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अप्रैल 2018

अक्सर शब-ए-तन्हाई में - नादिर काकोरवी

राजकुमार केसवानी

उर्दू रजिस्टर / पहल विशेष



 

हादसों की सिफ़त यह है कि जब वे ख़ुशनुमा हों तो अक्सर इंसान की ज़िंदगी ही बदल देते हैं। न्यूटन और आईंस्टीन जैसे न जाने कितने साइंसदानों से जुड़ी कहानियां इसकी शाहिद हैं। मेरे हिस्से में भी बरसों पहले एक ऐसा ही ख़ूबसूरत हादसा पेश आया, जिसने मुझे एक ऐसे शाइर से मिलवा दिया, जिसके बारे में उससे पहले कभी सुना तक न था। 
कई बरस पहले की बात है। पाकिस्तान से मेरे लिए, मेरे एक अज़ीज़ दोस्त मुहम्मद फ़सीह चंद म्यूज़िक कैसेट्स की सौग़ात लेकर आए। इन्हीं कैसेट्स में से एक कैसेट था गायिका रेशमा का। जिस दिन इस कैसेट की बारी आई तो इसमें एक के बाद एक कुछ सुने और कुछ अनसुने गीत-नग़मात सुनता रहा। अचानक एक ऐसा नग़मा गूंजा कि जिसने बाकी तमाम नग़मों की गूंज ही गुम कर दी। इस एक गीत में एक अजब जादू था, जो लम्हा-दर-लम्हा मेरे सारे वजूद को अपने दायरे में लपेटता, गुम करता चला जाता था। एक मकाम वो भी आया कि इस जादू की पकड़ से बाहर निकलना मुमकिन ही न रहा। बस बार-बार सुनता चला जाता था :
अक्सर शब-ए-तन्हाई में, कुछ देर पहले नींद से
गुज़री हुई दिलचस्पियां, बीते हुए दिन ऐश के
बनते हैं शमा-ए-ज़िंदगी
और डालते हैं रोशनी
मेरे दिल-ए-सद-चाक पर
गीत को सुनते हुए, अव्वलीन तौर पर, इस बात का क़तई होश नहीं रहा कि दिल-ओ-दिमाग़ के हर ग़ोशे से उठती दाद की आवाज़ें किसके लिए हैं? और जो ज़रा होश आया तो रेशमा की गायकी के सहर से आगे निकलकर तलाश शुरू की कि यह शाइर कौन है?
शुरूआती नाकामी के बाद मालूम हुआ कि दर-हक़ीक़त यह लंबी नज़्म हमारी भाषा की नज़्म है ही नहीं। यह तो सर टामस मूर की अंग्रेज़ी कविता 'Oft in the silly night' का उर्दू तर्जुमा है।
हैरत के सिवा कोई और जज़्बात, इन हालात में, साथ नहीं आते। हैरत इसलिए कि इस गीत को हज़ार बार सुनने के बाद भी एक लम्हे को भी ज़हन में इस बात की गुंजाइश ही नहीं निकलती थी कि इतनी ख़ूबसूरत शाइरी किसी और ज़बान का अनुवाद है। इस नज़्म का एक-एक लफ़्ज़, ख़ुद पर अपने 'असल' होने की मुहर आप है। फिर यह अनुवाद कैसे है?
मगर सच यही है कि यह तर्जुमा है। एक बेहद हसीन 'तर्जुमा', जिसे एक निहायत ही आलीशान शाइर जनाब नादिर काकोरवी ने अब से कोई सौ बरस पहले यह दिलकश रंग-ओ-रूप दिया है। अब ज़रा एक नज़र टामस मूर की मूल कविता देखिए और फिर उसके बाद नादिर का कारनामा।
Oft, in the stilly night,
Ere slumber’s chain has bound me,
Fond memory brings the light
Of other days around me;
The smiles, the tears,
Of boyhood’s years,
The words of love then spoken;
The eyes that shone,
Now dimm’d and gone,
The cheerful hearts now broken!
Thus, in the stilly night,
Ere slumber’s chain hath bound me,
Sad memory brings the light
Of other days around me.
अक्सर शब-ए-तन्हाई में
कुछ देर पहले नींद से
गुज़री हुई दिलचस्पियां
बीते हुए दिन ऐश के
बनते हैं शमा-ए-ज़िंदगी
और डालते हैं रोशनी
मेरे दिल-ए-सद-चाक पर
वह बचपन और वह सादगी
वह रोना, वह हंसना कभी
फिर वह जवानी के मज़े
वह दिल्लगी, वह क़हक़हे
वह इश्क़, वह अहद-ए-वफ़ा
वह वादा और वह शुक्रिया
वह लज़्ज़त-ए-बज़्म-ए-तरब
याद आते हैं एक-एक सब
दिल का कंवल जो रोज़-ओ-शब
रहता शिगुफ़्ता था सो अब
उसका यह अबतर हाल है
इक सब्ज़ा-ए-पा-माल है
इक फूल कुमलाया हुआ
टूटा हुआ, बिखरा हुआ
रौंदा पड़ा है ख़ाक़ पर

यूं ही शब-ए-तन्हाई में
कुछ देर पहले नींद से
गुज़री हुई नाकामियां
बीते हुए दिन रंज के 
बनते हैं शमा-ए-बेकसी
और डालते हैं रोशनी
उन हसरतों की क़ब्र पर

जो आरज़ुएं पहले थीं
फ़िर ग़म से हसरत बन गईं
ग़म दोस्तों की फ़ौत का
उनकी जवाना मौत का
हां देख शीशे में मिरे
उन हसरतों का ख़ून है
जो गर्दिश-ए-अय्याम से
या क़िस्मत-ए-नाकाम से
या ऐश-ए-ग़म अंजाम से
मर्ग-ए-बुत-ए-गुल-फ़ाम से
ख़ुद दिल में मेरे मर गईं
किस तरह पांव में हज़ीं
क़ाबू दिल-ए-बे-सब्र कर
जब आह उन अहबाब को
मैं याद कर उठता हूं जो
यूं मुझसे पहले उठ गए
जिस तरह ताइर बाग़ के
या जैसे फूल और पत्तियां
गिर जाएं सब क़ब्ल अज़ ख़िज़ां
और ख़ुश्क रह जाए शजर

उस वक़्त तन्हाई मिरी
बनकर मुजसम बेक़सी
कर देती है पेश-ए-नज़र
हू हक़ सा इक बरबाद घर
वीरान जिसको छोड़ के 
सब रहने वाले चल बसे
टूटे किवाड़ और खिड़कियां
छत के टपकने के निशां
परनाले हैं रौज़न नहीं
यह हाल है आंगन नहीं
पर्दे नहीं चिलमन नहीं
इक शमा तक रोशन नहीं
मेरे सिवा जिसमे कोई
झांके न भूले से कभी

वह ख़ाना-ए-ख़ाली है दिल
पूछे न जिसको देव भी 
उजड़ा हुआ वीरान घर

यूं ही शब-ए-तन्हाई में
कुछ देर पहले नींद से
गुज़री हुई दिलचस्पयां
बीते हुए दिन ऐश के
बनते हैं शम-ए-ज़िंदगी
और डालते हैं रोशनी
मेरे दिल-ए-सद-चाक पर
(नोट : यह टामस मूर की ''आइरिश मेलडीज़'' का तर्जुमा 'गुज़रे ज़माने की याद' के उन्वान से नादिर काकोरवी का किया हुआ मुअक़्क़मल तर्जुमा है। रेशमा ने इसका पहला हिस्सा भर गाया है। दूसरा हिस्सा उस्ताद अमानत अली ख़ान साहब की आवाज़ में मौजूद है।)
मगर अफ़सोस का मकाम यह है कि इतने आला अदबी कारनामे को अंजाम देने वाले इस अदीब के बारे में कहीं कोई चर्चा तो दूर मालूमात तक बराए-नाम ही मौजूद है। मसलन आक्स्फ़र्ड यूनीवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित मुहम्मद सादिक़ की लिखी पुस्तक ''A History of Urdu Literature'' में नादिर काकोरवी का मुख्तसर सा ज़िक्र आता है, वह भी इसी 'अक्सर शब-ए-तन्हाई' के हवाले से। इसी जगह एक और एक और सिरा पकड़ में आया तो उसने हैरत के साथ-साथ ख़वाहिशों की लौ को और भी भड़का दिया। और यह सिरा था महाकवि अल्लामा इक़बाल की ग़ज़ल के दो शेर, जो असल में एक ही ग़ज़ल का मतला और मक़्ता हैं। इन अशआर में ज़िक्र है नादिर काकोरवी का। और वह भी इतनी मुहब्बत भरे अंदाज़ में। इक़बाल उन्हें और नैरंग (मीर ग़ुलाम नैरंग 'भीक') को अपना साथी बल्कि 'हम सफ़ीर' घोषित करते हैं।
नादिर-औ'-नैरंग हैं इक़बाल मेरे हम सफ़ीर
है इसी तसलीस फ़ी अल-तौहीद का सौदा मुझे
नादिर की तारीफ़ में तो वह यहां तक कह जाते हैं कि;
पास वालों को तो आख़िर देखना ही था मुझे
नादिर काकोरवी ने दूर से देखा मुझे
लेकिन इस जगह भी इससे आगे का रास्ता बंद है। इस एक ज़िक्र के आगे इक़बाल के साथ भी यह नाम दुबारा कहीं नज़र नहीं आता।
आख़िर चंद बरस पहले उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के लिए जनाब ज़की काकोरवी ने एक चयन 'इंतिख़ाब-ए-कलाम - नादिर काकोरवी' और फिर आक्स्फ़र्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, पाकिस्तान से 2013 में डाक्टर मुईनउद्दीन अक़ील ने एक छोटी सी किताबची प्रकाशित कर दी, जिसकी बदौलत जानकारी सरसरी से काफ़ी बेहतर हो जाती है। इसी जगह से यह भी मालूम हुआ कि 1902 और फिर 1910 में उनके संग्रह 'जज़्बात-ए-नादिर' भाग-एक और भाग-दो प्रकाशित हुए थे। उसी के साथ यह इत्तला भी ज़की काकोरवी की किताब में मौजूद है कि हिंदुस्तान में यह संग्रह उपलब्ध नहीं हैं।
''1916 में 'जज़्बात-ए-नादिर' के दोनो हिस्से मुमताज़ हसन साहब ने मुरतब करके मय मुक़दमा पाकिस्तान तरक़ी उर्दू बोर्ड के ज़ेरे एहतिमाम शाया किए. यह सब इशाइतें हिंदुस्तान में दस्तयाब नहीं हैं।'' (ज़की काकोरवी - इंतिख़ाब-ए-कलाम - नादिर काकोरवी)
आख़िर यह तलाश भी एक दिन पूरी हुई। पकिस्तान के एक अदबी दोस्त की मदद से नादिर काकोरवी के 1902 और 1910 में प्रकाशित संग्रह ''जज़्बात-ए-नादिर'' के दोनो हिस्सों की फ़ोटो कापी हासिल हुई। इन तमाम चीज़ों को एक साथ देखने पर इस रहस्य का खुलासा होता है।
नादिर काकोरवी का पूरा नाम था शेख़ नादिर अली ख़ान। लखनऊ से कुछ दूर काकोरी के अब्बासी ख़ानदान के इस चश्म-ओ-चिराग़ का जन्म 1867 को हुआ। पिता का नाम शेख़ हामिद अली और दादा शेख़ तालिब अली। कम उम्री में ही नादिर की शादी मुंशी नक़ी अली की साहिबज़ादी शरीफ़-उल-निसा बेग़म उर्फ़ बंदा बीबी से हो गई थी। कुल तीन औलादें - दो बेटियां और एक बेटा - थीं।
उस वक़्त की रिवायत के मुताबिक नादिर की शुरूआती तालीम घर पर ही हुई और उसके बाद जाकर बाकायदगी से तालीम हासिल की। शाइरी का शौक बचपन ही से था। 19वीं सदी का वह दौर अदब के लिहाज़ काफ़ी सर-सब्ज़ था। ख़ासकर उर्दू के लिए। मिर्ज़ा ग़ालिब, ज़ौक़, दबीर जैसे उस्तादों के पीछे-पीछे अल्ताफ़ हुसैन 'हाली', अकबर इलाहाबादी, ख़्वाजा हसन निज़ामी की आमद से यह चमन गुल-ओ-गुलज़ार था।
इसी दौर में नादिर काकोरवी ने उस दौर की मशहूर अदबी पत्रिकाओं अवध पंच, दिल गुदाज़, ज़माना, खदंग नज़र में अपनी रचनाएं भेजना शुरू कीं। याद रहे कि इन पत्रिकाओं के संपादक अपने वक़्त के बलंद पाया अदीब भी थे। इन संपादकों में से एक थे उस दौर के धुरंधर लेखक अब्दुल हलीम 'शरर', जिनकी आम पहचान 'गुज़िश्ता लखनऊ' के लेखक की है लेकिन हक़ीक़त यह है कि वे 100 से ज़्यादा किताबों के लेखक हैं। शरर उन दिनो 'दिल गुदाज़' के संपादक थे। नादिर के बारे में वे लिखते हैं।
''मुल्क में यूं तो बहुत से दीवान और बहुत सी मसनवियां शाए होती रहती हैं मगर उर्दू शाइरी की दुनिया में मुंशी नादिर अली ख़ान साहब नादिर काकोरवी की नज़्मों का यह मजमूआ सबसे जुदागाना चीज़ है जिसके ख़्यालात बिल्कुल नए और जिसका असर ख़ास किस्म का होगा।
हज़रत नादिर ने कोशिश की है कि अंग्रेज़ी शाइरी के लतीफ़ मज़ाक़ को उर्दू में पैदा करें, चुनांचे इस मजमूए में अक्सर तो अंग्रेज़ी की मशहूर नज़्मों के तर्जुमे हैं और बहुत सी नज़्में जो शाइर के असली ख़यालात व जज़्बात को ज़ाहिर कर रही हैं वह भी इस क़दर अंग्रेज़ी शाइरी के रंग में डूबी हुई हैं उन पर भी तर्जुमे का ही धोका होता है।
हज़रत नादिर ने शुअरा-ए-उर्दू की एक नए मैदान में रहबरी की है और एक बहुत वसी हद तक कामयाब हुए हैं, लिहाज़ा क़द्रदानाना-ए-अदब उर्दू को उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।'' (मौलवी अब्दुल हलीम शरर, एडीटर 'दिल गुदाज़' लखनऊ- जज़्बात-ए-नादिर से)
ऐसी आला सलाहियतों के मालिक नादिर काकोरवी की ज़िंदगी का सबसे बड़ा त्रासद हिस्सा है उनकी छोटी सी उम्र में गुज़र जाना। 1910 में उनके कलाम 'जज़्बात-ए-नादिर' के प्रकाशन के महज़ दो साल बाद ही उनका देहांत हो गया। उसके बाद उनके कलाम को अगले मकाम तक ले जाना वाली कोई मुनासिब सा 'हाली' न मिल पाया।
ज़की साहब के मुताबिक ''नादिर काकोरवी के जदीद ख़यालात, मुल्की हालात और सियासत से बड़ी दिलचस्पी थी। वह आलमी और तारीख़ पर भी नज़र रखते थे। अंग्रेज़ी हुकूमत की सख़्त-गीरी के बावजूद कांग्रेस पार्टी के सरगर्म मेम्बर रहे और उन्हें अंग्रेज़ों की गुलामी और मज़ालिम का शिद्दत से अहसास था। उनको अपने वतन से इंतिहाई मुहब्बत थी। वह हिंदू-मुस्लिम दोस्ती के सच्चे अलमबरदार थे। नादिर अदब बराए ज़िंदगी की नज़रिया के क़ाइल और तरक़्क़ी पसंदी के अलमबरदार थे।''
नादिर काकोरवी की हक-गोई और इंक़लाबी अंदाज़ 'जज़्बात-ए-नादिर' में मौजूद उनकी कई सारी नज़्मे हैं। मसलन यह 'हुक़ूक़-ए-रिआया' ।
साइल सरे अदालत अगर दाद-ख़्वाह है (साइल - फ़रियादी)
हाकिम की राए, दे कि न दे बादशाह है
लेकिन ग़रीब पर है बग़ावत का जुर्म क्यों
अपने हुक़ूक़ मांगने में क्या गुनाह है
(हुक़ूक़-ए-रिआया)
इससे भी बहुत आगे जाकर पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जिस तेवर से वह बात करते हैं, वह सचमुच रोंगटे खड़े कर देने वाला है।
पुरानी दुनिया का नया इंतज़ाम   ('अवध पंच' 8 मार्च 1906)
ज़रा खोल आंख ओ नेरंग-ए-ग़फ़लत के तमाशाई
ज़रा कर ग़ौर अपने दिल में ओ मेहव-ए-ख़ुद-आराई
कि क्यों है इक तू ही साक़ी व मुतर्रिब का शैदाई
तुझी को एक क्यों है इन बिसात-ए-बादा-पैमाई
तेरे दर पर खड़ा जो हाथ फैलाए वह साइल है
अरे तेरा ही ऐसा उसके सीने में भी इक दिल है
सबब क्या है कि रहने को तेरे ईवान-ए-शौकत हो
तुझे क्या हक़ है जो हासिल तुझे सामान-ए-राहत हो
मय्यसर तुजको यह सब कर्रो-फ़र्र बे-मशक़्क़त हो
तुझे भी क्यों फिक्र-ए-रिज़्क़ और फिक्र-ए-मईशत हो
तेरे इशरत सरा में शादियाना रोज़-ओ-शब क्यों हो
मुबारकबादियां क्यों हों नो-आहंग तरब क्यों हो  
ख़ुदा ने आसमान से जब लुटाये ख़्वान दौलत के
ज़मीं ने ख़्वान जिस दम चुन दिए अलवान-ए-नियामत के
फ़लक ने ख़ोल जब चश्मे दिए बारान-ए-रहमत के
तो वो सामान थे बू-अल-हवस, इक आम दावत के
ये मंशा तो न था सबको अकेला तू ही खा बैठे
बटोरे सारी दौलत और तू तन्हा दबा बैठे
ग़रज़मंदों से तू करता चबाकर है बहुत बातें
तुझे मालूम है उनके सताने की बहुत घातें
झिड़क उठा, सुना बैठा, उन्हें बेवजह सलावातें
यह अहसानात हैं तेरे, यह हैं तेरी मुद्दारतें (मेहमान नवाज़ी)
तुझे क़द्र-ए-अमन मालूम जब हो, जब परेशान हो
और उस साइल ही से तू साइल-ए-यक पारा नान हो
वह हिंदू है कि ईसाई, तुझे उससे अदावत क्यों?
अगर वो ग़ैर मज़हब है तो तुझको उससे नफ़रत क्यों?
ग़रीबों, वाजिब-अल-रहमों से इस दर्जा राऊनत क्यों?
भलाई में तुझे यह इम्तियाज़-ए-कौम-ओ-मिलत क्यों?
तासुब बेक़सों, आफ़त के मारों से, रवा कब है
अरे अख़लाक़ ही सारे जहां का एक मज़हब है
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रहे बस सल्तनत निगरां हयात-ए-बामशक़्क़त की
वही मालिक रहे सारी ज़िराअत और तिजारत की
करे अमलाक़ सबकी ज़ब्त, ता आदत हो मेहनत की (मिल्कियत)
रियाया के लिए हाजत ही क्या है माल-ओ-दौलत की
लिबास मौसमी मिलता रहे हर एक को शिशमाही
करे तक़्सीम दोनो वक़्त खाना मतबख-ए-शाही (शाही बावर्चीख़ाना)
न हो टक्साल-ए-शाही, और न सिक्के ढेर घर-घर हों
न चौकीदार हों, न यह पहरे मुक़र्रर हों
हक़ीक़त के न झगड़े हों, शिकायत के न दफ़्तर हों
न तू मारे जराइम हो, न यह डिप्टी कमिश्नर हों
मगर छोटी सी इक पुलिस हो जो पहरा भी दे शब को
वही खाना, वही कुछ दाल, दलिया बांट दे सबको
न बाज़ारें न दुकानें न गाहक हों न व्योपारी
न मेवे बिकने पावें और न बिकने पाए तरकारी
ग़रज़ यक-लख़्त करके ज़ब्त बाग़ात-ए-ज़मींदारी
दो वक़्ता फ़ल-फुलारी बांट दें अमाल-ए-सरकारी
किसी को यह न हक़ हो जो कहे हमको बढ़ाकर दे
वही उसका हो जो सरकार उसको हाथ उठाकर दे
अमीरों के दर-ए-दौलत पे नक़ारा न नौबत हो
मुसाहिब हों, न पहरे हों, न कोई बहर-ए-ख़िदमत हो
लिवास-ए-पुर-तक़ल्लुफ़ हो न बज़्म ऐश-ओ-इशरत हो
ग़रज़ मैं क्या कहूं, जो उनकी हालत और जो गत हो
इन्हें सरकार से वर्दी जो तनपोशी को मिलती हो
वह क्या हो, एक कुर्ता, एक ग़र्की, एक पगड़ी हो (ग़र्की - लुंगी)
बहुत यह सूद खाने वाले तोंद अपने बढ़ाए हैं
बड़े ठस्से से यह बैठे हुए मसनद लगाए हैं
बहुत अकड़े हुए हैं और बहुत मूंछें चढ़ाए हैं
बहुत यह हाथ-पांव अपने मेहनत से बचाए हैं
कड़ी पड़ती हो जब धूप और जब शिद्दत हो गर्मी की
भरे ठेले यह रेती में चलाएं हात तेरे की
पड़े मौका तो यह बेगार भी बे-उज़र दे जाएं
ज़रूरत हो तो जंगी काम भी उनसे लिए जाएं
जहां चलती हों तलवारें, यही आगे किये जाएं
बरसते हों जहां गोले यही ज़द पर धरे जाएं
हुकूमत उनसे जो कुछ चाहती हो काम लेती हो
कभी जंग और कभी जंगल में उनको हांक देती हो
महल खुद-खुद के ऊंचे-ऊंचे सब मिसमार हो जाएं
सुकूनत के लिए बस बारकें तैयार हो जाएं
सब इस यक़सानियत की ज़िंदगी में यार हो जाएं
हलीम-उ-तब्बा, नेक अतवार, ख़ुश किरदार हो जाएं
न तमा माल-ओ-दौलत हो, लुटेरे हों न डाकू हों
न क़त्लू हों यहां पैदा न यां पैदा हलाक़ू हों
ग़रज़ कालीन और दरियां बुनें सब कारख़ानो में
रहें मसरूफ़ दिन भर सन्नत-ओ-हुर्फ़त के कामो में
इधर तैयार होकर माल जाए ग़ैर मुल्कों में
उधर तोड़े के तोड़े आएं लद-लद कर जहाज़ों में
चले जब कारोबार-ए-मुल्क इस ख़ुश इंतज़ामी से
तो बच जाए रियाया हम रियाया की ग़ुलामी से
मगर उस वक़्त शाइर आह यह किस मद में आएंगे?
क़सीदे किस के लिखेंगे, किसे जाकर सुनाएंगे
सुनेगा कौन उनकी और यह किससे दाद पाएंगे ?
कहां से आएंगे मुत्तरिब कि ग़ज़लें इनकी गाएंगे
यह होने का नहीं दुनिया की महफ़िल उनसे ख़ाली हो
मगर तब शाइरी भी उनकी शायद कुछ निराली हो
एक दिलचस्प बात यह है कि इस नज़्म को 'अवध पंच' के संपादक ने छाप तो दिया लेकिन इसी के नीचे हल्के से अपना नुक़्ता-ए-नज़र भी साथ ही लिख दिया। ''अवध पंच - तज्वीज़ तो माक़ूल है लेकिन इंक़लाब-ए-अज़ीम है। दुनिया बिल्कुल बेमज़ा और ज़िंदगी बिल्कुल सीठी हो जाएगी। लिहाज़ा
नहीं जिस तरह दुनिया चल रही है उसको चलने दो
संभलती जाती हैं क़ौमें उन्हें ख़ुद ही सम्भलने दो
अजी बाजे भी बजने दो, बरातें भी निकलने दो
किसी सूरत से दिल तो यार लोगों का बहलने दो
चमकने दो अगर घोड़े चमक उठते हैं बाजों में
कि उनकी बाग-डोरे मैं लिए हूं अपने हाथों में''
इस बात को यहां दर्ज करना बेहद ज़रूरी है कि 'अवध पंच' के सम्पादक मुंशी सज्जाद हुसैन साहब नादिर के ज़बरदस्त प्रशंसक थे। 15 फरवरी 1906 को अखबार ''आज़ाद'' में नादिर काकोरवी की कुछ रुबाईयां ''चाक-ए-मज़ार'' के नाम से प्रकाशित करते हुए इन रुबाइयों के साथ छपी उनकी टिप्पणी इस बात की एक पुख़्ता दलील है। यहां वो अपने दौर के दीगर शुअरा को नादिर के अंदाज़ से कुछ सीखने की सलाह दे रहे हैं।
''इस दफ़ा हम जनाब नादिर अली ख़ान साहब 'नादिर' की रुबाइयां बग़रज़ तफ़रीह नाज़रीन व इज़हार-इस्लाह तर्ज़-ए-बयां व तख़्युल-ए-शाइराना दर्ज-ए-•ौल करते हैं। इनसे मालूम होगा कि आजकल के मुवाफ़िक़ मज़ाक़-ए-शाइराना क्या और किस ढंग का होना चाहिये और शुअरा को किस जानिब तवज्जा फ़रमाना चाहिये।''
नादिर काकोरवी को अपनी असल शाइरी से ज़्यादा उनके अंग्रेज़ीं तर्जुमों के लिए सबने दिल खोलकर दाद दी। इन दाद देने वालों में एक और बड़ा नाम है 'उमराव जान अदा' के लेखक जनाब मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा का।
''कलाम-ए-नादिर मैने जा-ब-जा से पढ़ा। मुसन्निफ़ का मज़ाक़फ़ितरतन ''तख़्युल साज़ज''(1) की तरफ़ जाता है। यह बात हमारे मुल्की शुअरा में कमतर और शुअराए यूरोप में बेशतर है।
ज़बान के बाब में दिल्ली-लखनऊ के रहने वाले किसी को मानते नहीं लेकिन हक़ यह है कि तहक़ीक़ उन्हीं साहिबो का हक़ है जो ज़बान को इक्तसाबन (  ) हासिल करते हैं। ? तश्बीह और इस्तारे नादिर में हर एक मज़मून अच्छी तरह से सज-सजा के नाज़िर के सामने पेश किया है।''
(1)    ''तख़युल- साज़ज'' - आसान लहजे में - हाय! क्या प्यारी रंगत है / किस क़दर मस्ताना ख़ुश्बू है। 
नादिर काकोरवी ने अंग्रेज़ी से चुन-चुन कर शेक्सपीयर, बायरन, शैली और ख़ास तौर पर सर टामस मूर की कविताओं को अपने भीतर इस क़दर आत्मसात करके उनको अपनी ज़बान में एक ऐसा रंग-रूप दिया है कि यह तर्जुमे असल शाइरी का गुमान पैदा करते हैं। इस क़दर डूबकर काम करने के नतीजे में ख़ुद नादिर की असल शाइरी पर भी अंग्रेज़ी कविता की ऐसी रंगत आ जाती है कि वह उर्दू शाइरी में तब सबसे अलग दिखाई दे जाती है।
नादिर की रचनाओं, चाहे वह उनकी अपनी शाइरी हो कि अंग्रेज़ी से तर्जुमा, उसमे  एक निहायत ख़ूबसूरत बात यह है कि परंपरागत विचारों और कल्पनाओं को रिवायती लफ़्ज़ों की जगह लयदार लफ़्ज़ों की ख़ुश्बू से भरकर बिखेरते हैं। दिल के नाज़ुुक और बारीक अहसासात को भारी-भरकम वज़न से लादने की जगह शीरीं ज़बान में भिगोकर, तितली के से नन्हें-नन्हे नाज़ुक पंख देकर छोड़ देते हैं।
लाईट आफ़ हरम - उर्फ़ लाला रुख़ के तर्जुमे पर नादिर :
ग़रज़ दिलचस्प हैं यह दौर की देरीना आवाज़ें
निशान मिलता है इनसे हमको, आह! उन बेनिशानों का
कि जिनकी ज़ात पर था हस्र देरीना ज़माने में (हस्र - निर्भर, देरीना - पुराना)
तरक़्क़ी का, तमद्दुन का, मज़ाक़ों का, ज़बानों का
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इन्हीं आवाज़ों में है इक टामस मूर का नग़मा
हमारे कान थे ना-आशना जिसके तरन्नुम से
मगर अब वह सुनाई दे रहा है साफ़-तर कितना
मेरे तर्ज़-ए-बयां से, मेरे अन्दाज़-ए-तकल्लुम से (तकल्लुम - बयान, वार्ता)
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अगर तुम ख़ाक भी मरहूम की ढूंढो न पाओगे
मगर गूंजी हुई इक बाज़ गश्त आवाज़ बाकी है
सुनो तारा-ए-तमव्वुज पर हवा के कान रखकर तुम (तमव्वुज - लहरें,हिलोरे)
वह नग़मा उनका बाक़ी है, वह उनका साज़ बाकी है।
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कश्मीर की शाम
और शाम को शहर का नज़ारा
कितना भला, किस क़दर प्यारा
सूरज का सू-ए-ग़रूब जाना
और डूबते-डूबते डूब जाना
वह मंज़र-ए-शह्र अर्श मंज़िल
आईना वह झील का मुक़ाबिल
पानी में वह उसका अक्स आहा!
मालूम यह होता है कि गोया
कोई दुल्हन नई नवेली
कोठे पर है खड़ी अकेली
ख़ुश हो के, लजा के अपने जी में
मुंह देख रही है आरसी में
हर चीज़ पर महवियत का आलम (महवियत - ख़ुमारी)
हर शै से ख़ुशी का ख़ैर-मक़दम
मुंह बांधे कहीं खड़ी हैं कलियां 
ग़ुंचें है कहीं पे नीम ख़ंदां
और मालनें गीत गा रही हैं
बैठी गजरे बना रही हैं
अल्लाह-ओ-अकबर की पाक आवाज़
करती है मस्जिदों से परवाज़
शिवालों में बे-असूल घंटे
अपनी धुन में अलग हैं बजते
मिल-जुल के यह मुख़्तलिफ़ सदाएं
इस वक़्त कुछ ऐसी आ रही हैं
जैसे कोई ताइफ़-ए-ज़नाना (नृत्य करती हुई औरतों का समूह)
जो हिंदोस्तां में हो सबसे अच्छा
महफ़िल में बन-संवर के आए और वह घुंघरू बजा के गाए
कश्मीर की रात
फिर रात का लुत्फ़ चांदनी में
वह शहर का रूप रोशनी में
जब चांदनी इस तरह हो पड़ती
जैसे चान्दनी की ठंडी कलई
है महलों, बाग़ों, वादियों पर
दरिया, सहरा पे, घाटियों पर
और जब झरनों का साफ़ पानी
रह-रह कर यूं करे रवानी
जैसे कौंधा कोई लपक जाए
तारा कोई टूट कर चमक जाए
बुलबुल का नग़मा ख़ुश आयंद
टापू से चनार के हो जब बंद
आहट से, शोर से, हंसी से
पांव की चाप से किसी के 
कश्मीर की सुबह
फिर तड़के नूर की गजर दम
जब तारों की रोशनी हो मद्धम
मशरिक़ की तरफ़ से कुछ सपेदी
ज़र्दी, माइल, ख़फ़ीफ़, हल्की
इक गोशे में सिर्फ़ नूर उसका 
बाकी हर चार सू अंधेरा
बढ़ता जाए वह नूर हरदम
होता जाए वजूद-ए-आलम
पहले वह पहाड़ फिर मुनारे
शिवाले और मकान सारे
फिर सड़कें, कूचे, सहन, गुलशन
रफ़्ता-रफ़्ता हों ऐसे रोशन
सूरज देवता ने उनको गोया
यूं अज़ सर-ए-नौ किया है पैदा
जैसे ज़चा-ख़ानों में चमन के
फूलों के रहम-ए-मादरी से
पैदा होते हैं तायर-ए-बू
और उड़ते हैं चमन में हर सू
हर सुबह इसी तरह यह जलवा
सूरज के बतन से है पैदा
बाद-ए-सहर अपनी शोख़ियों से
माशूक़ाना शरारतों से
हर शाख़ के धौल मारती है
झुक-झुक के वह ज़द बचा रही है
कश्मीर दिन के वक़्त
जब क़िला-ए-कोह से सू-ए-शर्क (पूरब की तरफ)
सूरज कहता उठे इना-अल-बर्क
चमके इस शान से कि कोई
लहराता है परचम-ए-शुआई  (रोशनी का परचम)
वह कोह का मंज़र-ए-निगारीन
सूरज की वह शुआ-ए-ज़रीन
मुक़द्दस सर ज़मीन
मरहबा ऐ मादिर-ए-हिंदोस्तान, जन्नत निशान
मरहबा ऐ भारत, ऐ रूहानियत की सरज़मीं
हम कहे जाएंगे मक्का और मदीना छोड़कर
सारी दुनिया में है तेरी पाक-तर, बेहतर ज़मीं
तू फ़िज़ाइयत में, शादाबी में पैदावार में
सब मुमालिक से है अफ़ज़ल, सब मुमालिक से क़दीम
तुझमें था उस वक़्त नूर-ए-हक़-परस्ती जलवागर
जबकि रोशन भी न थी शमा तज्जला-ए-कलीम
दोज़ख-ओ-जन्नत का दुनिया में दिखा देती वजूद
क्या कोई मामूली ताक़त? या इक इंसानी दिमाग़
रह गए हैरां हुक्मां मिस्र और यूनान के (हुक्मां - फ़िलासफ़र)
तेरे ऋषियों ने लगाया जब तनासुख़ का सुराग़ (तनासुख़ : आत्मा की अनश्वरता)
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तेरे बिंद्राबन से उठा पहले हू-हक़ का खरोश
क्योंकि कि दुनिया का वही पहला इबादत ख़ाना था
वह कन्हैया और वह तेरा बांसुली वाला कृश्न
बाख़ुदा था बर ग़ुज़ीदा था, नबी था या न था (बर ग़ुज़ीदा - चुनिंदा)
सज उठी बांसुली गोकुल में तेरी एक बार
आज तक दुनिया में है आवाज़ उसकी गूंजती
वह ज़माना गुज़रे सदियां हो गईं गो चार हज़ार
आज तक महफ़िल जमी है गोपियों के रक़्स की
सबसे पहले तेरे गौतम और गोपीचंद ने
छोड़कर सब राज-पाट अपना गदाई की क़बूल
और वह आरिफ़, वह तेरा नामवर शाइर कबीर
बंट गए हिंदू-मुसलमां में बराबर जिसके फूल
ऐ बहारिस्तान जज़्बात, ऐ ख़राबात-ए-ख़ुरूश 
सैरगाह सादी, शीराज़-ओ-बज़्म वाल्मीक
है ख़म-ओ-मीना में तेरे ख़ाक़-ए-ख़ुसरो तह नशीन
और मय-ए-अहमर में तेरे ख़ून-ए-सरमद है शरीक (मय-ए-अहमर - लाल
शराब)
अप्रेल 1908 में पत्रिका 'मख़ज़न' में एक और ख़ूबसूरत तर्जुमा भी इसी दाद का हक़दार बनता है।
मरहूमा की याद में (Thomas Moore – Irish Melodies)
''ज़ेल की नज़्म जादू बयान टामस मूर की ''Irish Melodies'' से एक मुख़्तसर और पुर-ग़म नज़्म का तर्जुमा है। इस तर्जुमे को हम उर्दू इल्म-ओ-अदब के फ़ाज़िलों की ख़िदमत में नहीं बल्कि उन सोगवारों और मुसीबत के मारों की ख़िदमत में पेश करते हैं जिनको किस्मत ने कोई ऐसा ही सदमा पहुंचाकर हमेशा के लिए मग़मूम कर दिया और जिनके दिल-दिमाग़ ऐसे पुर-ग़म तख़्ख़युल में शरीक़ होने के लिए हर वक़्त तैयार रहते हैं। हां! उन्हीं की ख़िदमत में यह नज़्म पेश की जाती है और वही मुसनिफ़ के पाक ख़्यालात और मुतर्जम के पुर-ग़म जज़्बात की क़द्र कर सकते हैं।  (नादिर)
रात के पिछले पहर रोती हैं जब चश्म-ए-नजूम ( सितारों की आंख के आंसू -
ओस की बूंदें)
उल्फ़त-ए-देरीना के वादी में उड़ जाता हूं मैं
और उस वादी में मरहूमा जो याद आती हो तुम
मह्व हो जाता हूं कुछ ऐसा मज़ा पाता हूं मैं (मह्व - खो जाना)
वह मकान, वह क़स्र, वह तुम, वह तुम्हारी हसरतें (कस्र - महल)
वह गिले, वह उज्ऱ, वह गुज़री हुई दिलचस्पियां
देर तक करता हूं मैं याद - आह उन अय्याम को
हाए वह रातें कहां, वह दिन कहां, वह तुम कहां
उस सुकूत, उस महवियत में फिर यह आता है ख़्याल
रूहें मंडलाती हैं गर ओज-ए-फ़िज़ा-ए-अर्श पर
और छिपकर आती हैं इस ख़ाकदान-ए-इश्क़ में
ताकि देरीना अलाइक़ देख लें फिर एक बार (अलाइक़ - सम्बंध)
शायद आ जाए तुम्हारी रूह भी और यह कहे
क्या बताऊं जन्नत-अल-मावा में मैं कैसी रही
इस जुदाई में रहा मेरा तुम्हारा एक हाल
तुम यहां रोते रहे और मैं वहां रोती रही
फिर सरापा शौक़ होकर वह ग़ज़ल गाता हूं मैं
तुम जो तन्हाई में चुपके-चुपके गाती थीं कभी
गूंजकर जब नग़मा टकराता है तो कहता हूं मैं
यह तुम्हारी रूह-ए-मज़तर आती है गाती हुई
यह लब-ओ-लहजा वही है, यह सुरीलापन वही
लेकिन अब इसमे तो कुछ-कुछ ज़ौफ़ का अंदाज़ है (ज़ौफ़ - कमज़ोरी)
और फिर कुछ सोचकर, पहचान कर कहता हूं मैं
यह वही आवाज़ है, बेशक वही आवाज़ है।
At the mid hour of night, when stars are weeping, I fly
To the lone vale we loved, when life shone warm in thine eye;
And I think oft, if spirits can steal from the regions of air,
To revisit past scenes of delight, thou wilt come to me there,
And tell me our love is remember՚d, even in the sky.
Then I sing the wild song ՚twas once such pleasure to hear!
When our voices commingling breathed, like one, on the ear;
And, as Echo far off through the vale my said orison rolls,
I think, oh my love! ՚tis thy voice from the Kingdom of Souls,
Faintly answering still the notes that once were so dear.
Thomas Moore
''इक़बाल के मुआसरीन'' के लेखक मुहम्मद अब्दुल्ला क़ुरेशी, नादिर का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं; ''...उनका (नादिर का) इंतक़ाल ऐन जवानी के आलम में हुआ और लोगों ने उनकी ज़ात से जो उम्मीदें वाबस्ता रखी थीं वह यक-दम ख़ाक़ में मिल गईं। मगर नादिर सारी उम्र इस बात के गिला-मंद रहे कि उन्हें साज़गार माहौल मय्यसर न आया, कोई क़द्रदान-ए-सुख़न न मिल सका :
नादिर अफ़सोस! क़द्रदान-ए-सुख़न एक हिंदुस्तां में न रहा
दरअसल वह ज़माना ऐसा था कि हिंदुस्तान में हुनर का क़द्रदान ही कोई न था और अगर था भी तो अपने फ़राइज़ से ग़ाफ़िल था। अल्लामा इक़बाल भी इन्हीं हालात से गुज़र रहे थे। वह ख़ुद कहते हैं :
ज़ौक़-गोयाई ख़मोशी से बदलता क्यों नहीं?
मेरे आईने से यह जोहर निकलता क्यों नहीं?
इस लिहाज़ से दोनो शाइर एक ही कश्ती में सवार थे।''
नादिर काकोरवी अभी दुनिया की जद्दो-जहद में उलझे ही थे कि जीने की जद्दो-जहद ने आन जकड़ा। डिप्थीरिया की बीमारी ने आ घेरा और वह तमाम इलाज के बावजूद कोई राहत न पा सके। इस बीमारी ने उन्हें पूरी तरह से तोड़ डाला। निराशा-हताशा के इसी आलम में अपने एक दोस्त मौलाना सग़ीर बिलग्रामी को अपना हाल यूं लिख भेजा।
हुए हैं बीमार सब, पर तुमने साधी ऐसी चुप
हाल भी कहते नहीं नादिर, तुम अपना साफ़-साफ़
हाए मैं कम्बख़्त हाल अपना कहूं तो क्या कहूं
एक ज़ख़्म अंदर गले के, और एक बाहर शिगाफ़
इस बीमारी ने आख़िर इस हक-परस्त, इंसानियत के मुजाहिद और एक खूबसूरत शाइर का गला घोंट ही दिया। जाते-जाते एक शेर ज़रूर कह गए.
क़फ़स में मुर्ग-बिस्मिल यूं तड़पने का मज़ा क्या है?
निकल जान-ए-हज़ीं इस जिस्म-ए-ख़ाक़ी में धरा क्या है?
(मुर्ग-बिस्मिल - घायल मुर्ग, जान-ए-हज़ीं - नाज़ुक जान)

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