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जुलाई 2018

पत्र प्रतिक्रियाएं

अंजली देशपांडे, शशिभूषण मिश्र,शैलेन्द्र चौहान, कुमार अम्बुज

पत्र / प्रतिक्रियाएं

 

पहल के अप्रैल अंक में छपी किरन सिंह की कहानी 'राजजात यात्रा की भेड़ेंको इस अंक का शिरोमणि कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जो पर्वत श्रृंखला देवों का निवास है वहाँ से देवाधिदेव महादेव के पास नैहर से विदा होकर जाती कुंवारी कन्या नंदा देवी को राह दिखाने उसके आगे आगे चलता चौसिंग्या भेड़ अगर पथ भ्रष्ट हो जाए तो देवी को विदा करने जा रही यात्रा की भीड़ उसे खोज कर बलि देगी। यात्रा बदस्तूर फिर से शुरू होगी। जिन पर्वतों की चोटियों को छूने के हज़ार रास्ते हैं, उनपर भी तय रास्ते को छोडऩे की अनुमति उस पशु को भी नहीं उबड़ खाबड़ रास्तों को नापना जिसका सहज स्वभाव हो, जो इंसान से बेहतर रास्तों की पहचान रखता हो। पथ से विचलित होना नयी राह की खोज नहीं है, यह पथ से भ्रष्ट होना है। और पथभ्रष्ट होना कोई माफी लायक गुनाह नहीं है। इसकी सज़ा मिलती है, बलि चढऩा पड़ता है। देवों का पता नहीं पर इंसानों का यही विधान है। और यह विधान जीवन के हर क्षेत्र पर लागू होता है, निर्दिष्ट पथों पर चलने से इनकार करने वालों या उससे भटक जाने वालों के लिए सज़ा तय है। मौत की सज़ा।

यही मर्म है कहानी का पर क्या कौशल है इसके कहन में कि सांस अटक जाती है पढ़ते हुये, लगता है एक आह भी भर ली तो पढने में विघ्न पड़ जाएगा। कैसे एक महायात्रा के धार्मिक प्रतीकों को राजनैतिक प्रतीकों का रूपक बना कर आज की राजनीति पर ऐसी गहरी टिप्पणी करें कि कहानी का कहानीपन भी समाप्त न हो, और प्रवचन भी देना न पड़े, यह कला कौशल तो किरन सिंह शायद अपनी जीन्स में लेकर पैदा हुई थीं।

ऐसे विरले ही लेखक होते हैं जिनकी कहानियों की गुणवत्ता बनी रहती है। पर किरन सिंह तो और भी अद्भुत हैं। हर कहानी के साथ उनके लेखन की गुणवत्ता सुधरती ही चली जा रही है। हर कहानी के बाद लगता है, यह अंतिम शिखर है, यह चोटी छू ली गयी, इससे बेहतर अब कोई क्या लिखेगा। और किरन खुद ही अपनी पिछली रचना से बेहतर लिख कर चकित करती आपको एहसास दिलाती चलती है कि इससे बेहतर भी कुछ हो सकता है, अभी और भी ऊंचाइयां हैं छूने को, वे छू सकती हैं, बस धैर्य चाहिए, शोध चाहिए, संवेदना चाहिए, तीखी राजनैतिक दृष्टि चाहिए, इन सबका आपस में दूध में पानी की तरह मिलन चाहिए कि रचना की धारा अविरल बह सके और सर्वोपरि चाहिए कल्पना के उड़ान की पूरी मुक्ति, जिस पर डैनों के थकन तक कि बंदिश न हो।

क्या कहानी है, राजजात यात्रा की भेड़ें! अपंग व्यवस्था के नतीजे की तरह दरकते पहाड़, गिरते मकान, भूकंप का भय, और भय पर विजय सी लंगड़ाती लछमी, विश्वास की, किसी आस की बैसाखी के सहारे घिसटती, एक वृद्धा और एक बालक को पोसती। अपने जीवन के अर्थ, गाँव छोड़ के जा चुके नाते-रिश्तेदारों के आचरण की सच्चाईयों से धीरे धीरे रूबरू होती, प्यार का दम भरने वाले के सतही वादों को आंसूओं के संग लीलती, पल पल मरती नहीं, जीवन को जीती, लछमी। विचार के लिए समय बहुत है यहाँ जहां रोज़ अगर अलग होता है तो इसलिए कि मौसम बदलता है। आंचलिकता में तो संदेह है ही नहीं। कितनी ही कहावतें मुहावरे बिखेर दिए हैं उन्होंने बारिश की बूंदों की तरह इसमें। गाँव का मुर्दापन तक जीवित हो उठता है। भाषा में पहाड़ का खुरदुरापन और काफल का रस, दोनों का भरपूर स्वाद है। 

यहां के लोग साधारण लोग हैं, न अविश्वसनीय से देवता स्वरुप, न पहाड़ी मासूमियत का अतिरिक्त बोझ ढोते हुये, न चोरी को लेकर निर्द्वंद्व हो चुके, न रोज़ की एकसारता से निराश हो चुके। अभी भी धरती की कोख से कुछ उगा लेने को तत्पर और अभी भी दूसरे की धरती पर कब्ज़ा जमाने की बदनीयती से बचते हुये लोग।

इस मुर्दा से हो चुके गाँव का अस्तित्व भले विकास तय करने वालों के एजेंडा में न हो पुलिसिया नज़र में है ज़रूर। क्योंकि यहीं आकर छुप सकते हैं वे लोग जो राज्य की पूंजीवादी नीतियों से अलग विकास और जीवन की राह खोजने, बताने वाले हैं। महायात्रा का नेता, वह चौसिंग्या भेड़ जो पथप्रदर्शक है, अलग राह खोज रहा है, पर जिसे आप भटका मान सकते हैं या पथभ्रष्ट भी कह सकते हैं अगर आप यथास्थिति से नाखुश नहीं हैं। उसकी बलि आवश्यक है। राजसत्ता ने जो राह दिखाई उससे भटकने की उससे अलग होने की कीमत उसे भी चुकानी ही होगी। बलि दी जाएगी उसकी और फिर यात्रा शुरू हो जायेगी। पहाड़ से मैदान में आकर खुले आकाश के तारों को भूल जाने की यात्रा। वही यात्रा जो चल रही है और जाने कब तक चलेगी।

क्या यह माओवादियों पर हो रही हिंसा का प्रतिकार है? नदी जंगल बचाने की मुहिम में लगे लोगों पर ज़ुल्म का प्रतिकार है? वैकल्पिक विकास की राह की खोज करने वालों के क्रूर दमन का विरोध है? पलायन करके शहरों के स्लम में जीने को अभिशप्त भेड़ों को वापस ऊंचाइयों के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाने वालों के जीवन के अधिकार पर आक्रमण की हकीकत का बयान है? आप जो समझना चाहते हैं समझें। लेखिका आपको बाँधने नहीं वाली। उसने अपनी मुक्त राह से आपकी कल्पना को मुक्त किया है कि आप खुद समझें। पर इतनी ज़िद ज़रूर है उनकी कि साधारण लोगों पर नज़र टिकाये रहें, उनके हित की अनदेखी नहीं हो सकती इस कहानी में, या इसकी किसी भी व्याख्या में।

किरन सिंह को बधाई देना अनुवांशिकी के लिए किसी को बधाई देने जैसा होगा। उसकी ज़रुरत नहीं है। ज़रुरत है कि उनकी कहानी पढी जाए, बार बार पढी जाए। वे पाठक से मेहनत की मांग करती हैं, उसे दुलराती नहीं, सुलाती नहीं, उकसाती हैं, कुरेद कर उसकी मर रही संवेदना को जगाती हैं। वे जैसी प्रबुद्ध लेखिका हैं डर लगता है कि उनको इतने प्रबुद्ध पाठक मिलते भी हैं कि नहीं। मिलते ही होंगे अन्यथा उनकी सृजन की नमी समाप्त हो गयी होती। अनुवांशिकी को भी पोषण तो चाहिए ही।

अंजली देशपांडे,

दिल्लीanjalides@gmail.com

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''ओ डलहौजी ! वहीं रुक ! मैं जीते जी अपना कांसुवा तुझे नहीं दूंगी ।’’ ये अंतिम पंक्ति किरण सिंह की समृद्ध होती कथा-दृष्टि से उपजी बेहतरीन कहानी 'राजजात यात्रा की भेड़ेंकी है जो पहल के 111 वें अंक में छपी है। ऐसी कहानियां कम लिखी जा रही हैं, पहल को अनुभूतिपूर्ण बधाई ऐसी दीर्घजीवी कहानी पाठकों तक पहुंचाने के लिए। कितनी निर्मम हकीकत है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही डलहौजी की भूमिका में उतर आई है और 'कांसुवाजैसे न जाने कितने गाँवों को 'पूंजी के ढेर पर बैठे आकाओं की ऐशगाह बनाने के लिएउजाड़ा जा रहा है। यह सत्ता और पूंजी का 'क्रूर गठजोड़है जिसके विषैले पंजों से लहूलुहान 'कांसुवाबेतरह हांफ रहा है। दरअसल 'कांसुवाका छितराया हुआ वर्तमान 'गाँवों के देशभारत का प्रतीक बनकर उभरता है। हरे-भरे और लहलहाते पहाड़ों की सुरम्य गोद में बसे भारत के हर गाँव पर इन गिद्धों की नज़र है। एक तो प्राकृतिक आपदाओं ने उत्तराखंड के पहाड़ी गाँवों को सुनसान कर दिया है तिस पर 'राजा-जातिका यह खेल। क्या यह राजजात की यात्रा ऐसे ही चलती रहेगी और ऐसे ही 'चौसिंग्याभेड़ा मारा जाता रहेगा?

   कांसुवा छोड़कर वहां के ग्रामीणों का राजधानी में बसने का अंतहीन सिलसिला जारी है। सब तो भाग गए अपनी अपनी जान बचाकर और इस अभिशप्त गाँव को छोड़कर राजधानी में मजदूर बन गए। क्या तो विसम्भर काका, उनका बेटा रमेश, मदन भैया, शीला चाची, चन्दन, विद्या सब के सब तो चले गए। बची है तो लक्षमी- जीवन के तमाम विराम चिन्हों को रौंदती हुई एक ऐसी लड़की जो पचपन से ही वैशाखियों के सहारे चल पाती  है । लक्षमी का छोटा भाई बुलबुल उससे कहता है कि दीदी निकल चलो यहाँ से वरना एक दिन हम भी ऐसे ही मर जाएँगे। इसके जवाब में लक्षमी जो कुछ कहती है, उसे रेखांकित किए बिना न तो कहानी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है और न ही सभ्यता-समीक्षा करती कथा की संवेदना को- ''मैं निकल गई तो यह गाँव मर जाएगा।’’ कहानी के राजा, अधिकारी और पुलिस के सिपाही व्यवस्था रूपी पहाड़ हैं जिनसे वह चारो ओर से घिरी है। इस सब से  घिरे होने के बावजूद भी उसके सामने कई विकल्प हैं किन्तु कांसुवा को बचाने के सिवाय वह अन्य विकल्पों पर विचार भी नहीं करती। यहाँ स्त्री की संघर्षशीलता, निर्णय-क्षमता और जीवटता को 'स्त्री विमर्श के सांचेसे बाहर रखकर विश्लेषित किया गया है। कहानी अपने समय के जटिल सवालों से मुठभेड़ करते हुए समाज के गतिमान प्रवाह में गहरे तक धँसकर उसकी अंदरूनी सतहों को उलट-पलट करती है। बहरहाल, पहल के 101 वें अंक से लेकर 111वें अंक तक की कहानियों का बिना नागा किए पाठकीय साझीदार रहा हूँ और उस साझीदारी से उपजे अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि 'कथा की स्त्री जमीनबेहद उर्वर और संभावनाशील है। पहल के 101 वें अंक से लेकर अब तक मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना शुक्ल, सुषमा मुनीन्द्र, शेली खत्री, प्रज्ञा, योगिता यादव, प्रेमलता वर्मा, रजनी गुप्त और किरण सिंह ने जैसी कहानियां सिरजी हैं उनसे कहानी के नए प्रस्थानक बनते हैं।

पहल के 103 वें अंक में 'प्रकाशकीयमें कही बात को दोहराना चाहूंगा -''नए लोगों के लिए पहल में सर्वाधिक स्पेस है पर इस स्पेस को उन्हें प्राप्त करना होगा।’’ अविनाश मिश्र की सीरीज का अंत हो चुका है और पहल ने यह संकेत दे दिया है कि पहल में नए लोगों के लिए सर्वाधिक स्पेस है। अविनाश ने  जिस तरह मौलिक औजारों से हमारी साहित्यिक परंपरा के महत्वपूर्ण कवियों पर बात की वह आज की युवतर आलोचना के लिए चुनौती प्रस्तुत करती है। उनकी आलोचना भिन्न तरह का बर्ताव करती है और उसमें मौलिकता जबरदस्त है पर वह रचना के पाठ पर और अधिक केंदित होते तो और बेहतर होता । अविनाश को बधाई और 'पहलपत्रिका की इस पहल के लिए बधाई। उम्मीद करता हूँ कि सुजाता भी इसी तरह हिन्दी कविता का दृष्टिसंपन्न लेखा-जोखा प्रस्तुत करेंगी।

शशिभूषण मिश्र,

बांदा(उ.प्र.)  

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पहल का 111 वां अंक।  किसी भी गंभीर वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका का यहां तक पहुंचना निश्चित ही प्रसन्नता और महत्त्व की बात है।  पत्रिकाएं बहुत निकलती हैं और कुछ लम्बे समय तक चलती भी हैं पर उनमें समाहित सामग्री औसत स्तर की होती है। व्यवसायिक पत्रिकाएं संख्या प्रसार और विज्ञापन हासिल करने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा देती हैं। जबकि अधिकांश लघुपत्रिकायें लेखक-संपादकों की अपनी लेखकीय महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब बन कर रह जाती हैं। कुछ समय बाद वे अपना दम तोड़ देती हैं। जो कुछ ईमानदारी से गंभीर प्रयत्न करते हैं उनकी आर्थिक स्थिति इतनी डांवांडोल होती है कि बहुत लम्बे समय तक टिके रहना मुश्किल होता है। पहल की स्थिति भिन्न है। वैज्ञानिक चिंतन और यथार्थवादी साहित्य का गंभीर संयोजन भी है और सम्प्रेषण भी। वह ऐसी किताब होती है जो निरंतर गंभीर साहित्य-प्रेमियों को प्रेरित करती है। प्रबोधन करती है। इस अंक में जो महत्वपूर्ण सामग्री संकलित है उसमें ऐलन गिंसबर्ग की लम्बी कविता 'हाउलका हिंदी अनुवाद शामिल है। इसका अनुवाद सुप्रसिद्ध पत्रकार देवेंद्र मोहन ने किया है। ऐलन गिंसबर्ग की 'हाउल’ (1956) तत्समय अमरीकी समाज के विदग्ध युवाओं के क्रिया-कलापों का, मनुष्य के आधुनिक अस्तित्व का शव-विच्छेदन करती है। उनकी पंक्तियाँ प्रेम, अथवा क्रोधरूपी कोड़े की फटकार से आधुनिक जगत् के सारे संत्रास एवं विभीषिका का स्पर्श कर उनसे आगे ब्रह्मांडीय पवित्रता तक पहुँचती हैं।

मैंने अपने अज़ीम हमअसरों को गर्क होते देखा है

पागलपन में, एक भूखे नंग-धडंग उन्माद में अलस्सुबह

हब्शी बस्तियों से पैर घसीटते गुजरते हुए

महज नशे की एक खुराक की तलाश में

फरिश्ते हिपस्टर जलते हुए रात की मशीनरी में

सितारों के डायनमो से एक पुरातन दैविक रिश्ता $कायम

करने की ललक लिए....

राजनीतिक, हत्या, पागलपन, स्वापकव्यसनी (ह्रश्चद्बशद्बस्र ्रस्रस्रद्बष्ह्लद्बशठ्ठ), समलिंगी संबंध, अथवा तांत्रिक या हतभागी तटस्थता की विषयवस्तु का पूरा भार उनकी काव्य पंक्तियाँ सदा ही वहन करने में समर्थ नहीं होतीं। गिंसबर्ग की कविता की सबसे बड़ी विशेषता उनका रहस्यवादी तत्व है।

जो मांस से लदे ट्रकों के नीचे फकत एक

अंडे की तलाश करते रहे ----

उसका दूसरा प्रकाशन 'कैडिश’ (1960) भी इन्हीं गुणों से युक्त है एवं मनुष्य की संवेदना को अनुभूत यथार्थ के सीमातंक क्षेत्र तक ले जाता है। इर्विन ऐलन गिंसबर्ग  (3 जून 1926 : 5 अप्रैल 1997), अमेरिका के बीटनिक आंदोलन के प्रख्यात कवि हैं। इनके द्वारा लिखित लंबी कविता हाउल (1956) को बीट आंदोलन की महाकविता कहा जाता है। इस कविता को पूंजीवाद और नियन्त्रणवाद के खिलाफ अमेरिकी की नयी पीढ़ी की आवाज माना जाता है जिस समय अमेरिकी समाज को साम्यवादी भय ने जकड़ लिया था। प्रकाशित होते ही इसकी हजारों प्रतियां बिक गयीं और गिंसबर्ग रातों रात नयी पीढ़ी के मसीहा बन गये, जिस पीढ़ी को आज बीटनिक पीढ़ी कहा जाता है। 'बीटशब्द के प्राय: तीन अर्थ दिए जाते हैं - (1) समाज का निम्नस्तर जहाँ संस्थाओं एवं परिपाटियों ने दलित कवि को दबा रखा है, (2) जैज़ संगीत की लय एवं ताल जो काव्यसंगीत को उत्प्रेरित करता है, एवं (3) भगवद्दर्शन। ग्रेगरी कोर्सो के 'द वेस्टल लेडी आन ब्रैटल’, 'गैसोलीन’, तथा 'द हैपी बर्थडे ऑव डेथमें छंद, बीट आदर्श के संन्निकट हैं। वह जैज़ के विस्फोटक प्रभाव एवं हिप्स्टर नर्तकों की भाषा तथा शब्दों का अनुकरण करता है। लारंस फलिगेटी के 'अ कॉनीआइलंड ऑव द माइंडमें गली काव्य लिखने का प्रयास किया गया है। कविता को अध्ययन कक्ष के बाहर गलियों में लाया गया है। यह आधुनिक कविता थी जिसका प्रभाव विश्व कविता के साथ हिंदी कविता पर भी पड़ा। कुंठा, संत्रास, अस्तित्व की लघुता, यौन कुंठाएं, परंपरा से विद्रोह वगैरह। बाद में गिंसबर्ग सत्तर के दशक में भारत में भी रहे। कोलकाता, पटना, चाईबासा, बनारस के बांग्ला और हिंदी के साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों से उनका संवाद रहा। भूखी पीढ़ी, बांग्ला साहित्य में उथलपुथल मचा देनेवाला एक आन्दोलन रहा है। यह साठ के दशक मे बिहार के पटना शहर मे कवि मलय रायचौधुरी के घर पर एकत्र देबी राय, शक्ति चट्टोपाध्याय और समीर रायचौधुरी के मस्तिष्क से उजागर होकर कोलकाता शहर जा पंहुचा जहाँ उनहोंने नवम्बर 1961 को एक मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) के जरिये आन्दोलन की घोषणा की। बाद में आन्दोलन में योगदान देनेवाले कवि, लेखक एवं चित्रकार उत्पलकुमार बसु, सन्दीपन चट्टोपाध्याय, बासुदेब दाशगुप्ता, सुबिमल बसाक, अनिल करनजय, करुणानिधान मुखोपाध्याय, सुबो आचारजा, विनय मजुमदार, फालगुनि राय, आलोक मित्रा, प्रदीप चौधुरी और सुभाष घोष इसके सक्रिय सदस्य थे। गिंसबर्ग इनके गहन संपर्क में थे। बनारस में धूमिल, त्रिलोचन, शांतिप्रिय द्विवेदी, नागानंद मुक्तिकंठ और कंचन कुमार प्रमुख थे। बहरहाल हाउल एक ऐसी लम्बी कविता है जिसकी व्याख्या करने के लिए 1944 से 1964 तक के अमेरिकी समाज को समझना पड़ेगा। बीट आंदोलन को समझना पड़ेगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आए उछाल को तत्कालीन यूरोप की अर्थव्यवस्था के बरक्स रखकर देखना होगा। और सोवियत संघ से शीत युद्ध के परिप्रेक्ष्य में भी समझना होगा। खुद गिंसबर्ग के जीवन को पढऩा होगा। न्यूजर्सी, नेवार्क, ग्रेनेच और न्यूयॉर्क के इतिहास भूगोल को खंगालना होगा। तभी इस कविता की वस्तु परक व्याख्या हो सकती है। हाउल का असल अर्थ कुत्ते का शोकग्रस्त होकर हू हू कर रोना होता है। गिंसबर्ग ने यह शीर्षक यूं नहीं दिया होगा!

इस अंक में अरुंधती रॉय के दूसरे उपन्यास 'अ मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हेप्पिनेसके एक अध्याय का हिंदी अनुवाद देशीयता उप-शीर्षक से दिया है। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह बड़े घोटालों और देश के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग तबकों की तबाही और वाहवाही के शोर में लोकतंत्र के मुखौटे में छुपे विदूषकों की बेशर्मी का सहज आख्यान है। राजकुमार केसवानी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में नादिर काकोरवी के सृजन पक्ष को और उनकी शख्सियत को उकेरा है। जितेन्द्र भाटिया ने अपने उत्तर पूर्व के ट्रेवलाग में भौगोलिक स्थितियों और तत्संबंधित आंकड़ों पर ज्यादा जोर दिया है। सौरभ राय की कविताएं पढऩे से पहले मुझे उनकी कुमार अंबुज की छब्बीस कविताओं के अपना बनाने की कथित कंट्रोवर्सी का ध्यान आता है। लेकिन मैं देखता हूं कि पहल का संपादन नितांत डेमोक्रेटिक है। अगर मतभिन्नता है तो बात अवश्य होनी चाहिए। गलती की है तो सुधरने का मौका मिलना चाहिए। सौरभ की कविताएं सामान्य हैं। पहल ने भिन्न-भिन्न विचार के रचनाकारों को हमेशा स्थान दिया है। कुछ वर्ष पहले वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की स्व. अर्जुन सिंह की प्रशस्ति में एक कविता अंक पूरा होने के बावजूद छापी थी। बाकी निर्णय पाठक करें। मराठी नाटककार महेश एलकुंचवार से एक अच्छा साक्षात्कार है। और भी बहुत कुछ है। कविताएं, कहानियां, लेख, समीक्षाएं जिन्हें पढ़कर साहित्य के क्षेत्र में एनरिच और अपडेट होने में मदद मिलती है।

शैलेन्द्र चौहान

जयपुर

(4)

 

02 मई 2018

 

'हाऊलके बारे में बात करने पर आपकी अद्यतन के प्रति उत्सुकता और आकांक्षा को जानकर आश्वस्ति हुई।

मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि मामला केवल 'फुटनोटके अनुवाद भर का नहीं है। यह फुटनोट दरअसल हाऊल का चौथा हिस्सा माना जाता है।

इसका अपना महत्व अब और भी प्रासंगिक होता चला गया है, ऐसा मुझे लगता है।

इस काम को मैं कुछ गंभीरता से, कुछ बेहतर तरीके से करना चाहूँगा। फुटनोट की इस कविता का एक वातावरण है, उसे जीवंत करना होगा। अनुवाद में किंचित संदर्भ सामने आएंगे और संदर्भों के अपने संदर्भ भी हैं। उनसे गुजरना होगा, उनमें से कुछ को दर्ज भी करना होगा।  मैं ठहरकर, जवाबदारी से काम करूँगा महज किसी पत्र-प्रतिक्रिया या औपचारिक पूर्ति की तरह नहीं।

इसलिए अनुरोध है कि आप मुझे समय दें।

आप सर्जनात्मकता की कठिनाइयों को बेहतर समझते हैं।

इस अंक में आप उचित समझें तो घोषणा कर दें कि 'हाऊलके चौथे हिस्से की तरह फुटनोट की यह कविता संदर्भों और जरूरी टीप के साथ प्रकाशित होगी। यह अनुवाद ठीक अगले ही अंक में आए, ऐसा जरूरी भी नहीं। बल्कि बेहतर ढंग से आए, अपनी परिपूर्णता के साथ आए, यह जरूरी है। आशा है कि आप सहमत होंगे।

* * *

'हाऊलमें अनेक शब्द  हैं जो अब्यूसिव के अर्थ में स्लैंग हैं। 'पहलमें अनुवादक ने उन शब्दों  को तत्सम में रख दिया, इससे वह अनिवार्य आक्रामकता, तकलीफ, नुकीलापन और गाली का वैभव कमतर हो गया जो इस कविता के लिए जरूरी है। हालांकि ये समस्याएं अनुवाद में सामने आती ही हैं और अलग-अलग लोग उसका अपनी-अपनी तरह से निर्वाह करते हैं। यह बिंदु यहॉं कमी बताने के लिए नहीं बल्कि पाठकीय निरीक्षण की तरह आपको लिखा।

 अभी आपको इस फुटनोट कविता का एक दिलचस्प  पोस्टर संलग्न (अटैच) कर रहा हूँ। और कहीं यह काम दो सप्ताह में मनचीते ढंग से हो गया तो भेज ही दूँगा लेकिन इसकी संभावना कम है।

कुमार अम्बुज

भोपाल

 

अगले किसी अंक में हाउल की फुटनोट कविता और एक पोस्टर का प्रकाशन कुमार अम्बुज की टीप के साथ छपेगा।

 संपादक

 


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