संबंधी तर्क का खंडन स्मरण के साक्ष्य का पोषण करके किया था। जयंत और उदयन जैसे न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों ने तर्क प्रस्तुत किया कि प्रतिदिन भोजन करने की प्रक्रिया का अर्थ है कि मानव शरीर निरंतर परिवर्तित होता रहता है। आयु वृद्धि की प्रक्रिया भी यही इशारा करती है कि मानव शरीर किस प्रकार सदा परिवर्तनशील है। फिर भी एक वृद्ध व्यक्ति बचपन की किसी घटना को विस्तारपूर्वक याद रख सकता है। दूसरे शब्दों में - उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि स्मरणशक्ति इस बात का साक्ष्य है कि मानव आत्मा का अस्तित्व मानव शरीर से परे भी है। फिर भी, आज हम जानते हैं कि स्मरणशक्ति कुछ प्रोटीनों की समष्टि है और परिवर्तनशीन भी है। लोकायतों का विश्व-दृष्टिकोण चाहे जितना अपरिपक्व और अधूरा रहा है, आधुनिक विज्ञान के विपरीत नहीं था।

यदि उनके कुछ विवरणों या व्याख्याओं को बाद में संशोधित या परिमार्जित करना या सुधारना भी पड़ा तो इससे उनका मलभूत वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बदला। उनकी अपूर्णता उनके अपूर्ण ज्ञान के कारण थी। उनके पास आज की तरह विकसित वैज्ञानिक यंत्रा या उपकरण और सदियों का संचित ज्ञान नहीं था। उनकी अपर्याप्तता का कारण इस परिप्रेक्ष्य में हम समझ सकते हैं। उनकी भूलों का कारण उनकी हठधर्मिता या जानबूझकर वास्तविकता को और वास्तविक विश्व के तथ्य को नकारना नहीं था।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि भारत के प्राचीन तांत्रिक अनुयायी भी शायद व्यवहारत: संसार के बारे में विवेक सम्मत दृष्टिकोण रखते थे जो व्यवहारिक मस्तिष्क की उपज थी। लेकिन उस समय मानव मात्रा को उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान सीमित होने के कारण उनका भी दृष्टिकोण सीमित रहा। तांत्रिकों के आलोचकों ने उन्हें कामवासना के दुराग्रही भोगी मानकर तिरस्कार किया। किन्तु वे यह देखने में असफल रहे कि प्रारंभिक तांत्रिकों में एक स्वत: स्फूर्त वैज्ञानिक झलक थी और यौन एवं काम केंद्रित वंश वृद्धि के बारे में उनकी जानकारी ने संभवत: उन्हें आधारभूत या मूलभूत कृषि के औजार और अन्य साधन विकसित करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार वे भारत के प्रारंभिक तकनीक विशेषज्ञ बने।

विज्ञान और तर्क का युग : लेकिन उन भारतीय दार्शनिकों में भी, जिन्होंने देह और मन का अलग-अलग अस्तित्व स्वीकार कर लिया था और आत्मा के अस्तित्व के प्रति तर्क प्रस्तुत करते थे, वैज्ञानिक तौर तरीकों के प्रति और डिडक्शन और इंडक्शन तर्कशास्त्रा के सिद्धांतों के विकास के प्रति काफी लगाव था। 1000 ई.पू. से 4 ई. तक के काल में जिसे भारत का विवेकवादी युग भी कहा जाता है ज्योतिष, गणित, तर्कशास्त्रा, औषधि और भाषाशास्त्र पर कई ग्रंथों की रचना हुई। सांख्यदर्शन, न्याय-वैशेषिक विचारधारा, जैन और बौद्धमत के विद्वानों ने विज्ञान और शिक्षा के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया। धातु कर्म, वस्त्र उत्पादन और रंगाई जैसे व्यवहारिक विज्ञानों में भी काफी उन्नति हुई। तर्कवादी युग ने, विशेषकर वैज्ञानिक रीति का गठन करने वाले विषयों और सर्वाधिक उपयोगी संवादों का एक तारतम्य उत्पन्न किया। हमारी ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों को स्वप्न और मरीचिकाओं /छलावों/ से कैसे अलग किया जाये? वास्तविकता का एक निरीक्षण कब एक तथ्य और वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार्य हो जाता है? डिडक्टिव और इनडक्टिव तर्क के सिद्धांतों का विकास और उनका प्रयोग कैसे किया जाये? किसी परिकल्पना के मूल्यांकन को वैज्ञानिक महत्व की कसौटी पर किस प्रकार परखा जाये? एक सही निष्कर्ष क्या है? एक वैज्ञानिक प्रमाण के अवयव क्या हैं?

इन और इस प्रकार के प्रश्नों पर आशातीत और बौद्धिक उत्साह के साथ प्रहार हुए। प्रकृति और मानव शरीर के सजग निरीक्षक के रूप में भारत के प्रारंभिक वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने मानवीय ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन किया, स्वप्न, स्मरण शक्ति और चेतना का विश्लेषण किया। उनमें जो सर्वश्रेष्ठ थे उन्होंने प्रकृति के द्वंद को गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों रूप से समझा तथा आधुनिक परमाणु सिद्धांत के एक प्रारंभिक ढांचे की भी परिकल्पना कर ली। यह तर्कवादी आधार ही था जिस पर भारतीय सभ्यता पल्लवित हुई।

उस काल के महत्वपूर्ण यूनानी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के साक्ष्यों से इन बातों का पता चलता है - यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस, जो 6 वीं सदी ई.पू. में हुआ था, उपनिषदों से परिचित था और उसने अपनी प्रारंभिक ज्यामिति सुल्व सूत्रों से सीखी थी। पायथागोरस का मशहूर प्रमेय वास्तव में, प्रारंभिक भारतीयों गणितज्ञों द्वारा ज्ञात और लिखित एक परिणाम का पुर्नकथन है। बाद में, यूनानी इतिहास के प्रणेता हेरोडोटस ने लिखा कि तत्कालीन विश्व में भारतीय सबसे महान थे। यूनानी यात्राी मेगास्थनीज ने 4 थी सदी ई.पू. में पूरे भारत का विस्तृत भ्रमण किया था। उसने भी सविस्तार विवरण लिखे जो उस काल की भारतीय सभ्यता का अच्छा चित्रण है।

प्राचीन यूनान और भारत के बुद्धिजीवियों के संपर्क मामूली नहीं थे। यूनान और भारत के बीच वैज्ञानिक विचार विनिमय दोनों के लिए लाभकारी थे और दोनों देशों में विज्ञान के विकास में सहायक हुए। 6 वीं सदी तक प्राचीन यूनानी और भारतीय पुस्तकों की मदद से तथा अपनी प्रतिभा से भारतीय ज्योतिषियों ने ग्रहों की गति के बारे में अनुसंधान किए। भारतीय ज्योतिर्विद आर्यभट पहला व्यक्ति था जिसने बतलाया कि पृथ्वी गोल है और अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। इसके बाद उसने यह भी परिकल्पित किया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। उसने सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण जैसे घटनायें कैसे होती हैं, उनकी सही-सही व्याख्या की।

चूंकि ज्योतिष विज्ञान में जटिल गणितीय समीकरणों की आवश्यकता पड़ी, प्राचीन भारतीयों ने गणित में उल्लेखनीय उन्नति की। इस बात की पूरी संभावना है कि आधुनिक कैलकुलस का आधार, डिफरेंसियल समीकरण, भारत में ही अविष्कृत हुए हों। ग्रहों की गति का प्रादर्श बनाने के लिए डिफरेंशियल समीकरण अनिवार्य हैं। शुद्ध असीम संख्याओं - जिन्हें केवल मात्रा शुद्ध /सैद्धांतिक/ गणितीय सूत्रों जैसे अंकगणितीय या ज्यामितीय की असीम श्रेणियों की अवधारणा भी भारतीय गणितज्ञों ने सर्वप्रथम प्रस्तुत की थी। संभवतया वे बहुपदीय समीकरणों से भी परिचित थे जिनकी उच्चस्तर ज्योतिष विज्ञान में अनिवार्यता है तथा वे आधुनिक अंकीय प्रणाली के भी अविष्कत्र्ता थे जिन्हें यूरोप में अरबी अंक प्रणाली के रूप में जाना जाता है।

दशमलव प्रणाली का उपयोग और शून्य की परिकल्पना बड़ी ज्योतिषीय गणना के लिए अनिवार्य थे और इनकी मदद से 7 वीं सदी में ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञों ने पृथ्वी की परिधि की गणना लगभग 23000 मील कर लेने में समर्थ बनाया जो आधुनिक गणना के करीब ही है। इसने भारतीय ज्योतिषियों को भारत के महत्वपूर्ण स्थानों के देशांतर की भी काफी शुद्ध गणना करने में समर्थ बनाया था।

आयुर्वेद विज्ञान, एक प्राचीन भारतीय प्रणाली इसी काल में फलीफूली। वैद्यों ने शवविच्छेदन किया, शल्यक्रिया का अभ्यास किया, जनप्रिय पोषण दिशा निर्देशों का विकास किया और वैद्यक प्रणाली, रोगियों की सूश्रूषा और रोग के लक्षणों की पहचान के लिए विधि संहितायें लिखीं। वस्त्रों को रंगने और धातु निष्कर्षण से संबंधित रासायनिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया गया और उन्हें लिपिबद्ध किया गया। रंगाई के लिए मारडेंट और धातु निष्कर्षण और शुद्धिकरण के लिए उत्प्रेरकों के प्रयोग का अनुसंधान हुआ।

इस वैज्ञानिक चेतना का प्रभाव कला और साहित्य पर भी पड़ा। सामाजिक संरचना में विकास के साथ-साथ चित्राकला और मूर्तिकला का भी पल्लवन हुआ। विश्वविद्यालयों में विश्रामालय और सभागार बनाये गए। इसके अतिरिक्त, चीनी यात्राी ह्वेनसांग के अनुसार दिशा संकेत युक्त सड़कें बनाईं गईं। छायादार पेड़ लगाये गए। यात्रा और व्यापार की सुविधा के लिए राजमार्गों पर जगह-जगह सराय और अस्पताल बनाए गए।

भारत का विवेकवादी युग इस प्रकार प्रकाण्ड बौद्धिक उत्तेजना और जीवांतता का युग था। यह वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी अविष्कार का युग था। जाति विभेद, अक्खड़ता और धर्मांधता को चुनौती देने के साथ-साथ यह महान सामाजिक उथल-पुथल का काल था जिसने अंतत: समाज को अधिक जनतांत्रिक बनाया, विभिन्न जातियों के लोगों के बीच अधिकाधिक आदान-प्रदान संभव बनाया और जनता के बीच सामाजिक उतार-चढ़ाव के अवसरों का विस्तार किया। सामाजिक नीतिशास्त्र ने इस काल में लोगों का पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया। युद्ध के दौरान काम आने वाले ऐसे नियम बनाये गए जिनसे असैनिक हताहत, चारागाहों, कृषि भूमि या बाग बगीचों की हानि रोकी जा सके। युद्ध में सद्भावना प्रदर्शन की नीति का प्रसार किया गया ताकि पलायन कर रहे या घायल सैनिकों पर हमला न किया जाये और युद्धरत सेनायें औरतों, बच्चों, वृद्धों और युद्ध से विरत अन्य लोगों को सुरक्षित निकल जाने दें।

इस प्रकार इस विवेकवादीकाल ने कई मोर्चों पर प्रगति का अवलोकन किया। इसने भारतीय सभ्यता के विकसित और परिपक्व होने के लिए न केवल एक श्रमसाध्य नींव का निर्माण किया बल्कि अन्य सभ्यताओं के विकास पर भी अपना प्रभाव डाला। वास्तव में, भारत के विवेकवादीयुग ने मानवीय सभ्यता की दीर्घ और परिवर्तनशील श्रंृखला में एक जीवांत कड़ी का काम किया। यद्यपि उपनिवेशवादी इतिहास ने इस ग्रह की सामूहिक विरासत को अनाधिकृत रूप से हथियाने का प्रयास किया और इसे यूरोप-केंद्रित बनाने की कोशिश की है, यह ध्यातव्य है कि विज्ञान और तकनीक में महत्वपूर्ण अनुसंधान और अविष्कार विश्व के विभिन्न भागों में हुए हैं। इस मामले में भारत ने उल्लेखनीय योगदान दिया है। औपनिवेशिक शासन के लूटपाट और विध्वंस से पूर्णरूपेण उबरने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस उत्प्रेरक युग की उपलब्धियों को न भूलें।

यहां यूनान और भारत का संदर्भ एक वृहद रूप में लिया गया है। प्राचीन विश्व में यूनानी विश्व अधिकांश भूमध्य सागरीय राष्ट्रों - उत्तरी अफ्रीका, फिलिस्तीन, आधुनिक तुर्की, बुलगारिया और युगोस्लाविया को समाहित करता था। भारत को भी जहां संदर्भित किया गया है, वह उपमहाद्वीप के विस्तार को समाहित करता है।

इस्लामी शासकों के भारतीय अनुभव के संबंध में यद्यपि कुछ इतिहासकार सामान्यीकरण का प्रयास करते हैं, परंतुु ऐतिहासिक अभिलेखों को देखने से भारत के इस्लामी दरबारों के रवैयों में काफी भिन्नता प्रगट होती है। दिल्ली में स्थापित सबसे पहले की सल्तनतें, हिंदू और भारतीय मूल के मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण थीं। जबकि भारत में ही पैदा और बढ़े शासकों द्वारा स्थापित कुछ सल्तनतें व्यवहार में ज्यादा उदारवादी थीं और राजपूत तथा हिंदूओं की सहकारिता के ज्यादा इच्छुक थे।

विदेशी विजेताओं द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत मध्य एशिया के अप्रवासी एवं तुर्क कुलीनवंशी मुस्लिमों की ओर विशेष झुकाव रखते थे। बाद में, अफगान कुलीन और अबीसिनियन हपसी वंश के दास योद्धा भी उभर कर आये। ईरानी शियाओं ने सुन्नी तुर्को एवं अफगानों के विरूद्ध एक धड़ा संगठित किया और परशियन नमूने को पेश करते हुए शक्ति के लिए स्पद्र्धा भी की। जो भी हो, अल्पसंख्यक और सीमित अधिकार प्राप्त इन सल्तनतों को हिंदू मध्यस्थों और परिवर्तित मुसलमानों पर करों की वसूली तथा कानून व्यवस्था के लिए आश्रित रहना पड़ता था। इस तरह ब्राहमण, कायस्थ, खत्राी और अन्य जातियों से हिंदू और मुसलमान जमीनदार एवं प्रशासक इस्लामी दरबारों के अपरिहार्य औजार बने और कभी कभी वे उंचे पदों पर भी पहुंचे। ये दरबार विदेशी व्यापारियों, वाणिज्यिकों और सभी जातियों के साहूकारों यथा हिंदू, जैन और परिवर्तित मुसलमानों यथा खोजा, बोहरा, और गुजरात के मैमन पर भी आश्रित हुआ करते थे।

इन सल्तनतों की स्थिरता कमाबेश हिंदू और स्थानीय जन्मे मुसलमानों के मध्यस्थों की मौन सम्मति और राजभक्ति पर टिकी हुआ करती थी। जब कभी इनको उकसाया जाता ये प्रमुख सल्तनत के खिलाफ सत्ता पलट और राजद्रोह में सहयोगी बनते और भड़क जाते। 14 वीं सदी में दिल्ली सल्तनत प्रादेशिक विद्रोहों के कारण बिखर गयी थी। इस बात की पूरी संभावना थी कि यह सब मुहम्मद इब्न तुगलक, 1325-51, के निरंकुश शासन के भड़काने से हुआ था जिसकी कट्टर और विस्तारवादी नीतियों ने बड़े पैमाने पर बैरभाव और आक्रोश फैलाया था। दिल्ली की सल्तनत के पतन के फलस्वरूप बहुत से प्रादेशिक कुलीनों ने अपनी स्वतंत्राता घोषित की और स्थानीय सल्तनतों की स्थापना कर ली। जौनपुर की शारकी सल्तनत और अहमदाबाद की गुजरात सल्तनत दोनों को भारत में जन्में मुसलमानों ने स्थापित किया था। अहमदनगर और बंगाल अबीसिनियन दास योद्धाओं की पीढिय़ों ने और खानदेश को एक शासक जो अपने को अरब मूल का पीढ़ी का कहता था, ने स्थापित किया था। भारत मूल के मुसलमान शेरशाह सूरी ने गंगा के दुआब में कुछ समय के लिए वैकल्पिक राज्य की स्थापना की चुनौती मुगल साम्राज्य को दी थी।

ये प्रादेशिक सल्तनतें न केवल हिंदू राजनैतिक और सैन्य सहयोगियों पर विश्वास करतीं थीं वरन् वे भारतीय रिवाजों को अपनाने अथवा देशी परंपराओं को छूटें देने में ज्यादा उदारवादी थीं। उदाहरण के लिए, न केवल गुजरात के मुसलमान कुलीन परिवारों ने एवं कुछ अन्य सल्तनतों ने हिंदू कुलीन परिवारों से समानता एवं आदर का व्यवहार किया वरन् मुस्लिम राजकुमारियों का ब्याह हिंदू सहयोगी परिवारों में उसी प्रकार से किया जिस प्रकार से हिंदू राजकुमारियां मुस्लिम राजसी घरानों में आईं थीं। यह मुगलों के रिवाजों के विपरीत था। मुगलों ने हिंदू राजकुमारियां वधु की तरह स्वीकार तो कीं परंतु अपनी राजकुमारियों की शादी हिंदू परिवारों में नहीं की। मुगलों ने राजपूत भागीदारी को निम्न स्तरीय ढंग से स्वीकारा था जबकि प्रादेशिक सल्तनतों ने संभवतया, अपने हिंदू सहयोगियों को समान स्तर पर व्यवहार दिया।

हिंदू और मुसलमान कुलीनों के आपसी संबंधों को शादी ब्याह के द्वारा पक्का किया गया। आम जनता के स्तर पर, भक्ति और सूफी रहस्यमय समानतावादी पंथों के द्वारा एक दूसरे के प्रति अभिमुखता पैदा हुई। दोनों ने मिलकर सामाजिक जाति विभाजन और धार्मिक कठोरता के प्रति अवज्ञा पैदा की। सामाजिक शांति और स्थाईत्व को बनाये रखने के लिए प्रादेशिक सल्तनतों ने कुरान की निरंकुशता पर सूफिया लचीलेपन को पालापोसा और दिल्ली के विपरीत, अनेक प्रादेशिक सल्तनतों ने स्थानीय भाषा का समर्थन किया। मातृभाषा के साहित्य को सक्रियता से प्रोत्साहित किया। साथ ही साथ, पारंपरिक कलाओं एवं हस्तकौशल को बढ़ावा दिया। बंगाल, गुजरात और कश्मीर में उर्दू की अपेक्षा मातृभाषा में काव्य और साहित्य की रचना शुरू हुई तथा खानदेश, बुरहानपुर एवं अहमदनगर में संस्कृत एवं मराठी साहित्य को उर्दू साहित्य के साथ अनुग्रह मिला। पारंपरिक पौराणिक विषयों को जौनपुर के लघुचित्रों में जगह मिली और गीत गोविंद के चित्राण तो जौनपुर दरबार में विशेष आकर्षण रखते थे।

दक्खिन के दरबार विभिन्न भारतीय मूल के मुस्लिमों एवं विदेशी मूल के राजवंशों की आपसी दुश्मनी से विदीर्ण हो गये थे। उन्होंने हिंदुओं से संबंध सुधारने की कोशिश की। नतीजतन, हिंदुओं को इस्लामी शासन में सर्वोच्च पदों पर पहुंचने की अनुमति प्राप्त हुई। खासकर, ये राजदरबार देशज हिंदू कलात्मक प्रभावों के लिए खुल गए थे और सबसे सुंदर लघुचित्रों में विभिन्न भारतीय रागों की व्याख्यायें हुईं। फिर चाहे वे अहमदनगर, औरंगाबाद, बीजापुर या हैदराबाद में क्यों न उत्पन्न हुईं हों। ये लघुचित्रा पूना के मराठा राजदरबारों के और कोल्हापुर और सांवतवाड़ी के लघुचित्रों से बहुत समानतायें रखते हैं।

इस प्रकार से इन राजदरबारों ने एक विशेष भारतीय-मुस्लिम संस्कृति को विकसित किया जिसने उन्हें उत्तर पश्चिम के विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा स्थापित संस्कृति से भिन्न पहिचान दी। इन दरबारों ने इस्लाम में परिवर्तित भारतीयों के समग्र चरित्रा को प्रतिबिंबित किया, उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती परंपराओं से अनेक तत्वों को बचा रखा था - सामाजिक रीतिरिवाज, भाषा, साहित्य, संगीत, कला और वास्तुशिल्प से।

इन सल्तनतों में से सबसे समृद्ध गुजरात सल्तनत थी। पहले अहमदाबाद में स्थापित और बाद में चंपानेर में। वहां पहले से ही औद्योगीकरण पूर्व के उन्नत उत्पादों का आधार था और 13 वीं शताब्दी तक, विस्तार में फैले हुए बंदरगाहों एवं वाणिज्यक शहरों का जाल था। अहमदशाह 1, 1410-42 के शासनकाल में और बहादुरशाह, 1526-37 तक के अन्य सुलतानों के शासनकाल में ये उन्नत और विकसित होते रहे थे। 18 वीं सदी के ''मिराते ए अहमदी’’ ने देखा कि ''तजकिरात उल मुल्क’’ का लेखक बतलाता है कि ''अहमदाबाद के उपनगर उस्मानपुर में लगभग 1000 दुकानें हैं और सभी में हिंदू और मुस्लिम व्यापारी, दस्तकार, कलाकार, सरकारी मुलाजिम और सैनिक लोग थे।’’ अन्य यात्रियों ने भी अहमदाबाद के शहर के खुशनुमा विवरण छोड़े हैं कि किस प्रकार से बगीचों और कृत्रिम तालाबों के बीच अनेक महल और रिहायसी प्रतिवास चौड़ी सड़कों एवं बाजारों से युक्त हैं।

गुजरात के शहर वस्त्र उद्योग और अन्य वस्तुओं के निर्माण के न केवल महत्वपूर्ण केंद्र थे वरन् गुजरात के बंदरगाह अन्य वस्तुओं के साथ मसालों एवं इमारती लकड़ी के व्यापार में उन्नत थे जिन्हें आगे दक्षिण पूर्व एशिया एवं मलाबार तट के बंदरगाहों को और पूर्वी अफ्रीका,मध्य पूर्व तथा यूरोप को भेजा जाता था। देश के भीतरी भागों के उत्पाद भी गुजरात के बंदरगाहों से बाहर भेजे जाते थे। 15 वीं और 16 वीं सदी में दुनियां के सबसे उन्नत शहरों में गुजरात के शहरों की गणना होने लगी और सल्तनत के शासकों ने अपनी राजधानियों को सर्वोत्कृष्ट भारतीय वास्तुशिल्पों से सजाया था।

पहले की दोनों राजधानियां अहमदाबाद और चंपानेर आकर्षक स्मारक समूहों के लिए प्रसिद्ध थे। कुछ मायने में। ये स्मारक मुगलों से भी आगे थे। हिंदू और जैन स्थापत्यशिल्प से लिए त्रियामी अलंकृत और विस्मयकारी स्मारक अपने में परंपरागत शुभ संकेतों को संजोये हैं। जैन चिन्हों में ''ज्ञान द्वीप’’, ''कल्पलता’’ और ''कल्पवृक्ष’’ क्रमश: इच्छापूर्ति, प्रगति एवं समृद्धि के सूचक हैं। अहमदाबाद की सबसे कलात्मक मस्जिदें वे हैं जिन्हें अहमदाबाद के मुस्लिम शासकों की हिंदू रानियों ने बनवाया था। रानी सिप्री और रानी रूपमति को इसका श्रेय प्राप्त है।

बंगाल दूसरा राज्य था जहां सल्तनतों के स्मारकों ने देशज रीतिरिवाजों से प्रचुर मात्रा में उधार लिया था। खासकर यह उधार हिंदू और बौद्ध से है। 14 वीं सदी में पंडुआ की राजधानी में एवं वारंगल की राजधानी काकतिया में क्रियाशील रहे कलाकारों को नौकरियां मिलीं और साथ में पाल और सेना शासकों की सेवा में रहे बुर्जुग कलाकारों की नई पीढिय़ों को भी काम मिला। इस प्रकार से गुजरात के समान, बंगाल के हिंदू और बौद्ध रीतिरिवाजों के अनेक चिन्हों को पंडुआ और गौर राजदरबारों के महलों इत्यादि और धार्मिक स्थापत्यशिल्प में समाहित किया गया। ऐसा कुछ हद तक बिना किसी पूर्व निर्णय के भी होता रहा है क्योंकि अनेक मस्जिदें पहले से बने मठों अथवा मंदिर परिसरों के उपर बनाईं गई थीं। तब भी, बंगाल की सल्तनत ने मध्य एशिया या परशियन धाराओं से बिना प्रभावित हुए अपने वास्तु सिद्धांतों को बंगाल के रीतिरिवाजों में से अनेक बातों को स्वीकारते और उनका नवीनीकरण करते हुए गढ़ा था। बंगाल के मुस्लिम रहस्यवादी कवि और गीतकारों ने भी भक्तिधारा के सहपक्षी के सदृश्य ही लोक परंपराओं में से बहुत कुछ अपने में आत्मसात् किया।

उत्तरी दक्खिन में मुस्लिम किसानों ने कन्नड़ बोलना जारी रखा और ईद और दूसरे मुस्लिम त्यौहार सूफीयों द्वारा मान्य पारंपरिक गानों एवं उच्चकोटि के लोकनृत्यों के साथ अवसर के अनुसार मनाते रहेे। अनेक मौकों पर हिंदू और मुसलमानों के त्यौहार दोनों समुदाय मिलजुलकर मनाते थे।

इस प्रकार से मुगलों के हाथों पराजित होने के पहले प्रादेशिक सल्तनतें आम तौर पर दिल्ली सल्तनत के आधीन अनुभूत विनाशकारी अतिक्रमण और अभिघात से बचने की कोशिश करतीं थीं और भारतीय राज्यों के भौतिक और सांस्कृतिक जीवन में ज्यादा उपयोगी योगदान देतीं थीं। व्यापार एवं वाणिज्य शहरों और बंदरगाहों में उन्नत हुआ था। अस्तु इन सल्तनतों द्वारा ललित कलाओं और वास्तुशिल्प के निर्माण को भारतीय सांस्कृतिक धरोहरों के महत्वपूर्ण अंग की तरह से देखा जाना चाहिए और उन्हें भारत की कलात्मक उत्पाद का सर्वोत्तम दर्जा देना चाहिए।

 

 

शैलेन्द्र चौहान सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ता और लेखक है। 'धरतीपत्रिका के संपादक हैं और सेवानिवृत होकर जयपुर में रहते हैं। संपर्क - मो. 07838897877, जयपुर

 

 

 


Login